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समिति युक्त साधु के पैर से प्राणी-वध हुआ, जीव-धात हुआ अत: द्रव्यतः हिंसा है। पर साधु सर्व भाव से अपने प्रयोग में अनवद्य है अत: भावतः हिंसा नहीं है । प्रमाद के योग से प्राणों का व्यपरोपण हिंसा है । चूकि साधु अप्रमत्त है अत: जीव-घात-द्रव्यत: हिंसा होने पर भी भावतः हिंसा नहीं है।
अभयदेव सूरि ने इस भंग के विषय में एक शंका उठाकर उसका निवारण इस रूप में किया है : "चार भंगों में यह पहला भंग युक्त नहीं है। क्योंकि इस भंग में हिंसा का लक्षण नहीं घटता । द्रव्य हिंसा अर्थात् ईर्यासमिति पूर्वक गमन करने वाले जीव द्वारा चींटी आदि जीवों का व्यापादन । ऐसे लक्षण वाली द्रव्य हिंसा में हिंसा का लक्षण ही नहीं घटता। कहा है - जो मनुष्य प्रमत्त होता है उसकी क्रिया से जीवों का हनन हो तो उन जीवों का हनन करने वाला वह प्रमत्त पुरुष कहलाएगा।' यह लक्षण प्रथम भंग में नहीं जाना जाता अतः उसे हिंसा कैसे कहा जाय ? समाधान—यह शंका युक्त नहीं । कारण उक्त गाथा में हिंसा का जो लक्षण बताया गया है वह द्रव्य हिंसा का नहीं पर द्रव्य और भाव हिंसा का है। द्रव्य हिंसा का लक्षण मात्र मरण है और वह प्रथम भंग में घट जाता है अतः शंका के. लिए कोई स्थान नहीं।"
ओघनियुक्ति में भद्रबाहु ने इस भङ्ग की मार्मिक व्याख्या देते हुए लिखा है : ईर्यासमिति से युक्त साधु द्वारा संक्रमण के लिए पैर उत्पाटित करने पर कुलिंगी-द्वीन्द्रिय जीव को व्यापाद-परिताप पहंचने या उस व्यापादन योग से वह मारा जाय तो भी उस वध के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म बंध भी नहीं कहा है। क्योंकि वह साधु प्रयोगतः—व्यापारत:- क्रिया में सर्व भाव से-मन, वचन, काय से अनवद्य-निष्पाप होता है । जो ज्ञानी कर्मक्षयार्थ उद्यत है, हिंसार्थ उद्यत नहीं, अशठभाव से सदा यत्नवान् है तथा सदा अहिंसा के लिए उत्थित है, उस साधु से कदाचित् प्राणी-घात हो भी जाय तो भी वह साधु अवधक ही है । ऐसे साधु के योग से- निमित्त से, जान या अजान में जो भी सत्त्व विनाश को प्राप्त होते हैं, उसे उस विनाश का हिंसा फल नहीं होता है । हिंसामान और सावध से उक्त० पुरुष हिंसक नहीं होता। क्योंकि जिनवर के द्वारा शुद्ध पुरुष की कर्म सम्प्राप्ति अफल कही गई है। सूत्र विधि से समग्र अध्यात्म विशोधि से युक्त यत्न करते
9. भगवती श० 1 उ० 3 सू० 38 की टीका पृ० 106 : तत्र च द्रव्यतो नाम एका हिंसा, न भावत इत्यादिचतुर्भङ ग्युक्ता, न च तत्र प्रथमोऽपि भङ्गो युज्यते, यतः किल द्रव्यतो हिंसा ईसिमित्या गच्छतः पिपीलिकादिव्यापादनम्, न चेयं हिंसा तल्लक्षणायोगात् । तथाहि :-"जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुच्च जे सत्ता, वावज्जति नियमा तेसि सो हिंसओहोइ", त्ति । उक्ता चेयम्, अतः शङ्का, न चेयं युक्ता, एतद् गाथोक्त हिसालक्षणस्य
द्रव्य-भावहिंसाश्रयत्वात्, द्रव्यहिंसायास्तु मरणमानतयारूढत्वादिति । 10. 'हिंसा मात्र और सावध से' – साधु के निमित्त से होने वाले बाह्य जीवघात या
पाप-कार्य से । देखिये टि० 6
खण्ड ४, अंक २
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