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जिन दिन देखे वे कुसुम
लेखक-श्री ज्ञान भारिल्ल प्रकाशन-अर्चना प्रकाशन, अजमेर पृष्ठ-167, मूल्य-सात रुपये
प्रस्तुत कृति भगवान महावीर के समकालीन राजा श्रेणिक बिम्बसार तथा उनके पुत्र अभयकुमार के बुद्धि विलासों का वैदग्ध्य औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत करती है। इसमें श्रेणिक तथा अभयकुमार की 13 रोचक कथाएं दी गई हैं। शैली इतनी मनोरंजक तथा रोचक है कि पाठक एक ही सांस में पूरा उपन्यास पढ़ जाता है। भाषा सरल व प्रसादगुण युक्त है । कथाओं की पृष्ठभूमि में तत्कालीन सांस्कृतिक व नैतिक वातावरण उत्पन्न करने का प्रयत्न किया गया है । हर कथा में यही बताया गया है कि उस स्वर्णयुग में पतित व्यक्ति चोर, लुटेरा आदि भी कर्तव्यनिष्ठा, सत्य व नैतिकता के एक निश्चित दायरे में बंधा हुआ था और प्राणसंकट उपस्थित होने पर भी उस सीमा का उल्लंघन नहीं करता था । रोहिणेय चोर के पिता लोहखुर के मुख से महावीर की कैसी व्याजस्तुति करवाई गई हैं
"तू उस महावीर को नहीं जानता, मैं जानता हूं। वह बड़ा भयानक आदमी है। जब वह बोलता है तब उसके होंठ भी हिलते दिखाई नहीं देते हैं । केवल आवाज आती है और सुनने वाले को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे स्वयं उसकी आत्मा ही कहीं भीतर से बोल रही है। वह लोगों को पागल बना देता है, बेटे ! उसकी बात सुनकर लोग घर-बार छोड़कर जंगल में चल देते हैं और उपवास करने लग जाते......।"
प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान है । इस विषय में अभयकुमार कहता
"बुद्धि किस मनुष्य में नहीं होती ? उचित समय पर, उचित रीति से, उसका समुचित उपयोग कर सकना आना चाहिए। रही इस सारी पृथ्वी को जीत लेने की बात, सो तो महाराज, यह सारी पृथ्वी हमारी ही है। और यह पृथ्वी ही क्या, समस्त ब्रह्माण्ड हमारा ही है, यदि हम अपनी प्रेममयी आत्मा को उतना विस्तार दे सकें तो।" ।
पुस्तक के लिए लेखक धन्यवाद के पात्र हैं। कथाओं का मूल स्रोत एवं उससे इन कथाओं का अन्तर यदि प्राक्कथन में दे दिया जाता तो और भी सुन्दर होता। जैनागमों पर आधारित कथाओं को रोचक शैली में प्रस्तुत कर भविष्य में भी इसी प्रकार सामान्य जनोपयोगी एवं शिक्षाप्रद साहित्य प्रकाशित किया जायेगा ऐसी हम प्रकाशक से आशा करते हैं।
डॉ० श्रीमती पुष्पा गुप्ता तीर्थकर (मासिक) वर्ष 8, अंक 3, जून 1978
पं० नाथूलाल शास्त्री विशेषांक संपादक-डॉ. नेमीचन्द जैन प्रकाशक-हीरा भैया प्रकाशन, 65 पत्रकार कालोनी
__ कनाडिया रोड, इन्दौर-452001 मूल्य-पाँच रुपये, पृष्ठ 204। तीर्थकर (मासिक) पत्रिका ने जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं अपितु हिन्दी
ण्ड ४, अंक २
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