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के द्वारा प्राणातिपात हो जाता है तब वहां द्रव्यतः भावतः दोनों हिंसाएँ होती हैं ।32
इसका तात्पर्य है :
(अ) जब संयती समितियुक्त नहीं होता और प्राणि-घात हो जाता है तो द्रव्यतःभावत: हिंसावाला भङ्ग घटता है क्योंकि द्रव्य प्राण-हरण के साथ-साथ प्रमाद भाव होने से द्रव्य और भाव दोनों हिंसाएं विद्यमान होती हैं।
(आ) असंयती में भाव हिंसा का सदा सद्भाव रहता है क्योंकि उसके निरन्तर अविरति रूप शस्त्र रहता है। प्राणिघात हो जाने से द्रव्य हिंसा का भी सद्भाव हो जाता है ।
(इ) संयतासंयती के देश अविरति की अपेक्षा भावहिंसा का सर्वदा सद्भाव होता है । प्राणिवध होने पर द्रव्य हिंसा भी वर्तमान होती है ।
(3) इस भङ्ग को समझने के लिए जिनदास और हरिभद्र ने एक-सा ही उदाहरण दिया है। कोई पुरुष मृग को मारने के परिणाम से परिणत हो मृग को देख कानों तक आकृष्ट को दण्ड की रस्सी से बाण को छोड़ता है । मृग उस बाण से विद्ध हो मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । यह द्रव्यतः हिंसा है और भावत: भी हिंसा है।
सिद्धसेन कहते हैं
“मलिन भाववाले जिघांसु के जिसने बहुत-से जीवों को प्राणों से उत्क्रान्त कर दिया है भाव और द्रव्य से हिंसा होती है ।"34
' जहाँ द्रव्यत: और भावत: हिंसा होती है अर्थात हिंसा के परिणाम हैं और साथ-साथ जीव-घात भी है वहां मनुष्य प्रकटतः ही हिंसक है और वह पाप का भागी है । 35
32. बृहत्कल्पसूत्र भाष्य 3934 __ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दवहिंसा खलुभावतो य । 33. दश० 111 चू० पृ० 20 : (क) तत्थ दव्वओपि भावओपि जहा केइ पुरिसे मियवधाते परिणामपरिणए मियव
धाय उसु निसिरेज्जा, सेय मिए तेण उसुणावि विद्ध', एसा दव्वओ भावओवि
हिंसा। (ख) दश० 111 हा० पृ० 48 :
जहा केइ पुरिसे मिअवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयन्नाइड्डियकोदंडजीये सरं णिसिरिज्जा, से अ मिए तेण सरेण विद्ध' मए सिआ, एसा दव्वओ हिंसा
भावओवि । 34. तत्वार्थ 718 सिद्धसेन टीका पृ० 65 : .
तथा तस्यानवदात्तभावस्य जिघांसोरुत्कान्तजन्तुप्राणकलापस्य भावतो द्रव्यतश्च हिंसेत्येवम् । 35. मिगवहपरिणामगओ आयण्णं कड्डिऊण कोदंडं ।
मुत्तूण मिसु उमओ वहिज्ज तं पागडो एस ।।22711 खण्ड ४, अंक २
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