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प्रमाण-प्रमाण को भिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है। कुछ दार्शनिक इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष मात्र को प्रमाण मानते हैं । कुछ दार्शनिक अर्थ की उपलब्धि में हेतुभूत तत्त्व को प्रमाण मानते हैं। जहाँ स्व-पर-प्रकाशक प्रत्यक्षादि ज्ञान प्रमाण की संज्ञा प्राप्त करते हैं, वहाँ 'यथार्थज्ञानं प्रमाणम्,' यथार्थ ज्ञान प्रमाण है इस छोटी सी परिभाषा में वे सारी अपेक्षाएं समाहित हो जाती हैं, जो अन्य-अन्य विशेषणों से परिभाषित की जाती है । बौद्ध दार्शनिक सारूप्य और योग्यता को प्रमाण मानते हैं।
प्रमाण की निरुक्ति कई प्रकार से की जाती है :(i) प्रमिणोति इति प्रमाणम् । (ii) प्रमीयतेऽनेन तत् प्रमाणम् । (iii) प्रमितिमानं प्रमाणम् । विभिन्न दार्शनिक प्रमाण की भिन्न-भिन्न परिभाषा करते हैं :आचार्य विद्यानन्द ने व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य अकलंक अनधिगत अर्थग्राही ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। माणिक्य नन्दी अपूर्व अर्थबोधक व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । वादिदेवसूरि की दृष्टि में स्व-पर-व्यवसायी ज्ञान प्रमाण है। आचार्य हेमचन्द्र सम्यग अर्थ निर्णीति को प्रमाण की परिधि में सम्मिलित करते हैं । न्याय-वैशेषिक और मीमांसक धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं ।
आचार्य श्री तुलसी ने प्रमाण की उक्त सभी परिभाषाओं का सार संग्रहीत कर एक नई परिभाषा दी-यथार्थ ज्ञान ही प्रमाण है ।
ज्ञान के साथ यथार्थ विशेषण इस तथ्य को सूचित करता है कि ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का हो सकता है । प्रमाण वही ज्ञान है जो यथार्थ है।
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि ज्ञान के माध्यम हैं पर ये यथार्थ नहीं है, अतः अप्रमाण हैं।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि प्रमाण का आधार प्रमाता है । प्रमाता का दृष्टिकोण सही है तो उसका ज्ञान अप्रमाण कैसे हो सकता है ?
इस प्रश्न को दो प्रकार से उत्तरित किया जा सकता है। हमारे आचार्यों ने अयथार्थ ज्ञान के दो रूप माने हैं-आध्यात्मिक और व्यावहारिक ।
आध्यात्मिक अयथार्थ ज्ञान (विपर्यय और संशय) का सम्बन्ध मोहनीय कर्म के उदय से है । आध्यात्मिक विपर्यय मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से होता है और आध्यात्मिक संशय मिश्र मोहनीय के उदय से होता है।
व्यावहारिक अयथार्थज्ञान समारोपात्मक ज्ञान है। यह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है । इस उदय जनित अवस्था को भी विपर्यय और संशय का रूप दिया जा सकता है।
खण्ड ४, अंक २
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