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________________ वाचना, पृच्छना, स्तुति आदि को स्वाध्याय कहा गया है (मूलाचार, गा० 219 ) कुन्दकुन्द ने यद्यपि निश्चयनय को ही प्रमुखता दी है, किन्तु व्यवहारनय से भी उपदेश दिया है । उनके अन्य ग्रन्थों की भांति नियमसार में भी अधिकतर निश्चयनय और शुद्धोपयोग का कथन है । किन्तु एक स्थान पर आचार्य यह भी कहते हैं कि यदि तुम करने में समर्थ हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करो । किन्तु यदि तुम में शक्ति नहीं है तो तब तक उनका श्रद्धान ही करना चाहिए (154) | इससे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय की सर्वथा उपेक्षा नहीं की है । नियमसार पर किसी प्राचीन ग्रन्थ का प्रभाव खोज पाना कठिन है । क्योंकि कुन्दकुन्द के बाद जैन सिद्धान्त के स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ हुई है । दूसरी बात यह कि कुन्दकुन्द के किसी ग्रन्थ में भी किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ का सन्दर्भ नहीं मिलता | नियमसार में अवश्य दो स्थलों पर प्राचीन ग्रन्थों के संकेत मिले हैं। चारगतियों के जीवों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है कि इनका विस्तार लोकविभाग में से जान लेना चाहिए ( 17 ) । यह लोकविभाग नामक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ की ओर संकेत नहीं है, अपितु जिन ग्रन्थों में लोक का वर्णन है, उन ग्रन्थों से यह सामग्री जानने को कहा गया है । दूसरे सन्दर्भ में स्पष्टरूप से 'प्रतिक्रमण' नामक सूत्र ग्रन्थ का उल्लेख है, जिससे प्रतिक्रमण का ज्ञान प्राप्त करने को कहा गया है (94) । दिगम्बर परम्परा में अतिक्रमण सूत्र नामक कोई ग्रन्थ आज तक प्राप्त नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा में इस नाम का ग्रन्थ है, किन्तु कुन्दकुन्द से ऐसी आशा करना कि उन्होंने इस श्वेताम्बर प्रतिक्रमण सूत्र का सन्दर्भ दिया होगा, उचित नहीं है । अतः हो सकता है कि दिगम्बर परम्परा में भी कोई प्रतिक्रमण सूत्र ग्रन्थ रहा हो जो आज उपलब्ध नहीं है । नियमसार की 9 गाथाएं ( 125-133) प्रचलित गाथाओं के छन्द की दृष्टि से ये गाथाएं विचारणीय हैं । अष्टपाहुड़ में इस मिलती हैं । नियमसार की भाषा जैन शौरसेनी प्राकृत है । कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों के समान ही इसकी शब्दावलि है । किन्तु इस ग्रन्थ का आलोचनात्मक संस्करण न होने से ग्रन्थ के कुछ शब्द प्राकृत की प्रकृति से भिन्न दिखलायी पड़ते हैं। हो सकता है कि ग्रन्थ की मूलप्रतियों के पाठान्तर का मिलान करने पर उपयुक्त शब्द मिल जाय । अथवा नियमसार में प्रयुक्त ये विशिष्ट शब्द भी हो सकते हैं । अकारादिक्रम से सन्दर्भ सहित उनकी सूची यहां प्रस्तुत है— १०८ 1. अलुच्छण ( गा० 108) 2. अवगणं ( 30 ) 3. खुए ( 115 ) 4. चउन्नाणं (33) 5. alfare (71) 6. जौह (139) 7. Tarterer (45) Jain Education International अलुंच्छण अवगहणस्स खु (खलु) चउन्हं चउतीसा जैन अर्थ में प्रयुक्त सय स्वरूप से भिन्न हैं । प्रकार की गाथाएं For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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