Book Title: Margparishuddhi Prakaranam
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Bhidbhanjan Parshwanath Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || नमामि नित्यं गुरुप्रेमसूरीन्द्रं / / हामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयविरचितं टीकासमलङ्कृतं मार्गपरिशुद्धिप्रकरणम् દીક્ષાવિધિ प्रव्रज्याविधान સાધુની મનોદશા तिदिनक्रिया 2 ज्ञानदशा આચારસંહિતા વડી દીક્ષા अनुयोगगणानुजा 3 થિ-ગચ્છાધિપતિ પેદ व्रतस्थापना टीकाकृत् / आचार्य विजय कुलचन्द्रसूरिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / श्रीमदात्म-कमल-वीर-दान-प्रेमसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः / / महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयविरचितं टीकासमलकृतं मार्मपरिशुद्धिप्रकरणम् 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ____टीकाकृत् आचार्य विजय कुलचन्द्रसूरिः 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 प्रकाशक: श्री भीडभंजन पार्श्वनाथ जैन संङ्घः, भिवंडी (महाराष्ट्र) ON. . . O 4 . . . . . . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवृत्तिः - प्रथमा संवत - 2058 नकल - 500 मूल्य - श्री श्रमणसङ्घपठनपाठनम् प्राप्तिस्थानम् दिव्य दर्शन कार्यालय 39, कलिकुंड सोसायटी, धोलका-३८७८१०, जि. अहमदाबाद, फोन - (02714) 23738 .. श्री भीडभंजनपार्श्वनाथ जैन संघ 309, कनेरी, आग्रा रोड, कमला होटल के पास, भिवंडी - 421302, जि. थाणा. फोन-(०२५२२)२२०२५ 卐 मुद्रक वर्धमान प्रिन्टर्स 2, रमाशंकर अपार्टमेन्ट, खारकर आली, थाने (प.). फोन : 5438090,5363417 Polcapacapapaapaparopalpapar ByCccccc महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 2 मागपिरिशद्धिप्रकरणंसटीकम Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञता प्रदर्शन प.पू.गच्छाधिपति आ. श्री जयघोषसूरीश्वरजी म.सा.। आपने शङ्कास्पद स्थान के निर्णय में मात्र तत्परता ही नहीं, प्रयास भी किया। विद्वर्य आचार्य श्री जयसुन्दरसूरिजी म.सा.।। जिनसे दार्शनिक स्थान की स्पष्टता और लेखबद्ध करने में उल्लेखनीय सहयोग प्राप्त हुआ। विद्वान् आचार्य श्री अभयशेखरसूरिजी म.सा.। जो कर्मविषयक पदार्थनिर्णय और निरुपण में सहायक हुए। शासनमण्डन मुनिवर श्री यशोविजयजी म.सा.। जिन्होने प्रस्तुत ग्रन्थ को साधन्त पठन करके संशोधन से सुशोभित किया। शासनप्रभावक मुनिवर श्री हितरुचिविजयजी म.सा.। जिन्होने महामहोपाध्याय महाराज द्वारा स्वहस्तलिखित प्रति की नकल (झेरॉक्स) भीजवायी। आज्ञांकित मुनिश्री रत्नराजविजयजी म.सा.। जो प्रुफ संशोधन में सहायक हुए। पू. आचार्य श्री कैलाशसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - कोबा। जहाँ से प्रस्तुत विषय की मुद्रित पुस्तिका मिली। -आ.वि.कुलचन्द्रसूरि महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं मागपिरिशद्धिप्रकरणंसटीकम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / नमामि नित्यं गुरुप्रेमसूरीन्द्रं / / आमुख 1444 ग्रन्थ रत्नों के रचयिता पुण्यनामधेय आचार्य श्री हरिभद्रसूरि रचित पञ्चवस्तुक नामक महान् ग्रन्थ जैन वाङ्मय में अतीव प्रसिद्ध है। उक्त ग्रन्थ रूप सागर को गागर में समावेश करने रूप प्रस्तुत मार्गपरिशुद्धि प्रकरण रचना का महान् कार्य आसन्न उपकारी न्यायाचार्य महामहोपाध्याय श्रीमद् विजय यशोविजयजी म. ने बडी खूबी से किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की पीठिका रूप 16 गाथाओं में अद्वितीय विद्वत्ता का परिचय दिया है। ग्रन्थ का नाम सार्थक है। पूरे मोक्ष मार्ग का निरूपण बडी कुशलता से किया है। बीच बीच में वाद स्थानों को अति संक्षिप्त रूप से, फिर भी सचोट शैली में ग्रथित कर दिये हैं। ___ ग्रन्थ का मुख्य विषय पञ्चवस्तु के अनुसार (1) प्रव्रज्या विधि, (2) प्रव्रजित की नित्य क्रिया (3) महाव्रतों का आरोपण, (4) आचार्यपद एवं गण की अनुज्ञा विधि तथा (5) पञ्चवस्तुगत पांचवे संलेखना द्वार के स्थान पर कलिकाल की विषमता, बुद्धि बल और सत्त्व की हानि देखकर संलेखना योग्य परिणति हेतु सुंदर मार्गदर्शन रूप उपदेश दिया है। उपसंहार में आत्मज्ञान के अभ्यास पर विशेष भार देकर आगम ग्रन्थ जो मोक्ष के पन्थ हैं उनका अनुसरण गुरुकृपा से करने की अमूल्य सलाह देकर परमानन्द की प्राप्ति के आशीर्वाद से ग्रन्थ पूरा किया है। अवान्तर विषय भरचक हैं। उनका विवरण विषयानुक्रम से ज्ञात करें। प्रस्तुत मूल ग्रन्थ मोक्षमार्ग का संपूर्ण प्रदर्शक है। अत: नाम "मार्गपरिशुद्धि" सार्थक है। साधकों के लिए नित्य स्वाध्याय नप यह ग्रन्थ अतीव उपयोगी है। तीस साल ए यह मूल ग्रन्थ हाथ में आया, तब ही इस पर सुबोध विवेचन लिखने का प्रारंभ किया था। उस बीच ज्ञात हुआ कि विद्वद्वर्य पू. मुनि श्री यश:कीर्तिविजयजी (वर्तमान में आचार्य) म. इस ग्रन्थ की टीका लिख रहे हैं। बड़ा आनंद हुआ और मैंने लेख स्थगित कर दिया। एक ही विषय पर एक साथ दो टीकाओं की क्या आवश्यकता? लंबा समय बीत गया। कुछ समय पूर्व इन्हीं पूज्यों से साक्षात्कार हुआ और जानने को मिला कि व्याख्यान आदि अनेक प्रवृत्तियों में व्यस्त होने के कारण वह भी यह कार्य नहीं कर पाये। सुषुप्त इच्छा फिर जगी और इस कार्य का शुभ आरंभ नये सिरे से गत चातुर्मास वि.सं. 2056 नवसारी में किया और इस चातुर्मास वि.सं. 2057 भिवंडी में पूर्णता को पाया। इस कार्य में अनेक सहायक हुए हैं। उन सभी का नामोल्लेख कर आभार माना कहाँ महामहोपाध्याय महाराज की तार्किक बुद्धि और कहाँ मेरा स्वल्प बोध! फिर भी मुख्यतया पञ्चवस्तुक ग्रन्थ की टीका का एवं अन्य ग्रन्थों का आलंबन लेकर जैसे शिशु पिता का अनुकरण करता है वैसे ही इस टीका का संकलन किया है। संक्षेप में कहा जाय तो पदार्थ सभी पूर्व के महापुरुषों के हैं। मैं तो सिर्फ लेखक रहा। तथापि मूलकार के आशय विरूद्ध एवं श्री जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम्।। भिवंडी - आ. वि. कुलचन्द्रसूरि कार्तिक सुदि 15, 2058 महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 4 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्व किं पठनीयम्? विषय गाथा | पृष्ठ पीठिका त्रिजगद्गुरुशासननमस्कारात्मकं मङ्गलम् जिनवचनामृतमाहात्म्यम् स्याद्वादपटुनैव देशना देया सोमिलप्रश्ने भगवतो देशना निश्चयव्यवहारविषयकम् 6-13 गुरुकुलवासमाहात्म्यम् 14-17 प्रव्रज्याविधानम् प्रव्राजकगुणाः 18-21 दीक्षायोग्यः 22-26 प्रवज्याहेतुवयोविषयकम् / प्रव्रज्यावयोविषयकमतान्तरं सपरिहारम् 28-36 गृहाश्रमप्रधानानां स्मार्तानां मतं सपरिहारम् 37-38 स्वजनविरहितस्य दीक्षायोग्यतेति मतान्तरं सपरिहारम् 39-41 सुखिनां प्रव्रज्या फलवतीति मतान्तरं सपरिहारम् 42-44 संज्ञाभेदात् त्यक्तग्रहणं ध्वनिभेदेऽपि सपापम् 45-46 नि:स्वस्याप्यपगतविवेकस्य दीक्षा उभयत्यागी तु धन्यतरः दीक्षायोग्याऽयोग्यक्षेत्रकालादिकम् 49-52 प्रव्रज्याहत्वपरीक्षा 53 प्रव्रज्याया दुष्करत्वकथनम् परीक्षायाः कालमर्यादा प्रव्रज्याविधिः 56-58 रजोहरणार्पणविधिः 59 रजोहरणस्य सार्थिका संज्ञा 60 दिगम्बरमतोपदर्शनपूर्वकं परिहारः 61-62 मुण्डनविधिः 63-64 दीक्षागतशेषविधिः 65-73 दीक्षानन्तरदेशना 74 25 विधिविषयकाऽऽक्षेपपरिहारौ 75-78 27 गृहवासत्यागः पापादिति मतान्तरप्रदर्शनपुरस्सरं परिहारः 79-87 महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 5 मा परिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् 47 48 Կ Կ 28 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा | पृष्ठ प्रतिदिनक्रिया प्रतिदिनं सूत्रोक्ता क्रियां कुर्वन् व्रतस्थापनाऽर्हत्वम् 31 91-92 93 व्रतस्थापना व्रतस्थापनार्हस्य योग्यता महावतारोपकविषयम् उपस्थापनाया: कालपर्यायः रागद्वेषाभ्यां य उपस्थापयति न चोपस्थापयति तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषाः पुत्रादेश्च विलम्बविषयकम् कायव्रतकथनविधिः महाव्रतातिचाराः शैक्षपरीक्षाविधिः उपस्थापनाविधिः गच्छहानिवृद्धिनिमित्तं दिग्विषयं च आचाम्लादितपः तत्सप्तकं च मण्डल्या: व्रतपालनोपायविषयकम् 94-96 97-101 / 36 102-105 37 38 107-109 110 111 39 112-129 xo अनुयोगगणानुज्ञाविधि: अनुयोगाऽनुज्ञायोग्यताविचार अनुयोगानुज्ञाविधिः अनुयोगश्रवणयोग्याः अनुयोगश्रवणविधिः अनुयोगविषयो ग्रन्थो यत्र धर्मविशेष: कथितः धर्मपरीक्षा कषछेदतापैः शुद्धधर्मस्य फलम् श्रुतात् सम्यक्त्वम् अत्राक्षेपपरिहारौ च द्रव्याख्यं सम्यक्त्वं भूतार्थबोधशक्त्या भावसम्यक्त्वेन परिणमते तन्माहात्म्यं च सोदाहरणं कषादिशुद्धाऽशुद्धविषयकम् स्तवो द्विधा द्रव्यभावतस्तत्स्वरूपं च द्रव्यस्तवच श्रीजिनानुज्ञात: अर्हन् च मोक्षविगुणं नानुजानीते जिनभवननिर्मापणादि न वारितं भरतादीनाम् द्रव्यस्तवसिद्ध्यर्थं युक्त्यन्तरं सूत्रसाक्ष्यं च परवादिना द्रव्यस्तवस्य वेदविहितहिंसातुल्यताऽऽपादनं तत्परिहारश्च 130-134|| 135-148 149 150 | 151 152-154 155 156-171 172-174 175-188 189-193 194-196 197-198 199-201 202-205|| 66 महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 6 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा | पृष्ठ वेदप्रामाण्यविषयकम् 206-210 68 पृथ्व्यादिसत्त्वानां पीडयापि जिनभवनकारणादेरुपकार: 211-215 द्रव्यस्तवविषयकं रहस्योद्घाटनं वेदविहितहिंसायाश्चान्यथात्वम् 216-226 यतनामाहात्म्यम् 227 जिनेन्द्रस्य शिल्पादिविधानमपि निर्दोषम् 228-231 द्रव्यस्तवगता निवृत्तिसारा हिंसा 232 वेदवचनस्य न निर्दोषत्वं परमसमञ्जसत्वं च 235-244| भावद्रव्यस्तवौ परस्परं समनुविद्धौ तत्र युक्तिश्च 245-246 दानादीनां क्रमसिद्धिः 247-249 दानं द्रव्यस्तवः शेषास्तु भावस्तवाः . 250 आचार्यस्य वाचनाविषयः 251 गणानुज्ञायोग्यत्वम् 252-254 प्रवर्तिनीपदयोग्यत्वम् 255 गणधरपदस्य माहात्म्यम् अपात्रे जाननपि स्थापकोऽननुपालकश्च महापाप: 256-259 अयोग्येभ्यः पददाने महानर्थप्रदर्शनम्। तस्मात् पात्रे दानम्। 260-261 स्वलब्धि योग्यत्वम् , समाप्ताऽसमाप्तजाताऽजातकल्प पयकम् 263-266 साध्वीमाश्रित्य स्वलब्धिविषयकम् 267-269 गणानुज्ञाविधिः . 270-278 गणधरानुशास्तिः 279-280 गच्छानुशास्तिः 281-282 व्रतिनीमाश्रित्यानुशास्तिः 283 अभिनवगणधरं प्रति स्वलब्धिविषयिकानुशास्ति: 284-285 नीत्या शिष्याणां निष्पादनं पालनं तत्फलं च 286-287 ग्रन्थकारस्य देशकालमाश्रित्योपदेशः भरते भृतेऽतिशिथिलैः स्थेयं गुणार्थमगुणेऽप्यग्रहिलग्रहिलनृपनीत्या 288 द्रव्यवन्दनादिभ्योऽपि गुणवृद्धिसम्भावना 289-290 कर्मवशात् स्वशैथिल्येऽपि शुद्धं मार्ग प्ररुपयतु 291 दर्शनशास्त्राभ्यासाद्धीनोऽपि प्रथप्रभावनोद्युक्तः प्रशस्यः 292 क्रियाभिमानिनश्चरणकरणसारं न जानन्ति 293-294 रत्नत्रयस्य निश्चयशुद्धस्वरूपम् 295 93 महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं मापिरिशद्धिप्रकरणंसटीकम 262 92 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा | पृष्ठ 94 रत्नत्रयतां प्राप्ते समभावात् सामायिकपदप्रवृत्तिः विकल्पतः परपरिणामाः कर्तृत्वाद्यभिमानात् संसृतिः रागद्वेषाऽस्तमतेः कर्मस्कन्धैः श्लेष: उदासीनः पश्यन् भवनाटकमात्मा स्वभावान्न चलति अन्तर्दृग्माहात्म्यम् कर्तृत्वाद्यभिमानिनो दधते पराङ्मुखत्वं स्वभावलाभप्रथाभूमेः स्वभावभूमिः मननस्वरूपो हितोपदेशः मननस्य फलम् परभेदज्ञानपरिणत: स्यात् परमात्माऽभिन्न: माहात्म्यं परमेष्ठिभावलग्नमते: सम्यक्त्वमौनयोः समव्याप्तिः उक्तनि:सड़दशायां संयमस्थानविरहेऽपि फलविषये न व्यभिचार: 296 297 94 298 299 94 300 301-302 95 303 304 305 306 / 96 307 . 96 308-312 313 314 . سله الله الله الله الله الله उपसंहारः 315 316 317. . आत्मज्ञाने सततं कार्योऽभ्यासः आत्मज्ञानविरहिता भ्राम्यन्ति केवलमाकारभेदेन ये मोक्षनगरस्य पन्थास्ते आत्मज्ञानग्रन्था गुरुप्रसादतोऽनुसर्तव्याः आशीर्वचनम् ग्रन्थकारप्रशस्तिः टीकाकारप्रशस्तिः 318 100 | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 8 मा परिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / मार्गपरिशुद्धिप्रकरणम् / / प्रणम्य श्री जिनेशांश्च, वीरं गुरून् श्रुतेश्वरीम् / टीका विधीयते मार्ग - परिशुद्धेः स्फुटं श्रुतात् / / 1 / / चतुर्दशशताधिकग्रन्थप्रणेतृश्रीहरिभद्रसूरिसन्दृब्धस्वोपज्ञटीकासमलङ्कतः श्रीपञ्चवस्तुकग्रन्थः सुप्रसिद्ध एव। ग्रन्थगतपञ्चवस्तूपदर्शिका गाथा चेयम् पवज्जाए विहाणं, पइदिणकिरिया वएसु ठवणा य / अणुओग-गणाणुण्णा, संलेहण मो इइ पंच / / 1 / / (पञ्च.व.गा.२) उक्तगाथाऽक्षरगमनिका पञ्चवस्तूपन्यासक्रमश्च हेतुपुरस्सरं स्वोपज्ञटीकांशत: प्रदर्श्यते, तथादि- प्रव्रज्याविधाने सति सामायिकसंयतो भवति, संयतस्य प्रतिदिनक्रिया, क्रियावतश्च व्रतेषु स्थापना, व्रतस्थस्य चानुयोगगणानुज्ञे सम्भवतश्चरमकाले च संलेखना। इति गाथार्थः। एवम्भूतार्थसार्थकस्यैव श्रीपञ्चवस्तुकग्रन्थस्य नि:स्यन्दभूतो मोक्षमार्गाऽनन्यत्वात् सार्थको नाम्ना मार्गपरिशुद्धिम्रन्थोऽयं गभीरार्थो न्यायाचार्यश्रीमद्यशोविजय वाचकपूज्यैः सन्दृब्धः। श्रीश्रमणसङ्घस्य नित्यस्वाध्यायरूपेण सोपयोगित्वात्। श्रेयोभूतस्य प्रस्तुतग्रन्थस्य ग्रन्थकारो निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थं शिष्टाचारपालनार्थ चादौ मङ्गलमाह ऐन्द्रश्रेणिनताय, प्रथमाननयप्रमाणरूपाय / भूतार्थभासनाय, त्रिजगद्गुरुशासनाय नमः / / 1 / / टीका - ऐन्द्र श्रेणिनताय इन्द्राणामियम् ऐन्द्री, सा चासौ श्रेणिः संहतिः ऐन्द्रश्रेणिस्तया नतं मनोवाक्कायसङ्कोचलक्षणनमस्कारविषयीकृतम्। किम्? त्रिजगद्गुरुशासनं वक्ष्यमाणस्वरूपं तस्मै नम इत्यन्वयः। एतेनास्तां शासनप्रणेतृणामर्हतां पूजाद्यतिशयचतुष्कं प्रायेण जन्यस्य जनकानुरूपत्वात् तच्छाशनस्यापीति ख्यापितं भवति।अपरञ्च ऍकारो ग्रन्थकारस्य सिद्धसारस्वतमन्त्रबीजमिति तं स्मृतिपथं नीत्वा ग्रन्थारम्भो न्याय्यः। प्रकृतपदेन पूजातिशयो ज्ञापितः। अथ पुनः कीदृशाय तच्छाशनाय? प्रथमाननयप्रमाणरूपाय प्रथमानं प्रतीयमानं नयप्रमाणरूपं नयाश्चनयान्तरसापेक्षा: प्रमाणघटकीभूता नैगमादय: सप्रभेदा: सुनया:प्रमाणं च प्रमेयस्वरूपनिश्चायकं सम्यग्ज्ञानं तेषां रूपमसाधारणं स्वरूपं यत्र तस्मै, एतेनाऽपायाऽपगमाऽतिशय आवेदितो भवति नयप्रमाणैः परिच्छिन्ने मोक्षाद्यर्थे प्रवर्तमानस्य फलाऽविसंवादेन वञ्चनालक्षणाऽपायाभावात्। पुन: कथम्भूताय? भूतार्थभासनाय भूता: सद्भूताः, न तु कपोलकल्पिता:, यथा शब्दो नित्य आकाशगुणत्वात् तथा गृहाश्रमसमो धर्मो, न भूतो न भविष्यति। पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबा:पाषण्डमाश्रिताः / / 1 / / इत्यादिरूपाः, अर्था जीवाजीवादयस्तेषां भासनं प्रकाशनं यस्मिन् तस्मै। अनेन प्रवचनस्याऽपि ज्ञानातिशय उक्त: केवलालोकेना प्तपुरुषप्रणीतत्वात्। एवम्भूतायापि कस्मै ? त्रिजगद्गुरुशासनाय त्रयाणाम् ऊर्ध्वाऽधस्तिरश्चां जगतां लोकानां समाहारस्त्रिजगत्तनिवासिनां देवमनुजादीनांजीवाजीवादितत्त्वं गृणात्युपदिशतीति त्रिजगद्गुरुः स चासन्नोपकारित्वात्श्रीमन्महावीरश्चरमतीर्थपतिस्तस्य शासनमाज्ञा प्रवचनरूपा तदाजीवनेनाऽभेदोपचाराद्वा महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 1 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रमणसङ्घस्तस्मै नम: मनोवाक्कायसङ्कोचलक्षणमभिवादनम्। एतेन वचनातिशय: प्रादुष्कृतो भवति स्वामिन एकरूपस्याऽपि वचनस्य प्रत्येकं देवमनुजादीनां स्वस्वभाषयाऽवबोधकारित्वात्। एवमतिशयचतुष्टयप्रवेदनेन त्रिजद्गुरुशासनस्याऽप्रतिघत्वेन परममङ्गलरूपात्तन्नमस्कारस्याऽपि विनयरूपत्वेनाऽभ्यन्तरतपोरूपत्वाद्भावमङ्गलम्। नन्विष्टदेवतानमस्कारस्य मङ्गलरूपत्वात् कथं तच्छासननमस्कारस्य मङ्गलत्वमिति चेत्, सत्यम्, शासननमस्कारव्याजेन तच्छाशितुरपि नमस्कारो विहित एवेति न कश्चिद्दोषः / / 1 / / अथ शासनाऽऽधारभूतं श्रीजिनवचनं स्तौति, यदि वोपाद्धातं वितनोति जयति सतां किमपि मुखे, जिनवचनामृतनिषेकमाधुर्यम् / उज्जीवति गुणगरिमा, कलौ यतः खलगिरा पिहितः / / 2 / / टीका-जयति विजयते कुवादिखलमुखमुद्राप्रदानात्, किमपि स्वल्पमेव न तु जिनकाल इवाऽनल्पंक्षीरश्रवादिलब्धीनामभावात्, कुत्र? सतां माध्यस्थ्यादिगुणगणभाजां साधूनां मुखे वदनारविन्दे, किम्? जिनवचनामृतनिषेकमाधुर्यं जिनवचनं श्रीतीर्थकरवाणी तदेव कलिकालविषमविषधरविषविकाराऽपाकारित्वादमृतमिवाऽमृतं सुधा तस्य निषेक: प्रक्षेपस्तेन माधुर्यं मधुरिमा सज्जनचेतआह्लादकत्वात्, यत उक्तस्वरूपजिनवचनामृतनिषेकमाधुर्येण उज्जीवतिध्वंसमानोऽपि पुन:पौन्येनाऽऽत्मसत्तां बिभर्ति, कः? गुणगरिमा गुणा ज्ञानध्यानत्यागवैराग्यसंयमसद्देशनादिगुणास्तेषां गरिमा गौरवम्, कीदृशो गुणगरिमा? कलिहेतुत्वात् कलिस्तस्मिन् कलौ वर्तमानहुण्डावसर्पिणीपञ्चमाऽरकलक्षणे खलगिरा खला: स्वभावत एव परप्रतारणपरत्वाद् दुर्जना: स्वशैथिल्यादिदोषाच्छादनपरा: श्रीजिनवचननिरपेक्षस्वाभिमतमतमतान्तरस्थापकाश्च कुमतिकौशिकास्तेषां गी: असत्प्रलापरूपा, तथाहि - निआवासविहारं, चेइयभत्तिं च अज्जियालाभं। . . विगईसु अपडिबंधं, णिद्दोसं चोइआ बिन्ति / / 1 / / तथा - "चैत्यपदार्थो ज्ञानं न प्रभुप्रतिमा'' इत्यादिरूपा तया पिहित: तिरोहितो गुणगरिमा जिनवचनामृतनिषेकमाधुर्येणोज्जीवतीत्यर्थः / / 2 / / अथ श्रीजिनवचनामृतास्वादपराणामेव रुचिं विशदयति स्याद्वादास्वादपराः प्रतियन्ति हि परमतानि विरसानि।' नहि माकन्दमुकुलभुग, नन्दति पिचुमन्दतरुषु पिकः / / 3 / / स्याद्वादास्वादपराः स्याद्वाद: स्यात्पदलाञ्छितवचनपद्धतिमदुदात्तजैनदर्शनम्, तदुक्तं स्याद्वादमञ्चर्यां-स्यादिति अनेकान्तद्योतकमव्ययम् तत: स्याद्वादः, नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत्।न्यायावतारवृत्तावप्युक्तं - निर्दिश्यमानधर्मव्यतिरिक्ताशेषधर्मान्तरसंसूचकेन स्याता युक्तोवाद: अभिप्रेतधर्मवचनं स्याद्वादः, तस्याऽऽस्वादो रसानुभवस्तत्परा ज्ञातस्याद्वादास्वादा: प्रतियन्ति जानन्त्येव हिशब्दोऽवधारणे परमतानि परेषामेकान्तनित्याऽनित्यादिवादिसाङ्ख्यबौद्धादीनां मतानि दर्शनानि कदाग्रहग्रस्तत्वेनाऽरुचिकरत्वाद् विरसानि नीरसानि।अबार्थे दृष्टान्तमाह - नहि नैव माकन्दमुकुलभुक् सहकारकलिकाभोजी पिक: कोकिल: नन्दति मोदते पिचुमन्दतरुषु- निम्बद्रुमेषु।।३।। सम्प्रति स्याद्वादमेव पुरस्कृत्य देशनाविधानमाह - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं मागपिरिशद्धिप्रकरणंसटीकम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुनिश्चयपटुना स्याद्वादेनैव देशना देया। इत्युत्सर्गस्थितिरियमपरा त्वपवादमर्यादा / / 4 / / - टीका - वस्तुनिश्चयपटुना - वसन्ति गुणा अस्मिन्निति वस्तु जीवादि द्रव्यम्, उक्तं च - गुणपर्यायवद् द्रव्यम् (तत्त्वार्थसूत्रम् - अ.५ सू. 38), तस्य निश्चयो नयप्रमाणैर्निर्णयस्तत्र पटुः कुशलो विषयविभागवेदीत्यर्थः, तेन वस्तुनिश्चयपटुना देशकेन स्याद्वादेनैव स्याद्वाद उक्तलक्षणस्तस्याऽशेषदोषातीतत्वात्तेनैव देशना धर्मोपदेशलक्षणा देया दातव्या। इति एवम्भूता स्याद्वादेनैव देशनाविततिः, किमित्याह - उत्सर्गस्थिति: देशनादाने सामान्य मर्यादा, इयम् स्याद्वादेनैव देशनादानमुत्सर्गस्थितिः। अपरा मुग्धमतिश्रोतृसव्यपेक्षं कुवादिनिकारणार्थं वास्याद्वादं विहायाऽन्यतरैकनयेन देशनादानं तुशब्दो विशेषार्थः, किमित्याह - अपवादमर्यादा देशनादाने विशिष्टा स्थितिरिति / / 4 / / अत एव दिदेश तथा, कथासु धीरो यथार्थकथनपटुः / एकद्वित्वादिविधौ भगवानपि सोमिलप्रश्ने / / 5 / / टीका - यत: स्याद्वादेनैव देशना देयेत्युत्सर्गस्थिति: अत एव अस्मादेव कारणाद् दिदेश व्याजहार मिथ्यात्वतिमिरापहारेण यथा सम्यग् बोधो जायते तथा स्याद्वादपद्धत्या कथासु प्रश्नोत्तरलक्षणासु वार्तासु, केवलालोकलक्षणया धिया राजते इति, धीर: श्रीवीरप्रभुः, यथार्थकथनपंटु H यथा येन प्रकारेण केवलालोकेन ज्ञाता अर्था जीवादयस्तथा कथने निरूपणे पटुर्निपुणः, एकद्वित्वादिविधौ किं भवानेको द्वौ वाऽक्षयो वेत्यादिलक्षणपर्यनुयोगे सति स्याद्वादेनैव तदुत्तरविधाने, आस्तां भगवच्छासनानुगता गीतार्थाः साक्षाद्भगवानपि तीर्थकरप्रभुरपि वर्धमानस्वामी सोमिलप्रश्ने सोमिलनाम्नो द्विजस्य प्रश्ने पृच्छायां निरूपितवानित्यर्थः / एतद्व्यतिकरो यथा भगवत्यां तथोपन्यस्यतेऽत्र एगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभावभविए भवं?, सोमिला! एगेवि अहं जाव अणेगभूयभावभविएवि अहं, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जाव भविएवि अहं?, सोमिला! दव्वट्ठयाए एगे अहं नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं पएसट्ठयाए अक्खएवि अहं अव्वएवि अहं अवट्ठिएवि अहं उवयोगट्ठयाए अणेगभूयभावभविएवि अहं, से तेणटेणं जाव भविएवि अहं, एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्धे ।।सूत्रं 647 / / 18-10 ।।अट्ठारसमं सयं समत्तं / / 10 / / एतवृत्तिः - _ 'एगे भव' मित्यादि, एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवताऽऽत्मनः कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽनेकतोपलब्धित एकत्वं दूषयिप्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोग: सोमिलभट्टेन कृतः, द्वौ भवानिति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामिति बुद्ध्या पर्यनुयोगो विहितः, 'अक्खए भव' मित्यादिना च पदत्रयेण नित्यात्मपक्ष: पर्यनुयुक्तः, 'अणेगभूयभावभविए भवंति अनेके भूता-अतीता: भावा:-सत्तापरिणामा भव्याश्च भाविनो यस्य स तथा, अनेन चातीतभविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानित्यतापक्ष: पर्युनुयुक्तः, एकतरपरिग्रहे तस्यैव दूषणायेति, तत्र च भगवता स्याद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रान्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि - 'एगेवि अह' मित्यादि, कथमित्येतत्?, इत्यत आह - ‘दव्वट्ठयाए एगोऽहं'चि जीवद्रव्यस्यैकत्वेनैकोऽहं न तु प्रदेशार्थतया, तथा हि अनेकत्वान्ममेत्यवयवादीनामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः, तथा कञ्चित्स्वभावमाश्रित्यैकत्वसङ्ख्याविशिष्टस्यापि पदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्धमित्यत उक्तं - 'नाणदंसणठ्याए दुवेवि अहं ति, न | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 3 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैकस्य स्वभावभेदो न दृश्यते, एको हि देवदत्तादिः पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वभ्रातृव्यत्वादीननेकान् स्वभावाल्लभत इति, तत: प्रदेशार्थतयाऽसङ्ख्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षतोऽप्यहं सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात्, तथाऽव्ययोऽप्यहं कतिपयानामपि च व्ययाभावात्, किमुक्तं भवति? - अवस्थितोऽप्यहं-नित्योऽप्यहम्, असङ्ख्ययप्रदेशिता हि न कदाचनापि व्यपैति अतो नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न दोषः, तथा 'उवओगट्ठयाए'त्ति विविधविषयानुपयोगानाश्रित्यानेकभूतभावभविकोऽप्यहम्, अतीतानागतयोर्हि कालयोरनेकविषयबोधानामात्मनश्र कथञ्चिदभिन्नानां भूतत्वाद् भावित्वाच्चेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोषायेति।।५।। एतस्यैवाऽभ्युच्चयमाह उत्सर्गानिश्चयतो वाचामाचारचातुरीति मतम् / ___ तदनेकनयमयत्वे युक्तमितरथा तु न कथञ्चित् / / 6 / / टीका - उत्सर्गाद् अनन्तरोक्तनीत्या स्याद्वादेनैव देशनादानं प्रश्नोत्तरप्रदानं च निश्चयतः परमार्थवृत्त्या कुवादिछलजात्यादिदोषनिराकरणक्षमत्वादनेकधर्मात्मकवस्तुनिरूपणद्वारा वस्तुविषयकश्रोत्रज्ञानतिमिराज्पनयनाच्च वाचा. गिराम् आचारचातुरी आचर्यते - आसेव्यत इत्याचारस्तस्य चातुरी कौशलम् इति एवम्भूतं वचनव्यापार-नैपुण्यं मतम् अभ्युपगतं तीर्थकरगणधरैः / तत् तस्माद् देशनादानादि अनेकयमयत्वे अनेकैरेव न तु विवक्षितैकेनैव नयेन, अथ किंस्वरूपो नय इति चेत्, उच्यते नयत्यनेकांशात्मकं वस्त्वेकांशाऽवलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयतीति नयः। एवम्भूतैरनेकैर्नयैर्द्रव्यपर्यायनिश्चयव्यवहारज्ञानक्रियाद्यर्थिकलक्षणैर्निष्पन्नं देशनादिदानमनेकनयमयम् अनेकनयाऽत्मकम्, तस्य भावःस्वरूपमनेकनयमयत्वम्, तथा सति देशनादिदानं युक्तं युक्त्योपपन्नम्। इतरथा अनेकनयमयत्वं विहायैकमेव कञ्चिन्नयविशेषं पुरस्कृत्य देशनादिदानं तुशब्दोऽवधारणे न नैव कथञ्चित् केनापि प्रकारेण युक्तम्, एवम्भूतस्य देशनादिदानस्यैकान्तवादाऽन्त:पातित्वेन मिथ्यात्वादिति / / 6 / / ननु सर्वथोत्सर्गात् स्याद्वादेनैव देशनादिदानं युक्तमुताऽपवादत एकेनैव केनचिन्नयेनाऽपि युक्तमित्याशङ्क्याह - तत्त्वाङ्गव्यवहारादयमपि येन प्रमाणतां भजते / / अंशधिया तु नयत्वव्यपदेशस्तत्र तन्त्रविदाम् / / 7 / / टीका - तत्त्वाङ्गव्यवहारात् तत्त्वानि जीवाजीवादयस्तेषामङ्गानि प्रतीका: करचरणादीनि बाह्यानि, ज्ञानादीनि त्वाभ्यन्तराणि तेषां व्यवहारात्संदेहहरणात्, उक्तं चाऽभिधानचिन्तामणिस्वोपज्ञवृत्तौ - वि नानार्थेऽव संदेहे हरणं हार उच्यते।। नानासंदेहहरणात्व्यवहार:प्रकीर्तितः / / 1 / / श्लोक 262 वृत्तौ।। आस्तां सर्वनयमय: स्याद्वाद: अयमपि सङ्ग्रहाद्यन्यतरनयोऽपि येन प्रमाणघटकीभूतत्वेन हेतुना प्रमाणतां कथञ्चित् सदसन्नित्यानित्यैकाऽनेकादिरूपतया प्रमेयनिश्चायकत्वात् प्रामाण्यं यद्वा प्रामाण्यपरिकररूपतां भजते आश्रयते तेनैव कारणेन अंशधिया वस्त्वंशबुद्ध्या तुशब्दो विशेषद्योतने तत्र अन्यतरनये नयत्वव्यपदेशः प्रमाणप्रतिपन्नवस्त्वंशप्रतिपादकत्वं तन्त्रविदांसिद्धान्तरहस्यवेदिनां सम्मत इति शेषः / अयंभावः - अन्यतरस्याऽपि नयस्य प्रमाणघटकीभूतत्वेन महामहोपाध्याय श्री यशोविषय विरचितं 4 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसंटीकम् Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथञ्चित् प्रामाण्याद्नयविशेषेऽपि वस्त्वंशदेशकत्वं सिद्धान्तोपनिषद्विचारचतुराणां सम्मतमिति तथाभूतदेशकालेऽन्यतरनयेनाऽपि देशनादानं न्याय्यमिति / / 7 / / ततः किमित्याह - कुमततमोपहतदृशो जगतो भूतार्थबोधविमुखस्य / आदौ दर्शयति गुरुनिश्चयमतिदीपिकामथवा / / 8 / / टीका : कुमततमोऽपहतदृशः कुत्सितानि मतानि दर्शनानि शाक्याद्येकान्तवादिनां तान्येवध्यान्ध्यकारित्वात्तम इव तम:अन्धकारस्तेनाऽपहतं मन्दीभूतं दृग् विवेकचक्षुर्यस्य तज्जगत्तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति मोहाऽज्ञानाऽऽवृतो जीवस्तस्य जगत: अपहतविवेकचक्षुर्जीवस्य पुनः कीदृशः? भूतार्थबोधविमुखस्य भूतार्थ: सद्भूतजीवादिपदार्थस्तस्य बोधोऽवगमस्तस्माद् विमुखं पराङ्मुखं तस्य आदौ प्रथमतया दर्शयति बुद्धिविषयी करोति गुरुः तत्त्वोपदेशक: अनुयोगकृदाचार्य इत्यर्थः, निश्चयमतिदीपिंकां निश्चिनोति तत्त्वमिति निश्चयस्तस्य मति: मन्यतेऽनयेति निश्चयमति: निश्चयनयमतमित्यर्थः, सैव तत्त्वार्थग्रहिकेति श्रोत्रज्ञानान्धकाराऽपहारेण तत्त्वप्रकाशिकेति दीपिकेव दीपिका तां कुमततमोपहतजगतो दर्शयतीत्यर्थः / अथवा विकल्पे,अनन्तरगाथायामप्यन्यतरनयेन देशनादिदानस्यौचित्यमाह - निश्चयतो निश्चयभाग्मत्त इव भिनत्ति यश्चरणमुद्राम् / तस्य पदे व्यवहारो वज्रमयी श्रृङ्खला क्षेप्या / / 1 / / टीका - निश्चयतः परमार्थवृत्त्या, यदि वा व्यवहारनिरपेक्षनिश्चयत: शुष्कज्ञानत इत्यर्थः, निश्चयभाग् एकान्तनिश्चयनयमतानुसारी ज्ञानलवेन गर्वित: क्रियापराङ्मुखो मत्त इव मदोन्मत्तमातङ्ग इव भिनत्ति भनक्ति यः अनिर्दिष्टनामा क्रियाऽपलापेन चरणमुद्राम् चरणमाचार: प्रथमो धर्मस्तस्य मुद्रां मर्यादां तस्य निश्चयभाज: पदे बुद्धिलक्षणे चरणे, व्यवह्रियत इति व्यवहारोभावनिर्देशा व्यवहाररूपा सदाचरणलक्षणा चापरिहार्यत्वेन वज्रमयी लोहनिर्मितेव निबिडा श्रृङ्खला स्वच्छन्दमनोनिग्रहकारिका गुरुणा क्षेप्या उपदेष्टव्येति ।।१।।व्यवहारमाहत्म्यमाह अव्यवहारिणि जीवे निश्चयनयविषयसाधनं नास्ति / . . उपरदेशे कथमपि न भवति खलु शस्यनिष्पत्तिः / / 10 / / टीका - अव्यवहारिणि श्रीजिनोपदिष्टक्रियाऽऽचरणलक्षणव्यवहारविरहिते जीवे कृष्णपाक्षिकलक्षणे निश्चयनयविषयसाधनं निश्चिनोति तत्त्वमिति निश्चयः स चाऽसौ नयो निश्चयनयस्तस्य विषयः शुद्धात्मतत्त्वं तस्य साधनं साधकतमहेतुः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽध्यवसायनिष्पत्तिस्थितिवृद्धिलक्षणं योगसामर्थ्य नास्ति नैवात्मसत्तां बिभर्तीत्यर्थः / अत्राऽर्थे सुप्रतीतं दृष्टान्तमाह - उपरदेशे उषर: क्षारमृत्तद्वति भूमौ कथमपि केनापि प्रकारेण न नैव भवति जायते खलुशब्दोऽवधारणे शस्यनिष्पत्तिः शालिगोधूमादिधान्योत्पत्तिरिति / / 10 / / अथ व्यवहारप्रतिभासस्य तद्विपर्ययस्य च फलमुपवर्णयन्नाह - व्यवहारप्रतिभासो दुर्नयकृद्वालिशस्य भवबीजम् / व्यवहाराऽऽचरणं पुनरनभिनिविष्टस्य शिवबीजम् / / 11 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 5 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - व्यवहारप्रतिभासो व्यवहार उक्तलक्षणस्तस्य प्रतिभासो भ्रान्ति:, ज्ञानशून्यक्रियाऽभिनिवेशात्, कस्य? दुर्नयकृद्वालिशस्य तत्त्वज्ञानपरिणतिशून्य: क्रियामेव मोक्षहेतुत्वेन मन्यमानो ज्ञानाऽपलापित्वाद् दुनर्यकृच्चासौ बालिशो "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इत्यस्यानभिज्ञत्वादशस्तस्य भवबीजं संसारभ्रमणहेतुः सद्गुरूपदेशविरहितत्वेन ज्ञानशक्तिशून्यत्वात् क्रियाऽभिनिवेशाच्च। एतद्विपर्ययमाह - व्यवहाराचरणं क्रियाहार्दावगमपुरस्सरं गीतार्थगुरुपारतन्त्र्यपूर्व वा श्रीजिनोपदिष्टक्रियाऽऽसेवनं पुन:शब्द: पक्षान्तरे अनभिनिविष्टस्य स्याद्वादभाविताऽन्त:करणत्वाद् गुरुपारतन्त्र्याद्वा कदाग्रहरहितस्य शिवबीजं मोक्षकारणमिति / / 11 / / एतदेवाऽभ्युच्चयति - गुरुपरतन्त्रस्याऽतो माषतुषादेः पुमर्थसंसिद्धिः / स्फटिक इव पुष्परूपं तत्र प्रतिफलति गुरुबोधः / / 12 / / टीका - गुरुपरतन्त्रस्य गुर्वायत्तस्य अतो गुरुकुलवासादिव्यवहाराचरणाद् माषतुषादेः आदिपदाद् वरदत्तगुणमञ्जर्यादिपरिग्रहः पूर्वजन्मनि विराधितज्ञानस्य निबिडज्ञानावरणीयोदये सत्यपि पुमर्थसंसिद्धिः कैवल्यादिसम्प्राप्तिः। कथम्? स्फटिके जात्यरत्नविशेषे इव यथा पुष्परूपं जपाकुसुमादिगतरक्तिमादि तत्र गुर्वायत्ते जीवस्फटिके मोहनीयलाघवकृतज्ञानावरणीयक्षयोपशमात् प्रतिफलति प्रतिबिम्बति गुरुबोध: गुरुगतज्ञानमिति / / 12 / / दृष्टान्तान्तरेणाऽप्येतदेव प्रतिपादयन्नाह - व्यवहारवतस्तनुरपि बोधः सितपक्षचन्द्र इव वृद्धिम् / इतरस्य याति हानि पृथुरपि शितिपक्षचन्द्र इव / / 13 / / टीका - व्यवहारवतः अनन्तरोक्तलक्षणव्यवहारिण: तनुरपि स्वल्पोऽपि बोध: अवगम: सितपक्षचन्द्र इव शुक्लपक्षरजनीकर इव वृद्धि स्फातिं याति, इतरस्य अव्यवहारिण: व्यवहारप्रतिभासवतश्च याति प्राप्नोति हानिम्अपचयं पृथुरपि विशालोऽपि बोध: शितिपक्षचन्द्र इव कृष्णपक्षनिशाकर इवेति / / 13 / / अत एव - अवगतसमयोपनिषद्गुरुकुलवासः सतां सदा सेव्यः / आचारादौ निगदितमाद्यं व्यवहारबीजमिदम् / / 14 / / टीका-अवगतसमयोपनिषद्गुरुकुलवासः अवगता सम्यग्ज्ञाता समयोपनिषद् समया: स्वपरशास्त्राणि तेषामुपनिषद् हार्द यैस्ते, के ? गुरवः, तेषां कुले गुणरत्नरत्नाकरस्थानीये अन्तेवासित्वेन वासो निवसनं सतां साधूनां सदा यावज्जीवं सेव्य आश्रयणीयः, तदुक्तं च - नाणस्स होइ भागी थिरयरतो दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति / / तथा - आचारादौ श्रीमदाचाराङ्गादिशास्त्रेषु आदिपदादुत्तराध्ययनदशवैकालिकादिसंग्रहो द्रष्टव्यः, तत्र तत्र निगदितं निर्दिष्टम् तथा चागम: - "सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायमित्यादि (आचाराङ्ग सू. 1) एतदक्षरगमनिका - श्रुतं मयाऽऽयुष्मन्! तेन भगवतैवमाख्यातम् इह - संसारे एकेषां नो संज्ञा - ज्ञानं भवति। 'आमुसंतेण' 'आवसंतेणं' महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 6 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेति पाठान्तरमाश्रित्य-आमृशता सेवमानेन स्पृशता भगवत्पादारविन्दम्, आवसता च तदन्तिक इत्यर्थः / अनेन गुरुकुलवास: प्रथमाचार उपदिष्ट इति। किमित्याह - गुरुकुलवासाऽऽसेवनम्आ द्यं प्रथमं व्यवहारबीजं व्यवहारो हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणस्तस्य बीजं हेतुः, इदम्अनन्तरोक्तलक्षणं गुरुकुलवासा सेवनमिति।।१४।। गुरुकुलवासस्यैव फलविशेषमाह - अस्मादेव हि चरणं सिध्यति मार्गानुसारिभावेन / गुरुकुलवासत्यागे नेयं भणिताऽकृतज्ञस्य / / 15 / / टीका - अस्मादेव गुरुकुलाऽऽसेवनादेव हि यस्मात् चरणं समितिगुप्तिलक्षणं सिध्यति पूर्णतामेति मार्गानुसारिभावेन मोक्षमार्गानुसारितया चेतसोऽवक्रगमनात्। तस्मात् गुरुकुलवासत्यागे उक्तलक्षणस्य गुरुकुलवासस्य त्यागे परिहारे न नैव इयं चरणसिद्धिः भणिता तीर्थकरगणधरैः अकृतज्ञस्य कृतज्ञतागुणरहितस्येति / / 15 / / अनन्तरोक्तमेव विशदयति - सामान्यधर्मतः खलु, कृतज्ञभावाद्विशिष्यते चरणम् / सामान्यविरहिणि पुनर्न विशेषस्य स्थितिर्दृष्टा / / 16 / / टीका- यत: सामान्यधर्मतः साधारणधर्मादेव खलुशब्दोऽवधारणे कृतज्ञभावाद् कृतमुपकारमविस्मरणतया जानातीति कृतज्ञस्तस्य भावः कृतज्ञता ततो विशिष्यते प्रकर्ष प्राप्यते चरणम् उक्तलक्षणम्। एतदेव विपर्ययेण सिद्धान्तत:प्रस्थापयति - सामान्यविरहिणि व्यापकधर्मकृतज्ञतादिविरहिते जीवे पुनर्विशेषे न नैव विशेषस्य व्याप्यधर्मचारित्रादे: स्थितिः सत्ता यथा मृदभावे घटादे: स्थितिनैव दृष्टा विलोकितेति / / 16 / / उपदेशदानेनोपसंहरन् गुरुगुणान् निर्देष्टुमाह तस्माद् गुरुकुलवासः श्रयणीयश्चरणधनविवृद्धिकृते। गुरुरपि गुणवानेव श्लाघ्यत्वमुपैति विमलधियाम् / / 17 / / टीका - तस्मात् कारणाद् गुरुकुलवास उक्तलक्षणः श्रयणीय आसेवनीयः चरणधनविवृद्धिकृते चरणं चारित्रं तदेव धनं सर्वस्वं यतीनां तस्य विवृद्धिकृते स्फात्यर्थम्। अथ प्रव्राजकगुरुविषयमाह - गुरुरपि आचार्योऽपि गुणवानेव अस्खलितशीलशमदमज्ञानादिगुणसम्पन्न एव श्लाघ्यत्वं प्रशंसनीयताम् उपैति प्राप्नोति, केषाम्? विमलधियां शिष्टानामिति ।।१७।।आचार्यगुणानाह - प्रव्रज्यार्हगुणविधिप्रवजितो गुरुकुलाश्रितो नित्यम् / अक्षतशील: शान्त: तत्त्वज्ञोऽवगतसूत्रार्थः / / 18 / / प्रवचनवात्सल्ययुतः सत्त्वहितरतोऽनुवर्तको धीरः / गुर्वनुमतपदनिष्ठो धर्मकथाकृज्जनादेयः / / 19 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 7 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविषादी परलोके स्थिरहस्तोपकरणोपशमलब्धिः / कलिदोषान्मूलगुणैरेकादिगुणोज्झितोऽपि गुरुः / / 20 / / टीका- प्रव्रज्याहगुणविधिप्रव्रजित: दीक्षायोग्यवक्ष्यामाणाऽऽर्यदेशोत्पन्नत्वादिगुणैः संपन्न: सन् विधिप्रव्रजितो विधिना वक्ष्यमाणलक्षणेन प्रव्रजितो दीक्षितः, तथा गुरुकुलाश्रितो समुपासितगुरुकुल इत्यर्थः, नित्यं सदैव प्रव्रज्याप्रतिपत्तेरारभ्य, अक्षतशील: अखण्डितशीलः,शान्तः कषायोपशमात्, तत्त्वज्ञो वस्तुस्वरूपवेदी, यत: अवगतसूत्रार्थ: अधीतसूत्रार्थश्च / / 18 / / तथा - प्रवचनवात्सल्ययुतः प्रवचनं सङ्घः सूत्रं वा तद्वत्सलः, सत्त्वहितरतः सदुपदेशदानादिना जीवहिते सक्तः, अनुवर्तकः भावानुकूल्येन सम्यक् पालकः, धीरो विपुलचित्तत्वेन धैर्यवत्त्वाद् गम्भीरः, गुर्वनुमतपदनिष्ठः स्वगुरुणा दिगाचार्यादिना वा दत्ते पदे निष्ठा स्थैर्य यस्य सः पदनिर्वाहक इत्यर्थंः, तथा धर्मकथाकृत् धर्मोपदेशकः, जनादेयो ग्राह्यवाक्यश्च / / 19 / / तथा - अविषादी परलोके न परिषहाद्यभिद्रुतः कायसंरक्षणादौ दैन्यमुपयाति, स्थिरहस्तोपकरणोपशमलब्धिः स्थिरहस्तलब्ध्युपकरणलब्ध्युपशमलब्धियुक्तश्च। कलिदोषात् कलिकालदोषाद्आस्तां मूलगुणैः अनन्तरोक्तैर्युक्तो गुरुः, एकादिगुणोज्झितोऽपिअन्यतरगुणरहितोऽपि अखण्डितशीलादिबहुगुणयुक्तो गुरुः दीक्षादातेति / / 20 / / एवम्भूतस्य प्रव्राजकस्य कर्तव्यमाह - प्रव्राज्य यो विनेयान् शिक्षा ग्राहयति सम्यगनुवृत्तेः। स गुरुर्गुणमणिजलधिः परः प्रतीप: प्रवचनस्य / / 21 / / टीका - प्रवाज्य दीक्षित्वा योऽनिर्दिष्टनामा विनेयान् शिष्यान् तदनुग्रहस्वनिर्जरार्थं शिक्षा द्विधां ग्रहणाऽऽसेवनभेदाद् ग्राहयति शिक्षयति सम्यग् यथाविधि अनुवृत्ते: भावानुकूल्यात् स शिष्यनिष्पादको गुरुः कृतकृत्यत्वाद् यथार्थनामा भावाचार्यादि: गुणमणिजलधिः गुणरत्नरत्नाकरः। ईदृशे गुणसम्पन्ने गुरौ भवत्येव शिष्याणां भक्तिबहुमानभावः, तत एव चारित्रे श्रद्धा स्थिरता च जायते, नान्यथा। पर: उक्तविपरीत: अननुवर्तक: प्रतीपः शत्रुः प्रवचनस्य श्रीजिनशासनस्य, तथाहि - अननुवर्तनेना ऽविज्ञापितसमयसद्भावादिह परभवे च विरुद्धसेवनाद् यमन) शिष्या: प्राप्नुवन्ति स तथा तान् विरुद्धसेवमानान् दृष्ट्वा चन्द्रोज्ज्वलजिनशासनस्य योऽवर्णवादो जायते सोऽपि सर्व: अननुवर्तकगुरुनिमित्तमिति।।२१।। उक्त: प्रव्राजकः। अथ दीक्षायोग्यमाह उत्पन्नमार्यदेशे जातिकुलविशुद्धमल्पकर्माणम् / कृषतरकषायहासं कृतज्ञमविरुद्धकार्यकरम् / / 22 / / मरणनिमित्तं जन्म श्रीश्चपला दुर्लभं च मनुजत्वम् / न परनिमित्तं निजसुखमितिचिन्तोत्पन्नवैराग्यम् / / 23 / / कालपरिहाणिदोषानिर्दिष्टेकादिगुणविहीनमपि / बहुगुणयुतमाचार्या दीक्षायोग्यं जनं बुवते / / 24 / / टीका - उत्पन्नं जातम्आर्यदेशे सार्धपञ्चविंशतिमगधादिधर्मक्षेत्रान्तर्गतान्यतमदेशे, जातिकुलविशुद्धं जातिर्मातृसत्का कुलं पितृसम्बन्धि ताभ्यां विशुद्धम्, अल्पकर्माणं लघुकर्मिणम्, अत एव अल्पतरकषायहासं महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 8 मापिरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतनुकषांयहास्यादिकम् कृतज्ञं कृतोपकारज्ञातृकम्, अविरुद्धकार्यकरम् अनिन्द्यकुललोकाचारसेवकं / / 22 / / तथोत्पन्नवैराग्यं यतश्चिन्तयति, तथाहि - मरणनिमित्तं मृत्युकारणं जन्म जातिः, यतो जातं हि काल: कवलयति, श्रीश्चपला स्वभावत एव सम्पदश्चलास्तडिल्लतानिभाः, दुर्लभं दुष्प्रापं मनुजत्वं मानुष्यं, न नैव परनिमित्तम् आत्मव्यतिरिक्तराज्यादिनिमित्तं निजसुखं निरुपाधिकशुद्धात्मानुभवजन्यं सहजसौख्यम् इति चिन्तोत्पन्नवैराग्यं अनन्तरोक्तलक्षणया चिन्तयाऽनुप्रेक्षया जातभवविरागम् / / 23 / / उक्तंच-आर्यदेशोत्पन्न:१, विशिष्टजातिकुलान्वितः 2, क्षीणप्रायकर्ममल:३, तत एव विमलबुद्धिः 4, दुर्लभं मानुष्यं, जन्म मरणनिमित्तं, सम्पदश्चपलाः, विषया दु:खहेतवः, संयोगे वियोगः, प्रतिक्षणं मरणं, दारुणो विपाक इत्यवगतसंसारनैर्गुण्य: 5, तत एव तद्विरक्त: 6, प्रतनुकषाय: 7, अल्पहास्यादिः 8, कृतज्ञो 9, विनीत: 10, प्रागपि राजाऽमात्यपौरजनबहमत: ११.अद्रोहकारी 12, कल्याणाङ्गः 13, श्राद्धः 14, स्थिर: 15, समुपसम्पन्नश्चेति 16 / / (पञ्चवस्तुकगाथा 10 वृत्तौ) ननु किमित्येतावान् गुणसमूहो निरूप्यत इति चेद्, उच्यते - मोहस्य दुरन्तत्वात् प्रव्रज्यायाश्चात्यन्तदुष्करत्वात् भवविरक्तचित्ता एवानन्तरोक्तगुणसम्पन्ना यावज्जीवं पालयितुं समर्था भवन्तीति / / 23 / / अथाऽऽचार्यः सुहृद् भूत्वाऽऽह - कालपरिहाणिदोषाद्अवसर्पिणीकालदोषात् परिहीयमाणसंहनन धृतिबुद्धिबलादिकारणा निर्दिष्टेकादिगुणविहीनमपि आस्तामनन्तरोक्तगुणसमुदयसमेतम् एकद्व्यादिगुणविहीनमपि बहुगुणयुतं बहुगुणसम्पन्नम्आचार्या : अभियुक्ता:, दीक्षायोग्यं प्रव्रज्याहँ जनं मुमुक्षु बुवते आहुः / / 24 / / एतदेव व्यतिरेकेणाह - * नानीदृशस्य हृदये रमते जिनगीर्भवाभिनन्दितया / कुङ्कुमरागो वाससि मलिने न कदापि परिणमते / / 25 / / टीका - न नैव अनीदृशस्य प्रव्रज्यागुणानहस्य हृदये मानसे रमते रुचिविषयं याति जिनगी: अजरामरत्वकारणत्वेन वीतरागवाणी भवाभिनन्दितया संसाराभिनन्दशीलतया, तदुक्तं च - असारोऽप्येष संसारः, सारवानिव लक्ष्यते। दधिदुग्धाम्बुताम्बुल - पुण्यपण्याङ्गनादिभिः / / 1 / / - इत्यादि वचनैः संसाराभिनन्दिता लक्ष्यते। एतदर्थकं सुप्रतीतं दृष्टान्तमाह - कुङ्कमराग: कुसुम्भवर्णो वाससि वस्त्रे मलिने कश्मले न नैव कदापि जातुचित् परिणमते परिणाममापादयतीति / / 25 / / अथ फलद्वारेण गुणवच्छिष्यं तद्विपरितं चाह - गुणवानेव हि शिष्यो लोकद्वयहितकरो गुरोर्भवति / इतरस्त्वार्तध्यानं श्रद्धाभावात् प्रवर्धयति / / 26 / / टीका - गुणवानेव अनन्तरोक्ताऽऽर्यदेशोत्पन्नत्वादिगुणसम्पन्न एव हि यस्मात् शिष्यो विनेयः शैलकशिष्यपन्थकदृष्टान्तेन लोकद्वयहितकर: प्रतिलेखनादिकरणेन समाधिजनकत्वात् शिक्षाऽऽदानेन च निर्जराकारित्वाद् गुरोः स्वगुरुदिगाचार्यादेः भवति जायते। इतरस्तु प्रव्रज्याहगुणविहीनस्तु आर्तध्यानं शिक्षाद्वयाऽग्रहणात् प्रतिषिद्धसेवनाच्चाऽशुभध्यानं प्रवर्धयतीत्यनेन योगः, कस्मात्? श्रद्धाभावात् जिनवचनगोचररुच्यादिलक्षणश्रद्धाविरहात्; महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 9 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धस्य हि तथाप्रवर्तमानस्य सुखं नेतरस्येति प्रवर्धयति आर्तध्यानं वृद्धिं नयति गुरोरपि यथाऽसाध्यव्याधिव्याधितश्चिकित्साप्रवृत्तस्य वैद्यस्येवेति / / 26 / / अथ प्रव्रज्याहवयोविषयमाह - वयसाऽष्टादिकवर्षोऽनवकल्पश्चार्हति व्रतादानम् / संस्तारकमुनिभावे भजना त्ववकल्पविषये स्यात् / / 27 / / टीका - वयसा वयो बालयुवादिदशा तेन अष्टादिकवर्ष : अष्ट वर्षाणि जघन्यतो वय:प्रमाणं यतः अष्टभ्यो वर्षेभ्य आरादस्य बालत्वेन परिभवभाजनत्वात्प्रायशश्चारित्रपरिणामाऽभावाच्च निषिद्धा दीक्षा तीर्थकरगणधरैः .. न च वज्रस्वाम्यादीनामल्पवयस्कानामपि दीक्षा श्रूयते, तत्कथमत्र प्रतिषिध्यत इति वाच्यं कादाचित्कभावात्तेषाम्। आदिपदाद् नवदश यावदुत्कृष्टं प्रमाणं सप्ततिवर्षाणि / अनवकल्पश्च अनतिवृद्धश्च, पञ्चवस्तुकमूलगाथायां प्रयुक्तशब्द: "अणवगल्लो' अनवग्लानार्थको ग्लानिरहित: सुशक्त इत्यर्थः, एवम्भूतोऽपि अर्हति संघटते व्रतादानं दीक्षाप्रतिपत्तिम्। अत्राऽपवादमाह - संस्तारकमुनिभावे संस्तारकप्रव्रज्यायां तुशब्दो विशेषद्योतने भजना विकल्प: अवकल्पविषये वृद्धग्लानादिविषये स्याद् भवेद्, यतः कस्यचित्तथाभूतस्याऽऽराधकभावसम्पन्नस्याऽऽयु:शेषेऽपि वृद्धग्लानादेः संस्तारकदीक्षाऽस्मद्गुरुपादानां जनकभगवानदासदृष्टान्तेन दीयत एवेति / / 27 / / अत्र विषये केचन त्रैवेद्यवृद्धादयो भणन्ति बाला न व्रतयोग्या बाल्यात् सम्भावनीयदोषाच्च / योग्यास्तु भुक्तभोगा एतत् त्रैविद्यवृद्धमतम् / / 28 / / टीका - बाला: अष्टवर्षादिवयसो न नैव व्रतयोग्या: चारित्रोचिता: बाल्याद् बालभावात् सम्भावनीयदोषात् सम्भाव्यमानविषयसेवनाऽपराधात् चः समुच्चये।अत एव योग्यास्तु प्रव्रज्यार्हास्तु भुक्तभोगा: अनुभूतविषयसुखा अभ्युपगतनिर्वहणादशङ्कनीयत्वाच्च। किञ्च - धर्मार्थकाममोक्षपुरुषार्थानां स्वस्वकालेऽनासेवनात् तन्निबन्धनकर्मणोऽक्षीणभावेन दोषोपपत्तेः। तथा कौतुककामाऽऽवेशप्रार्थनादयो येऽभुक्तभोगदोषास्तेऽतिक्रान्तयौवनानां परित्यक्ता भवन्ति। तस्मादतिक्रान्तवयसामेव योग्यत्वेनाऽधिकारित्वाद्दीक्षेति। तदुक्तं पञ्चवस्तुके - विण्णायविषयसंगा, सुहं च किल ते तओऽणुपालंति / कोउअनिअत्तभावा, पव्वज्जमसंकणिज्जा य / / 54 / / धम्मत्थकाममोक्खा, पुरिसत्था जं चत्तारि लोगंमि / एए असेविअव्वा, निअनिअकालम्मि सव्वे वि / / 55 / / तहाभुत्तभोगदोसा, कोउगकामगहपत्थणाईआ। एएवि होंति विजढा, जोग्गाहियाण तो दिक्खा / / 56 / / एतद् अनन्तरोक्तं त्रैविद्यवृद्धमतं त्रैवेद्यवृद्धादीनामभिप्राय इति / / 28 / / अत्र ग्रन्थकार आह - तदपेशलं यतः खलु बाल्यं नो चरणभावपरिपन्थि / कर्मक्षयोपशमजः स हि न स्वदशान्तराधीनः / / 29 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 10 गार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - तत् त्रैविद्यवृद्धमतम् अपेशलं तुच्छं यत: यस्मात् खलुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च बाल्यं बालभाव एव नो नैव चरणभावपरिपन्थि चारित्रविरोधि। यस्मात् चरणभावः कर्मक्षयोपशमज: चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमाज्जायते। स कर्मक्षयोपशमो हिर्हेतौ यस्मात् न नैव स्वदशान्तराधीन: स्वस्य चारित्रस्य दशा वयोविशेषरूपाऽनन्तरोक्ता अष्टभ्यो वर्षेभ्य आरभ्य यावत् सप्ततिवर्षाणि तदन्तरा तन्मध्ये याऽवस्था तदधीनस्तस्माद् बाल्यं न चारित्रविरोधि। एतदुक्तं भवति - चारित्रं हि चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजं, चारित्रमोहनीयक्षयोपमश्च विविधकारणसापेक्ष:, न तु वयोनिबन्धन एव। तस्माद्वयश्चरणपरिणामयोरविरोधः।क्षयोपशमश्च पूर्वजन्माऽभ्यस्तज्ञानध्यानत्यागवैराग्यसंयमयोगस्तज्जनितश्च नि:स्पृहभावसंस्कारस्तदधीन इति। शेषं तु पूर्ववत्। तदुक्तं - तक्कम्मखओवसमो चित्तनिबंधणसमुब्भवो भणिओ। न उ वयनिबंधणोच्चिय, तम्हा एआणमविरोहो / / 58 / / (पञ्चवस्तुक:) एत्वृत्तिः - तत्कर्मक्षयोपशम: चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशम: 'चित्रनिबन्धनसमुद्भवो नानाप्रकारकारणादुत्पादो यस्य स तथादिलो भणित: तु वयोनिबन्धन एव उक्तोऽर्हदादिभि: न विशिष्टशरीरावस्थाकारण एष, यस्मादेवं तस्मादेतयो: वयश्चरणपरिणामयो: अविरोध: अबाधा। इति गाथार्थः।।२९ / / नन्वेवं तर्हि किमर्थं वयसि नियमो निर्दिष्टः? उच्यते - नियमस्त्वतिबालानां परिभवनीयत्वभावमान्द्याभ्याम / बाला इव चेष्टन्ते केचन गतयौवना अपि तु / / 30 / / टीका - नियमो वयोविषयक: तुशब्दो विशेषद्योतने अतिबालानां अष्टभ्यो वर्षेभ्य आरात् शिशूनां परिभवनीयत्वभावमान्द्याभ्यां परिभवनीयत्वं बालसुलभतिरस्करणीयत्वं च भावमान्द्यं च बालभावादेव चारित्रपरिणामाऽदाढ्यं परिभवनीयत्वभावमान्द्ये ताभ्याम्। एतदुक्तं भवति - यत: अष्टभ्यो वर्षेभ्य: प्राग् बालत्वेनाऽतिबाल: परिभवभाजनं मन्दचारित्रपरिणामश्च भवति। तत: अष्ट वर्षाणि जघन्यतो वयसि नियमो विहितस्तीर्थकरगणधरैः। यद्येवं तर्हि भवतु प्रव्रज्या प्रवयसामेवेति चेन्न, यतो बाला इव कुमारा इव चेष्टन्ते प्रवर्तन्तेऽसत्कर्मसु विवेकाभावात् केचन न सर्वे गतयौवना अपि अतिक्रान्तयौवना अपि। तु शब्दो विशेषद्योतने, तथाहि - यौवनवन्तोऽपि केचिन्न सेवन्तेऽशुभकर्माणि विवेकसद्भावात्। उक्तं च - अणाइमन्ता इमे जीवा, न एत्थ परमत्थओ कोई जोव्वणत्थो न वा वुड्डओ त्ति। दीसन्ति अविवेगसामत्थओ वुड्डा वि एत्थ जम्मे अणियट्टविसयविसाहिलासा अगणेऊण लोयवयणिज्जं अवियारिऊण परमत्थं अप्पाणयं विडंबेमाण त्ति; हिययाहियमलेण विय दव्वन्तरजोएण कालपरिणामसुक्किले वि करेन्ति कालए केसे, अङ्गकढिणयाच सेवन्ति पारयमद्दणं, वुड्डभावदोसभीरू साहेन्ति इतरं जम्मकालं, वियारसीलयाए परिसक्केन्ति वियडयाई, पयट्टन्ति अपयट्टियव्वे, न पेच्छन्ति झीणमाउं, न चिन्तेन्ति जम्मन्तरं ति।अवरे पुण सुयब्भत्थपरलोगमग्गा तरुणया वि एत्थ जम्मे विवेयसामत्थेण नाऊण विज्जुयाडोवचञ्चलं जीयं, असारयं विसयसुहाणं, विवायदारुणं च पमायचेट्ठियस्स; मच्चुभयभीया विय हरिणया उत्तत्था पावहेऊणं, सेवन्ति परलोयबन्धवं चरणधम्मं ति। ता अकारणं एत्थ जोव्वणं ति। (समराइच्च कहा प्रथमो भागः पृ. 351-52) / / 30 / / एवं सति यत्सिद्धं तदाह - |महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 11 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविवेकद्वारा खलु यौवनमपकारि तत्त्वतस्तत् स / तदभावस्तद्विगमः स तु न जिनैर्वारितः क्वापि / / 31 / / टीका - अविवेकद्वारा हेयोपादेयज्ञानाऽभावेनैव खलुशब्दोऽवधारणे यौवनं तारुण्यम् अपकारि स्वपरद्रोहकारीति तत्त्वत: परमार्थत: तत् यौवनं स: अविवेक एव। तदभाव: अविवेकाभावश्च तद्विगम: यौवनविगमः। स तु अविवेकाभावस्तु न नैव जिनै: वीतरागैः वारितः प्रतिषिद्धः क्वापि कदाचित्, सदैव तस्याऽविवेकाऽभावस्य बालयुवाद्यवस्थासु सम्भवादिति।।३१ / / अथ पूर्वपक्षोद्भावितसम्भावनीयदोषत्वमाश्रित्याह - तुल्यं च भुक्तभोगेष्वपि भुवि सम्भावनीयदोषत्वम् / प्रत्युत तेष्वधिकबल: कामानां तद्भवाभ्यास: / / 32 / / टीका - बालाद्यपेक्षया तुल्यं च समं च भुक्तभोगेष्वपि अनुभूतविषयसुखेष्वपि ऋषिशृङ्गपितृवडाम्भकप्रभृतिषु भुवि जगति सम्भावनीयदोषत्वं सम्भाव्यमानविषयसेवनाऽपराधत्वम्, प्रत्युत अपि तु तेषु भुक्तभोगेषु अधिकबल: अतिरिक्तशक्तिक: सम्भावनीयदोषहेतुः कामानाम् इच्छामदनरूपाणां तद्भवाभ्यास: प्रव्रज्याग्रहणात् प्राग् गृहिपर्याये पौन:पुन्येनाऽऽसेवनलक्षण: / अत एव बाला: सुन्दरतरा अज्ञातविषयसङ्गाः, अन्यभवाभ्यासस्य तु मनाग् विप्रकृष्टत्वादिति / / 32 / / किञ्च - प्राप्ताऽणिमादिसंज्ञा पुंसामनिवृत्तिबादरादारात् / वेदान्तमविद्याख्यं कर्म दोषो नाऽसम्भाव्यः / / 33 / / टीका - तन्त्रान्तरपरिभाषया प्राप्ताणिमादिसंज्ञाद् आरात् पुंसां पुमर्थपूरकत्वात् पुरुषास्तेषाम्, तदुक्तं च - लघिमा वशितेशित्वं प्राकाम्यं महिमाऽणिमा / यत्राकामावसायित्वं प्राप्तिरैश्वर्यमष्टधा / / 1 / / स्वप्रक्रियया तु क्षपकश्रेणिप्रक्रमे अनिवृत्तिबादराद् नवमगुणस्थानकषष्ठभागाद् आराद् अर्वाग् वेदान्तं पुंवेदादिक्षयपर्यन्तं यावत् तन्त्रान्तरमाश्रित्य अविद्याख्यं तत्त्वं स्वपरिभाषया तु कर्म मोहनीयाख्यमात्मनि स्वसत्तां बिभर्ति तावदोषो कर्मजन्याऽपराधो नाऽसम्भाव्यः नाऽसम्भवी, किन्तु सम्भवत्येवेति / / 33 / / ततः किमित्याह नैतत्प्राप्तिः प्रायो दीक्षाविकलेति मन्ददोषेषु / अन्योन्याश्रयसंकटमुक्तं नियम विना न गतम् / / 34 / / टीका - न नैव एतत्प्राप्तिः एष आनन्दशक्त्यनुबोधेनाऽणिमादिभाव: अनिवृत्तिबादरगुणस्थानकभावो वा तस्य प्राप्तिाभः प्रायो बाहुल्येन दीक्षाविकला प्रव्रज्याशून्या इह जन्मनि पूर्वभवे वा दीक्षां विनेत्यर्थः / मरुदेवीकल्पाश्चर्यभावव्यवच्छेदार्थं प्रायोग्रहणम्, ततश्च तन्त्रान्तरेऽपि स्वपरिभाषया गीयत एव 'अत्यन्तमनवाप्तकल्याणोऽपि महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 12 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणं प्राप्त' इति वचनात्। इति अनन्तरोक्तनीत्या अनोन्याश्रयसंकटं, तथाहि - दीक्षाव्यतिरेकेण नाऽणिमादिप्राप्ति:, न चाऽणिमादिलाभं विना दीक्षेतीतरेतराश्रयदोष: प्रकट एव। एवं स्थिते मन्ददोषेषु बालादिषु उक्तं सप्तविंशतिगाथोक्तं 'वयसाऽष्टादिवर्षे' त्यादिलक्षणं नियमं यन्त्रणां विना ऋतेन नैव गतं गति: शरणमित्यर्थः / यदि वाऽन्योन्याश्रयसंकटमुक्तं नियम विना न गतमित्यप्यन्वयोऽदुष्ट एव / / 34 / / अन्यच्च - अपि चान्तरालविघ्नाऽऽशङ्की प्रागेव तन्निवृत्त्यर्थम् / / श्रुतमभ्यस्यन्नधिकं कृतकृत्यो भवति बालयतिः / / 35 / / टीका - अपि च अभ्युच्चये, दीक्षादिनादारभ्य यावज्जीवं यो दीक्षापर्यायकालस्तस्याऽन्तराले विचाले ये केचन संभाव्यमाना विघ्ना अन्तरायास्तानाऽऽशङ्कत इति अन्तरालविघ्नाऽऽशङ्की बालयति: प्रागेव विघ्नव्राताऽऽपातात् पूर्वमेव तन्निवृत्त्यर्थं तेषां विघ्नानां निवारणार्थं श्रुतं द्वादशाङ्ग्यादिलक्षणम् अभ्यस्यन् पुन:पौन्येनाऽध्ययनाध्यापनपरिशीलनतयाऽऽत्मसात्कुर्वन् अधिकं विशेषरूपतयाऽभ्युपगतदीक्षाया निरतिचारपालनात् कृतकृत्य : कृतार्थो भवति सम्पद्यते बालयति: कुमारश्रमणः / श्रुताभ्यासस्य चाऽभ्यन्तरतपोरूपत्वात्, तदुक्तं - सज्झाओ समो णत्थि तवो। तपसश्च भावमङ्गलरूपत्वेनाऽशेषविघ्नवातविदाकरत्वादिति / / 35 / / अथ पूमर्थक्रमाऽनासेवनाद् दोषोपपत्तिः परेणोद्भाविता तां निराचिकीर्षुराह - - न पुमर्थक्रमसेवा त्वेतद्विषयव्यतिक्रमनिमित्तम् / यद्धर्म एव सुखदः प्रतिपक्षावर्थकामौ तु / / 6 / / टीका - न नैव पुमर्थक्रमसेवाधर्मार्थकाममोक्षाणां परिपाट्याऽऽसेवनं तुशब्दोऽवधारणे एतद्विषयव्यतिक्रमनिमित्तं मोक्षसाधकचारित्रग्रहणविषया या बालयुवाद्यवस्था तस्या व्यतिक्रमनिमित्तं व्यत्ययहेतुः यद् यस्माद् धर्म एव श्रुतचारित्रलक्षण एव सुखदः स्वर्गापवर्गशर्मविश्राणकः, प्रतिपक्षौ दुःखप्रदौ पुन: अर्थकामौ प्रकृत्यैव संसारकारणत्वाद् नाममात्रपुमर्थो तुशब्दो पुनरर्थो भिन्नक्रमश्च स योजित एव।अयंभाव: - पुमर्थक्रमसेवा न दीक्षाविषयक-बालाद्यवस्थानिषेधिका यस्माद्धर्म एव सुखद: अर्थकामौ तु नाम्नैव पुरुषार्थों परमार्थतस्तु तावनर्थो। तदुक्तं - पुमा इह चत्वारः, मध्यमौ नामधेयादर्थो तत्त्वतोऽनौँ / अर्थस्तु मोक्ष एवैको, धर्मस्तस्य कारणम् / / (त्रि.श.पु.१० पर्व) अत एव मृत्योर्दृष्टान्तेन दीक्षाग्रहणे कदाचिदपि बालाद्यवस्थायामकालो नास्तीति स्वीकर्तव्यम्। किञ्च - येऽभुक्तभोगदोषा: कौतुकादयः परेणोद्भावितास्तेऽपि बाल्यप्रभृति जिनवचनभाविताऽत्मनां वैराग्यसम्भवादज्ञातविषयसुखत्वाच्च प्रायो न भवन्ति, प्रत्युत भुक्तभोगानां दुष्टतरा: स्मृत्यादयो दोषा सम्भवन्तीति यत्किञ्चिदेतत्। तस्मात् सिद्धमेतद् यदुत जघन्यतोऽष्टवर्षा युक्ता: प्रव्रज्याया इति / / 36 / / अथाऽन्यमतमाह - बुवतेऽन्ये प्राधान्यं मन्दप्रज्ञा गृहाश्रमस्यैव / उपजीवन्ति यदेनं सर्वेऽप्यन्नादिनाऽऽश्रमिणः / / 37 / / | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 13 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - ब्रुवते प्रतिपादयन्ति अन्ये स्मार्ताः प्राधान्यं ज्येष्ठत्वं मन्दप्रज्ञा: अतीक्ष्णबुद्धयो यतस्ते न जानन्ति यदारम्भंविना न गार्हस्थ्यम्आरम्भश्च दुर्गतिहेतुरिति, अत एव प्राधान्यं ख्यापयन्ति गृहाश्रमस्यैव गृहस्थाश्रमस्यैव, अवधारणात् सन्न्यासाद्याश्रमप्राधान्यव्यवच्छेदोऽवसेयः। अत्र हेतुमाहुः - उपजीवन्ति आश्रयन्ते यद् यस्माद् एनं गृहाश्रमं सर्वेऽपि निखिला अपि अन्नादिना अशनपानादिना आश्रमिण : सन्न्यासाद्याश्रमवासिनः। तदुक्तं च - गृहाश्रमसमो धर्मो, न भूतो न भविष्यति / तं पालयन्ति ये धीराः, क्लीबा: पाषण्डमाश्रिताः / / 1 / / (मनुस्मृतौ) / / 37 / / अत्र प्रतिविधानमाह तदसदुपजीवनात: प्राधान्यं येन लाङ्गलादे:स्यात् / ज्ञानादिकृतं त्वेतद् व्रतिनि दृढं नो गृहाश्रमिणि / / 38 / / टीका - परेण यद् गृहाश्रमस्य प्राधान्यमुक्तं तदसद् तन्मिथ्या, तथाहि- उपजीवनात: उपजीवनाकृतं प्राधान्यं प्रवरत्वं येन हेतुना परेणाऽऽश्रीयते तेनैव हेतुना गृहाश्रमात् सकाशाद् लाङ्गलादेः हलकर्षकपृथिव्यादेविशिष्टप्राधान्यं स्याद्भवेद्, यतो गृहस्था अपि लाङ्गलादेः सकाशाद्धान्यलाभेन लाङ्गलादीनुपजीवन्ति। अथैवं मन्यसे यदुत हलादयो न जानन्ति यथा वयमुपकारं कुर्मो धान्यप्रदानेनैतेषां धर्मनिरतानां गृहस्थानामिति कथं तेषां हलादीनां प्राधान्यमिति चेत्, उच्यते - ते हलादय: क्रियया प्रधाना यतस्तेभ्यो धान्यादिलाभस्ते उपजीव्यन्ते गृहस्थैः, अतो ज्ञानेन किम्? क्रियाया एव प्राधान्ये सति। अथ ज्ञानादिकृतं ज्ञानसंयमादिनिमित्तं तुशब्दो विशेषद्योतने एतत् प्राधान्यम्, न तु क्रियानिमित्तमिति मन्यसे तर्हि ज्ञानादिकृतं तु प्राधान्यं व्रतिनि चारित्रिणि ज्ञानादीनां विशुद्धत्वात् पापनिबन्धनाऽऽरम्भनिवृत्तेश्च दृढं बाढम्, नो नैव गृहाश्रमिणि गृहस्थ इत्यङ्गीकर्तव्यमिति / / 38 / / अथ ये स्वजनरहितस्य सतो योग्यतां घोषयन्ति तेषां मतमुपन्यस्यति अन्ये त्वत्र जनस्य स्वजनविरहितस्य योग्यतां ब्रुवते / तद्विलपनादि पापं त्यागे खलु पालनीयस्य / / 39 / / / टीका - अन्ये वादिन: तुशब्द:पुनरर्थे अत्र प्रव्रज्यायां जनस्य सतः स्वजनविरहितस्य भ्रात्रादिबन्धुवर्जितस्य योग्यताम् औचित्यं ब्रुवते निरूपयन्ति यत: तद्विलपनादि स्वजनविलपनताडनादि पापं दोष: त्यागे हाने सति खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे पालनीयस्य भर्तव्यस्य स्वजनादेः / अयं भाव: - यः स्वजनं विहाय परिव्रजति तस्याऽसौ स्वजनविलपनादि दोषो भवति। अत: स्वजनविरहित एव प्रव्रज्याया योग्य इति / / 39 / / अस्य परिहारमाह - तदसदिहापि हि पापं प्राणवधाद् यत् स पालनेऽभ्यधिकः / आरम्भत: स्वतत्त्वे स्वपरविभागश्च नावगते / / 40 / / टीका - यदनन्तरोक्तं परवादिभि: तदसत् तन्मिथ्या, हेतुमाह - आस्तां स्वजनत्यागे तद्विलपनताऽनादि पापं इहापि गार्हस्थ्येऽपि हि हेतौ पापं दोष: प्राणवधाद् एकेन्द्रियादिसत्त्वोपमर्दात्। एतदेवाह - यद् यस्मात् स दोष: महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 14 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालने स्वजनादिभरणे अभ्यधिक: विशेषतर: आरम्भत: असदनुष्ठानात्। किञ्च - स्वतत्त्वे स्वतत्त्वं स्वस्वरूपम्, तथाहि- .. सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कश्चित्। न तं पश्यामि यस्याहं, नाऽसौ भावीति यो मम / / 1 / / तथा एक: प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् / जायते म्रियते चैक एको याति भवान्तरम् / / एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसण संजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा / / संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा / तम्हा संजोसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसिरिअं / / इत्यादि स्वतत्त्वं तस्मिन् अवगते ज्ञाते सति स्वपरविभागश्च अयं निजो परो वेत्यादिलक्षणं पार्थक्यं न नैव विद्यत इति शेषः / तदुक्तं च - संसार एवायमनर्थसार:, क: कस्य कोऽत्र स्वजन: परो वा। सर्वे भ्रमन्त स्वजना: परे च, भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः / / 1 / / तथा अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् / / 1 / / - इत्थं संयोगस्याऽनित्यत्वात् सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः स्वजना एव, यदि वा स्वजनाअपि परादिरेवेति / / 40 / / स्यादेतद्-इमे गृहस्थाश्रमगतारम्भविषया एकेन्द्रियादिसत्त्वास्तु स्रष्ट्रा रम्भार्थमेव सृष्टा इति न कश्चिद्दोष इत्याशङ्क्याह सत्त्वौघप्रव्रजतोरारम्भत्यागसृष्टतातौल्यम् / अभ्यपुपगमवादोऽयं, न विधित्यागेऽल्पदोषोऽपि / / 41 / / __ननु प्रव्रजन्नपि स्वजनत्यागार्थं सृष्टः स्वजनश्च तथाविध एव सृष्टो येन त्यज्यत इति न कश्चिद्दोष इत्यपि पराभ्युपगतसृष्टिवादमभ्युपगम्य वक्तुं शक्यते। एतदेवाह - सत्त्वौघप्रव्रजतोः सत्त्वौघश्च आरम्भविषय एकेन्द्रियादिप्राणिगण: प्रव्रजञ्च स्वजनत्यक्ता सत्त्वौघप्रव्रजन्तौ तयोः आरम्भत्यागसृष्टतातौल्यम् आरम्भार्थं सत्त्वौघस्य सृष्टता त्यागार्थं च स्वजनस्य सृष्टतेति आरम्भत्यागसृष्टते तयोस्तौल्यं समानता, न कश्चिद्विशेषः। अभ्युपगमवादः परवादिबलनिरीक्षणार्थमनिष्टमपि सृष्टिवादं स्वीकरणम्।अयम् उक्तस्वरूप: अभ्युपगमवादः / अन्यथा न कोऽपि महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 15 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत: स्रष्टा। सर्वे जीवा: स्वस्वकर्मवशगाश्चतुर्गतिके संसारे बम्भ्रमन्ति। सृष्टिवादनिराकरणं तु विस्तरतोऽन्यत्र लोकानादित्वविंशिकादौ प्रपञ्चितमित्यलं विस्तरेण। एवं सति किं तथ्यमित्याह - न नैवविधित्यागे - पञ्चसूत्रादिशास्त्रोपदर्शितेन विधानेन स्वजनत्यागेआस्तां महादोष: अल्पदोषोऽपि स्वल्पमपि पापं नास्तीत्यर्थः, जिनोपदिष्टविधिप्रवृत्तत्वादिति / / 41 / / अथाऽन्यन्मतमाह अन्ये त्वाहुः सुखिनां प्रव्रज्या फलवती न चान्येषाम् / नाऽत्यक्तभोगविभवा: पात्रं गम्भीरभावस्य / / 42 / / टीका - अन्ये उक्तव्यतिरिक्ता: परवादिन: तुशब्दो विशेषद्योतनार्थ: आहुः प्रतिपादयन्ति, तथाहि - सुखिनां सुखयतीति सुखं तद्वतां पुण्यशालिनामित्यर्थः प्रव्रज्या दीक्षा फलवती सफला विषयाद्यौत्सुक्यनिवृत्तेः / न नैव च पुन: अन्येषां सुखिव्यतिरिक्तानां दुःखिनामित्यर्थः। अत्र हेतुमाहुः - न नैव अत्यक्तभोगविभवाः अनुत्सृष्टसमुपलब्धविषयसुखसम्पदः पात्रं योग्या गम्भीरभावस्य प्रव्रज्यालक्षस्योदारभावस्य।अनुदारचित्ताश्चाऽयोग्या इति गाथार्थः / / 42 / / किञ्च - अधिकतरं प्रव्रज्यापर्यायं प्राप्य ते हि माद्यन्ति / क्षुद्रप्रव्रज्यातो लोके धर्मोपघातोऽपि / / 43 / / टीका - अधिकतरं पूर्वावस्थाऽपेक्षया शोभनतरं प्रव्रज्यापर्यायं दीक्षाऽवस्थां प्राप्य आसाद्य ते हि तुच्छभावा एव प्रायो माद्यन्ति मानमुद्वहन्ति। तथा क्षुद्रप्रव्रज्यातो दरिद्रदीक्षादानेन लोके प्राकृतलोके धर्मोपघातोऽपि प्रवचनपीडा "प्राय: सर्वेऽपीदृशा एवे''ति लोकप्रवादात्। अपि च - भोगाभावान्न ते दरिद्रास्त्यागिन: “साहीणे चयई भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई' त्यादिदशवैकालिकवचनादिति / / 43 / / अत्र प्रतिविधानमाह एतदपि मुग्धविस्मयकरं न युक्तिक्षमं तु मतमुच्चैः।। अविवेकपरित्यागात् त्यागी यनिश्चयनयस्य / / 44 / / टीका - आस्तां पूर्वोक्तानि मतानि एतदपि अनन्तरोक्तमपि मतं मुग्धविस्मयकरम् अनालोचिततत्त्वानां चित्तचमत्कारकारि यतो न नैव तुशब्दो विशेषद्योतनार्थ: युक्तिक्षम पूर्वापरविचारसहम्मतम् अभिप्राय: उच्चैः प्रबलम्। इदमुक्तं भवति - सुखिनां प्रव्रज्या फलवतीति मतमापातरमणीयमेव मूढानाम्, न तु तात्त्विकानां युक्त्याऽनुपपन्नत्वात्। युक्तिमेवाह - न तु केवलं विषयसुखत्यागात् त्यागी भवति, अपितु अविवेकपरित्यागाद् अज्ञानपरिहाराद् यद् यस्मात् त्यागी प्रव्रजितो निश्चयनयस्याऽभिप्रेत इति शेषः / / 44 / / अविवेकत्यागाऽत्यागयो: फलमाह - अविवेकपरित्यागात् पालयति मुनिक्रियां स भावेन / संज्ञाभेदात् त्यक्तग्रहणं ह्यविवेकशक्तिकृतम् / / 45 / / टीका - अविवेकपरित्यागात् अज्ञानपरित्यागात् पालयति समाचरणेन संरक्षति मुनिक्रियां साधुसमाचारी स प्रव्रजितो भावेन यथाविधि। अविवेकसत्तायां तु स्वजनधनादिबाह्यत्यागवतामपि संज्ञाभेदाद्ध्वनिभेदात् त्यक्तग्रहणं महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 16 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यक्तस्यापि गृहवासगताऽऽरम्भपरिग्रहस्य देवाद्यर्थं शब्दभेदेन तथाविधाऽऽरम्भादिषु पुन: प्रवृत्तत्वाद् ग्रहणं स्वीकरणमेवाऽऽपद्यते, हिशब्दोऽवधारणे। कुतश्चैतत्त्यक्तग्रहणमित्याह - अविवेकशक्तिकृतम्अज्ञानसामर्थ्यविहितमेतदिति / / 45 / / एतदेव स्पष्टयति - ध्वनिभेदेऽपि सपापं प्रकृतेर्न हितं हि मधुरकादीव / ___ सापेक्षस्य यतनया तदनुमतिर्नैव विहितार्थे / / 46 / / टीका - ध्वनिभेदेऽपि शब्दभेदेऽपि देवाद्युद्देशेन क्रियमाणमारम्भपरिग्रहादि सपापं सदोषं प्रतिज्ञालोपाद्दुर्गतिदायकत्वाच्च प्रकृते: स्वाभाव्यादेवाऽऽरम्भपरिग्रहादिन नैव हितं स्वोपकारकं हिशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च मधुरकादीव विषशीतलकादिवत्प्राणाऽपहारपीडाकारित्वात्। अथाऽऽरम्भादि न हिताय तर्हि किमिति यतीनामपि श्रावकानुद्दिश्योपदेशे प्रवृत्तितोऽनुमति: क्वचिच्च साक्षाज्जिनायतने लुताद्यपनयनलक्षणाऽऽरम्भप्रवृत्तिरिति चेद्; उच्यते- सापेक्षस्य गच्छवासिन: कूपोदाहरणेन श्रावकयोग्यशास्त्रार्थोपदेशे तथा श्रावकाद्यभावे तीर्थनाशो मा भूदिति कारणेन यतनया आगमोक्तविधिना परार्थं विहितार्थे विहितानुष्ठाने निरीहत्वेन प्रवृत्तत्वाद् नैव नास्त्येव तदनुमति : आरम्भाद्यनुमतिरिति / / 46 / / अथ प्रस्तुतमाह - गुणधर्मानुपघातौ नि:स्वस्याप्यपगताऽविवेकस्य / सूत्रन्तु व्यवहाराद् युक्तो हुस्तत्र वाप्यर्थः / / 47 / / टीका- गुणधर्मानुपघातौ गुणश्च ज़गज्जीवाऽभयप्रदानतीर्थाऽव्युच्छित्तिप्रभृतिलक्षणोधर्मानुपघातश्च प्रवचनाऽपीडा च सम्प्रतिजीवद्रमकदृष्टान्तेन आस्तां त्यक्तभोगविभवानां नि:स्वस्यापि दुर्गतस्याऽपि अपगताऽविवेकस्य अपेताऽज्ञानस्य तुच्छत्वमदादिदोषाभावात्। तर्हि ‘से हु चाइत्ती' त्यादिसूत्रस्य का गतिरिति चेद्, उच्यते - सूत्रम् उक्तलक्षणं तुशब्दो विशेषद्योतनार्थ:, व्यवहारात्व्यवहारनयाऽभिप्रायात् प्रवर्तते वा विकल्पे हुः हुशब्दश्च तत्र सूत्रे अप्यर्थः उक्तव्यतिरिक्त समुच्चयार्थे वर्तत इत्यर्थः / तथा च सूत्रोक्तत्यक्तभोगविभवव्यतिरिक्तनि:स्वानामपि प्रव्रज्याऽविरुद्धा निर्निदानतपोऽनुष्ठानाद् हननपचनक्रयणकृतकारिताऽनुमतिभेदेन कोटिनवोद्यमपरित्यागाच्चेति / / 47 / / अथोभययुक्तानां तु गुणमाह - प्रतिबन्धत्यागपरो बाह्यत्यागोऽपि तेन युक्तमदः / जिनधर्मोन्नतिकारणमुभयत्यागी तु धन्यतरः / / 48 / / टीका - येन हेतुना प्रतिबन्धत्यागपर:अविवेकपरिहारयुक्तः,आस्तां कषायाद्याभ्यन्तरत्यागो बाह्यत्यागोऽपि समुपलब्धेोत्कटीवषयसुखप्सम्यागोपिजिमधर्मेनसिकारण अपेषामपिप्पलै प्रकल्पापरीन्प्रत्यपछि हेतुरिति उभयत्यागी कनकादिद्रव्याऽविवेकादिभावपरित्यागवान् तुशब्दो विशेषद्योतना अविवेकत्यागिनि:स्वाऽपेक्षया धन्यतर: धर्मधनस्याऽधिको योग्य:, तेनैव हेतुना ‘सुखिनां प्रव्रज्या फलवती'ति यदुक्तम् अद: तद् युक्तंन्यायोपेतमिति / / 48 / / अथ कस्मिन् क्षेत्रादौ प्रव्रज्या देयेत्याह - इक्षुवने जिनभवने, समवसृतौ क्षीरवृक्षवनखण्डे / गम्भीरसानुनादे, दीक्षा देया शुभे क्षेत्रे / / 49 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 17 गार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - इक्षुवने प्रतीते, जिनभवने अर्हदायतने समवसृतौ भगवदध्यासिते क्षेत्रे वृत्ते क्षीरवृक्षवनखण्डे अश्वत्थादिवृक्षसमूहे गम्भीरसानुनादे महाभोगप्रतिशब्दवति उपलक्षणात् प्रदक्षिणावर्तजलसान्निध्ये शुभे प्रशस्ते क्षेत्रे स्थाने दीक्षा प्रव्रज्या देया वितरणीयेति / / 49 / / अथ निषेधमुखेनाऽप्रशस्तक्षेत्रमाह - शून्ये गृहेऽमनोज्ञे, न तु भग्ने ध्यामिते श्मशाने वा / क्षाराङ्गाराऽवकराऽमेध्यादिद्रव्यदुष्टे वा / / 50 / / टीका - न नैव तुशब्दो निषेधलक्षणविशेषद्योतनार्थ: शून्ये निर्जने गृहे वेश्मनि अमनोज्ञे अरुच्ये भग्ने ध्वस्ते ध्यामिते दग्धे श्मशाने शवस्थाने क्षारागाराऽवकराऽमेध्यादिद्रव्यदुष्टे क्षारो भस्म अङ्गार: प्रतीत: अवकर: कचवर: अमेध्यं अपवित्रं द्रव्यम् आदिशब्दोऽमेध्यस्वभेदमलमूत्रमांसशोणितादिज्ञापकः / एवम्भूतैर्द्रव्यैर्दुष्टे दोषवति क्षेत्रे दीक्षा न देयेति शेषः / वाशब्दौ समुच्चयार्थाविति / / 5 0 / / अथ वर्ण्यकालविषयमाह - . षष्ठ्यां च चतुर्दश्यां द्वादश्यामष्टमीनवम्योश्च / भेषु चतुर्थ्यां सन्ध्यागतादिषु पञ्चदश्यां च / / 51 / / / टीका - षष्ठ्यामित्यादि चतुर्थ्यां षष्ठ्यामष्टम्यां नवम्यां द्वादशम्यां चतुर्दश्यां पञ्चदश्यां च तिथौ शिष्यनिष्क्रमणं न कुर्यादिति शेषः / उक्तशेषासु निर्दोषासु प्रतिपद्वितीयातृतीयापञ्चमीसप्तमीदशम्येकादशीत्रयोदशीषु दद्यादित्यर्थः। अथ वय॑नक्षत्राण्यधिकृत्याह - भेषु नक्षत्रेषु सन्ध्यागतादिषु सन्ध्यागतेषु आदिपदाद् रविगतविड्वेरसग्रहविलंबिराहुगतग्रहभिनेषु च वय॑नक्षत्रेषु दीक्षा न दातव्येत्यर्थः / उक्तं च अत्थमणे संझागय रविगय जहियं ठिओ उ आइच्चो।। विड्डरमवद्दारिय सग्गह कूरग्गहहयं तु / / 1 / / आइच्चपिटुओ जं विलंबि राहूयं तु जहिं गहणं / मज्झेणं जस्स गहो गच्छइ तं होइ गहभिन्नं / / 2 / / संझागयम्मि कलहो आइच्चगते य होइऽनिव्वाणि / विड्डेरे परविजओ सगहम्मि य विग्गहो होई / / 3 / / दोसो अभंगयत्तं होइ कुभत्तं विलंबिनक्खत्ते / राहुहयम्मि य मरणं गहभिन्ने सोणिउग्गालो / / 4 / / / / 51 / / साम्प्रतं नक्षत्राण्येवाधिकृत्य विधिमुखेनाह - तिसृषूत्तरासु कुर्याद् रोहिण्यामपि च शिष्यनिष्क्रमणम् / आरोपणं व्रतानां गणिवाचकयोरनुज्ञां च / / 52 / / टीका - तिसृषु वक्ष्यमाणासु उत्तरासु उत्तराषाढोत्तराफाल्गुण्युत्तराभाद्रपदलक्षणासु, आस्तामनन्तरोक्तासु महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 18 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिण्यामपि प्रतीतायामपि चशब्दान्मृगशीर्षादिष्वपि निर्दोषेषु नक्षत्रेषु कुर्याद विदध्यात्शिष्यनिष्क्रमणं शैक्षप्रव्रज्याम्। अनन्तरोक्तोत्तराषाढादिषु नक्षत्रेषु न केवलं शिष्यनिष्क्रमणं कुर्याद् अपितु आरोपणं न्यासं व्रतानां प्राणातिपातादिविरमणलक्षणमहाव्रतानां गणिवाचकयो: आचार्योपाध्याययो: अनुज्ञां च तृतीयचतुर्थपदारोपणं च कुर्यात्। अथ किमर्थं क्षेत्रादयो विलोक्यन्त इति चेद्, उच्यते एषा जिनानामाज्ञा यदुतोक्तलक्षणेष्वेव क्षेत्रादिषु दीक्षा दातव्येति यत: क्षेत्रादयश्च कर्मण उदयादिकारणं भवन्ति। उक्तं च - उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जंच कम्मुणो भणिया / दव्वं खित्तं कालं भवं च भावं च संपप्प / / 1 / / / / 52 / / ननु प्रव्रज्यार्हः कथं ज्ञायतेत्याऽऽशङ्कायामाह - ___धर्मकथाऽऽक्षिप्तं खलु पृच्छेत् कः कुत्र किंनिमित्तमिति / . कुलपुत्रादिर्ग्राह्यो भजना शेषेषु सूत्रविधेः / / 53 / / ___टीका - धर्मकथाऽऽक्षिप्तं धर्मकथां सर्वज्ञोपदेशलक्षणा, तथाहि - भो भो देवाणुप्पिया, अणाइम एस जीवो कञ्चणोवलो व्व संगओ कम्ममलेण, तद्दोसओ पावेइ चित्तवियारे, उप्पज्जइ बहुजोणीसु, कयत्थिज्जइ जरामरणेहिं, वेएइ असुहवेदणं, दूमिज्जइ संजोयविओएहिं, बाहिज्जए मोहेण, सन्निवाइओ विय न जाणइ हियाहियं, बहुमन्नए अपच्छं, परिहरइ हियाई, पावइ महावयाओ। ता एवं ववत्थिए परिच्चयह मूढयं, निरूवेह तत्तं, पूएह गुरुदेवए, देह विहिदाणं, उज्झेह किच्छाइं, अङ्गीकरेह मेत्तिं, पवज्जह सीलं, अब्भसह तवजोए, भावेह भावणाओ, छड्डह अग्गहं, झाएह सुहज्झाणाई, अवणेह कम्ममलं ति। एवं भो देवाणुप्पिया अवणीए कम्ममलंमि कल्लाणीहूए जीवे विसुद्धे एगन्तेण न होन्ति केइ दुक्कयजणिया वियारा, होई अचंतियं परमसोक्खं ति। ता जहासत्तीए करेह उज्जमं उवइट्ठगुणेसु। (समराइच्च कहा नवमे भवे ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं पृ. 963-64) एवंभूतया धर्मकथया आक्षिप्तम् आकृष्टमेव प्रव्रज्याभिमुखं खलुशब्दोऽवधारणे पृच्छेत् परीक्षाविषयं कुर्यात्। कथमित्याह - कः? कस्त्वं सुन्दर? कुत्र? कुतो वाऽऽयुष्मन् निवससि? गृहत्यागं कुरुषे वा विकल्पे किंनिमित्तं कस्माद् हेतोः? इति एवं प्रश्ने सति स कथयेत्-कुलपुत्रोऽहं राजगृह्यां वसामीत्येतद् ब्राह्मणपाटलिपुत्रमथुराद्युपलक्षणं ज्ञेयम्। भवक्षयनिमित्तं प्रव्रज्याम्यहं भदन्त! इति ब्रुवन् कुलपुत्रादि: उच्चकुलोद्भूतक्षत्रियब्राह्मणादिः ग्राह्यः स्वीकर्तव्यः प्रव्राजनार्थम्। शेषेषु अकुलपुत्राऽन्यनिमित्तादिषु भजना ग्रहणाऽग्रहणविषया सूत्रविधेः निशीथसूत्राद्यनुसारा द्रष्टव्या। उक्तं च - जे जहिं दुगुंछिया खलु पव्वावणवसहिभत्तपाणेसु। जिणवयणे पडिकुट्ठा वज्जेयव्वा पयत्तेणं / / 1 / / 53 / / पृच्छानन्तरं प्रव्रज्याया दुष्करतां तदाराधनविराधनयोश्च महार्थानर्थलक्षणं च फलं कथनायाह - कथयेदिह दीक्षायास्तं प्रति कापुरुषदुरनुचरतां च। ___ आरम्भनिवृत्तानां लोकद्वयसुखसमृद्धि च / / 54 / / टीका - कथयेत् प्रतिपादयेत् तं प्रति शैक्षं प्रति इह मौनीन्द्रप्रवचने दीक्षायाः सर्वत्यागलक्षणाया: कापुरुषदुरनुचरतां क्षुद्रसत्त्वदुष्पालनताम्आरम्भनिवृत्तानां हिंसादिविरतिमतां लोकद्वयसुखसमृद्धिम् इहपरभव महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 19 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमनुजसुखसम्पत्तिं चशब्दाद् अचिरेणाऽपवर्गावाप्तिं च। उक्तं च - दिने दिने भिक्खं हिंडियव्वं / जत्थं जं लब्भइ तं अचित्तं घेत्तव्वं, तं पि एसणादिसुद्धं, आणीयं पि बालवुड्डसेहादिएहिं सह संविभागेण भोत्तव्वं। निच्चं सज्झायझाणपरेण होयव्वं। सदा अण्हाणगं, उदुबद्धे सया भूमिसयणं, वासासु फलगादिएसु सोयव्वं / अट्ठरससीलंगसहस्सा धरेयव्वा, लोयादिया य किलेसा अनेगे कायव्वा। (निशीथ भा.गा. 3749 चूर्णिगता दीक्षायाः कापुरुषदुरनुचरता) तथाआरम्भनिवृत्तानां लोकद्वयसुखसमृद्धिः, तथाहि - सव्वरयणामहएहिं विभूसिअंजिणहरेहिं महिवलयं / जो कारिज्ज समग्गं, तओ वि चरणं महिड्डीअं / / 1 / / नो दुष्कर्मप्रयासो न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्वाक्यदुःखं, राजादौ न प्रणामोऽशनवसनधनस्थानचिन्ता च नैव / ज्ञानाप्तिर्लोकपूजा प्रशमसुखरति: प्रेत्य मोक्षाद्यवाप्तिः; श्रामण्येऽमी गुणा: स्युस्तदिह सुमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम् / / 1 / / (श्राद्धविधिप्रकरणं षष्ठः प्रकाश: द्वारं 14) प्रव्रज्याफलम् - स एवमभिसिद्धे परमबंभे मंगलालए जम्मजरामरणरहिए पहीणासुहे अणुबंधसत्तिवज्जिए संपत्तनिअसरूवे अकिरिए सहावसंठिए अणंतनाणे अणंतदंसणे (पंचसूत्रम् - पवज्जाफलसुत्तं) / / 54 / / ननु कियन्तं कालं परीक्षेतेत्याशङ्कायामाह - आषण्मासीमुच्चैरभ्युपगतमपि पुनःपरीक्षेत / . . परिणामकमचिरादपि दद्यादालापकं सुदिने / / 55 / / टीका - आषण्मासी षण्मासान् यावद् उच्चैः अत्यन्तम् आस्तां विमर्शविषयम् अभ्युपगतमपि प्रव्रज्या) स्वीकृतमपि पुनः मुहुः परीक्षेत तोलयेत् यदुताऽयं सर्वविरतिपरिणामवान् न वा? अत्र विषयेऽपवादमाह - परिणामकं प्रव्रज्यापरिणतिमन्तं पात्रं ज्ञात्वा अचिरादपि अविलम्बेनाऽपि दद्यात् प्रयच्छेद् आलापकं सामायिकादिसूत्रलक्षणं यद्योग्यं तत् सुदिने विशिष्टनक्षत्रादियुक्ते शोभनवासरे चैत्यवन्दननमस्कारपाठपुरस्सरम्। मन्दपरिणामके तु षण्मासात् परतोऽपि दद्यादालापकमित्यर्थः / / 55 / / उक्तं परीक्षापुरस्सरं सूत्रदानं, शेषविधिमाह - पूजां तत: स कुर्यात् देवगुरूणां विधेर्यथाविभवम् / चैत्यानि वामपार्श्वस्थितशिष्यो वन्दते च गुरुः / / 56 / / टीका - तत: सामायिकादिसूत्राऽध्ययनानन्तरं पूजां सपर्यां स मुमुक्षुः कुर्यात् विदधीत देवगुरूणां देवानां वीतरागानां माल्यादिना गुरूणां साधूनां च वस्त्रादिना यदुक्तं पञ्चवस्तुवृत्तौ (पंच.व.गा.-१२४) - ‘जिनानां माल्यादिना साधूनां वस्त्रादिना' / विधेः सूत्रोक्तविधानाद् यथाविभवं विभवानुरूपम्। अथ चैत्यवन्दनविधिमाह - चैत्यानि अर्हबिम्बानि वन्दते प्रवर्धमानस्तुतिभिः वामपार्श्वस्थितशिष्यः सव्यभागे स्थित: शिष्यो मुमुक्षुर्यस्य स गुरुः महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं मापिरिशदिप्रकरणंसटीकम Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्राजक आचार्य आत्मनैवाऽन्यसाधुभि: शैक्षकेन च सह चैत्यानि वन्दत इत्यर्थः / / 56 / / अथ चैत्यवन्दनविधिविशेषमाह - अस्खलितादिगुणयुतै: सूत्रैः स्तुतिभिश्च वर्धमानाभिः / नो चेदसमाचारी सूत्राज्ञाया व्यतिक्रमतः / / 57 / / टीका - देवादिपुरत: स्थितो गुरुस्तद्वामपार्श्वे च शिष्यः शेषाश्च साधवो यथाक्रमं स्थिता: अस्खलितादिगुणयुतैः नस्खलितंन मिलितमित्यादिवक्ष्यमाणगुणयुतैः सूत्रैः शक्रस्तवादिलक्षणैः स्तुतिभिश्चअर्हदादिसत्काभिश्च, कीदृशाभि:? वर्धमानाभि: छन्दपाठाभ्यां प्रवृद्धाभिर्वन्दन्त इति शेषः / एवमस्खलितादिगुणयुतैः सूत्रैर्वर्धमानाभिश्च स्तुतिभि: नो चेद् यदि न वन्दन्ते तर्हि असमाचारी अस्थितिज्ञेया। कस्मात्? सूत्राज्ञाया: सूत्राज्ञा आगमार्थस्तु - अस्खलितादिगुणयुतैः सूत्रैर्वन्दना दातव्येति, तस्या व्यतिक्रमत: स्थानमुच्चारणं वा प्रति विधिविपर्ययादिति / / 57 / / अथ रजोहरणार्पणविधिमाह - वन्दित्वा पुनरुत्थितगुरुभ्य इह वन्दनं समं दत्त्वा / मामिच्छाकारेण प्रवाजयतेति भणति शिशुः / / 58 / / इच्छामीति भणित्वाऽभ्युत्थायाऽऽकृष्य पञ्चमङ्गलकम् / * अर्पयति रजोहरणं भगवत्कथितं गुरुर्लिङ्गम् / / 59 / / टीका - वन्दित्वा गुरुभि: सार्ध देवादीन् द्वितीयप्रणिपातदण्डकावसानवन्दनेन मध्यमदेववन्दनेनेत्यर्थः, शिष्य: पुन:शब्दो विशेषद्योतने उत्थितगुरुभ्यः प्रणिपातान्निषण्णोत्थितेभ्य आचार्येभ्यः इह दीक्षाविधौ वन्दनं द्वादशावर्तलक्षणं समं देवाद्यभिमुखमेव दत्त्वा कृत्वा भणति प्रार्थयति शिशुः शिष्यः - माम् उपलक्षणादस्मान् इच्छाकारेण छन्दसा प्रवाजयत अभिनिष्क्रामयतेति / / 58 / / __ इच्छामि अभिलषामि इति एवं भणित्वा उक्त्वा अभ्युत्थाय ऊर्ध्वं स्थित्वा आकृष्य पठित्वा पञ्चमङ्गलकं परमेष्ठिनमस्कारमहामन्त्रं 'सुग्गहीयं करेह' इति भणन् गुरु : आचार्य: अर्पयति शिष्यश्च 'इच्छामिति भणित्वा प्रतीच्छति भगवत्कथितं जिनप्रज्ञप्तं लिङ्गं यतिचिह्न समुखवस्त्रिकया रजोहरणं वक्ष्यमाणस्वरूपंधर्मध्वजमित्यर्थः। अयं विशेष: - रजोहरणमर्पयन् गुरू रजोहरणदशा: पूर्वोत्तरान्यतमदिशाभिमुखस्थितशिष्यस्य दक्षिणपार्श्वतो यथा भवन्ति तथाऽर्पयतीति। तत: शिष्योऽपि रजोहरणं शिरसि समारोप्य नृत्यन् समवसरणं त्रि: प्रदक्षिणीकरोतीति / / 59 / / ननु यतिलिङ्गस्य रजोहरणमिति संज्ञा किमर्थमित्याशङ्कायामाह - अन्वर्था संज्ञेयं कारणकार्योपचारतो भणिता / संयमयोगा यस्मादिह सर्वेऽप्येतदायत्ताः / / 60 / / टीका - अन्वर्था अनुगताऽर्थं सार्थिकेत्यर्थः संज्ञा अभिधानम् इयं रजोहरणलक्षणा कारणकार्योपचारतः कारणे कार्यस्योपचारात्, तथाहि - हरति जीवानां रज: अभ्यन्तरं बध्यमानकर्मलक्षणं बाह्यं च पृथ्वीरज:प्रभृति तेन महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 21 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजोहरणमिति संज्ञा भणिता विहिता तीर्थकरगणधरैः / यस्माद् हेतोः इह मौनीन्द्रप्रवचने सर्वेऽपि निखिला अपि संयमयोगा: प्रत्युपेक्षितप्रमृष्टभूभागस्थानादिव्यापारा बध्यमानकर्महरास्तेषां कारणं रजोहरणमिति कारणे कार्योपचारः। इत्थं सुष्ठूक्तम् एतदायत्ता: रजोहरणाधीना: सर्वेऽपि संयमव्यापारास्तस्मात् कारणाद् जोहरणमित्यन्वर्था संज्ञेयमिति / / 60 / / ननु प्रमार्जने सति पिपीलिकामत्कोटादीनां विनाशात् प्रबन्धगमनव्याघाताभोग्यसिक्थादिविरहाद्र जसा दरिस्थगनेन तत्संघट्टनादेश्चोपघातो भवतीति रजोहरणं संयमयोगानां न कारणमिति दिगम्बरमतमाशङ्क्य तन्निरासायाह इदमित्थमेव दृष्ट्वा प्रमार्जने प्राणिनामनुपघातात् / आगाढव्युत्सर्गप्रभृतौ पुनरन्यथा दोषः / / 61 / / टीका - इदं बाह्यपृथिवरज:प्रभृत्यभ्यन्तरबध्यमानकर्मलक्षणरजोहरणं निरुक्तं च इत्थमेव पूर्वोक्तरीत्या संयमयोगानां रजोहरणाभिधानोपकरणाधीनत्वप्रदर्शनेन सङ्गच्छते। कस्मात् ? दृष्ट्वा प्रत्युपेक्ष्य प्रमार्जने सति प्राणिनां पिपीलिकादीनाम् अनुपघातात् उपहननम् उपघात:, न तथाऽनुपघातस्तस्मात्।आगाढव्युत्सर्गप्रभृतौ आगाढ: अनिवार्यो व्युत्सर्गो वर्चआदेः आदिशब्दाद् रात्रौ लघुशङ्कादिपरिग्रहस्तस्मिन् पुन:शब्दो विशेषद्योतने अन्यथा अप्रमार्जने दोष : प्राण्युपघातलक्षणः, यो हि कथञ्चित्पुरीषोत्सर्गमाश्रित्यासहिष्णु: संसक्तं च स्थण्डिलं तेन दयालुना स तत्र न कार्य: कार्यो वेति द्वयी गति:, किञ्चाऽत:? उभयथाऽपि आत्मपरपरित्यागलक्षणो दोषः, तथाहि - अकरणेआत्मपरित्यागः, करणे परपरित्याग इति, एवं द्विधाऽपि तीर्थङ्करस्याऽकौशलमापद्यते। तच्च कुशलस्याऽऽपादने आशातनेति। ननु प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा पिपीलिकाद्यनुपलब्धौ सत्यां प्रमार्जने मा भूत्तदुपघातदोषः, तदुपलब्धौ तूपघातदोषो भवत्येवेति चेत्। न, तदुपलब्धावपि प्रयोजनविशेषे यतनया प्रमार्जनं सूत्र उक्तमिति नैवोपघातदोषो भवति। स्यादेतत् - सत्त्वानुपलब्धौ किमर्थं प्रमार्जनमिति चेत्। उच्यते - सूत्रोक्ततथाविधसत्त्वसंरक्षणार्थमिति / / 61 / / दोषान्तरपरिजिहीर्षयाह - संसर्जनादिदोषा विधिपरिभोगे न सन्ति देह इव। . इत्थमपीहाऽनास्था दिक्पटनटनाटकं विषमम् / / 62 / / . टीका- संसर्जनादिदोषा: पूर्वपक्षवाद्यभिहिता रजोदरीस्थगनतत्संघट्टनादिसत्त्वोपघातलक्षणाः, विधिपरिभोगे सूत्रोक्तविधिना धारणे व्यापारणे च न नैव सन्ति जायन्ते देह इव शरीर इव, अविधिना त्वसमञ्जसाहारस्य देहेऽपि भवन्त्येव। ननु देहस्तु संयमोपकारीति धारणीयो व्यापारणीयश्चैवेति चेत्। उच्यते-तुल्यमेतद्र जोहरणविषयेऽपि, तस्याऽपि संयमोपकारित्वाद्धारणीयत्वं व्यापारणीयत्वं चाऽविरुद्धमेवेति। उपसंहरन्नाह - इत्थमपि देहस्येव रजोहरणस्यापि संयमोपकारित्वाद् धारणीयत्वे परिभोग्यत्वे च सिद्धे सत्यपि यदि वा स्वल्पा भवन्तोऽपि संसर्जनादिदोषा देहाऽऽहारादितुल्यत्वाद् बहुगुणा एव तथापि इह रजोहरणधारणपरिभोगविषये दिगम्बरस्य अनास्था अनाश्वास: अस्ति तन्नुनं दिक्पटनटनाटकं दिक्पटस्य दिगम्बरस्य शूकरस्थानीयस्यैव नटस्य शैलूषस्य ऐरावणस्थानीयाहदादिमहापुरुषचेष्टितमिथ्याभिनयकारित्वाद् नाटकं ताण्डवं विषमं श्रीजिनाज्ञावज्ञयाऽसमञ्जसतया च विपाकदारुणत्वात्। तथा त्यक्तारम्भपरिग्रहाणां महात्मनां स्वदेहेऽपि ममत्वाभावाद् रजोहरणादेश्च तुच्छत्वान्नाऽपि परिग्रहदोष इत्यलं प्रासाङ्गिकेन। विशेषार्थिना तु ग्रन्थकारविहिता शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य स्याद्वादकल्पलताख्या टीकाऽवलोकनीयेति / / 62 / / अथ मुण्डनविधिमाहमहामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 22 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणं सटीकम् Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाकारेणाऽस्मान् मुण्डयतेत्यथ सभणति वन्दित्वा / 'इच्छाम' इति भणित्वा त्रिप्रपठन् पञ्चमङ्गलकम् / / 63 / / अष्टास्तिस्रोऽच्छिन्ना गृह्णाति गुरुस्ततः स भणतीदम् / मम सामायिकमिच्छाकारेणारोपयत यूयम् / / 64 / / टीका- अथ रजोहरणार्पणानन्तरं स शिष्यो समवसरणं त्रि:प्रदक्षिणीकृत्य पूर्वोत्तरस्यां दिशि गत्वाऽऽभरणादि त्यक्त्वा, तत: शिखास्थानीयान् स्तोकान् विहाय शेषान् शिरोजान् नापितपार्श्वे कर्तयति। तत: शीतोदकेन स्नातं तं शिष्यं साधव: पूर्वोत्तरदिगभिमुखं स्थाप्य यतिवेशं परिधापयति। तदनन्तरं गुरुसमीपमागत्य 'मत्थएण वंदामी'ति भणित्वेर्यापथिकांप्रतिक्रम्य भणति पुन: प्रार्थयति गुरूंवन्दित्वा बहभक्तिसंयुक्तः प्रणम्य किमित्याह- इच्छाकारेण पूर्ववत् अस्मान् भवदुपसम्पन्नान् मुण्डयत दीक्षार्थं केशान्लुञ्चयत इति एवं भणतीति। गुरुरपि इच्छाम अभिलषाम इति एवं भणित्वा उक्त्वा त्रिप्रपठन् त्रि: त्रीन्वारान् प्रपठन् उच्चारयन् पञ्चमङ्गलकं परमेष्ठिनमस्कारमहामन्त्रं अष्टाः अङ्गष्ठप्रदेशिनीसंदंशकग्राह्यकेशलक्षणा: तिस्रः त्रिसंख्या: अच्छिन्ना: अस्खलिता: गुरुः स्थिरहस्तो गृह्णाति लुञ्चयति। अत्राह - पठ्यते च धातुपाठे 'दीक्षा मौंड्य' इति, तदिह किं द्रव्यमुण्डनमपि दीक्षा? सत्यं, द्रव्यमुण्डनमपि मिथ्यात्वक्रोधादियुक्तचित्तरूपभावमुण्डनस्य कारणत्वेन प्रतीकत्वेन चाऽभ्युपगतत्वात्, न हि अप्रशान्तचित्तो धर्माधिकारी भवतीति) यत्तु हठयोगप्रक्रियानुसारिणः शिखास्थानीयकेशलुञ्चनं ब्रह्मरन्ध्रोद्धाटार्थं वदन्ति तदपि समाधेयम्, यत: अनन्तरोक्तकेशलुञ्चनस्य कायक्लेशरूपबाह्यतपस्त्वेन क्लिष्टकर्मनिर्जराफलत्वात् प्रत्यक्चैतन्यसञ्चारोपपत्तेः इत्यलं प्रासङ्गिकेन, प्रकृतं प्रस्तुमः। ___ ततः तदनन्तरं स शिष्यो भणति पुन:प्रार्थयति इदं वक्ष्यमाणम् इच्छाकारेण छन्दसा मम मयीत्यर्थः सामायिकं सर्वसावद्यविरतिरूपम्आ रोपयत निवेशयत यूयं भवन्त इति / / 64 / / तत: - इच्छाम इति भणित्वा सार्धं शिष्येण सूत्रमाकृष्य / कुरुते कायोत्सर्ग गुरुस्तदारोपणनिमित्तम् / / 65 / / टीका - इच्छाम: पूर्ववत् इति एवं भणित्वा उक्त्वा सार्धं सह शिष्येण मुमुक्षुणा गुरुः आचार्य: सूत्रम् अन्नत्थ उससिएणमित्यादि आकृष्य पठित्वा कुरुते अनुतिष्ठति कायोत्सर्ग प्रतीतं तत्र स्थितश्च ‘लोगस्सउज्जोअगरे यावत् सागरवरगंभीरा' चिन्तयेत्, तदारोपणनिमित्तं सामायिकारोपणार्थमिति / / 65 / / तदनन्तरम् - उत्सार्य नमस्कारोच्चारेणैतेन सह गुरुः सूत्रम् / पठति त्रिरथ शिष्योऽप्यनुपठति विशुद्धपरिणामः / / 66 / / टीका - कायोत्सर्गे लोकस्योद्योतकरं चिन्तयित्वा नमस्कारोच्चारेण 'नमो अरिहंताणं' इति पाठेन उत्सार्य पारयित्वा कायोत्सर्गम् एतेन परमेष्ठिनमस्कारेण सह सार्धं पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारपूर्वमित्यर्थः गुरुआचार्य: सूत्रं महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 23 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सामायिकसूत्रं ‘करेमि भंते सामायिकमि'त्यादिरूपं पठति कर्षति त्रि: त्रीन् वारान् अथ गुरुणा सार्धं शिष्योऽपि मुमुक्षुरपि अनुपठति अनुकर्षति नमस्कारपूर्वकं सामायिकसूत्रम्, किं विशिष्टः सन्? इत्याह - विशुद्धपरिणाम: दुर्लभतमसंयमजीवितलाभेन आत्मानं कृतकृत्यं मन्यमान इति / / 66 / / तत: वासानभिमन्त्र्य गुरुस्ततश्च जिनसाधुपादयोर्दत्ते / दापयति तत: शिष्यं वन्दनकं भणति वन्दित्वा / / 67 / / टीका - सामायिकोच्चारणानन्तरं वासान् प्रतीतान् गृहीत्वा अभिमन्त्र्य च सूरिमन्त्रेण गुरु : आचार्य:, अनाचार्यस्तु वर्धमानविद्यया पञ्चनमस्कारमन्त्रेण वाऽभिमन्त्र्य जिनसाधुपादयोः अर्हत्पादयोः दत्ते ददाति पञ्चनमस्कारमन्त्रपूर्वकमेव, तदनन्तरं सर्वेभ्य: साध्वादिभ्यः, अत्र पादशब्द आदरख्यापनार्थ: आदिशब्दात्आर्याजनश्रावकादिपरिग्रहः / ततः पश्चात् वासप्रदानोत्तरकालं दापयति कारयति शिष्यं शैक्षं वन्दनकं द्वादशावर्तलक्षणम्। शिष्यश्च वन्दित्वा ऊर्ध्वस्थानेन स्थितः सन् भणति वक्ष्यमाणं इति / / 61 / / वन्दित्वा यद्भणति तदाह - संदिशत किं भणामीत्येवं प्रवेदय गुरुश्च वन्दित्वा / इति भणति ततोऽर्धाऽऽनततनुः स भणतीदमुपयुक्तः / / 68 / / टीका - संदिशत आज्ञापयत यूयं यदुत किं भणामि किं प्रवेदयामि इति। गुरुश्च आचार्यश्च भणति कथयति वन्दित्वा प्रवेदय प्रणम्य कथय एवं वक्ष्यमाणलक्षणम्। तत: गुरुवाक्यानन्तरं क्षमाश्रमणपूर्वकं वन्दित्वा ऊर्ध्वस्थानेन अर्धाऽऽनततनुः अर्धावनतशरीर: सन् स शैक्षक: भणति प्रवेदयति इदं वक्ष्यमाणलक्षणमेव उपयुक्त: सुप्रणिहित: सन्निति / / 68 / / यद्रणति तदाह - युष्माभिः सामायिकमारोपितकमनुशास्तिमिच्छामः। , शीर्षे शिष्यस्यैवं गुरुराह ददत्ततो वासान् / / 69 / / टीका - युष्माभिः भवद्भिः सामायिकं पूर्वोक्तलक्षणम्आरोपितंन्यस्तम्। साम्प्रतम् अनुशास्ति हितशिक्षाम् इच्छाम पूर्ववद् इति शिष्यो भणति। तत: तदनन्तरं गुरु: आचार्य: शिष्यस्य शैक्षकस्य शीर्षे मस्तके वासान् प्रतीतान् ददत् यच्छन् एवं वक्ष्यमाणम् आह ब्रवीतीति / / 69 / / आचार्यो यद्भणति तदाह - वर्धस्व गुरुगुणैस्त्वं निस्तारकपारगः प्रवेदितं किम् / तुभ्यं प्रवेदयामि स भणति च सन्दिशत साधूनाम् / / 70 / / टीका - वर्धस्व वृद्धि गच्छत गुरुगुणैः प्रकृष्टैर्ज्ञानादिभिः त्वं शिष्यः निस्तारकपारगः प्रतिज्ञाया निस्तारक: पारगश्च साधुगुणानां भवेति। तत: पुन: क्षमाश्रमणदानपूर्वकं वन्दित्वा स शिष्यो भणति पठति - तुभ्यं युष्माकं प्रवेदितं ज्ञापितम्। साम्प्रतं सन्दिशत आज्ञापयत यूयं किं प्रश्ने साधूनां यतिभ्यश्च प्रवेदयामि ज्ञापयामीदं सामायिकारोपणमिति / / 70 / / अन्यसामाचारीदर्शनपुरस्सरं गुरुवचनमाह - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 24 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ये तु जिनादीनां वासान् ददतीह भणति वन्दित्वा / सूरि: प्रवेदयेति प्रदक्षिणां शिष्यकः कुरुते / / 71 / / स नमस्कारोच्चारं वासानथ सूरिसाधवो ददति / कार्य: त्रिवारमेवं पुनरप्युत्सर्गमेके तु / / 72 / / टीका - अन्ये स्वव्यतिरिक्ता आचार्या: तु शब्दो विशेषद्योतनार्थ: इह सामायिकारोपणानन्तरं सप्तषष्ठीगाथोदितप्रकारेण वासान् प्रतीतान् ददति यच्छन्ति जिनादीनां, न चैवमपि कश्चिद्दोषः, किन्तु गुण एव यतो गुरुरपि जिनादिभ्यो द्रव्यवितरणपूर्वकं निस्तारकादि आशीर्वादरूपं निर्वचनवाक्यं तत्र भणतीति। अथ शिष्येणानन्तरोदिते उक्ते सति सूरि: गुरु: भणति निर्वक्ति - वन्दित्वा प्रणम्य प्रवेदय ज्ञापय इति। तदनन्तरं नमस्कारोच्चारं नमस्कारमस्खलितं पठन् प्रदक्षिणां जिनादीनां कुरुते विदधाति स शिष्य कः उपयुक्तः सन्निति। अथ अत्रान्तरे वासान् प्रतीतान् सूरिसाधव: आचार्य: शेषसाधवश्च शिष्यस्य शिरसि ददति प्रयच्छन्ति, उपलक्षणाद्आर्याजनःश्रावकश्राविकाजनोऽपि तन्मस्तकेऽभिमन्त्रितवासमिश्रितानक्षतान् ददाति। कार्य: विधातव्य: त्रिवारं तिस्रो वारा एवं प्रदक्षिणादिः, यदि वा वन्दित्वादित आरभ्य इच्छाकारेण सामायिकं मे आरोपयत इत्यादिः / पुनरपि मुहुरपि उत्सर्ग कायोत्सर्ग कारयन्ति एके तु आचार्या आचरणया, तत्राऽप्यदोष एवेति / / 71-72 / / अथ प्रवेदने तपोविषयकमाह - , आचाम्ले नियमं वदन्ति किल संश्रिता निजावलिकाम् / निपतति शिष्य : पदयोस्ततश्च जिनसाधुसूरीणाम् / / 73 / / टीका - आचाम्ले प्रतीते नियमं कर्तव्यतया वदन्ति केचनाचार्याः किल यतस्ते संश्रिता: लग्ना: निजावलिका स्वकीयपरम्पराम्। शेषाणामपि ये न कारयन्ति तेषां नास्त्येव दोषः / ततश्च प्रवेदनानन्तरं पुनः निपतति प्रणमति शिष्य : शैक्षकः पदयो: चरणयो: जिनसाधुसूरीणां - अर्हदाचार्ययो: शेषसाधूनामपि भावसारमिति / / 73 / / ततः वन्दन्ते च तमन्ये गुरुरप्युपदिशति धर्मसर्वस्वम् / शीले मोक्षनिदाने प्राप्ते कार्यः प्रमादो नो / / 74 / / टीका - वन्दन्ते च विधिना तं प्रव्रजितम् अन्ये आर्याजनः 'पुरुषोत्तमो धर्म' इति कृत्वा श्रावकश्राविकाश्च। तत: शिष्य: असम्भ्रान्त: सन् आचार्यसमीपे चोपविशति। गुरुरपिआचार्योऽपि धर्मसर्वस्वं वक्ष्यमाणलक्षणं उपदिशति कथयति यथाऽन्योऽपि संवेगातिशयात् संसारविरक्तः सन् प्रव्रज्यां प्रपद्यते। कथं कथयतीत्यत्राह - शीले सर्वसावद्यविरतिलक्षणे मोक्षनिदाने परमपदकारणे प्राप्ते लब्धे सति प्रमादो विषयकषायादिलक्षणो नो नैव कार्यो विधातव्यः / विस्तरतस्तु यथा - - भूतेसु जंगमत्तं, तेसुऽवि पंचिंदिअत्तमुक्कोसं। तेसुवि अमाणुसत्तं, माणुस्से आरिओ देसो / / 1 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 25 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे अजाइमुक्कोसा। तीएऽविरुवसमिद्धी, रूवे अबलं पहाणयरं / / 2 / / होइ बलेऽवि अजीअं, जीएऽवि पहाणयं तु विण्णाणं / विण्णाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती / / 3 / / सीले खाइअभावो, खाइअभावेऽवि केवलं नाणं / केवल्ले पडिपुने, पत्ते परमक्खरो मोक्खो / / 4 / / पण्णरसंगो एसो, समासओ मोक्खसाहणोवाओ। एत्थ बहुं पत्तं ते,थेवं संपावियव्वंति / / 5 / / ता तह कायव्वं ते, जहतं पावेसिथेवकालेणं / सीलस्स नत्थासझं, जयंमि तं पाविअंतुमए / / 6 / / लक्षूण सीलमेअं, चिंतामणिकप्पपायवऽन्महि / इह परलोए अतहा, सुहावहं परममुणिचरिअं / / 7 / / एअंमि अप्पमाओ, कायव्वो सइ जिणिंदपन्नत्ते / भावेअव्वं च तहा, विरसं संसारणेगुण्णं / / 8 / / भूतेषु - प्राणिषु ‘जङ्गमत्वं' द्वीन्द्रियादित्वं, तेष्वपि-जङ्गमेषु पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टं - प्रधानं, तेष्वपि-पञ्चेन्द्रियेषु :मानुषत्वमुत्कृष्टमिति वर्तते, मनुजत्वे आर्यो देश उत्कृष्ट इति गाथार्थः / / 1 / / देशे आर्ये कुलं प्रधानमुग्रादि, कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा मातृसमुत्था, तस्यामपि जातौ रूपसमृद्धिरुत्कृष्टा, सकलाङ्गनिष्पत्तिरित्यर्थः, रूपे च सति बलं प्रधानतरं, सामर्थ्यमिति गाथार्थः / / 2 / / भवति बलेऽपि च जीवितं, प्रधानमिति योगः, जीवितेऽपि प्रधानतरं विज्ञानं, विज्ञाने सम्यक्त्वं, क्रिया पूर्ववत्, सम्यक्त्वेशीलसम्प्राप्ति: प्रधानतरेति गाथार्थः ।।३।।शीले क्षायिकभावः प्रधानः, क्षायिकभावे च केवलं ज्ञानं, प्रतिपक्षयोजना सर्वत्र कार्येति, कैवल्ये प्रतिपूर्णे प्राप्ते परमाक्षरो मोक्ष इति गाथार्थः / / 4 / / पञ्चदशाङ्गः-पञ्चदशभेदः एषः - अनन्तरोदित: समासत:-सङ्क्षपेण मोक्षसाधनोपाय:-सिद्धिसाधनमार्गः, अत्र-मोक्षसाधनोपाये बहु प्राप्तं त्वया, शीलं यावदित्यर्थः, स्तोकं सम्प्राप्तव्यं, क्षायिकभावकेवलज्ञानद्वयमिति गाथार्थ: / / 5 / / तत्तथा कर्त्तव्यं त्वया यथा तत् - शेषं प्राप्नोषि स्तोककालेन, किमित्यत आह - शीलस्य नास्त्यसाध्यं जगति, तत्प्राप्तं त्वया, प्रव्रज्या प्रतिपन्नेति गाथार्थः / / 6 / / लब्ध्वा शीलमेतत्, किंविशिष्टमित्याह - चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिकं, निर्वाणहेतुत्वेन, एतदेवाह-इहलोकेपरलोके च तथा सुखावहं परममुनिभिश्चरितम् आसेवितमिति गाथार्थः / / 7 / / एतस्मिन्-शीले अप्रमादो-यत्नातिशय: कर्तव्य: सदा-सर्वकालं 'जिनेन्द्रप्रज्ञप्ते' तीर्थकरप्रणीते, अप्रमादोपायमेवाह - भावयितव्यं च तथा - शुभान्त:करणेन विरसं संसारनैर्गुण्यं वैराग्यसाधनमिति गाथार्थः / / 8 / / (सटीकपञ्चवस्तु.गा.१५६-१६३) | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 26 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसंटीकम् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यत्राऽप्युक्तम्- धन्यस्त्वं येन सकलकल्याणवल्लरीकन्दकल्पा भागवती दीक्षाऽवाप्ता, तदवाप्तौ चाऽवाप्तानि सकलकल्याणानि ।।१।।अपि च धण्णाण निवेसिज्जतिधण्णा गच्छंति पारमेयस्स। गंतुं इमस्स पारं, पारं दुक्खस्स वच्चंति / / 2 / / / / 74 / / अत्र चैत्यवन्दनादिक्रियाकलापलक्षणे प्रव्रज्याविधौ पर आह - व्यभिचारात् किमनेन क्रियाकलापेन परमपदसिद्धौ / विरतौ सत्यां विफलस्तदसत्त्वेऽयं मृषा भूमिः / / 75 / / टीका - प्रव्रज्याविधिविरहेणाऽपि विरतिपरिणामो भरतादीनां श्रूयते। सम्पादितेऽपि क्रियाकलापलक्षणे विधौ विरतिपरिणामो न जायते अङ्गारमर्दकादीनामिति क्रियाकलापलक्षणहेतो: व्यभिचारात् साध्याभाववद्वृत्तित्वात् किमनेन विचार्यमाणेन क्रियाकलापेन विधिलक्षणेन परमपदसिद्धौ मोक्षप्राप्ती, न किञ्चिदिति भावः, परिणामशून्याया: क्रियाया अकिञ्चित्करत्वात्। अथ विरतौ विरतिपरिणामे सत्यां सत्त्वे क्रियाकलापो विफल: निष्प्रयोजन:, तत्परिणामस्यैव परमपदप्राप्तिप्रति अवन्ध्यकारणत्वात्। तदसत्त्वे विरतिपरिणामाऽभावे अयं क्रियाकलापो पृषा मिथ्या भूमि: प्रपञ्चलक्षणेति ।।७५।।अत्राचार्य: प्रतिविधत्ते - नैवं विरत्युपाय: प्रायो यदयं जिनोक्तलिङ्गविधिः / इत्थं क्रियापरिणता: पर्यायं पालयन्ति बुधाः / / 76 / / टीका - न नैव एवं यथोक्तं परेण, यद् यस्माद् जिनोक्तलिङ्गविधि: जिनोक्तं भगवत्प्रणीतं लिङ्गं यतिचिह्न रजोहरणम् अस्य च ग्रहणे विधि: अयं चैत्यवन्दनादिलक्षणः प्राप्तो मयाऽत्यन्तदुराप इत्येवं चिन्तयतो मार्गानुसारिसत: शुभभावात् प्रायो बाहुल्येनासौ विरत्युपायो विरतिपरिणामजनको भवति। कथं गम्यत इति चेत्, उच्यते - इत्थं अनन्तरोक्तविधिना क्रियापरिणता: चैत्यवन्दनादिक्रियाभाविता: प्रव्रजिता वयमिति सत्पुरुषा: प्राय: परलोकविरुद्धपरिहारेण पर्यायं प्रव्रज्यालक्षणं पालयन्ति संरक्षन्ति यावज्जीवं बुधाः सुधियः, अतो विरतिपरिणामसामर्थ्यमेतदिति। यच्चोक्तं प्रव्रज्याविधिविरहेणापि विरतिपरिणामो भरतादीनां श्रूयते तत्कादाचित्कभावकथनं न च प्रायो युज्यतेऽत्र विचारे यत: सूत्रे व्यवहारनिश्चयनयौ द्वावपि समौ प्रतिपादितौ भगवद्भिः। तथा चोक्तम् - जइ जिणमयं पवज्जह, ता मा ववहारणिच्छए मुअह / ववहारणउच्छेए, तित्थुच्छेओ जओऽवस्सं / / 1 / / ववहारपवत्तीइवि सुहपरिणामो तओअकम्मस्स / नियमेणमुवसमाई निच्छयणयसम्मयं तत्तो / / 2 / / (पंचवस्तु गा. 172-73) इदमप्यत्र ध्येयम् - योऽपि भरतादीनां प्रव्रज्याविधिविरहेण विरतिपरिणाम: श्रूयते सोऽपि जन्मान्तराऽभ्यस्तप्रव्रज्याविधानपूर्वक इति जिना ब्रुवत इति / / 76 / / यच्चोक्तं विरतौ सत्यां विफल इत्यादि तनिराकरणायाह - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 27 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरते: सत्त्वेऽप्येतन वृथाऽऽज्ञासङ्गतक्रियान्तरवत्। विधिकारयितुः शुद्धाभावादगुणो न तदभावे / / 77 / / टीका - विरते: विरतिपरिणामस्य सत्त्वेऽपि भावेऽपि एतत् चैत्यवन्दनादि न नैव वृथा विफलं, किन्तु सफलमेवाऽऽज्ञाराधनाद् आज्ञासङ्गतक्रियान्तरवत् जिनोक्तान्योपधिप्रत्युपेक्षणादिक्रियावत्। यच्चोक्तं तदसत्त्वेऽयं मृषा भूमि: तन्निराकरणार्थमाह - तदभावे विरतिपरिणामाऽभावेऽपि विधिकारयितु :आशंसादिविप्रमुक्तस्याऽऽचार्यादेः शुद्धात् सूत्राज्ञासम्पादनलक्षणा द्भावात् परिणामाद्न नैव अगुण : निर्जरालक्षणगुणाऽभाव:, अपि तु सूत्राज्ञासम्पादनाद् निर्जरालक्षणो गुण एव / / 77 / / एतदेवाह - विषयेऽयुक्तेऽपि गुरोविधिना प्रवाजने गुणो भावात् / तदभावे परभावाज्ञानादिह तीर्थविच्छित्तिः / / 78 / / टीका-विषये शिष्यलक्षणे आस्तां युक्ते, परभावाऽज्ञानात् परस्य विनयरत्नस्थानीयस्य गूढाभिसन्धे: कस्यचिद् भावाज्ञानात् अयुक्तेऽपि अयोग्येऽपि गुरो: आचार्यादेः विधिना जिनोक्तेन प्रवाजने दीक्षादाने गुण: निर्जरालक्षणो भावात् सांसारिकदुःखेभ्यो दोषेभ्यश्च मुच्यतामयमित्यध्यवसायात्। अथ छद्मस्थसत्त्व: परिणामं न जानाति तर्हि न दद्यादसौ दीक्षां, दास्यति चातिशयीति चेत्। अत्राह - इह भरतादिषु साम्प्रतमतिशयज्ञानाभावेन परभावाज्ञानात् तदभावे दीक्षादानाभावे तीर्थविच्छित्ति: तीर्थोच्छेदः सत्त्वेषु न चानुकम्पेति न्याय्य एषोऽनन्तरोक्तः प्रव्रज्याविधिरिति / / 78 / / अत्राऽन्यवादिमतनिरासायाह - न च गृहवासत्यागः पापात् सङ्क्लेशलिङ्गकं यत्तत् / स च तत्र हन्त विपुलस्तदभावेनाऽप्यसङ्गस्य / / 79 / / टीका - न च नैव गृहवासत्याग: पुण्योपात्तस्य गृहवासस्य गृहस्थभावस्य त्यागो हानं प्रव्रज्येत्यर्थ: पापात् शीतोदकविकृत्यादिपरिभोगान्तरायलक्षणाद् पूर्वजन्मनि अदत्तदानाच्चैतदुपलक्षणमिति वाच्यं यद् यस्मात् तत् पापं सङ्क्लेशलिङ्गकं सङ्क्लेश: अर्थोपार्जनरक्षणनाशादिषुआर्तध्यानलक्षणो लिङ्गं चिह्नं यस्य तत्तथा, सच सङ्क्लेश: तत्र गृहवासे हन्तशब्द: खेदे विपुल: पुष्कल: / स च सङ्क्लेश: तदभावेऽपि गृहवासाऽभावेऽपि न नैव अपिशब्दो भिन्नक्रम: असङ्गस्य प्रव्रजितस्य। यदि वा पर आह - तदभावेन गृहवासाऽभावेन अपिशब्दोऽत्रापि भिन्नक्रमः असङ्गस्य त्यक्तगृहवासस्यापि आश्रयाऽन्नाद्यभावेन क्षुत्पिपासादिपरिभवात् सङ्क्लेशोऽस्त्येवेत्यर्थः / / 79 / / अत्राऽऽचार्य आह गेहादौ सत्येष प्रसरति पापानुबन्धिनः पुण्यात् / तत् पापमेव पुण्यानुबन्धि तत्त्यागिनां योगे / / 8 / / टीका - गेहादौ गृहधनधान्यस्वजनपरिजनादौ सति एष सङ्क्लेश: प्रसरति विसर्पति पापनुबन्धिनः पुण्यात्, तस्मात् तत् पापनुबन्धिपुण्यं पापमेव सङ्क्लेशकारित्वात्। तथाहि - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 28 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कइया सिज्झइ दुग्गं, को वामो मज्झ वट्टए कह वा / जायं इमंति चिंता, पावा पावस्स य निदाणं / / 1 / / इअ चिंताविसधारीअदेहो विसए वि सेवइ न जीवो / चिट्ठउ अताव धम्मोऽसंतेसु वि भावणा एवं / / 2 / / दीणोजणपरिभूओ, असमत्थो उअरभरणमित्तेऽवि। चित्तेण पावकारी, तहवि हु पावप्फलं एअं / / 3 / / (प.व.गा.१९०-१९१-१९२) __ चित्तेन पापकारी असदभिष्वङ्गात् राजगृहद्रमकवत्। पापफलमेत भाविनश्च कारणमिति। पुण्यानुबन्धि च तत् परोक्तं क्षुत्पिपासादिपरिभवलक्षणं पुण्यमेव त्यागिनां प्रव्रजितानां योगे तपस्त्यागज्ञानध्यानादिलक्षणे यतिभावे सत्स्वपि भोगेषु निरभिष्वङ्गस्य सङ्क्लेशाभावाद् जन्मान्तरेऽपि दानध्यानादिना कुशलकारणत्वाच्चेति / / 80 / / कथं कुशलकारणत्वमित्याह - धर्मध्याननिमित्तं परिशुद्धं तत् विरक्तसुखहेतुः / पुण्या शुभपरिणामाऽनपायिनी वेदनाऽप्यत्र / / 81 / / टीका - धर्मध्याननिमित्तं शुभध्यानहेतुः परिशुद्धं सर्वोपाधिशून्यं तत् पुण्यानुबन्धिपुण्यं विरक्तसुखहेतुः भवविटपिनिबन्धनविषयेभ्यो विरक्तस्योद्विग्नस्य यत्प्रशमसुखं तन्निबन्धनमिति।आस्तां प्रशमसुखं वेदनाऽपि तपोजन्या क्षुत्पिपासादिलक्षणाऽपि पुण्या जन्मान्तरोपचिताऽशुभकर्मक्षयकारित्वात् तथा चागमः - देहदुक्खं महाफलं, तथाशुभपरिणामाऽनपायिनी निर्जरार्थमभ्युपगतत्वात् सिद्धिसाधकत्वाच्च कुशलाशयाऽविघातकारिणी अत्र प्रव्रज्यायामिति / / 81 / / एतदेव स्पष्टयति - येन क्षुदादयः खलु कर्मक्षयकारणानि भावयतेः / ज्वरिणामिह बाधन्ते कटुकौषधपानमिव न मनः / / 82 / / टीका - येन हेतुना क्षुदादयः क्षुत्पिपासादयः खलुशब्दोऽवधारणे कर्मक्षयकारणानि क्लिष्टकर्मव्याधिक्षयनिबन्धनान्येव तेन भावयते: सज्ज्ञानध्यानयुक्तस्य साधो: मन: अन्त:करणं न नैव बाधन्ते पीडयन्ति परं गुर्वाज्ञासम्पादनात् चरणातिशयं दर्शयन्तो धृतिं कुर्वन्ति। अत्रार्थे दृष्टान्तमाह - इह संसारे कटुकौषधपानं क्वथितकटुकादि पानम् इव यथा ज्वरिणां ज्वरग्रस्तानाम् उपलक्षणात्कुष्ठादिव्याधितानामीषदारोग्यं दर्शयन्मनो न बाधते परं धृति करोति निरामयकारित्वादिति / / 82 / / अथ परेण यदुक्तम् असङ्गस्याप्याश्रयानाद्यभावेन क्षुत्पिपासादिपरिभवनात् सङ्क्लेशोऽस्त्येवेति तन्निराकरणायाह - नैकान्तोऽप्यत्र तपोनियमविधेर्वसतिरपि च शान्तानाम् / आत्मैवान्नादिविधौ न च लोभ इतीह को दोषः / / 83 / / टीका - यद्यपि धर्मप्रभावादेव प्राय: क्षुदादयोऽपि न भवन्ति तथापि मोहोपशमादिव्यतिरेकेण न नैव एकान्तोऽपि महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 29 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवश्यंकर्तव्यतया अत्र प्रव्रज्यायाम, कस्य? तपोनियमविधे: उपवासस्वाध्यायजपादिविधानस्य, अपिशब्द: संभावनायां द्रव्याद्यापत्सु द्वितीयपदस्य विधानात्। यदुक्तं - सो हु तवो कायव्वो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ / जेण न इंदिअहाणी, जेण य जोगा ण हायति / / 1 / / (पं.व.२१४) किञ्च - परमार्थतस्तपो न दुःखं यतो दुःखभावेऽपि तद् निर्वृतिसाधकत्वात् सुखहेतुरेव। तथा - वसति: या वा सा देवकुलादिवासलक्षणा अपिशब्द: समुच्चयेशान्तानां प्रशमितकषायकलुषाणां परमार्थत आत्मैव आत्मारामत्वात्, देवकुलादिः स्वकारितस्तु ममायमिति जीवस्वाभाव्याद् दुःखोपादानम्। अन्नादिविधौ अज्ञातोञ्छलक्षणभिक्षाविधौ न नैवलोभो देहेऽपि तस्य रागादिरहितत्वाद् इति हेतो: को दोषः पापविषय:? नैव कश्चिद् दोषो भगवद्भिर्निर्दिष्टत्वादिति / / 83 / / साम्प्रतं परेण योऽपि पूर्वजन्मनि अदत्तदानाच्च शीतोदकाद्यपरिभोग उक्तस्तत्प्रतिविधानमाह - शीतोदकाद्यभोगोऽप्यत्र न दानान्तरायकारणकः। किन्तु विपाककटुकतां मत्त्वा तद्वर्जनं युक्तम् / / 84 / / टीका-शीतोदकाद्यभोगोऽपि शीतोदकविकृत्याद्यपरिभोगोऽपि न नैव दानान्तरायकारणक: दानं भोगफलमिति तस्यान्तरायो विघ्नः पूर्वजन्मनि कृतो भवति तन्निबन्धनम्, किन्तु परं शीतोदकादिपरिभोगस्याऽनेकसत्त्वोपघातकत्वात् परभवे विपाककटुतां फलविरसतां मत्वा ज्ञात्वा तद्वर्जनं शीतोदकादिपरिहरणं युक्तं युक्त्युपपन्नं पुण्यानुबन्धिपुण्याद् विषान्नस्येव। तथा चागम: सल्लंकामा विसं कामा कामा आसिविसोवमा . कामे पत्थमाणा अकामा जंति दुग्गई / / 1 / / खिणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिकामसुक्खा / ' संसारमुक्खस्स विपक्खभूया; खाणी अणत्थाण य कामभोगा / / 2 / / / / 84 / / एवं भावयते: सूत्रोक्ता चेष्टा सुखदैव, तदन्यस्य तु दु:खदेति सिद्धसाध्यता, तथा चाह - चारित्रविहीनानानामज्ञानवतां तु येदृशी चेष्टा / अभिषङ्कपराणां सा प्रतिषिद्धा जिनवरेन्द्रैः / / 85 / / टीका - चारित्रविहीनानां चारित्रं व्यवहारतो निरवद्येतरप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं निश्चयतो निजगुणस्थिरतालक्षणं तद्विहीनानां तच्छून्यानां द्रव्यप्रव्रजितानाम् अज्ञानवतां हेयोपादेयविवेकविरहितानां मूर्खाणाम्, अभिषङ्कपराणाम् ऐहिकादिप्रयोजनैकप्रतिबद्धचित्तानां तुशब्दो विशेषद्योतने येदृशी भोगोपभोगपरिहारलक्षणा भिक्षाटनादिका चचेष्टा बाह्यक्रिया सा पापाद् दुःखरूपेति प्रतिषिद्धा निवारिता जिनवरेन्द्रैः जगज्जीवहितैस्तीर्थकृद्धिः / उक्तं च - वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुंजंति न से चाइत्ति वुच्चइ / / 1 / / (द.वै.अ.२ गा.२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं __30 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा- . नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं / संजमहीणं च तवं, जो चरइ णिरत्थयं तस्स / / 1 / / / / 85 / / तथा च - परेण यदुक्तं गृहवासत्याग: पापात् तदनन्तरोक्तचारित्रविहीनानामज्ञानवतामभिष्वङ्गैकपराणां पक्षे न्याय्यमिति दर्शयन्नाह - ___अविधिपरिपालनादेर्यैर्मुषितं प्राणिनां तु धर्मधनम् / पापानुबन्धिपापाद्भाले तेषामसद्भिक्षा / / 86 / / टीका - यत: अविधिपरिपालनादे:अज्ञानादिपरिभूतत्वेन स्वकीयोपभोगतया हिंसादिभिः सुखप्रसाधनाय स्वच्छन्दपरिपालनोत्सूत्रप्ररूपणादितो यै: मोहमूढैः मुषितं लुण्टितं प्राणिनां ऋजूनां तुशब्दो विशेषद्योतने धर्मधनं पुण्याऽवाप्तत्वाद् यदि वा सम्यग्दर्शनादिलक्षणधर्म एव धनं स्वर्गाऽपवर्गदायकत्वात्, तत: तेषां गृहवासत्याग: पापनुबन्धिपापाद् विपाकदारुणत्वेन भाविदुर्गतिहेतुत्वात्।अपि च - भाले ललाटे तेषां यतिवेषविडम्बकानाम् उदरभरणार्थं भिक्षाऽपि असद्भिक्षा आरम्भसङ्गतत्वेनाऽशुद्धपरिणामात्। न तु सुयतीनां भिक्षा तथा, तस्या दातृग्रहीत्रोरपवर्गफलत्वादिति। तथा च गृहवासं त्यक्त्वा तस्य फलभूतां प्रव्रज्यामपि विरुद्धाऽऽसेवनात् त्यक्त्वा, मोहपरतन्त्रास्ते न गृहिणो न च प्रव्रजिता विहितानुष्ठानाऽकरणात्, किन्तु संसारवर्धका एवेति / / 86 / / उपसंहरन्नाह सध्यानादेविरहें गृहवासस्तत्त्वतोऽन्यथा दीक्षा / . . प्रव्राजकस्य न तत: सद्वैद्यस्येव दोषोऽपि / / 87 / / टीका - अनन्तरोक्तेन गृहवासत्याग: पापादिति यत्परेणोक्तं तदाक्षिप्तं विज्ञेयं यत: सद्ध्यानादेः धर्मध्यानादे: विरहे अभावे सति गृहवास: अगारवास इति, न हि गृहवासे 'कदा सिध्यति दुर्गमि'त्यादिना सद्ध्यानसम्भवः / न च गृहवास आरम्भमृत इति स पापानुबन्धिपुण्यात् तत्त्वत: परमार्थतः / अन्यथा उक्तविपर्ययादीक्षा प्रव्रज्या आरम्भनिवृत्ते: सद्ध्यानादिसद्भावात् प्रशमसुखानुभूतेश्च भवपाशविनाशिनी सिद्धिदात्री च। ततः तस्मात् प्रव्राजकस्य दीक्षादातुः न नैव आस्तां गुणाभावो दोषोऽपि प्रव्रज्याप्रदानतप:कारणप्रभृतिकोऽपि स्वकीयभावशुद्धः परभावाऽज्ञानाच्च, किन्तु गुण एव जिनाज्ञापालनात् परहितप्रवृत्तत्वात् तीर्थाऽव्युच्छित्तिकारित्वाच्च कस्येव? सद्वैद्यस्येव आयुर्वेदनिष्णातस्येव शल्योद्धरणादौ दुःखदाऽपि वेदना सुखहेतुत्वाद् यदि वा चिकित्साकाले व्याधितस्याऽपथ्यसेवनाव्याधिप्रकोपेऽपिन दोषः, अपितु गुण एवाऽऽयुर्वेदोपदेशेन आरोग्यकरणे प्रवृत्तत्वादिति / / 87 ।।अथोपस्थापनाविधिमाह - इत्थं प्रव्रजित: सन् सूत्रोक्तां प्रतिदिनं क्रियां कुर्वन् / चारित्रभरसमर्थो मुनिव्रतस्थापनार्ह : स्यात् / / 88 / / - टीका - इत्थं जिनोक्तविधिना प्रव्रजित: दीक्षित: सन् प्रतिदिनम् अहरह: सूत्रोक्तां भगवदुपदिष्टां क्रियां प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनप्रतिक्रमणादिचक्रवालसामाचारीलक्षणां कुर्वन् अप्रमादेन विदधत् चारित्रभरसमर्थ : अष्टादश | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 31 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रशीलाङ्गरथवहनशक्तो मुनिव्रतस्थापनार्ह : देशकालाऽनवच्छिन्नमेरूपममहाव्रतारोपणयोग्यः स्याद् भवेदिति / / 88 / / योग्यतामेवाह - अधिगतशस्त्रपरिज्ञासूत्रार्थोऽनुक्तवर्जको योग्यः / षट्कं स त्रिविशुद्धं नवभिर्भेदैः परिहरेच्च / / 89 / / टीका - अधिगतशस्त्रपरिज्ञासूत्रार्थः पठिताऽऽचाराङ्गसूत्रप्रथमाऽध्ययन: साम्प्रतमधीतदशवैकालिकसूत्रषज्जीवनिकायाऽध्ययन: सूत्रार्थतदुभयतः, अत एव अनुक्तवर्जकः अनुक्तस्य प्रतिषिद्धस्य वर्जकः परिहर्ता योग्यः कल्प्यो भवति। तथा षट्कं पृथिव्यादिषट्कं त्रिविशुद्धं मन:प्रभृतिभिर्विशुद्धं रागद्वेषमोहवर्जितं वा नवभि: मनोवाक्कायकरणकारणानुमतिलक्षणैः कृतकारितानुमतिभेदभिन्नहननपचनक्रयणरूपैर्वा भेदैः प्रकारैः यः परिहरेत् वर्जयेत् स महाव्रतारोपणयोग्यो भवति। चशब्दात् प्रियधर्मत्वाऽवद्यभीरुत्वसमन्वित इति भावः / / 89 / / अथ महाव्रताऽऽरोपकाऽऽचार्यादिविषयमाह - अप्राप्तेऽर्थमकथयन्ननभिगतार्थेऽपरीक्षिते यस्तु / स्थापयति व्रतभारं प्राप्नोत्याज्ञाविरोधमसौ / / 10 / / . ___टीका - यो गुरु: तुशब्दो विशेषद्योतने अप्राप्ते कालपर्यायेण सूत्रार्थं कथयति, पर्यायेण प्राप्तेऽपि यः अर्थ सूत्रार्थं षज्जीवनिकायलक्षणम् अकथयन् अनवबोधयन्, कथयित्वाऽपि अनभिगतार्थे सम्यगनवधारितार्थे, सम्यगवधारितार्थेऽपि अपरीक्षिते च सूत्रविधिना शैक्षे य: स्थापयति निवेशयति व्रतभारं मुनिव्रतानां दुरुह्यत्वेन गुरुत्वाद् मेरूपमं भारं तदा असौ आचार्यादिः प्राप्नोति आपद्यते आज्ञाविरोधं जिनाज्ञोल्लङ्घनलक्षणं दोषम् उपलक्षणात् मिथ्यात्वानवस्थादिदोषान्। तस्मात् पर्यायेण प्राप्ते, कथितार्थे, अभिगतार्थे परीक्षिते च शैक्षे महाव्रतानि निवेशयेदिति / / 90 ।।अथोपस्थापनाया: कालपर्यायमाह - शैक्षस्य भुवस्तिस्रः सप्ताहोरात्रका जघन्याऽत्र / षण्मासिक्युत्कृष्टा मध्यमिका स्याच्चतुर्मासा / / 91 / / टीका - शैक्षस्य ग्रहणाऽऽसेवनशिक्षार्हस्य शिष्यस्य भुव: कालावधय उपस्थापनाया: तिस्रः संख्यया अत्र मौनीन्द्रप्रवचने, तद्यथा - जघन्या निकृष्टा, उत्कृष्टा ज्येष्ठा, मध्यमिका चाजघन्योत्कृष्टा क्रमशः स्याद् भवेत् सप्ताहोरात्रका रात्रिन्दिनसप्तकप्रमाणा, षण्मासिकी मासषट्कमाना चतुर्मासी मासचतुष्टयावधिकेति / / 91 / / का कस्येत्येतदाह - करणजयाय पुराणे प्रथमा दुर्मेधसं प्रतीत्यान्या / अनधिगमादिविशेषे शिष्टाभिज्ञे पुराणेऽपि / / 12 / / टीका - करणजयाय इन्द्रियनोइन्द्रियपरिजयार्थं पुराणे पश्चात्कृतश्रमणभावे पुन: क्षेत्रान्तरप्रव्रजिते प्रथमा सप्ताहोरात्रिका, दुर्मेधसं प्रतीत्य तथाविधक्षयोपशमेन सूत्रग्रहणाभावाद् अन्या उत्कृष्टा भूमिः / अनधिगमादिविशेषे महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 32 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनधिगमाद् अवबोधाभावादेवाश्रद्दधाने, आदिशब्दाद् अधिगतेऽपि अश्रद्दधाने, श्रद्धासंपन्नेऽपि प्रमादादवर्जके, पुराणेऽपि किंविशिष्टे? शिष्टाभिज्ञे शिष्टे कथितेच अभिज्ञे ज्ञातर्यप्यश्रद्दधाने अवजके चास्तामभिनवप्रव्रजिते पुराणेऽपि उक्तलक्षणेऽपि उत्कृष्टा षण्मासिकी भूमिका ज्ञेया। एवमेव मध्यमा अनधिगते अश्रद्दधाने च प्राक्तनाद्विशिष्टतरे। भावितमेधाविनोऽप्यपुराणस्य करणजयार्थं मध्यमैव नवरं लघुतरेति ।।९२।।अनन्तरोक्तां भुवमवाप्तमनवाप्तंच यो रागद्वेषाभ्यामुपस्थापयति न चोपस्थापयति तस्य दोषमाह - एनां भुवमप्राप्तं य उपस्थापयति तथाऽऽप्तमपि / रागाद्वा द्वेषाद्वा नोपस्थापयति स विरोधी / / 93 / / टीका- एनाम् अनन्तरोक्तां भुवं भूमिकाम्अप्राप्तं योगोद्वहनाऽध्ययनादिनाऽनवाप्तं शैक्षं यो गुरु: उपस्थापयति महाव्रतेषु स्थापयति रागाद्वा अभिष्वङ्गलक्षणात्प्रमादाद्वा तथा समुच्चये शिक्षकान्तरे रागात् आप्तमपि प्राप्तमपि भुवं द्वेषाद्वा अप्रीतिलक्षणाद् न नैव उपस्थापयति आरोपयति स गुरुः विरोधी श्रीजिनाज्ञाविरोधभाग् भवति, आज्ञानवस्थामिथ्यात्वादिकं प्राप्नोतीत्यर्थः / / 93 / / अत्राधिकारे पितृपुत्रादीनां प्राप्ताऽप्राप्तानां य: क्रमः पूर्वाचार्येभणितस्तमाह पुत्रादेश्च विलम्बः पित्रादिभ्यः स्मृतस्त्रिपञ्चाहः / * अप्रज्ञाप्यतया नो परतोऽपीष्टो बहुद्वेषे / / 94 / / टीका- पित्राद्यपेक्षया पुत्रादेच आदिपदादाजाद्यपेक्षयाऽमात्यादेरुपस्थापनायां विलम्ब: कालक्षेप: पित्रादिभ्यः पितृराजादीनां कृते स्मृतो विहितस्तीर्थकरगणधरैः, कियन्मानः? त्रिपञ्चाहः दिनानां पञ्चकत्रयं पञ्चदशदिनमान इत्यर्थः / तद्यथा - द्वौ पितापुत्रौ प्रव्रजितौ, यदि द्वावपि युगपत् प्राप्तौ तदा युगपदुपस्थाप्यते। अथ पुत्रे सूत्रादिनाऽप्राप्ते पितरि तु प्राप्ते पितुरुपस्थापना। पुत्र प्राप्ते पितरि चाऽप्राप्ते तदा यावत् शुद्ध उपस्थापनादिवस एति तावत् पिता प्रयत्नेन शिक्षाप्यते, यदि पिताऽपि प्राप्त: स्यात्तदा युगपदपस्थाप्येते। अथ तथापि न प्राप्त: पिता तदाऽयं विधि:दण्डिकादिदृष्टान्तेन आदिपदादमात्यादिदृष्टान्तेन पिता प्रज्ञाप्यते, यथा कश्चिद् राजा राज्यपरिभ्रष्टः सपुत्रः अन्यं कञ्चिद् राजानं सेवितुं लग्नः / स राजा पुत्रे तुष्टः / तं तस्य राज्ये स्थापयितुमिच्छति। किं स पिता नानुजानाति? अनुजानात्येवेत्यर्थः / एवं प्रज्ञप्तोऽपि यदि नेच्छति तदा प्रतीक्ष्यते पञ्चाहं यावत्। पुनरपि प्रज्ञाप्यतेऽनिच्छति पुनरपि प्रतीक्ष्यते पञ्चाहं यावत्। पुनरपि प्रज्ञप्तो यदि नेच्छति तदा पुनरपि प्रतीक्ष्यते पञ्चाहं यावत्। एतावता कालेन यदि प्राप्तस्तदा युगपदुपस्थापना। अत: परम् अनिच्छत्यपि पितरि पुत्र उपस्थाप्यते। अथवा मानी यथाहं पुत्रसकाशाद् अवमतर: क्रिये इति उनिष्क्रामेत् गुरौ पुत्रे वा प्रद्वेषं गच्छेत्तदा पञ्चदशदिनेभ्य: परतोऽपि प्रतीक्ष्यते यावत् प्राप्त इति। एतदेवाह - त्रि: प्रज्ञप्तोऽपि यदि नेच्छति तदा अप्रज्ञाप्यतया अनवबोध्यतया नो नैव परतोऽपि पञ्चदशदिनेभ्योऽप्यधिको विलम्ब इष्ट : अभिमत:। बहुद्वेषे तु पितरि विलम्ब: परतोऽपीष्टो यावत्प्राप्त इति भावः / / 94 / / नन्वेवं यः साधुवचनमपि न बहुमन्यते तस्मिन् सामायिकचारित्रलक्षण: समभावः कथं भवेद्? नैव भवेदिति तस्य त्याग एवोचित इति पराभिप्रायमाशङ्कय समाधानमाह - | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 33 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईदृश्यपि समभावो व्यवहारात् कर्मभेदतोऽशुद्धः / अतिचारात् सज्वलनैराकर्षाद्वाऽन्यथोच्छेदः / / 15 / / टीका - सत्यमिदं निश्चयनयाभिप्रायात्। व्यवहारा व्यवहारनयाभिप्रायात्तु ईदृश्यपि अप्रज्ञापनीयेऽपि समभावः सामायिकचारित्रलक्षण: सम्भवत्येव यत: कर्मभेदत:अशुभकर्मविपाकात् सामायिकवतोऽपि अशुद्धः मलिन: समभाव: अप्रज्ञापनीयत्वहेतुको जायते। एतदेव समर्थयति - सामायिकचारित्रे सत्यपि सञ्चलनैः कषायैः अतिचारात्चारित्रमालिन्याऽऽपादकात् सामायिकचारित्रीणो मनाग्मलिन: समभावो जायते, न तु सर्वथा चारित्राभावः। उपपत्त्यन्तरमाह - आकर्षाद्वा ग्रहणमोक्षलक्षणाद्वा सर्वविरतिसामायिकस्य प्रतिपातित्वमपि सिद्धमेव, एकभवेऽपि सर्वविरतिसामायिका-कर्षाणांशतपृथक्त्वश्रवणात्। तथा चागमः - तिण्ह सहस्सपहुत्तं, सयपहुत्तं च होइ विरइए / एगभवे आगरिसा, एवइआ होति नायव्वा / / 629 / / पं.व.।। एतट्टीका - त्रयाणां सम्यक्श्रुतदेशविरतिसामायिकानां सहस्रपृथक्त्वं, पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरानवभ्यः। शतपृथक्त्वं च भवति विरते: सर्वविरति सामायिकस्य एकेन जन्मनैतद्। अत एवाह - एकभवे आकर्षा ग्रहणमोक्षलक्षणा एतावन्तो भवन्ति ज्ञातव्याः, परतस्त्वप्रतिपातोऽलाभो वेति गाथार्थः / / 629 / / अन्यथा सज्वलनानां कषायाणामुदयत आकर्षाद्वाऽन्यतरप्रकाराद् उच्छेदः प्रज्ञापनीयत्वाऽभाव: सम्पद्यत इति कृत्वा नास्त्येव दोष। अत एव निरतिशयगुरुणा सामायिकशून्यस्याऽपि तस्य त्यागो न कर्तव्यः, सामायिकस्य पुन: सम्भवात् सामायिकगतरागभावाच्च।अत्रार्थे पूर्वाचार्यभणितो यो क्रमः स पञ्चवस्तुग्रन्थानुसारेणाऽत्र प्रदर्श्यते - पितिपुत्त खुड्ड थेरे, खुड्डग थेरे अपावमाणम्मि / सिक्खावण पण्णवणा, दिटुंतो दंडिआई हिं / / 622 / / / अत्र वृद्ध व्याख्या - दो पितपुत्ता पव्वइया, जइ ते दोऽवि जुगवं पत्ता तो जुगवं उवट्ठाविज्जंति, अह 'खुड्डे' त्ति खुड्डे सुत्तादीहिं अपत्ते 'थेरे' त्ति थेरे सुत्ताईहिं पत्ते थेरस्स उवट्ठावणा, 'खुड्डग' त्ति जइ पुण सुत्तादीहिं पत्तो थेरे पुण अपावमाणमि तो जाव सुझंतो उवट्ठावणादिणो एति तावथेरो पयत्तेण सिक्खाविज्जइ, जदि पत्तो जुगवमुवट्ठाविज्जंति, अह तहावि ण पत्तो थेरो ताहे इमा विही / / 622 / / थेरेण अणुण्णाए, उवठाणिच्छे व ठंति पंचाहं / तिपणमणिच्छिावुवरिं, वत्थुसहावेण जाहीअं / / 6 23 / / अणुण्णाए खुड्डु उवट्ठावेंति, अह नेच्छइ थेरो ताहे पण्णविज्जइ दंडियदिढ़तेण, आदिसद्दाओ अमच्चाई, जहा एगो राया रज्जपरिभट्ठो सपुत्तो अण्णरायाणमोलग्गिउमाढत्तो, सो राया पुत्तस्स तुट्ठो, तं से पुत्तं रज्जे ठावितुमिच्छइ, किं सो पिया णाणुजाणइ?, एवं तव जइ पुत्तो महव्वयरज्जं पावइ किंण मण्णसि?, एवंपि पण्णविओ जइ निच्छइ ताहे ठवति पंचाहं, पुणोऽवि पण्णविज्जइ, अणिच्छे पुणोऽवि पंचाहं, पुणोवि पण्णविज्जइ, अणिच्छे पंचाहं ठंति, महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 34 मार्गपिरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवतिएण कालेण जइ पत्तो जुगवमुवट्ठावणा, अओ परं थेरे अणिच्छेवि खुड्डो उवट्ठाविज्जइ, अहवा ‘वत्थुसहावेण जाधीतंति वत्थुस्स सहावो वत्थुसहावो-माणी, अहं पुत्तस्स ओमयरो कज्जामित्ति उण्णिक्खिमिज्जा, गुरुस्स खुड्डस्स वा पओसं गच्छिज्जा, ताहे तिण्ह वि पंचाहाणं परओऽविसंचिक्खाविज्जइ जाव अहीयंति गाथार्थः / / 623 / / अत: परं वृद्धसम्प्रदाय: - 'अह दोऽवि पियापुत्तजुगलगाणि तो इमो विही - दो थेर खुड्ड थेरे, खुड्डग वोच्चत्थ मग्गणा होइ / रन्नो अमच्चमाई, संजइमज्झे महादेवी / / 633 / / दो थेरा सपुत्ता समयं पव्वाविया, एवं 'दो थेर'त्ति दोऽवि थेरा पत्ता ण ताव खुड्डगा, थेरा उवट्ठावेयव्वा, 'खुड्डग'त्ति दो खुड्डा पत्ता ण थेरा, एत्थवि पण्णवणुवेहा तहेव, 'थेरे खुड्डग'त्ति दो थेरा खुड्डगो य एगो एत्थ उवट्ठावणा, अहवा दो खुड्डगाथेरो य एगो पत्तो, एगे थेरे अपावमाणम्मि एत्थ इमं गाहासुत्तं / / 633 / / - दो पुत्तपिआ पुत्ता, एगस्स पुत्तो पत्त न उ थेरो। गाहिउ सयं व विअरइ, रायणिओ होउ एसविआ / / 634 / / पुव्वद्धं कण्ठ्यं, आयरिएण वसभेहिं वा पण्णवणं गाहिओ विअरइ सयंवा वियरइ ताहे खुड्डगो उवट्ठाविज्जउ, अणिच्छे रायळिंतपण्णवणा तहेव, इमो विसेसो - सो य अपत्तथेरो भण्णइ - एस ते पुत्तो परममेधावी पुत्तो उवट्ठाविज्जइ, तुमंण विसज्जेसि तो एए दोऽवि पियापुत्ता राइणिया भविस्संति, तं एवं विसज्जेहि, एसविता होउ एएसिं रातिणिउत्ति, अओ परमणिच्छे तहेव विभासा, इयाणि पच्छद्धं - ‘रण्णो अमच्चाइ'त्ति राया अमच्चो यसमगं पव्वाविया, जहा पियापुत्ता तहा असेसंभाणियव्वं,आदिग्गहणेणं सिटिसत्थवाहाणं रण्णा सह भाणियव्वं, संजइमज्झवि दोण्हं मायाधितीणं दोण्ह य मायाधितीजुवलयाणं महादेवीअमच्चीण य एवं चेव सव्वं भाणियव्वं / / 634 / / राया रायाणो वा, दोण्णिवि सम पत्त दोसु पासेसु। ईसरसिट्ठिअमच्चे, निअम घडा कुला दुवे खुड्डे / / 635 / / _ 'राया रायाणो'त्ति एगो राया बितिओ रायराया समं पव्वइया, एत्थवि जहा पियापुत्ताणं तहा दट्ठव्वं, एएसिं जो अहिगयरोरायादि इअरंमि अमच्चाइए ओमे पत्ते उवट्ठाविज्जमाणे अपत्तियं करिज्ज पडिभज्जेज्ज वा दारुणसहावो वा उदुरुसिज्जा ताहे सो अपत्तोऽवि इयरेहि सममुवट्ठाविज्जइ, अहवा 'राय'त्ति जत्थ एगोराया जो अमच्चाइयाण सव्वेसिं रायणिओ कज्जइ. 'रायाणो'त्ति जत्थ पण दुप्पभितिरायाणो समं पव्वइया समं च पत्ता उवाविज्जंता समराइणिया कायव्वत्ति दोसु पासेसु ठविज्जंति, एसेवत्थो भण्णइ / / 635 / / समयं तु अणेगेसुं, पत्तेसुंअणभिओगमावलिया। एगदुहओऽवि ठिआ, समराइणिआजहासन्नं / / 636 / / दारं / / - पुव्वं पियापुत्तादिसंबंधेण असंबद्धेसु बहुसु समगमुवट्ठाविज्जमाणेसु गुरुणा अण्णेण वाअभिओगो ण कायव्वो इओ ठाहत्ति, एवमेगओ दुहओ वा ठाविएसु जो जहा गुरुस्स आसण्णो सो तहा जेट्ठो, उभयपासट्ठिया समा महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 35 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समरायणिया, एवं दो ईसरा दो सिट्ठि दो अमच्चा, 'नियम'त्ति दो वणिया घड'त्ति गोट्ठी दो गोट्ठीओ, दो गोट्ठीया पव्वइया, दो महाकुलेहितो पव्वइया, सव्वे समा समप्पत्ता समराइणिया कायव्वा, एएसिं चेव पुव्वपत्तो पुव्वं चेव उवट्ठावेयव्वो'ति वृद्धव्याख्या / / 636 / / 95 / / अथ समभावविरहेपि शिष्याऽत्यागे औचितीमाह - . तद्विरहेऽपि च महतां प्रकृत्यतिक्लेशवर्जनौचित्यम्। लोकविरोधत्यागाच्छासनमानश्च विपुलफलः / / 16 / / टीका - तद्विरहेऽपि सामायिकचारित्रलक्षणसमभावाऽभावेऽपि शिष्यस्याऽत्याग उचित एव चशब्दो हेतौ यतो महतां श्रीजिनशासनप्रतिपन्नानां महानुभावानां प्रकृत्यतिक्लेशवर्जनौचित्यं प्रकृत्या स्वाभाव्यादेव अतिक्लेश: स्वपरगत- तीव्रद्वेषादिहेतुकक्रोधादिस्तद्वर्जनं तस्य परिहार एवौचित्यम्। अपि च कालस्य क्लिष्टत्वाद् एष एव कल्पो वर्तत इति शिष्याऽत्यागेन पितृराजादीनां क्रमविपर्ययाऽकरणाच्च यद्भवति तदाह - लोकविरोधत्यागात् लोकविरोध: राजभृत्यादेः क्रमविपर्ययकरणलक्षणः अनिष्टफल इति तस्य त्यागाद् वर्जनाद् विपुलफल: स्वपरबोधिलाभादिपारम्पर्येण मुक्तिफल: शासनमानश्च प्रवचनबहुमानश्च एषैव जिनाज्ञेति / / 96 / / साम्प्रतं कथनविधिमाह कायव्रतकथनविधौ हेतुमुपदर्शयेद् यथा पृथिवी / मांसाङ्कुरसमरूपाङ्कुरोपलम्भेन जीवमयी / / 97 / / भूखातस्वाभाविकजनुषो दुर्दुरकवज्जलं च तथा / व्योमोद्भवस्य पातात् स्वभावतो मत्स्यवद्वापि / / 18 / / आहारादनलोऽपि च वृद्धिविकारोपलम्भतो व्यक्तः / अपरप्रेरिततिर्यग्गते: सचित्तश्च वायुरपि / / 99 / / जन्मजरामृतिजीवनारोहणरुग्दौहदैस्तथाहारात्। रोगचिकित्सादिभ्यो नार्य इव सचेतनास्तरवः / / 100 / / त्रसजीवत्वं व्यक्तं तत्पालनतो व्रतानि मूलगुणाः / / प्राणातिपातविरमणमुख्याः षट्चरणतरुभूमौ / / 101 / / टीका- कायव्रतकथनविधौ काया: पृथिव्यादिषज्जीवनिकाया: व्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि षड्तेषां कथनविधौ निरूपणविधौ हेतुं युक्तिम् उपलक्षणाद् दृष्टान्तम् उपदर्शयेद् निर्दिशेत्। एवं कथितेऽपि अनधिगततदर्थम्, अधिगतेऽपि अपरीक्ष्य व्रतेषु नोपस्थापयेदित्यर्थः, निरूपणपद्धतिमाह - यथा उपदर्शने पृथिवी स्वाश्रयस्था विद्रुमलवणोपलादिरूपा जीवमयी सचेतना मांसाङ्कुरसमरूपाङ्कुरोपलम्भेन मांसाङ्कुरः अर्थोविकाराङ्कुरवत् समरूपाङ्कुरोपलम्भेन समानजातीयाङ्कुरोत्पत्तिमत्त्वेन दर्शनात् / / 97 / / तथा - भूखातस्वाभाविकजनुषः महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 36 गार्गपरिशुद्धिप्रकरणं सटीकम् Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिखातस्वाभावाविकसम्भवाद् दुर्दुरकवद् वर्षाभूरिव जलम् आप: चः समुच्चये तथा सचित्तम्। वा विकल्पे व्योमोद्भवस्य अन्तरिक्षजातस्य जलस्य सचेतनत्वं स्वभावतः स्वाभाविकात् पातात् पतनामत्स्यवद् मीनवत् / / 98 / / अनलोऽपि अग्निरपि व्यक्तः स्पष्टः सचेतन आहाराद् इन्धनलक्षणाद् वृद्धिविकारोपलम्भतः स्फातिपरिणामदर्शनात् पुरुषवत्। वायुरपि पवनोऽपि सचित्तो जीवमय: अपरप्रेरिततिर्यग्गते: अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमत्त्वाद् गवादिवत् / / 99 / / तरवो वनस्पतयः सचेतनाः सचित्ता जन्मजरामृतिजीवनारोहणरुग्दौहदैः हेतुभि: तथा हेत्वन्तरसमुच्चये आहाराद् मृत्तिकाजलादिरूपाद्रोगचिकित्सादिभ्यः आदिशब्दात् छिन्नप्ररोहादिभ्यश्च नार्य इव स्त्रिय इव / / 10 / / नन्वेकेन्द्रियाणां रसनाद्यभावे कथं जीवत्वमिति चेत्, उच्यते - श्रोत्रादीनां विगमेऽपि बधिरादीनामिव तेषां जीवत्वं तथाकर्मविपाकाद्ज्ञेयम्। तथा च - यदि नाम बधिरस्य जन्तोः श्रोत्रमावृतं, श्रोत्राभावात् शेषेन्द्रियभावे सति किमसौ बधिर: अजीव:? जीव एव। तथा - बधिरस्य चान्धस्य चोपहतघ्राणरसस्य च यथा बधिरस्य सत्येकस्मिन्नपि स्पर्शने जीवत्वं किमयुक्तम्? नैवायुक्तमिति। ननु बधिरादीनां निर्वृत्त्युपकरणलक्षणं द्रव्येन्द्रियं दृश्यते, नैवमेतेषां पृथिव्यादीनामिति चेत्, उच्यते- तद्रव्येन्द्रियं न तेषामेकेन्द्रियाणां तथाकर्मपरिणते:, यथा चतुरिन्द्रियाणां श्रोत्रं, तथापि तेषां जीवत्वं सर्वसम्मतम्। स्यादेतत्, वनस्पते: सचेतनत्वसाधने प्रत्येकमेते जन्ममत्त्वादयो हेतव उपात्तास्तेऽनैकान्तिकाः, तद्यथा - जन्मवत्त्वादिति केवलोऽनैकान्तिक: पक्षधर्मः, अचेतनेष्वपि दृष्टत्वात्, जातं दधीतिव्यवहारवत्, तथा जरावत्त्वमपि जीर्णं वास:, जीर्णा सुरेतिव्यवहारवत्, तथा जीवनहेतुरप्यनैकान्तिकः, सञ्जीवितं विषम्, तथा मृतं हेमेतिव्यवहारात्, तथा सीधोर्गुडाहारवारभ्यवहरणम् विनष्टानां च मद्यानामुपक्रमैः प्रकृत्यापादनं चिकित्सेत्युच्यते, सत्यम्, प्रत्येकमेतेऽनैकान्तिका: सर्वे तु समुदितान क्वचिदप्यचेतने दृष्टाः, चेतनेष्वेव वनिताप्रभृतिषु दाडिमबीजपूरिकाकुष्पाण्डिवल्ल्यादिषु च दृष्टा इत्यनैकान्तिकव्यावृत्तिरिति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः। .. त्रसजीवत्वं त्रस्यन्तीति त्रसा द्वीन्द्रियादयस्तेषां जीवत्वं सचेतनत्वं व्यक्तं स्पष्टं विप्रतिपत्त्यभावात्। तत्पालनतो तेषां पृथिव्यादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां सङ्घट्टनपरितापादितो रक्षणतो व्रतानि मुनिव्रतानि प्राणातिपातविरमणमुख्या: प्राणव्यपरोपणविरमणादीनि निशिभोजनविरमणाऽवसानानि मूलगुणा: यतिधर्मकल्पवृक्षस्य मूलस्थानीया: षट्सङ्ख्यया, यदिवा षट्चरणतरुभूमौ षट् चरणा: पादा आधारत्वेन मूलानीत्यर्थः यस्य स षट्चरणस्तरु: अथवा चरणं चारित्रमेव तरु: मोक्षफलत्वात् चरणतरुस्तस्य भूमौ भुवि विस्तारायेत्यर्थः / / 101 / / अथ महाव्रतानां सूक्ष्मबादरभेदतः अतिचारानाह एकेन्द्रियादितापनसङ्कट्टनपीडनादिना प्रथमे / प्रचलाक्रोधादिभ्यः सूक्ष्मोऽन्यश्च द्वितीये स्यात् / / 102 / / क्रोधानाभोगादे: सधर्मकाद्यप्रदत्तग्रहणे च / अस्तेये ब्रह्मण्यपि करकर्मणि गुप्त्यरक्षायाम् / / 103 / / | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 37 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचारः पञ्चमके सूक्ष्मः काकादिरक्षणाज्ज्ञेयः / कल्पाष्टके ममत्वे द्रव्यादिग्रहणतश्चान्यः / / 104 / / ज्ञानाद्यनुपकृतिकृतो धरणे वा वस्तुनोऽतिरिक्तस्य / षष्ठे च चतुर्भङ्गी दिवागृहीतादिनिष्पन्ना / / 105 / / टीका- एकेन्द्रियादितापनसङ्खट्टनपीडनादिना एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियजीवानां सङ्घट्टनपरितापनोपद्रापणादिनाऽतिचार: उपद्रापणं महत्पीडाकरणं प्रथमे शेषाधारत्वात्सूत्रक्रमप्रामाण्याच्च प्राणातिपातविरमणमहाव्रते। प्रचलाक्रोधादिभ्यः प्रचलादिभिर्भवति सूक्ष्मः, प्रचलायसे किं दिआ? न पयलामी'त्यादि, क्रोधादिनाऽभिभाषणम् अन्यश्च बादरश्च द्वितीये मृषावादविरमणमहाव्रते स्याद् भवेत् / / 102 / / क्रोधानाभोगादेः क्रोधादिभिः सधर्मकाद्यप्रदत्तग्रहणे सधर्मकाणां साधुसाध्वीनाम्आदिपदाद्अन्यसधर्माणां चरकादीनां गृहिणां चाऽप्रदत्तं सचित्तासचित्तादि तस्य ग्रहणे बादर:, अनाभोगादिनाऽविदत्तं तृणडगलच्छारमल्लकादिग्रहणे च सूक्ष्म: अतिचार: अस्तेये अदत्ता दानविरमणमहाव्रते भवति। ब्रह्मण्यपि मैथुनविरमणमहाव्रतेऽपि परिणामवैचित्र्यात् करकर्मणि हस्तदोषाभिधानकुकर्मणि तथा गुप्त्यरक्षायां नवब्रह्मचर्यगुप्तीनां सम्यगपालने चाऽतिचारो भवति / / 103 / / पञ्चमके परिग्रहविरमणमहाव्रते प्रसारिततिलादेः काकादिरक्षणात् काकादिश्वगोभ्यो रक्षणात् कल्पाष्टके बाले च मनाग् ममत्वे सति सूक्ष्मः अतिचारोज्ञेयः। अथ बादरमाह-लोभा द्रव्यादिग्रहणतश्च / / 104 / / तथाविधपरिणामादेव ज्ञानाद्यनुपकृतिकृतः अतिरिक्तस्य वस्तुन उपध्यादिलक्षणस्य ग्रहणे धरणे वा अन्यो बादर: अतिचारो ज्ञेयः / षष्ठे रात्रिभोजनविरमणव्रते च चतुर्भङ्गी दिवागृहीतादिनिष्पन्ना दिवागृहीतं दिवाभुक्तं सन्निधे: परिभोगेन एवमादिश्चतुर्भङ्गः तथाविधपरिणामयोगादतिचार: प्रज्ञप्त: अनन्तज्ञानिभिरिति / / 105 / / अथ परीक्षाविधिमाह - उदकार्दादिपरीक्षां कुर्यात् कथनोत्तरं च गीतार्थः। . परिहरति नोदके वा योग्यत्वमनीदृशे भजना / / 106 / / . टीका-अनन्तरोक्तक्रमेण कायव्रतानि कथयित्वा, कथनोत्तरंच गीतार्थः साधुः तेषु कायव्रतेषु अभिगतेष्वेव नानभिगतेषु गोचरगते शिष्ये उदकार्दादिपरीक्षां उदकार्दादिदातृहस्तभाजनादिना दीयमानभिक्षाग्रहणविषये परीक्षा कुर्यात्, आदिशब्दात् तत्परीक्षार्थं गीतार्थ उच्चारादि अस्थण्डिले व्युत्सृजति, शुद्धपृथिव्यां कायोत्सर्गादि करोति, नद्यादावुदकसमीपे उच्चाराद्येव व्युत्सृजति, तथा साग्नौ निक्षिप्ततेजसि स्थण्डिलादौ उच्चाराद्येव करोति, व्यजनाभिधारणं वाते करोति, हरिते यथा पृथिव्याम् उच्चारायेव व्युत्सृजति, वसेषु च यथा पृथिव्यामिति, एवमेव गोचर्या कायैः रज:संस्पृष्टग्रहणादिना च परीक्षां कुर्यात्। न चैवं गुरोः षट्कायविराधने स्वसंयमबाधेन ‘गृहं प्रज्वाल्य लोकानां तीर्थयात्रा-कारापणमिति न्यायापात इति शङ्कनीयम्, सूत्रोक्तयतनया गुरोः प्रवर्तनात्, कथञ्चिज्जीवविराधनायां सत्यामपि वर्जनाभिप्रायसद्भावाद्, जिनाज्ञापालनपरिणामसद्भावाच्चेति भावनीयम् / अभिनवप्रव्रजित: परीक्षायां यदि स्वत: परिहरति प्रेरयति वा द्वितीयम् अयुक्तमेतदित्येवं, तदा तस्मिन् परिहरति वर्जके नोदके प्रेरके वा उपस्थापनाया योग्यत्वं क्लृप्तत्वं भवति। अनीदृशे अयोग्ये भजना विकल्पनेति / / 106 ।।अथोपस्थापनाविधिमाह - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 38 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग योग्योपस्थापनचैत्यवन्दनादिविधौ / कृत्वा गुरवो वामे पार्श्वे संस्थाप्य तं ददते / / 107 / / * टीका - कायोत्सर्ग चेष्टानिरोधलक्षणं कृत्वा व्रतानि ददत इति सम्बन्धः / कुतः? इत्याह योग्योपस्थापनचैत्यवन्दनादिविधौ योग्यस्योपस्थापनायां चैत्यवन्दनादिविधौ कायोत्सर्ग कृत्वा गुरवो निजस्य वामे पार्श्वे तं शैक्षकं संस्थाप्य स्थापयित्वा मुनिव्रतानि ददते प्रयच्छन्ति / / 107 / / यथा ददति तथाह - एकैकं त्रीन वारान् व्रतमत्र स्थानविषयमिममाहुः / पट्टमुखवस्त्रकूर्परवामकरानामिकाग्रहणम् / / 108 / / अपि हस्तिराजदन्तोन्नतहस्ताभ्यां रजोहरणधरणम् प्रादक्षिण्यं चाशिषि गुरोरियं स्यात् परीक्षापि / / 109 / / टीका - एकैकं व्रतं प्रत्येकं मुनिव्रतं परमेष्ठिनमस्कारपूर्वकं त्रीन् वारान् गुरवो ददति। अत्र व्रतदाने स्थानविषयं मुद्रागोचरम् इमं वक्ष्यमाणम् आहुः ब्रुवन्ति, तथाहि - पट्टमुखवस्त्रकूपरवामकरानामिकाग्रहणं पट्ट: चोलपट्टकस्तस्य ग्रहणं कूर्पराभ्यां, मुखवस्त्रस्य ग्रहणं वामकराऽनामिकया / / 108 / / तथा - हस्तिराजदन्तोन्नतहस्ताभ्यां गजस्याग्रदन्ताभ्यामिवोन्नताभ्यां कराभ्यां रजोहरणधरणम्। इत्थम्भूतस्थानस्थितमुपस्थापयेदित्यर्थः / पुनश्च वन्दनपूर्वकं कायोत्सर्गानन्तरं यद्भवेदित्येतद्यथा सामायिके तथा द्रष्टव्यं, किञ्चित्पुनराह-प्रादक्षिण्यं च नमस्कारेण निवेदनं कुर्वन्ति शिष्या यथावसरं ततो 'वर्धस्व गुरुगुणैरिति गुरोश्च आशिषि हिताशंसायाम् इयं वक्ष्यमाणा परीक्षाऽपि निमित्तहेतुका स्याद्भवेदिति / / 109 / / परीक्षामाह - ईषदवनतभ्रमतामभिसरणे वृद्धिरपसृतौ हानिः / साधूनां द्विविधा दिक् साध्वीनां तिस्र एताः स्युः / / 110 / / टीका- ईषदवनतभ्रमताम् ईषदवनता: सन्तो विरतिपरिणामेन भ्रमन्ति तेषां स्वत एव अभिसरणे जिनं प्रति गमने वृद्धिः ज्ञानादिभिस्तस्य गच्छस्य च, अपसरणे पृष्ठत: स वान्यो वा ज्ञानादिभिः क्षीयते। अथ दिग्बन्धनमाह - साधूनां दिग्द्विविधा आचार्या उपाध्यायाश्च, साध्वीनां पुन: एतास्तिस्रः स्युः प्रवर्तनी तृतीया विज्ञेयेति / / 110 / / अथ तप आह - आचाम्लादि तपः शक्त्या तत्सप्तकं तु मण्डल्याः / उपवेशयेत् परिणतं नो चेद् गुप्तेविराधकता / / 111 / / टीका - प्रवेदने आचाम्लादिआचाम्लनिर्विकृतिकादिलक्षणं तपः कार्य शक्त्या यथाशक्ति। तत: तत्सप्तकम् आचाम्लसप्तकं तुशब्दो विशेषद्योतने नियमेनैव मण्डल्या: मण्डलीप्रवेशे कार्यते। मण्डलीसप्तकं त्वेवं - सुत्ते अत्थे भोअण, काले आवस्सए सज्झाय / संधारए वि अतहा, सत्तेसा मंडली हुंति / / 1 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 39 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत: शैक्षस्य भावंज्ञात्वा प्रवचनविधिना प्रज्ञाप्यते। ततश्च परिणतं ज्ञात्वा मण्डल्याम् उपवेशयेद्, अपरिणतप्रवेशे चाज्ञादयो दोषाः / एतदेवाह- नो चेद् यदि न भवति गुप्तेः प्रवचनमर्यादाया विराधकता यत: अनुपस्थापितेन, उपस्थापितेऽपि अकृताऽऽचाम्लादिविधानेन सह परिभोगे तत्क्षणमेव गुप्तिविराधनाऽहन्द्रिणितेति / / 111 / / साम्प्रतं व्रतपालनोपायानांद्वारगाथामाह गुरुगच्छवसतिसङ्गाहारोपकरणतपोविचारेषु / भावनविहारमुनिवरकथासु यतते च परिणामी / / 112 / / टीका - (1) गुरु: आचार्यादिः, (2) गच्छ: गुरुपरिवार: (3) वसतिः प्रतिश्रयः (4) सङ्गः संसर्गः (5) आहारः अशनादि (6) उपकरणं वस्त्रपात्रादि (7) तपः अनशनादि (8) विचार : अर्थपदचिन्तनम् एतेषां द्वन्द्वः गुरुगच्छवसतिसङ्गाहारोपकरणतपोविचारास्तेषु शोभनेषु तथा (9) भावनं भावना (10) विहारो मासकल्पादिः (11) मुनिवरकथा सुसाधुकथा एतेषामपि द्वन्द्वः भावनविहारमुनिवरकथास्तासु सुन्दरासु यतते यस्यति च पुन: परिणामी परिणत: शैक्ष एषा जिनाज्ञेति / / 112 / / अस्या एव गाथाया ऐदम्पर्यमाह - इभ्यो नृपमिव शिष्यः सेवेत गुरुं ततो विनयवृद्ध्या। सद्दर्शनानुरागादपि शुद्धिौतमस्येव / / 113 / / टीका - इभ्यो धनी प्राप्तैश्वर्यवृद्ध्यर्थं नृपमिव सुस्वामिनं यथा सेवते तथा तत: मण्डलीप्रवेशानन्तरं शिष्यः साधु: उभयलोकसुखावहचारित्रधनवृद्ध्यर्थं सेवेत उपासीत गुरुंगुरुगुणयुक्तं प्रतिदिनं विनयवृद्ध्या वन्दनादिभाववृद्ध्या, आस्तां चारित्रधनवृद्ध्यर्थं सद्दर्शनानुरागादपि गुरुसेवा भगवदाज्ञेति। उक्तं च - गुरुभक्तिप्रभावेन तीर्थकृद्दर्शनं मतम् (यो.दृ.स.श्लो.६४) अत एव शुद्धिः ज्ञानादिशुद्धिः गौतमस्येव भगवज्ज्येष्ठशिष्यस्येवेति / / 113 / / अपि च गुरु सेवाभ्यासवतां शुभानुबन्धो भवे परत्रापि / ___ तत्परिवारो गच्छस्तद्वासे निर्जरा विपुला / / 114 / / टीका - गुरुसेवाभ्यासवतां सुशिष्याणां शुभानुबन्धः अभ्यासादेव भवे इह जन्मनि परत्रापिअन्यस्मिन्नपि। नन्वेतावन्महत्त्वं कुत इति चेद्, उच्यते - गुरुदर्शनं प्रशस्तं, तस्य पुण्यसम्भारभावात्, विनयश्च तथा महानुभावस्य वन्दनादिकरणेन, अन्येषां मार्गदर्शनं, गुरुकुलवासस्य मार्गत्वात्, निवेदनापालनं च, प्रव्रज्याकाले आत्मा तस्मै निवेदित इति, वैयावृत्त्यं परमं तत्सन्निधानात् तद्गामि, बहुमानश्च गौतमादिषु गुरुकुलनिवासिषु, तीर्थकराज्ञाकरणं तेनास्योपदिष्टत्वात्, शुद्धो ज्ञानादिलाभश्च विधिसेवनेन, अङ्गीकृतसाफल्यं दीक्षाया ज्ञानादिसाधनत्वात्, ज्ञानादेश्च पर: परोपकारोऽपि, शुद्धस्य भवत्येवं शुभशिष्यसन्तानः / एवं निष्कलङ्कमार्गानुसेवनं भवति जन्मान्तरेऽपि शुद्धमार्गस्य कारणम् अभ्यासत एव, अतश्च मार्गानियमेन मोक्ष: परम्परयेति। तस्मादेनं गुरुकुलवासं समाचरेत्त्यक्त्वा निजं कुलं दीक्षाङ्गीकरणेन कुलप्रसूतः। अन्यथा गृहिप्रव्रज्याकुलद्वयत्याग: अनर्थफलः / उक्तं च - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 40 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपारतन्त्र्यमेव च तद्बहुमानात्सदाशयानुगतम्। परमगुरुप्राप्तेरिह बीजं तस्माच्च मोक्ष इति / / (2-11 षोडशकप्रकरणम्) तथा गुरुदंसणं पसत्थं, विणओ अतहामहाणुभावस्स / अन्नेसि मग्गदसण, निवेअणा पालणं चेव / / 1 / / वैयावच्चं परमं, बहुमाणो तह य गोअमाईसु / तित्थयराणाकरणं सुद्धो नाणाइलंभो अ / / 2 / / अंगीकयसाफल्लं, तत्तो अपरो परोवगारोऽवि / सुद्धस्स हवइ एवं, पायं सुहसीससंताणो / / 3 / / इअनिक्कलंकमग्गाणुसेवणं होइ सुद्धमग्गस्स / जम्मतरेऽवि कारणमओ अनिअमेण मोक्खोत्ति / / 4 / / एवं गुरुकुलवासो, परमपयनिबंधणं जओ तेणं / * तब्भवसिद्धिएहिवि, गोअमपमुहेहिं आयरिओ / / 5 / / ता एयमयारिज्जा, चइऊण निअंकुलं कुलपसूओ। इहरा उभय ओ, सो उण नियमा अणत्थफलो / / 6 / / (पं.व.गा.६९०-६९५) अथ गच्छद्वारमाह - तत्परिवारो गुरुपरिवारो गच्छ: गुरुदु तं तद्वासे गुरुकुलवासे निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा विपुला पुष्कला विनयादिति / / 114 / / तशा - - स्मारणवारणनोदनविनयकरणकारणादिना त्याज्यः / ... विधिना तस्य तु विरहे छात्रमठच्छात्रतुल्यगणः / / 115 / / _टीका - स्मारणेत्यादि नश्यत्कुशलयोगविषयं स्मारणम्, अहितप्रवृत्ते: वारणम्, अधिकतरे कृत्ये गुणस्थानके च नोदनं प्रेरणं, सुचरितानाम् अभ्युत्थानादिलक्षणो विनयस्तस्य करणं स्वतः, शैक्षकाणांचकारणम्आदिपदादुपबृंहणादिग्रहणम्।ऐतै: करणभूतैर्दोषप्रतिपत्तिर्न भवति। एवं विनयादिषु प्रवर्तमानो नियमेन मोक्षपदसाधको भवति। अत्रैवापवादमाह - तस्य तु स्मारणवारणनोदनविनयकरणकारणादेरेव विरहे अभावे परस्परोपकाराभावाद् विधिना सूत्रविधिना त्याज्य उज्झितव्यो गच्छः, यत: छात्रमठच्छात्रतुल्यगण: छात्रादिनां निलयो मठस्तद्वासिन: छात्रा: गुरुपारतन्त्र्येण परस्परोपकारिणस्तत्तुल्यो गण: गच्छ:, अच्छात्रतुल्यस्तुस्वातन्त्र्यप्रधानो न गच्छ:, तत्फलाभावात्। पञ्चवस्तुग्रन्थस्यानुवादकर्तृभिः श्रीमद्विजयराजशेखरसूरिभिस्तु सारणवारणादिविषयिका सटीकगाथा यथा कक्षीकृता तथोपन्यस्यतेऽत्र मोत्तूण मिहुवयारं, अण्णोऽण्णगुणाइभावसंबद्धं / छत्तमढछत्ततुलो, वासो उ ण गच्छवासोत्ति / / 104 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 41 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतट्टीवा - मुक्त्वा मिथ उपकारं, परस्परोपकारमित्यर्थः, अन्योऽन्यगुणादिभावसंबद्धं' प्रधानोपसर्जनभावसंयुक्तं, छत्रमठच्छत्रतुल्यो वास:, अछत्रतुल्यस्तु स्वातन्त्र्यप्रधानो न गच्छवास तत्फलाभावादिति गाथार्थः / / 104 / / / / 115 / / किमित्याह शिष्य: प्रतीच्छको वाऽप्येकगणो वा न सद्गतिं दत्ते / / ये तत्र बोधदर्शनचरणगुणास्ते तु सुगतिफलाः / / 116 / / टीका - शिष्यो विनेयः, प्रतीच्छको ज्ञानाद्यर्थमुपसम्पन्नो वा शब्दौ विकल्पे एकगणोपि गणस्थोऽपि न नैव सद्गतिं स्वर्गापवर्गलक्षणां दत्ते यच्छति, किन्तु ये तत्र गच्छे बोधदर्शनचरणगुणा: ज्ञानादिगुणास्ते एव तुशब्दोऽवधारणे सुगतिफला: स्वर्गापवर्गप्रदायका इति / / 116 / / पर आह - ननु गुरुकुलवासवतां गणवासध्रौव्यमस्ति चेत् सत्यम् / नीत्या तदेकलब्ध्या तदुचितया वसति तद्धेतुः / / 117 / / टीका - ननु प्रश्ने गुरुकुलवासवतां गुरोः अन्तेवासिनां गणवासध्रौव्यं गच्छवासनैयत्यम् अस्ति वर्तते, यस्माद् गुरुपरिवारो गच्छ इत्येतन्निदर्शितं पूर्वं भवतेति चेत्, सत्यमिदं यदभ्यधायि भवता, किन्तु गच्छमध्ये तदेकलब्या गच्छैकलब्ध्या हेतुभूतया तदुचितया गच्छोचितक्रमेण नीत्या सूत्रनीत्या वसति यावज्जीवं निवसति तद्धेतु : तस्य गच्छवासस्य हेतुः प्रयोजनं सारणावारणादिना ज्ञानादिगुणवृद्धिलक्षणं तद्वान् सन् वसति गच्छमध्ये, नान्यथेति ख्यापनार्थमिदं गच्छग्रहणम्।अन्यथा सारणवारणनोदनविनयकरणकारणादिविरहेऽयमगच्छवास एवेति / गच्छाचारप्रकीर्णकादौ प्रसिद्धम् / / 117 / / अथ वसतिद्वारमाह - . सेवेत शुद्धवसतिं सङ्गमविज्ञैः समं कुशीलैश्च / . . परिवर्जयेद्विशुद्धं गृह्णात्याहारमुपकरणम् / / 118 / / टीका - सेवेत आश्रयेत् शुद्धवसतिं मूलगुणोत्तरगुणपरिशुद्धां तथा ब्रह्मचर्यरक्षार्थं स्त्रीपशुपण्डकवर्जिताम्। एवमोघशुद्धत्वेऽपि सदा स्थविरदत्तसंस्तारकादिभोगेन साफल्यं ज्ञेयम्, न तु यथाकथञ्चिदिति। अथ सङ्गद्वारमाह - सङ्गमविज्ञैः सङ्गम: संसर्ग: कल्याणमित्रसत्क: पापमित्रसत्कश्च तं विशेषेणाऽऽसेवनपरिहारद्वारेण जानन्तीति सङ्गमविज्ञा: संविग्नगीतार्थास्तै: समं सार्धं शुद्धवसति सेवेत पातकघातकत्वेन दोषहानेर्गुणप्रतिपत्तेश्च / एतदेव प्रतिषेधमुखेनाह - कुशीलै : पार्श्वस्थादिभिः परिगृहीतां शुद्धवसतिमपि परिवर्जयेत् परित्यजेत् तैः सह संवासपरिहारेण, जीवद्रव्यस्य भावुकत्वात् संसर्गजा गुणदोषा इति दोषप्रतिपत्तेः तत्संसर्गमात्रनिमित्तत्वात्तत्पापानुमतेः, तथाज्ञादयश्च दोषा इति। तथा चागम: - खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए (उत्तराध्ययन अ.१ सू 9) / अथाऽऽहारोपकरणद्वारद्वयं युगपदाह - विशुद्धम् उद्गमोत्पादनादिद्विचत्वारिंशद्दोषपरिशुद्धं गृह्णाति आदत्ते आहारम् अशनादि, तदुक्तं च - गुर्वी पिण्डविशुद्धिः संयमाधार इति। तथा - उपकरणं च वस्त्रपात्रादि, उपलक्षणात् संयोजनादिदोषपरिशुद्धमेतद्वयमपि भुञ्जीत, तथा धारयेद् वस्त्रपात्रादि यथा रागोत्पत्ति: लोके च परिवादो न स्यात्। विशेषार्थिना श्रीमदाचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धगतशय्याऽऽहारवस्त्रपात्राध्ययनतोऽवसेयम्। इदं तुध्येयम् - एतानि शय्याऽऽहारोपकरणानि मूच्छरिंहितानां | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 42 गार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथोक्तप्रमाणभोगयतनयाऽऽत्मसंयमरक्षाहेतुत्वात् चारित्रस्य साधकानि भवन्ति, इतरथाऽऽज्ञादयो दोषा ज्ञातव्या इति / / 118 / / अथ तपोविधानद्वारमाह - सद्योगवृद्धिजनकं सद्ध्यानसमन्वितं त्वनशनादि / कुर्यात्तपोऽपि यस्मादपैति चितमांसशोणिता / / 119 / / टीका - सद्योगवृद्धिजनकं शुभानुबन्धित्वात्, सद्ध्यानसमन्वितम् आशंसारहितत्वात् तुशब्दोऽवधारणे कुर्याद् विदधीतैव यथाशक्ति आस्तां संयम: तपोऽपि अनशनादिकमपि यस्मात् कारणात् अपैति दूरीभवति देहात् चितमांसंशोणिता धातूद्रेक: / चितमांसशोणिता हि जनयति मोहोन्मादं तस्मात् संयमरक्षार्थमनशनादि कर्तव्यमिति / / 119 / / उपचयार्थमाह - तीर्थकरज्ञातेन क्षायोपशमिकमिदं च परिभाव्य / ध्यानोज्ज्वलं विदधतां न मनाक् पीडाऽपि विघ्नाय / / 120 / / - टीका - तीर्थकरज्ञातेन तीर्थकरो भुवनगुरुः चतुर्ज्ञानी तेनैव भवेन सिद्धव्ये ध्रुवे तथापि अनिगूहितबलवीर्यः सन् तपउपधाने उद्यच्छते तस्य ज्ञातेन दृष्टान्तेनाऽस्मादृशैरपि निर्जरार्थं तपोविधाने उद्यन्तव्यमेव सप्रत्यपाये मानुष्ये। तदुक्तं पञ्चवस्तुग्रन्थे तित्थयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झिअव्व यधुवम्मि। अणिगूहिअबलविरिओ, तवोवहाणम्मि उज्जमइ / / 841 / / किं पुण अवसेसेहिं, दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं / / होइ न उज्जमिअव्वं, सपच्चवायम्मि माणुस्से? / / 842 / / नन्वनशनादि दु:खमितिकृत्वा न मोक्षकारणं कर्मविपाकत्वात् कर्मवदिति चेत्, नैवं, क्षायोपशमिकमिदंच अनशनादिक्षायोपशमिकभावे जीवस्वरूपे जिनागमणितत्वेन शुभभावहेतुत्वाद् यतिधर्मान्तर्गतत्वाच्च मोक्षकारणमेवेति परिभाव्य विचिन्त्य ध्यानोज्ज्वलं यथा धर्मध्यानमुज्ज्वलं वर्धमानं स्यात्तथा स्वास्थ्येनाऽनशनादि विदधतां कुर्वतां महानुभावानां मनाग ईषत् पीडाऽपि शारीरिकदुःखमपि न नैव विघ्नाय अवरोधाय मोक्षाऽवाप्तेर्भवति। तदुक्तं - क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा। महतिफलविशेषे नित्यमभ्युद्यतानां, न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयति / / 1 / / तथाऽऽगमेऽपि - इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं, - जहा जुनाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ। एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे (आचाराङ्ग १-४-३-सू.१३५) योगबिन्दुवृत्तावपि - कषायनिरोधब्रह्मचर्यदेवपूजादिरूपाद्विधानात् तप: कार्यम्। (श्लो. 134) अन्यत्राप्युक्तं महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 43 . मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह कलेवरदुःखमचिन्तयन् स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा। बहुतरं च सहिष्यति जीव! रे, परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति / / 1 / / अपि च - सर्वोऽपि कर्मविपाको न मोक्षकारणमिति न, यत: शुभानुबन्धिकर्मविपाक इष्यत एव, तीर्थकरादयो हि कुशलानुबन्धिनिरनुबन्धिकर्मोदयात् चारित्रधर्माराधनसमर्था आगमे निर्दिष्टाः / पापकर्मोदयोत्पन्नाश्च द्रमकप्राया न कदाचिदपि चारित्रधर्मे दृढं प्रवर्तन्ते। अतो व्रतरक्षां गुणवृद्धि कर्मक्षयं चेच्छताऽनशनादितप: कर्तव्यमिति / / 120 / / साम्प्रतं विचारद्वारमाह भाव्यं पुनरर्थपदं यथाऽतिचारे तु हन्त! सूक्ष्मेऽपि / स्त्रीत्वादिगुरुफलं चेत्, कथमधुना बकुशचारित्रम् / / 121 / / टीका - भाव्यं विचारणीयं सम्यग्भावनाप्रधानेन तस्या एवेह प्रधानत्वात्, किम्? अर्थपदं अर्थ: प्रकरणप्रतिपाद्यो ज्ञानविषयो वा तत्प्रधानं पदं शाब्दप्रतीतिजनकम्। कथम्? यथा निदर्शने, अतिचारे चारित्रापराधे हन्तशब्द आमन्त्रणे तुशब्दो विशेषद्योतने सूक्ष्मेऽपि स्वल्पेऽपि गुरावीषदप्रीत्यादिलक्षणे ब्राह्मीसुन्दरीपूर्वभवजीवपीठमहापीठतपनादीनां. स्त्रीत्वादिगुरुफलं स्त्रीत्वकिल्बिषिकत्वादिदारुणविपाकं चेद् यदि, तर्हि कथं केन प्रकारेण अधुना साम्प्रतं बकुशचारित्रम् अतिचारबहुलं मोक्षस्य हेतुः स्याद्? नैव स्यादित्यर्थः। आगमे च श्रूयते यथाऽद्यतनानां यतीनां बकुशचारित्रमेव मोक्षहेतुः स्यात् / / 121 / / एवं चित्तविप्लवे सति मार्गानुसारिणं विकल्पमाह - इत्थं च युज्यतेऽदो रोगचिकित्साऽतिचारवदिहापि / रौद्रविपाकेऽपि गतिः प्रतिस्वविपरीतभावततिः / / 122 / / टीका - इत्थम् एवं च युज्यते घटते अदः एतदनन्तरोदितं रोगचिकित्सातिचारवत् कुष्ठादिव्याधिचिकित्सा प्रपद्य तस्य सूक्ष्ममपि अतिचारमपथ्यसेवनलक्षणं यो करोति तस्य सोऽतिचारो विपाकेऽतिरौद्रो भवति तद्वदिहापि भवरोगचिकित्सालक्षणे चारित्रेऽपि रौद्रविपाकेऽपि परिणामदारुणेऽपि अतिचारे तत्क्षपणहेतुत्वेन गतिः शरणं प्रतिस्वविपरीतभावतति: प्रतिस्वं स्वं स्वमतिचारं प्रति प्रत्यतिचारमित्यर्थः, विपरीतभावततिः विपरीत: प्रतिपक्षो भाव: अध्यवसाय: तस्य तति: परम्परा। इदमुक्तं भवति - प्रपद्यापि चारित्रं जीवोऽनादिभववासनात: सेवेत यद्यतिचारं तर्हि तत्क्षपणहेतुः प्रतिपक्षभावना, किन्तु नालोचनादिमात्रम् / / 122 / / एतदेवाह - नालोचनादिमात्रं ब्राह्मयादेरपि हि येन तद्भावः / सप्रतिकारविषोपममसुखाय न सातिचारमदः / / 123 / / टीका - न नैव प्रतिपक्षभावनाशून्यम्आलोचनादिमात्रं सामान्यत आलोचनाप्रायश्चित्तादिमात्रमतिचारक्षपणहेतुः, हिशब्दः पूरणे, येन कारणेन ब्राह्मयादेरपि ब्राह्मीसुन्दरीतपनादीनामपि तद्भावः सामान्यत आलोचनादिमात्रसद्भाव आसीदेव। निष्कर्षमाह - सप्रतिकारविषोपमं यथा कृतप्रतिकारं विषं बह्वपि भक्षितं सन्न मारयति, अकृतप्रतिकारं तु स्तोकमपि मारयति तद्वत् सातिचारमदः सातिचारमप्येतद्वकुशचारित्रं कृतप्रतिपक्षभावनालक्षणप्रतिकारं न नैव असुखाय दुःखाय भवति, अपितु मोक्षहेतुरेव भवति। एतद्विपरीस्तु स्तोकोऽपि अतिचार आलोचनादिनाऽकृतप्रतिकारो महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 44 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसंटीकम् Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकदारुणो भवति।अत एव येऽतिचारेष्वकृतप्रतिकारा: प्रमादिनस्तेषां पुनस्तद्धर्मचरणं चिन्तासमन्वितं न भवति दुर्गृहीतशरोदहारणेन, तद्यथा-शरो यथा दुर्गृहीतो हस्तमेवावकृन्तति तथा श्रामण्यमपि दुष्परामृष्टं नरकानुपकर्षति। तस्मादनिष्टफलं द्रव्यरूपंधर्मचरणं तेषां भणितं मनीषिभिः, तथाहि - क्षुद्रातिचाराणां मनुष्यतिर्यग्योनिषु स्त्रीत्वदारिद्र्यादि अशुभफलम्, महातिचाराणां पुनर्नरकादिषु गुरुकं तदशुभफलमिति / / 123 / / उपसंहरनाह - इत्थं विचारत: स्यात् संवेगातिशयतश्चरणवृद्धिः / दुष्टान्यथा प्रवृत्तिः सम्मूर्छनजप्रवृत्त्याभा / / 124 / / टीका - इत्थम् अनन्तरोक्तनीत्या विचारत: अर्थपदचिन्तात: स्याद् भवेत् संवेगातिशयत: तत्त्वनिश्चयेन निश्चलतल्लिप्साप्रकर्षात् चरणवृद्धिः चारित्रस्फाति:, अन्यथा विचारशून्या प्रवृत्तिः द्रव्यरूपेण धर्मचरणलक्षणा दुष्टा अनिष्टफलत्वात् सम्मूर्छनजप्रवृत्त्याभा सम्मूर्छिमप्राणिप्रवृत्तितुल्या जडतया भवति। ननु त्यक्तगृहवासानां प्रव्रज्यायामपि किं विचारशून्याप्रवृत्तिर्भवति? भवत्येव। तदुक्तं - अन्नेसि तत्तचिंता देसाणाभोगओ य अन्नेसि / दीसंति य जइणो वित्थ केइ संमुच्छिमप्पाया / / 15 / / (विंशतिविंशिकाप्रकरणे तृतीया विंशिका) / / 124 / / अथ भावनाद्वारमाह - इत्थं यतमानोऽपि स्त्रीरागेणाऽभिबाध्यते स यदा / भावयति तदा सम्यग् विषयस्त्रीसङ्गवैषम्यम् / / 125 / / टीका- इत्थम् उक्तप्रकारेण गुरुगच्छवासवसत्यादिषु। यतमानोऽपि उद्यच्छन्नपि कर्मदोषेण यदा यस्मिन् काले स्त्रीरागेण स्त्रीविषयकेणाऽभिष्वङ्गेन, प्रेक्षावतामपि प्रधानमिदमेव बन्धकारणमिति स्त्रीग्रहणम् अभिबाध्यते अभिभूयते स मुनि: तदा तस्मिन् काले, यदि वा विहितानुष्ठानमिति भावयति पुन:पौन्येन परिशीलयति विषयविषागदभूता लोके सर्वत्राऽऽस्थांविघातिनी: प्रशमरसजननी: अनित्यादिभावनाः / यदा तु स्त्रीरागेणाऽभिबाध्यते तदा विशेषेण सम्यग् अवितथं विषयस्त्रीसङ्गवैषम्यं विषयाच शब्दादयस्तदाधारभूताश्च स्त्रियो विषयस्त्रियस्तासु सङ्गः अभिष्वङ्गस्तस्य वैषम्यं विपाकदारुणत्वं मुहुर्मुहुश्चिन्तयति। तथाहि - सल्लंकामा विसं कामा, कामा आसिविसोवमा / कामे पत्थमाणा अकामा जंति दुग्गई / / 1 / / खिणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिकामसुक्खा। संसारमुक्खस्स विपक्खभूया, खाणीअणत्थाण य कामभोगा / / 2 / / तथा जहा कुकुडपोयस्स, निच्चं कुललओ भयं, एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं / / 54 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजयविरचितं 45 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूसा इत्थीसंसग्गी, पणियं रसभोयणं; नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा / / 57 / / अंगं पच्चंग संठाणं, चारुलविय पेहियं; इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवड्डणं / / 58 / / विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए। अणिच्चं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण य / / 59 / / पुग्गलाणं परिणामंतेसिं नच्चा जहा तहा / विणीयतण्हो विहरे, सीइभूएण अप्पणो / / 60 / / जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं / तमेव अणुपालेज्जा, गुण आयरिए सम्मए / / 61 / / (दश.वै.अ.८) अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्थीजणस्सऽऽरियझाणजुग्गं हियं सया बंभचेररयाणं / / (उत्तराध्ययन अ. 32 गा.१५) जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि / / 45 / / गोवालो भंडवालो वा, जहा तद्दव्वस्सऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि, सामणस्स भविस्ससि / / 46 / / (उत्तराध्यय.अ.२२गा.४५-४६) निग्गंथस्स खलु सद्दरूवरसगंधफासाणुवादियस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा / / . (उत्तराध्ययन - अ.१६ सू-१०) नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु / जाओ पुरिसं पलोभित्ता खेल्लंति जहा व दासेहिं / / 18 / / (उत्तराध्ययन - अ. 8 गा.१८) नारीसु नोवगिज्झेज्जा, इत्थी विप्पजहे अणगारे / धम्मं च पेसलं नच्चा, तत्थ ठविज्ज भिक्खू अप्पाणं / / 19 / / (उत्तराध्ययन-अ.८ गा.१८) संगो एस मणूसाणं, जाओ लोगम्मि इथिओ / जस्स एया परिण्णाया, सुकडं तस्स सामण्णं / / 16 / / (उत्तराध्ययन अ. 2 गा. 18) | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 46 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ एवमादाय मेहावी, पंकभूयाउ इथिओ। * नो ताहि विणिहन्नेज्जा, चरेज्जऽत्तगवेसए / / 17 / / (उत्तराध्ययन अ. 2 गा. 18) - अपि च - थेवहियओ, अविवेगभायणं, अविमिस्सयारी, चञ्चलसहावो, पभवन्तमच्छरी, असग्गाहनिरओ, पच्छाणुयावी महिलायणो होइ / / (समराइच्च कहा पृ.२२५) तथा - अहवा अविवेयबहुले इत्थियाजणे, इत्थिआ हि नाम निवासो दोसाणं, निमित्तं साहसाणं, उप्पत्ती कवडाणं, खेत्तं मुसावायस्स, दुवारं असेयमग्गस्स, आययणमावयाणं, सोवाणं नरयाणं, अग्गला कुसलपुरपवेसस्स / पृ.२५३ / / तथा - अहो महिलिया नाम अभूमी विसलया, अणग्गी चुडुली, अभोयणा विसूइया, अणामिया वाही, अवेयणा मुच्छा, अणुवसग्गा मारी, अणियला गोत्ती, अरज्जुओ पासो, अहेडओमच्चु त्ति। पृ.२९४ / अहवा दुदुगुंठो विय उम्मग्गपत्थिया, किंपागफलभोगोविय मङ्गुलावसाणा, दुस्साहियकिच्च व्व दोसुप्पायणी, कालरत्ती विय तमोलित्ता, ईइसा चेव महिलिया होइ / अवि य - जलणो विघेप्पइ सुहं पवणो भुयगो य केणइ नएण / * महिलामणो न घेप्पइ बहुएहि विनयसहस्सेहिं / / 1 / / अहवा मइरा विय मयरायवड्डणी चेव इत्थिया हवइ त्ति / (स.क.पृ.५५३-५४) अपि च - स्त्रीजनस्याऽशुचित्वं, अनुत्तमत्वानीचगामित्वं, सन्ध्याभ्रतुल्यनिसर्गास्थिररागतां, अतिनिकृतिप्रधानत्वं भावयन् ततश्च विरक्तस्य प्रशमादिगुणलाभः, परलोके च तद्विरागबीजात् शारीरिकमानसानेकदुःखमोक्षं सदासौख्यम्। . एवं भावयत: क्षीयते क्लिष्टकर्म ततश्च नियमाच्चरणविशुद्धिः। ___ भावनाविषय एवायं व्यापकविधिः, तथाहि - यो येन दोषेण बाध्यते तद्विपक्षं भावयेत्, यथा धनादिषु रागभावे तदुपार्जनरक्षणनाशदुःखं तदभावश्च धर्महेतुः, द्वेषे मैत्री, मोहे वस्तुस्वभावं, क्रोधे क्षमा, माने मार्दवं, मायायामार्जवं, लोभेऽलोभमित्यादि। तदुक्तं - कषायादिदोषजयोपायास्तत्तद्दोषप्रतिपक्षसेवादिना स्यात्। तत्र क्रोध: क्षमया, मानो मार्दवेन, माया आर्जवेन, लोभ: सन्तोषेण, रागो वैराग्येण, द्वेषो मैत्र्या, मोहो विवेकेन, काम: स्त्रीशरीराशौचभावनया, मत्सर: परसम्पदुत्कर्षेऽपि चित्ताऽबाधया, विषया: संयमेन, अशुभमनोवाक्काययोगा गुप्तित्रयेण, प्रमादोऽप्रमादेन, अविरतिर्विरत्या च सुखेन जीयते। श्राद्धविधि प्रकाश 2 पृ८ / / 125 / / अथ विहारद्वारमाह - मासादिविहारेण च विहरेदादिस्तु वक्ति कार्येण / न्यूनत्वादि विहारध्रौव्यं त्विह मोहशान्त्यर्थम् / / 126 / / अत्र प्रस्तावे पर आह - गुरुविहारात् सिद्ध एव साधूनां विहारस्तर्हि किमिति पृथगुपादनमस्य ? अत्रोच्यते - आदित एवारभ्य शिक्षकाणां स्वक्षेत्रादौ प्रतिबन्धवर्जनार्थं विधिग्राहणार्थं तथाविधानां चाऽपरिणामकादीनां विहरणशीलानां वा साधूनां कृतेऽस्य पृथग् विधानम्। अथ प्रस्तुतमाह - चेतनाऽचेतनसर्वभावेषु सदाऽप्रतिबद्धः सन् गुरूपदेशेन मासादिविहारेण यथोचितं विहरेत् विचरेत्। आदि: आदिशब्द: तुशब्दो विशेषद्योतने वक्ति कथयति यदुत कार्येण तथाविधज्ञानादिप्रयोजनत: न्यूनत्वादि न्यूनाऽधिकभावमपि। यद्येवं तर्हि किमर्थं विहारध्रौव्यम्? उच्यते - विहारध्रौव्यं विहारस्य नैयत्यं तुशब्दो विशेषद्योतने इह प्रव्रज्यापालनोपायप्रक्रमे मौनीन्द्रप्रवचने वा मोहशान्त्यर्थं | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 47 गार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रविघ्नविजयार्थं भणितमिति / / 126 / / अत्रैवाऽपवादमाह - नित्यवसतिरपि परिणतगुर्वादीनां तु कारणेन स्यात् / / द्रव्यत एव न भावादागमयतना विशुद्धधियाम् / / 127 / / टीका - आस्तां नवकल्पविहार: चारित्रविघ्नजयार्थं नित्यवसतिरपि एकत्र बहुकाललक्षणो नित्यवासोऽपि परिणतगुर्वादीनां वय:पर्यायज्ञानादिना परिणतानामाचार्योपाध्यायस्थविरादीनां तुशब्दो विशेषद्योतने कारणेन क्षीणजंघाबलत्वादिलक्षणेन पुष्टालम्बनेन स्याद् भवेद्रव्यत एव अपरमार्थाऽवस्थानरूपेण न तुभावात् परमार्थतो यतस्तस्मिन् नित्यवासेऽपि तेषां गुर्वादीनां विशुद्धधियां संविग्नगीतार्थानां जिनाज्ञापारतन्त्र्येण रागरहितत्वादेव आगमयतना यथासम्भवं संस्तारकादिपरावर्तनलक्षणा ऋतुबद्धे मासे वर्षाषु च चतुर्षु मासेषु ज्ञेयेति / / 127 / / अथ कथाद्वारमाह - स्वाध्यायादिश्रान्तः कुर्याच्च कथां दशार्णभद्रादेः। विश्रोतसिकारहितः स्वपरस्थिरताकरी नित्यम् / / 128 / / टीका - स्वाध्यायादिश्रान्तः स्वाध्यायवैयावृत्त्यादिखिन्नः कुर्याच्च विदधीत पुन:, उपलक्षणात् श्रृणुयाच्च कथां वार्ता नित्यं नियमाद् दशार्णभद्रादे: आदर्शभूतमहात्मनः, आदिपदात् सुदर्शनस्थूलभद्रवज्रस्वाम्यादिग्रहणं स्वपरस्थिरताकरी कथनश्रवणद्वारा निरतिचाराचारानुमोदनाद् अहमपि तत्कुलवर्तीति निर्धारणाच्च जन्मान्तरेऽपि विश्रोतसिकारहित: विकथापरिहारात् संयमानुसारिचेतोविघातवर्जित: स्यात्। एवं गुर्वासेवनादिना दुर्लभं लब्धं चारित्रपरिणामं रक्षेद अलब्धं वा गोपेन्द्रवाचकादिरिव प्राप्नुयादिति / / 128 / / एतदेवाह - नोपस्थापनयैव, हि चरणं यद् द्रव्यतोप्यभव्ये सा / प्रायस्तयाऽनुभावाद् एतद्विधिना इदमिति तत्त्वम् / / 129 / / टीका - न हि नैव उपस्थापनयैव मुनिव्रतारोपणमात्रेण चरणं यद् यस्माद्रव्यत: भावशून्यक्रियामात्रतः . अपरमार्थरूपेण अभव्येऽपि अङ्गारमर्दकादावपि सा उपस्थापना। नन्वेवं स्थिते किमनेनोपस्थापनाविधिनेत्याशङ्कयाह - प्रायो बाहुल्येन एतद्विधिना उपस्थापनागतेन तया उपस्थापनया कारणलक्षणया अनुभावात् कार्यलक्षणात् फलत इत्यर्थः, इदमिति छेदोपस्थाप्यं चारित्रमिति यदि वा तया उपस्थापनापूर्वकम् एतद्विधिना गुर्वासेवनादिलक्षणेन चारित्रमिति तत्त्वं रहस्यम्। इदमुक्तं भवति - उपस्थापनागतविधिना प्रायो जायते छेदोपस्थाप्यं चारित्रमिति व्यवहारनयार्पणया दशवैकालिकाद्यध्ययनाद्यनन्तरमुपस्थापनाया नियम: कृत: सूत्रे, अन्यथा सामायिकमात्रतोऽपि सिद्धिं गता अनन्ता इत्युपस्थापनानियमवैयर्थ्यापत्तेः। वस्तुतस्तु सामायिकचारित्रवतोपस्थापनाविधिना छेदोपस्थाप्यं चारित्रमङ्गीकर्तव्यं तदङ्गीकृत्य च गुरुगच्छवासासेवनादिविधिना प्राप्तं प्रधानमोक्षसाधनं चारित्रंरक्षणीयमप्राप्तं वा यथाख्यातादिप्रकारं चारित्रं प्राप्तव्यमिति / / 129 / / साम्प्रतमनुयोगाऽनुज्ञाविधिमाह - व्रतसम्पन्नाश्चैवं कालेन गृहीतसकलसूत्रार्थाः / अनुयोगानुज्ञाया योग्या भणिता जिनवरेन्द्रैः / / 130 / / | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 48 मार्गपरिशुद्धिप्रकरंणंसटीकम् Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - उपस्थापनाविधिना व्रतसम्पन्नाश्च मुनिमहाव्रतसम्पन्नाः पुन: एवं गुर्वासेवनादिना कालेन ‘तिवरिसपरिआगस्स उआयारपकप्पणामज्झययणमित्यादिकालक्रमेण ग्रहणशिक्षातो गृहीतसकलसूत्रार्था: कालोचिताऽधीतसमस्तसूत्रार्था: तदात्वानुयोगवन्त इत्यर्थः, एवम्भूता महानुभावा अनुयोगानुज्ञाया अनुयोगो जिनागमव्याख्यानं तस्यानुज्ञा यदुत भवता कर्तव्यं व्याख्यानं सदाऽप्रमत्तेन सर्वत्र समवसरणादौ विधिना, न यथाकथञ्चित्, तस्या आचार्यपदस्थापनारूपाया इत्यर्थः योग्याः समर्था भणिता: निरूपिता जिनवरेन्द्रैः अर्हद्भिरिति / / 130 / / कस्मादित्याह - भाषा मृषाऽन्यथा तु प्रवचननिन्दा च शिष्यगुणहानिः / तीर्थोच्छेदश्चेति स्वल्पाध्ययने न योग्यत्वम् / / 131 / / टीका- अन्यथा कालोचितसकलसूत्रार्थाऽभावे तुशब्दो विशेषद्योतने एतदनुज्ञावचनलक्षणा भाषा गुरोरनुजानतो वसन्तनृपे नृपवचनमिव निर्विषयत्वाद् मृषाअसत्याऽऽपद्यते। न च यावत्तावदधीतमित्येतदालम्बनीयम्, स्वल्पसूत्रार्थस्य श्रावकादिभिरप्यधीतत्वेनाऽतिप्रसङ्गात्। तथा - प्रवचननिन्दा, तथाहि - अनुयोगी लोकानां संशयनाशको भवतीति तं तेधर्मपरिज्ञायोपयान्ति।सचाऽल्पश्रुत एकान्तेनाऽनभिज्ञः सन्बन्धमोक्षादिसूक्ष्मतत्त्वं नैव सम्यगनिरूपयति। यत्किञ्चिद्भाषक तं दृष्ट्वा विदुषां जायतेऽवज्ञा प्रवचने, प्रवचनधरोऽयमिति कृत्वा।अहो! असारमेतद् यदयमभिज्ञः सन्नेवमाहेति प्रवचनखिसा। च समुच्चये, शिष्यगुणहानिः सन्नायकाभावेन तुच्छत्वान्न स्वतो मिथ्याभिमानान्न परतोऽपि ज्ञानादिगुणसम्प्राप्तिरिति शिरस्तुण्डमुण्डनादिकं सर्वमनर्थकं भवतीति। तीर्थोच्छेदश्च भावेन तत: सम्यग्ज्ञानाद्यप्रवृत्त्या मोक्षलक्षणतीर्थफलाभावाद् इति हेतोस्तस्मात् स्वल्पाध्ययने अल्पश्रुते न नैव योग्यत्वम् अर्हतेति / / 131 / / यत एवं तस्मात् सुविनिश्चितसूत्रार्थस्य युक्तोऽयमित्याह - कालोचितसूत्रार्थे तस्मात् सुविनिश्चितस्य युक्तोऽयम्। श्रवणादेव न यदियं सम्मत्यां सिद्धसेनोक्तिः / / 132 / / टीका - यस्मात् स्वल्पश्रुतेऽनुयोगानुज्ञायां तीर्थोच्छेदादिका महादोषा: तस्मात् कारणात् कालोचितसूत्रार्थे तत्तत्कालीनस्वपरसमये सुविनिश्चितस्य ज्ञाततत्त्वस्य युक्तः उचित: अयम् अनुयोगः, न नैव श्रवणादेव श्रवणमात्रेणैव यद्यस्माद् इयं वक्ष्यमाणा सम्मत्यां सम्मतितर्कप्रकरणे सिद्धसेनोक्तिः सिद्धसेनाऽऽचार्यवचनमिति / / 132 / / तदुक्तिमेव दर्शयति - जह जह बहुस्सुओ सम्मओ अ सीसगणसंपरिवुडो अ / अविणिच्छिओ अ समए, तह तह सिद्धंतपडिणीओ / / 133 / / टीका - पञ्चसूत्रगतैवात्र लिख्यते - यथा यथा बहुश्रुतः श्रवणमात्रेण सम्मतश्च तथाविधलोकस्य शिष्यगणसम्परिवृतश्च किमित्याह - बहुमूढपरिवारश्च, अमूढानां तथाविधापरिग्रहणाद्, अविनिश्चितश्च अज्ञाततत्त्वश्च समये सिद्धान्ते तथा तथाऽसौ वस्तुस्थित्या सिद्धान्तप्रत्यनीक: सिद्धान्तविनाशक: तल्लाघवापादनादिति / / 133 / / एतदेव भावयति अविनिश्चितो हि न भवेदपवादोत्सर्गविषयवित् सम्यक् / अविषयदेशनया च स्वपरविनाशी स नियमेन / / 134 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 49 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - हि हैतो यस्माद् अविनिश्चित: अज्ञाततत्त्वो न नैव भवेद् जायेत अपवादो विशेषस्थितिश्च उत्सर्गश्च सामान्यमर्यादा अपवादोत्स! तयोः पृथक् पृथक् विषयस्तं वेत्तीति अपवादोत्सर्गविषयविद्।अत एव अविषयदेशनया च परस्थानदेशनया च विश्वविश्वहितकरगभीरजिनवचनस्य लाघवापादनात् स्वपरविनाशी कूटवैद्यवत् स: अविनिश्चितो नियमेन अवश्यंतया भवति। तस्मात्तस्यैव हितार्थं तथा तद्भाविशिष्याणामनुमोदकानां च तथाविधाज्ञप्राणिनां तथाऽऽत्मनश्च हितार्थं धीरो गुरुर्योग्यविनेयायाऽनुजानाति वक्ष्यमाणेन विधिनाऽनुयोगमिति / / 134 / / विधिमेवाह - अनुयोगविधिश्चायं सुतिथौ गुरुरुपविशेन्निषद्यायाम् / रचितायां कथितायां पुरतः शिष्यो यथाजातः / / 135 / / टीका - अनुयोगविधिश्च अनुयोगानुज्ञाविधिश्च अयं वक्ष्यमाणः - सुतिथौ सम्पूर्णशोभनतिथौ उपलक्षणात् शोभननक्षत्रादौ गृहीते काले विधिना निवेदिते चैव गुरोनिषद्यारचनमुचितभूमौ ततो मनागुच्चैरक्षाणां निषद्यारचनं तत्र चाक्षनिक्षेपः, तदनन्तरं निषद्यारचकेन साधुना कथितायां प्रवेदितायां रचितायां निषद्यायां गुरु: आचार्य उपविशेद् निषीदेत्। पुरतश्च तिष्ठति शिष्यः असम्भ्रान्त: प्रक्रान्त: यथाजात: रजोहरणमुखवस्त्रिकादिधरः / / 135 / / तत: उपकरणत उपयुक्तस्ततो गुरुः प्रत्युपेक्षते विधिना / मुखवस्त्रिका सशिष्यः सशिर : कायं तया चापि / / 136 / / टीका - तत उपकरणत: इन्द्रियाऽनिन्द्रियैः उपयुक्तः सम्प्रणिहितः स्वस्थ इत्यर्थः गुरु: आचार्य: सशिष्य : अनुयोगानुज्ञार्थप्रस्तुतेन शिष्येण सह विधिना सूत्रविधिना प्रत्युपेक्षते प्रतिलिखति मुखवस्त्रिका, तया च मुखवस्त्रिकयैव सशिर : मस्तकेन सह कायमपि शरीरमपि प्रत्युपेक्षत इति / / 136 / / तत: - आवर्तीदशभिर्वन्दनदानेन भणति शिष्योऽथ / सन्दिशत स्वाध्यायं स्वस्था: प्रस्थापयाम इति / / 137 / / टीका - आवतॆदिशभिर्वन्दनदानेन द्वादशावर्तवन्दनेन वन्दित्वा गुरुं भणति प्रार्थयति शिष्यो विनेयः अथशब्द आनन्तर्ये, किं भणति? सन्दिशत स्वाध्यायं स्वस्थाः सुप्रणिहिता: प्रस्थापयामः प्रकर्षेण वर्तयाम इति / / 137 / / तत: प्रस्थापयेत्यनुमते प्रस्थापयतो ह्युभौ ततश्च गुरुः। तिष्ठेन्निवेदितेऽस्मिन् प्रस्थापयतोऽनुयोगं द्वौ / / 138 / / टीका - प्रस्थापय इति गुरुणा अनुमते अनुज्ञाते सति उभौ हि गुरुशिष्यौ द्वावपि स्वाध्यायं प्रस्थापयतः। ततश्च स्वाध्याये च प्रस्थापिते सति गुरु: आचार्य: तिष्ठेद् निषीदेत् स्वनिषद्यायां, तत: शिष्यो निवेदयति स्वाध्यायं, निवेदितेऽस्मिन् स्वाध्याये सति उपयुक्तौ सन्तौ प्रस्थापयतो विधिना अनुयोगं जिनवचनव्याख्यानं द्वावपि गुरुशिष्यौ / / 138 / / ततश्च - |महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 50 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगं गुरुणाऽथो शिष्योऽनुज्ञापयेच्च वन्दित्वा / अभिमन्त्र्याऽक्षान् देवान् वन्देत गुरुस्ततो विधिना / / 139 / / सनमस्कारनन्दीमाकर्षयति स्थितोऽथ परिपूर्णाम् / शिष्यः शृणोति भावान्नन्दीमाकृष्य भणति गुरुः / / 140 / / टीका - अथो माङ्गल्ये शिष्यो विनेयो गुरुं वन्दित्वा गुरुणा आचार्येण अनुज्ञापयेच्च अनुयोगम्। ततो गुरुः सूरिमन्त्रेण अक्षान् चन्दनकान् अभिमन्त्र्य वन्देत देवान् चैत्यानि।अथ गुरुः आचार्य: स्थित एवोर्ध्वस्थानेन विधिना सूत्रोक्तविधिना सनमस्कारनन्दी नमस्कारमहामन्त्रपूर्व नन्दीसूत्रम् आकर्षयति पठति परिपूर्णां सम्पूर्णा ग्रन्थपद्धति शिष्यश्चोर्ध्वस्थानेन स्थित: सन् विधिगृहीतमुखवस्त्रिकास्थगितवदनकमलः शृणोति निशाम्यति भावात् शुद्धाशयादुपयुक्तः सन्। ततो नन्दीमाकृष्य नन्दी पठित्वा भणति गुरुः वक्ष्यमाणम् / / 139-140 / / गुरुवचनमाह अनुयोगमस्य साधोः क्षमाश्रमणहस्ततोऽहमनुजाने / पर्यायद्रव्यगुणै: सोऽनुज्ञातोऽथ वन्दित्वा / / 141 / / सन्दिशत किं भणामीत्यादि प्राग्वद्वदेदिह विशेषः / अधिकाशीरन्येषां धारय सम्यक् प्रवेदय च / / 142 / / टीका - क्षमाश्रमणहस्तत: प्राक्तनऋषीणां हस्तेन, न स्वमनीषिकया अहम् अस्य उपस्थितस्य साधो: अनुयोगं जिनागमव्याख्यानं पर्यायद्रव्यगुणैः छान्दसत्वाद् द्रव्यगुणपर्यायैर्व्याख्याङ्गरूपैः अनुजाने अनुयोगस्यानुज्ञां वितरामीत्यर्थः। अथ आनन्तर्ये सोऽनुज्ञात: अनुयोगाऽनुज्ञाप्राप्तो वन्दित्वा भणति - सन्दिशत यूयं किं भणामि? इत्यादिवचनजातं प्राग्वत् सामायिकचारित्रप्रतिपत्तिवद् द्रष्टव्यम्। विशेषस्तु काशते शोभत इति काशी: अभिनवाचार्येणाधिक: काशी: अधिकाशी: वदेदिह गुरुर्भणति, तद्यथा - सम्यग्आचारासेवनेन धारय अन्येषां च सम्यगेव प्रवेदयाऽनुयोगमिति / / 141-142 / / ततः - ..... गुरुरूपविशति कृतत्रिप्रदक्षिणे शिष्यके तनूत्सर्गे। विहिते चानुज्ञार्थे सनिषद्यगुरुं प्रदक्षिणयेत् / / 143 / / टीका - कृतत्रिप्रदक्षिणे त्रिप्रदक्षिणीकृते शिष्यके विनये सति ततो गुरुरुपविशति आचार्यो निषद्यायां निषीदति, अत्रान्तरे विहिते कृते चानुज्ञार्थे तनूत्सर्गे कायोत्सर्गे गुरुणा, शिष्यः सनिषद्यगुरुं निषद्यायामुपविष्टं गुरुं त्रि: प्रदक्षिणयेत् त्रिप्रदक्षिणं वन्देतेति / / 143 / / तत उपविष्टस्य गुरुस्त्रीन् वारान् स्वान्तिके सुशिष्यस्य / कथयति मन्त्रपदानि स्वपरम्परयाऽऽगतानि / / 144 / / टीका - ततः स्वान्तिके गुरुदक्षिणपाधै उपविष्टस्य तनिषद्यायामेव निषण्णस्य सुशिष्यस्य अनुयोगानुज्ञार्हस्य गुरु: आचार्यः कथयति कर्णमूले श्रावयति त्रीन् वारान् स्वपरम्परयाऽऽगतानि आचार्यपारम्पर्येणाऽऽयातान्येव महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 51 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रपदानि विधिना सर्वार्थसाधकानीति / / 144 / / तथा - दत्ते सुगन्धमुष्टींस्त्रीनक्षाणां प्रवर्धमानांश्च / तद्ग्राहिणं च शिष्यं स्वनिषद्यायां निवेशयति / / 145 / / टीका - गुरुः दत्ते प्रयच्छति त्रीन् प्रति मुष्टिं प्रवर्धमानान् सुगन्धमुष्टीन् सुरभिगन्धसहितानाम् अक्षाणां चन्दनकानां, शिष्यश्चोपयुक्तः सन् विधिना गृह्णाति। एवं व्याख्यानाङ्गरूपानक्षान् दत्त्वा निषद्याया: उत्तिष्ठति आचार्य:, तद्ग्राहिणम् अक्षमुष्टिग्राहिणं च शिष्यम् अभिनवाचार्य स्वनिषद्यायां गुरुनिषद्यायां निवेशयति उपवेशयतीति / / 145 / / ततः - तं वन्दतेऽथ समुनिर्गुरुः स्वशक्त्या स देशनां दत्ते / तुल्यगुणदीपनार्थ नैतद् दुष्टं द्वयोरपि हि / / 146 / / टीका - अथ आनन्तर्येतं गुरुनिषद्यायामुपविष्टमभिनवाचार्य वन्दते प्रणमति समुनिः सन्निहिताऽशेषसाधुभिः सहित: गुरु: आचार्यः / वन्दित्वा तं भणति च गुरुः कुरु व्याख्यानमिति। तत: सोऽभिनवाचार्यो गुरुनिषद्यायां स्थित एव स्वशक्त्या यथाशक्ति देशनां नन्द्यादिविषयां पर्षदं वा ज्ञात्वाऽन्यविषयामपि दत्ते प्रयच्छति। न नैव एतद् गुरुनिषद्यायामुपवेशनं च शिष्यस्य गुरुणा च वन्दनं दुष्टं दोषावहं द्वयोरपि गुरुशिष्ययोरपि हि हेतौ यस्मात् तुल्यगुणदीपनार्थं लोकानां शिष्यगतस्वतुल्यगुणख्यापनार्थं जीतमेतदिति / / 146 / / प्रणमन्ति ततो मुनयो गुरुस्ततः स्वासनस्थितस्तस्य। कुरुते गुणप्रशंसामन्ये तु प्रथममेवाहुः / / 147. / / टीका - ततो व्याख्यानसमनन्तरं प्रणमन्ति वन्दन्ते मुनयः साधवः। उत्तिष्ठति च तत: पुनर्निषद्यायाः अभिनवाचार्यः। तत: गुरुः मौलाचार्य: स्वासनस्थितः स्वनिषद्यायां निषण्ण: सन् तस्य अभिनवाचार्यस्य कुरुते विदधाति गुणप्रशंसां गुणानामुपबृंहणम्। अन्ये आचार्या: तुशब्दो विशेषद्योतने प्रथममेव व्याख्यानादौ गुणप्रशंसाम् आहुः कथयन्तीति / / 147 / / गुणप्रशंसामाह - अयमनुयोगी प्राज्ञः प्रवचनकार्येषु नित्यमुद्युक्तः / योग्येभ्यो व्याख्यानं दद्यात् सिद्धान्तविधिनैव / / 148 / / टीका - अयम् अभिनवाचार्य: अनुयोगी जिनवचनव्याख्याता प्राज्ञः पण्डितः प्रवचनकार्येषु जिनशासनप्रयोजनेषु नित्यं सदा उद्युक्त: उद्यतो योग्येभ्य: वक्ष्यमाणमाध्यस्थ्यादिगुणगणोपेतेभ्य: व्याख्यानं वक्तृत्वं दद्यात् प्रयच्छेत् सिद्धान्तविधिना वक्ष्यमाणेन, न पुन: स्वमनीषिकयेति / / 148 / / श्रवणयोग्यानाह - मध्यस्था बुद्धियुताः प्राप्ता धर्मार्थिनश्च योग्याः स्युः / इह मार्जनादिपूर्वं विषयप्रज्ञापना च विधिः / / 149 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 52 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका- मध्यस्थाः सर्वत्राऽरक्तद्विष्टत्वेनाऽसद्ग्रहमुक्ताअत एव शुद्धाशया: प्राय आसन्नभव्याः, बुद्धियुता वस्तुगतगुणदोषान् गम्भीरतया प्रपद्यन्ते, प्राप्ताः पुनरावश्यकादिसूत्रस्य यावत् सूत्रकृताङ्गं यैरधीतमित्यर्थः, धर्मार्थिनश्च प्रियधर्मा अवद्यभीरवश्च चशब्दात् परिणामकादिपरिग्रहः, योग्याः प्रवचनार्थश्रवणस्य स्युः। अत एव तेषु व्याख्यातृपरिश्रमः सफलो भवति। एवम्भूता उत्सर्गापवादयोर्विषयविभागं सम्यक् परिणमयन्ति। अतिपरिणामकाऽपरिणामकानां तु कर्मदोषादहितमेव विज्ञेयं दोषोदये औषधतुल्यं विपर्ययकारीति तेभ्यस्तेषां हितार्थमेव व्याख्यानं न कुर्यादिति श्रीपूज्या आहुः - आमे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ / इअसिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ / / 982 ।।पंच-वस्तुके। अतो योग्येभ्यो विनेयेभ्य उपसम्पन्नेभ्यश्च यथाविधि व्याख्यानं कुर्यादिति। अथ विधिमाह - इह व्याख्यानप्रक्रमे मौनीन्द्रप्रवचने वा मार्जनादिपूर्वंमार्जनं व्याख्यानस्थानस्य आदिपदानिषद्या गुर्वादः, अक्षा उपनीयन्ते, कृतिकर्माऽऽचार्याय, कायोत्सर्गोऽनुयोगार्थं वन्दनं ज्येष्ठविषयम्, इह भाषमाणो भवति ज्येष्ठः, न तु पर्यायेण, ततो वन्देत तमेव। तदुक्तं च मज्जण निसिज्ज अक्खा, किइकम्मस्सग्ग वंदणं जितु / . भासंतो होइ जिट्ठो, न उ पज्जाएण तो वंदे / / 1001 / / (पञ्चवस्तुके) ततो विषयप्रज्ञापना च व्याख्यानविषयकथनं च विधिरिति / / 149 / / अथ व्याख्यातारमाश्रित्याह - व्याचक्षीत समभावं श्रोतुः परिभाव्य योग्यताभेदम् / अपि दृष्टिवादभेदं निर्मूढं वा तत: सूत्रम् / / 150 / / टीका - व्याचक्षीत व्याख्येयं समभावं मैत्री जगज्जीवेषु मोक्षमूलम् उपलक्षणात् तत्कार्यमहिंसादिकं यदि वा क्रियाविशेषणमेतत्, तथा च - यथा शिष्याणां तथैवोपसम्पन्नानामपि व्याचक्षीतेति। तथा - श्रोतॄणां यथाऽवगमो 'जायते आगमिकवस्तु आगमेन यथा स्वर्गेऽप्सरस: उत्तरा: कुरव इत्यादि, युक्तिगम्यं पुनर्युक्त्यैव यथा देहमात्रपरिणाम्यात्मेत्यादि, यदुक्तं च - जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे अआगमिओ। सो ससमयपण्णवओ, सिद्धंतविराहओ अन्नो / / 993 / / पञ्चवस्तुके। __ श्रोतुः श्रवणायोपस्थितस्य योग्यताभेदं तीव्रमन्दादिक्षयोपशमविशेषं परिभाव्य विचिन्त्य व्याख्यानं कुर्यात्। योग्यतरान् वा शिष्यान् ज्ञात्वा दृष्टिवादभेदमपि व्याख्यानयितव्यं, ततो वा दृष्टिवादाद्वा नियूंढम् समुद्धृतं नन्दीस्तवपरिज्ञादि सूत्रम् अल्पाक्षरत्वे सति बह्वर्थसूचकमिति / / 150 / / नियूंढलक्षणमाह - सम्यग्धर्मविशेषो यत्र कषच्छेदतापपरिशुद्धः / कथितस्तन्नियूढं वरश्रुतं स्तवपरिज्ञादि / / 151 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 53 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - यत्र ग्रन्थविशेषे सम्यग्धर्मविशेष: पारमार्थिकः कषच्छेदतापपरिशुद्धः विधिप्रतिषेधौ कषः, तत्सम्भवपालना चेष्टोक्तिच्छेदः, उभयनिबन्धनभाववादश्च तापः, एतत्त्रिभि: परीक्षालक्षणैः परिशुद्ध: त्रिकोटिदोषवर्जित इत्यर्थः, कथितो वर्णित: तत् सूत्रं नियूं समुद्धृतं दृष्टिवादादेः, नामग्राहमाह - वरश्रुतम् उत्तमश्रुतं स्तवपरिज्ञादि आदिपदाद् नन्द्यादिग्रहणमिति / / 151 / / अथ कषादिस्वरूपमाह प्राणवधप्रभृतीनां प्रतिषेधः पापकारणानां य / ध्यानाध्ययनादीनां यश्च विधिः स खलु धर्मकषः / / 152 / / बाह्यानुष्ठानेन द्वयं न बाध्येत यत्र नियमेन / सम्भवति च परिशुद्धं स पुनर्धर्मे स्मृतच्छेदः / / 153 / / जीवादिभाववादो बन्धादिसाधकश्च तापोऽत्र / एतैः खलु परिशुद्धो धर्मो धर्मत्वमुपयाति / / 154 / / टीका - प्राणवधप्रभृतीनां हिंसामृषावादादीनां पापकारणानां पापस्थानकानां सकललोकसम्मतानां यः प्रतिषेधः परिहारतया निषेध: शास्त्रे, ध्यानाध्ययनादीनां ध्यानं धर्म्यम् अध्ययनं चागमादीनामादौ येषामनशनादीनां ते तथा तेषां यश्च विधिः कर्तव्यतारूपेण तत्रैव शास्त्रे स एव खलुशब्दोऽवधारणे धर्मकष: धर्मसुवर्णपरीक्षायां कषो भवति / / 152 / / बाह्यानुष्ठानेन समितिगुप्त्यादीतिकर्तव्यतारूपेण द्वयं विधिप्रतिषेधलक्षणं न नैव बाध्येत असङ्गतिमापद्येत यत्र उपदेशेऽर्थे वा, तथा - नियमेन अवश्यंतया सम्भवति च शक्यानुष्ठानतया परिशुद्धं निरतिचारं पालनं विधिप्रतिषेधयोः स पुन: धर्मे धर्मसुवर्णपरीक्षायां स्मृत: कथितोऽर्हद्भिः छेदः / / 153 / / यश्च जीवादिभाववादः परिणाम्यात्मकर्मप्रभृतिपदार्थवाद: बन्धादिसाधकश्च बन्धमोक्षादिसाधकश्च शास्त्रे स तापः स्मृतः अत्र धर्मसुवर्णपरीक्षायाम्। एतैः कषच्छेदतापैः परीक्षालक्षणैः खलु शब्दोऽवधारणे परिशुद्ध एव धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणो धर्मत्वमुपयाति सम्यग्भवतीति / / 154 / / कषादिपरिशुद्धधर्मे फलाऽविसंवादेन वञ्चनाऽभावाज्जीवो मुक्तिसुखानुबन्धीनि सर्वाणि कल्याणानि प्राप्नोतीत्याह - कल्याणान्यत्र स्युः पुंसः सम्प्राप्तमोक्षबीजस्य / सुरमनुजेशसुखानि प्रतिपूर्णसुखानुबन्धीनि / / 155 / / टीका - कल्याणानि श्रेयांसि च अत्र परिशुद्धधर्मे स्युः जायेरन् पुंसः सत्त्वस्य सम्प्राप्तमोक्षबीजस्य अआप्तसम्यक्त्वस्य निराशंसभावात् सुरमनुजेशसुखानि देवेन्द्रनरेन्द्रशर्माणि प्रतिपूर्णसुखानुबन्धीनि शिवशर्मानुबन्धीनीति / / 155 / / मोक्षबीजमाह - भूतार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वं मोक्षबीजमात्राहुः / भूतार्थवाचकात्तच्छुतात्तदाप्तस्य वचनं तु / / 156 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 54 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - भूतार्थश्रद्धानं सद्भूतपदार्थाऽऽस्था सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं मोक्षबीजम् आद्यमोक्षकारणम् अत्र मौनीन्द्रप्रवचने शुद्धधर्मविचारे वा तदुक्तं - तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं (तत्त्वार्थ सूत्र अ.१-२)। तत् सम्यक्त्वं च जीवानां प्रादुर्भवति भूतार्थवाचकात् सद्भूतपदार्थवाचकात् श्रुताद् जिनागमात् सकाशात्। तत् श्रुतं च आप्तस्य क्षीणरागादिदोषस्य वचनं भाषितमेव तुशब्दोऽवधारणेन पुनरपौरुषेयं वचनं पुरुषव्यापाराभावेऽनुपलब्धेरिति / / 156 / / पर आह - ननु तदपि ततो न स्यात्, व्यभिचारस्योपलम्भतो व्यक्तम् / यदनन्तशः श्रुताप्तिः श्रुते श्रुता द्रव्यलिङ्गवताम् / / 157 / / टीका - ननु आक्षेपे तत् सम्यक्त्वम् अपि शब्दः सम्भावनायां भिन्नक्रमश्च ततः श्रुताद् न नापि स्याद् जायेत, व्यभिचारस्य तद्भावभावित्वाभावलक्षणस्य उपलम्भत : अनुभवात्। व्यभिचारं प्रदर्शयति परः - यद् अनन्तश: अनन्तकृत्वः श्रुताप्तिः श्रुतसामायिकस्य प्राप्ति: द्रव्यलिङ्गवतां द्रव्यतो रजोहरणादिलिङ्गधारकाणां यत: सांव्यवहारिकराशिपतितानां सर्वजीवानां ग्रैवेयकेषूपपात: अनन्तशो भणित: स च न विना जिनलिङ्गं, तत्र च सूत्रपौरुष्यादेर्नित्यकर्तव्यतया जिनप्रज्ञप्तत्वात्, श्रुते आगमे श्रुता श्रवणगोचरमागता, तथापि तेषां सम्यक्त्वं न जातमिति / / 157 / / अत्र ग्रन्थकार: प्रतिविधत्ते - ... सत्यं तत्प्राप्तावपि वीर्यं नोल्लसितमेव जीवस्य / हेतुश्च तदुल्लासे प्रायः श्रुतमेव को दोषः? / / 158 / / टीका - सत्यम् अर्धस्वीकारे, तत्प्राप्तावपिश्रुतप्राप्तावपि वीर्यमेव सामर्थ्यमेव कर्मविजयाय तथास्वभावत्वाद् नोल्लसितं नाविर्भूतं जीवस्य द्रव्यलिङ्गिनः, तथापि हेतुश्च कारणं पुन: तदुल्लासे वीर्योल्लासे प्रायो निसर्गतस्तदुल्लासव्यवच्छेदेन बाहुल्यात् श्रुतमेव जिनवचनमेवेति को दोषः? नास्ति कोपि दोष इति / / 158 / / कथमेतदेवमित्याह - असकृदपि क्षाराद्यैः प्राप्तैरप्राप्तवेधपरिणामः / वेधं शुद्धिं च यथा जात्यमणिर्याति तैरेव / / 159 / / टीका - असकृदपि अनेकशोऽपि क्षाराद्यैः क्षारमृत्पाकादिभि: तथास्वभावतया प्राप्तैरपि अवाप्तैरपि अप्राप्तवेधपरिणाम : अनासादितशुद्धिपूर्वरूप: यथा येन प्रकारेण जात्यमणि: पद्मरागादि: तैरेव क्षाराद्यैः वेधं शुद्धिपूर्वरूपं शुद्धिं च नैर्मल्यं च याति प्राप्नोति, दृष्टान्ते जात्यमणिग्रहणाद् दार्टान्तिकेऽभव्यानां तद्व्यवच्छेदो ज्ञेयः, तथा भव्यो वीर्योल्लासं शुद्धिं च श्रुतादेव प्राप्नोतीति / / 159 / / एतदेवाह अकलितवीर्योल्लासस्तथा श्रुतादनन्तश: प्राप्तात् / लभते वीर्योल्लासं भव्य : शुद्धिं च तत एव / / 160 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 55 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका- तथा तेन प्रकारेण अकलितवीर्योल्लास: अनासादितवीर्योल्लास: अनन्तशः अनन्तवारं प्राप्ताद् लब्धात् श्रुतात् श्रुतधर्माद् लभते प्राप्नोति वीर्योल्लासं निरुक्तलक्षणं शुद्धिं सम्यक्त्वादिक्रमेण मुक्तिपर्यवसानां निर्मलतां लभते प्राप्नोति तत एव श्रुतादेवेति न कोऽपि दोष इति / / 160 / / एवमपि कुत:? इत्याह - अस्यैव हि स्वभावो यदतीतेषु श्रुतादियोगेषु / लभते वीर्योल्लासं भव्यः शुद्धिं च बुद्धिं च / / 161 / / टीका - हि हैतौ यस्माद् अस्यैव भव्यसत्त्वस्यैव, न पुनरभव्यसत्त्वस्य, स्वभावः स्वरूपं यद् यथा तस्य यावन्तस्ते श्रुतादियोगास्तावत्सुअतीतेषु व्यपगतेषु श्रुतादियोगेषु द्रव्यश्रुतसम्बन्धिषु ततः स्वभावाद् लभते आसादयति वीर्योल्लासं निरुक्तलक्षणं भव्यः आसन्नसिद्धिकः, तेन वीर्योल्लासेन ग्रन्थिं भित्त्वा शुद्धिं सम्यक्त्वादिलक्षणां बुद्धि च मतिश्रुतादिकेवलज्ञानावसानां च, तत: सिद्ध्यतीति / / 161 / / नन्वेवं भणता भवता स्वभाववादाभ्युपगमेन परित्यक्त: कर्मवाद इत्याशङ्कयाह - नैवं स्वभाववादः स्याद्वादेऽन्तरभवंश्च दोषाय / सहकारिवशाच्चित्रं भव्यत्वं च स्वभावोऽत्र / / 162 / / टीका - न नैव एवं स्वभावादिसमुदायरूपेण हेतुवादे स्वभाववादः उक्तलक्षण: स्याद्वादे अन्योऽन्यापेक्षालक्षणे अन्तर्भवन् समाविशन् दोषाय बाधायै यत: सहकारिवशात् कर्मपुरुषकारादिसहकारिकारणवशात् चित्रं तीर्थकृत्वादिफलभेदप्रभृतिना तथापाकादियोग्यत्वाद्वैविध्यवद्भव्यत्वम् अनादिपारिणामिकभावलक्षणम् एव चशब्दो निर्धारणे स्वभावः उपक्रमणादिरूप: आत्मभूतः स्वो भावः अत्र कार्यकारणभावविचार इति / / 162 / / ननु भव्यत्वमेव चित्रमिति कथमभ्युपेयमित्याशङ्क्याह - तदचित्रत्वे सिद्धेः कालादिभिदा कदापि न घटेत / कर्मादिभिरपि तदुपक्रमे च तच्चित्रता बीजम् / / 163 / / टीका - तदचित्रत्वे तस्य भव्यत्वस्याऽचित्रत्वे तुल्यत्वे ऋषभवर्धमानगौतमादीनां सिद्धेः सिद्धिगमनस्य कालादिभिदा कालक्षेत्रादिभेद: कदापि कस्मिन्नपि काले न नैव घटेत युक्तियुक्त: स्यात्। अथ कर्मादिभिस्तदुपक्रमे कालादिभेदो घटेतेति चेद, उच्यते - कर्मादिभिरपि कर्मपुरुषकारादिभिरपि तदुपक्रमे भव्यत्वपरिपाके च तच्चित्रता भव्यत्वगतचित्रत्वमेव बीजं हेतुः, यस्मात्तच्चित्रत्वमेव कर्मादीनि तथाऽऽक्षिपतीति / / 163 / / अन्यथा - नो चेदभव्यजीवस्वभावमपि तानि किं न विजयेरन् / तद्व्यापाराभावेऽप्यस्मिन्नन्विष्यतां बीजम् / / 164 / / टीका - नो चेद् अन्यथा अभव्यजीवस्वभावमपि तानि कर्मादीनि किं न विजयेरन् ? विजयेरनेव।न च विजयन्ते तस्मात् कालादिभेदेन सिद्धिगमनस्य बीजं चित्रं भव्यत्वमेवाऽभ्युपगन्तव्यम्। ननु कर्मादीनां तद्विजये व्यापाराभाव इति न दोष इति चेद्, उच्यते - आस्तां भव्यस्य सिद्धिगमने कर्मादीनां व्यापारे तद्व्यापाराभावेऽप्यस्मिन् महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 56 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभव्यस्वभावे कर्मादीनामभव्यस्वभावं जेतुं व्यापाराभावेऽपि बीजं निदानम् अन्विष्यतां मार्गयताम्। इदमुक्तं भवतिअत्र बीजं तु तथाचित्रस्वभावमृतेऽपरं किञ्चिद् ब्रह्मणाऽपि न वक्तुं पार्यत इति / / 164 / / एतदेव भावयति - तत्रैव तानि किञ्चित् फलमथ जनयन्ति नापरत्रेति / ननु तेष्विव स्वभावो भिदां व्रजेदाश्रयेऽप्येवम् / / 165 / / टीका - अथ विकल्पे तत्रैव भव्य एव तानि कर्मादीनि कारणभावेन किञ्चित् सम्यक्त्वादिलक्षणं फलं कार्यं जनयन्ति निष्पादयन्ति, न नैव अपरत्र अभव्ये, इति हेतोः, ननु आमन्त्रणे, एवं तेष्विव कर्मादिष्विव आश्रयेऽपि कर्मादीनामाधारभूते भव्याऽभव्यलक्षणे जीवेऽपि स्वभावो भव्यत्वाऽभव्यत्वरूपो भिदां भेदं व्रजेत् प्राप्नुयादिति / / 165 / / नन्वेवं विनिगमकाभाव इत्याशङ्क्याह - विनिगमकाभावादपि हेतूनामिति फले मिथोऽपेक्षा / . इत्थमभिप्रेत्यैतत् सम्मत्यां निजगदे सुधिया / / 166 / / टीका- इति अनन्तरोक्तनित्या यथोपादनकारणं स्वकार्यसिद्धौ सहकारिकारणानि अपेक्षते तथा सहकारिकारणानि अपि फलजनने उपादानं परस्परं चापेक्षन्ते। एवं विनिगमकाभावाद् एकतरपक्षपातियुक्तिविरहाद् अपिशब्द: समुच्चये हेतूनां कालादिकारणानां फले कार्यजनने मिथ: परस्परम् अपेक्षा आवश्यकताऽनिवार्या / इत्थम् एवम् अभिप्रेत्य अभिसन्धाय एतद्वक्ष्यमाणलक्षणं सम्मत्यां सम्मतितर्कप्रकरणग्रन्थे निजगदे समगीर्यत सुधिया श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणेति / / 166 / / यन्निगदितं तदाह - कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसकारणेगंता / मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्मत्तं / / 167 / / टीका - काल एवैक: सर्वस्याऽस्य जगत: कारणं तथा स्वभाव एव नियतिरेव पूर्वकृतमेव पुरुषकार एव कारणमेकान्ताद् अपरनिरपेक्षतया कालादीनां कारणत्वेनाऽभ्युपगमा मिथ्यात्वं मिथ्यावादः। त एव कालादय एव तुशब्दो विशेषद्योतने समासत: परस्पराजहद्वृत्तय: कारणतयाऽभ्युपगम्यमाना भवन्ति सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते सम्यक्त्वरूपताम्।अयं भाव :- कालादिप्रत्येकैकान्तकारणरूपो मिथ्यावादस्तथा परस्परसव्यपेक्षकालादिकारणलक्षण: सम्यग्वादः / अत्र बहुवक्तव्यं तत्तु सम्मत्यादिग्रन्थतोऽवसेयमिति / / 167 / / अत्र बौद्ध आह - तदपि न चित्रत्वं चेदनेकजननैकस्वभावत्वात् / क्षणिकसमर्थात् स्वफलोपनतेरपि च प्रतिव्यक्ति / / 168 / / टीका - आस्तां सहकारिवशाच्चित्रत्वाभाव:, तदपि तस्मात् समुदयवादादपि स्वभावस्य चित्रत्वं नानात्वंन नैवाभ्युपगम्यते इति शेषः, क्षणिकसमर्थात् कुर्वद्रूपवतोऽर्थात् सकाशात् प्रतिव्यक्ति स्वसन्तानगतोत्तरक्षणं प्रति परकीयसन्तानगतज्ञानक्षणं प्रति च स्वफलोपनते: स्वलक्षणजन्यतत्तत्कार्यनिष्पत्तेः, अत्र हेतुमाह - अनेकजननैकस्वभावत्वात् स्वलक्षणस्य स्वभावैकत्वे सति अपि अनेककार्यजननसामर्थ्यात्। एवं जैनमतेऽपि |महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 57 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्मादेव भव्यत्वस्वभावात् सम्यक्त्वचारित्रादिप्राप्तिस्तथा तत्प्राप्तौ कालादिसमवधानमुपपत्स्यते इति चेद्, न, नानासामर्थ्यस्वभावत्वेन सर्वथैकत्वविरोधात्। आह - स्वभावभेदाद् न भावभेदः, अपि तु विरुद्धस्वभावभेदात्, तत्तत्कार्यजनकत्वाऽजनकत्वे चाऽक्षणिकस्य विरुद्धौ स्वभावौ, उपादानत्वसहकारित्वशक्त्योश्च न विरोध इति चेद्, न, तथाप्यनेकशक्तितादात्म्यानुविद्धकरूपक्षणाद्यभ्युपगमेऽनेकान्ताभ्युपगमोऽनिवारितप्रसर इति / / 168 / / एतदेवाह - नैवं नामान्तरतः स्याद्वादोपगमपर्यवसितत्वात् / एकान्तस्याऽघटना विकल्पत: कात्य॑देशाभ्याम् / / 169 / / टीका - नैवं अनन्तरगाथायां बौद्धेन यथोक्तं तथा नैवाभ्युपगम्यते इत्यर्थः, अत्र हेतुमाह - नामान्तरत: अनेकशक्तितादात्म्यानुविद्धैकरूपाद्यक्षणाभ्युपगमद्वारा व्यपदेशभेदेन स्याद्वादोपगमपर्यवसितत्वाद् अनेकान्तवादस्वीकारपर्यवसानात्। हेत्वन्तरमाह - एकान्तस्य एकान्तकस्वभावस्य अघटनाद् युक्त्याऽनुपपन्नत्वा विकल्पतः कात्य॑देशाभ्याम, तथाहि-स्वलक्षणं वस्तूत्तरक्षणे अन्यसन्ततिगतज्ञानक्षणजनने कात्स्येंन - सामस्त्येन व्याप्रियेत एकदेशेन वेति विकल्पद्वये प्रथमविकल्पे अन्यतरस्यैवोत्पत्तिः, न तूभयस्य, सामस्त्येनैककार्यकरणे व्यग्रत्वात्। द्वितीये तु सिद्धम् एकस्याऽनेकस्वभावत्वम् एकत्वेऽपि देशभेदादिति / / 169 / / ननु नास्ति स्वभावभेदेन सांशतापत्तिः, बीजस्वलक्षण एवान्यस्मिन् क्षणेऽकूरीभवति। नास्त्यत्र कश्चित् स्वभावप्रभावः, तस्यैव तथाभवनात्। एक एव स्वभाव: परसन्ततौ ज्ञानमुत्पादरति। तत: कथं स्वभावभेदेनाऽनेकान्तवादप्रसङ्ग इति चेद्, उच्यते - तस्यैव तथाभवने नो हातुं पार्यतेऽन्वयोऽर्थानाम् / व्यतिरेकोऽपि क्रमिकस्वकार्ययोगादितीयं दिक् / / 170 / / . टीका - तस्यैव यथा मृत्पिण्डस्यैव तथाभवने घटभवने नो नैव हातुम् अपलपितुं पार्यते शक्यते अन्वयो मृत्तिका मृत्तिकेति अनुगताकारा बुद्धिः, व्यतिरेकोऽपि पिण्डश्च घटश्चेति व्यावृत्ताकारा बुद्धिरपि तथा बीजस्यांकूरीभवने न हातुं पार्यतेऽन्वयो व्यतिरेकश्च। न चैतद् वाच्यम् - विरोधादेकं वस्तु नोभयरूपमिति, तथासंवेदनाद्। एतदेवाह - क्रमिकस्वकार्ययोगात् स्थासककोशकुशूलशिवकघटादिक्रमभाविमृत्तिकाकार्यसम्बन्धवद् अंकूरकिशलयपत्रादिबीजकार्ययोगात्। इति एवं मार्गानुसारित्वसम्यक्त्वचारित्रप्रभृतिविभिन्नावस्थासु जीवद्रव्यस्याऽन्वयो हातुंन पार्यते तथैव मार्गानुसारित्वसम्यक्त्वचारित्रलक्षणक्रमभाविभव्यत्वकार्ययोगाव्यतिरेकोऽपि न हातुं पार्यते। एवं सर्वत्रैकानेकनित्यानित्यसदसत्प्रभृतिधर्मेषु इयं दिग्अनुसर्तव्या। इदमुक्तं भवति - अनन्तरोक्तनीत्या द्रव्यरूपेणैकत्वं स्वभावलक्षणगुणपर्यायप्रदेशभेदैश्चाऽनेकत्वम्, एवं द्रव्यरूपेण नित्यत्वं पर्यायरूपेण चानित्यत्वम्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्त्वं परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चाऽसत्त्वमित्याद्यनन्तधर्मात्मकवस्तुतत्त्वं सूक्ष्मधिया विचारणीयमिति भावः / इदमपिध्येयम् - सकलमपि त्रिलोकीगतं मृदादिद्रव्यमात्मनैव प्रतिक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम्, कुलालदण्डादयस्तु घटघटिकाकपालादिविशेषकरणे एव व्याप्रियन्त इति / / 170 / / ततश्च |महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 58 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादादित्थमयं वीर्योल्लासंक्रमात् समासाद्य / सम्यक्त्वं द्रव्याख्यं भावं चरणं च शिवमेति / / 171 / / ___टीका - स्याद्वादाद्अन्योऽन्यापेक्षया इत्थं स्वभावादिसमुदायादेव अयं भव्यसत्त्वो वीर्योल्लासं तथाविधसामर्थ्योदयं ततः क्रमाद् उत्तरोत्तरं वक्ष्यमाणसम्यक्त्वादीनि समासाद्य सम्प्राप्य ततो द्रव्याख्यं सम्यक्त्वं वक्ष्यमाणलक्षणं ततो भावं भीमो भीमसेन इति न्यायाद्भावसम्यक्त्वं वक्ष्यमाणस्वरूपं तत: चरणं चारित्रं चशब्दाद् तथाविधोत्कृष्टोपशमं तत: केवलज्ञानं ततश्च शिवं मोक्षम् एति प्राप्नोतीति / / 171 / / द्रव्यसम्यक्त्वादिस्वरूपमाह द्रव्याख्यं सम्यक्त्वं जिनवचनं तत्त्वमिति रुचिः परमा / भूतार्थबोधशक्त्या परिणमते भावसम्यक्त्वम् / / 172 / / टीका - द्रव्याख्यं सम्यक्त्वं प्रधानद्रव्यसम्यक्त्वमित्यर्थः, किंस्वरूपम्? जिनवचनमेव तत्त्वं नान्यदिति परमा उच्चतमा रुचिः स्वारस्यलक्षणा द्रव्यसम्यक्त्वम् अनाभोगवद्रुचिमात्रम्। तथा चागम :____ तमेव सच्चं नीसंकं सच्चं जं जिणेहिं पवेइयं ।।आचाराङ्ग सू.(१-५-५-)१६३ / / ‘परमटे सेसे अणद्वे' 'इणमेव निग्गंथे पावयणे अटे' इत्यादि एतदेव द्रव्यसम्यक्त्वं भूतार्थबोधशक्त्या यथावस्थितवस्तुग्रहणशक्त्या परिणमते परिशुद्धश्रद्धास्वरूपमापद्यते तदा भावसम्यक्त्वं नैश्चयिकसम्यक्त्वं प्रोच्यते तीर्थकरगणधरादिभिः प्रशमादिस्वकार्यकारित्वादिति / / 172 / / एतदेव भावयति - . अज्ञातगुणे सम्यग् या श्रद्धा भवति सुन्दरे रत्ने / हन्त ततोऽनन्तगुणा विज्ञातगुणे पुनस्तस्मिन् / / 173 / / टीका - सम्यक् समीचीनतया अज्ञातगुणे मनाग्ज्ञातगुण इत्यर्थः, सुन्दरे शोभने रत्ने चिन्तामण्यादौ या ... श्रद्धा उपादेयविषया रुचि: भवति जायते, हन्तशब्दो हर्षे तत: अनन्तरोक्तश्रद्धासकाशात्तीव्रतया अनन्तगुणा श्रद्धा विज्ञातगुणे अनुभूतस्वभावे पुनस्तस्मिन् सुन्दररत्ने जायते तथा द्रव्यसम्यक्त्वगतश्रद्धाऽपेक्षया भावसम्यक्त्वसत्का श्रद्धा बोद्धव्येति / / 173 / / तत: किमित्याह - प्रशमादिलिङ्गजनकं शिवबीजं तेन भावसम्यक्त्वम् / श्रुतधर्मस्तद्धेतुः परीक्षणीयस्ततो यत्नात् / / 174 / / - टीका - येन कारणेन प्रशमादिलिङ्गजनकं प्रशमसंवेगनिर्वेदादिलिङ्गनिष्पादकं भावसम्यक्त्वं नैश्चयिकसम्यक्त्वं तेन कारणेन परिशुद्धचरणपरिणामजनकत्वेन भवोपग्राहिकर्मक्षयकारित्वात् शिवबीजं मोक्षाऽऽद्यकारणम्। प्रासङ्गिकमभिधाय प्रस्तुतमाह - यस्मात् श्रुतधर्म: चारित्रधर्मव्यवस्थाकारी तद्धेतुः भावसम्यक्त्वस्य बाहुल्येन जनक: | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 59 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत: तस्मात् परीक्षणीयः कषादिभि: यत्नात् सूक्ष्मधिया विचारणालक्षणाद्, न तु यथाकथञ्चिदिति / / 174 / / कषलक्षणमाह - सूक्ष्मोऽस्त्यशेषविषय: सावध यत्र कर्मणि निषेधः / रागादिकुट्टनसहं ध्यानं च स नाम कषशुद्धः / / 175 / / टीका - यत्र श्रुतधर्मे सूक्ष्मो निपुणः अस्ति विद्यते अशेषविषय: व्याप्त्येत्यर्थः, सावखे पापे कर्मणि अनुष्ठाने निषेधः प्रत्याख्यानं तथा रागादिकुट्टनसहं रागद्वेषादिनिर्दलनसमर्थं ध्यानं ध्येयविषयैकप्रत्ययसन्ततिलक्षणं चशब्दादध्ययनादिग्रहः स एव श्रुतधर्म: नामशब्दो निश्चये कषशुद्धः कषपरीक्षया शुद्ध उत्तीर्ण इति / / 175 / / . इत्थं लक्षणमभिधायोदाहरणमाह - नो कार्या परपीडा यथाऽत्र मनसा गिरा च वपुषा च / ध्यातव्यं च नितान्तं रागादिविपक्षजालम् / / 176 / / टीका - नो न कार्या विधातव्या परपीडा परस्य व्यथा मनसा चित्तेन गिरा च वाचा च वपुषा च कायेन च कारणभूतेन तथा ध्यातव्यं च नितान्तं मुहुर्मुहुर्भावनाविषयकरणीयं रागादिविपक्षजालं रागाद्यशुभभावेन जीवोऽत्यर्थं कर्मणां बन्धको भवति तथा विपक्षे शुभपरिणामे सति कर्मणां क्षपको भवति। तत: अर्थविषये रागभावे अर्थस्योपार्जनादिसङ्क्लेशं, द्वेषे सति चेतनविषये मैत्री तथा मोहे च सति वस्तुस्वभावमित्यादि विपक्षजालं ध्यातव्यम्। एवम्भूतो विधि निषेधो पत्रोपलभ्यते स धर्म: कषशुद्धो विज्ञेय इति / / 176 / / / अथ कषाशुद्धलक्षणमाह - स्थूलो न सर्वविषयः सावध यत्र कर्मणि निषेधः / रागादिकुट्टनसहं न ध्यानाद्येष तदशुद्धः / / 177 / / टीका - यत्र श्रुतधर्मे स्थूल: अनिपुणः, न सर्वविषय: अव्यापक: सावध सपापे कर्मणि अनुष्ठाने निषेधः प्रतिबोध: तथा रागादिकुट्टनसहं रागादिदोषविघटनसमर्थं न नैव ध्यानादि - अक्षरध्यानादि एष श्रुतधर्मः तदशुद्ध H कषाऽशुद्ध इति / / 177 / / अथ कषाशुद्धनिदर्शनमाह - बहुभिः पञ्चभिरेका हिंसाऽत्र यथा मृषा विसंवादे / ध्यानेन ध्यातव्यं तत्त्वमकारादिकं चेति / / 178 / / टीका - यथा निदर्शने अत्र कषाऽशुद्धे श्रुतधर्मे बहुभिः एकेन्द्रियादिभि: एका सङ्ख्यया तथा पञ्चभिः वक्ष्यमाणैः कारणैः हिंसा प्राणातिपातलक्षणा भवति तथा मृषा मृषावादो विसंवादे वास्तव इति, तथा ध्यानेन कारणभूतेन ध्यातव्यं ध्यानविषयकर्तव्यं तत्त्वम् परात्मस्वरूपम् अकारादिकं वक्ष्यमाणं च समुच्चये इति समाप्तौ / / 178 / / अनन्तरोक्तगाथार्थविषयं यदन्यैरुक्तं तदाह - "अनस्थिमतां शकटभरेणैको घात:" महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 60 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा / प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा / / 1 / / तथा असन्तोऽपि स्वका दोषा: पापशुद्ध्यर्थमीरिताः / न मृषायै विसंवाद-विरहात्तस्य कस्यचित् / / 1 / / तथा ब्रह्मोकारोऽत्र विज्ञेयः अकारो विष्णुरुच्यते / महेश्वरो मकारस्तु त्रयमेकत्र तत्त्वत इति / / 179 / / अन्यत्र त्वेवमुक्तम् अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः। मकारस्तु स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु त्रयात्मकः / / 1 / / / / 179 / / अथ छेदमाश्रित्याह- . नित्योद्युक्ततया या संयमयोगेषु विविधभेदेषु / वृत्तिर्धार्मिकसाधोस्तद्बाह्यं स्यादनुष्ठानम् / / 180 / / एतेन विधिनिषेधौ बाध्येते यत्र नैव नियमेन / सम्भवतः परिशुद्धौ बुवते तं छेदपरिशुद्धम् / / 181 / / ... टीका- नित्योद्युक्ततया सदाऽप्रमत्ततया या संयमयोगेषु कुशलव्यापारेषु विविधभेदेषु अनेकप्रकारेषु वृत्ति: वर्तना धार्मिकसाधो: धर्मप्रियस्य यते: तद् अनन्तरोक्तवृत्तिलक्षणं बाह्यं स्याद्भवेद् अनुष्ठानम् / / 180 / / एतेन अनन्तरोक्तानुष्ठानेन विधिनिषेधौ प्राग्व्यावर्णितस्वरूपौ नैव बाध्येते न विरोधमापद्येते अपितु सम्भवतश्च वृद्धि यात: नियमेन अवश्यंतया यत्र यथोदितानुष्ठानप्रतिपादके श्रुतधर्मे तं श्रुतधर्मं तत्प्रतिपादकं वाऽऽगमं परिशुद्धौ छेदपरिशुद्धौ ब्रुवते तीर्थकरगणधरादयः छेदपरिशुद्धं छेदेन परिशुद्धमिति / / 181 / / अत्रोदाहरणमाह - समितिषु पञ्चसु च यथा तिसृषु च गुप्तिषु सदाऽप्रमत्तेन / विधिना यतिना कार्यं कर्तव्यं कायिकाद्यपि हि / / 182 / / अपि च प्रमादजनकास्त्याज्या वासादयः परम्परया / मधुकरवृत्त्या भिक्षालब्ध्याऽऽत्मा पालनीयश्च / / 183 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 61 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - यथा दृष्टान्ते पञ्चसुच समितिषु ईर्यासमित्यादिरूपासु तिसृषु च गुप्तिषु मनोगुप्त्यादिषु सदाऽप्रमत्तेन नित्योद्युक्तेन सता विधिना जिनोक्तेन यतिना साधुना सर्वमेव कार्यम् अनुष्ठानं कर्तव्यं विधातव्यम्, आस्तां ध्यानाध्ययनादि कायिकाद्यपि प्रस्रवणाद्यपि। हिशब्द: पूरण इति / / 182 / / अपि च समुच्चये ये प्रमादजनका: विषयकषायविकथादिलक्षणप्रमादहेतवः, न केवलं साक्षात् परम्परया अपि वासादय: वसत्यादय: आदिशब्दात् स्थानदेशपरिग्रह: तेऽपि त्याज्या वर्जनीयाः। तथा - मधुकरवृत्त्या गृहिकुसुमपीडापरिहारेण भिक्षालब्ध्या एषणाशुद्धभिक्षालाभेन आत्मा संयमदेहः पालनीयः रक्षणीय एव चशब्दोऽवधारणे, नाऽकाले त्याज्य इति / / 183 ।।अत्र व्यतिरेकमाह यत्र प्रमादयोगात् संयमयोगेषु विविधभेदेषु / नो धार्मिकप्रवृत्तिर्बुवते खलु तदननुष्ठानम् / / 184 / / एतेन यत्र बाध्यौ वर्धते नैव विधिनिषेधौ च / छेदेनापरिशुद्धं तं ग्रन्थं प्राहुराचार्याः / / 185 / / टीका - यत्र बाह्यानुष्ठाने प्रमादयोगात् अनादरयोगदुष्प्रणिधानादिलक्षणात् संयमयोगेषु संयमव्यापारेषु विविधभेदेषु विचित्रेषु नो न धार्मिकप्रवृत्ति : अनन्तरोक्तसमितिगुप्तिपालनपूर्विका तद् बाह्यानुष्ठानं बुवते आहुस्तीर्थकरगणधरादयः खलुशब्दोऽवधारणे अननुष्ठानमेव तत्कार्याऽसाधकत्वादिति / / 184 / / एतेन अनुष्ठानाभासेन यत्र आगमग्रन्थे बाध्यौ विरोध्यौ विधिनिषेधौ नैव वर्धते वृद्धिं च प्राप्तुत: तं ग्रन्थं छेदेनापरिशुद्धं छेदाऽशुद्ध, प्राहुः ब्रुवन्ति आचार्याः धर्माऽविरुद्धव्यापारवन्तः। तदुक्तं - आचिनोति शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि / स्वयमाचरेद्यस्तु स आचार्य इति स्मृतः / / 1 / / (सर्वलक्षणसङ्ग्रहः) 1 / 185 / / अत्रैव निदर्शनमाह सङ्गीतकादिकार्ये देवानामुद्यमो यथा नु यतेः / अपि चान्यधार्मिकाणामुच्छेदोऽसभ्यवचनं च / / 186 / / टीका - यथा उदाहरणे देवानाम् अर्हदादीनां सङ्गीतकादिकार्ये वादित्रगीतादिप्रयोजने नुशब्दोऽनुज्ञायां यते: साधो: उद्यम उद्योगः, अपि च समुच्चये अन्यधार्मिकाणां तीर्थान्तरीयाणाम् उच्छेदो विनाशः, असभ्यवचनं वक्ष्यमाणं ब्रह्मघातकोऽहमित्याद्यभिधानं चशब्दाद्भूत्क्षेपादिना कन्दर्पादिकरणम्। एतद्विषयं यदन्यैरुक्तं तद् ग्रन्थकार आह सङ्गीतकेन देवस्य प्रतरावरणवाद्यत: / तत्प्रीत्यर्थमतो यत्नस्तत्र कार्यो विशेषत: / / 1 / / तथा |महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 62 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यधर्मस्थिता: सत्त्वाअसुरा इव विष्णुना। उच्छेदनीयास्तेषां हि वधे दोषो न विद्यते / / 2 / / तथा - ब्रह्मघातकोऽहमित्यादिवचनात् तद्वेदनीयकर्मक्षय इति। तथा - भोजनं गृह एवैकान्नं तदनुग्रहाय, तथा असिधारादि चैतत् प्रकृष्टेन्द्रियजयाय। निगदसिद्ध सर्वमेतद् नवरं तद्वेदनीयकर्मक्षयः ब्राह्मणजीवगतशातवेदनीयकर्मक्षय इति। एतत्सर्वं पापं पापहेतुत्वाद् बाह्यमनुष्ठानमशोभनमिति / / 186 / / साम्प्रतं तापविशुद्धमाह - जीवादिभाववादो दृष्टेष्टाभ्यां न यः खलु विरुद्धः / / तापविशुद्धः सोऽन्यो द्वाभ्यामपि नैव शुद्धः स्यात् / / 187 / / टीका - यो जीवादिभाववादो जीवाजीवादिपदार्थनिरूपणविशेषः दृष्टेष्टाभ्यां वक्ष्यमाणाभ्यां न नैव खलुशब्दोऽवधारणे विरुद्धः विरोधभाक् स एव जीवादिभाववाद: तापशुद्धः तापेन भवति शुद्धः, अन्य एतेनाऽशुद्धः द्वाभ्यामपि कषछेदाभ्यामपि नैव शुद्धः स्याद् भवेदिति। अयं भाव: - तापेनाऽशुद्ध आगमग्रन्थः कषछेदाभ्यामपि न तत्त्वत: शुद्ध इति / / 187 / / अत्रैव दृष्टान्तमाह - इह सदसदादिरूपे जीवे बन्धादि युज्यते सर्वम् / नानीदृशे तु किञ्चित् वरश्रुतं शुद्धमित्थं तत् / / 188 / / टीका - इह कषछेदतापपरिशुद्धे श्रुतधर्मे सदसदादिरूपे जीवे स्वरूपपररूपाभ्यां सदसद्रूपे आदिपदाद् नित्यानित्याद्यनेकधर्मिणि च द्रव्यपर्यायाभिधेयपरिणामाद्यपेक्षया बन्धादि बन्धमोक्षसुखदुःखादि सर्वं युज्यते घटते, उक्तं च आत्मास्ति स परिणामी बद्धः सत्कर्मणा विचित्रेण / मुक्तश्च तद्वियोगाद्धिंसाऽहिंसादि तद्धेतुः / / 1 / / नानीदृशे नैवाऽन्यथारूपे तुशब्दो विशेषद्योतने किञ्चिद् बन्धादि युज्यते। इत्थम् अनन्तरोक्तप्रकारेण यत्र बन्धादि युज्यते तद्वरश्रुतं जिनोपज्ञं कषछेदतापैः शुद्धम् उपादेयं प्राज्ञेन। इदं त्वत्रध्येयम् - न चस्वसत्त्वमेवाऽन्याऽसत्त्वम्, अभिन्ननिमित्तत्वेसदसत्त्वयोर्विरोधात्, तथाहि-सत्त्वमेवाऽसत्त्वमितिव्याहतं, न च तत्तत्र नास्ति, स्वसत्त्ववदसत्त्वे ' तत्सत्त्वप्रसङ्गादिति पररूपासत्त्वधर्मकं स्वरूपसत्त्वं विशिष्टं भवति, अन्यथावैशिष्ट्याऽयोगात्। इदमुक्तं भवति-न हि येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवाऽसत्त्वं, येनैव चाऽसत्त्वं तेनैव सत्त्वम्, किन्तु स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्त्वं, पररूपद्रव्यक्षेत्रकालभावैस्त्वसत्त्वम्। इत्थं स्वसंवेद्या बन्धमोक्षसुखदु:खादयः प्रतिव्यक्ति विशिष्टा भवन्तीति दुःखाद्युच्छेदनिमित्तंसुखादिप्राप्तिनिमित्तं च प्रयत्नोऽपि न्याय्योभवतीति / / 188 / / ननु केयं द्वारगाथोक्तास्तवपरिज्ञेत्याह मुख्योपचाररूपस्तवो द्विधा द्रव्यभावतो यत्र वर्ण्यते उचितक्रमतः सा कथिता स्तवपरिज्ञेति / / 189 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 63 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - यत्र ग्रन्थविशेषे मुख्योपचाररूपस्तवो मुख्यो निरुपचरितस्वरूपो भावविषयो वक्ष्यमाणलक्षणः, / उपचाररूपो द्रव्यविषयो वक्ष्यमाणस्वरूप: स्तव: पूजा द्विधा द्विप्रकारो द्रव्यभावतो द्रव्यभावाभ्याम्, तथाहि - द्रव्यस्तवो द्रव्यविषयो वक्ष्यमाणभावस्तवानुरागेण जिनोक्तविधिना जिनभवनादिनिर्मापणम्आदिशब्दाज्जिनबिम्बपूजापरिग्रहः, भावस्तव: पुनर्निरतिचार: संयमो वर्ण्यते निरूप्यते उचितक्रमतो गृहिप्रव्रजितापेक्षया स्वस्वयोग्यतानुसारेण सा ग्रन्थपद्धति: कथिता तज्ज्ञैः स्तवपरिज्ञा प्राभृतविशेष इति अनुकर्षे इति / / 189 / / एतदेवाह - भावस्तवो यत्तीनां क्रियाकलाप : स्मृतो निरतिचारः / जिनभवनविधानादि द्रव्यस्तव एव विधिशुद्धम् / / 190 / / टीका - भावस्तवो भावपूजा यतीनां साधूनां क्रियाकलाप: संयमसत्क: स्मृत: कथितो निरतिचार: अतिचारविनिर्मुक्त: संयमव्यापारः / अथ द्रव्यस्तवमाह - जिनभवनविधानादि अनन्तरगाथोक्तस्वरूपं द्रव्यस्तवो द्रव्यपूजा एवकारोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च विधिशुद्धं जिनाज्ञानुसार्येव, अविधिकरणे, भगवदाज्ञाविलोपनाद् दुष्टमेव जिनभवनादीनां विधानम् / तत्र चेयमाज्ञा - जिनभवनकरणविधिः शुद्धा भूमिर्दलंच काष्ठादि। भृतकानतिसन्धानं स्वाशयवृद्धिः समासेन / / 1 / / षोडशक - / / 190 / / एतत्स्तवद्वयस्वरूपं ह्यन्योन्यानुविद्धमित्याह - द्रव्यस्तवभावस्तवस्वरूपं ह्यन्योन्यसमनुविद्धं तु / गृहिणोऽपि भावयोगो भगवद्गुणरागतो भूयान् / / 191 / / टीका - यद्यपि व्यवहारनयाभिप्रायेण यतीनां भावस्तवो गृहिणां च द्रव्यस्तवः, तथापि निश्चयनयाभिप्रायेण द्रव्यस्तवभावस्तवरूपम् एतद्वयस्वरूपम् हिशब्दो हेतौ स च योक्ष्यते अन्योन्यसमनुविद्धं तु परस्परसङ्कलितमेव, तथाहि - गृहस्थानां जिनभवननिर्माणादिलक्षणो द्रव्यस्तव: चैत्यवन्दनलक्षणभावस्तवेनानुविद्धो भवति, यत आस्तां यतीनां गृहिणोऽपि गृहस्थस्यापि भावयोगो मनोवृत्तिलक्षणो भगवद्गुणरागतो भुवनगुरुसत्कवीतरागत्वसर्वज्ञत्वविश्वोपकारित्वादिगुणप्रतिबन्धाद्भूयान् प्रचुरमिति / / 191 / / अथ साधुमाश्रित्य स्तवद्वयसमनुविद्धत्वमाह - द्रव्यस्तवश्च साधोरप्यनुमोदनकृतो न नास्तीति / विहित: कायोत्सर्ग: सूत्रे यद् वन्दनाद्यर्थः / / 192 / / टीका - द्रव्यस्तवः पुन: चशब्दः पुनरर्थे, न केवलं गृहिणो साधोरपि यतेरपि अनुमोदनकृत: श्रावकविहितद्रव्यपूजादिदर्शनेन प्रमोदानुमतिविहितो न नास्ति, किन्त्वस्त्येव, इति हेतो: साधोरपि भावस्तवो द्रव्यस्तवेन समनुविद्धमेव। हेत्वन्तरमाह यद् यस्माद् ‘अरिहंत चेइयाणं करेमि काउसग्गं वंदणवत्तियाए पूअणवत्तियाए' / इत्यादि सूत्रे चैत्यवन्दनसूत्रे वन्दनाद्यर्थ: वन्दनपूजनादिनिमित्त: विहितः समादिष्टः अर्हगणधरैः कायोत्सर्गः चेष्टानिरोधलक्षणः / पूजनसत्कारौ च प्रवरपुष्पवस्त्राऽलङ्कारादिभिः क्रियमाणत्वाद् द्रव्यरूपौ, नान्यरूपौ। इदं त्वत्र ध्येयम् - श्रमणोपासकानां द्रव्यप्राधान्यादेव महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं मापिरिशद्धिप्रकरणंसटीकम Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पादिद्रव्यस्तव: प्रधानो भावस्तवश्च गौणः। यतीनां चाज्ञानुसारिणी चर्या भावस्तव: प्रधान:, पुष्पादिद्रव्यस्तवश्च द्रव्याभावात् केवलमनुमोदनोपदेशादिलक्षणो गौणः समवेसयः। तदुक्तं च - दुविहा जिणिंदपूआ, दव्वे भावे य तत्थ दव्वंमि। दव्वेहि जिनपूआ, जिनाणापालनं च भावे / / 1 / / / / 192 / / ... ये केचन तु गृहिणामपि द्रव्यस्तवं निषेधयन्ति तान् प्रत्याह - बल्यादिसमवसरणे न च यत् प्रतिषिद्धमर्हता जातु / तस्मात् सोऽनुज्ञातो योग्यानां गम्यते न्यायात् / / 193 / / टीका - यद् यस्माद् बल्यादि द्रव्यस्तवाङ्गं राजादिना बलिढौकनम्, आदिपदात् सुरकृतसुगन्ध्युदकपुष्पवृष्ट्यादिपरिग्रहः समवसरणे धर्मदेशनसानि न नैव च पक्षान्तरे प्रतिषिद्धं निवारितम् अर्हता भुवनगुरुणा जातु कदाचिदपि तस्मात् कारणात् स द्रव्यस्तव: अनुज्ञात: अनुमतो भगवता योग्यानां भावस्तवाऽभिलाषिगृहिणामिति गम्यते प्राप्यतेऽवबुध्यते वा न्यायाद् अनिषिद्धमनुमतमिति लक्षणादिति / / 193 / / जिनेन्द्रानुज्ञातो योगश्च न कदापि मोक्षविगुणो भवतीत्याह - अनुजानीते नार्हन् योगं मोक्षविगुणं कदाचिदपि। तदनुगुणोऽयं न पुनर्नान्येषां बहुमतो भवति / / 194 / / टीका - यस्माद् अर्हन् तीर्थकृद् न नैव अनुजानीते अनुमन्यते मोहाभावाद् योगं व्यापार मोक्षविगुणं मोक्षोपकारशून्यं कदाचिदपि कस्मिन्नपि काले। तत् तस्माद् अनुगुणो मोक्षोपयोगी अयं द्रव्यस्तव: न पुनर्न अपि त्ववश्यमेव अन्येषां भगवद्व्यतिरिक्तानामस्मादृशां बहुमतः सम्मानितो भवति जायतेऽत एव वन्दनाद्यर्थ: कायोत्सर्ग: सूत्रे विहित इति / / 194 / / अत्र पर आह - भावस्य योऽपि लेश: स बहुमतो भगवता गुणज्ञेन / द्रव्यस्तवेन न विना स इत्यसावर्थतस्तादृक् / / 195 / / टीका - ननु भावस्य भक्तिभावस्य योऽपिलेश: कणो बल्यादौ क्रियमाणे, स एव बहुमत : प्रशंसित:, न तु बल्यादिरूपद्रव्यस्तव:, भगवता भुवनगुरुणा गुणज्ञेन मोक्षोपकारलक्षणगुणरूपेण जानतेति चेद्, उच्यते - द्रव्यस्तवेन उक्तस्वरूपेण विना ऋते न नैव स भावलेश इति हेतो: असौ द्रव्यस्तव: अर्थत: अर्थापत्त्या तादृग् अनुमत इति / / 195 / / एतदेव युक्तिपुरस्सरमाह - कार्यं खल्वभिलषताऽनन्तरमपि कारणं समभिलषितम् / आहारजतृप्तिमिवाभिवाञ्छता नूनमाहारः / / 196 / / टीका - कार्य मोक्षलक्षणमेव खलुशब्दोऽवधारणे अभिलषता इच्छता, आस्तां कार्यम् अनन्तरं मोक्षफलकारि महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 65 मा परिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणमपि द्रव्यभावस्तवलक्षणसाधनमपि समभिलषितम् अभिवाञ्छितं भवति। अत्रार्थे दृष्टान्तमाह - इव यथा आहारजतृप्तिम् अशनादितो जायमानां तृप्तिं संतुष्टिम् अभिवाञ्छताऽभिलषता आहार : अशनादिरप्यभिलषित एवेति / / 196 / / एतदेव स्पष्टयति - जिनभवनकारणाद्यपि भरतादीनां न वारितं तेन / तेषां यथैव कामाः शल्यविषादिभिरुदाहरणैः / / 197 / / टीका - आस्तां समवसरणे बल्यादि, जिनभवनकारणाद्यपि अष्टापदादिषु जिनायतननिर्मापणाद्यपि आदिपदाज्जिनबिम्बपूजादिपरिग्रह: भरतादीनां भरतचक्रिबाहुबल्यादीनां न नैव निवारितं प्रतिषिद्धं तेन भगवता ऋषभस्वामिना यथा येन प्रकारेण एवकारोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च तेषां भरतादीनामेव कामाः शब्दादयो निवारिता: शल्यविषादिभिरुदाहरणैः प्रतीतैः। तथा चागम: - सल्लंकामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दुग्गई / / उत्तराध्ययनेषु अ.९ गा.५३) / / 197 / / निष्कर्षमाह अनुमतमिदमपि तस्मादप्रतिषेधेन तान्त्रिकन्यायेन शेषाणामप्येवं सङ्गतमस्यानुमत्यादि / / 198 / / टीका - तस्मात् कारणाद् आस्तां समवसरणे, बल्यादि इदमपि निनभवनकारणाद्यपि अनुमतम् अनुज्ञातं ऋषभस्वामिना अप्रतिषेधेन अनिवारणेन तान्त्रिकन्यायात् शास्त्रीयन्यायात् ‘परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति'लक्षणात्। एवम् अनन्तरोक्तनीत्या शेषाणामपि अद्यतनयतीनामपि सङ्गतं युक्तियुक्तम् अस्य जिनभवनकारणादे: अनुमत्यादि अनुमोदनमुपदेशदानेन च कारणमपीति / / 198 / / युक्त्यन्तरमाह - यश्च चतुर्धा विनयो भणितस्तत्रोपचारिको यश्च / स हि तीर्थकरे नियमान भवेद् द्रव्यस्तवादन्यः / / 199 / / टीका - यश्च ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकभेदात् चतुर्धा चतुष्पकारो विनयो धर्ममूलत्वेन प्रतीत: स भणित उपदिष्टो जिनगणधरैः, तत्र विनयमध्ये औपचारिक उपचारप्रधान: स औपचारिको विनयो हिशब्दो हेतौ यस्मात् तीर्थकरे क्षेत्रकालव्यवहितार्हद्विषये नियमाद् अवश्यतया न नैव भवेद् जायेत द्रव्यस्तवाद् विना अन्यः, अपि तु द्रव्यस्तव एव, तस्मादपि द्रव्यस्तव: अभ्युपगन्तव्यः / औपचारिकविनयस्वरूपं त्वेवम् - तित्थयर सिद्धकुलगणसंघकिरियधम्मनाणनाणीणं / आयरियथेरुवज्झाय गणीणं तेरस पयाणि / / अणासायणा य भत्ती, बहुमाणो तह य वण्णसंजलणा। तित्थयरादी तेरस चऊगुणा होंति बावन्ना / / (प्र.सा.गा.५५०-५१) / / 199 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 66 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणं सटीकम् Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र सूत्रसाक्ष्यमाह सूत्रे हि पूजनादिरेतत्सम्पादनार्थमुच्चारः। नो चेत्तदनर्थत्वं साक्षात्तु न भावसारेऽसौ / / 200 / / टीका - सूत्रे हि “अरिहंतचेइयाणं वंदणवत्तियाए"। इत्यादिलक्षणे चैत्यवन्दनासूत्रे यः पूजनादिः 'पूअणवत्तियाए सक्कारवत्तियाए' इत्यादिरूप उच्चार: उद्घोषः स एतत्सम्पादनार्थं द्रव्यस्तवसम्पादनार्थं यतेरपि न्याय्यः। नोचेद् अनन्तरोक्तं सूत्रोच्चारणं यदि येतरपि द्रव्यस्तवसम्पादनार्थं न स्यात्तर्हि तदनर्थत्वं तत्सूत्रोच्चरणस्य वैयर्थ्यं स्यात्। न च तदनुच्चारणेन सा वन्दना भणिता यतेः, तस्माद् विशिष्टेच्छारूपेण सम्पादनमिष्टं द्रव्यस्तवस्येति।। स्यादेतत्, भवदुक्तनीत्या तु यतीनामपि साक्षाद् द्रव्यस्तव: करणतयाऽऽपद्यतेति चेद्, मैवं, साक्षात् करणतया तुशब्दो विशेषद्योतने यतीनां भावसारे भावप्रधाने संयमे कृत्स्नसंयमद्रव्याभावाभ्यां हेतुभ्याम् असौ द्रव्यस्तव: न नैव विहितः / इत्थं यतीनां द्रव्यस्तवानुमोदनादिनिषेधो नास्ति, अपितु स्वयं करणतया निषेधोऽवगन्तव्यः / इदमुक्तं भवति - भावप्रधाना हि.मुनय इतिकृत्वा द्रव्यस्तवस्तेषां गौण इति / / 20 / / तर्हि साक्षात् करणतया केषामित्याह साक्षादपि गृहिणां पुनरयमुचितो भावकारणत्वेन / आकर्ण्यते यतीनां कारणमपि देशना चात्र / / 201 / / टीका - आस्तां कारणानुमतिभ्यां साक्षादपि करणतया गृहिणां श्रावकाणां पुन:शब्दो विशेषद्योतने अयं द्रव्यस्तव: उचितो न्यायोपेत: स्वरूपेणैव संसारप्रतनुकरण: भावकारणत्वेन शुभानुबन्धेन भावस्तवस्य हेतुत्वात् कूपदृष्टान्तेन। आकर्ण्यते श्रूयते चागमे वर्षिणा कारणमपि तत्त्वत: करणमपि अनुष्ठितमेतस्य द्रव्यस्तवस्य तदुक्तं - माहेसरीउ सेसा, पुरिअंनीआ हुआसणगिहाओ / गयणयलमइवइत्ता वइरेण महानुभागेण / / आ.नि.गा.७७२ / / एवं यतीनां साधूनां न केवलमनुमोदनं द्रव्यस्तवस्य कारणमपि श्रावकैरिति गम्यते उपदेशद्वारा। एतदेवाह - देशना पूजाविधिसदुपदेशदानं चात्र द्रव्यस्तवविषये श्रूयते, तथाहि - कर्तव्या जिनपूजा, न खलु वित्तस्याऽन्यच्छुभतरं स्थानमितिवचनसन्दर्भेण। तत्कारणमेतत्।अनवद्यं च तद् दोषान्तरनिवृत्तिद्वारेण।अयमत्र प्रयोजकोंऽशः, तथाभावत: प्रवृत्तेः, उपायान्तराभावात्। नागभयसुतगर्ताकर्षणज्ञातेन भावनीयमेतत्। तदेवं साधुरित्थमेवैतत्सम्पादनाय कुर्वाणो नाऽविषयः, वचनप्रामाण्यात्, इत्थमेवेष्टसिद्धेः, अन्यथाऽयोगादिति / / 201 / / अत्र पर आह नन्वेवं हिंसाऽपि हि धर्माय न दुष्यतीति सम्प्राप्तम् / एवं च वेदविहिता हिंसाऽनिष्टेति को मोहः / / 202 / / टीका - ननु आक्षेपे एवं भवदुक्तनीत्या द्रव्यस्तवविधाने हिंसाऽपि प्राणिप्राणव्यापत्तिरपि हि हेतौ यस्माद् धर्माय तस्माद्न नैव दुष्यति दोषकारिणी इति एवं सम्प्राप्तं स्थितं न्यायत: तामन्तरेण द्रव्यस्तवाभावात्। एवं च महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 67 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तरोक्तनीत्या वेदविहिता वेदोपदिष्टा हिंसा यज्ञविधौ पशुबलिलक्षणा अनिष्टा भवतां जैनानामनभिमता इति एवं को मोह : व्यामोहः? वेदविहितहिंसायामेवाऽनिष्टत्वाऽभ्युपगमो नन्याय्यः, उभयपक्षे हिंसाया: साधारणत्वादिति भावः / / 202 / / एतदेवाह पर: - इह समता पीडायाः परिणामसुखस्य चापि हिंस्यानाम् / अपि पापपुण्यजनने व्यभिचारो वैद्यजाराभ्याम् / / 203 / / टीका - इह जिनभवननिर्माणादौ वेदविहितयागे च समता तुल्यत्वं पीडायाः प्राणनाशलक्षणाया: परिणामसुखस्य चाऽपिवधानन्तरं देवत्वाप्तेश्च उभयत्र तुल्यत्वं हिंस्यानां वध्यमानानां सत्त्वानामिति वेदविहितहिंसायां कोऽनिष्टत्वमोहः? अस्ति चागमाख्यप्रमाणम् - औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा / यज्ञार्थं निधनं प्राप्ता: प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितं पुनः / / मनुस्मृतौ 5-40 / / इत्यादि। उपपत्त्यन्तरमाह - न च पीडात: पापं सुखप्रदानत: पुण्यमिति नियम एकान्तेन यत: पुण्यपापजननेऽपि व्यभिचार : तद्भावभावित्वाभाव: वैद्यजाराभ्यां वैद्येन चिकित्सायां पीडाकरणेऽपि पापाभावाद् जारेण पारदारिकेन च सुखजननेऽपि पुण्याभावादिति / / 203 / / किञ्च - स्यात्तत्र शुभो भावो नन्वयमितरत्र तुल्यतामेति / एकेन्द्रियादिभेदान्न विशेष : कोऽपि विहितविधेः / / 204 / / टीका - स्यात् भवेत् तत्र जिनमन्दिरनिर्माणादौ शुभो भावः हिंसां कुर्वत इत्येतदाशङ्कयाह पर: - ननुशब्द आमन्त्रणे अयं शुभो भाव: इतरत्र वेदविहितहिंसां कुर्वति तुल्यतामेति समतां प्राप्नोति। अथ जिनभवनादौ प्रतनुचैतन्यानां पृथ्व्यादीनां हिंसा भवति, वेदविहितयागे तु पञ्चेन्द्रियाणां हिंसा भवतीति महान् विशेष इति चेद्, न विशेषः कोऽपि न कश्चिद् भेदः एकेन्द्रियादिभेदाद् एकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियविशेषात्, अत्र हेतुमाह - विहितविधे: धर्मार्थं सर्वेव हिंसा न दुष्टेति भावः / / 204 / / एवं पूर्वपक्षमाशङ्कयाह सिद्धान्ती - एतदपि न युक्तिसहं वाङ्मात्रस्याप्रयोजकत्वेन / संसारमोचकानामपि धर्म: स्यादपरथा तु / / 205 / / टीका - एतदपि अनन्तरं यदुक्तं परेण तदपि न नैव युक्तिसहं युक्तिक्षमम्। कुत इत्याह - वाङ्मात्रस्य वचनमात्रस्याऽनुपपत्तिकस्य तत्त्वनिर्णये अप्रयोजकत्वेन अकिञ्चित्करत्वात्।अपरथा तुअनुपपत्तिकस्यापि वचनमात्रस्य प्रयोजकत्वेनाऽभ्युपगमे तु संसारमोचकानामपि वचनाद्धिंसाकारिणामपि धर्म: स्यात्धर्मप्रसङ्गाद् अदोषप्रसङ्गाच्चेति / / 205 / / ननु संसारमोचकवचनं न सम्यग, वेदवचनं तु सम्यगित्याशङ्क्याह - एकस्य न सम्यक्त्वे विनिगमना लोकतो विगानाच्च / स्तोकस्यापि विगाने व्यभिचाराद्देशभेदेन / / 206 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 68 गापिरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - एकस्य वेदवचनस्य संसारमोचकशास्त्रापेक्षया सम्यक्त्वे समीचीनतायां न नैव विनिगमना एकतरपक्षपातियुक्तिः। अथ लोक एव प्रमाणमित्याशङ्कयाह - नैतत्तथा, लोकत: दयादिगुणगणोपेतविशिष्टलोकमपेक्ष्य विगानाच्च यज्ञस्थलीयहिंसायास्तिरस्काराच्च। न हि यज्ञीयहिंसाप्रतिपादकं वेदवचनं प्रमाणमित्येकवाक्यता लोकस्य साङ्ख्यादिभिस्तदनभ्युपगमादिति। ननु केवलं यज्ञादिप्रतिपादके स्वल्प एव वेदवचने साङ्ख्यादीनां विगानम्, न तु कृत्स्नवेदप्रामाण्ये इत्याऽऽशङ्कायामाह - स्तोकस्यापि स्वल्पस्यापि वेदवचनस्य विगाने प्रामाण्यवैकल्ये व्यभिचाराद् 'वेदवचनं प्रमाणमेवे ति प्रतिज्ञाया विलोपात्। कुत:? इत्यत आह - देशभेदेन ‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' इत्यादेः सकाशाद् भिन्ने श्वेतं वायव्यमजमालभेत भूतिकामः' इत्यादौ वेदवचने तत्प्रामाण्यमननुपत्तिकमेवेति यावद्भावः। यदि वा पञ्चवस्तु टीकानुसारेण व्याख्यायते एकस्य वेदवचनस्य सम्यक्त्वे समीचीनतायां न नैव विनिगमना एकतरपक्षपातियुक्तिः। अथ लोक एव प्रमाणमित्याशङ्कायामाह - नैतत्तथा, लोकत: लोकस्य प्रमाणतयाऽपाठात्, प्रमाणमध्ये षट् संख्याविरोधात्तथा विगानाच्च निन्दनीयत्वाच्च, न हि वेदवचनं प्रमाणमित्येकवाक्यता लोकस्येति। अथ पाठोऽभिमत एव लोकस्य प्रमाणमध्ये षण्णामुपलक्षणत्वात्। विगानमपि वेदवचनप्रामाण्ये स्तोकलोकानामित्येतदाशङ्कयाह - एवं कल्पनायां न प्रमाणम्, स्तोकस्यापि स्तोकानामपि विगाने तिरस्कारे व्यभिचारात् प्रतिज्ञालोपात्, तथा देशभेदेन क्षेत्रभेदेन वर्तमानानां सर्वेषां लोकानामदर्शनाच्च अल्पबहुत्वे निश्चयाभावादिति / / 206 / / उपपत्त्यन्तरमाह अविगानमपि बहूनां मूढेतरभावतो न विनिगमकम् / नीरागश्चन कश्चिद् भवेदसर्वज्ञवादिमते / / 207 / / टीका - आस्तां विगानम् अविगानमपि एकवाक्यताऽपि बहूनां लोकानां न नैव विनिगमकं प्रामाण्यनिश्चायक मूढेतरभावत: बहूनामपि मूढव्यापारभावात् स्तोकानामपि चाभावात्। न च नीराग: रागादिरहित: सर्वज्ञः कश्चित् प्रमाता भवेद् जायेत असर्वज्ञवादिमते परपक्षवैदिकमते य एवं वेद वैदिकमेव प्रमाणं नेतरदिति / / 207 / / दोषान्तरमाह - . .. म्लेच्छानामप्येवं वाङ्मात्राद्धर्मदुष्टता न स्यात् / द्विजवरमपि घातयतां पुरतो ननु चण्डिकादीनाम् / / 208 / / टीका - ननु आक्षेपे एवं प्रमाणविशेषाऽपरिज्ञाने सति वाङ्मात्राद् वचनमात्रात् चण्डिकादीनां चण्डिकाकात्यायनीप्रभृतीनां पुरत अग्रे आस्तां पश्चादिकं द्विजवरमपि वेदविद्ब्राह्मणमपि घातयतां बलिं विदधतां म्लेच्छानामपि अनार्याणामपि धर्मदुष्टता धर्मार्थं दोषप्रसङ्गो न नैव स्याद् भवेदिति / / 208 / / ननु तन्म्लेच्छवचनं लोकेऽत्र न रूढमित्याशङ्कयाह - अन्यतरारूढत्वं सममुभयत्राप्यसंस्कृतत्वं च / . उत्सन्नशाखवेदाशङ्कापि निवर्तते नेह / / 209 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 69 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - वैदिकवचनमपि म्लेच्छेषु न रूढमिति अन्यतराऽरूढत्वम् उभयत्रापि वैदिकवचने म्लेच्छवचने च समं तुल्यमिति यत्किञ्चिदेतत्। अथम्लेच्छवचनस्य असंस्कृतत्वम् अनुचितत्वमित्याशङ्कयाह - अनुचितत्वं च शब्दात् स्तोकत्वं ब्राह्मपरिगृहीतत्वं च वैदिकवचनस्याऽपि तुल्यं म्लेच्छानामाशयभेदाद् म्लेच्छपरिगृहीतत्वांच्च। अथ “स्वर्गकामो यजेते''त्यादि वचनं वेदाङ्गं द्विजप्रवर्तकमिति चेद्, न, म्लेच्छप्रवर्तकमेवमेव वेदे इत्यत्रापि न मानम्। अथ तस्य वेदे श्रवणमेव मानमित्याशङ्कयाह - उत्सन्नशाखवेदाशङ्कापि उत्सन्नवेदशाखमेवैतदपि म्लेच्छशास्त्रं संभाव्यत इति आशङ्काऽपि आरेकाऽपि न नैव निवर्तते उपरमति इह वाङ्मात्रस्याऽप्रयोजकत्वविचारे इति / / 209 / / उपसंहरन्नाह तस्मान्न वचनमानं प्रवृत्तिहेतुर्भवेद् बुधजनानाम् / किन्तु तथा दृष्टेष्टाविरोधि तत्सम्भवद्रूपम् / / 210 / / टीका - यस्माद्वाङ्मात्रस्याऽप्रयोजकत्वं तस्मात् कारणाद् वचनमानं युक्तिविकलत्वादपौरुषेयत्वाच्च न नैव हितादौ प्रवृत्तिहेतु : प्रवृत्तिनिमित्तं भवेद् जायेत बुधानां समीक्षितकारिविदुषाम्, किन्तु दृष्टेष्टाविरोधि दृष्टेष्टाभ्यां लोकदृष्ट्या यथा वह्निरनुष्णः, यदि वा कल्पितोऽयं गम्यागम्यभेदः, परलोकदृष्ट्या च यथा नास्ति स्वर्गापवर्गादिः, एवमुभयदृष्ट्या यदविरोधि तृतीयस्थानसङ्क्रान्तमित्यर्थः, तथा सम्भवद्रूपं य, न पुनरत्यन्ताऽसम्भवि यथा शेषनागफणामणि-ग्रहणप्रतिपादकं किन्तु यत् सम्भवमहाव्रतादिविषयं तद् विशिष्टमेव वचनं प्रवृत्तिनिमित्तं भवतीति द्रष्टव्यमिति / / 210 / / अनन्तरोक्तं विशिष्टवचनं दर्शयति - द्रव्यस्तवाद् यथोच्चैर्भावापत्कल्पगुणयुताच्छ्रेयान् / जिनभवनकारणादेरुपकारः पीडयापीह / / 211 / / टीका - यथा उपदर्शने इह मौनीन्द्रप्रवचने द्रव्यस्तवात्, किंलक्षणादित्याह - भावापत्कल्पगुणयुताद् रागादिभावा-पन्निस्तरणगुणयुताद्, नान्यथारूपात्, जिनभवनकारणादेः द्रव्यस्तवात् पृथिव्यादिसत्त्वानां पीडयाऽपि पीडाया: सकाशाद् उच्चैः महान् उपकार : बहुगुणभावात् श्रेयान् ज्यायानिति मौनीन्द्रप्रवचनं न विरुद्धम्, अपितु युक्तियुक्तमिति / / 211 / / एतदेव स्पष्टयति - सर्वत्र सदाभावे भावापदि भगवतां हि जीवानाम् / तन्निस्तरणसमर्थं नियमेनायतनमेतेषाम् / / 212 / / टीका - हि यस्मात् सदा सर्वस्मिन् काले सर्वत्र क्षेत्रे अभावेऽसत्त्वे भगवतां जिनानां भावापदि रागद्वेषलक्षणायां सत्यां जीवानां भव्यसत्त्वानाम्, तस्मात् तन्निस्तरणसमर्थं भावापन्निस्तरणसमर्थं नियमेनाऽवश्यतया आयतनं मन्दिरम् एतेषां जिनेश्वराणामिति / / 212 / / मन्दिरे सति भावापन्निस्तरणगुणमाह - पुरुषोत्तमप्रतिष्ठा साधुनिवासश्च देशना ध्यानम् / एकैकं भावापन्निस्तरणगुणं हि भव्यानाम् / / 213 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 70 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - तत्र मन्दिरे पुरुषोत्तमप्रतिष्ठा भगवद्विम्बप्रतिष्ठा, तथा तत्समीपे साधुनिवास: प्रतिश्रयादौ, देशना जगीवहिता मोहोच्छेदात्, ध्यानं धादि चशब्द: समुच्चये, जायते एकैकं पुरुषोत्तमप्रतिष्ठादि भावापन्निस्तरणगुणं रागादिभावापन्निस्तरणसमर्थमेव हिशब्दोऽवधारणे भव्यानां भव्यसत्त्वानामिति / / 213 / / एवं पृथ्व्यादीनां पीडाकृदपि हिंसा युक्तेत्याह - इत्थं पृथ्व्यादीनां पीडाकृदपीह सङ्गता हिंसा / अन्येषां गुणसाधनयोगात् प्रत्यक्षसंसिद्धात् / / 214 / / टीका - इत्थं अनन्तरोक्तनीत्या भव्यानां भावापन्निस्तरणगुणा जिनमन्दिरनिर्माणादौ पृथ्व्यादीनां जीवानां पीडाकृदपि हिंसा सङ्गता युक्तियुक्ता।अत्र हेतुमाह - अन्येषां पृथिव्यादिव्यतिरिक्तानां भव्यजीवानां प्रत्यक्षसंसिद्धात् स्वानुभूतिसिद्धाद् गुणसाधनयोगात्, तथाहि - तद्दर्शनाद् गुणानुरागितया भव्यानां बोधिलाभः, पूजातिशयविलोकनादिना च मन:प्रसत्तिः, तत: समाधिः, ततश्च क्रमेण निःश्रेयसप्राप्तिरिति। तथा च भगवान् पञ्चलिङ्गीकारः - "पुढ़वाइयाण जइवि हु होइ विणासो जिणालयाहिन्तो। तव्विसया वि सुदिठुिस्स णियमओ अत्थि अणुकंपा / / 1 / / एयाहिंतो बुद्धा विरया रक्खन्ति जेण पुढवाई / इत्तो निव्वाणगया अबाहियाआभवमिमाणं / / 2 / / रोगिसिरावेहो इव सुविज्जकिरिया वसुप्पउत्ताओ। परिणामसुंदरच्चिय चिट्ठा से बाहजोगे वि / / 3 / / एतदेवाह - आरम्भवतश्चासावारम्भान्तरनिवृत्तिदा प्रायः / इत्थं निदानरहिता कथिता निःश्रेयसफलाय / / 215 / / ____टीका - इत्थम् अनन्तरोक्तनीत्याऽन्येषां गुणसाधनयोगाद् आरम्भवतश्च गृहिणश्च असौ जिनभवननिर्माणादौ पृथ्व्यादिपीडाकृद्धिंसा आरम्भान्तरनिवृत्तिदा कृषिवाणिज्याद्यारम्भनिवृत्तिप्रदा विधिना कारणात् प्रायो बाहुल्येन, एतच्च सनिदानस्य व्यवच्छेदार्थम्। एतदेवाह - निदानरहिता ऐहिकामुष्मिकफलाभिसन्धिरहिता कथिता विहिता जिनगणधरैः सर्वत्यागेन निःश्रेयसफलाय - मोक्षफलायेति / / 215 / / अत्र परमार्थमाह - व्यवहारवचनमेतन्निश्चयतो नैव बन्धनोपायः। . मोक्षोपायः कथमपि परस्परविरुद्धभावेन / / 216 / / टीका - अनन्तरगाथायां “कल्प्यहिंसा मोक्षफलदे"ति यदुक्तं तद् एतद्व्यवहारवचनं व्यवहारनयाभिप्रायेणोक्तं द्रष्टव्यम्, यत एतन्नयाभिप्रायेण सहकारिभेदेन कार्यभेदो भवति यथा कुम्भकारलक्षणसहकारियोगाद् यो दण्डो घटं महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 71 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनयति स एव दण्डश्चञ्चलप्रकृतिकशिशुरूपसहकारिवशाघटं विनाशयत्यपि। एवं हिंसाऽपि रागादिभावसहकारिवशाद् या बन्धोपाया सैव भगवद्भक्तिक्रियतनापरिणामादिसहकारियोगाद् मोक्षोपायाऽपि जायते, परन्तु निश्चयतो निश्चयनयाभिप्रायेण यो बन्धनोपायः स कथमपि केनापि प्रकारेण मोक्षोपायो भवितुं नैव अर्हति, आस्तां सहकारिभेदाऽभावे, सहकारिभेदेऽपि मोक्षोपायो न भवतीत्यर्थः, अत्र हेतुमाह - परस्परविरुद्धभावेन परस्परविरोधात्, कार्यभेदे कारणभेदादिति भावः / / 216 / / अत्र व्यवहारनयो निश्चयनयं प्रत्याह - हिंसालक्षणो यो बन्धोपाय: स कथमपि मोक्षोपायो भवितुं नार्हतीति प्रतिपाद्य यदि हिंसायां बन्धोपायत्वं स्वीकरीषि, मोक्षोपायत्वं च निराकरोषि, तर्हि भवदुक्तविपरीतमपि प्रतिपादयितुं शक्यम्, तथाहि - हिंसायां मोक्षोपायत्वमेवाऽस्तु माऽस्तु बन्धोपायत्वमित्यत्र को विनिगमक इति यत्किञ्चिदेतद्। एवं व्यवहारनयेनोक्ते सति निश्चयनय: स्वस्याभिप्रायमाविष्करोति - शद्धतरपरिणामौ निश्चयतो मोक्षबन्धोपायौ / अत्याज्यसन्निधानाः परपरिणामा उदासीनाः / / 217 / / टीका - हिंसायां नास्ति बन्धोपायत्वं नास्ति च मोक्षोपायत्वमपि, किन्तु निश्चयतो परमार्थचिन्तायां जीवगतौ शुद्धतरपरिणामौ स्वकीयशुद्धाशुद्धाध्यवसायौ मोक्षबन्धोपायौ ज्ञातव्यौ। केवलं जीवगत: प्रशस्तोऽप्रशस्तो भाव एव शुभाऽशुभं बन्धं प्रति मोक्षं प्रति च समर्थ इति परमार्थः, तथाहि - जिनभवननिर्माणादौ यतनापरिणामवतः श्रावकस्य समितिगुप्तिपालने चाऽप्रमत्तयते: पृथ्व्यादिहिंसायामपि जिनाज्ञापालनभक्तियतनादिपरिणामलक्षण: शुद्धपरिणामो मोक्षोपायत्वेन जायते, एवमेव हिंसाऽभावेऽपि तन्दुलमत्स्यादेरशुद्धाऽध्यवसायो बन्धोपायत्वेन प्रतीत एव। तथा चाह - परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगहत्थसाराणां। . परिणामिअंपमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं / / 602 / / (पंचवस्तुके) नन्वेवं सत्यपि व्यवहारनय: अहिंसां मोक्षोपायत्वेन हिंसां च बन्धोपायत्वेन किमर्थं प्रतिपन्न इति चेद्, उच्यते - अहिंसादयः अत्याज्यसन्निधाना: अवय॑सन्निधय इति। अथैवं सत्यपि निश्चयनय: अहिंसादिकं मोक्षबन्धौ प्रत्यकारणत्वेन कथं प्रतिपन्न इति चेद्, उच्यते - परप्राणाव्यपरोपणादिलक्षणा अहिंसादयः परपरिणामाः परजीवादिगतपर्यायाः स्वकीयमोक्षबन्धौ प्रति उदासीना: अकिञ्चित्करा इति, यथा घटं प्रति दण्डस्य आयतवृत्तत्वरूपादय उदासीनाः / तथा चार्षः जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा (आचाराङ्ग 1-4-2 सू. 131) अस्याक्षरगमनिका - ये आश्रवास्ते परिश्रवाः - निर्जराऽऽस्पदानि भरतस्येव, ये परिश्रवास्ते आश्रवाः कण्डरिकस्येव, येऽनाश्रवाः - व्रतविशेषास्तेऽपि कर्मण: अपरिश्रवा: कोकणार्यप्रभृतीनामिव, येऽपरिश्रवास्ते कणवीरलताभ्रामकस्येव अनाश्रवा भवन्तीति। तथा - निमित्तमात्रभूतास्तु हिंसाऽहिंसादयोऽखिलाः / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 72 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ये परप्राणिपर्याया न ते स्वफलहेतवः / / 136 / / अध्यात्मसार-आत्मनिश्चयाऽधिकारे / / 217 / / ननु परप्राणव्यपरोपणादिलक्षणस्य हिंसादेः परपरिणामात्मकत्वेनोदासीनत्वाद्माऽस्तु बन्धमोक्षोपायत्वं, किन्तु सम्यक्त्वस्य चारित्रस्य च जीवस्वपरिणामरूपेणाऽभ्युपगतस्यापि मोक्षोपायत्वेन च प्रसिद्धत्वात्, क्रमशो जिननामकर्मण आहारकनामकर्मणश्च बन्धोपायत्वेनाऽपि तत्र तत्र पठितत्वाच्च मोक्षोपाय एव बन्धोपाय:, बन्धोपाय एव मोक्षोपाय इत्यभ्युपगन्तव्यं स्यादित्याशङ्कायां निश्चयनयाभिप्रायेण ग्रन्थकार आह - सम्यक्त्वचरित्रे यत् तीर्थकराहारबन्धके तूक्ते / ते योगकषायाणां व्याप्त्या वैशिष्टयमात्रेण / / 218 / / टीका - सम्यक्त्वचरित्रे सम्यक्त्वं चारित्रं च तीर्थकराहारबन्धके तूक्ते क्रमशस्तीर्थकृन्नामकर्मण आहारकशरीरनामककर्मणश्च बन्धकारणं यद् उक्तं तत्तुशब्दो विशेषद्योतने ते सम्यक्त्वचारित्रे योगकषायाणां प्रशस्तमनोवाक्कायलक्षणयोगानां सरागसंयमगतप्रशस्तकषायाणां च व्याप्त्या अविनाभावेन वैशिष्ट्यमात्रेण वक्ष्यमाणनीत्या सम्यक्त्वचारित्रप्रयुक्तेन तीर्थकराहारबन्धके कथिते ज्ञातव्ये। इदमुक्तं भवति - विंशतिस्थानका राधनायां देववन्दनमन्त्रपदजपादिलक्षणयोगपरिणति: सकलसत्त्वहिताशयरूपप्रशस्तकषायपरिणतिश्च परमार्थतो जिननामकर्मबन्धहेतुः, किन्तु यदा यदानन्तरोक्ता योगपरिणतिः कषायपरिणतिश्च प्रवर्तते तदा तदा तीर्थकृज्जीवसत्कं विशिष्टसम्यक्त्वं विद्यत एवेति योगकषाया उक्तसम्यक्त्वेन व्याप्त्या विशिष्टा भवन्ति। इत्थं सम्यक्त्वमवय॑सन्निधानरूपेण सत्तां बिभर्तीति तीर्थकृनामकर्मबन्धकारणत्वेन व्यंपदिश्यते। परमार्थतस्तु सम्यक्त्वं मोक्षकारणमेव। तथा - प्रतिलेखनादिक्रियासु या विशिष्टतरा शुभयोगप्रवृत्तिः सरागसंयमेन च या प्रशस्तकषायपरिणति: साऽऽहारकशरीरनामकर्मबन्धकारणम्, किन्तूक्तशुभयोगपरिणति: कषायपरिणतिश्च यदा यदाऽऽत्मनि वर्तते तदा तदाऽतिशायिचारित्रमवश्यं विद्यत एवेत्यत्रापि योगकषाया उक्तचारित्रेण व्याप्त्या विशिष्टा भवन्ति। इत्थं चारित्रस्याऽवय॑सन्निधिरूपेण सत्त्वं विद्यते इति चारित्रमाहारकशरीनामकर्मबन्धकारणं कथ्यते। परमार्थतस्तु चारित्रमपि मोक्षकारणमेवेति / / 218 / / एवमेव जिनभवननिर्माणादौ जायमाना हिंसोदासीनेति निश्चेतुं ग्रन्थकार आह - .. तदिह यदंशे सम्यग्गुणप्रकर्षो न तेन बन्धोऽस्ति / अविरत्यंशेनाऽसावविशिष्टो निष्फला हिंसा / / 219 / / .. टीका - यस्मादनन्तरोक्तनीत्याऽत्याज्यसनिधाना: परपरिणामा उदासीनाः, स्वगतशुद्धपरिणामाश्च ये मोक्षोपायास्ते बन्धोपाया नैव भवितुमर्हन्ति तत् तस्माद् इह जिनभवननिर्माणादौ यदंशे यावन्मात्रायां सम्यग्गुणप्रकर्षो यथाविधि भगवद्भक्तियतनादिगुणोत्कर्षो मोक्षोपायभूत: तेन हेतुभूतेन गुणप्रकर्षेण न नैव बन्धोस्ति कर्मबन्धो विद्यते, अपितु तेन कर्मक्षय एव जायते। अविरत्यंशेन श्रावकस्य योऽविरतेरंशस्तेन असौ कर्मबन्धो जायते स: अविशिष्टः साधारण: सामान्यो निर्विशेष इति यावत्, न तु भवपरम्पराक: ।अत एव निष्फला निरनुबन्धा हिंसा पृथ्व्यादिप्राणव्यपरोपणम्। अयं भावः - उक्तनीत्या द्रव्यस्तवे याऽत्याज्यसन्निधानलक्षणा हिंसा जायते सा नैव मोक्षोपाया नैव च बन्धोपायाऽत एवोदासीना। केवलमेक एव भाव: फलदः प्रशस्तोऽप्रशस्तो वा प्रशस्तमप्रशस्तं फलं जनयितुं समर्थ महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 73 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यर्थः / / 219 / / नन्वेवं हिंसा निष्फला तर्हि मोक्षफलदेति कथं व्यवहियते इत्याशङ्क्याह - भक्त्या च व्यवहार : सान्निध्यात् स्थाद्यथा घृतं दहति / / इत्थं च कल्प्यहिंसा गुणयोगान्मोक्षफलदोक्ता / / 220 / / टीका - यथा दृष्टान्ते वह्नः सान्निध्यात् संयोगलक्षणाद् घृतं दहति इति व्यवहार : उपचार: स्यात्। इत्थम् एवं व्यवहाराज्जिनभवननिर्माणादिरूपद्रव्यस्तवेऽपि भक्त्या देवाधिदेवगतगुणबहुमानपुरस्सरं योपचारलक्षणा भक्तिस्तया गुणयोगात् सम्यक्त्वादिगुणयोगात् कल्प्यहिंसा अधिकारवशा विहितानुष्ठानं यथाविधि यतनापूर्वक विदधानस्य याऽनिवार्या हिंसा जायते सा कल्प्यहिंसा मोक्षफलदा मोक्षसम्पादिका उक्ता कथिता जिनगणधरैः / इदमुक्तं भवति -अधिकारिजीव: श्रीजिनभवननिर्मापणपूजादिलक्षणं शास्त्रविहितानुष्ठानं यथाविधि यतनापूर्वकं करोति तथापि याऽनिवार्यहिंसा जायते सा कल्प्यहिंसा भक्त्या सम्यक्त्वादिगुणयोगान्मोक्षफलदोक्ता। अत्रेदं तु ध्येयम् - विहितानुष्ठानं विदधानस्य प्रमादवशतोऽपि यो हिंसादिदोष: कदाचित् क्वचिज्जायते सोऽपि भक्तिवशानिरनुबन्धो भवतीति व्यक्तं कूपदृष्टान्तविशदीकरणप्रकरणे / / 220 / / यस्मादेवं तस्मान्नाऽधर्मोऽस्यां वैद्यज्ञातेन भवति गुणभावात् / / आपत्सुगुणतदन्याऽनिवृत्तितो वैदिकी नैवम् / / 221 / / ___टीका - यस्मात् कल्प्यहिंसा गुणयोगाद् मोक्षफला तस्मात् कारणात् न नैव अधर्म : पापं भवति जायते अस्यां जिनभवननिर्माणादिगतकल्प्यहिंसायां गुणभावाद् बोधिलाभादिमुक्तिगमनपर्यवसानफलप्राप्ते: वैद्यज्ञातेन शल्योद्धारक-चिकित्सकदृष्टान्तेन ईषत्पीडाकारित्वेऽपि आरोग्यकरणात्। नैवं न चैवं वैदिकी वेदगता हिंसा जिनभवनादिगतहिंसावद् गुणयोगान्मोक्षफलदा, हेतुमाह - आपत्सुगुणतदन्याऽनिवृत्तित: तामन्तरेणाऽपि जीवानां रागादिभावापदोऽभावात्, न च साधुनिवासादिवद्दृष्टा बोधिलाभादय: शोभना गुणाः, तथाऽनुपलब्धेः, न च तदन्याऽनिवृत्तित: हिंसायुक्तक्रियान्तर-निवृत्तेः, न हि प्राक् तद्वधप्रवृत्ता याज्ञिका: साधव: सञ्जाता इति / / 221 / / किञ्च भूत्यादिफलोद्देशप्रवृत्तितो मोक्षसाधिका नापि / मोक्षफलं च सुवचनं शिष्टं त्वर्थादिवचनसमम् / / 222 / / टीका - नाऽपि भूत्यादिफलोद्देशप्रवृत्तितो वैदिकी हिंसा मोक्षसाधिका, “श्वेतं वायव्यमजमालभेत भूतिकाम' इत्यादिश्रुतेः, आदिपदात् शत्रुजयार्थम्, मोक्षफलं च यद् वचनं तदेव सुवचनं शोभनाऽऽगम इत्यर्थः, शिष्टं तु शेषं तु अर्थादिवचनसमं फलभावेऽपि अर्थशास्त्रादितुल्यम्आदिपदात् कामसूत्रग्रहः, अनर्थकरत्वात्। तथा च पठन्ति पारमार्षाः यूपं छित्त्वा पशून हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 74 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्येवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते / / 1 / / / / 222 / / इहैवागमविरोधमाह अग्निर्मामेतस्मान् मुञ्चत्वेनस इति श्रुतिश्चेह / अन्धे तमसीत्यादि स्मृतिरपि सूचयति दुष्टत्वम् / / 223 / / टीका - इह वैदिकी हिंसायां विरोधाऽऽपादिका श्रुतिश्च वेदवागपि विद्यते, तथाहि - अग्निर्मामेतस्माद् हिंसाकृताद् एनस: पापाद् मुञ्चतु छान्दसत्वान्मोचयतु इति।अन्धे तमसि मज्जामः, पशुभिर्ये यजामहे। हिंसा नाम भवेद्धर्मो, न भूतो न भविष्यति / / इत्यादि स्मृतिरपि सूचयति दुष्टत्वं पापासक्तत्वमिति / / 223 / / नन्वनन्तरोक्ता श्रुतिः स्मृतिश्चान्यार्थेति चेद्, उच्यते, मानाभावात् कल्प्यं नात्राऽन्यार्थत्वमपि च बुद्धिमता / * प्रकृते न प्रवचने श्रूयन्ते पापवचनानि / / 224 / / टीका - न चात्रान्तरोक्तश्रुतौ स्मृतौ च अन्यार्थत्वम् अविधेर्दोषनिष्पन्नार्थत्वं वक्तुं शक्यते, मानाभावात् निश्चायकप्रमाणाभावात्। न चैवं प्रकृते जिनभवननिर्माणादौ श्रूयन्ते निशम्यन्ते प्रवचने मौनीन्द्रे पापवचनानि दुष्टत्वख्यापकानीति / / 224 ।।अथ हिंस्यमानानां परिणामसुखं यदुक्तं (गाथा 203) तदपि उपन्यासमात्रमित्याह अनुपन्यस्यमनिष्टेः परिणामसुखं च हिंस्यमानानाम् / दृष्टेष्टविरुद्धार्थाच्छुभभावो म्लेच्छभावसमः / / 225 / / .. टीका - परिणामसुखं च स्वर्गादिलक्षणं च यागादौ हिंस्यमानानां पश्चादीनाम् अनुपन्यस्यं नैवोपन्यसनीयम् अनिष्टेः जैनैरनिष्टत्वान्जिनभवनादौ हिंस्यमानानां पृथ्व्यादिसत्त्वानां परिणामसुखस्य।अथ 204 गाथोक्तशुभभावोऽपि म्लेच्छभावसम इत्याह - वैदिकहिंसायां शुभभाव: म्लेच्छभावसम: चण्डिकादिपुरतो ब्राह्मणहत्यायां प्रवर्तमानाऽनार्यभावतुल्यः; दृष्टेष्टविरुद्धार्थाद् उभयलोकविरुद्धार्थाद् मोहेन प्रवृत्तत्वादिति / / 225 / / अथैकेन्द्रियादिभेदाद् न विशेष: कोपि यदुक्तं तत्परिहारार्थमाह - एकेन्द्रियादिभेदोऽप्यविशेषक्षेपकृत्तवापि स्यात् / शुद्रसहस्रेऽपि हते यन्न मता ब्रह्महत्येति / / 226 / / * टीका - हिंसाव्यतिकरे आस्तां पञ्चेन्द्रियजीवभेद एकेन्द्रियादिजीवभेदोऽपि पापहेतुरिति जैनै: स्वीक्रियते तथापि स भेदः तवापि वैदिकस्यापि शूद्रद्विजातिभेदेन अविशेषक्षेपकृत्जैनानां प्रति न विशेषतः क्षेपकारी यद् यस्मात् शुद्रसहस्रेऽपि हते न तव ब्रह्महत्या मता तथाऽल्पबहुत्वमत्रापि गुणदोषचिन्तायां ज्ञेयमिति / / 226 / / अल्पबहुत्वं भावयन्नाह - यतनातोऽल्पेयमपि ध्रुवं च सा सर्वधर्मसर्वस्वम् / परिणतजलदलशुद्ध्या सा च महार्थव्ययादत्र / / 227 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 75 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - इयमपि जिनभवनादौ हिंसापि यतनातो वर्तमानस्य भवति अल्पा स्तोका, ध्रुवं च निश्चितं च सा यतना सर्वधर्मसर्वस्वं सर्वधर्माणामाधारभूता विज्ञेया। तदुक्तं च - जयणेह धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तव्वुड्डिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा / / 1262 / / जयणाए वट्टमाणो, जीवो सम्मत्तणाणचरणाणं / सद्धाबोहासेवण - भावेणाराहओ भणिओ / / 1263 / / एसा य होइ नियमा, तयहिगदोसविणिवारणी जेण / तेण णिवित्तिपहाणा, विनेआ बुद्धिमंतेणं / / 1264 / / पञ्चवस्तु / / सा च यतनाऽत्र जिनभवनादौ परिणतजलदलशुद्ध्या गालितजलव्यापारणप्रासुकेष्टकादिदलग्रहणलक्षणशुद्ध्या महार्थव्यया विपुलधननियोगाद्भवति विज्ञेया। यद्यपि महार्थव्ययोऽत्र तथाऽपि सर्वोऽसौ धर्महेतुः स्थाननियोगादिति / / 227 / / प्रासङ्गिकमाह - इत्थं खलु निर्दोषं शिल्पादिविधानमपि जिनेन्द्रस्य / / दुष्टमपि लेशत: सद् बहुदोषनिवारकत्वेन / / 228 / / . टीका - इत्ष्टं यतनागुणादेव खलुशब्दोऽवधारणे निर्दोषं निष्पापं शिल्पादिविधानमपि प्रजाऽऽजीविका) कुम्भकारादि शिल्परिधानम् आदिपदात् कलोपदेशप्रभृतिग्रहणम् जिनेन्द्रस्य आद्यतीर्थकृच्छ्रीऋषभस्वामिनः, लेशत आरंभांशतोदुष्टमपि सदोषमपि सद् बहुदोषनिवारकत्वेन परस्परकलहपरधनहरणपरदारागमनपञ्चेन्द्रियमांसभक्षणादिबहुदोषनिवारकत्वेन प्रजानामिहपरलोकहितप्रवृत्तत्वादिति / / 228 / / एतदेवाह - .. वरबोधिलाभतोऽसौ सर्वोत्तमपुण्यसंयुतो भगवान् / एकान्तपरहितरतो विशुद्धयोगो महासत्त्वः / / 229 / / यद्बहुगुणं प्रजानां तद् ज्ञात्वा खलु तथैव दर्शयति / तत्तद्रक्षणकर्तुर्यथोचितं को भवेदोषः / / 230 / / टीका - वरबोधिलाभतो गणधरादिसत्कसम्यक्त्वापेक्षया जगज्जीवहितकारित्वेन सर्वश्रेष्ठसम्यक्त्वलाभाद् असौ तीर्थकृद् सर्वोत्तमपुण्यसंयुत: अनुत्तरपुण्यसंभारो भगवान् जन्मत एव लोकोत्तरैश्चर्यवान् एकान्तपरहितरत: 'आकालमेते परार्थव्यसनिनः' इत्यादिवचनात् तीर्थकृनामकर्मसत्ताकत्वाच्च सकलसत्त्वहितप्रवृत्तत्वा विशुद्धयोगः अविसंवादिमनोवाक्कायव्यापारवान् महासत्त्व: महासात्त्विकश्च भयभैरवादिषु मेरुवन्निष्कम्पः यद्बहुगुणं यत्किञ्चिद् गुणबहुत्वावहं प्रजानां प्राणिनां तद् अनुष्ठानं विशदमतिश्रुतावधिज्ञानत्रयोगाद् यथोचितं राज्यावस्थोचितं ज्ञात्वा संबुध्यैव खलुशब्दोऽवधारणे तथैव दर्शयति उपदिशति। एवं उपदेशदाने तद्रक्षणकर्तुः प्राणिरक्षाकर्तुर्भगवतः अनुबन्धत: को भवेदोषः? न कोऽपि दोष इत्यर्थः।।२२९-३३० / / एतदेव स्पष्टयति - | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 76 मार्गपरिशुद्धिप्रकरंणंसटीकम् Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंशस्तत्र शुभतरो बहुदोषनिवारणेह विश्वगुरोः / नागादेराकर्षणदोषेऽपि यथेह शुभयोगः / / 231 / / - टीका - अंश: प्रधानोंश: तत्र शिल्पादिविधाने शुभतर: प्राणिरक्षाकारितया बहुदोषनिवारणा परस्परकलहवधपरधनहरणादिनिवारणा इह युगारम्भे जगति वा विश्वगुरोआद्यभगवत: अल्पदोषेऽपि शुभयोग: अनुबन्धतः। अत्रार्थे दृष्टान्तमाह - यथा यद्वद् इह जगति नागादेः व्यालादेर्भयाद् गर्तातो बालस्य आकर्षणदोषेऽपि कण्टकादेरीषत्पीडासत्त्वेऽपि मातुःशुभयोग: प्राणरक्षणलक्षणगुणबहुत्वादिति / / 231 / / उपसंहरन्नाह - एवं निवृत्तिसारा हिंसेयं तत्त्वतस्तु विज्ञेया। यतनाविधिशुद्धिमतः पूजादिगतापि च तथैव / / 232 / / टीका - एवम् अनन्तरोक्तनीत्याऽनुबन्धतो निवृत्तिसारा निवृत्तिप्रधाना हिंसा पृथ्व्यादिव्यापत्तिलक्षणा इयं जिनभवननिर्माणे तत्त्वतस्तु परमार्थतो निश्चयत एवेति यावत्, कस्येत्याह - यतनाविधिशुद्धिमतश्च यतनावतो विधिशुद्धिमतश्च कर्तुः। आस्तां जिनभवननिर्माणगता पूजादिगतापि जिनबिम्बपूजासत्कारादिगतापि हिंसा तथैव यतनाविधिशुद्धिमतो निवृत्तिसारैव / / 232 / / ननु पूजया कोऽपि तुष्ट्यादिरूप उपकारोन भवति पूज्यानां कृतकृत्यत्वात्, तथा - जायते आशातना चैवमकृतकृत्यत्वापादानादित्याशङ्कयाह - अनुपकृता अपि पूज्याश्चिन्तामणिवत्फलं प्रयच्छन्ति / अधिकनिवृत्तिश्चास्यां भावेनाऽधिकरणत्यागात् / / 233 / / - टीका - आस्तामुपकृता अनुपकृता अपि पूज्या: तीर्थकृत: कृतकृत्यत्वेनैवा-चिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् चिन्तामणिवद् उपलक्षणात् कामकुम्भज्वलनचन्दनादिव विधिसेवकाय फलंबोधिलाभादिलक्षणं प्रयच्छन्ति ददति। प्रसिद्धं चैतत्। ननु अधिकनिवृत्त्या हेतुभूतया गुणान्तरं नास्ति नियमेनात्र पूजादौ, इत्येतद्गता हिंसा सदोषैव भवति ज्ञातव्या कस्यचिदनुपकारादिति चेद्, उच्यते - अधिकनिवृत्तिश्चास्यां पूजादौ भावेन चेतोवृत्त्या अधिकरणत्यागाद् अधिकरणानिवृत्तेः कारणात्, तद्दर्शनशुभयोगाद् गुणान्तरं च परिशुद्धं पूजादौ जायत एवेति / / 233 / / उपसंहरन्नाह तद् गुणकृदियं हिंसा सर्वज्ञगिरा च सम्भवद्रूपा। निश्चिततदुक्तसमयागतात् सुधीसम्प्रदायाच्च / / 234 / / टीका - यस्मादधिकरणनिवृत्त्यादेः तत् तस्माद् इयं हिंसा पूजादिगता गुणकृत् सम्यक्त्वशुद्ध्यादिगुणकारिणी सर्वज्ञगिरा च वीतरागवाण्या च सम्भवद्रूपाअनुबन्धतो न पुनरत्यन्ताऽसम्भवस्वरूपा युक्तियुक्तेत्यर्थः, निश्चिततदुक्तसमयागताद् यदनन्तरोक्तं तत् सर्वमेतन्निश्चित्य सर्वज्ञावगतकथिताऽऽगमप्रयुक्ताऽनिवारितात् सुधीसम्प्रदायाच्च संविग्न गीतार्थगुरुसम्प्रदायाच्च तदुक्तं च पूयाए कायवहो पडिकुट्ठो सो उ किन्तु जिणपूआ। सम्मत्तसुद्धिहेउत्ति भावणीया उ निरवज्जा / / 1 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 77 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा - ग्रन्थकर्तुरपि श्लोका इमेऽत्रानुसन्धेया: - हिंसाया ज्ञानयोगेन, सम्यग्दृष्टेर्महात्मनः / तप्तलोहपदन्यासतुल्याया नानुबन्धनम् / / 47 / / सतामस्याश्च कस्याश्चिद् यतनाभक्तिशालिनाम्। अनुबन्धो ह्यहिंसाया जिनपूजादिकर्मणि / / 48 / / हिंसानुबन्धिनी हिंसा मिथ्यादृष्टेस्तु दुर्मतेः / अज्ञानशक्तियोगेन तस्याऽहिंसाऽपि तादृशी / / 49 ।।अध्यात्मसार-१२ सम्यक्त्वाधिकारः / / 234 / / उक्तविपरीतं च वेदवचनमित्याह - वेदवचनं च नैवं, न पौरुषेयं मतं यतस्तद्धि / इदमत्यन्तविरुद्धं वचनं चापौरुषेयं च / / 235 / / टीका- वेदवचनं वैदिकं वचनं च नैवं बहुगुणं यतो यस्मात् तद्धि वेदवचनं च न नैव पौरुषेयं पुरुषप्रभवं मतं स्वीकृतं वैदिकैः / इदं वेदवचनस्याऽपौरुषेयत्वम् अत्यन्तविरुद्धं दृष्टेष्टविरोधाद्, उच्यते इति वचनं तच्चाऽपौरुषेयं च, माता च वन्ध्या इति वचनवत्वचनाभावप्रसङ्गादिति / / 235 / / एतदेव भावयति - क्वचिदपि न श्रुतमुच्चैः पुरुषव्यापारविरहितं वचनम् / श्रवणेऽपि च नाऽऽशङ्का विलीयतेऽदृश्यकर्तृगता / / 236 / / टीका - क्वचिदपि क्षेत्रे काले च न नैव श्रुतम् आकर्णितं पुरुषव्यापारविरहितं पुरुषगतकण्ठताल्वादिव्यापारशून्यं वचनं भाषितम्। क्वचित् कदाचिच्च श्रवणेऽपि श्रवणगोचरीभूतेऽपि च सति अदृश्यकर्तृगता अदृश्यकर्तृद्भवा आशङ्का आरेका च न नैव विलीयते निवर्तते प्रमाणाभावात्। नन्वदृश्यकर्तृकं नैवाऽन्यत् श्रूयते, कथं न्वाशङ्केति चेद्, उच्यते - श्रूयते पिशाचवचनं कदाचिल्लौकिकमेतद्, वैदिकमपौरुषेयमपि श्रूयत इत्यभ्युपगमस्तर्हि सदैव तच्छ्रवणापत्तिः, न च कदाचिदपि श्रूयत इति यत्किञ्चिदेतत्। तथा चाहुः - ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च। पुंसश्च ताल्वादि तत: कथं स्यादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः / / 1 / / / / 236 / / अथ तुष्यन्तु दुर्जना इति न्यायाद् वैदिकानां सर्वं चराचरं जगद् ईश्वरसृष्टमिति वेदाअपि तदन्तर्गता इत्यभ्युपगम्य दूषणमाह वेदे किं वर्णानां लोके दृष्टं न पौरुषेयत्वम् / अपि तत्प्रकाशकशक्तेरनिश्चयान्निश्चयो न ततः / / 237 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 78 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - मात्र वेदे किं वर्णानाम् अपौरुषेयत्वम्, लोकेऽपि लौकिकवचनानामपि ईश्वरकर्तृकत्वेन पुरुषैरविकरणाद् न दृष्टं विलोकितं पौरुषेयत्वम्, अपि त्वपौरुषेयत्वं दृष्टमेव। एवं सति वेदे को विशेष:? येन तत्रैवापौरुषेयत्वाऽसद्ग्रहः / न च निश्चयोऽपि ततो वेदवाक्याद् युज्यते प्राय: क्वचिद् वस्तुनि, अत्र हेतुमाह - तत्प्रकाशकशक्तेरनिश्चयावेदवचनस्याऽपौरुषेयत्वाभ्युपगमे वेदवाक्यार्थप्रकाशनविषयेऽतीन्द्रियशक्तिप्रसङ्गदर्निवार: वैदिकैश्चाऽतीन्द्रियशक्तिमत: कस्यचित् पुरुषविशेषस्यानभ्युपगमादिति भावः / / 237 / / एतदेवाह - नेयन्त्रमात्रगम्या तदतिशयो बहुमतो न युष्माकम् / लौकिकवाग्भ्यो दृष्टं कथञ्चिदत्रापि वैधर्म्यम् / / 238 / / टीका - न नैव इयम् अतीन्द्रियशक्ति: नृमात्रगम्या पुरुषमात्रगम्या तस्यातीन्द्रियशक्तिमत्त्वाभावात्, तदतिशयोऽपि अतीन्द्रियदर्शी न नैव बहुमत: अभीष्टो युष्माकं वैदिकानाम्। अत एव वेदवाक्याद् निश्चयोऽपि न युज्यते। अत्र पर आह - केवलं वैदिकवचनान्येवाऽपौरुषेयाणि, तेषामर्थनिश्चयस्तु लोकसकाशाद् युज्यतेति चेद्, उच्यते नशब्दस्याऽनुवृत्ते: - य एव लौकिका: स्वर्गोवंशांप्रमुखा: शब्दास्त एव वैदिकाः स एवेषामर्थ इति लौकिकवाग्भ्यः सकाशाद् अत्रापि वैदिकवचनानामर्थेऽपि न कथञ्चित् केनापि प्रकारेण वैधवें भिन्नत्वं दृष्टम् अवलोकितमिति यत्किञ्चिदेतद् वैदानामपौरुषेयत्वभणनमिति / / 238 / / ननु वैदिकवचनानां स्वभावत एव दीपस्येव स्वार्थप्रकाशकत्वमिति न दोष इति चेद, उच्यते - समयभिदया न च स्वप्रकाशकत्वं विनाऽर्थनियमं च / इन्दीवरे हि दीप: शोणत्वमसत् प्रकाशयति / / 239 / / टीका- विनाऽर्थनियमं यथा घटशब्दस्य कम्बुग्रीवादिमति पदार्थे बोधजनकत्वनियमः, इत्यादिलक्षणार्थनियम विना न समयभिदा। समयभिदया संकेतभेदेन विना न च केवलं स्वभावत: स्वप्रकाशत्वं क्वचिद् युज्यते, स्वभावसमयाभ्यां शब्दानां स्वप्रकाशकत्वनियमात्। किञ्च - लौकिकवचनानां वैदिकवचनानां च तुल्यबोधजनकत्वव्यापारवत्त्वात् समयभेदोऽपि न विद्यते। एवं समयभेदाऽयोगा वेदवचनानां स्वप्रकाशकत्वं न युज्यते। तुष्यन्तु दुर्जना इति न्यायाद् वैदिकवंचनानां स्वप्रकाशकत्वाऽभ्युपगमेऽपि क्वचिद् मिथ्यात्वप्रकाशयोगात्स्वप्रकाशकत्वं विघटते, हि यस्माद् इन्दीवरे नीलकमले दीप: प्रदीप: असद् अविद्यमानं शोणत्वं रक्तत्वं प्रकाशयति प्रदर्शयति, उपलक्षणात् चन्द्रोऽपि पीतवस्त्रं धवलमिति प्रकाशयति। इत्थं व्यभिचारयोगाद् वेदवचनान्नार्थनिश्चय इति / / 239 / / अत एवात्र गुरुसम्प्रदायोऽपि न प्रमाणमित्याह - मूलच्छेदाद्बोधो न वा सुधीसम्प्रदायतोऽप्यत्र अन्धेनान्धाऽऽनयनप्रायो गुरुशिष्यबोधो यत् / / 240 / / टीका - यद्यस्माद् अत्र वेदवचने मूलच्छेदात्, तथाविधाऽपौरुषेयवचनाऽसम्भवाद्न नैव बोध : अर्थबोध:, न वा सुधीसम्प्रदायतोऽपि कथिताऽऽगमार्थप्रयोगकोविदगुरुशिष्यसम्प्रदायाभावादपि नार्थबोध: शक्यः, इत्थं वेदवचनाद् न कस्यचिदिह क्वचिद्वस्तुनि निश्चयो जात इति स कथयति। तस्माद् गुरुशिष्यबोध: आचार्यविनेयसम्बन्धी निश्चयो महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 79 गापिरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यामोह एव स्वतोऽज्ञत्वात्। निदर्शनमाह - अन्धेनाऽन्धाऽऽनयनप्रायो जात्यन्धानां श्वेतेतररूपविशेषस्थापने परम्परा न प्रमाणमित्यर्थः, तथा सम्प्रदायोऽपि वेदवचनानां अर्थनिर्णये न प्रमाणमिति भावः / / 240 / / ननु भवतोऽपि च सर्वज्ञः सर्व आगमपुरस्सर:, स्वर्गकेवलार्थिना हि तपोध्यानादि कर्तव्यमित्यागमः, अत: प्रवृत्तेरिति, तदसावपौरुषेय आगम: अनादिमत्सर्वज्ञसाधनत्वात्।अनादिमान् वा सर्वज्ञो नागमादेव कस्यचिन्मरुदेवीस्थानीयस्याऽऽगमान्तरेणाऽपि भावादित्याशङ्कयाह - अस्माकं च न दोषः सर्वज्ञे वचनपूर्वकेऽपि सति / बीजाङ्करवदनादेर्नियमादर्थाश्रिताभावात् / / 241 / / टीका - आस्तां वचनमन्तरेण वचनपूर्वकेऽपि आगमपुरस्सरेऽपि सर्वज्ञे सति अस्माकं च जनानां पुन: न नैव दोष: भवदुक्ताऽपौरुषेयादिकः, यस्मादेतदुभयम् आगम: सर्वज्ञश्च बीजाङ्करवद् अनादेर्भावाद् न ह्यत्रैदं पूर्वमिदं नेति व्यवस्था। ततश्च यथोक्तदोषाभावः / अथवा अर्थाश्रिताद् अर्थमाश्रित्यैव नियमाद् बीजाङ्करन्यायात् सर्व एव सर्वज्ञः कथञ्चिदागमार्थमासाद्य सर्वज्ञो जातः, तदर्थश्च तत्साधक इति। न तु वचनमेवाश्रित्य, मरुदेव्यादीनां प्रकारान्तरेणाऽपि भावात्। इतश्च न वचनतोऽनादिः, यतो वक्त्रधीनं तत्, न ह्यनादिरपि वक्तारमन्तरेण वचनप्रवृत्तिः, उपायान्तराभावात् तदर्थप्रतिपत्तिस्तु क्षयोपमशमादेरविरुद्धा, तथादर्शनात्, तस्माद् जैनागमो नाऽपौरुषेयः / एतत् सूक्ष्मधिया भावनीयमिति / / 241 / / वेदवचने तु नैवमित्याह - हिंसादोषादि न तत् सर्वत्रास्मिन्नसम्भवद्रूपे / न हि रत्नगुणोऽरत्ने नास्थाने तन्नयः स्थाप्यः / / 242 / / टीका - यत् सद्रूपजिनवचनसिद्ध हिंसादोषादि हिंसादोषयतनागुणादि तत् सर्वम् अस्मिन् वेदवचने सर्वत्र आगमादौ न्यायेन असम्भवद्रूपेन नैव युज्यते, सामान्यवचने विशेषगुणाऽयोगात्। अत्रार्थे दृष्टान्तपूर्वकं शिक्षयन्नाह - यथा न हि नैव रत्नगुण: शिरःशूलशमनादिक: अरत्ने घर्घरघट्टादौ उपलसाधाद् आरोपयितुं योग्यः, तथा बुधेन विपश्चिता तन्नयः सद्रूपजिनवचनगतसुन्याय: अस्थाने वैदिकवचनलक्षणे न नैव स्थाप्य: नियोजनीयो लघुताऽऽपादानदोषभयादिति / / 242 / / तत्र युक्तिमाह - भूतवधं खलु वेदो निषिध्य तं नियमयन् फलोद्देशात् / फलभावेऽप्युत्सर्गत्यागे दोष निवेदयति / / 243 / / टीका - वेदः उत्सर्गेण भूतवधं निषिध्य एव खलु शब्दोऽवधारणे यथा “न हिंस्या भूतानि'' तं भूतवधं फलोद्देशात् फलमुद्दिश्य पुन: नियमयन् विधिरूपेण व्यवस्थापयन् यथा “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः'' दोषं निवेदयतीति सम्बन्धः।आस्तां स्वर्गादिफलाभावे फलभावेऽपि उत्सर्गत्यागे “न हिंस्याद्भूतानि'' इत्युत्सर्गविधेस्त्यजने दोषं पूर्वापरविरोधलक्षणं निवेदयति सूचयति औत्सर्गिकवाक्यार्थदोषप्राप्तेरेवेति / / 243 / / अनन्तरोक्तमेव दृष्टान्तपुरस्सरं दृढयति - यद्वैद्यके निषिद्धो दाहो व्याधिक्षयार्थमपि विहितः / ओघनिषेधोक्तं नो दुःखकरत्वं प्रतिक्षिपति / / 244 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 80 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - यद् यथा वैद्यके आयुर्वेदे निषिद्धः प्रत्याख्यातो दाहः अग्निविकारो दुःखकरत्वेन प्रतीतो व्याधिक्षयार्थं गण्डादिक्षयनिमित्तं पुन: विहितोऽपि उपदिष्टोऽपि ओघनिषेधोक्तं सामान्यप्रतिषेधोक्तं दुःखकरत्वं दाहजन्याऽसुखकरत्वं गण्डादिक्षयलक्षणफलसिद्धावपि नो नैव प्रतिक्षिपति निराकरोति, अपितु सर्वावस्थासु दाहस्य दु:खकरत्वं स्वीकरोति स्वभावस्य त्यक्तुमशक्यत्वात्, तथैव वेदेऽपि उत्सर्गेण निषिद्धा हिंसा फलोद्देशाद् विहिताऽपि ओघनिषेधोक्तं दोषत्वं नैव प्रतिक्षपतीति प्रतिपत्तव्यं स्यादिति / / 244 / / प्रासङ्गिकमभिधायोपसंहरन्नाह - किमिह प्रसक्तकथया भावद्रव्यस्तवावुचितनीत्या / अन्योन्यसमनुविद्धौ भवतो नियमेन मन्तव्यौ / / 245 / / टीका- किं प्रश्ने न किञ्चिदित्यर्थः इह द्रव्यभावस्तवविचारे प्रसक्तकथया प्रासङ्गिकवार्तया, अलमिति भाव: / भावद्रव्यस्तवौ उक्तस्वरूपौ उचितनीत्या प्रधानगौणभावेन अन्योन्यसमनुविद्धौ परस्परं सङ्कलितौ भवतः विद्यते इति नियमेनाऽवश्यंतया मन्तव्यौ ज्ञातव्यौ, तथाहि - श्रावकाणां प्राधान्येन जिनभवननिर्माणादिरूपो द्रव्यस्तवो भगवद्गतचरणादिगुणंबहुमानगर्भत्वेन चरणप्रतिपत्तिहेतुत्वाद्भावस्तवेनाऽनुविद्धो भवति। तदुक्तं च जिणभवणबिंबठवणजत्तापूआइ सुत्तओ विहिणा। दव्वत्थओ त्ति नेओ, भावत्थयकारणत्तेण / / 1 / / साधूनां च प्रधानरूपेण सर्वत्यागरूपो भावस्तवः श्रावकविहितजिनपूजादिदर्शनेन प्रमोदानुमतिद्वारा कारणेन च . श्रावकैरुपदेशद्वारा गौणभूतेन द्रव्यस्तवेन युतो भवति, अन्यथा स्वरूपाभाव इति / / 245 / / अनयोविधिमाह - द्रव्यस्तवोऽल्पशक्तेर्भावस्तव एव भवति गुरुशक्तेः / पलशतभराऽसमर्थो नहि वोढुं पर्वतं सहते / / 246 / / टीका - द्रव्यस्तव उक्तस्वरूप: अल्पशक्तेः स्वल्पशुभाऽऽत्मपरिणामस्वरूपाऽल्पवीर्यस्य प्राणिनः, गुरुशक्ते: विशुद्धाऽऽत्मपरिणामलक्षणबहुवीर्यस्य सत्त्वस्य पुनर्द्रव्यत्यागेन भावस्तवः जिनाज्ञया सर्वसंयम एव श्रेयस्करः, यत: पलशतभराऽसमर्थ : द्रव्यस्तवलक्षणस्वल्पभाराऽसमर्थो नहि नैव वोढुम् आक्रष्टुं पर्वतं सर्वसंयमरूपं गिरि सहते क्षमते यतोऽसौ भावस्तवः शुभात्मपरिणामरूपमुत्कृष्टतरं वीर्यमपेक्षतेऽत: अल्पवीर्य:कथंकरोत्येनम्। इदमुक्तं भवति - यः क्षुद्रो - बाह्यवित्तत्यागेन वन्दनादौ आत्मनः स्वल्पमपि निग्रहं न करोति स यावज्जीवं सर्वत्यागेन कथं निग्रहं कुर्यात्? नैव कुर्यादिति भावः / नन्वारम्भत्यागेन या द्रव्यस्तवहानिः सा च दोषावहेति चेद्, नआरम्भत्यागेन ज्ञानादिगुणेषु वर्धमानेषु सत्सु यद्यपि द्रव्यस्तवहानिर्जायते तथाऽपि सा दोषाय न भवति यतः सा द्रव्यस्तवहानिरपि ज्ञानादिगुणवृद्धिफलेति / / 246 / / एतदेवाह - यदतश्चरित्रयोग्यो बाह्यत्यागक्रमेण भवति बुधः / क्रमकथनतो धर्मे चतुर्विधे हेतुफलभावात् / / 247 / / टीका - यद् यस्मात् श्रावक: अत: द्रव्यस्तवाद् बाह्यत्यागक्रमेण वक्ष्यमाणलक्षणेन बाह्यवित्तत्यागक्रमेण |महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 81 गापिरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानादिगुणेषु वर्धमानेषु सत्सु चारित्रयोग्यो सर्वत्यागात्मकभावस्तवयोग्यो भवति जायते बुधः सुधीः। अत्र तन्त्रयुक्तिमाह - अत एव चतुर्विधे दानशीलतपोभावभेदे धर्मे जिनप्रणीते क्रमकथनतः पूर्वं दानं तत: शीलं ततस्तपस्ततो भाव इत्येवं क्रमकथने हेतुफलभावात् कार्यकारणभावादिति / / 247 / / एतदेव विशदयति - यः सद्बाह्यमनित्यं दानं दत्ते न शक्तिमान् लुब्धः / दुर्धरतरं कथमयं बिभर्ति शीलव्रतं क्लीबः / / 248 / / नाशीलः शुद्धतपः कर्तुं सहते न मोहपरतन्त्रः / शक्त्या तपोऽप्यकुर्वन् भावयति सुभावनाजालम् / / 249 / / टीका - यः प्राणी सद् विद्यमानं बाह्यम् आत्मनो भिन्नम् अनित्यम् अशाश्वतं दानं पिण्डादि न नैव दत्ते वितरति पात्रादौ शक्तिमान् सामर्थ्यवान् लुब्ध : गृध्न: कार्पण्यात् स: अयं क्लीब: नि:सत्त्वः कथं केन प्रकारेण बिभर्ति धारयति दुर्धरतरं महापुरुषसेवितं शीलव्रतम् असिधारम्? नैवेति गाथार्थः / / 248 / / अशीलश्च न नैव शुद्धतपः मोक्षाङ्गभूतं कर्तुं विधातुं सहते क्षमते। शक्त्या यथाशक्ति तपोऽप्यकुर्वन् मोहपरतन्त्र: अतपस्वी न नैव भावयति परिशीलयति सुभावनाजालम् अनित्यादिभावनासमूहम्। एवं हेतुफलभावाद् दानशीलतपोभावभेदस्य धर्मस्य क्रमशो योगः, अन्यथाऽयोग एवेति / / 249 / / अनन्तरोक्तान् दानादिभेदान् द्रव्यभावस्तवयोः समवतारयन्नुपसंहरति - द्रव्यस्तवोऽत्र दानं शेषा भावस्तवाः सुपरिशुद्धाः / संक्षिप्तेयं सूत्रे विस्तरतः स्तवपरिज्ञा तु / / 250 / / टीका - अत्र प्रक्रमे दानं दानधर्म: द्रव्यस्तव एव ज्ञेय: अप्रधानत्वात्, शेषास्तु सुपरिशुद्धाः शीलधर्मादयो भावस्तवा: ज्ञेया: प्रधानत्वात्। उपसंहरन्नाह - संक्षिप्तेयं स्तवपरिज्ञा वर्णिताऽत्र। विस्तरतस्तु भावार्थपुरस्सरा सूत्रे महानिशीथादौ वर्णितेति ततो ज्ञातव्येति / / 250 / / एवंविधमन्यदपि नूतनाचार्यो वाचयतीत्याह - एवंविधमन्यदपि ज्ञानपरिज्ञादि वाचयति धीरः / ज्ञात्वा स्वशिष्यसम्पदमुद्युक्तः प्रवचनहितेऽसौ / / 251 / / टीका - एवंविधं स्तवपरिज्ञातुल्यम् अन्यदपि गभीरार्थं ज्ञानपरिज्ञादि आदिपदाद् नन्दिसूत्रादि असौ स्थापिताचार्य: धीर: सुधी: उद्युक्त: उद्यत: प्रवचनहिते प्रवचनयोगक्षेमवृद्ध्यादिलक्षणे वाचयति व्याख्यानयति ज्ञात्वाऽवबुध्य स्वशिष्यसम्पदम् औचित्येनेति / / 251 / / एवमनुयोगानुज्ञा लेशतो दर्शिता। अथ गणानुज्ञामाह - अस्यैव परानुज्ञा क्रियते गुणिन: कदाचिदन्यस्य / उदयति सहृदयमुख्याद् यस्माज्जिनशासनश्लाघा / / 252 / / टीका - अस्यैव गुणिनः अनुज्ञाचार्यस्य परानुज्ञा गणानुज्ञा क्रियते विधीयते, कदाचिद् दिव्यसङ्केतादौ अन्यस्य योग्यस्य गुणयोगाद्द्वात्सल्यानुवर्तनादिगुणयोगात् कारणात्यस्मात् सहृदयमुख्यात् प्रशस्तमनसो महापुरुषमहामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 82 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकाशाद् उदयति वर्धते जिनशासनश्लाघा प्रवचनप्रभावनेति / / 252 / / अस्या योग्यमाह - सूत्रार्थे निष्णात: प्रियदृढधर्मोऽनुवर्तनाकुशलः / गम्भीरो लब्धिनिधिः कृतकरण: शुद्धजातिकुलः / / 253 / / प्रवचनदृढानुरागः सोपग्रहसङ्ग्रहः स्थिरप्रकृतिः / पुरुषोत्तम इह गच्छस्वामी भणितो जिनवरेन्द्रैः / / 254 / / युग्मम्।। टीका - सूत्रार्थे निष्णात: निष्ठित:, प्रियदृढधर्म: उभययुक्त:, अनुवर्तनाकुशल: उपायज्ञः, गम्भीरः अलब्धमध्यः, लब्धिनिधिः उपकरणाद्याश्रित्य, कृतकरण: अभ्यस्तक्रियः, शुद्धजातिकुल: उभयसम्पन्नः, प्रवचनदृढानुराग: जिनशासने नितान्तानुरागी, सोपग्रहसङ्ग्रहः उपग्रह उपष्टम्भः स च श्रुतज्ञानादिप्रदानतः, सङ्ग्रह उपदेशादिना शिष्यादेः, एतद्वयनिरत:, स्थिरप्रकृति: प्रेक्षापूर्वककारितया, उपलक्षणात् प्रकृत्या परार्थप्रवृत्तः, अत एव पुरुषोत्तमः, इह मौनीन्द्रप्रवचने गच्छस्वामी गणधरो, भणित: प्रतिपादित:, जिनवरेन्द्रैः अर्हद्भिरिति / / 253-54 / / तथा - गीतार्था कृतकरणा कुलजा परिणामिनी च गम्भीरा / चिरदीक्षिता च वृद्धा प्रवर्तिनी संयती भणिता / / 255 / / टीका - गीतार्था श्रुतोचितागमा, कृतकरणा अभ्यस्तक्रिया, कुलजा विशिष्टा, परिणामिनी उत्सर्गापवादविषयज्ञा, गम्भीरा महाशया, चिरदीक्षिता दीर्घपर्याया, वृद्धा वयोऽवस्थया, चशब्दौ समुच्चये ,संयती आर्या भणिता निरूपिता प्रवर्तिनी महत्तरिका जिनवरेन्द्रैरिति शेषः / एतद्गुणविप्रमुक्ते प्राणिनि यो ददाति साध्वादिगच्छं प्रवर्तिनी पदं वा, योऽपि प्रतीच्छति नवरं यश:कामितया स प्राप्नोत्याज्ञादिदोषानिति / / 255 / / एतत्पदमाहात्म्यप्रदर्शनपुरस्सरं पात्रदानाय स्थापितस्य च सम्यक्पालनायाह - व्यूढो गणधरशब्दो गौतममुख्यैः स्वयं पुरुषसिंहैः / यस्तमपात्रे धत्ते जानानोऽसौ महापापः / / 256 / / कालोचितगुणरहिते स्वस्मिन् यः स्थापितं च तं शब्दं / अनुपालयति न सम्यग् विशुद्धभावः स्वशक्त्यापि ।।२५७।।युग्मम्।। टीका - व्यूढो सम्यग्धृत: यो गणधरशब्दो गणनायकपदं स्वयम् आत्मना गौतममुख्यैः इन्द्रभूतिऋषभसेनप्रमुखैः पुरुषसिंहै : गणधरमहात्मभिः तं गणधरशब्दं यो जानान: अधिगच्छन्नपि अपात्रे अयोग्ये धत्ते स्थापयति असौ स्थापक: महापाप: मूढो ज्ञातव्यः / / 256 / / न केवलं निवेशक एव महापापः, अपितु कालोचितगुणरहिते दु:षमकालप्रभावाद् हीनगुणे स्वस्मिन् आत्मनि स्थापितं च निवेशितं च तं शब्दं गणधरशब्दं यो गणनायक: विशुद्धभावः सन् स्वशक्त्याऽपि न नैव सम्यग् यथाविधि अनुपालयति संरक्षति सोऽपि महापाप: अवसेय इति भावः / / 257 / / तथा च - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 83 मापिरिशद्धिप्रकरणंसटीकम Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दः प्रवर्तिनीति व्यूढो यश्चार्यचन्दनाद्याभिः / यस्तमपात्रे धत्ते जानानोऽसौ महापापः / / 258 / / कालोचितगुणरहिता या स्वस्यां स्थापितं च तं शब्दम् / अनुपालयति न सम्यग् विशुद्धभावा स्वशक्त्यापि / / 259 / / युग्मम् टीका - यः शब्दः प्रवर्तिनीति आर्यामधिकृत्य महत्तरिकेति पदं व्यूढ : उदूढो आर्यचन्दानाद्याभिः आर्याचन्दनाब्राह्मादिभि: प्रवर्तिनीभिः तं प्रवर्तिनीशब्दं यो गणनायको जानान : अवगच्छन्नपि अपात्रे अयोग्यायां धत्ते निवेशयति असौ निवेशक: महापापः तद्विराधको ज्ञातव्यः। न केवलं निवेशको महापापः, अपि तु कालोचितगुणरहिता सती या प्रवर्तिनी स्वस्याम् आत्मनि स्थापितं च निवेशितं च तं शब्दं प्रवर्तिनीपदं विशुद्धभावा सती स्वशक्त्याऽपि न नैव सम्यग् यथाविधि अनुपालयति संरक्षति साऽपि महापापा ज्ञातव्येति भावः / / 258-259 / / अयोग्येभ्य: पदप्रदाने महानर्थं प्रदर्शयन्नाह - पददानेऽयोग्यानां गुरुतरगुणमलनया परित्यक्ताः / शिष्या भवन्ति नियमादाज्ञाकोपेन चात्मापि / / 260 / / टीका - पददाने गणधरादिपदप्रदानेऽपात्रेभ्यो लोकोपघातो भवति, तथाहि यत्र गुरव ईदृशा अनाभोगवन्तस्तत्र शिष्याणां का वार्ता? एवमनादरो भवति गणधरादिगुणेषु गुणाऽभावेऽपि गणधरपदप्राप्तेरिति गुरुगुणमलनया कारणभूतया गणधरादिपदे सति अयोग्यानां गुरुतरो बन्ध इत्येवं ते शिष्याः परित्यक्ता उज्झिता भवन्ति अनर्थयोजनाद् नियमाद् अवश्यम्, एवं तदहितयोजनया हेतुभूतया आज्ञाकोपेन च जिनेश्वराणाम्आत्माऽपि स्वयमपि निवेशक: परित्यक्तो भवतीति / / 260 / / यस्मादेवम् - तस्मात्तीर्थकराज्ञाराधननिरतो यथोक्तगुणपात्रे / गीतार्थो निश्चित्य प्रवर्तिनीगणिपदे दत्ते / / 261 / / टीका - तस्मात् कारणात् तीर्थकराज्ञाराधननिरतो गीतार्थो गणनायकः, यथोक्तगुणपात्रे यथोदितगुणसम्पन्ने प्राणिनि पात्रतां निश्चित्य निर्णीय प्रवर्तिनीगणिपदे महत्तरिकागणधरपदे दत्ते प्रयच्छति / / 261 / / अथ स्वलब्धियोग्यमाह दीक्षावयसोः प्राप्तो धृतिमान् पिण्डैषणादि विज्ञाता। पीठादिधर : प्रोक्तः स्वलब्धियोग्योऽनुवृत्तिपरः / / 262 / / टीका - दीक्षावयसोः पर्यायवयोभ्यां प्राप्तः चिरप्रव्रजित: परिणतश्चेत्यर्थः, धृतिमान् धैर्यवान् पिण्डैषणादिविज्ञाता आदिशब्दाद् वस्त्रपात्रैषणादिग्रहः पीठादिधरः बृहत्कल्पपीठिकादिनियुक्तिभाष्यचूादिधर: अनुवृत्तिपर: उपायज्ञस्तत्परश्च सामान्येन स्वलब्धियोग्य: योग्य: स्वलब्धेः प्रोक्त: प्रतिपादितो जिनवरगणधरैः / अयं भाव: - प्राक् स्वलब्धवस्त्रपात्रादेः शुद्धाशुद्धविषयकनिर्णयो गुरुविहितपरीक्षयाऽजायत, अधुना तु स्वलब्धियोग्यतया तन्निणेतुं स्वयं समर्थः, अत एव गुरुदत्तयोग्यपरिवारः पृथगपि विहर्तुं शक्नोतीति / / 262 / / एतदेवाह - . महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं __84 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणसटीकम् Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयमपि सार्धं गुरुणा पृथगथ गुरुदत्तयोग्यपरिवारः / विहरति तदभावे वा विधिनैव समाप्तकल्पेन / / 263 / / * टीका - आस्तामन्यः साधुः अयमपि स्वलब्धिमानपि सार्धं समं गुरुणा आचार्येण विहरति। अथ विकल्पे पृथग् गुरोस्तहि गुरुदत्तयोग्यपरिवार H सन् विहरति, तदभावे गुरुदत्तपरिवाराऽभावे विधिनैव समाप्तकल्पेन वक्ष्यमाणलक्षणेन विहरतीति / / 263 / / समाप्तकल्पाभिधित्सयाऽऽह - जातोऽजातश्च मतो गीतार्थेतरकृतो द्विधा कल्पः। पञ्चकतदूनभावात् समाप्ततव्यत्ययविभिन्नः / / 264 / / टीका - जातो गीतार्थयुक्तो जातकल्पः, व्यक्ततया निष्पत्तेः, अजातश्च अगीतार्थयुक्तश्च भवेदजात: अव्यक्तत्वेनाऽजातत्वात्। एवं गीतार्थेतरकृतो गीतार्थाऽगीतार्थविहित: द्विधा द्विप्रकार: कल्प: व्यवस्थाविशेष: मत : सम्मतस्तीर्थकृद्गणधरैः / एकैकोऽपि पञ्चकतदूनभावात् समाप्ततद्व्यत्ययभिन्न : जघन्येन पञ्चकं साधूनां समाप्तकल्पः, तदूनभावाच्च तन्न्यूनः सन् भवत्यसमाप्तकल्प इति भावः / / 264 / / अजाते कल्पेऽसमाप्तकल्पे च को दोष इत्याह - ऋतुबद्धे वर्षासु च सप्त समाप्तस्तदूनकस्त्वितर: “असमाप्ताऽजातानां भवति हि नाभाव्यमोघेन / / 265 / / ___टीका - ऋतुबद्धे कालेऽनन्तरोक्तकल्पव्यवस्था, वर्षासु च प्रावृषि पुनर्जघन्यतः सप्त साधवः समाप्त: समाप्तकल्पः, तदूनकस्तु तन्न्यूनस्तु इतर: असमाप्तकल्प: / तत्फलमाह - असमाप्ताऽजातानां साधूनाम्ओघेन सामान्येन न हि नैव भवति जायते आभाव्यं तत्तत्क्षेत्रगतशिष्यवस्त्रपात्रादिविषयं किञ्चित्। तदाह - जाओ अअजाओ अ, दुविहो कप्पो अहोइ विण्णेओ। इक्किक्को पुण दुविहो, समत्तकप्पो अअसमत्तो / / 27 / / गीयत्थ जायकप्पो, अग्गीओ खलु भवे अजाओ अ पणगसमत्तकप्पो तदूणगो होइ असमत्तो / / 28 / / उउबद्धे, वासासु य सत्तसमत्तो तदूणगो इयरो। असमत्ताजायाणं आहे ण होइ आहव्वम् / / 29 / / (पञ्चाशके 11 तमे) / / 265 / / अन्योन्यसङ्गतानामपि भवत्याभाव्यमित्याह - भवति समाप्ते कल्पे कृतेऽपि चान्योन्यसङ्गतानां हि / गीतार्थसमेतानामुभयेषां तद् यथासमयम् / / 266 / / टीका - भवति जायते तद् आभाव्यं कृते समाप्तकल्पे अन्योन्यसङ्गतानामपि विजातीयकुलाद्यपेक्षया परस्परमिलितानामपि गीतार्थसमेतानां हि गीतार्थयुक्तानामेव उभयेषां गीतार्थाऽगीतार्थसाधूनामाभाव्यं भवति यथासमयं महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 85 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथासङ्केतमिति / / 266 / / साध्वीमाश्रित्य स्वलब्धियोग्यतामाह - संयत्यपि गुणपङ्क्त्या याऽभ्यधिका भवति शेषसाध्वीभ्यः / श्रुतदीक्षादिपरिणता स्वलब्धियोग्या भवेदेषा / / 267 / / टीका - न केवलं साधुः स्वलब्धियोग्यो भवति संयत्यपि वतिन्यपि गुणपङ्क्त्या गुणगणेन शेषसाध्वीभ्यः सकाशाद् याऽभ्यधिका गुणगणेन श्रुतदीक्षादिपरिणता ज्ञानपर्यायवयोभिश्च परिणता भवति जायते एषा स्वलब्धियोग्या स्वलब्धेर्योग्या भवेद् जायतेति / / 267 / / अत्र मतान्तरं प्रदर्श्य तत्परिहरनाह - आसां न हि स्वलब्धिः सर्वं यद् गुरुपरीक्षितं प्रायः / भवति च लघुत्वमाहुः केचिदितीदं न युक्तिसहम् / / 268 / / कालाचरणाभ्यां यत् स्वलब्धिरुचितेऽलघुत्वमपि विषये / जातसमाप्तविभाषा तासामपि सूत्रतो मृग्या / / 269 / / टीका - आसां संयतीनां न हि नैव भवति जायते स्वलब्धिः यद् यस्मात् सर्वं वस्त्रपात्रादि प्रायो बाहुल्येन गुरुपरीक्षितं भवति, तथा - भवति च तासां प्रकृत्यैव लघुत्वं तुच्छत्वम् तेन लब्धिमाहात्म्यं न सहन्ते, उपलक्षणात् कलादिदोषवत्त्वमिति केचिदाहुः / इदं केषाञ्चिन्मतं न नैव युक्तिसहं युक्तिक्षमम् / / 268 / / कुत इत्याह - यद्यस्मात् तासामपि उचिते योग्ये विषये शिष्यादौ भिक्षादौ च भवत्येव स्वलब्धि: कालाचरणाभ्यां कालेन परिणते वयसि तथाऽचरणया सम्प्रदायाच्चाऽऽचरितमेतत् तासामपि स्वलब्धिरिति। तथा - भवति च अलघुत्वमपि अकारप्रश्लेषात्, तथापात्रे लघुत्वादिदोषवत्त्वमपि न भवतीति भावः। अथ संयतीनां जातसमाप्तकल्पनिर्देशायाऽतिदिशति - तासामपि संयतीनामपि अजाताऽसमाप्तकल्पे बहुतरदोषाद् जातसमाप्तविभाषा जातकल्पसमाप्तकल्पविषयकनिरूपणा सूत्रतो व्यवहारसूत्रादितो मृग्या अन्वेषणीया। सा च जघन्यतोऽपि ऋतुबद्धे काले संयतीनां सप्तक: समाप्तकल्प: वर्षाकाले नवकः। पञ्चवस्तकगाथा 1335 वृत्तौ "व्रतवतीनां सत्रानुसारत: खल्वधिकादि - द्विगुणादिरूपा'' तथाऽनुवादे पूज्याचार्यश्रीराजशेखरसूरिभिः संख्यया ऋतुबद्ध काले दश वर्षाकाले च चतुर्दशेत्युक्तं तत्तु न सम्यग्ज्ञायते। जाताऽजातविभाषा च पिण्डैषणादिविषयकगीतार्थत्वप्रयुक्ताऽवगन्तव्येति / / 268-269 / / अथाऽनुज्ञाविधिमाह - अत्रानुज्ञार्थविधौ शिष्यं संस्थाप्य वामपार्श्वे तम् / देवान् वन्देत गुरुर्वन्दित्वा भणति शिष्योऽथ / / 270 / / टीका - अत्र अनुज्ञार्थविधौ गुरु: आचार्य: तं शिष्यम् गणाऽनुज्ञायोग्यं वामपार्श्वे स्वकीये संस्थाप्य कृत्वा सशिष्यो देवान् वन्देत। अथ तदनन्तरं शिष्यो गुरुं वन्दित्वा भणति प्रार्थयति वक्ष्यमाणमिति / / 270 / / अनुजानीत दिगादिकमिच्छाकारेण यूयमस्माकम् / इच्छाम इति तदर्थोत्सर्ग कुरुते गुरुरथोक्त्वा / / 271 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 86 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - इच्छाकारेण स्वेच्छया यूयमस्माकं दिगादिकमनुजानीत इति भणति शिष्यः। अथ अत्रान्तरे गुरु: आचार्य: इच्छाम इति उक्त्वा भणित्वा तदर्थोत्सर्ग दिगाद्यनुज्ञार्थं कायोत्सर्ग कुरुते विधत्त इति / / 271 / / तत:. विधिनाऽनुज्ञानन्दिमाकर्षति संशृणोति शिष्यश्च / भणति पुनर्वन्दित्वा प्रागुक्तंभावितस्वान्तः / / 272 / / ___टीका - कायोत्सर्गे च चतुर्विंशतिस्तवं चिन्तयित्वा नमस्कारेणोत्सार्य कायोत्सर्ग पूर्वोक्तं चतुर्विंशतिस्तवं पठित्वा ततो गुरुः विधिना नमस्कारपूर्वकमेव आकर्षति पठति अनुज्ञानन्दिम् अनुज्ञार्थं नन्दिसूत्रं शिष्यश्च भावितात्मा सन् संशृणोति उपयुक्तः / अथ वन्दित्वा पुन: भावितस्वान्तः शिष्यो भणति प्रागुक्तम् इच्छाकारेणाऽस्माकं भगवन्! दिगाद्यनुजानीतेति / / 272 / / तत: साधोरस्य दिगादि क्षमाश्रमणहस्ततोऽहमनुजाने / भणति गुरुर्वन्दित्वा शिष्योऽथ भणत्यशठचित्तः / / 273 / / टीका - गुरु: आचार्यो भणति आह यत् क्षमाश्रमणहस्ततो क्षमाश्रमणानां हस्तेन, न तु स्वमनीषिकया दिगादि साधोरस्य पात्रभूतस्य अनुजानेऽहम्, मयाऽनुज्ञातमित्यर्थः। अथ आनन्तर्ये शिष्यः पुन: वन्दित्वा गुरुं भणति कथयति अशठचित्तः सन् वक्ष्यमाणमिति / / 273 / / संदिशत किं भणामि गुरुः प्रवेदयेति तथेति वन्दित्वा / कृत्वा तद्वन्दित्वा प्रवेदितं भणति युष्माकम् / / 274 / / टीका - संदिशत यूयं किं भणामि? अत्र प्रस्तावे। गुरु: भणति यद् वन्दित्वा प्रवेदयेति। तत: शिष्य: तद् गुरुवचनं तथेति प्रतिपत्तिवचनं कृत्वा उच्चारयित्वा पुन:वन्दित्वा शिष्यो भणति प्रवेदितं यूष्माकम् / / 274 / / अन्यच्च सन्दिशत च साधूनां प्रवेदयामि प्रवेदयेति गुरुः / बूते ततश्च शिष्यो वन्दित्वाऽऽकृष्य मङ्गलकम् / / 275 / / कुरुते प्रदक्षिणां सद्गुरोः स दत्त्वोपयोगवान् वासान् / देवादीनांशीर्षे तस्याथ प्रक्षिपन् भणति / / 276 / / ___टीका - संदिशत च यूयं यथा साधूनां प्रवेदयामि। ततो गुरुः मौल: बूते भणति प्रवेदयेति। ततश्च शिष्यो वन्दित्वा मङ्गलकं परमेष्ठिनमस्कारम् आकृष्य पठित्वा कुरुते प्रदक्षिणां सद्गुरोः मौलाचार्य प्रदक्षिणीकरोतीत्यर्थः / अथ स गुरुरपि आचार्योऽपि उपयोगवान् उपयुक्तः सन् सूरिमन्त्रेणाऽभिमन्त्र्य वासान् सुगन्धिचूर्णं देवादीनां जिनेश्वराणां पद्भ्यां दत्त्वा अथ तदनन्तरं तस्य शिष्यस्य शीर्षे मस्तकोपरि वासान् प्रक्षिपन् शिष्यं प्रति भणति वक्ष्यमाणमिति / / 275-276 / / | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 87 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम्| Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धस्व गुरुगुणैस्त्वं त्रीन् वारानुपविशेद्विधायैवम् / शेषं सामायिकवद् दिगनुज्ञार्थस्त्विहोत्सर्गः / / 277 / / टीका - वर्धस्व गुरुगुणैस्त्वम्। एवं त्रीन् वारान् विधाय उपविशति गुरुः / तदनन्तरं शेषं प्रादक्षिण्यादि सामायिकवद् द्रष्टव्यम्, नवरम् इह विधिप्रस्तावे दिगनुज्ञार्थ: उत्सर्ग: कायोत्सर्गो नियमत एव कार्य इति।।२७७ / / उपविशति गुरुसमीपे ततश्च शिष्यः परे तु वन्दन्ते / तं गुरुरप्यनुशास्ति द्वयोः प्रदत्ते प्रबोधफलाम् / / 278 / / टीका - ततश्च तदनन्तरं शिष्य उपविशति गुरुसमीपे। तत: तं नूतनगणधरं परे तु शिष्यप्रभृतयः सर्व एव वन्दन्ते। अत्रान्तरे गुरुरपि मौलाचार्योऽपि द्वयोः गच्छगणधरयोः प्रबोधफलां संवेगसाराम् अनुशास्ति हितशिक्षा प्रदत्ते प्रयच्छति यथाऽन्योऽपि कश्चित् प्रतिबुध्यत इति / / 278 / / अथ गणधरानुशास्तिमाह - उत्तमपदमुत्तमजनसेवितमिदमुत्तमोक्तमासाद्य / धन्यः पारं गत्वा लभते सुखमुत्तमं कश्चित् / / 279 / / त्वमसि च तादृग्गुणवान् भिषग्वर : प्राणिनां भवार्तानाम् / .. तन्न शरणं प्रपन्ना मोचयितव्यास्त्वया भव्याः / / 280 / / टीका - उत्तमपदं गणधरपदम् उत्तमजनसेवितम् इन्द्रभूतिगौतमादिसेवितं गणधराणामुत्तमत्वाद् उत्तमोक्तं लोकोत्तमजिनवरेन्द्रैः प्रज्ञप्तम् आसाद्य प्राप्य कश्चिद्धन्यो महासत्त्वो भवभयभीतप्राणित्राणसमर्थत्वाद्, न तु सर्व एव दुर्वाह्यत्वादस्य पदस्य, पारंगत्वा विधिनैतत्पदस्य लभते सुखमुत्तमं मोक्षसुखं, तस्यैवोत्तमत्वात् / / 279 / / त्वमपि तादृग्गुणवान् दुःखितत्राणसमर्थज्ञानादिगुणसम्पन्न: भिषग्वर :भाववैद्यो भवार्तानां भवव्याधिव्याधितानां प्राणिनाम्, तत् तस्माद् न नैव मोचयितव्याः उपेक्षितव्या: त्वया गणधरेण भव्या: एते साध्वादयः प्रव्रज्याप्रतिपत्त्या त्वां शरणं प्रपन्नाः, अपितु प्रयत्नेन स्मारणादिना भवव्याधितो मोचयितव्याः / मोचयति चाऽप्रमत्तः सन् परहितकरणे नित्योद्युक्तो यो भवसौख्याऽप्रतिबद्धः प्रतिबद्धश्च मोक्षसौख्ये। ईदृश एव त्वं पुण्यवान, तथाऽपि भणितोऽसि मयाऽनुशास्तिव्याजेन जिनाज्ञेति। एवं स्थिते समयनीत्या निजाऽवस्थासदृशं कुशलमेव भवता नित्यमेव कर्तव्यम्, नान्यदिति / / 279-280 / / अथ गच्छानुशास्तिमाह - युष्माभिरपि च नायं मोक्तव्यो भववने महागहने / सिद्धिपुरसार्थवाहः क्षणमपि नित्यं तु संसेव्यः / / 281 / / आज्ञाकोपोऽपरथा स्यादतिदुःखप्रदस्तदेतस्य / निर्भर्त्यितैरपि पदौ न त्याज्यौ कुलवधूज्ञातात् / / 282 / / टीका - आस्तां गणधरेण युष्माभिरपि गच्छवासिभि: साध्वादिभिरपि महागहने अतीवसङ्कटे भववने संसाराटव्यां अयं गुरुः सिद्धिपुरसार्थवाहः तत्राऽनपायनयनात् क्षणमपि न नैव मोक्तव्य: त्यजनीयः, अपितु महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 88 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यं सदैव संसेव्यः समुपासनीयः। न च प्रतिकूलयितव्यं वचनमेतस्य ज्ञानराशेः। एवं हि युस्माकं गृहवासत्याग: प्रव्रज्यया सफलो भवत्याज्ञाऽऽराधनयेति ।।२८१।।अपरथा अन्यथा आज्ञाकोप: तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गः स्याद् अतिदुःखप्रदः इह परलोके च। तस्मात् कुलवधूज्ञातात् दृष्टान्तात् कार्ये निर्भर्त्सतैरपि खरण्टितैरपि भवद्भिः एतस्य गुरोः पदौ चरणौ सर्वकालं न त्याज्यौ मोक्तव्यौ, यतो गुरुकुले वसन् वाचनादितो ज्ञानस्य भागी भवति तथाऽऽराधनदर्शनादिना दर्शने चारित्रे च स्थिरतरो भवति। तदुक्तं च - णाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्तेअ। धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति / / 281-282 / / किञ्च वतिनीनामप्येवं गुरुरनुशास्ति करोति दर्शयति / पूर्वोत्तमसाध्वीनां गुणान् पुनश्चन्दनाद्यानाम् / / 283 / / टीका - आस्तां साधूनां वतिनीनामपि साध्वीनामपि एवम् अनन्तरोक्तप्रकारेण गुरु: आचार्य: अनुशास्ति हितशिक्षां करोति प्रयच्छति। अनुशास्ति कुर्वन् गुरुः पुन: पूर्वात्तमसाध्वीनाम् आदर्शभूतानां चन्दनाद्यानाम् आर्याचन्दनामृगावतीप्रभृतीनां गुणान् विनयादीन् दर्शयति निरूपयतीति / / 283 / / पुन: अभिनवगणधरमाह - भणति स्वलब्धिकमपि प्राग्जाता गुरुपरीक्षितैव तव / लब्धिर्वस्त्रादीनां निर्दोषा पारतन्त्र्यवतः / / 284 / / सम्प्रति सूत्रायत्तो जातोऽसि त्वमिति वस्तुनि प्रकृते / सम्यक् प्रवर्तितव्यं बहुगुणलब्धिर्यथा भवति / / 285 / / टीका - आचार्योभणति उपदिशति आस्तां स्वलब्धिरहितं स्वलब्धिकमपि वस्त्रादिलब्धिवन्तमपि नूतनगणधरं यत् प्राग् इत: कालात् पूर्वं पारतन्त्र्यवतस्तव गुरुपारतन्त्र्याद् गुरुपरीक्षितैव अस्मदादिपरीक्षितैव जाता आसीद् निर्दोषाआधाकर्मादिदोषशुद्धा वस्त्रादीनां लब्धिः प्राप्ति:, सम्प्रति अधुना तु स्वलब्ध्यनुज्ञात: सूत्राऽयत्तो जिनागमपरतन्त्रो जातोऽसि त्वम् इति हेतो: प्रकृते प्रस्तुते वस्तुनि वस्त्रपात्रादिलब्ध्यादौ सम्यक् सूत्रात् प्रवर्तितव्यं यथा बहुगुणलब्धि: बहुगुणतरं वस्त्रादिलब्ध्यादि भवति स्यात् सूत्राज्ञापालनेन तथाविधकर्मक्षयोपशमादिति / / 284-85 / / ततः उत्थाय सपरिवार: त्रिर्गुरुमथ भावत: प्रदक्षिणयेत् / अथ पालयति स गच्छं शिष्यान्निष्पादयन्नीत्या / / 286 / / टीका - अथ आनन्तर्ये सपरिवार : अभिनवगणधर उत्थाय आसनात् त्रिः त्रीन् वारान् गुरुं मौलं भावत: उपयुक्तः सन् प्रदक्षिणयेत् प्रदक्षिणीकृत्य च सम्यग्वन्दते।अत्र प्रस्तावेतपोविधाने गुरुनिषद्यायामुपवेशने च येषां यथाऽचरणा तथा कर्तव्यम्।अथ गणानुज्ञानन्तरंस: अभिवनाचार्य: गच्छंमध्यस्थ: सन्नीत्या सिद्धान्तनीत्या पालयति तथा प्रयत्नेन चान्यान् निजगुणसदृशान् शिष्यान् निष्पादयति अनुयोगादिना ग्रहणाऽऽसेवनशिक्षाप्रदानादिति महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 89 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / 286 / / एतत्फलरूपेणतीर्थाऽव्युच्छित्तिमाह - ईहग्गणिविहितगण: व्यवहाराऽऽचरणमेव भव्यानाम् / दर्शयति मोक्षमार्गं दीप इव गृहस्थितं वस्तु / / 287 / / टीका - ईहग्गणिविहितगण: सूत्रार्थनिष्णातत्वादिपूर्वोक्तगुणसम्पन्नगणधरनिष्पादितश्रमणसमुदाय: स्वकीयाऽऽचरणेन स्वतुल्यत्वात् जगति भव्यानां दर्शयति बहुमानविषयीकरोति यदुत व्यवहाराऽऽचरणमेव मोक्षमार्गम्, निश्चयतस्तु तस्य जीवपरिणामात्मकत्वेन दृग्गोचरातीतत्वात्। अत्रार्थे दृष्टान्तमाह - दीप इव गृहस्थितं वस्तु। दार्टान्तिक योजना त्वेवं कर्तव्या, तथाहि - दीपस्थानीयो गुणसम्पन्नगणिनिष्पादितगणः, दीपप्रकाशस्थानीयं गणसम्बन्धिव्यवहाराचरणं गृहस्थितवस्तुस्थानीयश्च मोक्षमार्ग इति / / 287 / / अनुयोगादिना तावनिष्पादयति गुणैः स्वतुल्यान् शिष्यान् गणधरो यावदापतति क्रमेण चरमकालः। तत्र च संलेखना कार्या। किन्तु कलिकालदोषात् संयमस्यैव दुराराध्यत्वं पश्यन् ग्रन्थकार: पञ्चवस्तुकग्रन्थगतं संलेखनानिरूपणमध्याहारेणाऽतिदिश्य सामान्यत उपदिशन्नाह भरते भृतेऽतिशिथिलै : कलिकालदोषाद् गलितसुविहितविहारे / स्थेयं गुणार्थमगुणेऽप्यग्रहिलग्रहिलनृपनीत्या / / 288 / / / टीका - भरते दक्षिणार्धभरतक्षेत्रेऽस्मिन् कलिकालदोषाद् हुण्डावसर्पिणी तत्रापि पञ्चमारकभाविमात्सर्यादिदोषाद् अतिशिथिलै : लिङ्गिभिः भृते पूर्णे, तदुक्तं - कलहकरा डमरकरा असमाहिकरा अनिव्वुइकरा यं। होहिंति भरहवासे बहुमुंडा अप्पसमणा य / / 1 / / पुन: किदृशे? गलितसुविहितविहारे क्षीणप्रायसुविहितविहारे अगुणेऽपि गुणशून्येऽपि जने गुणार्थं ज्ञानादिगुणलाभार्थं स्थेयं शिथिलसदृशीभूत्वाऽऽत्मानं निर्वोढव्यम् अग्रहिलग्रहिलनृपनीत्या अनुपदमेव वक्ष्यमाणकथानकगम्यया। तथाहि पुल्विं किर पुहवीपुरीए पुण्णो नाम राया। तस्स मंती सुबुद्धी नाम। अन्नया लोगदेवो नाम नेमित्तिओ आगओ। सोय सुबुद्धिमंतिणा आगमेसिकालं पुट्ठो। तेण भणिअं-मासाणंतरं इत्थ जलहरो वरिस्सिस्सइ। तस्स जलं जो पाहिइ, सो सव्वो वि गहग्घत्थो भविस्सइ। कित्तिए वि काले गए सुवुट्ठी भविस्सइ। तज्जलपाणेण पुणो जणा सुत्थीभविस्संति। तओ मंतिणा तं राइणो विनत्तं। रन्नावि पडहग्घोसणेण.वारिसंगहत्थं जणो आइट्रो। जणेणावि तस्संगहो कओ। मासेण वुट्ठो मेहो। तं च संगहिनीरं कालेण निट्ठविलोएहिं नवोदगं चेव पाउमाढत्तं / तओ गहिलीभूआ सव्वे लोआ सामंताई अगायंति नच्चंति सिच्छाए विचिटुंते। केवलं राया अमच्चो असंगहिअंजलं न निट्ठियं ति ते चेव सुत्था चिटुंति। तओ सामंताईहिं विसरिसचिढे राय-अमच्चे निरिक्खिऊण परुप्परं मंतियं; जहा-गहिल्लो राया मंती य। एए अम्हाहितो विसरिसायारा; तओ एए अवसारिऊण अवरे अप्पतुल्लायारे रायाणं मंतिणं च ठाविस्सामो। मंती उण तेसि मंतं नाऊण राइणो विण्णवेइ। रण्णा वुत्तं - 'कहमेएंडंतो अप्पा रक्खिअव्वो? / विदं हिं नरिंदतुल्लं | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 90 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवई'। मंतिणा भणिअं - ‘महाराय! अगहिलेहिं पि अम्हेहिं गहिल्लीहोऊण छायव्वं, न अनहा मुक्खो'। तओ कित्तिमगहिलीहाउं ते रायामच्चा तेसिं मज्झे नियसंपयं रक्खंता चिटुंति। तओ ते सामंताई तुट्ठा। अहो! रायामच्चा वि अम्ह सरिसा संजाय त्ति उवाएण तेण तेहिं अप्पा रक्खिओ। तओ कालंतरेण सुहवुट्ठी जाया। नवोदगे पीए सव्वे लोगा पगइमावन्ना सुत्था संवुत्ता। एवं दूसमकाले गीयत्था कुलिंगीहिं सह सरिसीहोऊण वटुंता अप्पणो समयं भाविणं पडिवालिंता अप्पाणं निव्वाहइस्संति अत्रायमुपनयः, राजस्थानीय आत्मा, शास्त्रानुसारिणी बुद्धिश्च मन्त्रिस्थानीया, तदेकचित्तेनात्मना कुग्रहरूपम् उन्मादकजलं परित्यज्यात्मरक्षणार्थ यावच्छुभकालं भावानुपघातेन तद्वदनुवर्तनाऽपि कर्तव्येति / / 288 / / एवं गणादिकार्ये लिङ्गावशेषमात्रेऽपि वन्दनदानायाह - अगुणादपि गुणवृद्धिर्यदि भवति द्रव्यवन्दनादिभ्यः। तदवकरादपि रत्नोपलम्भ इत्याहुराचार्याः / / 289 / / टीका - आस्तां गुणवत: सकाशाद् कारणे समुत्पन्ने अगुणादपि केवलद्रव्यलिङ्गयुक्तादपि गुणवृद्धिः कुलगणाद्यनुग्रहलक्षणा सूत्रार्थग्रहणरूपा वा यदि चेद्भवति जायते द्रव्यवन्दनादिभ्यः ज्ञाताऽगुणे भाववन्दनाद्यभावाद् आदिपदात् सहवासादिग्रहः, तत् तर्हि सा गुणवृद्धिः,आस्तां रत्नाकराद् अवकरादपि कचवरराशेरपि रत्नोपलम्भः रत्नप्राप्तिः, तत्तुल्या इति एवम् आहुः ब्रुवन्ति आचार्या: सूरयः। अथ द्रव्यवन्दनमपि न कुर्वन्ति ततो महादोषो भवति, यथा अजापालकवाचकमवन्दनामाना अगीतार्था शिष्या दोषं प्राप्तवन्तः / उक्तं च कल्पभाष्ये - उप्पन्नकारणम्मि, कितिकम्मं जो न कुज्ज दुविहं पि / पासत्थादीयाणं, उग्घाया तस्स चत्तारि / / 4540 / / / / 289 / / ___ अथ भाववन्दनविषयमाह - हीनेऽपि गुणांशे तु प्रायो भावेन वन्दनं न्याय्यम् / इत्थं मार्गाभ्युदयः कारणमिह कल्पभाष्योक्तम् / / 290 / / टीका - आस्तां गुणाधिके हीनेऽपि गुणांशे जघन्यसंयमस्थानेषु स्थितेऽपि तुशब्दो विशेषद्योतने प्रायो बाहुल्येन गच्छादिप्रयोजने समुपस्थिते भावेन जिनप्रज्ञप्तेन वन्दनम् उपलक्षणादभ्युत्थानादि न्याय्यम् युक्तियुक्तम्। इत्थम् एवम् इह हीनेऽपि भावेन वन्दनदाने कारणं हेतु: मार्गाभ्युदयः गच्छादिरक्षालक्षणो यदि वाऽभ्युत्थानादिरूपं विनयं धर्मस्य मूलमिति चारित्रे पूर्वस्थितं पश्चास्थितेन वन्द्यमानं दृष्ट्वाऽभिनवधार्मिकाणामपि वन्दनादौ प्रवृत्ति: स्यात्ततश्च क्लिष्टकर्मक्षयात् सम्यक्त्वादिलाभः, स एव वन्दनादौ कारणं हेतु: कल्पभाष्योक्तं ज्ञेयम्। तदुक्तं च बृहत् कल्पभाष्ये दंसण नाण चरित्तं, तव विनयं जत्थ जत्तियं जाणे / जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहिं भावं / / 4553 / / | महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 91 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् | Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतद्वृत्तिः - दर्शनं च - निशङ्कितादिगुणोपेतं सम्यक्त्वं ज्ञानं च - आचारादिश्रुतं चारित्रं च मूलोत्तरगुणानुपालनात्मकं दर्शन-ज्ञान-चारित्रम्, द्वन्द्वैकवद्भावः / एवं तपश्च - अनशनादि विनयश्च अभ्युत्थानादि तपो-विनयम्। एतद्दर्शनादि 'यत्र' पार्श्वस्थादौ पुरुषे यावद्' यत्परिमाणं स्वल्पं बहु वा जानीयात् तत्र तमेव भावं जिनप्रज्ञप्तं स्वचेतसि व्यवस्थाप्य तावत्यैव भक्त्या' कृतिकर्मादिलक्षणया पूजयेत्।।२९० / / अथ केचित् सिंहतया निष्क्रम्याऽपि क्लिष्टकर्मवशात् पार्श्वस्थादिभावं प्रतिपद्यन्ते तेषां प्रति समुपदिशन्नाह - निरुपक्रमकर्मवशान्नित्यं मार्गकदत्तदृष्टिरपि / चरणकरणे त्वशुद्धे शुद्धं मार्ग प्ररूपयतु / / 291 / / टीका - मार्गेकदत्तदृष्टिरपि संयमैकलक्ष्योऽपि नन्दिषेणवत् निरुपक्रमकर्मवशात् निकाचिताऽशुभोदयात् तु शब्द: पुनरर्थ: अशुद्ध चरणकरणे स्थित: सन् कदा संयमे समुद्यतो भवेयमिति भावयन् नित्यं सदाकालं शुद्धं मार्गं जिनोपज्ञमाचारगोचरं प्ररूपयतु उपदिशतु। सदुपदेश दानमेवाऽस्य मोक्षोपाय इति भुवनगुरूणामाज्ञा। शिथिलो हि प्राय: सुखलंपट: सन् न शक्नोति चारित्रविषये कर्तुमुद्यमम्। तथा चार्षः -- अवि नाम चक्कवट्टी, चइज्ज सव्वं पि चक्कवट्टिसुहं / न य ओसन्नविहारी, दुहिओ ओसन्नयं चयइ / / 255 / / (उपदेशमाला) आस्तां संयमे शिथिल:, शुद्धमार्गप्ररूपणाऽवसरेऽपि स वक्तुं ग्लायति। तथा चागमः - दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ वत्तए. . . ।।सूत्र १०१.आचाराङ्गः 1-2-6 / एवं स्थिते शुद्धमार्गप्ररूपणा हि तस्याऽऽराधना। अत्रार्थे - नियट्टमाणा वेगेआयरगोयरमाइक्खंति, नाणभट्ठा दंसणलूसिणो ।।सू. १०७।।आचाराङ्गः 1-6-4 / / अस्याक्षरगमनिका - संयमा लिङ्गाद्वा निवर्तमाना अनिवर्तमाना वा एके आचारगोचरमाचक्षते, न पुनर्यथा ज्ञानभ्रष्टा दर्शनलूषिणः सम्यग्दर्शनविध्वंसिन: स्वतो विनष्टाअपरानपि शङ्कोत्पादनेन सन्मार्गाच्च्यावयन्तीति / / 187 / / 291 / / अनन्तरोक्तशुद्धमार्गप्ररूपणाया: फलं निरूपयन् क्रियामात्रमग्नमतीनुपदिशति - दर्शनशास्त्राभ्यासाद्धीनोऽपि पथप्रभावनोद्युक्तः / यल्लभते फलमतुलं न तत् क्रियामात्रमग्नमतिः / / 292 / / टीका - हीनोऽपि चरणकरणे दर्शनशास्त्राभ्यासात् सम्मत्यादिशास्त्रपरिशीलनात् पथप्रभावनोद्युक्तः श्रीजिनशासनोन्नतिकरणबद्धकक्ष: परोपकारद्वारेणाऽधिकगुणभावाचल्लभते प्राप्नोति फलं विपुलपुण्यलक्षणं नि:स्पृहत्वेन चाऽऽत्मविशुद्धिलक्षणम् अतुलं निरुपमं तद् अनन्तरोक्तं विपुलं फलं क्रियामात्रमग्नमति: एकान्तक्रियारुचि: न नैव लभत इति / / 292 / / अत्र हेतुमाह - विफलक्रियाभिमानादज्ञानाच्च चरणशुद्ध्यभावेन / इदमित्थमेव गदितं यत् सम्मत्यां महामतिना / / 293 / / टीका - अज्ञानहेतुकमूढमतित्वेन विफलक्रियाभिमानाद् व्यर्थक्रियामदाद् अज्ञानाच्च क्रियाहेतुस्वरूपाऽ महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 92 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुबन्धबोधाभावाच्च चरणशुद्ध्यभावेन हेतुना न लभते विपुलं फलं यत् शास्त्राभ्यासात् पथप्रभावनोद्युक्तो लभते। अत्र ग्रन्थकारः स्वमनीषापरिहारार्थमाह - इदम् अनन्तरोक्तम् इत्थमेव एवमेवाऽवितथमेवेत्यर्थः, यद् यस्मात् सम्मत्यां सम्मतितर्कप्रकरणे गदितम् उक्तं वक्ष्यमाणं महामतिना श्रुतकेवलिना श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणेति / / 293 / / गदितमेवाह चरणकरणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा / चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण याणंति / / 294 / / टीका - चरणकरणप्रधाना: चरणं श्रमणधर्म: वयसमणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। णाणाइतियं तव-कोहणिग्गहाइ चरणमेयं / / करणं पिण्डविशुद्ध्यादिः पिंडविसोही समिई भावण पडिमाइ इंदियनिरोहो / पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु / / एतच्चरणकरणयो: प्रधानास्तदनुष्ठानतत्परा: स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा:अयं स्वसमय: अनेकान्तात्मकवस्तुप्ररूपणात्अयं च परसमय: केवलनयाऽभिप्रायप्रतिपादनात् इत्येतस्मिन्परिज्ञानेनादृताअनेकान्तात्मकवस्तुतत्त्वं यथावत्अनवबुध्यमाना: तदितरव्यवच्छेदेन इति यावत्। चरणकरणयोः सारं स्वजन्यफलोत्कर्षाऽङ्गम्, निश्चयशुद्धं परमार्थदृष्ट्यावदातं सम्यग्दर्शनं तेन जानन्ति तदावरणकर्मदोषात्, न हि यथावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधमन्तरेण तद्रुचिः, न चस्वसमयपरसमय तात्पर्यार्थानवगमे तदवबोध: संभवी।। न च सामायिकमात्रपदविद्माषतुषादिनाऽत्र व्यभिचार: शङ्कनीयः, यथोदितचरणकरणप्ररूपकासेवकसुविहितगीतार्थगुरूपारतन्त्र्येण स्वपरसमयमुक्तव्यापारत्वाभावादिति / / 294 / / अनन्तरोक्तसामायिकपदस्य प्रवृत्तिर्ज्ञानादि रत्नत्रयप्राप्तौ सत्यां भवतीति यदि वाऽनन्तरोक्तसम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानाऽभेदात् सम्यग्ज्ञानस्य च सम्यक्चारित्रफलत्वादिति ज्ञानादिरत्नत्रयस्य निश्चयशुद्धं स्वरूपमाह - पर्यायद्रव्यगुणैरात्मज्ञानमिह कथ्यते बोधः / तत्र श्रद्धा दर्शनमभ्युत्थानं च चारित्रम् / / 295 / / टीका - पर्यायद्रव्यगुणैः पर्यायाश्च नृनारकादिभावाः, द्रव्यं च द्रवति गच्छति तान् तान् पर्यायानिति त्रिकालभावी नित्याऽऽत्माऽमूर्त उपयोगलक्षण: प्रत्यग्रज्योतिर्मय: गुणाश्च ज्ञानदर्शनादय: पर्यायद्रव्यगुणास्तै: बोध: अजीवादितत्त्वेभ्य: अन्वयव्यतिरेकाभ्यामात्मतत्त्वविनिश्चयः ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं कथ्यते। तत्र उक्तस्वरूपे बोधेशुद्धात्मतत्त्वे वाऽनुभवलक्षणा श्रद्धा तीव्ररुचिः दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते।अभ्युत्थानं श्रद्धासमन्वितबोधसम्पन्नता, तत्फलभूता स्वभावरमणता, तदर्थः सम्यक् प्रयत्नो वा चारित्रं सम्यक्चारित्रं कथ्यत इति / / 295 / / अनन्तरोक्तरत्नत्रयप्राप्ते: समभावात् सामायिकपदप्रवृत्तिमाह - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 93 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं रत्नत्रयतां प्राप्तेऽस्मिन्निर्विकल्पभावनिधौ / समभावात् सामायिकपदप्रवृत्तिः सुपरिशुद्धा / / 296 / / टीका - इत्थम् अनन्तरोक्ताऽऽत्मस्वभावभूतां तथ्यां रत्नत्रयतां सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैरेक्यम् अस्मिन् आत्मनि प्राप्ते सति, यदि वा ग्रन्थकारहृदयस्थत्वेन प्रत्यक्षत्वात् अस्मिन् नैसर्पप्रभृतिद्रव्यनवनिधिव्यपेक्षया बहिरर्थसङ्कल्पसमुत्थानपरिहारेण निर्विकल्पभावनिधौ निर्विकल्पतया चित्तसमाधौ प्राप्ते सति, समभावात् सर्वभावेषु साम्यात् सुपरिशुद्धा सर्वोपाधिशुद्धा सामायिकपदप्रवृत्तिः सामायिकशब्दार्थबोधनशक्ति: जिनवरेन्द्रैरुक्ता। तदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभि: आवश्यकवृत्तौ-समानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेष्वयनं गमनं समायः स एव सामायिकम्। यदि वा सर्वजीवेषु मैत्री साम, साम्न आय: लाभ: सामायः स एव सामायिकम् / / 296 / / ननु रत्नत्रयवतां चारित्रिणामपि क्वचिद् रागद्वेषादिलक्षणा: परपरिणामा दृश्यन्ते तत्कथमित्याशङ्क्याह - पवनादिव कल्लोलाः परपरिणामा: विकल्पतः पुंसः / स्थिरनिर्विकल्पवृत्तिः स्तिमितोदधिसन्निभे त्वस्मिन् / / 297 / / टीका - लवणसमुद्रे पवनादिव पातालकलशगतसम्मूर्छितमरुतो यथा कल्लोला: ऊर्मयः प्रसरं यान्ति तथैव पुंस: आत्मन: विकल्पतः कर्मोदयजन्यबहिरर्थसङ्कल्पतः परपरिणामाः रागद्वेषादिभावा लब्धसत्ताका भवन्ति, स्तिमितोदधिसन्निभे प्रशान्तसमुद्रतुल्ये तु पुन: अस्मिन् आत्मनि, यदि वा सामायिकपदप्रवृत्तिनिबन्धने निर्विकल्पभावनिधौ प्राप्ते सति पुंस: स्थिरनिर्विकल्पवृत्तिः निर्वाताऽपवरककोणगतदीपशिखातुल्यस्थिरा चेतोवृत्ति: संजायत इति / / 297 / / स्तिमितोदधिसन्निभे जीवस्वभावे सत्यपि यथाऽस्य जीवस्य संसारस्तथाऽऽह - आगन्तुकाद्विकल्पानिमित्ततः प्रसरतां स्वभावेन / कर्तृत्वाद्यभिमानात् कर्माणूनां स संसरति / / 298 / / टीका - कर्मोदयहेतुना आगन्तुकाद् न तु स्वाभाविका विकल्पाद् बहिरर्थसङ्कल्पसमुत्थानाद् अनादिभ्रमात्मकाऽज्ञानेनैव कर्ताहं भोक्ताहमिति कर्तृत्वाद्यभिमानात्, स्वभावेन विस्रसापरिणामेन लोकाकाशे प्रसरतां प्रसरं बिभ्रतां कर्माणूनाम् आत्मना सह क्षीरनीरन्यायेन बन्धभावमागतानां निमित्तत: उदयप्राप्तलक्षणत: स संसारिजीव: चतुर्गतिकसंसारे संसरति बम्भ्रमतीति / / 298 / / ननु पुष्करपलाशकल्पस्य निश्चयशुद्धस्यात्मनः कथं कर्मबन्ध इत्याशङ्कयाह - स्नेहाऽऽलिङ्गितवपुषो रेणुभिराश्लिष्यते यथा गात्रम् / रागद्वेषाऽस्तमते: कर्मस्कन्धैस्तथा श्लेषः / / 299 / / टीका - यथा येन प्रकारेण स्नेहाऽऽलिङ्गितवपुष: तैलाऽभ्यक्तशरीरस्य गात्रम् अवयवो रेणुभिः रजोभिः आश्लिष्यते तथा तद्वद् रागद्वेषाऽस्तमतेः रागद्वेषाभ्यां क्षीणविवेकस्याऽऽत्मनः कर्मस्कन्धैः ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलैः श्लेष: संगमो बन्धलक्षण इति / / 299 / / तत:किमित्याह - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 94 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्यन्नाटकमात्मा तदनादिद्रव्यभावकर्मकृतम् / अन्तर्दशा स्वभावान्न चलति भगवानुदासीनः / / 300 // . टीका- यस्माद्रागद्वेषाऽस्तमतेः कर्मस्कन्धैः श्लेष: तत् तस्माद्भगवान् सत्केवलज्ञानाद्यैश्वर्यवान् उदासीन: रागद्वेषयोर्मध्यस्थो हाना दानपरिणामरहित इत्यर्थः, आत्मा अन्तरात्मदशावान् अनादिद्रव्यभावकर्मकृतं प्रवाहतोऽनादिकर्मपरमाणुलक्षणद्रव्यकर्मतत्कारण रागद्वेषात्मकभावकर्मविहितं नाटकं दानहरणादिसंसारप्रेक्षणकं अन्तर्दशा जाग्र विवेकदृष्ट्या साक्षिभावेन पश्यन् वीक्षमाणः स्वभावात् चैतन्यलक्षणाद्न नैव चलति सुखदुःखभाग् रागद्वेषवशगोवा न भवतीत्यर्थः / / 300 ।।अनन्तरोक्तायाअन्तर्दृशो माहात्म्यमाह अस्यां निमीलितायामपि च व्यवहारथीनिमीलायाम् / अयमीदृगेव न मृगो भवति मृगपतिः प्रसुप्तोऽपि // 301 / / टीका-आस्तामुन्मीलितायां निमीलितायामपि निमिषितायामपिअस्याम् अन्तशि, व्यवहारधीनिमीलायां चव्यवहारबुब्युन्मेषेऽपि व्यवहारतः प्रवृत्तोऽपीत्यर्थः, अयम् अन्तरात्मदशावान् ईदृगेव चेतोवृत्त्याउदासीन एव स्वभावतोऽचलनाद्रोराभिनयप्रवृत्तःअच्युतकल्पादागतदेव इवात्रार्थे ग्रन्थकारो दृष्टान्तमाह-आस्तां जागरूकः, प्रसुप्तोऽपि निद्राणोऽपि मृगपतिः केशरीन नैव भवति जायते मृगो हरिण इति / / 301 // यतः * कुरुते नहि परभावान कारयत्यपि च नानुजानीते। परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च / / 302 / / टीका - हि यस्माद् निश्चयशुद्धत्मा परभावान् पौगलिकभावान् न नैव कुरुते स्वयं न नैव कारयति परैः, अपि च समुच्चयेन नैव अनुजानीते अनुमन्यते। अत्र युक्तिलेशः, तथाहि - यदि स्वभावानां परभावानां चात्मनः कर्तृत्वमभ्युपगम्यतेतर्हि एकस्मिन्त्रात्मद्रव्ये क्रियाद्वयापत्तिः प्रसज्यते।साचऋजूसूत्रनयेन नाऽभिमता। अत एव स आत्मा स्वेषां शुभाशुभानां परिणामानां दानहरणादिलक्षणानामध्यवसायानां कर्ता च विधाता च भोक्ता च तत्तत्परिणामफलाउनुभविता च भवति जायते। तदुक्तं ग्रन्थकारेणैव'अजूसत्रनयस्तत्र कर्तृतां तस्यमन्यते। स्वयं परिणमत्यात्मायं यंभावं यदा यदा / / 17 / / (अध्यात्मसारगतात्मनिश्चयाधिकारे।) // 302 // . एवं स्थितेऽपिये परभावकर्तुचेतोवाक्कायाभेदमध्यवस्यन्ति तानिरूपयन्नाह - परभावकर्तृचेतोवाक्कायाऽभेदमध्यवस्यन्तः / दधते पराङ्मुखत्वं स्वभावलाभप्रथाभूमेः / / 303 / / टीका - परभावकर्तृचेतोवाक्कायाऽभेदं परभावानां यत् कर्तृ चेतोवाक्कायलक्षणं योगत्रयं तेन सह अज्ञानाद् अभेदं तादात्म्यम् अध्यवस्यन्तः कल्पयन्तः स्वभावलाभप्रथाभूमेः स्वभावलाभो मोक्षस्तस्य प्रथा पद्धतिर्माग इति यावत् तस्या भूमि: आदिहेतुः तस्याः पराङ्मुखत्वं पृष्ठं दधते ददत इति / / 303 / / अथ महामहोपाध्याय श्री यशोविजयविरचितं 15 मार्गपिरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभावभूमिमाह - न हि देहो न मनो न चापि वाणी न कारणं तेषाम् / ज्ञायकभावस्त्वहमिति बोधो भूमिः स्वभावस्य / / 304 / / टीका - न हि नैवाहं भिन्नस्वभावत्वाद्देहो वपुः, न मनो मानसं, न वाणी भाषा, देहादावहङ्कासदिविधानस्याऽज्ञानविजृम्भितत्वात् न च कारणं हेतुः तेषां मनोवाक्कायानाम् अपितु ज्ञायकभावः ज्ञातृसत्ता उपलक्षणानित्यो ज्ञानानन्दमय: सिद्धस्वरूपी अहम्आत्मादिपदवाच्यः इति एवंप्रकारो बोधः संविभूमि: आद्यहेतुः स्वभावस्य ज्ञानदर्शनचारित्राऽन्वयिशुद्धाऽऽत्मभावस्य मोक्षस्येत्यर्थः / / 304 / / इत्थं मननस्वरूपं हितोपदिशनाह पुरुष! त्वमेव मित्रं तव किं बहिरीहसे परं मित्रम् / उच्चालयितारं त्वं दूरालयिकं च जानीहि / / 305 / / टीका - पुरुष आत्मन् त्वमेव नान्यः कश्चिदित्यर्थः, तव मित्रं सुहृद् हितकारित्वात्, किम् इति बहिः परम् अन्यं मित्रम् उक्तस्वरूपम् ईहसे इच्छसि? यो हि निर्वाणनिर्वर्तकव्रतमाचरति स आत्मनो मित्रम्। स चैवम्भूतः कुतोऽवगन्तव्य: किंफलश्चेत्याह - त्वं यं जानीहि अवबुध्यस्व उच्चालयितारं कर्मणां विषयसङ्गानां चाऽपनेतारं तंदूरालयिकंच मोक्षमार्गव्यवस्थितंच जानीहि, एवमेव यं जानीहि दूरालयिकं तं च जानीहि उच्चालयितारम्। तथा चागम: - तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि? सू.११८ तथा - जंजाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जंजाणिज्जा दूरालइयं तंजाणिज्जा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि। सूत्र.११९ ।आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धतृतीयाऽध्ययनतृतीयोद्देशः / अक्षरगमनिका त्वेवम् - यं जानीयात् कर्मणां विषयसङ्गानां च उच्चालयितारम् - अपनेतारं तं जानीयात् दूरालयिकं - मोक्षमार्गव्यवस्थितम्, यं जानीयात् दूरालयिकं तंजानीयात् उच्चालयितारम्। पुरुष! धर्मध्यानाद् बहिर्विषयाभिष्वङ्गाय नि:सरन्तम् आत्मानमेवम् अभिनिगृह्य-अवरुध्यैव एवम् अवधारणे दुःखात् प्रमोक्ष्यसि / / 305 / / ननु किमित्येवमुपदिश्यत इत्याशङ्कयाह - इत्यादिभिरुपदेशैः सूत्रोक्तैर्मोक्षमार्गमुख्यत्वम्। मननात्मकस्य सिध्यत्यनात्मभेदप्रबोधस्य / / 306 / / टीका - इत्यादिभिः अनन्तरोक्तगाथाद्वयोपदिष्टप्रभृतिभिः सूत्रोक्तैः श्रीजिनागमोक्तैः उपदेशैः अनुशास्तिलक्षणैः,आदिपदात् “सया सीलं सुपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे इमेण चेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ?" आचाराङ्ग 1-5-3-154 इत्यादिसङ्ग्रहः, किमित्याह-मननात्मकस्य चिन्तनात्मकस्य अनात्मभेदप्रबोधस्य अनात्मनोधनस्वजनादेभिन्नोऽहमिति प्रबोधो भेदप्रबोधो भेदज्ञानं यस्य स तथा तस्य पुंस: मोक्षमार्गमुख्यत्वं ज्ञानादिरत्नत्रयप्राधान्यलक्षणं मोक्षमार्गाभिमुखत्वमाविर्भवतीति / / 306 / / एतत्फलमाह - परमात्माऽभिन्नः स्यात् परभेदज्ञानपरिणतो जीवः / वैषम्यनिर्मुक्तस्वरूपमात्रप्रकाशेन / / 307 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 96 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - परभेदज्ञानपरिणत: परतआत्मव्यतिरिक्तसर्वभावतो भिन्नोहमिति परभेदज्ञानेन सात्मीभावाऽऽपन्न: परभेदज्ञानपरिणतिमानित्यर्थः, एवम्भूतो जीव: भवस्थ: वैषम्यनिर्मुक्तस्वरूपमात्रप्रकाशेन - वैषम्यं सुख्यस्मि दुःख्यस्मिनास्मीत्यादिलक्षणंतस्मा निर्मुक्तस्य परमेच समाधौ निवेशितात्मनोध्यानजस्पर्शनालक्षणया परमात्मसमापत्त्या परमात्मतुल्याऽऽत्मस्वरूपमात्रप्रकाशेन परमात्मभावानुभवनात् परमात्माऽभिन्न: परमात्मसकाशाज्जीवात्माऽभिन्न: स्याद् भवेदिति / / 307 / / अनन्तरोक्तमेवार्थमुपमाद्वारेणाह - क्षणमपि कर्मविलासो परमे परमेष्ठिभावलग्नमतिः / घनसमयेऽपि रविरिव प्रकाशते मेघनिर्मुक्तः / / 308 / / टीका - छाास्थ्येऽपि क्षणमात्रमपि मुहूर्तमात्रमपि वैषम्यनिर्मुक्तो कर्मविलासः कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां क्षयोपशमलक्षणो विलासो लिला यस्य सजीव: परमे चिदाकाशे परमेष्ठिभावलग्नमति: परमात्मभावाऽऽसक्तचित्त: परमात्मतुल्यनिजस्वरूपप्रकाशेन प्रकाशते द्योतते, क इव? आकाशे घनसमयेऽपि मेघनिर्मुक्तो रविरिव / / 208 / / एवम्भूतमेव पुमांसं विशेषेण निरूपयन्नाह - आत्मस्वभावदर्शी स्वैरं कर्मोपनीतफलभुगपि / . लिप्यते न पापभरैरवशिष्टमुपप्लवं पश्यन् / / 309 / / टीका - आत्मस्वभावदर्शी शुद्धात्मस्वभावं संवेदयन् अवशिष्टम् आत्मव्यतिरिक्तं सर्वं विश्वम् उपप्लवम् उपद्रवप्रायं पश्यन् विवेकचक्षुषाऽवलोकयन्आस्तां शालिभद्र इव भाग्योपनीतफलभोगत्यागी स्वैरं स्वच्छन्दतया कर्मोपनीतफलभुगपि निरुपक्रमशुभकर्मोपढौकितकामिन्यादिफलभोगान् भुञ्जानोऽपि भरतादिवत्प्रतिबन्धाऽभावाद् न नैव लिप्यते श्लिष्यते शुष्कमृत्तिकागोलकवत् पापभरैः भोगनिमित्तकै: कमरेणुराशिभिरिति / / 309 / / अनन्तरोक्तमेव प्रकारान्तरेणाह - मायोदकं यथावत् पश्यन् यात्येव तेन मार्गेण / पश्यन्नलीकरूपान् भोगानुल्लङ्घयत्येवम् / / 310 / / ____टीका - यथा मार्गज्ञो व्रजन पथि मायोदकं मरुमरिचिका यथावत् तत्त्वत: अलीकरूपेण पश्यन्जानन् अनुद्विग्न: सन् गन्तव्यस्थानं प्रति तेन मार्गण पथा यात्येव गच्छत्येव मायोदकस्य तत्त्वेन व्याघाताऽसमर्थत्वात्। एवम् इत्थम्आत्मस्वभावदयपि भोगान् कर्माक्षिप्तान्मायोदकोपमान् अलीकरूपान् असारान् पश्यन्समारोपान्तरेण तत्त्वदृष्ट्या जानन् उल्लङ्घयति भुञ्जानोऽपि नि:सङ्गतया पारवश्याऽभावात् परं पदं यात्येव। तदुक्तं योगदृष्टिसमुच्चये मायाम्भस्तत्त्वत: पश्यन्ननुद्विग्नस्ततो द्रुतम्। तन्मध्येन प्रयात्येव, यथा व्याघातवर्जितः / / 165 / / भोगान् स्वरूपतः पश्यंस्तथा मायोदकोपमान्। भुञ्जानोऽपि ह्यसङ्गः सन्प्रयात्येव परं पदम् / / 166 / / उक्तविपरीतमाह तांस्तत्त्वेन तु जानन मग्नो भावेन मोहजम्बाले / उभयभ्रष्टः स्पष्टं निरन्तरं खेदमनुभवति / / 311 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 97 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका - अनात्मज्ञः तान् भोगान् तत्त्वेन भोग एव तत्त्वमिति बुद्ध्या जानन् मन्यमान: तथाविधविपर्यासाद् मोहजम्बाले मोहपङ्के भोगनिबन्धनदेहादिप्रपञ्चे इत्यर्थः, भावेन चेतोवृत्त्या मग्नः प्रलीनो भवति। एवम्भूतो लिङ्गयपि मोहजम्बालमोहित: अज्ञातसरोमार्गपङ्कनिमग्ननीरतीरोभयभ्रष्टगज इव भावमोहे निमग्नो न हि गृहवाससौख्याय, न च संयमाय वान्तभोगाभिलाषितया तत्क्रियाया विफलत्वाद् उभयभ्रष्टः न गृहस्थो नापि प्रव्रजित: सन् स्पष्टं सुव्यक्तं निरन्तरं सततं खेदं क्लेशम्अनुभवति। तथा चार्षः - इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए। आचारांङ्ग सूत्रं 1-2-2 / उक्तं च योगदृष्टिसमुच्चयेऽपि - भोगतत्त्वस्य तु पुनर्न भवोदधिलङ्घनम्। मायोदकदृढावेशस्तेन यातीह क: पथा / / 167 / / स तत्रैव भयोद्विग्नो यथा तिष्ठत्यसंशयम्। मोक्षमार्गेऽपि हि तथा, भोगजम्बालमोहितः / / 168 / / आत्मज्ञस्तु भोगैरपि लिप्तमतिर्न भवतीत्याह - अन्त:करणध्यानप्रतिबन्धकविघटनार्थमुद्युक्तः / भोगैरपि लिप्तमतिर्न भवत्याक्षेपकज्ञानात् / / 312 / / टीका - अन्त:करणध्यानप्रतिबन्धकविघटनार्थम् अन्त:करणेन चित्तेन ध्यानं धादि तस्य प्रतिबन्धका अन्तरायभूता विषयसत्कसङ्कल्पविकल्पास्तेषां विघटनार्थं विच्छेदार्थम् उद्युक्त : उद्यत: आत्मज्ञः श्रुतधर्मे सततलग्नचित्तत्वेन आक्षेपकज्ञानात् कान्तादृष्टिसमुपलब्धाऽऽक्षेपज्ञानेन हेतुभूतेन,आस्तां विषयभोगसम्बन्धिसङ्कल्पविकल्पैः तथाविधकर्मोपनीतै: साक्षाद् भोगैरपि शब्दादिविषयैरपि लिप्तमति: आसक्तचित्तो न नैव भवति जायते। अत एवाक्षेपकज्ञानवतो नि:सङ्गत्वाद् भोगा भवहेतवो न भवन्ति। यदुक्तं योगदृष्टिसमुच्चये- . श्रुतधर्मे मनो नित्यं, कायस्त्वस्यान्यचेष्टिते / अतस्त्वाक्षेपकज्ञानान्न भोगा भवहेतवः // 164 / / अन्यैरप्येतत्संवादि किञ्चिदुक्तम्, तथाहि - प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ! मनोगतान् / __ आत्मन्येवाऽऽत्मा तुष्टःस्थितप्रज्ञस्तदोच्यते / / 2-55 भगवद्गीता।।' अस्यामेव नि:सङ्गदशायां सूत्रोक्तं यद्द्घटते तदाह - उभयपदाऽव्यभिचारो भणितः सम्यक्त्वमौनयोः सूत्रे / अस्यामेव दशायां घटते सम्यग्दृशः सोऽयम् / / 313 / / टीका - य उभयपदाऽव्यभिचार : उभयपदयोर्वक्ष्यमाणयो: अव्यभिचार: समव्याप्तिः पृथिवीत्व-गन्धयोरिव अपृथग्भावसम्बन्धेनाऽन्योन्यव्याप्यव्यापकभाव इति यावत् सम्यक्त्वमौनयोः सम्यक्त्वं च तत्त्वरुचि: मौनं च परपरिणतिनिवृत्तिलक्षणं मुनिभाव इत्यर्थः सम्यक्त्वमौने तयोरुभयपदाऽव्यभिचार: व्याप्यव्यापकभावदर्शनलक्षण: स च द्वयोस्तुल्यवदाराधनप्रवृत्तये सूत्रे आचाराङ्गसूत्रे भणित: निरूपित:, तथाहि - "जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 98 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासहा, जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा'' 1-5-3-156 सोऽयम् अव्यभिचार: अस्यामेव दशायां श्रुतधर्मे लग्नचित्तत्वाद् निःसङ्गावस्थायामेव कान्तादृष्ट्यपराभिधानायां सम्यग्दृष्टे: नैश्चयिकसम्यग्दर्शनवत: पुंसः घटते युक्त्योपपद्यत इति / / 313 / / अथानन्तरोक्तनि:सङ्गदशायां संयमस्थानविरहेऽपि न फलविषये व्यभिचार इत्याह संयमजन्यविशुद्धिस्तदाऽनपायेति निश्चयस्थित्या। फलविषये व्यभिचारो न संयमस्थानविरहेऽपि / / 314 / / टीका - निश्चयस्थित्या तत्त्वमर्यादया तदा तथाविधविशिष्टज्ञानदशायाम् आस्तां संयमस्थाने सति, संयमस्थानविरहेऽपि भरतादीनां संयमजन्यविशुद्धिः स्वभावरमणलक्षणा अनपाया अप्रक्षया इति हेतोः फलविषये क्षपकश्रेण्याद्यवाप्तिरूपे न नैव व्यभिचार: तद्भावभावित्वाऽभावलक्षण इति / / 314 / / उपसंहरन्नाह - . तस्मादात्मज्ञाने कार्यः सततं मुमुक्षुणाभ्यासः / किमपरशास्त्रविकल्पैर्जातिप्रायैः कुतर्कोत्थैः / / 315 / / ___टीका - यस्माज्ज्ञानदशायां संयमजन्यविशुद्धिरनपाया तस्मात् कारणाद् आत्मज्ञाने अध्यात्मशास्त्रगोचरे पञ्चविधेऽपि स्वाध्याये तत्फलभूते वा स्वरूपोपयोगे अभ्यासः पौन:पुन्येन मुमुक्षुणा मोक्षाभिलाषिणा कार्य: विधेयः। किमपरशास्त्रविकल्पैः कीदृशैः ? कुतर्कोत्थैः आगमनिरपेक्षशुष्कतर्कप्रभवै: जातिप्रायैः दूषणाभासप्रायैः, नास्ति किमपि प्रयोजनमित्यर्थः / मिथ्यादृक्प्रणीतवस्तुशून्यकुशास्त्रविकल्पपराङ्मुखः सन्सातत्येनाऽऽत्मज्ञानेऽभ्यासो विधेय इत्युपदेशः / / 315 / / यत: आत्मज्ञानविरहिते शास्त्रे शस्त्रे च कोऽपि न विशेषः। भ्राम्यन्ति मूढलोका: केवलमाकारभेदेन / / 316 / / . टीका - आत्मज्ञानविरहिते जिनागमव्यतिरिक्त शास्त्रे वाङ्मये शस्त्रे च अस्यादौ च दुर्गृहीते न नैव कोऽपि कश्चिद् विशेष : भेदः, एकस्य ज्ञानादिभावप्राणनाशकत्वेनाऽपरस्य चेन्द्रियादिद्रव्यप्राणनाशकत्वेन तुल्यत्वात्। यदि वाऽऽत्मज्ञानविरहिते विषयिभूते पुंसि शास्त्रे शस्त्रे च न कोऽपि विशेषो दुर्गृहीतत्वात्, तथाभूते पुंसि सच्छास्त्रस्याऽपि विपरीतबोधनिमित्तत्वेनाऽपायहेतुत्वात्। अत एव युक्तमुक्तं भ्राम्यन्ति भव्याटव्यां मूढलोका: मोहमोहितमतयः केवलं नवरम्आकारभेदेन गृहिलिङ्गद्रव्यलिङ्गकुलिङ्गधारिणआत्मज्ञानलक्षणं सद्धर्मयानं विना। तदुक्तं च ग्रन्थकारेणैव साधुः श्राद्धश्च संविग्नपक्षी शिवपथास्त्रयः। शेषा भवपथा गेहिद्रव्यलिङ्गिकुलिङ्गिनः / / द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका 2915 / / 316 / / तथा - * हितमहितमुचितमनुचितमवस्तु वस्तु स्वयं न यो वेत्ति / स पशुः शृङ्गविहीन: संसारवने परिभ्रमति / / 1 / / (श्राद्ध-विधिप्रकरणे) एवं स्थिते परमसुहृद्भूय ग्रन्थकारोऽनुशास्ति - महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 99 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मज्ञानग्रन्थाः पन्थानो ये तु मोक्षनगरस्य / गुरुतरगुणगुरुचरणप्रसादतस्तेऽनुसर्तव्याः / / 317 / / टीका - ये वक्ष्यमाणा: तुशब्दः पुनरर्थे पन्थान: उपाया: मोक्षनगरस्य शिवपुरस्य ते आत्मज्ञानग्रन्थाः श्रीजिनागमा: गुरुतरगुणगुरुचरणप्रसादत: गुरुतरगुणा ब्रह्मचर्यादयः यदुक्तम् - व्रतानां ब्रह्मचर्यं हि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् / तज्जन्यपुण्यसम्भार-संयोगाद् गुरुरुच्यते / / 1 / / तथा - गुरुर्गृहीतशास्त्रार्थः परां नि:सङ्गतां गतः / मार्तण्डमण्डलसमो भव्याम्भोजविकाशने / / 1 / / गुणानां पालनं चैव तथा वृद्धिर्जायते / यस्मात् सदैव स गुरुभवान्तरनायकः / / 2 / / अनन्तरोक्तगुरुतरगुणैरलङ्कृता गुरुचरणा आचार्यपादास्तेषां प्रसादतश्चित्तानुवृत्तिलब्धाऽनुग्रहतः, यत: - दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् / दुर्लभा सहजाऽवस्था सद्गुरोः करुणां विना / / 1 / / अनुसर्तव्याः तदुक्ताऽऽसेवनेनाऽन्यथा प्रत्यपायभावात्। यदुक्तम् पडिवज्जिऊण किरियं तीए विरुद्धं निसेवइ जोउ। अपवत्तगाउ अहियं सिग्धं च संपावइ विणासं / / 1 / / 317 / / अथाशीर्वचनेन समापयन्नाह - एनां गुरोरधीत्य श्रद्धत्ते य इह मार्गपरिशुद्धिम् / परमानन्दं लभते स यशोविजयश्रिया पूर्णम् / / 318 / / ' टीका - यः कश्चिदासन्नसिद्धिक: एनां मार्गपरिशुद्धिम् उक्तस्वरूपांगुरोः सकाशाद् अधीत्य पठित्वा श्रद्धत्ते परमहिततया विश्वसिति स भव्यसत्त्व: यशोविजयश्रिया यशश्च शारदचन्द्रचन्द्रिकोज्ज्वलं विजयश्च दुर्वाररागादिवैरिव्रातस्य यशोविजयौ तावेव श्रीस्तया पूर्ण पूरितं परमानन्दं समस्तद्वन्द्ववर्जितमव्याबाधसिद्धपरमात्मसुखं लभते प्राप्नोति।अनेन ग्रन्थकृता महामहोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयवाचकेन स्वनामाऽपि सूचितमिति / / 318 / / अथ ग्रन्थकारप्रशस्ति: श्रीविजयदेवसूरौ जयिनि श्रीविजयसिंहसूरौ द्याम् / प्राप्ते साम्राज्यभृति श्रीमद्विजप्रभाचार्ये / / 1 / / रुचिरं सतीर्थ्यभावं दधतां श्रीजीतविजयविबुधानाम् / श्रीनयविजयविबुधानां शिशुनाऽयं विरचितो ग्रन्थः / / 2 / / महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 100 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम् Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्रशस्तिः / श्रीमद्वीरजिनेशस्य श्रीसुधर्मा गणाधिपः / तपागच्छतरोर्मूलं श्रीगणिपिटकस्य च / / 1 / / तस्य परम्पराऽऽयातः प्रवचनप्रभावकः / श्रीमद्विजयसिंहाख्यः सिंहो दुर्वादिकुम्भिषु / / 2 / / तस्य पट्टाम्बरे सूर्यः शैथिल्यध्वान्तशाषणः / श्रीसत्यविजयोऽभूच्च सत्यनिष्ठशिरोमणिः / / 3 / / पट्टे तदीयके श्रीमान् कर्पूरविजयाभिधः / अभवदतिकर्पूरः प्रसरच्छीलसौरभः / / 4 / / तत्पट्टाभ्रनिशानाथ: सनाथ: सौम्यभावतः / क्षमाभृतां पुरोगामी श्रीक्षमाविजयोऽभवत् / / 5 / / जिनोत्तम-पद्य-रूप-कीर्ति-कस्तूरपूर्वकाः / विजयान्ताः क्रमाऽऽयाताः वित्त्वकवित्वधीधनाः / / 6 / / तत्पट्टे स्वतपस्तेजस्तिरस्कृतनभोमणिः / श्रीमणिविजयचिन्तामणिरीप्सितदोऽभवत् / / 7 / / तस्य शिष्योऽभवद् बुद्ध्या विनिर्जितबृहस्पतिः / श्रीबुद्धिविजयः सेव्यो बुधैर्बुद्धिगुणान्वितः / / 8 / / तत्पट्टे न्यायपाथोधिः धिया धृत्या समन्वितः / सदैव सत्यतत्त्वान्विट सिद्धान्त-रे-कषोपल: / / 9 / / अपूर्वग्रन्थनिर्माता मिथ्यामतनिकन्दनः / नाम्माऽपरेण विख्यात आत्मारामेति सात्त्विकः / / 10 / / भूरिसुशिष्यकः प्रौटः आद्य आचार्यनायक: / अभूच्छीविजयानन्दो जगदानन्ददायकः / / 11 / / / / कुलकम् / / स्मारको जिनकल्पस्य स्वचारित्रेण साम्प्रतम् / श्रीमान् कमलसूरीशः पट्टेऽभूत्तस्य कर्मठः / / 12 / / शिष्यः श्रीविजयानन्दसूरेर्बभूव सिद्धवाक् / श्रीवीरविजयो मन्येऽन्यजन्माचीर्णसंयमः / / 13 / / / आबालभाववैराग्य उपाध्यायवरः कविः / स्वस्याद्भुतचरित्रेण सज्जनस्वान्तचित्रकृत् / / 14 / / युग्मम् / / विजयदानसूरीश: शिष्यस्तस्य बुधाग्रणीः / श्रुतदाने सदासक्तः सक्तः सुसाधुसर्जने / / 15 / / तत्कालधीश्च सज्योतिः सर्वागमरहस्यवित् / श्रीमत्कमलसूरीशपट्टप्रभावकोऽभवत् / / 16 / / युग्मम् / / तच्छिष्यो ब्रह्मनिष्ठोऽपि प्रशस्तचरणक्रियः / विशालगच्छनिर्माता सत्सिद्धान्तमहोदधिः / / 17 / / स्रष्टा कर्मविवृत्त्यादेः सप्तशतमुनीश्वरः / प्रेम्णाऽजातशत्रुर्जीयात् प्रेमसूरीश्वरः प्रभुः / / 18 / / युग्मम् / / तस्य चरमशिष्याणुकुलचन्द्रसूरिणा / वैक्रमेऽब्दे ऋषीन्द्रियाऽभ्रनयनमिते शुभे / / 19 / / व्यरचि श्रुताट्टीकेयं जयताज्जिनशासने / यत्स्यात् सूत्रितमुत्सूत्रितं शोधयन्तु बहुश्रुताः / / 20 / / यद्यपीयं प्रयत्नेन मुनिवरेण शोधिता / जैनशासनरत्नेन श्रीयशोविजयेन हि / / 21 / / त्रिभिर्विशेषकम् / / महामहोपाध्याय श्रीयशोविजय विरचितं मागपिरिशदिप्रकरणंसटीकम Page #111 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. टीकाकार के लिखित,संयोजित एवं संपादित अन्य ग्रन्थ 1. श्री आचाराङ्ग सूत्र अक्षरगमनिका (भाग-१) श्री कल्पसूत्र अक्षरगमनिका 3. श्री महानिशीथ सूत्र 4. श्रीपञ्चकल्पभाष्यचूर्णी सुलभ धातु रूपकोश संस्कृत शब्द रूप कोश 7. संस्कृत अद्यतनादिरूपावली 8. विंशतिर्विशिका प्रकरण-गुजराती अनुवाद 9. विंशतिविशिका प्रकरण-सटीक 10. मुहपत्ति चर्चा हिन्दी-गुजराती 11. जैन श्रावकाचार - हिन्दी 12. जैन श्रावकाचार - गुजराती 13. जीव-विज्ञान - हिन्दी 14. जीवथी शिव तरफ-गुजराती 15. तत्त्व-ज्ञान- हिन्दी 16. तत्त्वनी वेबसाईट-गुजराती 17. कर्म-सिद्धान्त - हिन्दी 18. कर्म नचावत तिमहि नाचत - गुजराती 19. मार्गानुसारिता - हिन्दी 20. सुखी जीवननी मास्टर की - गुजराती 21. जैन इतिहास - हिन्दी 22. न्यायावतार - सटीक 23. कौन बनेगा गुरुगुणज्ञानी - गुजराती 24. भक्ति करतां छूटे मारा प्राण... - गुजराती 25. सुबोध संस्कृत मार्गोपदेशिका 26. सुबोध संस्कृत मन्दिरान्तःप्रवेशिका 27. श्री मार्गपरिशुद्धि प्रकरणम् - सटीक 28. श्री आचाराङ्ग सूत्र - अक्षरगमनिका - भाग -2 (मुद्रणालयस्थ) Vardhman Graphics, Thane Tel.: 543 80 90, 536 34 17 दिव्य दर्शन कार्यालय सतिस्थान 39, कलिकुंड सोसायटी, धोलका - 387 810. जि. - अहमदाबाद फोन - (02714) 23738