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केवलज्ञानी ने कहा – पूर्ण सेठ ध्वजा की तरह है । ध्वजा का काम फहरने का है । जिधर हवा होती है उधर ही वह झुक जाती है । जीर्ण सेठ नींव का पत्थर है । नींव का पत्थर दिखाई नहीं देता पर विशाल भवन उस पर ही टिका रहता है । जीर्ण सेठ ने अपनी उत्कृष्ट भावना से अनन्त कर्मों का निर्जरन कर दिया है । यदि वह दो घण्टे दुंदुभि और नहीं सुनता तो केवलज्ञान उत्पन्न होने की स्थिति हो सकती थी । वह धर्म को बाह्य पदार्थों के साथ नहीं, आत्मा के साथ जोड़ता है । धर्म उसकी नस-नस में रमा हुआ है ।
वस्तुत: धर्म का फल ही आत्मशुद्धि है । जो व्यक्ति आत्मशुद्धि के लिये धर्म करता है, वह इधर उधर की बातों को सुनकर धर्म को छोड़ने के लिये तैयार नहीं हो सकता ।
विकथा - पद
सत्त विकहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा, मिउकालुणिया, दंसणभेयणी, चरित्तभेयणी ।
विकथाएं सात हैं :- (1) स्त्री कथा (2) भक्तकथा (3) देशकथा, (4) राज्यकथा, ( 5 ) मृदुकारुणिकी (वियोग के समय करुणरस - प्रधान वार्ता ), ( 6 ) दर्शनभेदिनी ( सम्यक् दर्शन का विनाश करने वाली वार्ता ), ( 7 ) चारित्रभेदिनी ( चारित्र का विनाश करने वाली वार्ता ) ।
- ठाणं,
खण्ड ४, अंक २
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