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________________ जैन गीता (समणसुत्तं का हिन्दी पद्यानुवाद) अनुवादक-आचार्य विद्यासागर जी प्रकाशक-श्री मुनिसंघ स्वागत समिति, सागर (मध्यप्रदेश) पृष्ठ-20+248, सन् 1978 मूल्य - साधारण -- छह रुपये, सजिल्द -आठ रुपये। भगवान् महाबीर के पच्चीस सौ वें निर्वाण महोत्सव पर सन्त विनोबा जी की प्रेरणा से सर्वमान्य “समणसुत्त" नामक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ का संकलन किया गया था। इसकी सार्वभौमिक लोकप्रियता को देखते हुए आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद "जैन गीता" नाम से किया । जैन धर्म के सभी प्रमुख सिद्धान्तों का संकलन इसमें होने से यह जैन धर्म की 'गीता" ही है । इस दृष्टि से इस पद्यानुवाद का नया आकर्षक नाम "जैन गीता" अपने आप में सार्थक है । "समण सुत्त" की तरह समीक्ष्य ग्रंथ ज्योतिर्मुख, मोक्षमार्ग, तत्त्वदर्शन एवं स्याद्वाद - इन चार खण्डों में विभक्त है । इन चारों खण्डों में 756 गाथायें हैं। एक पृष्ठ पर मूल प्राकृत गाथायें और दूसरे पृष्ठ पर ठीक सामने वसन्ततिलका छन्द में उस गाथा का हिन्दी पद्यानुपाद दिया गया है। सूत्र रूप में जैन सिद्धान्त की प्रतिपादक आगमों की प्राकृत गाथाओं के हार्द को अन्य भाषा के किसी एक छन्द में बांध देना सहज नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ में हमें यह विशेषता देखने को मिलती है। कहीं-कहीं एक ही विषय की एक गाथा स्पष्ट करने के लिए एकाधिक छन्दों की रचना भी की गई है। प्रस्तुत अनुवाद में सुगमता का ध्यान रखा गया है किन्तु कहीं-कहीं संस्कृत-निष्ठ शब्दों के प्रयोग से साधारण पाठक के सामने कठिनाई उत्पन्न हो जाती है । प्रचलित शब्दों के प्रयोग से अनुवाद को और भी ज्यादा सहज और लोकप्रिय बनाया जाना आवश्यक था। फिर भी अनुवाद की अविकलता निर्विवाद सिद्ध है। धर्मसूत्र के अन्तर्गत निम्न गाथा के पद्यानुवाद का उदाहरण प्रस्तुत है - मूल गाथा-अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तंपि ।। अनुवाद- हूं शुद्ध पूर्ण दग बोधमयी सुधा से, मैं एक हूं. पृथक हूं सबसे सदा से । मेरा न और कुछ है नित में अरूपी, मेरी नहीं जड़मयी यह देहरूपी !1106। इसी प्रकार "निर्वाण'' की परिभाषा को भी इन शब्दों में बांधा है : बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, आती न गन्ध सुख, की दुख से न क्रीड़ा। न जन्म है मरण है जिसमें दिखाते, 'निर्वाण' जान वह है, गुरु यों बताते ।।617।। द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय विषयक मूल गाथा के पद्यानुवाद में नये मौलिक उदाहरण जोड़कर विषय स्पष्ट किया है, जैसे खण्ड ४, अंक २ १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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