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गम्भीरतापूर्वक विचार किया जिनके कारण बड़े बाबा की यह मूर्ति महावीर स्वामी के रूप में विख्यात हुई तथा वस्तुस्थिति, प्रतिमाविज्ञान, पुरातात्त्विक साक्ष्य आदि के आधार पर मुझे उन्हें 'ऋषभनाथ' की मूर्ति स्वीकार करने में जो औचित्य प्रतीत हुआ है-उस संपूर्ण चिन्तन के निष्कर्ष अग्रलिखित पक्तियों में प्रस्तुत है :
बड़े बाबा के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बायीं ओर (अब द्वार चौड़ा किये जाने पर इसे दायीं ओर की दीवार में जड़ दिया गया है) एक अभिलेख जड़ा हुआ है । यह अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह एक फुट ग्यारह इंच चौड़ा और एक फुट सात इंच ऊंचा है। इसी अभिलेख में प्रतापी शासक, बुंदेलखंड के गौरव, महाराज छत्रसाल द्वारा कुण्डलपुर को दिए गये बहुमूल्य सहयोग और दान का वर्णन प्राप्त होता है ।
विक्रम सम्वत् 1757 के इस अभिलेख में बड़े बाबा के मन्दिर के जीर्णोद्धार के प्रसंग में पद्य संख्या दो में श्री वर्द्धमानस्य' तथा पद्य संख्या दस में 'श्री सन्मतेः' शब्द आये हैं। इस अभिलेख की तिथि और वर्ण्य-विषय सुस्पष्ट हैं। इससे केवल यह तथ्य प्रकाशित होता है कि सत्रहवीं-अठारहवीं शती में यह मन्दिरं 'श्री महावीर मन्दिर' के नाम से जाना जाता था। संभवतः 'बड़े बाबा' की यह मूर्ति भी उन दिनों श्री महावीर की मूर्ति कहलाती होगी। कदाचित् तत्कालीन भक्तों को सिंहासन में अंकित दो सिंह देखकर बड़े बाबा को 'महावीर' मानने में सहायता मिली होगी।
___ मन्दिर संख्या 11 की विशाल मूर्तियों को ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि बड़े बाबा की विशाल मूर्ति का सिंहासन दो पाषाण खंडों को जोड़कर बनाया गया है । बड़े बाबा की मूर्ति के दोनों ओर उन्हीं के बराबर ऊंची भगवान पार्श्वनाथ की दो कायोत्सर्ग मूर्तियां भी हैं, इनके सिंहासन निजी नहीं, बल्कि अन्य विशाल कायोत्सर्ग मूर्तियों के अवशेष प्रतीत होते हैं। इन मूर्तियों के सिंहासन कदाचित् कभी बदले गये हों। यदि ऐसी कोई संभावना हो भी, तो यह बात आततायियों के आक्रमण के बाद की ही हो सकती है ।
इस सबके साथ यह बात सहज ही स्वीकरणीय है कि जीर्णोद्धार के पश्चात् (गत दो-तीन शताब्दियों में) बड़े बाबा के गर्भगृह में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये हैं। जैसे गर्भगृह के भीतर चारों ओर दीवारों पर मूर्तियां जिस ढंग से जड़ी हुई हैं, उनमें कोई निश्चित योजना अथवा व्यवस्था नहीं मालूम होती है। हमारा ऐसा विश्वास है कि ये मूर्तियां अन्यत्र से लाकर लगा दी गई हैं।
निश्चित ही यह प्रसंग आश्चर्यजनक है कि साक्ष्यों की उपेक्षा करके उक्त अभिलेख (संवत् 1757) में इसे 'श्री वर्धमान मन्दिर या श्री सन्मति मंदिर' कहा गया है, जबकि मूर्ति के पादपीठ पर तीर्थंकर महावीर का लांछन 'सिंह' या अन्य कोई प्रतीक यक्ष-यक्षी' (मातंग और सिद्धायिका) अथवा कोई अभिलेख आदि उत्कीर्ण नहीं हैं। पादपीठ पर दोनों पावों में जो दो सिंह निशित हैं, वे श्री महावीर के लांछन या प्रतीक नहीं है, अपितु वे सिंहासनस्थ के शक्तिपरिचायक सिंह हैं, जैसे कि प्रायः अन्य सभी मूर्तियों के पादपीठ पर ये देखे जा सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूर्ति श्री महावीर के नाम से इसलिये सम्बोधित होने लगी होगी क्योंकि जन-सामान्य को महावीर स्वामी के संबंध में उन दिनों कुछ
तुलसी प्रज्ञा
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