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________________ (8) आचार्य जयसेन लिखते हैं-"जो कायादि की चेष्टा कषायरहित भाव या बुद्धिपूर्वक नहीं होती अर्थात् संक्लेश सहित होती है वह अप्रयत्नाचर्या है । जो निर्विकार स्वसंवित्तिरूप प्रयत्न से रहित होता है उसके शुद्ध चैतन्य रूप अपने प्राणों का व्यपरोपण निरन्तर होता रहता है। फिर बाह्य में अन्य जीव का मरण हो या न हो उसके निश्चय हिंसा होती है । द्रव्य हिंसा मान्न से, बाह्य अभ्यन्तर में जो प्रयत्न परायण है, उसके बंध नहीं होता। जो शुद्ध आत्मस्वरूप में सम्पक रूप से गत-अवस्थित-परिणत है, जो व्यवहार में ईर्या आदि पांच समितियों से युक्त है तथा जो सदा प्रयत्नवान् है ऐसे मुनि के द्रव्य हिंसा मात्र से बन्ध नहीं होता। क्योंकि वह निर्विकार है । हिंसा दो प्रकार की कही गई है-एक निश्चय हिंसा और दूसरी व्यवहार हिंसा । स्व स्वभावरूप निश्चय प्राणों के विनाश की कारणभूत रागादिरूप परिणति निश्चय हिंसा कही गई है। रागादि के उत्पन्न होने पर निमित्त रूप से बहिरङ्ग में जो परजीवघात होता है वह व्यवहार हिंसा है। जानने की विशेष बात यह है कि बहिरङ्ग हिंसा हो या न हो स्व स्वभावरूप निश्चय प्राण के घात से निश्चय हिंसा नियम से होती है। इस कारण से वही मुख्य है। शुद्धात्मसंवित्ति लक्षण रूप शुद्ध उपयोग से परिणत पुरुष द्वारा षड्जीव से व्याप्त इस लोक में विचरण करते हुए बहिरङ्ग द्रव्य हिंसा हो जाय तो भी इतने भर से निश्चय हिंसा नहीं होती। यहां सूक्ष्म जीवघात में जितने अंश से स्वभाव से चलनरूप रागादि परिणति रूप लक्षण वाली भाव हिंसा होती है उतने ही अंश में बंध होता है । पाद-संघट्ट मात्र से उस तपोधन के रागादि परिणति लक्षण रूप हिंसा नहीं होती इसी कारण उसके बंध भी नहीं होता। (9) पाण्डे हेमराज जी लिखते हैं : “संयम का घात ही अशुद्ध उपयोग है क्योंकि मुनिपद शुद्धोपयोग रूप है। अशुद्धोपयोग से मुनिपद का नाश होता है। अशुद्धोपयोग का होना ही हिंसा है । सब से बड़ी हिंसा ज्ञानदर्शन रूप शुद्धोपयोग के घात से होती है । वह अशुद्धोपयोग मुनि के निरन्तर उस समय ही समझना चाहिए, जिस समय मुनि सोना, बैठना, चलना इत्यादि क्रियाओं में यत्नपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करता। यत्न के बिना मुनि की क्रिया अट्ठाईस मूलगुण की घातिनी है । यत्न उस समय नहीं होता, जिस समय उपयोग की चंचलता 28. प्रवचनसार : तात्पर्यवृत्तिः 31216-18 : बाह्यव्यापाररूपा: शत्रवस्तावत्पूर्वमेव व्यक्ताः तपोधनः, अशनशयनादिव्यापारैः पुनस्त्यक्तं नायाति । तत: कारणादन्तरङ्गक्रोधादिशनिग्रहार्थं तत्रापि संक्लेशो न कर्तव्य इति ॥2161 स्वस्थभावनारूपनिश्चयप्राणस्य विनाशकारणभूता रागादिपरिणतिनिश्चयहिंसा भण्यते रागाद्युत्पत्तेर्बहिरङ्गनिमित्तभूतः परजीवधातोव्यवहारहिसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या। किन्तु विशेषः बहिरङ्गहिंसा भवतु वा मा भवतु, स्वस्थभावनारूपनिश्चयप्राणघाते सति निश्चयहिंसा नियमेन भवतीति । ततः कारणात्सव मुख्येति ॥ शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणशुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः षड्जीवकुले लोके विचरन्नपि यद्यपि बहिरङ्गद्रव्य हिंसामात्रमस्ति, तथापि निश्चयहिंसा नास्ति । ततः कारणाच्छुद्धपरमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसव सर्वतात्पर्येण परिहर्तव्येति ।।218।। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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