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________________ हुए संयती-द्वारा जो विराधना होती है वह निर्जरा फल की देने वाली होती है ।। सूक्ष्म भी बंध नहीं होता-इसका अर्थ है सूक्ष्म भी पाप का बन्ध नहीं होता। उसे जीव-घात से हिंसा का फल नहीं होता अर्थात् हिंसा-जन्य पाप-फल नहीं होता। टीकाकार द्रोणाचार्य ने लिखा है : कभी-कभी ऐसा होता है कि विधि से यत्नपूर्वक कार्य करते हुए साधु से भी किसी अदृष्ट प्राणी की घात हो जाती है और कभी ऐसा होता है कि प्राणी दिखाई देता है पर यत्न करने पर भी साधु उसकी रक्षा नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में शुद्ध के निमित्त से जो जीव-विनाश होता है, उसका उस साधु को हिंसा-फल नहीं होता अर्थात उसके साम्परायिक-संसार को उत्पन्न करने वाले -दु:ख को उत्पन्न करने वाले कर्मों का बन्ध नहीं होता, पर ईप्रित्ययिक-कर्म बन्ध होता है, जो एक समय में वन्ध और दूसरे समय में क्षय को प्राप्त हो जाता है ।12 भद्रबाहु ने जो कहा है- उसका आधार आगम है। भगवती सूत्र में निम्नलिखित प्रश्नोत्तर प्राप्त हैं : 'भगवन् ! आगे और दोनों ओर युग-प्रमाण भूमि को देखकर गमन करते हुए भावितात्मा अनगार के पैर के नीचे कूकड़ी का बच्चा, बतक का बच्चा अथवा कुलिंगी आकर मरण प्राप्त करे तो उस अनगार को ऐपिथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया ?' गौतम ! उस अनगार को ऐर्यापथिक क्रिया लगती है पर साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती।' 'भगवन ! ऐसा आप किस हेतु से कहते हैं ?' 'गोतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नाश को प्राप्त हो गये हैं उसे ऐर्या. पथिकी क्रिया लगती है पर साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ व्युच्छिन्न नहीं हुए हैं उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है पर ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती। 11. ओघनियुक्ति गा० 751 से 752; 759-760 : नाणी कम्मस्स खयद्वमुट्ठिओऽणुट्ठिओ य हिंसाए। जयइ असढं अहिंसत्थमुट्ठिओ अवहओ सो उ ।। तस्स असंचेअयओ संचेययतो य जाइ सत्ताई। जोगं पप्प विणस्संति नत्थि हिंसाफलं तस्स ।। न य हिंसामित्तेणं सावज्जेणावि हिंसओ होइ । सुद्धस्स उ संपत्ती अफला भणिया जिणवरेहि ।। जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥ 12 टीका पत्र 220 : तव नास्ति तस्य साधोहिंसाफलं-साम्परायिकं संसारजननं दुःखजननमित्यर्थः, यदि परमीर्याप्रत्ययं कर्म भवति, तच्चकस्मिन समये बद्धमन्यस्मिन समये क्षपयति। १२४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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