________________
अर्थ है कि जो समता आदि धारण करता है वह मुक्ति-वधू का वल्लभ होता है।
मध्ययुग में अध्यात्म एवं भक्ति विषय को पति-पत्नि अथवा प्रेमी-प्रेमिका की प्रेमक्रीड़ाओं के दृष्टान्त द्वारा प्रस्तुत करने का प्रचलन हो गया था। पद्मप्रभ 12वीं शताब्दी के कवि हैं । अतः उन्होंने भी उक्त उपमाओं द्वारा निर्वाण के सुख आदि को स्पष्ट किया है । इस प्रकार के प्रयोगों से यह संभावना की जा सकती है कि पद्मप्रभ दक्षिण भारत के निवासी हों। क्योंकि 11वीं शताब्दी के बाद रामानुज भक्ति सम्प्रदाय दक्षिण में अधिक प्रचलित था, जिसमें इस प्रकार की उपमाएं दी जाती थीं। इसे माधुर्य भक्ति कहा जाता था।
इस टीका में टीकाकार ने प्राकृत की अन्य 21 गाथाओं को भी उद्धृत किया है। प्रवचनसार से 9, समयसार से 4, पंचास्तिकाय से 3, मूलाचार से 1 एवं द्रव्य संग्रह से 2 गाथाएं-कुल 19 गाथाओं का स्रोत तो ज्ञात हो चुका है। किन्तु निम्न दो गाथाओं के संदर्भ का पता नहीं चला है, जो किसी सिद्धान्त ग्रन्थ से ही होनी चाहिए ।
सो धम्मो जत्थ दया सोवितवो विसयणिग्गहो जत्थ । दसअट्ठदोस रहिओ सो देवोणत्थि संदेहो । णाणं अब्बिदिसिकं जीवादो तेण अप्पगं मुणई।
जदि अप्पंग ण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो ॥ यद्यपि नियमसार' की यह टीका पाण्डित्य पूर्ण है, किन्तु अमृतचन्द्र एवं जयसेन की टीकाओं जैसी विशद एवं अर्थपूर्ण नहीं है । सम्भवतः इस प्रकार की टीका के कारण भी 'नियमसार' टीका सहित अधिक प्रचारित नहीं हो सका है। इसमें टीका में प्रयुक्त स्त्री सम्बन्धी इतनी अधिक उपमाएं भी इसका कारण हो सकती हैं। विषयवस्तु :
जैन तत्त्वज्ञान के विभिन्न पक्षों पर आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्रन्थ लिखे हैं । 'नियमसार' में उन्होंने मुख्य रूप से त्रिरत्न की व्याख्या की है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यगचारित्र पर स्वतन्त्र रूप से लिखा गया यह सर्व प्राचीन ग्रन्थ है । 'नियमसार' पद का प्रयोग भी कुन्दकुन्द ने विशेष अर्थ में किया है । “नियमसार" केवली एवं श्रुतकेवली द्वारा कहा गया है (1)। नियम से जो कार्य करने योग्य हो वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्न ही "नियम" है । तथा उसकी शुद्धता के लिए सार" शब्द कहा गया है (3) । अतः "नियमसार" का अर्थ हुआ-विशुद्ध रत्नत्रय । यह रत्नत्रय (नियम) मोक्ष का उपाय है, जिसका फल परम निर्वाण है (4) । अतः इस ग्रन्थ में इसी रत्नत्रय का निरूपण है।
'नियमसार' की प्रारम्भिक गाथाओं में कहा गया है कि आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । तथा समस्त दोषों से रहित एवं सकल गुणों से युक्त आत्मा आप्त कहलाता है। (5) । केवल ज्ञान आदि से युक्त वही परमात्मा है (6)। उसके मुख से निकले हुए पूर्वापर दोषों से रहित शुद्ध वचन आगम हैं जिसमें तत्त्व कहे जाते हैं (8)।
1. नियमसार, गा० 60 की टीका में उद्ध त । 2. नियमसार, गा. 170 की टीका में उद्धत ।
खण्ड ४, अंक २
१०५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org