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________________ आवश्यक हो गया था कि जैन न्याय को भी संस्कृत में प्रस्तुत करें । जैन न्याय तत्कालीन प्रबुद्ध विचारकों के सामने आया तब तक अन्य दार्शनिकों के न्याय ग्रन्थ काफी प्रसिद्ध हो । ऐसी स्थिति में जैन दार्शनिकों पर यह विशेष दायित्व था कि वे न्याय के क्षेत्र में मौलिक स्थापना करके जैन न्याय को लोक जीवन में प्रतिष्ठित करें। अन्यथा बहुचर्चित बहुप्रचलित दार्शनिक मन्तव्यों के बीच में नवोदित जैन न्याय पर किसी विद्वान् का ध्यान आकृष्ट कैसे हो सकता था ? कोई भी दर्शन स्वतन्त्र रूप में अपने अस्तित्व को प्रस्तुत करने या स्थिर रखने के लिये कुछ मौलिक स्थापना करे, यह नितान्त अपेक्षित हो जाता है । जैन दार्शनिकों ने सबसे विलक्षण स्थापना - अनेकान्तवाद - की। अनेकान्तवाद दर्शन जगत के लिये नयी उपलब्धि थी, इसलिए वह ऊहापोह और आकर्षण का विषय बना । विद्वानों का ध्यान इस ओर केन्द्रित होने लगा, इस घटना ने परम्परावादी विद्वानों को चौंका दिया। उन्होंने अनेकान्तवाद के विरोध में लिखना शुरू कर दिया। दार्शनिक युग के प्रारम्भ में तर्कवाद का प्राबल्य था । उस समय दार्शनिक चर्चाओं के लिये अखाड़ेबाजी होती थी । उसमें ज्ञान चर्चा का पक्ष गौण था और जय-पराजय की भावना मुख्य रूप से काम करती थी । यही कारण था कि न्याय ग्रन्थों में छल, जाति, निग्रह स्थान जैसे तत्त्वों को स्थान मिला । I भगवान् महावीर का तत्त्व-निरूपण ज्ञान की उपलब्धि के लिये था । इसलिये उन्होंने न वितर्क को स्थान दिया और न छल, जाति आदि तत्त्वों को । भगवान् महावीर स्वतन्त्र चिन्तन के पक्षपाती थे । उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को अपने केवलज्ञान की आलोक धारा में अवगाहन कराया किन्तु किसी भी शिष्य पर कोई चिन्तन थोपा नहीं । उनको सत्य का साक्षात्कार हो चुका था किन्तु उनके जो शिष्य सत्य के अन्वेषी थे, उनको अपने आलोक में सत्य का दर्शन नहीं कराया । तत्त्व का सम्यग् प्रतिपादन कर उन्होंने कहा - 'मइमं पास', मतिमान् ! मैंने जो कुछ कहा है वह पूर्ण रूप से ज्ञात, दृष्ट और परीक्षित है किन्तु तुम इस पर चिन्तन करो। अपने विवेक के तराजू पर इसे तोलो। ऐसा करके ही तुम सत्य के साथ सीधा सम्पर्क कर सकते हो । भगवान् महावीर ने जो कुछ कहा गणधरों ने उसका संकलन किया । वर्तमान में भगवान् महावीर की वाणी का जो संकलन हमें उपलब्ध है वह गणधर सुधर्मा का है । उस सम्पूर्ण संकलन को "जैन वाङ् मय" के रूप में पहचाना जाता है। इसकी मुख्य चार शाखाएं हैं 1. द्रव्यानुयोग 2. चरण करणानुयोग 3. गणितानुयोग 4. धर्मकथानुयोग इनमें जैन न्याय का प्रवेश द्रव्यानुयोग में होता है । जैन न्याय का विषय बहुआयामी है । प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा समालोच्य विषय है— प्रमाण । ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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