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प्रत्येक देश, काल और स्थिति में अन्तर होता है । सबका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है । कोई भी समसामयिक प्रणाली अपने वर्तमान से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती । अतः उसे समझने का एकमात्र साधन है, उस उस तत्त्व को उसी परिस्थिति और देश, काल में समझने का प्रयत्न करना । इससे समस्त बौद्धिक उलझन समाप्त हो जाती है और व्यक्ति सत्य के निकट पहुंच जाता है
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आगम तथा उसका साहित्य अत्यन्त विशाल है । उसका पारायण समय सापेक्ष है । अन्यान्य दर्शनों के ग्रन्थों की जिस प्रकार छानबीन हुई है, वैसी जैन ग्रन्थों की नहीं हुई । इसके अनेक कारण हैं । उनमें ग्रन्थों की अनुपलब्धि, साम्प्रदायिक कट्टरता और उदासीनता मुख्य हैं । एक समय था जब जैन आचार्यों ने ग्रन्थ रचनाओं से श्रुतभाण्डागार को समृद्ध किया । पर उस समय यातायात की इतनी सहज सुलभता नहीं थी, अत: उनका प्रचारप्रसार कम हुआ । साथ-साथ जैन अनुयायी व्यापारी होते गए और इस ओर से उनकी सहज रुचि परिवर्तित होती गयी। जैन विद्वान् कम होने लगे ।
नो-सुलभ पद
छट्ठाणावं सब्वजीवाणं णो सुलभाई भवन्ति, तं जहा - माणुस्सए भवे । आरिए कैसे जम्मं । सुकुले पच्चायाती । केवजीपण्णत्तस्स धम्मस्स सवणता । सुत्तस्स वा सद्दहणता । सद्द हितस्स वा पत्तितस्स वा रोइतस्स वा सम्मं कारणं फासणता ।
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छ: स्थान सब जीवों के लिए सुलभ नहीं होते - ( 1 ) मनुष्य सव, (2) आर्य क्षेत्र में जन्म, (3) सुकुल में उत्पन्न होना, ( 4 ) केवलज्ञप्त धर्म का सुनना (5) सुने हुए धर्म पर श्रद्धा, ( 6 ) श्रद्धित प्रतीत और रोचित धर्म का सम्यक् कायस्पर्श (आचरण) ।
-ठाणं, 6/13
खण्ड ४, अंक २
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— क्रमशः
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