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________________ ऐसा प्रतीत होता है कि गीता एकांत हेतुवाद का समर्थन करती है । लेकिन यदि गीता के समग्र स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाए तो हमें अपनी इस धारणा के परिष्कार के लिए विवश होना पड़ता है । यदि गीता की दृष्टि में कर्म का बाह्य परिणाम अपना कोई नैतिक मूल्य नहीं रखता है तो फिर गीता के कर्मयोग और लोक संग्रह के हेतु कर्म करते रहने के उपदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता । चाहे कृष्ण ने अर्जुन के द्वारा प्रस्तुत युद्ध के परिणाम स्वरूप कुलक्षय और वर्ण संकरता की उत्पत्ति के विचार की एक बारगी उपेक्षा कर दी हो, लेकिन अन्त में उन्हें स्वयं ही यह स्वीकार करना पड़ा कि "यदि मैं कर्म न करूं तो यह लोक भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का मारने वाला बनूं ।" क्या यह कृष्ण की फल दृष्टि नहीं है ? स्वयं तिलकजी भी गीता रहस्य में इसे स्वीकार करते हैं, उनके शब्दों में गीता यह कभी नहीं कहती कि बाह्य कर्मों की ओर कुछ भी ध्यान न दो । - किसी मनुष्य की विशेषकर अनजाने मनुष्य की बुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिए यद्यपि केवल उसका बाह्य कर्म या आचरणप्रधान साधन है; तथापि केवल इस बाह्य आचरण द्वारा ही नीतिमत्ता की अचूक परीक्षा हमेशा नहीं हो सकती । 11 इस प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद की समर्थक होते हुए भी गीता व्यावहारिक दृष्टि से कर्म के बाह्य परिणाम की उपेक्षा नहीं करती है। गीता कर्मफलाकांक्षा का, या कर्मफलासक्ति का निषेध करती है, न कि कर्म परिणाम के अग्रावलोकन या पूर्व विचार का, यद्यपि यह ठीक है कि उसकी दृष्टि में शुभाशुभत्व के निर्णय का विषय कर्म संकल्प है । अब यदि हम कार्य के मानसिक हेतु और भौतिक परिणाम में कौन नैतिक मूल्यांकन का विषय है ? इस समस्या पर जैन दृष्टि से विचार करें तो हम पाते हैं कि जैन दृष्टिकोण ने इस समस्या के निराकरण का समुचित प्रयास किया है। जैन दृष्टि एकांगी मान्यताओं की विरोधी रही है और यही कारण है कि प्रथमत: उसने हेतुवाद की एकांगी मान्यता का खण्डन किया है । जैनागम सूत्रकृतांग में हेतुवाद का जो खण्डन किया गया है वह एकांगी हेतुवाद का है । जैन दार्शनिकों द्वारा किए गए हेतुवाद के खण्डन के आधार पर उसे फलवादी परम्परा का समर्थक मान लेना स्वयं में सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। जैन चिन्तकों द्वारा हेतुवाद का फलवाद से भी अधिक समर्थन किया गया है, जिसे अनेक तथ्यों से परिपुष्ट किया जा सकता है | आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में, आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की वृत्ति में तथा आचार्य विद्यानन्दी की अष्टसहस्त्री टीका में फलवाद का से लिखते हैं कि पाया जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में स्पष्ट रूप अध्यवसाय अर्थात् मानसिक हेतु ही बंधन का कारण है चाहे या न हुई हो । 12 वस्तु (घटना) नहीं वरन् संकल्प ही बंधन का कारण है । 13 दूसरे शब्दों में ( बाह्य रूप में) हिंसा हुई हो ११४ खण्डन और हेतुवाद का मण्डन ( हिंसा का ) 11. गीता रहस्य 3124 की टीका 12. अज्भवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ - समयसार 262 13. ण य वस्थुदो दु बंधो अज्भवसाणेण बंधोत्थि - समयसार - 265 Jain Education International For Private & Personal Use Only " तुलस प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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