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________________ कृत है क्योंकि यह त्रिपदी से उद्भूत होती है। परन्तु गणधरकृत समस्त रचनाएं अंग नहीं कहलातीं ।। अतः त्रिपदी के बिना, मुक्त व्याकरण से जो रचनाएं होती हैं, चाहे फिर वे गणधरकृत हों या अन्य स्थविरकृत, उन सबका समावेश 'अंगबाह्य' में होता है। आगम-रचना आगम-रचना के विषय में मतभेद है । कई यह मानते हैं कि गणधर सर्वप्रथम चौदह पूर्वो की रचना करते हैं और तदनन्तर 'आचार' आदि अंगों की रचना होती है। दूसरा मत यह है कि गणधर सर्वप्रथम 'आचार' आदि अंगों की रचना करते हैं और अंत में चौदह पूर्वो की । पहला मत उचित प्रतीत होता है । उसके औचित्य का निम्नोक्त आधार है। पूर्वो में सारा श्रु त समा जाता है, किन्तु साधारण लोग पूर्वो को समझ नहीं सकते। उनका विषय अत्यन्त दुरूह और क्लिष्ट होता है। स्त्रियों को पूर्वो का अध्ययन करने का अधिकार नहीं है क्योंकि उनमें तुच्छत्व, अभिमान, चञ्चलता, धृति-दौर्बल्य आदि दूषणों की अधिकता होती है। अतः मंद बुद्धि वाले लोगों और स्त्रियों के लिये द्वादशाङ्गी तथा अंगबाह्य ग्रन्थों की रचना हुई। आगम साहित्य में अध्ययन परम्परा के तीन क्रम मिलते हैं। कुछ श्रमण चतुर्दशपूर्वी होते थे, कुछ द्वादशाङ्गी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अंगों के पाठक होते 1-2 यद् गणधरैः साक्षाद् दृब्धं तदङ्गप्रविष्टं, तच्च द्वादशाङ्ग, यत्पुन: स्थविरै भद्रबाहुस्वामिप्रभृतिभिराचार्यरुपनिबद्ध तदनङ्गप्रविष्टं, तच्चावश्यक नियुक्त्यादि, अथवा वारनयंगणधरपृष्टेन सता भगवता तीर्थकरेण यत्प्रत्युच्यते 'उप्पज्जेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इति पदत्रयं तदनुसृत्य यन्निष्पन्नं तदङ्गप्रविष्ट, यत्पुनर्गणधरप्रश्नव्यतिरेकेण शेषकृतप्रश्नपूर्वकं वा भगवतो मुत्कलं व्याकरण तदधिकृत्य यन्निष्पन्नं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादि, यच्च वा गणधरवचांस्येवोपजीव्य दृब्धमावश्यकनियुक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदनङ्गप्रविष्टं..."सर्वपक्षेषु द्वादशाङ्गान्यङ्गप्रविष्टं शेषमनङ्गप्रविष्ट, उक्त च “गणहरथेरक यं वा आएसा मुक्कवागरणतो वा । धुक्वल विसेसतो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं [विशेषा० गाथा 567/-मलयगिरिकृत आवश्यक सूत्र वृत्ति-पत्र 48 । 3. .. आचारो... अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्ग स्थापना-मधिकृत्य, रचनाऽ. पेक्षया तु द्वादशमङ्गम्-समवायाङ्ग, अभयदेवसूरीकृतवृत्ति, पन 108 । 4. .. ."ये दुर्मेधस: ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च दुर्मेधस्त्वात् । स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात्, उक्त च -- 'तुच्छा गारवबहुला चलिदिया दुब्बलाधिईए य । इति अइसेसज्जयणा भूयावायो न इत्थीणं।' ( विशेषा० भाष्य गाथा 555] ततो दुर्मेधसां स्त्रीणां चानुग्रहाय शेषाङ्गानामङ्गबाह्यस्य च विरचनमिति-उक्तं च "जइविय भूयावाए सव्वस्सवयोगयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहाविऊ दुम्मेहे पप्प इत्थी य" [विशे० भा० गा० 554]] खण्ड ४, अंक २ १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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