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________________ बाह्य रूप में घटित कर्म परिणाम नैतिक या अनैतिक नहीं है, वरन् व्यक्ति का कर्म संकल्प या हेतु ही नैतिक या अनैतिक होता है । इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र और विद्यानन्दी के दृष्टिकोणों का उल्लेख सुशीलकुमार मैत्रा और यदुनाथसिन्हा ने भी किया है । 11 जैन दार्शनिक समंतभद्र बताते हैं कि कार्य का शुभत्व केवल इस तथ्य में निहित नहीं है कि उससे दूसरों को सुख होता है और स्वयं को कष्ट होता है । इसी प्रकार कार्य का अशुभत्व इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसकी फल निष्पत्ति के रूप में दूसरों को दुःख होता है और स्वयं को सुख होता है। क्योंकि यदि शुभ का अर्थ दूसरों का सुख और अशुभ का अर्थ दूसरों का दुःख हो तो हमें अचेतन जड़ पदार्थ और वीतराग संत को भी बन्धन में मानना पड़ेगा, दूसरे शब्दों में उन्हें नैतिकता की परिसीमा में मानना होगा, क्योंकि उनके क्रिया कलाप भी किसी के सुख और दुःख का कारण तो बनते ही हैं और ऐसी दशा में उन्हें शुभाशुभ का बंध भी होगा ही । दूसरे यदि शुभ का अर्थ स्वयं का दुःख और अशुभ का अर्थ स्वयं का सुख हो तो वीतराग तपस्या के द्वारा शुभ का बंध करेगा एवं ज्ञानी आत्म संतोष की अनुभूति करते हुए भी अशुभ या पाप का बंध करेगा । अतः सिद्ध यह होता है कि स्वयं का अथवा दूसरों का सुख अथवा दुःख रूप परिणाम शुभाशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, वरन् उनके पीछे रहा हुआ कर्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य के शुभत्व और अशुभत्व का निश्चय करता है । अष्टसहस्री में आचार्य विद्यानन्दी फलवाद या कर्म के बाह्य परिणाम के आधार पर नैतिक मूल्यांकन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध करते हैं । वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य पाप का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ तत्त्व तो पुण्य-पाप के इस माप से नीचे हैं, जैसे जड़ पदार्थ और कुछ पुण्य पाप के इस माप के ऊपर हैं जैसे अर्हत् । पुण्य-पाप के क्षेत्र में अपनी क्रियाओं के आधार पर वे ही लोग आते हैं जो वासनाओं से युक्त हैं। दूसरे शब्दों में बन्धन के हेतु रूप में वासना ही सामान्य तत्त्व है । अत: मात्र किसी को सुख देने या दुःख देने से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य को शुभाशुभ बनाती है। वीतराग के कारण किसी को सुख या दुःख हो सकता है, लेकिन उसकी अपनी कोई वासना या प्रयोजन नहीं होता, अतः उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता है । fronर्ष यह है कि जैन दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन या अभिसंधि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख के परिणाम । भारतीय दर्शन के अधिकारी विद्वान् श्री यदुनाथ सिन्हा भी जैन नैतिक विचारणा को इसी रूप में देखते हैं, वे लिखते हैं कि “जैन आचार दर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की शुद्धता पर ही बल देती है । उसके अनुसार यदि कार्य किसी शुद्ध प्रयोजन से किया गया है तो वह शुभ ही होगा चाहे उससे दूसरों को दुःख क्यों नहीं पहुंचा 14. ( अ ) एस० के० मैत्रादि ऐथिक्स आफ दि हिन्दूज़, पृष्ठ 321-323 (ब) जे० एन० सिन्हा - इन्डियन फिलासफी, जैन फिलासफी खण्ड ४, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only ११५ www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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