________________ / / नमामि नित्यं गुरुप्रेमसूरीन्द्रं / / आमुख 1444 ग्रन्थ रत्नों के रचयिता पुण्यनामधेय आचार्य श्री हरिभद्रसूरि रचित पञ्चवस्तुक नामक महान् ग्रन्थ जैन वाङ्मय में अतीव प्रसिद्ध है। उक्त ग्रन्थ रूप सागर को गागर में समावेश करने रूप प्रस्तुत मार्गपरिशुद्धि प्रकरण रचना का महान् कार्य आसन्न उपकारी न्यायाचार्य महामहोपाध्याय श्रीमद् विजय यशोविजयजी म. ने बडी खूबी से किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की पीठिका रूप 16 गाथाओं में अद्वितीय विद्वत्ता का परिचय दिया है। ग्रन्थ का नाम सार्थक है। पूरे मोक्ष मार्ग का निरूपण बडी कुशलता से किया है। बीच बीच में वाद स्थानों को अति संक्षिप्त रूप से, फिर भी सचोट शैली में ग्रथित कर दिये हैं। ___ ग्रन्थ का मुख्य विषय पञ्चवस्तु के अनुसार (1) प्रव्रज्या विधि, (2) प्रव्रजित की नित्य क्रिया (3) महाव्रतों का आरोपण, (4) आचार्यपद एवं गण की अनुज्ञा विधि तथा (5) पञ्चवस्तुगत पांचवे संलेखना द्वार के स्थान पर कलिकाल की विषमता, बुद्धि बल और सत्त्व की हानि देखकर संलेखना योग्य परिणति हेतु सुंदर मार्गदर्शन रूप उपदेश दिया है। उपसंहार में आत्मज्ञान के अभ्यास पर विशेष भार देकर आगम ग्रन्थ जो मोक्ष के पन्थ हैं उनका अनुसरण गुरुकृपा से करने की अमूल्य सलाह देकर परमानन्द की प्राप्ति के आशीर्वाद से ग्रन्थ पूरा किया है। अवान्तर विषय भरचक हैं। उनका विवरण विषयानुक्रम से ज्ञात करें। प्रस्तुत मूल ग्रन्थ मोक्षमार्ग का संपूर्ण प्रदर्शक है। अत: नाम "मार्गपरिशुद्धि" सार्थक है। साधकों के लिए नित्य स्वाध्याय नप यह ग्रन्थ अतीव उपयोगी है। तीस साल ए यह मूल ग्रन्थ हाथ में आया, तब ही इस पर सुबोध विवेचन लिखने का प्रारंभ किया था। उस बीच ज्ञात हुआ कि विद्वद्वर्य पू. मुनि श्री यश:कीर्तिविजयजी (वर्तमान में आचार्य) म. इस ग्रन्थ की टीका लिख रहे हैं। बड़ा आनंद हुआ और मैंने लेख स्थगित कर दिया। एक ही विषय पर एक साथ दो टीकाओं की क्या आवश्यकता? लंबा समय बीत गया। कुछ समय पूर्व इन्हीं पूज्यों से साक्षात्कार हुआ और जानने को मिला कि व्याख्यान आदि अनेक प्रवृत्तियों में व्यस्त होने के कारण वह भी यह कार्य नहीं कर पाये। सुषुप्त इच्छा फिर जगी और इस कार्य का शुभ आरंभ नये सिरे से गत चातुर्मास वि.सं. 2056 नवसारी में किया और इस चातुर्मास वि.सं. 2057 भिवंडी में पूर्णता को पाया। इस कार्य में अनेक सहायक हुए हैं। उन सभी का नामोल्लेख कर आभार माना कहाँ महामहोपाध्याय महाराज की तार्किक बुद्धि और कहाँ मेरा स्वल्प बोध! फिर भी मुख्यतया पञ्चवस्तुक ग्रन्थ की टीका का एवं अन्य ग्रन्थों का आलंबन लेकर जैसे शिशु पिता का अनुकरण करता है वैसे ही इस टीका का संकलन किया है। संक्षेप में कहा जाय तो पदार्थ सभी पूर्व के महापुरुषों के हैं। मैं तो सिर्फ लेखक रहा। तथापि मूलकार के आशय विरूद्ध एवं श्री जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम्।। भिवंडी - आ. वि. कुलचन्द्रसूरि कार्तिक सुदि 15, 2058 महामहोपाध्याय श्री यशोविजय विरचितं 4 मार्गपरिशुद्धिप्रकरणंसटीकम