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भद्रबाहु विरचित ओघनियुक्ति की दो गाथाओं को उद्धृत कर दिया है। हरिभद्र के अनुसार यह भंग ईय-समिति युक्त साधु के कारणवश गमन करते समय घटित होता है। उन्होंने भी दो श्लोक उद्धृत किये हैं, जो प्रायः ओधनियुक्ति के श्लोकों से मिलते हैं, केवल दूसरे श्लोक के अन्तिम दो चरण भिन्न हैं।'
गंधहस्ति सिद्धसेन ने भी तत्त्वार्थ सूत्र 718 के भाष्य की टीका में इस भंग का सम्बन्ध साधु के साथ ही जोड़ा है। उन्होंने कहा है-जो ज्ञानवान् है, जो जीव अथवा स्व तत्त्व को जानता है, श्रद्धालु है. कर्म-क्षयहेतु चरण-विन्यास करता है, किसी धार्मिक क्रिया में अधिष्ठित है, प्रवचन माताओं से अनुग्रहीत है, मार्ग में पिपीलिकादि जीवों का अवलोकन करता हुआ पाद-न्यास करता है ऐसा मुनि उठाए हुए चरण को विवश होकर पिपीलिकादि के ऊपर रखने से अपने को बचाने में असमर्थ है और पिपीलिकादि के ऊपर पैर रख देता है, जिससे प्राणी उत्क्रान्त प्राण हो जाता है तो यहाँ द्रव्यतः हिंसा है, भावत: हिंसा नहीं । द्रव्य प्राणव्यपरोपण मान से शुद्धाशय वाले विमलचेता मुनि के भावतः हिंसा नहीं होती।
उपर्युक्त विवेचन से समझ में आ जाता है कि द्रव्य हिंसा क्या है और भाव हिंसा क्या ? द्रव्यतः हिंसा का अर्थ है - प्राण-व्यपरोपण, प्राणी-घात, जीव-वध । भावतः हिंसा का अर्थ है-आत्मत: शुद्ध न होना, आत्मा में जीव-वध का परिणाम-भाव होना अथवा उसकी विधि और उपक्रम से युक्त होना ।
6. ओघनियुक्ति 749-750, दश० 111 चू० पृ० 20 :
तत्थ जा सा दव्वओ न भावओ सा इमा, उक्तं चःउच्चालियम्मि पाए ईरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिङगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज । न य तस्सतन्निमित्तो बन्धो सुहुमोवि देसिओ समए ।
अणवज्जो उपओगेण सवभावेण सो जम्हा ।। 7. दश० 111 हारि० पृ० 48 :
या पुनर्द्रव्यतो न भावतः सा खल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति, उक्तं चउच्चालिअम्मि पाए इरियास मिअस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज । न य तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए ।
जम्हा सो अपमत्तो सा य पमाओत्ति निद्दिट्ठा ।। 8. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम् 718 भाष्य की टीका भाग 2 पृष्ठ 64 : तत्र यदा ज्ञानवानभ्युपेतजीवस्वतत्व: श्राद्धः कर्मक्षपणायैव चरणसम्पदा प्रवृत्तः काञ्चिद्धयां क्रियामधितिष्ठन प्रवचनमातृभिरनुगृहीतः पादन्यासमार्गावलोकितपिपीलिकादिसत्व: समुत्क्षिप्तं चरणमाक्षेप्तुमसमर्थः पिपीलिकादेरुपरि पादंन्यस्यति उत्क्रान्तप्राणश्च प्राणी भवति तदास्य द्रव्यप्राणव्यपरोपणमात्रादत्यन्तशुद्धाशयस्य वाक्यपरिजिहीर्षाविमलचेतसो नास्ति हिंसकत्वम् ।
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तुलसी प्रज्ञा
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