SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिलता। मेरे देखने में विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३८३ में केवली के लिये 'जन' (प्रा. 'जइण') शब्द प्रयुक्त हुआ है । सम्भव है यही सबसे प्राचीन उल्लेख हो। जैन-धर्म-दर्शन के आधारभूत ग्रन्थ 'गणिपिटक' 'आगम' या सूत्र' कहलाते हैं । श्रुत के अनेक पर्याय हैं, जैसे- "श्र त, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम"" आगम भी 'श्रु त' का पर्याय है । आगम का अर्थ है-जो तत्त्व आचार्य-परम्परा से वासित होकर आता है, वह 'आगम' है ।'' इस प्रकार 'आगम' शब्द समग्र श्रुत-ज्ञान का परिचायक है। परन्तु जैन धार्मिक ग्रन्थों को जो आगम' संज्ञा प्राप्त है, वह कुछ विशेष ग्रन्थों के लिये ही है। 'गणिपिटक' शब्द द्वादश-अंगों के लिये प्रयुक्त होता है। जैन-सूत्रों में स्थान-स्थान पर 'दुवालसांगं गणिपिडगं' ऐसा उल्लेख आता है । प्राय: बारह अंगों का समुदायवाची शब्द है, परन्तु कहीं-कहीं इसे एक अंग का वाचक भी माना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-- [गणी-आचार्य, पिटक-सर्वस्व] आचार्य का सर्वस्व । सर्वसाधारण में जैन आगमों के लिये 'सूत्र' संज्ञा प्रचलित है। इसका कारण है कि आगम बहुलांश में 'सूत्र' की परिपाटी से लिखे गये हैं, अत: रचना के आधार पर उन्हें सूत्र कह दिया गया। आगम व्यवस्था आगम के दो मुख्य भेद हैं --- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य अथवा अनंगप्रविष्ट ।' ये विभाग प्राचीनतम हैं। गणधर भगवान् महावीर से प्रश्न पूछते हैं -- 'भयवं ! किं तत्तं ? भगवान् कहते हैं – 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा।' इसे 'प्रश्नत्रितय', मातृपदिका, 'निषद्यानय' अथवा 'त्रिपदी' कहा जाता है। इनके फलस्वरूप जो ग्रन्थों की रचना होती है, वह 'अंग-प्रविष्ट' कहलाती है और इतर रचनाए अंग-बाह्य । द्वादशांगी अवश्य ही गणधर 1. जइणसमुग्घायगइए पत्र 1918 2. सुयसुत्तगंथसिद्धतपवयणेआणवयणउवएसे । पण्णवणआगमे या, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ॥ अनुयोगद्वार 4 । विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 897 । 3. आगच्छत्याचार्यपरम्परया वासनाद्वारेणेत्यागम:-सिद्धसेन-गणिकृत भाष्यानुसारिणी टीका-पृ० 89 4. समवायांग 1,136। 5. तिण्हं गणिपिडगाणं आचारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्जयणा पन्नत्ता, तंजहा आयारे, सूयगडे, ठाणे "समवाय 57 । 6. 'गणिपिटक'-गुणगणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटक-सर्वस्वं गणिपिटकम् __ अनुयोगद्वार सूत्र 612 मलधारी हेमचन्द्र सूरि कृत वृत्ति पत्र 38 । 7. नंदीसूत्र 616। 8. देखो--विशेषावश्यक भाष्य पर मलधारी हेमचन्द्र सूरि कृत बृहद्वृत्ति पत्र 2881 १४४ तुलसी प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy