________________
आचार्य प्रवचन*
धर्म का फल-आनन्द
बहुत बार यह प्रश्न उठता है - धर्म श्रद्धागम्य है या बुद्धिगम्य ? मैं एकान्ततः धर्म को न श्रद्धागम्य मानता हूं और न बुद्धिगम्य । मेरी दृष्टि में धर्म के दो रूप हैं-एक ज्ञानप्रधान धर्म, दूसरा आचार-प्रधान धर्म । ज्ञान-प्रधान धर्म में बुद्धि, चिन्तन, मनन, तर्क सबका प्रयोग किया जा सकता है, पर साधना प्रधान धर्म में तर्क का कोई स्थान नहीं है। धर्म स्वीकरण में मैं तर्क की अपेक्षा श्रद्धा को अधिक महत्त्व देता हूं। धर्म अहेतुग्राह्य तत्त्व है। हेतुग्राह्य तत्त्वों में हेतु का प्रयोग हो सकता है, पर अहेतुग्राह्य तत्त्वों में हेतु का प्रयोग करना यथार्थ से दूर होना है । कहा भी गया है-'स्वभावे ताकिका भग्नाः' । अग्नि उष्ण क्यों होती है ? बर्फ ठण्डी क्यों होती है ? यह तर्क निरर्थक है । अग्नि का स्वभाव है-उष्णता और बर्फ का स्वभाव है - शीतलता। स्वभावजन्य पदार्थों में तर्क नहीं होता।
धर्म का स्वभाव है -आनन्द । जिस क्षण साधना के क्षेत्र में चरण-न्यास होता है उसी क्षण आनन्द की उपलब्धि प्रारम्भ हो जाती है। धर्म आज करें और फल परलोक में मिले ऐसा नहीं हो सकता। धर्म के मर्म से अनभिज्ञ कुछ व्यक्ति जो भौतिक पदार्थों की उपलब्धि के साथ धर्म का सम्बन्ध जोड़ते हैं वे कह देते हैं - इतने वर्ष हो गये, धर्म का आचरण करते; सामायिक, स्वाध्याय, जप, भजन करते, पर आज तक कोई फल नहीं मिला। इसलिए छोड़ देना चाहिये इन धार्मिक झंझटों को । मैंने ऐसे कई व्यक्तियों को देखा है और उनसे सुना भी है-महाराज ! पहले तो प्रतिदिन सामायिक करता था पर अब छोड़ दी है, क्योंकि उसका कोई परिणाम आज तक सामने नहीं आया।
___ सच तो यह है कि अधिकांश व्यक्ति धर्म के साथ भी सौदा करते हैं। उनके अनुसार आज धर्म किया और आज ही उसके फलस्वरूप धनधान्यादि ईप्सित वस्तु की प्राप्ति होनी चाहिये और यदि नहीं होती है तो धर्म निरर्थक है। मेरी दृष्टि में ऐसे व्यक्ति धार्मिक कहलाने के अधिकारी ही नहीं होते । धर्म का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है । जो व्यक्ति
* आचार्य श्री तुलसी के प्रवचन से ।
खण्ड ४, अंक २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org