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________________ प्रमाण की संख्या निर्धारण करने में सभी दार्शनिक एकमत नहीं हैं। इसका कारण है उन-उन दार्शनिकों की परम्परागत सैद्धान्तिक धारणाएं। उन धारणाओं के आधार पर प्रमाण संख्या का क्रम इस प्रकार बनता है: ...-- नास्तिक- 1. प्रत्यक्ष वैशेषिक-- 2. प्रत्यक्ष, अनुमान सांख्य- 3. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम नैयायिक .- 4. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान मीमांसक (भट्ट) 5. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति मीमांसक (प्रभाकर) प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव जैन- 2. प्रत्यक्ष, परोक्ष पौराणिक- 8. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, संभव, ऐति ह्य। प्रमाण के सन्दर्भ में यह संख्या-भेद चिन्तन-भेद का प्रतीक है। वस्तुतः पदार्थ के प्रति ज्ञान के सही व्यापार का नाम प्रमाण है इस दृष्टि से प्रमाण एक ही है, किन्तु अवबोध की प्रक्रिया के भेद से प्रमाण से एकाधिक भेद स्वतः प्राप्त हैं। यदि हम विलयीकरण की दृष्टि से सोचें तो लगभग प्रमाण एक दूसरे में अन्तनिहित हो सकते हैं। उपमान प्रमाण सादृश्य प्रत्यभिज्ञा में समाविष्ट हो जाता है। अर्थापत्ति अनुमान प्रमाण का अंग है । अभाव का समावेश स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क अनुमान आदि प्रमाणों में हो जाता है। संभव प्रमाण अनुमान के अन्तर्गत आता है । ऐतिह्य के दो रूप हैं .- यथार्थ और अयथार्थ । अयथार्थ ज्ञान अप्रमाण है । यथार्थ प्रवाद परम्परा आगम में अन्तनिहित है। इन सबका और संक्षेपीकरण करें तो इनमें से कुछ का समावेश सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में और शेष का परोक्ष में हो जाता है । जैन दर्शन में प्रमाण वर्गीकरण में ज्ञान की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । ज्ञान पांच हैं-i) मतिज्ञान (iv) मनःपर्यवज्ञान (ii) श्रुतज्ञान (v) और केवलज्ञान (iii) अवधिज्ञान इन में अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीन प्रत्यक्ष प्रमाण है। मति और श्रुत परोक्ष प्रमाण हैं। दूसरे अभिक्रम में प्रत्यक्ष के दो भेद किये जाते हैं :-सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है तथा अवधि और मनःपर्यवज्ञान विकल या अपूर्ण प्रत्यक्ष हैं। प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष प्रमाण के दो और भेद किये गये हैं(i) पारमार्थिक प्रत्यक्ष (ii) और सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष पारमार्थिक प्रत्यक्ष आत्म सापेक्ष होता है और सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष आत्मा और तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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