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________________ सूत्र-अनुसार वर्तन करने वाले साधु को ऐपिथिकी क्रिया लगती है और सूत्र विरुद्ध वर्तन करने वाले को साम्परायिकी क्रिया लगती है । उपर्युक्त संवरयुक्त अनगार सूत्र के अनुसार वर्तन करता है इसलिए उसे ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती 113 __यह भङ्ग सापेक्ष है । निम्न लिखित शर्ते पूरी होने पर ही यह घटित होता है, अन्यथा नहीं । 2. व्यक्ति संवृत अनगार-साधु-मुनि होना चाहिए । संसार से विरक्त हो, सर्व का परित्याग कर, अठारह पापों का त्याग कर यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात विरमण महाव्रत, सर्व मृषावाद विरमण महाव्रत, सर्व अदत्तादान विरमण महाव्रत, सर्व मैथुन विरमण महाव्रत, सर्वपरिग्रह विरमण महाव्रत, सर्व रात्रि विरमण व्रत को धारण करने वाला गृह रहित भिक्षु होना चाहिए। 2. पांच समिति और तीन गुप्ति- इन आठ प्रवचन माताओं का पालन करने वाला होना चाहिए अर्थात् चलने-फिरने, बोलने आहार आदि प्राप्त करने, वस्तुओं को रखने-उठाने तथा मल-मूत्र आदि व्युत्सर्ग करने की क्रिया में सूत्र विधि के अनुसार वर्तन करने वाला चाहिए। साथ-साथ मन, वचन, काय से गुप्त होना चाहिए। 3. जिस कार्य अथवा उद्देश्य के लिए उठा हो वह कार्य अथवा उद्देश्य साधु-जीवन के साथ संगति रखने वाला अर्थात् कल्प्य होना चाहिए। 4. कार्य करते समय यतना होनी चाहिए, कषाय नहीं होना चाहिए, हिंसा के लिए उत्थान नहीं होना चाहिए। सूत्र विधि की सुरक्षा होनी चाहिए। आदि-आदि शतों में से यदि किसी की पूर्ति या पालन नहीं होता हो तो उस हालत में भावतः हिंसा का अभाव नहीं कहा जा सकेगा। 13. भगवती शतक 18 उद्देश : 8 सू० 159-161 : अणगारस्स णं भंते। भावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते । किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ ? सपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जोवि-तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । से केणढेणं भंते । एवं वुच्चइ ? अणगारस्स णं भवियप्पणो जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया कज्ज इत्ति । गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-मायालोभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ । अहासुत्तं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ, से णं अहासुत्तम् रीयइ से तेण→णं । गोयमा ! जाव नो संपराईया किरिया कज्जइ॥ खण्ड ४, अंक २ १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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