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________________ आत्मोन्मुख होता है उसे धर्मलाभ से वञ्चित करने की किसी दूसरे की ताकत नहीं हो सकती। मैं एक उदाहरण आपको सुनाऊं । एक नगर में दो जाने-माने सेठ रहते थे। एक का नाम था पूर्ण और दूसरे का नाम था जीर्ण । जीर्ण सेठ साधुओं का बहुत भक्त था । पात्रदान की भावना से भावित था। प्रतिक्षण चिन्तन करता-मेरे घर कोई सन्त पुरुष भिक्षा के लिये आए और मैं उन्हें शुद्ध दान देकर लाभान्वित बनूं । एक दिन उसने सुना-भगवान महावीर ने तपस्या प्रारम्भ की है, तपस्या की समाप्ति पर वे अवश्य ही भिक्षा के लिये शहर में आयेंगे। मेरा धन्य भाग्य होगा यदि भगवान् मेरी कुटिया में पधारकर मुझे पात्रदान का लाभ देंगे। प्रतिदिन भिक्षा के समय पात्रदान की भावना से भावित चित्त, जीर्ण सेठ कुटिया से बाहर खड़ा-खड़ा भगवान् महावीर के शुभागमन की प्रतीक्षा करता रहा। लगभग एक महीना व्यतीत हो गया। न भगवान् की तपस्या पूर्ण हुई और न जीर्ण की भावनाएं फली। पर जीर्ण सेठ की भावनाएं प्रतिदिन वर्द्ध मान थी। कभी भी उसने नहीं सोचा कि इतने दिन हो गये भावना भाते, भगवान् आये ही नहीं, छोड़ो भावना को। इस प्रकार चार माह बीत गये । इधर भगवान् की चातुर्मासिक तपस्या पूर्ण हुई। वे भिक्षा के लिये शहर में आये । पर भगवान् के चरण जीर्ण सेठ की कुटिया की ओर नहीं बढ़े, पूर्ण सेठ की कुटिया की ओर बढ़े। पूर्ण सेठ के मन में न साधुओं के प्रति भक्ति थी, न बहुमान था। ज्योंही भगवान् उसके द्वार पर भिक्षा के लिये पहुंचे, पूर्ण सेठ ने अपने नौकर को आवाज दी और कहा-"जाओ, कोई ठंडा-बासी हो तो इसे देकर विदा कर दो।" नौकर ने उड़द के बाकले लाकर भगवान् को प्रदान किये । भगवान ने ज्योंही पारणा किया, देवदंदुभि बज उठी। नगरवासी पूर्ण सेठ की प्रशंसा करने लगे और कहने लगे-धन्य है पूर्ण सेठ को जिसने भगवान को दान देकर महान् लाभ कमाया है। इधर जीर्ण सेठ ने भी देवदुदुभी सुनी । उसने सोचा-भगवान् का पारणा कहीं हो गया है । मेरा कहां इतना सौभाग्य था ? धन्य है उस व्यक्ति को जिसने भगवान् को दान दिया है। एक क्षण के लिये भी उसके मन में यह विचार नहीं आया कि मुझे कितने महीने भावना भाते बीत गये, पर भगवान् कहाँ भावना को देखते हैं ? वे तो बड़े घरों में ही भिक्षा के लिये जाते हैं। एक दिन केवलज्ञानी का उस नगर में पदार्पण हुआ। सहस्रों लोगों ने भगवान् की देशना सुनी । एक व्यक्ति ने प्रश्न किया-भन्ते ! इस शहर में सबसे बड़ा भक्तिमान कौन है ? केवलज्ञानी ने कहा-जीर्ण सेठ । प्रभो ! जीर्ण सेठ यदि भक्तिमान होता तो भगवान का पारणा पूर्ण सेठ के घर में क्यों होता ? क्या जीर्ण सेठ की अपेक्षा पूर्ण सेठ अधिक भक्त परायण नहीं है ? तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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