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________________ होती है । यदि उपयोग की चंचलता न हो तो यत्न अवश्य हो। इसलिए उपयोग की निश्च ता है, वही शुद्धोपयोग है । यत्न सहित क्रिया से भंग नहीं होता और यत्न रहित क्रिया से भंग होता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि मुनि की जो यत्नरहित क्रियाओं में प्रवृत्ति है, वह सब निरन्तर शुद्धोपयोग रूप संयम की घात करने वाली हिंसा ही है । हिंसा दो प्रकार की है, एक अन्तरङ्ग और दूसरी बहिरङ्ग । ज्ञान प्राण का घात करने वाली अशुद्धोपयोग— रूप प्रवृत्ति को 'अन्तरङ्ग हिंसा' कहते हैं । बाह्य जीव के प्राणों का घात करने को बहिरङ्ग हिंसा कहते हैं । इन दोनों में अन्तरङ्ग हिंसा बलवती है, क्योंकि बाह्य में दूसरे जीवों का घात हो या न हो, मुनि की यत्नरहित हलन चलनादि क्रिया हो तो मुनि के यत्नरहित आचार से अवश्यमेव उपयोग की चंचलता होती है । अतएव अशुद्धोपयोग होने से आत्मा के चैतन्यप्राण का घात होता है । इसलिए हिंसा अवश्यमेव है और यदि मुनि यत्न से पांच समितियों में प्रवृत्ति करे तो वह मुनि उपयोग की निश्चलता से शुद्धोपयोग रूप संयम का रक्षक होता है । इसलिए बाह्य में कदाचित् दूसरे जीव का घात भी हो, तब भी अन्तरङ्ग अहिंसक भाव के बल से बन्ध नहीं होता। इसलिए शुद्धोपयोग रूप संयम की घात करने वाली अन्तरङ्ग हिंसा ही बलवती है । अन्तरङ्ग हिंसा से अवश्य ही बंध होता है । किन्तु बाह्य हिंसा से बन्ध होता भी है और नहीं भी होता । यदि यत्न करने पर भी बाह्य हिंसा हो जाय तो बन्ध नहीं होता और जो यत्न न हो तो अवश्य ही बाह्य हिंसा बन्ध का कारण होती है । बाह्य हिंसा का जो निषेध किया है, सो भी अन्तरङ्ग हिंसा के निवारण के लिए ही । इसलिए अन्तरङ्ग हिंसा त्याज्य है | और शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भाव उपादेय है । जिस समय उपयोग रागादि भाव से दूषित होता है, उस समय अवश्यमेव यति क्रिया में शिथिल होकर गुणों में यत्न रहित होता है । जहाँ यत्न रहित क्रिया होती है, वहां अवश्यमेव अशुद्धोपयोग का अस्तित्व है । यत्न रहित क्रिया से षट्काय की विराधना होती है । इससे अशुद्धोपयोगी मुनि के हिंसक भाव से बन्ध होता है । जब मुनि का उपयोग रागादि भाव से रंजित न हो, तब अवश्य ही यति क्रिया में सावधान होता हुआ यत्न से रहता है, उस समय शुद्धोपयोग का अस्तित्व होता है, और यत्नपूर्वक क्रिया से जीव की विराधना का उसके अंश भी नहीं है । अतएव वह अहिंसाभाव से, कर्ममल से रहित है और यदि यत्न करते हुए भी कदाचित् परजीव का घात हो जाय तो भी शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भाव के अस्तित्व से कर्मलेप नहीं लगता । जिस प्रकार कमल यद्यपि जल में डूबा रहता है, तथापि अपने अस्पृश्य स्वभाव से निर्लेप ही है, उसी तरह यह मुनि भी होता है । इसलिए जिन-जिन भावों से शुद्धोपयोग रूप अन्तरङ्ग संयम का सर्वथा घात हो, उन-उन भावों का निषेध है, और अन्तरङ्ग संयम के घात का कारण, परजीव के बाधारूप बहिरङ्ग संयम का भी घात सर्वथा त्याज्य है 129 ( 10 ) पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है - निश्चयकर कषायरूप परिणमन हुए मन वचन काय के योगों से जो द्रव्य और भाव रूप दो प्रकार के प्राणों काव्यपरोपण करता है, वह अच्छी तरह निश्चय की हुई हिंसा होती है । निश्चय करके रागादि भावों का प्रकट न होना यह अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्ति होना 29. प्रवचनसार, बालावबोध भाषा टीका 31216-18 खण्ड: ४, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only १३३ www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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