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(4) न द्रव्यतः हिसा न भावतः हिंसाः जिनदास कहते हैं- “जहां यह भङ्ग घटता है वहाँ हिंसा नहीं कहना चाहिए ।
हरिभद्र कहते हैं - "यह चरम भङ्ग शून्य है ।"37 यह भङ्ग तब घटता है जब सर्व संवृत्त साधु के योगों से जीव-वध नहीं होता ।
संघदास गणि लिखते हैं : “अध्यात्म से शुद्ध साधु के जब वध के साथ योग सम्बन्ध नहीं होता तब द्रव्यत: और भावत: दोनों प्रकार से अहिंसा होती है।"38
जहाँ दोनों प्रकार की हिंसा का अभाव है वहां हिंसा ध्वनि मात्र समझना चाहिए। यह भङ्ग मात्र आनुपूर्वी से प्राप्त है और शिष्य के बुद्धि-विकास के लिए कहा गया है। यह अदुष्ट है-दोष-रहित है। इस भङ्ग में अहिंसा है अत: पाप का बंध नहीं है । सिद्धसेन ने कहा है-प्रथम तीन विकल्पों में दूसरे और तीसरे इन दो विकल्पों में ही प्रमत्त योग है अत: वहीं अहिंसकत्व है ।
36. दश० चू० पृ. 20 :
सा अ हिंसा चेव ण भण्णइ । 37. दश० हा० पृ० 49 :
चरमभङ्गस्तु शून्य इति । 38. अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा ॥ (3934) 39. उभयाभावे हिंसा धणिमित्तं भंगयाणुपुत्वीए। ... तहवि य दंसिज्जती सीसमइ विजोवणमदुट्ठा ।।228॥ 40. तत्त्वार्थाधिगम् सूत्र 718 भाष्य टीका :
विकल्पनये प्रमत्तयोगत्वं द्वितीयतृतीयविकल्पयोः अतस्तयोरेव हिंसकत्वं, न प्रथमस्येति।
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तुलसी प्रज्ञा
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