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पर आधारित है । इसमें अनेक कथाओं का संग्रह है । इसके वाद की गद्य कृति चावुंडराय पुराण (त्रिषष्टि पुरुष ) है जिसकी रचना चावुंडराय ने ई० स० 978 में की थी । लगभग इसी काल दरम्यान तीन महाकवि हुए जिन्होंने चम्पू काव्य की रचना की । पम्प का आदि पुराण ( ई० स० 940 ) पोन्न का शांतिपुराण ( ई० स० 950 ), और रन्न का अजितपुराण ( ई० स० 993 ) । पंप कन्नड साहित्य के आदिकवि माने जाते हैं । उन्होंने जैन धर्म के सिवाय विक्रमार्जुनविजय काव्य भी लिखा । इस युग को पंपयुग भी कहा जाता है । रत्न की भी लौकिक विषयों पर रचनाएँ मिलती हैं जैसे - गदायुद्ध (चम्पू) और रन्नकंद ( निघंटु ) | नेमिचन्द्र की ई० स० 1170 की लीलावती कथा मिलती है । इसके अतिरिक्त अनेक धार्मिक टीका ग्रंथ उत्तरोत्तर काल के मिलते हैं ।
तमिल साहित्य का संधिकाल बहुत प्राचीन माना जाता है परन्तु उस काल की कृतियाँ नष्टप्रायः हो गयी हैं । तोलकाप्पियम् ( व्याकरण ग्रंथ ) और तिरुक्कुरल ( उपदेशात्मक ग्रंथ ) उस काल की बची हुयी रचनाएँ मानी जाती हैं । इन दोनों ही ग्रंथों को श्रमण और ब्राह्मण दोनों अपनी-अपनी कृतियाँ मानते हैं । इनके कर्त्ता और समय के विषम में वादविवाद चलता रहा है। तिरुक्कुरल में श्रमणों की सन्त परम्परा का अधिक प्रभाव देखने को मिलता है । इसके अतिरिक्त उल्लोयनार नाम के जैन कवि और इलम् पोतियार नाम के बोद्ध कवि संघ काल के माने जाते हैं ।
संघ का स्फुट कविताओं का युग था परन्तु उसके बाद वृहत् काव्यों की रचना हुई हुई जिस पर श्रमणों का प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । इस काल के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले पाँच काव्य हैं - शिलप्पदिकारम्, मणिमेकले, जीवकचिन्तामणि, वलयापदि ( लुप्त ) और कुण्डलकेशि । कथानक की दृष्टि से मणिमेकलं शिलप्पदिकारम् का उत्तरार्ध माना जाता है । शिलप्पदिकारम् में बौद्ध धर्म का ओजस्वी चित्र काव्यमय शैली में खींचा गया है । जीवकचिन्तामणि नवीं शती की महाकवि जैन मुनि तिरुतक्कत्तेवर की रचना है । कुंडलकेशि के रचनाकार बौद्ध नाथगुप्त थे जिसमें बौद्धदर्शन की स्थापना की गयी थी ( यह अनुपलब्ध है) ।
नाल दियार एक नीतिग्रंथ है जिसके कर्त्ता जैन थे। इसमें सांसारिक सुखों की अनित्यता और संत जीवन की प्रशंसा की गयी है । इसका समय पाँचवीं शती का माना जाता है । ईसा की नवीं शताब्दी के बाद जैनों के अनेक तमिल संस्कृत मिश्रित मणि-प्रवाल शैली में गद्य ग्रंथ मिलते हैं— जैसे श्रीपुराण, गद्यचिन्तामणि इत्यादि ।
• तमिल कोषों में तीन कोष महत्वपूर्ण माने जाते हैं । वे हैं - दिवाकरनिघंटु ( अनुपलब्ध), पिंगलनिघंटु और चूडामणि निघंटु । ये तीनों ही जैनों की कृतियाँ हैं ।
इस विवरण से स्पष्ट है कि श्रमणों ने साहित्य सृजन की परम्परा को अक्षुण्ण रक्खा है और उन्होंने लोक भाषाओं को उतना ही महत्व प्रदान किया जितना शिष्ट भाषा को मिला है । साहित्य को नयी-नयी विधाएं प्रदान करने में भी वे पीछे नहीं रहे । उनका 2000 वर्ष का यह साहित्य भारत को अनेक भाषाओं के क्रमबद्ध विकास को जानने के लिए अन्यन्त उपयोगी है तथा इस साहित्य का आश्रय लिये बिना उस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते ।
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तुलसी प्रज्ञा
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