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के प्रवर्तन आदि के आधार पर इसके लेखक कुन्दकुन्द ही जान पड़ते हैं । इस ग्रन्थ के एक मात्र टीकाकार पद्मप्रभमलधारी देव का भी यही मत है। 'नियमसार' की गाथा नं0 9, 15, 34, 45, 46, 78 एवं 175 शब्द और अर्थ की दृष्टि से 'प्रवचनसार' की गाथाओं से मिलती जुलती है । समयसार की तीन गाथाएं (49, 234 एवं 277) 'नियमसार' की गाथाओं (46, 86 एवं 100) के अनुरूप हैं। कुछ गाथाओं का विषय 'अष्टपाहुड़' आदि से भी मिलताजुलता है । अत: 'नियमसार' को कुन्दकुन्द का ग्रन्थ मानने में संकोच नहीं है । टीकाकार:
'नियमसार' के टीकाकार पद्मप्रभमलधारी देव विद्वत-जगत् में प्रसिद्ध नहीं हैं । इस संस्कृत टीका के अतिरिक्त उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। किन्तु पद्मप्रभमलधारी देव ने प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर कन्नड़ में टीकाएं लिखी हैं, जो अभी तक अप्रकाशित हैं। इन टीकाओं की प्रशस्ति में पद्मप्रभ का स्मरण प्रकाण्ड विद्वान् एवं एक साधक के रूप में किया गया है। संभव है कि नियमसार के संस्कृत टीकाकार एवं उपर्युक्त कन्नड़ टीकाकार दोनों पद्मप्रभमलधारी एक ही व्यक्ति हों। कन्नड़ की टीकाओं के अध्ययन से इस पर अधिक प्रकाश पड़ सकेगा।
संस्कृत में पद्मप्रभमलधारी ने अपनी संस्कृत टीका में कई प्राचीन जैनाचार्यों का एवं उनके उद्धरणों का उल्लेख किया है। उस आधार पर उन्हें बारहवीं शताब्दी का विद्वान् स्वीकार किया जा सकता है। नियमसार की संस्कृत टीका गद्य और पद्य में लिखी गयी है, जो टीकाकार के कवित्व और पाण्डित्य की द्योतक है। टीका का गद्य भाग नियमसार की मूलगाथाओं को प्राय: स्पष्ट करता है। किन्तु पद्य भाग कई स्थानों पर अप्रासंगिक हो गया है । टीकाकार ने अपने कवित्व को प्रगट करने के लिये प्राकृत की एक मूलगाथा की व्याख्या में 8 या 9 श्लोक संस्कृत के दे दिये हैं, जिनका मूलगाथा से कोई स्पष्ट सम्बन्ध नहीं है । जैसे 71वीं गाथा में अर्हत का स्वरूप वर्णित है । टीकाकार ने यहां 5 श्लोक पद्मप्रभ तीर्थंकर की स्तुति में दे दिये हैं इत्यादि ।
'नियमसार' का विषय निश्चयनय एवं शुद्ध अध्यात्म से सम्बन्धित है, किन्तु टीकाकार ने अनेक स्थानों पर स्त्री-सम्बन्धी उपमाएं देकर विषय को समझाया है । यथा-समिति मुक्तिकान्ता की सखी है (श्लोक 81, 89, 141); प्रत्याख्यान समतादेवी के कान का आभूषण है एवं दीक्षाप्रिया का यौवन है (142), वह समता सदा जयवन्त हो जो परमसंयमियों की दीक्षारूपी स्त्री के मन की प्यारी सखी है (141),-उन सिद्धों को नमस्कार है जो निर्वाणवधू के पुष्टस्तनों के आलिंगन से उत्पन्न सुख की खान हैं (224) । इत्यादि । "स भवति परमश्रीः कामिनीकामरूपः" पंक्ति तो टीका के कई श्लोकों में प्रयुक्त हुई है, जिसका
1. डॉ० नेमीचन्द शास्त्री- तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा में
पार्श्वनाथस्तोत्र (9 श्लोक) का उल्लेख है । (भा० 3, पृ० 146-47) 2. दृष्टव्य-प्रो० शुभचन्द्र, जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग, मैसूर का कन्नड़ लेख
(अप्रकाशित)। 3. पी. बी. देशाई-जैनिज्म इन साउथ इंडिया एण्ड सम जैन एपीग्राफ्स .
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तुलसी प्रज्ञा
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