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अपनी-अपनी भाषा के प्रारम्भिक दर्शन करते हैं और इन कृतियों में ही मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढू ढाणी, मेवाती, हाड़ोती, मालवी, निमाड़ी आदि का समावेश करते हैं। .
हिन्दी भाषा के विद्वान् भी इस प्रारम्भिक रास, फागु, चर्चरी आदि के जैन साहित्य को हिन्दी का आदिकालीन साहित्य मानते हैं। पहले वीरगाथाकाल हिन्दी का प्रारम्भिक साहित्य माना जाता था और वीसलदेव रासो तथा पृथ्वीराज रासो इत्यादि हिन्दी की आदिकृतियां मानी जाती थीं परन्तु अब उपर्युक्त रास और फागु कृतियों में हिन्दी भाषा के आदिम दर्शन किये जाते हैं।
रल्ह की जिनदत्त चौपाई (1297) को श्री अगरचन्द जी नाहटा बृजभाषा की पुरानी कृति मानते हैं जो सधारु के प्रद्य म्नचरित (1354) से पहले भी है। राजसिंह का जिनदत्तचरित (1297) पुरानी हिन्दी का प्रथम बड़ा ग्रन्थ माना जाता है। पश्चिमी हिन्दी के गद्य का नमूना उपदेशमाला पर लिखी गयी सोमसुन्दर की टीका (15वीं शती) प्रथमपाद में मिलता है। हिन्दी की प्राचीनता के दर्शन बौद्ध सिद्धों के दोहा साहित्य में (8 से 12वीं शती) और पुष्पदंत तथा स्वयंभू की अपभ्रंश कृतियों में भी कराये जाते हैं। कुछ विद्वान् पुष्पदंत की कृतियों में मराठी भाषा के आदिम दर्शन करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैनों और बौद्धों ने लोक भाषायें अपनायीं और उन भाषाओं में उनका क्रमश: ई० पू० छठी से ई०पू० पन्द्रहवीं शती तक का जो साहित्य मिलता है उसमें आर्य भाषाओं के 2000 वर्ष तक के विकास की व्यवस्थित और विशद सामग्री मिलती है वह श्रमणेतर साहित्य में कम ही मिलती है । इसके साथ साहित्य की कुछ नयी-नयी विधाओं के भी दर्शन होते हैं। द्रविड़ी भाषाओं और साहित्य को श्रमणों का प्रदान
जैन श्रमणों ने भद्रवाहु के साथ दक्षिण में जाकर अपना साहित्य-जन प्रारम्भ किया था । उसके कारण कन्नड़ भाषा और तमिल भाषा को अनेक प्राकृत शब्दों से समृद्ध किया। प्राकृत ग्रन्थों पर कन्नड़ टीकायें लिखी गयीं इससे कन्नड़ भाषा में अनेक प्राकृत शब्द आये। कन्नड़ साहित्य के कालक्रम से तीन विभाग किये जाते हैं। उनमें से पहला विभाग 5वीं से 12वीं शती तक का माना जाता है और उसे जैनयुग कहा जाता है। इस युग की लगभग सभी कृतियाँ जैनों की ही मिलती हैं। बोलचाल की भाषा को इधर भी, इस खण्ड में भी साहित्यक दर्जा दिलवाने, उसे उन्नत और प्रौढ़ स्थिति प्राप्त करवाने का श्रेय श्रमणों को ही है और इसीलिए श्रमण ही कन्नड़ भाषा के आदि कवि माने जाते हैं।
कन्नड़ साहित्य का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ श्रमणों की रचना है। वह है नृपतग द्वारा रचित कविराज मार्ग जो एक अलंकार (814-877 AD) ग्रन्थ है । इसमें अनेक पूर्व कवियों के उल्लेख हैं और उनमें दुविनीत का नाम भी है जो गंगवंशीय राजा थे और उनका राज्यकाल ई०स० 487 से 513 तक था। इसके बाद सातवीं शती के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख अन्यत्र हुआ है और वे इस प्रकार हैं- तत्त्वार्थ पर श्री वर्धदेव या लुंबलूराचार्य की कन्नड़ चड़ामणि टीका, श्याम कुन्दाचार्य का प्राभृत ग्रन्थ, भ्रजिष्णु की आराधना पर टीका, असग (854 A.D.) का वर्धमान चरित इत्यादि ।
___उपलब्ध साहित्य में कविराजमार्ग के बाद वड्डाराधने का क्रम आता है जो ई० स० 920 की रचना है । यह कन्नड़ साहित्य की प्रथम उपलब्ध गद्य कृति है जो भगबती आराधना खण्ड ४, अंक २
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