________________
आगम अनुसंधान :
सूत्रकृताङ्ग के आधार परआगमकालीन सभ्यता और संस्कृति
मुनि श्री दुलहराज ज्ञान अनन्त है, ज्ञेय भी अनन्त है । दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। ज्ञान की अनन्तता ज्ञेय के आनन्त्य को सूचित करती है और ज्ञेय की अनन्तता ज्ञान के आनन्त्य को बताती है। आत्मा अनन्त ज्ञानमय चेतना-पिण्ड है। यह उसका स्वाभाविक स्वरूप है । परन्तु जब वह कम-बद्ध होती है तब उसके आवरण की तरतमता से ज्ञान का तारतम्य प्रगट होता है और उसी के अनुसार व्यक्ति ज्ञय का परिच्छेद करता है।
जैन दर्शन ज्ञान की अनन्त उपलब्धि में विश्वास करता है। यह आत्मशुद्धि सापेक्ष है। जब तक घाति-कर्म चतुष्टय का सर्वथा विनाश नहीं होता, आत्मा में अनन्त-ज्ञान की स्फुरणा नहीं होती। इसके बिना सर्वज्ञता नहीं आती । सर्वज्ञता ज्ञान का चरम विकास है । ज्ञान का तरतमभाव हमें यह मानने के लिये प्रेरित करता है कि ज्ञान की चरम-अवस्था भी होनी चाहिये, जिसे पा लेने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। यह वीतराग अवस्था की चरम परिणति है । तदनन्तर साधक निर्द्वन्द्व हो, संकल्प-विकल्पों से सर्वथा छुटकारा पा अननुभूत समाधि-अवस्था को प्राप्त कर लेता है। अध्यात्म का आदि-बिन्दु सत्प्रवृत्ति है और उसकी चरम परिणति है अक्रिया । यही निर्वाण है, मोक्ष है, शान्ति है ।
जैन-दर्शन आत्मा का दर्शन है। आत्मा को केन्द्र-बिन्दु मानकर, उसकी परिक्रमा किये वह चलता है और उसकी उपलब्धि में अपनी साधना की परिसमाप्ति मानता है।
जैन दर्शन की भित्ति आत्मवाद है । जब से आत्म-अस्तित्व का ज्ञान है, तब से जैन दर्शन है और जब से जैन-दर्शन है तब से आत्म-अस्तित्व का ज्ञान है। यह अनादि-अनन्त है । अनन्त कालचक्र बीत चुके हैं और भविष्य में अनन्त काल-चक्र होंगे उन सब में जैनप्रवचन का प्रज्ञापन होता रहेगा। काल की विचिन्न परिणति के कारण इसकी उदित या अस्तमित दशा अवश्य होगी, परन्तु यह सम्पूर्णत: नष्ट नहीं होगा।
जैन-दर्शन प्राचीन काल में निर्ग्रन्थ-प्रवचन' कहलाता था। आगमों में इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है। 'जैन' शब्द का प्रचलन कब से हुआ इसका निश्चित इतिहास नहीं खण्ड ४, अंक २
१४३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org