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1. असत् का प्रादुर्भाव ।
2. इष्ट की प्राप्ति ।
3. भाव (पदार्थ) का अवबोध ।
कुम्भकार मिट्टी खोदता है । मिट्टी को आकार देने के लिये चक्र, सूत्र आदि सहायक सामग्री जुटाता है । उसका पुरुषार्थ फलता है और घड़ा तैयार हो जाता है । यह असत् का प्रादुर्भाव है ।
तालाब में पानी है । एक मनुष्य उधर से गुजरा । वह प्यास से व्याकुल था । उसने लोटा, बाल्टी आदि सहायक सामग्री के योग से जल प्राप्त कर अपनी प्यास बुझा ली । यह सत् वस्तु की प्राप्ति है ।
मनुष्य चेतनाशील प्राणी है । अनावृत चेतना में संसार की हर वस्तु स्वत: प्रतिबम्बित रहती है । आवृत चेतना में अवबोध के अनेक स्तर बन जाते हैं । अनावृत चेतना द्वारा और आवृत चेतना के संभावित अनावरण द्वारा वस्तु ज्ञान का जो क्रम बनता है वह भावज्ञप्ति है ।
न्यायशास्त्र अर्थसिद्धि के इन तीनों उपायों में भाव-ज्ञप्ति से ही सीधा सम्बन्धित है । भाव-ज्ञप्ति के दो माध्यम हैं - लक्षण और प्रमाण । लक्षण व्यवच्छेदक होता है । वस्तु की व्यवस्था में हेतुभूत जो धर्म अपने लक्ष्य का व्यवच्छेद करता है, उसे दूसरी वस्तुओं से अलग करता है, वह लक्षण कहलाता है । प्रमाण के द्वारा वस्तु के स्वरूप का निर्णय होता है और लक्षण निर्णीत स्वरूप वाली वस्तुओं को श्रेणीबद्ध करता है । उष्णता अग्नि का लक्षण है, साना गौ का लक्षण है, चैतन्य जीव का लक्षण है । यहाँ उष्णता और चैतन्य क्रमशः अग्नि और जीव के स्वभावगत धर्म हैं । सास्ना गौ का अवयवगत धर्म है ।
प्रमाण की भांति लक्षण भी दो रूप बनते हैं -- प्रत्यक्ष और परोक्ष । ताप के द्वारा अग्नि का ज्ञान करना प्रत्यक्ष लक्षण है और जहाँ धूम के माध्यम से अग्नि का ज्ञान किया जाता है वहाँ धूम अग्नि का परोक्ष लक्षण बनता है ।
भारतीय दर्शनों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन । सामान्य वर्गीकरण में चार्वाक नास्तिक दर्शन है तथा न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध, जैन आदि आस्तिक दर्शन हैं । कुछ दार्शनिकों ने चार्वाक के साथ जैन और बौद्ध दर्शन को भी वेद विरोधी होने के कारण नास्तिक दर्शनों में परिगणित किया है ।
जैन दर्शन में न्याय के बीज आगम साहित्य में उपलब्ध हैं । भगवती, स्थानांग, नन्दी, अनुयोगद्वार आदि आगम इसके साक्ष्य हैं । इनमें प्रमाण विषयक चर्चा कहीं विस्तार से कहीं संक्षेप में प्राप्त होती है । इस चर्चा का मूल उत्स ज्ञान प्रवाद पूर्व रहा हो, ऐसा संभव लगता है। ज्ञान विषयक इस चर्चा को दार्शनिक रूप में प्रस्तुत उत्तरवर्ती आचार्यों ने किया । जैन आगम प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं । 3 अन्य दर्शनों के न्याय ग्रन्थ संस्कृत में हैं । अतः तत्कालीन आचार्यों के लिये, जिनमें उमास्वाति अग्रगण्य हैं यह
खण्ड ४, अंक २
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