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भारतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का महत्त्वपूर्ण योगदान
डा० के० आर० चन्द्र, अहमदाबाद
भारत में प्राचीनकाल से दो सांस्कृतिक परंपराएं विद्यमान रही हैं— वैदिक और श्रमण | वैदिक परंपरा ने संस्कृत भाषा को अपना प्रमुख माध्यम बनाया और धार्मिक साहित्य के लिए इस देव वाणी के सिवाय अन्य लोक भाषाओं का बहिष्कार किया। संस्कृतेतर भाषाओं को अपभ्रष्ट माना गया और नाटकों में प्राकृत भाषाओं को हीन दर्जा दिया गया । अपवाद रूप में प्राकृत भाषा में उनका कुछ शिष्ट साहित्य मिलता है ।
इसके विपरीत श्रमण-परंपरा लोकाभिमुख थी अतः उसने भाषा-विशेष को पवित या अपवित्र नहीं माना परंतु अपना संदेश लोगों तक ले जाने के लिए यह परंपरा समय और क्षेत्र के अनुसार विकासमान नयी-नयी लोक भाषाओं को साहित्यिक दर्जा दिलवाने में आगे रही और उन लोक भाषाओं को धार्मिक एवं शिष्ट साहित्य का माध्यम बनाया ।
वैदिक परंपरा के समान श्रमणों के प्राचीन साहित्य का प्रारंभ भी धार्मिक साहित्य से ही हुआ और बाद में संस्कृत साहित्य के समान अनेक प्रकार का शिष्ट साहित्य मध्यकालीन और अर्वाचीन लोक भाषाओं में रचा गया। संस्कृत भाषा में साहित्य की जितनी विधा प्राप्त हैं लगभग उतनी ही विधाएं प्राकृत भाषाओं में भी प्राप्त हैं और इन भाषाओं में संस्कृत के समकक्ष अभिव्यक्ति का सामर्थ्य है यह भी सिद्ध होता है और इन प्राकृत रचनाओं का भारतीय साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान हैं ।
किसी भाषा - विशेष के प्रति मोह नहीं होने के कारण श्रमण-परंपरा ने संस्कृत भाषा में भी साहित्य के लगभग सभी प्रकारों की रचना की है । उपलब्ध संस्कृत साहित्य में श्रमणों की अनेक रचनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
भारतीय भाषाओं का ईसा पूर्व पाँचवीं शती से आज तक का क्रमिक विकास जानने के लिए श्रमण- साहित्य ही मुख्य साधन है और इस दिशा में श्रमणों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण देन है । कुछ श्रमणेतर प्राकृत रचनाएं प्राप्त हैं परंतु उनमें से अधिकतर कृतियाँ संस्कृत
पालि- प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में दिनांक 21 से 23 मार्च 1977 तक आयोजित 'भारतीय संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति का योगदान' नामक संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख ।
खण्ड ४, अंक २
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