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( 2 ) कांट के अनुसार नैतिक निर्णय का विषय मात्र कर्ता का संकल्प है । यदि उपर्युक्त घटना क्रम के सम्बन्ध में विचार करें तो कांट के अनुसार वह व्यक्ति केवल उस व्यक्ति विशेष की हत्या का दोषी होगा, न कि सभी की हत्या का, क्योंकि उसे केवल उसी व्यक्ति की मृत्यु अभीप्सित थी ।
(3) इस सम्बन्ध में एक तीसरा दृष्टिकोण मार्टिन्यू का है, उनके अनुसार नैतिक निर्णय का विषय वह अभिप्रेरक है जिससे प्रेरित होकर कर्ता ने वह कार्य किया है। उपर्युक्त दृष्टान्त के आधार पर मार्टिन्यू के मत का विचार करे तो मार्टिन्यू कहेंगे कि यदि कर्ता उसकी हत्या वैयक्तिक विद्वेष या स्वार्थ से प्रेरित होकर करना चाहता था तो वह दोषी होगा, लेकिन यदि वह राष्ट्रभक्ति या लोकहित से प्रेरित होकर करना चाहता था तो वह निर्दोष ही माना जायेगा ।
(4) चौथा दृष्टिकोण मैकन्जी का है, उनके अनुसार उस कर्म के सम्बन्ध में कर्ता का चरित्र ही नैतिक निर्णय का विषय है । मान लीजिए कोई व्यक्ति नशे में गोली चला देता है और उससे किसी की हत्या हो जाती है । सम्भव है कि कांट और मार्टिन्यू की धारणा में वह निर्दोष हो, लेकिन मैकन्जी की दृष्टि में तो वह अपने चरित्र की दुषितता के कारण दोषी ही माना जायेगा ।
नीतिवेत्ताओं ने उपर्युक्त चारों मतों की परीक्षा की और उन्हें एकांगी एवं दोष पूर्ण पाया है, यहां पर विस्तार भय से यह सब देना सम्भव नहीं है । इस विवेचना से हमारा तात्पर्य मात्र यह दिखा देना है कि किस प्रकार जैन विचारणा इन चारों विरोधी मतवादों के समन्वय के द्वारा उनकी एकांगिता को दूरकर एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है ।
जैन विचारणा में शुभत्व और अशुभत्व का निकटस्थ सम्बन्ध क्रमशः संवर और आस्रव से माना जा सकता है । हम कह सकते हैं कि जिससे आस्रव होकर कर्म बन्ध हो वह अशुभ है और जिससे संवर होकर बंधन नहीं होता हो वह शुभ है। जैन विचारणा में आस्रव के पांच कारण हैं - 1. मिथ्या दृष्टि 2. कषाय 3. अविरति 4. प्रमाद और 5. योग । इसी प्रकार संवर के 5 कारण हैं - 1. सम्यकदृष्टि 2. अकषाय 3 विरति 4. अप्रमाद और 5. अयोग । पाश्चात्य विचारणा के 1. संकल्प 2. प्रेरक 3. चरित्र 4. अभिप्राय ( इरादा ) अपने लाक्षणिक अर्थों में निम्न प्रकार से इनके समानार्थक माने जा सकते हैं ।
1. संकल्प
2. प्रेरक
3. चरित्र
4. अभिप्राय -
खण्ड ४, अंक २
मिथ्या दृष्टि सम्यक दृष्टि
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1. दृष्टि <
2. कषाय (वासना)
3.
4. प्रमादति ] दुश्चरित्र
→>>
5. योग ( मनोयोग )
टिप्पणी - जैन दर्शन में जिस प्रकार योग मानसिक और शारीरिक कृत्यता है । उसी प्रकार मिल के अनुसार अभिप्राय भी कृत्यता है अतः दोनों ही समान जा सकते हैं ।
विरति
अप्रमाद
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] → सच्चरित्न
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