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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्रीपरमात्मनेनमः
श्रीभगवदात्मनेनम. श्रीपरमपारिणामिकभाषाय नमः
जिन-सिद्धान्त
लेखक व प्रकाशक:ब्रह्मचारी मूलशंकर देशाई
चाकसू का चोक, जयपुर १ फाल्गुण अष्टाह्निका वीर स० २४८२, विक्रम सं० २०१२
प्रथमावृत्ति। ३०००
मुद्रकः- .
मूल्य श्री वीर प्रेस, जयपुर। । एक रुपया र
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* हो शब्द * वर्तमान में जो प्रणाली धर्म की चलती है, उसमें । विशेषकर निमित्त प्रधान ही दृष्टि रहती है । जब तक उपादान का ज्ञान द्रव्य, गुण, पर्याय का न होवे, तब तक सम्यग्दर्शन होना दुर्लभ है। समाज में श्रीमान् स्वर्गीय पं० गोपालदासजी वरैया की बनाई हुई जैन सिद्धान्त प्रवेशिका महान प्रचलित है । परन्तु उसमें पाश्रवादिक का स्वरूप प्रधानपने निमित्त की अपेक्षा से है, जिस कारण से श्रात्मा में भाव बंध किस प्रकार का हो रहा है, उसका ज्ञान होना दुर्लभ सा हो जाता है । जैसे समाज के विद्वान एक बार लिखते हैं कि लेश्या चारित्र गुण की पर्याय है,
और दूसरी बार विद्वान लिखते हैं कि लेश्या वीर्यगुण की पर्याय है । यह क्यों होता है ? इसका इतना ही उत्तर है कि उसको आत्मा के द्रव्य, गुण, पर्याय का ज्ञान नहीं है। जिन-सिद्धान्त शास्त्र में प्रात्मा के द्रव्य, गुण, पोय का विशेष रूप से कथन के नाय में पांच भावों सं निमित्त का वर्णन किया गया है तथा जैन-सिद्धान्त प्रवेशिका का सम्पूर्ण समावेश इसमें किया गया है
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मेरी आशा है, जनता इससे विशेष लाम उठावेगी। इस शास्त्र की रचना करने में प्रधान प्रेरणा गया समाज की ही है। इतना ही नहीं बल्कि शास्त्र प्रकाशन के लिये अन्दाज़ एक हजार रुपये की सहायता गया समाज से भी मिली है, जो धन्यवाद के पात्र है । ज्ञान दान में यदि समाज का लन्य हो जावे, तो समाज का महान उद्धार के साथ ही साथ अन्य जीवों को भी विशेष लाभ हो सकता है।
ब्रह्मचारी मूलशंकर देशाई
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विषय-सूची - १ छह द्रव्य तथा नौ तत्त्व सामान्य अधिकार पृष्ठ १ से ५२ २ द्रव्य कर्म अधिकार पृष्ठ ५२ से १४ ३ जीव भाव, निमित्त नैमित्तिक, तथा पृष्ठ १५ से १३०
क्रमवद्ध पर्याय अधिकार ४ प्रमाण, नय, निक्षेप अधिकार पृष्ठ १३१ से १४२ ५ व्यवहार जीव (समास) अधिकार पृष्ठ १४३ से १५२ ६ मार्गणा अधिकार
पृष्ठ १५३ से।१६७ ७ गुणस्थान अधिका
पृष्ठ १६८ से १६३
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= शुद्धिः पत्रक == पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
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वर
६ तरल
प्रवाही ४३ ४ मन्दहोकर रहित १७ १० समम समय ५१ १३ तत्व में तत्त्व ये र १ बंध र ४ बंध ८६ १६ कपाय कपाय १६ १६ भाव का २१५ ५ का मक समय का एक समय १२० २१ कायिक वार्य चायिक वीर्य १७१ श्राभिप्राय अभिप्राय १२८ २१ मत-ममानम सत्त-समागम १६२ ७ कम्पन को गुण का गुण का फम्मन को १८१ १६
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|| श्री परमात्मने नमः |
★ जिन सिद्धान्त ★
* मङ्गलाचरण
जिन सिद्धान्त जाने बिना, होय न प्रातम ज्ञान । तातें उसको जानकर, करो भेद विज्ञान ||
जिन सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किए बिना आत्मा ने अपना अनन्तकाल निकाला तो भी संसार का किनारा देखने में नहीं आया । इसका मूल कारण यह है कि इस जीव ने श्रागम में जो जो निमित्त से कथन किया है, उसका यथार्थभाव न समझने के कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र में प्रवृत्ति कर अपना समय व्यतीत किया । वाल्यअवस्था में जो जो बातें ग्रहण की जाती हैं, वे बातें बालक अपने जीवन में कभी भी भूल नहीं सकते । इसीलिए चालक अध्यात्म्य ज्ञान की प्राप्ति
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[जिन सिद्वान्त
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कैसे करे-यह लच्य विन्दु रखकर सरल तथा सुगम भाषा में यह ग्रन्थ रचने का विकल्प हुआ है । और कोई नामवरी अथवा ख्याति का प्रयोजन नहीं है।
जिन सिद्धान्त नामक ग्रन्थ का उदय होता हैप्रश्न-द्रव्य किसको कहते हैं ? उत्तर-गुण पर्याय के समूह को द्रव्य कहते हैं। प्रश्न-गुण किसको कहते हैं ?
उत्तर-द्रव्य के पूरे भाग में और उसकी सब अवस्थाओं में जो रहे उसको गुण कहते हैं । गुण अनादि अनन्त हैं । जैसे-जीव का गुण चेतना, पुद्गल का गुण रूप, रस, गन्ध आदि एवं सोने का गुण पीला आदि।
प्रश्न-गुणके कितने भेद हैं ?
उत्तर-दो भेद हैं । १-सामान्य गुण, २-विशेष गुण ।
प्रश्न-सामान्य गुण किसको कहते हैं ?
उत्तर-जो गुण सब द्रव्यों में हो उसे सामान्य गुण कहते हैं।
प्रश्न-विशेष गुण किसको कहते है ? ___ उत्तर-जो गुण सब द्रव्यों में न पाया जाय उसको विशेष गुण कहते हैं।
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जिन सिद्वान्त ]
प्रश्न--सामान्य गुण कितने हैं ?
उत्तर-अनेक हैं परन्तु उनमें ६ गुण प्रधान हैं। १-अस्तित्त्व, २-वस्तुत्व, ३-द्रव्यन्व, ४-प्रमेयत्व, ५-अगुरुलघुत्व, ६-प्रदेशत्व ।
प्रश्न--अस्तित्व गुण किसको कहते हैं ?
उत्तर--जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कभी भाश न हो उस शक्ति को अस्तित्व गुण कहते हैं।
प्रश्न-वस्तुत्व गुण किसको कहते हैं ?
उत्तर--जिस शक्ति के निमित्त से सब गुणों की रक्षा हो अर्थात उसकी ध्रुव्यता कायम रहे उस शक्ति का नाम वस्तुत्व गुण है।
प्रश्न-द्रव्यत्व गुण किमको कहते हैं ?
उत्तर--जिस शक्तिके निमित्त से द्रव्य अपनी अबस्थाय बदलता रहे अर्थान् पुरानी अवस्था बदलकर नई अवस्था धारण करे उस शक्ति का नाम द्रव्यत्व गुण है।
प्रश्न-प्रमेयत्व गुण किसको कहते हैं ?
उत्तर--जिस शक्ति के निमित्त से दूसरे के ज्ञान में ज्ञेय रूप होने योग्य शक्ति का नाम प्रमेयत्व गुण है।
प्रश्न-अगुरुलघुत्य गुण किसको कहते हैं ? उत्तर-जिस शक्ति के निमित्त से एक हर दूसरे
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। जिन सिद्धान्त
द्रव्य में परिणित न होजावे तथा एक गुण दूसरे गुणके रूप में न होजावे अर्थात् एक दूसरे से मिल न जाये ऐसी शक्तिका नाम अगुरुलघुत्र गुण है ?
प्रश्न-प्रदेशत्व गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कोई भी आकार नियम से रहे उस शक्ति का नाम प्रदेशत्व है।
प्रश्न -द्रव्य के कितने भेद है ?
उत्तर-६ भेट हैं-(१) जीव द्रव्य, (२) पुद्गल. (३) धर्मास्तिकाय, (४) अधर्मास्तिकाय, (५) आकाश (६) काल ।
प्रश्न-जीव द्रव्य किसको कहते हैं ?
उत्तर---जो देखता जानता हो, सुख दुःख का अनुभव करना हो और मनुष्य, देव, तिर्यञ्च, नारकी अवस्था धारण करता हो उसको जीव द्रव्य कहते हैं।
प्रश्न-देखना, जानना जीव का क्या है ?
उत्तर---देखना जानना जीवका स्वभाव भाव है, जिसका कभी नाश नहीं होता।
प्रश्न-सुख दुःख जीव का क्या है ?
उत्तर--सुख दुःख जीव की विकारी पर्याय है, वह विकारी पर्याय बदल जाती है।
प्रश्न- मनुप्य, देव, आदि जीव का क्या है ?
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जिन सिद्धान्त ]
उत्तर---मनुष्य, देव आदि जीव द्रव्य की संयोगी अवस्था है और संयोगी अवस्था छूट जाती है।
प्रन-पुद्गल द्रव्य किसको कहते हैं ? ___ उत्तर-जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुण पाये जावे उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं । वे पुद्गल द्रव्य लोकमें अनन्तानन्त हैं । समस्त लोकाकाश में पुद्गल द्रव्य ठसाठस भरे हुये हैं।
प्रश्न-पुद्गल द्रव्य के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो भेद हैं-(१) परमाणु, (२) स्कन्ध । प्रश्न--परमाणु किसको कहते हैं ?
उत्तर--पुद्गल के छोटे से छोटे भाग को परमाणु कहते हैं, जिसको दो टुकड़ों में विभाजित न कर सकें जिसमें आदि, मध्य, अन्त का भेद न हो उसको परमाणु कहते हैं।
प्रश्न--स्कन्ध किसको कहते हैं ?
उत्तर-अनेक परमाणुओं के मिले हुये पिण्ड का नाम स्कन्ध है।
प्रश्न--स्कन्ध कितने प्रकार के हैं ? ___ उत्तर--स्कन्ध ६ प्रकार के हैं- (१) वादर बादर, (२) चादर, (३) चादर सूक्ष्म, (४) सूक्ष्म बादर, (५) सूक्ष्म, (६) सूक्ष्म-मूक्ष्म ।
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[जिन सिद्वान्त प्रश्न-वाटर वादर पुद्गल स्कन्ध किसको कहते हैं?
उत्तर-जिस पुद्गल म्कन्ध के टुकडे होने के बाद उनका मिलना न हो सके ऐसे म्कन्ध को चादर बादर स्कन्ध कहते हैं । जैसे--पत्थर, लकड़ी, कोयला आदि ।
प्रश्न-चादर पुद्गल स्कन्ध किसको कहते हैं ?
उत्तर-जो पुद्गल स्कन्ध अलग करने से अलग होजावे और मिलाने से मिल जावे ऐसा पुद्गल स्कन्ध बादर स्कन्ध कहलाता है. जैसे-जल, दूध, तैल आदि तरल पदार्थ ।
प्रश्न-चादर-सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध किसको कहते हैं?
उत्तर---जो पुद्गल स्कन्ध देखने में आने पर पकड़ने में न आवे ऐसे पुद्गल स्कन्ध को बादर-मूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध कहते हैं । जैसे-धूप, चांदनी, छाया धुवां आदि। प्रश्न-मून्म-वादर पुद्गल स्कन्ध किसको कहते हैं?
उत्तर--जो पदगल स्कन्ध देखने में न आवे पकड़ने में भी न आवे पर जिसका अनुभव होवे ऐसे पुद्गल स्कन्ध को सूक्ष्म बादर स्कन्ध कहते हैं-जैसे शब्द सुगन्ध, दुर्गन्ध आदि।
प्रश्न--मून्म पुद्गल स्कन्ध किसको कहते हैं । उत्तर-जो पुद्गल स्कन्ध अनन्त परमाणुओं के
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जिन सिद्धान्त ]
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द्वारा बने होने पर भी पकड़ने, देखने या अनुभव में न आवे परन्तु जिनका श्रागम में प्रमाण है ऐसे पुद्गल स्कन्ध को सूक्ष्म स्कन्ध कहते हैं जैसे - कार्माण शरीर, तैजस शरीर श्रादि ।
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प्रश्न - सूक्ष्म सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध किसको कहते हैं ? उत्तर - जो पुद्गल स्कन्ध दो सूक्ष्म परमाणुओं से बना हुआ है उसे सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध कहते हैं ।
प्रश्न --- पुद्गल स्कन्ध और कितने प्रकार के हैं ? उत्तर -- आहार वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा मनोवर्गणा, कार्माण वर्गणा यादि २२ भेद और हैं ।
प्रश्न -- आहार वर्गणा किसको कहते है ?
उत्तर -- जो पुद्गल वर्गणा श्रदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर रूप परिणमन करे उस वर्ग को आहार चर्मणा कहते हैं ।
प्रश्न - - औदारिक शरीर किसको कहते हैं ?
उत्तर - मनुष्य एवं तिर्यश्च के स्थूल शरीर को
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हारिक शरीर कहते हैं ।
वैकियिक शरीर किसको कहते हैं ?
उत्तर -- जो शरीर अनेक प्रकार की यवस्थायें धारण करे, जिसकी छाया न पडे ऐसे देव तथा नारकी के शरीर को वैकियक शरीर कहते हैं ।
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जिन मित्रान
प्रश्न - - श्राहारक शरीर किसको कहते हैं ? उत्तर-- छटवें गुग्गगम्यानवर्ती मुनि के त्रों में कोई शंका होने पर केवली या केवली के निकट जाने के लिये उसके मस्तक में से एक हाथ का पुतला निकलता है, उसको श्राहारक शरीर कहते हैं ।
प्रश्न- तेजस - वर्गणा किसको कहते हैं ?
उत्तर - - प्रौढारिक तथा वैकिकि शरीर को कान्ति देनेवाला तेजस शरीर जिन वर्गणाओं से बने उन वर्गपात्रों को तेजस वर्गणायं कहते हैं । प्रश्न---भाषा वर्गणा किसको कहते हैं ?
उत्तर -- जो वर्गणा शब्द-रूप परिणमन करे उस वर्गणा को भाषा वर्गणा कहते हैं ।
प्रश्न - कार्माण वर्गणा किसको कहते हैं ? उत्तर -- जिस वर्गणा में से कर्म बने उसको कार्माण वर्गणा कहते हैं ।
प्रश्न -- कार्माण शरीर किसको कहते हैं ?
उत्तर -- कार्माण शरीर के दो हैं-- (१) अष्ट कर्म के समूह का नाम कार्माण शरीर है । ( २ ) ' शरीर नामा नाम कर्म की कार्माण नाम की कर्म प्रकृति का नाम भी कार्माण शरीर है जो शरीर विग्रह गतिमें रहता है।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न-तैजस और कार्माण शरीर किसके होते हैं ?
उत्तर--सब संसारी जीवों के तैजस और कार्माण शरीर होते हैं।
प्रश्न--धर्मास्तिकाय द्रव्य किसको कहते हैं ?
उत्तर-जिसमें गति हेतुत्व नामका प्रधान गुण हो उसे धर्मास्तिकाय द्रव्य कहते हैं । जो लोकाकाश के बरावर असंख्यात प्रदेशी, निष्क्रिय और निष्कम्प एक अखंड द्रव्य है । जो जीव तथा पुद्गल के गमन करने में उदासीन निमित्त है । जैसे-मछली के लिये जल |
प्रश्न--अधर्मास्तिकाय द्रव्य किसको कहते हैं ? ____उत्तर-जिसमें स्थिति हेतुत्व नाम का प्रधान गुण हो, जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशी, निष्क्रिय तथा निष्कंप एक अखण्ड द्रव्य है, जो जीव तथा पुद्गल के स्थिति रूप परिणमन करने में उदासीन निमित्त है। जैसे धूप के दिनों में थके हुये मुसाफिर के लिये पेड़ की छाया।
प्रश्न--आकाश द्रव्य किसको कहते हैं ?
उत्तर--जिसमें अवगाहनत्व नाम का प्रधान गुण हो, जो अनन्त प्रदेशी निष्क्रिय, निष्कप एक अखण्ड द्रव्य है, जो सब द्रव्यों को स्थान देने के लिये उदासीन
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[ जिन सिद्धान्त
निमित्त है। उसके उपचार से दो भेद हैं- (१) लोकाकाश
(२) लोकाकाश |
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प्रश्न -- लोकाकाश किसको कहते हैं ? उत्तर--जितने आकाश के क्षेत्रमें जीव पुद्गल धर्म. धर्म एवं काल द्रव्य है उतने श्राकाशके क्षेत्रका नाम लोकाकाश है | यह लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है ।
प्रश्न -- प्रदेश किसको कहते हैं ?
उत्तर --- आकाश के जितने हिस्से को एक पुद्गल परमाणु रोके उस हिस्से को ( क्षेत्रको ) प्रदेश कहते हैं | प्रश्न -- लोक की मोटाई, ऊँचाई और चौड़ाई कितनी है ?
उत्तर -- लोक की मोटाई उत्तर तथा दक्षिण दिशा में ७ राजू है, चौड़ाई पूर्व तथा पश्चिम दिशामे मूल में (जड़मे) ७ राजू है और क्रमशः घटकर ७ राजकी ऊँचाई पर चौड़ाई एक राजू है, फिर क्रमशः ऊपर १० राजूकी ऊँचाई पर चौड़ाई ५ राज है, फिर क्रमशः घटकर १४ राजू की ऊँचाई पर चौड़ाई १ राजू है और ऊर्ध्व तथा वो दिशा मे ऊँचाई १४ गज् है । सब मिलकर ३४३ धन राज़ है ।
प्रश्न -- लोकाकाश किसको कहते है ?
उत्तर -- लोक के बाहर के आकाश को अलोकाकाश
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जिन सिद्वान्त] कहते हैं, जहाँ और कोई द्रव्य नहीं है मात्र आकाश ही है । वह आकाश अनन्त प्रदेशी है।
प्रश्न--काल द्रव्य क्रिमको कहते हैं ? ___ उत्तर---जिसमें परिवर्तना नाम का प्रधान गुण हो उसे काल द्रव्य कहते हैं । वह सब द्रव्यों की अवस्था बदलने में उदासीन निमित्त है।
प्रश्न--काल द्रव्य के कितने भेद हैं ?
उत्तर--कालद्रव्य के दो भेद हैं- ( १ ) निश्चय, (२) व्यवहार।
प्रश्न--निश्चय काल किसको कहते हैं ?
उत्तर---जो काल नाम का द्रव्य है उसको निश्चय काल कहते हैं । वह निष्क्रिय निष्कम्प है तथा संख्या में असंख्यात है, आकाशके एक एक प्रदेश पर एक एक काल द्रव्य स्थित है।
प्रश्न---व्यवहार काल किसको कहते हैं ?
उत्तर--काल द्रव्य की अवस्था का नाम व्यवहार काल है । समय, सेकिन्ड, मिनट, घन्टा, दिन,गत आदि ।
प्रश्न-पर्याय किसको कहते हैं ? उत्तर--गुण की अवस्था का नाम पर्याय है। प्रश्न-पर्याय के कितने भेद हैं ?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर---पर्याय के दो भेद हैं । (१) व्यञ्जन, (२) अर्थ।
प्रश्न-व्यवन पर्याय किसको कहते हैं ?
उत्तर प्रदेशत्व गुण की अवस्या का नाम व्यञ्जन पर्याय है।
प्रश्न--व्यञ्जन पर्याय के कितने भेद हैं ?
उत्तर-व्यञ्जन पर्याय के दो भेद हैं । (१)स्वभावव्यञ्जन (२) विभावच्यजन।
प्रश्न--स्वभावव्यञ्जन पर्याय किसको कहते हैं ?
उत्तर-पर के निमित्त विना ओ व्यञ्जन पयोय हो उसे स्वभावव्यञ्जन पर्याय कहते हैं। जैसे जीवकी सिद्ध पर्याय ।
प्रश्न-विभावव्यजन पर्याय किसको कहते हैं ?
उत्तर-परके निमित्त से जो व्यचन पर्याय हो उसे विभावव्यञ्जन पर्याय कहते हैं, जैसे जीवकी नर, नारक अादि पर्याय ।
प्रश्न -अर्थ पर्याय किसको कहते हैं ?
उत्तर--प्रदेशत्व गुण के सिवाय शकी के समर गुणों की अवस्था का नाम अर्थ पयोय है ।
प्रश्न- अर्थ पर्याय के कितने भेद है ? उत्तर---अर्थ पर्याय के दो मेद है । (१) स्वभाव
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जिन सिद्धान्त ]
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अर्थ पर्याय, (२) विभावर्थ पर्याय ।
प्रश्न - - (१) स्वभावार्थ पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर -- परके निमित्त विना जो अर्थ पर्याय हो उसे स्वभावअर्थ पर्याय कहते हैं । जैसे जीवके सम्यग्दर्शन, चीतरागता, केवलज्ञान, आदि ।
प्रश्न - विभावर्थ पर्याय किसको कहते हैं ?
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कहते हैं ।
उत्तर -- पर के निमित्त से जो अर्थ पर्याय हो उसे विभावयर्थ पर्याय कहते हैं । जैसे जीव के मिथ्यादर्शन, रागद्वेप, मति श्रुति आदि ।
प्रश्न - उत्पाद किसको कहते हैं ?
उत्तर- द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं ।
प्रश्न -- व्यय किसको कहते हैं ?
उत्तर -- द्रव्य की पूर्व पर्याय के त्याग को व्यय
प्रश्न - ator किसको कहते हैं ?
उत्तर -- द्रव्य की नित्यता को धन्य कहते हैं । प्रश्न -- द्रव्यमें कौन कौन से विशेष गुण हैं ? उत्तर -- जीव द्रव्य में दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि, पुद्गल द्रव्य में रूप रस स्पर्श आदि, धर्म द्रव्य में गति हेतुत्वादि, धर्मद्रव्य में स्थिति हेतुत्व यादि, आकाश
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जिन सिद्धान्त
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or में अवगाहनत्व आदि और कालद्रव्य में परिवर्त्तना
आदि ।
प्रश्न -- जीव द्रव्य कितने और कहां हैं ? उत्तर - जीव द्रव्य अनन्त हैं और वे लोक में ठसा - उस भरे हुये हैं ।
प्रश्न -- एक जीव कितना बड़ा होता है ?
उत्तर -- एक नीव प्रदेशों की अपेक्षा से लोकाकाश के बराबर है परन्तु संकोच विस्तार शक्ति के कारण अपने शरीर के प्रमाण है ।
प्रश्न - - लोकाकाश के बराबर कौनसा जीव है ? उत्तर -- मोक्ष आने से पूर्व जो जीव केवली समुद्घात करता है वह जीव लोक के बराबर होता है ।
प्रश्न -- समुद्धात किसको कहते हैं ?
उत्तर -- मूल शरीर को छोड़े बिना उस शरीर में से जीव के प्रदेशो के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। प्रश्न - - समुद्घात कितने प्रकारके हैं ?
उत्तर — समुद्घात के ७ प्रकार हैं । (१) केवली, (२) मरण, (३) वेदना, (४) चैक्रियिक, (५) आहारक, (६) तैजस, ( ७ ) कपाय |
प्रश्न –— कायवान द्रव्य किसको कहते हैं ?
उत्तर - बहुप्रदेशी द्रव्य को कायवान द्रव्य कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न-कायवान द्रव्य कितने हैं ?
उत्तर-कायवान द्रव्य ५ हैं। (१) जीव (२) पुद्गल, (३) धर्म, (४) अधर्म, (५) आकाश । इन पांच द्रव्यों को पञ्चास्तिकाय कहते हैं । काल द्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है।
प्रश्न-पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशी है तब वह कायवान कैसे कहा जाता है ? __उत्तर-पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है तो भी उसमें मिलने की शक्ति है जिससे वह कायवान कहा जाता है। शक्ति होने से वह परमाणु स्कन्ध बनकर बहु प्रदेशी होजाता है।
प्रश्न--अनुजीवी गुण किसको कहते हैं ? । उत्तर---भावस्वरूप गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं। जैसे जीवका दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि । पुद्गलका स्पर्श, वर्ण, रस, गन्ध आदि।
प्रश्न--प्रतिजीवी गुण किसको कहते हैं ?
उत्तर-वस्तु के अभावस्वरूप धर्म को प्रतिजीवी गुण कहते हैं । नास्तित्व, अमूर्त्तत्व, अचेतनत्व आदि ।
प्रश्न--अभाव किसको कहते हैं ? ___ उत्तर-एक पदार्थ के दूसरे पदार्थ में न होने का . नाम अभाव है।
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[जिन सिद्वान्त
प्रश्न--अभाव कितने हैं ?
उत्तर--अभाव चार हैं। (१) प्रागभाव,(२) प्रध्वंसाभाव, (३) अन्योन्यामाव, (४) अत्यन्ताभाव ।
प्रश्न--प्रागभाव किसको कहते हैं ?
उत्तर-पूर्व पर्यायका वर्तमान पर्याय में अभाव का नाम प्रागभाव है।
प्रश्न-प्रध्यसाभाव किसको कहते हैं ?
उत्तर--भावी पर्याय का वर्तमान पर्याय में अभाव को प्रध्वंसाभाव कहते हैं।
प्रश्न-अन्योन्याभाव किसको कहते हैं ? ___ उत्तर---एक गुण में दूसरे गुण के अभाव का नाम अन्योन्याभाव है। .
प्रश्न-अत्यन्ताभाव किसको कहते हैं ?
उत्तर-एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यके अभाव का नाम अत्यन्ताभाव है।
प्रश्न-जीव के अनुजीवी गुण कौनसे हैं ? ___ उत्तर---ज्ञान, दर्शन, चारित्र श्रद्धा, सुख वीर्य अव्यायाध, अवगाहना, अगुरुलघुस्व । मृन्मत्व, योग, क्रिया आदि जीवके अनुजीवी गुण हैं।
प्रश्न--जीव के प्रतिजीवी गुण कौनसे हैं ?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर--नास्तित्व, अमूर्तत्व आदि जीव के प्रतिजीवी गुण हैं।
प्रश्न---जीवके लक्षण कितने हैं ? उत्तर-जीवके लक्षण दो हैं-(१)चेतना,(२)उपयोग। प्रश्न-चेतना किसको कहते हैं ?
उत्तर--जिसमें पदार्थों का जानना हो उसको चेतना कहते हैं।
प्रश्न--चेतना के कितने भेद हैं ?
उत्तर-चेतना तीन प्रकार की है । (१) कर्म चेतना, (२) कर्मफल चेतना, (३) ज्ञान चेतना ।
प्रश्न-कर्म चेतना किसको कहते हैं ?
उत्तर-मैं कुछ करूं ऐसा जो जीव में करने का भाव होता है, उसको कर्स चेतना कहते हैं । उससे आत्मा बन्धन में पड़ती है।
प्रश्न-कर्म चेतना कितने प्रकार की है ? उत्तर-दो प्रकार की:-पुण्यभाव एवं पापभावरूप । प्रश्न-पुण्यभावरूप कर्म चेतना किसको कहते हैं ?
उत्तर -पुण्य भाव रूप कर्म चेतना तीन प्रकार की है। (१) प्रशस्त राग, (२) अनुकम्पा, (३) चित्त प्रसनता।
प्रश्न प्रशस्त राग किसको कहते हैं ?, ।
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[जिन सिद्धान्त
उत्तर-देव, गुरु, शास्त्र आदि के प्रति राग को प्रशस्तराग कहते हैं।
प्रश्न अनुकम्पा किसको कहते हैं ।
उत्तर-प्राणीमात्र को दुखी देखकर दुःख से छुडाने के भाव का नाम अर
प्रश्न-चित्त प्रसन्नता किसको कहते हैं ?
उत्तर-लोकोपकारी कार्य करने के भाव का नाम चित्तग्रसन्नता है।
प्रश्न-पाप रूप कर्म चेतना किसको कहते हैं ?
उत्तर-पांच इन्द्रियों के विषयों को इकट्ठा करने के भाव को पापरूप कर्म चेतना कहते हैं।
प्रश्न-कर्मफल चेतना किसको कहते हैं ?
उत्तर-पाँच इन्द्रियों के विषयों को भोगने को कर्मफल चेतना कहते है । यह पापरूप ही भाव हैं।
प्रश्न-ज्ञान चेतना किसको कहते हैं। ___ उत्तर-न कम करने का भाव हो, न कर्म भोगने का भाव हो परन्तु वीतराग भाव लेकर लोक के पदार्थों का ज्ञाता दृष्टा रहे उसीका नाम ज्ञान चेतना है।
प्रश्न-उपयोग किसको कहते हैं ?
उत्तर-उपयोग दो प्रकारक हैं । (१) दर्शन उपयोग (२) नान उपयोग।
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जिन सिद्वान्त
प्रश्न-दर्शन उपयोग किसको कहते हैं ? . उत्तर महासत्ताको अर्थात् पदार्थ के अखण्डरूप से प्रतिभास को दर्शन उपयोग कहते हैं।
प्रश्न- महासत्ता किसको कहते हैं।
उत्तर-समस्त पदार्थों के अस्तित्व गुण के ग्रहण करने वाली सत्ता को महासत्ता कहते हैं।
प्रश्न- ज्ञानोपयोग किसको कहते हैं ?
उत्तर अवान्तरसत्ताविशिष्ट अर्थात् गुणों सहित विशेष पदार्थ का प्रतिभास हो उसको ज्ञानोपयोग कहते हैं ?
प्रश्न अवान्तरसत्ता किसको कहते हैं ?
उतर-किसी विवक्षित पदार्थ के गुणों की सत्ता को अवान्तरसत्ता कहते हैं।
प्रश्न-दर्शन उपयोग के कितने भेद हैं ? . उत्तर-चार भेद है-(१) चक्षुर्दर्शन, (२) अचचदर्शन, (३) अवधिदर्शन, ( ४ ) केवलदर्शन । ये चारों हो दर्शन गुण की पर्याय है।
प्रश्न-ज्ञानोपयोग के कितने मेद हैं।
उत्तर-पांच भेद हैं-(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतिज्ञान (३) अवधिज्ञान, (2) मनःपर्यय ज्ञान,(५) केवलज्ञान । ये पांचों ही ज्ञानगुण की पर्याय हैं।
प्रश्न मतिज्ञान किसको कहते हैं ?
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उत्तर - इन्द्रिय और मनकी सहायता से जो ज्ञान
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हो उसे मतिज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न- मतिज्ञानके कितने भेद हैं ?
उत्तर - मतिज्ञानके चार भेद हैं- ( १ ) अवग्रह, ( २ ) ईहा, (३) श्रचाय, ( ४ ) धारणा | प्रश्न - अवग्रह किसको कहते हैं ?
उत्तर- इन्द्रिय और पदार्थ के योग्यस्थान में रहने पर दर्शन उपयोग के पीछे अवान्तरसत्ता सहित विशेष वस्तुके ज्ञानको अवग्रह कहते हैं । जैसे यह क्या है ? पतंग है, या बगला है ।
प्रश्न- ईहा ज्ञान किसको कहते हैं ?
उत्तर - अवग्रह से जाने हुये पदार्थ के विशेष में उत्पन्न हुये संशय को दूर करते हुये अभिलाप स्वरूप ज्ञान को ईहा कहते हैं । जैसे - यह पतंग नही है, बगला है । यह ज्ञान इतना कमजोर हैं कि किसी पदार्थ की ईहा होकर छूट जावे तो उसके विषय में कालान्तर में संशय और विस्मरण होजाता है।
प्रश्न-वाय किसको कहते हैं ?
उत्तर - ईहा से जाने हुये पदार्थ में यह वही है अन्य नहीं है, ऐसे निश्चित ज्ञान को अवाय कहते हैं, जैसे-यह बगला ही हूँ और कुछ नहीं है । अवाय से जाने हुये
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२१
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जिन सिद्वान्त] पदार्थ में संशय तो नहीं होता किन्तु विस्मरण होजाता है ।
प्रश्न-धारणा किसको कहते हैं ?
उत्तर-जिस ज्ञान से जाने हुये पदार्थ में कालान्तर मैं संशय तथा विस्मरण न हो उसे धारणा कहते हैं ।
प्रश्न-मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थों के कितने भेद हैं ?
उत्तर -दो भेद है- (१) व्यक्त (२) अव्यक्त ।
प्रश्न-अवग्रह आदि ज्ञान दोनों ही प्रकार के पदार्थों में होते हैं क्या? ___ उत्तर–व्यक्त पदार्थ के अवग्रह आदि चारों ही होते हैं परन्तु अव्यक्त पदार्थ का सिर्फ अवग्रह ही होता है।
प्रश्न- अर्थावग्रह किसको कहते हैं ? उत्तर- व्यक्त पदार्थ के अवग्रह को अर्थावग्रह कहते हैं। प्रश्न-व्यञ्जनावग्रह किसको कहते हैं ?
उत्तर-अव्यक्त पदार्थ के अवग्रह को व्यजनावग्रह कहते हैं।
प्रश्न-व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह की तरह सब इन्द्रियों और मन द्वारा होता है या और किसी प्रकार ?
उत्तर-व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनके सिवाय बाकी की सब इन्द्रियों से होता है।
प्रश्न-व्यक्त अव्यक्त पदार्थों के कितने भेद हैं ?
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जिन सिद्धान्त
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१ | बहु
उत्तर - हर एक के १२, १२ भेद हैं । (२) एक, (३) बहुविधि ( ४ ) एकविधि ( ६ ) अक्षिम (७) नि सृत ( ८ ) अनिःसृत ( ६ ) उक्त
२३
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Jars
(१०) अनुक्त (११) ध्रुव (१२) अध्रुव |
प्रश्न - मतिज्ञान के कुल कितने भेद हैं ?
(
५ ) प्रि
उत्तर - मतिज्ञान के कुल ३३६ भेद हैं । प्रश्न- एक इन्द्रिय जीवके मतिज्ञान के कितने भेद होते है ।
उत्तर - स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा मतिज्ञानके अर्थावग्रह के ४८ तथा व्यञ्जनावग्रह के १२भेद मिलकर ६० भेद होते है । प्रश्न- दो इन्द्रिय जीव के मतिज्ञान के कितने भेट होते हैं ।
उत्तर - स्पर्शन, रसना इन्द्रियों द्वारा मतिज्ञान के ग्रह के ६६ भेद तथा व्यञ्जनावग्रह के २४ मेट मिलकर १२० भेट होते हैं ।
प्रश्न- तीन इन्द्रिय जीवके मतिज्ञान के कितने भेद होते है ?
उत्तर - स्पर्शन, रसना, प्राण इन्द्रियों द्वारा भतिज्ञान के अवग्रह के १४४ भेr तथा व्यञ्जनवग्रह के ३६ भेद मिलकर १८० भेद होते हैं ।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न-चार इन्द्रिय जीवों के मतिज्ञान के कितने भेद होते हैं। __ उत्तर-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु इन्द्रियों द्वारा मतिज्ञान के अर्थावग्रह के १६२ भेद होते हैं । चक्षु इन्द्रिय के व्यञ्जनावग्रह के भेद न होने से तीन इन्द्रियों के व्यञ्जनावग्रह के ३६ मेद मिलकर २२८ भेद होते हैं।
प्रश्न-असंज्ञी पांच इन्द्रिय जीव के मतिज्ञान के कितने भेद होते हैं ?
उत्तर-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियों द्वारा मतिज्ञान के अर्थावग्रह के २४० भेद तथा व्यञ्जनावग्रह के ४८ भेद मिलकर २८८ भेद होते हैं । ___ प्रश्न-संजी पांच इन्द्रिय जीव के मतिज्ञानके कितने भेद होते हैं ? ___उत्तर-स्पर्शन,रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रियों और मन द्वारा मतिज्ञान के अर्थावग्रह के २८८ भेद तथा व्यञ्जनावग्रह के ४८ भेद मिलकर ३३६ मेद होते हैं। मनके बञ्जनावग्रह नहीं होते।
प्रश्न-श्रुतज्ञान किसको कहते हैं ? ___उचर भतिज्ञान से जाने हुये पदार्थ से सम्बन्ध लिये हुये किसी विशेष पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे:-"यह हवा है" यह तो मतिज्ञान है । और "यह
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[ जिन सद्धान्त
हवा मुझको बाधक है अतः मैं उससे दूर हट जाऊँ" ऐसे ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते है । प्रश्न- दर्शन का होता है ?
उत्तर - ज्ञान की अवग्रह ज्ञान की पर्याय के पहिले दर्शन होता है । अल्पज्ञ जनों को दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है । परन्तु सर्वज्ञ देव के ज्ञान तथा दर्शन साथ में होते है ।
प्रश्न- चतुर्दर्शन किसको कहते हैं ।
उत्तर - नेत्रजन्य मतिज्ञान के पूर्व सामान्य अवलोकन को चक्षुर्दर्शन कहते है । जैसे एक ज्ञेय से उपयोग हटकर दूसरे ज्ञेय पर उपयोग लगे उसके बीच के अन्तराल क्षेत्र का नाम चतुर्दर्शन है ।
प्रश्न – अचक्षुर्दर्शन किसको कहते है १
उत्तर - चक्षु के सिवाय अन्य इन्द्रियों और मनसम्बन्धी मतिज्ञान के पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन को चतुर्दर्शन कहते है ।
प्रश्न – अवधिदर्शन किसको कहते है ?
उत्तर - अवधिज्ञान के पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकनको अवधिदर्शन कहते हैं ।
प्रश्न - केवलदर्शन किसको कहते हैं ?
उत्तर - केवलज्ञान के माथ होने वाले सामान्य अव
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जिन सिद्धान्त लोकन को केवलदर्शन कहते हैं।
प्रश्न-तत्त्व किसको कहते हैं? उत्तर-जीव द्रव्य की अवस्था का नाम तत्व है ? प्रश्न-तत्त्व कितने होते हैं ?
उत्तर-तत्व है हैं-(१) जीव, (२) अजीव, (३) आश्रव, ( ४ ) पुण्य, ( ५ ) पाप, ( ६ ) बन्ध, (७) संवर, (८) निर्जरा, (६) मोक्ष ।
प्रश्न-जीय तत्त्व किसको कहते हैं ?
उत्तर-जीव का जो अनादि अनन्त स्वभाव भाव है जो अनन्त गुण का पिण्डरूप अखण्ड पदार्थ है वही जीव तत्त्व है । ज्ञायक स्वभाव, ज्ञानघन चेतन पिण्ड के नाम से भी पुकारते हैं।
प्रश्न- उस जीव तत्त्व को कौन देखता है ?
उचर-उस जीव तन को दर्शनचेतना देखती है क्योंकि दर्शनचेतना का विषय अखण्ड द्रव्य है ।
प्रश्न- यह जीव तत्व कैसा है ?
उत्तर-जिस जीव तच में अजीय तत्त्व का अभाव है, जिसमें आश्रव तत्वका अभाव है. जिसमें बन्ध तत्व का अभाव है, जिसमें संवर तच का अभाव है, जिसमें निर्जरा तच्चका अभाव है, जिसमें मोक्ष तत्वका भी अभाव
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[जिन सिद्धान्त है, ऐसा मात्र जायक स्वभाव जीव तत्व है। ऐसी श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-जीव तत्व और जीव द्रव्य में क्या अन्तर है ?
उत्तर-जीव तत्व में और कोई तत्त्व नहीं है पर जीव द्रव्य में सब तत्व हैं।
प्रश्न-अजीव तत्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर-जीव द्रव्य के साथ में जो पोद्गलिक संयोगी अवस्था है उसीका नाम अजीव तत्व है क्योंकि उसके साथ में जीत्र द्रव्य का व्यवहार से जन्म मरण का सम्बन्ध है।
प्रश्न-अजीय नत्व और पुद्गल इव्य में क्या अन्तर है?
उतर-जीव द्रव्य के साथ में जो पौद्गलिक वर्गणा है उमीका नाम अजीव तत्त्व है और जिसके माथ में जीव द्रव्यका सम्बन्ध नहीं है उसको पुद्गल द्रव्य
प्रश्न-यात्रय क्रिमको सहन है ?
इनर-पाश्रय दो प्रकार के है-12) चनन प्राधा (२) जड पाय।
प्रश्न-चैनन श्राश्रर किमको कहते हैं ? उनर-माया में अनन्न गुण है, उगम योग नाम
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जिन सिद्धान्त
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का भी गुण है उस गुण, की कम्पन अवस्था का नाम चेतन आश्रन है।
प्रश्न-चेतन आश्रय कब तक रहता है ?
उत्तर- पहले गुणस्थान से लेकर१३७ गुणस्थान के अन्त तक रहता है।
प्रश्न-जड़ आश्रव किसको कहते हैं ?
उत्तर-लोकमें अनेक प्रकार की पौद्गलिक वर्गणायें हैं उनमें से एक वर्गणा का नाम कार्माण वर्गणा है, उसमें से कर्म बनता है। उस वर्गणा का आत्मा के प्रदेश के नजदीक आना उमीका नाम जड़ आश्रय है।
प्रश्न-पुण्य तत्व किसको कहते हैं ?
उत्तर-पुण्य तत्त्व दो प्रकार के है-(१) चेतन पुण्य, (२) जड पुण्य ।
प्रश्न- चेतन पुण्य किसको कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा में चारित्र नामका एक गुण है उस गुण की मन्द कपायरूप अवस्था का नाम चेतन
प्रश्न-पुण्यभाव कितने प्रकार के होते हैं ? ___ उत्तर-पुण्यभाव असंख्यात लोक प्रमाण हैं तो भी उनको तीन भावों में गर्भित किया गया है । (१) प्रशस्तराग, (२) अनुकम्पा, (३) चित्त-प्रसन्नता ।
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[ जिन सिद्धान्त
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प्रश्न - प्रशस्तराग किसको कहते हैं ? उत्तर - देव गुरु धर्म के प्रति राग प्रशस्त राग है। प्रश्न- अनुकम्पा किसको कहते हैं ? उत्तर - प्राणी मात्र को दुखी देखकर उसको दुःख
से छुड़ाने के भाव का नाम अनुकम्पा हैं । प्रश्न-चित्त प्रसन्नता किसको कहते है ?
उत्तर - लोकोपकारी कार्य करने के भाव का नाम चित्र प्रसन्नता है ।
प्रश्न- जड़ पुण्य किसको कहते है ?
उत्तर - प्रघाती कर्म में जो पुण्य प्रकृति है उसे जड़ पुण्य कहते है जैसे:- सातावेदनी, शुभ ग्रायु, शुभ नाम, शुभ गोत्र | जिसकी उत्तर प्रकृतियां ६८ हैं । प्रश्न- पाप तय किसको कहते हैं ।
उत्तर -- पाप तत्र दो प्रकारके हैं: - एक चेतन पाप, दूसरा जंड़ पाप ।
प्रश्न - चेतन पाप किसको कहते हैं ।
उत्तर - आत्मा में एक चारित्र नाम का गुण उसकी ती पारूप अवस्था का नाम चेतन पाप है ।
प्रश्न --- पाप मात्र कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर --- पाप के भाव संख्यात लोक प्रमाण होते तो मी उनको ७ भावों में गर्भित किया गया है |
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जिन सिद्धान्त (१) संज्ञा, (२) आर्तध्यान, (३) रौद्रध्यान, (४) हिंसा का उपकरण बनाना, ( ५ ) मिथ्यात्व, (६) कपाय, (७) अशुभ लेश्या ।
प्रश्न--संज्ञा किसको कहते हैं ?
उत्तर--संज्ञा चार प्रकार की होती है-(१) अहारसंज्ञा, (२) भयसंज्ञा, (३) मैथुनसज्ञा, (४) परिग्रहसंज्ञा ।
प्रश्न-आहारसंज्ञा किसको कहते हैं ? ।
उत्तर-शुद्ध तथा अशुद्ध आहार खाने का भाव श्राहारसंज्ञा है। वह कर्मफल चेतना का भाव है अतः पाप भाव है। ' प्रश्न-भय संज्ञा किसको कहते हैं ?
उत्तर--"मेरा क्या होगा"इस प्रकारके मयका नाम भयसंज्ञा है । यह पाप भाव है। भय सात प्रकार के हैं । (१) इहलोक भय, (२) परलोक भय, (३) मरण भय, (४) अकस्मात भय, (५) वेदना भय, (६) अरक्षा भय, (७) अगुप्ति भय ।
प्रश्न--मैथुनसंज्ञा किसको कहते हैं ?
उत्तर--स्त्री पुरुष के साथ रमण करने के भाव का नाम मैथुनसंज्ञा है।
प्रश्न--परिग्रहसंज्ञा किसको कहते हैं ? उत्तर-पांच इन्द्रियों के विषयों को एकत्र करने के
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[जिन सिद्धान्न भाव को परिग्रह संज्ञा कहते हैं। यह भाव पापरूप कर्म चेतना का है।
प्रश्न-आत्त ध्यान किमको कहते हैं ?
उत्तर-आत्तध्यान के चार प्रकार है। (१) इटवियोग, (२) अनिष्ट संयोग, (३) पीड़ा चिन्तवन, ( ४ ) निदान।
प्रश्न-इष्टवियोग रूप प्राप्तध्यान किसको कहते हैं ?
उत्तर-इष्ट सामग्री के चले जाने से दुखी होना दृष्टवियोगरूप मार्तध्यान है । जैसे-माता, पिता, पति, पुत्र आदि के मरण से दुखी होना।
प्रश्न-अनिष्ट-संयोगरूप प्राध्यान किसको करने हैं?
उनर-ग्रनिष्ट-मंयोग आने से दुखी होना उसी का नाम अनिष्टसंयोग-रूप प्रार्तध्यान है । जैसे-दुस्मन याजाने ने, बग्मं आग लग जाने से दुखी होना।
प्रश्न-पीड़ा-चिन्तवनम्प आनध्यान किसको
उनर-नगर में गंग आजान में दगी होने को पारा चिन्नान रूप प्राध्यान कइन है. जिमनोग मिटने श्री चिन्ना माना।
प्रभ-निदानकर यानश्यान किसको कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर-इन्द्रिय जनित सुखकी वांछा करना उसीको निदानरूप आर्तध्यान कहते हैं । जैसे-मैं राजा, महाराजा बन जाऊँ, मेरे पुत्र हो जावे, मुझको धन मिलजावे आदि की वांछा का नाम निदान है।
प्रश्न-रौद्र ध्यान किसको कहते हैं ?
उत्तर--रौद्र ध्यान के चार प्रकार हैं। (१) हिंसानन्दी, (२) असत्यानन्दी, (३) चौर्यानन्दी, (४) परिग्रहानन्दी।
प्रश्न--हिंसानन्दी किसको कहते हैं ?
उत्तर--गाय, भैंस, बकरी, मुर्गा, मछली, खटमल, विच्छू आदि जीवों को मारने में आनन्द मानना । जैसे मुर्गे को मैने कैसा मारा, यह सोचकर आनन्द मानना।
प्रश्न असन्यानन्दी रौद्रध्यान किसको कहते हैं ?
उत्तर--झूठ बोलकर आनन्द मानना । जैसे-कैसी झूठी गवाही दी । आदि।
प्रश्न--चौर्यानन्दी रौद्रध्यान किसको कहते हैं ?
उत्तर-चोरी करके आनन्द मानना । कैसी इन्कम टेक्स की चोरी की कि कोई पकड़ न सका ।
प्रश्न-परिग्रहानन्दी रोद्रध्यान किसको कहते हैं ?
उत्तर--परिग्रह में आनन्द मानना । मेरा कैसा अच्छा मकान है, आदि।
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[ जिन सिद्धान्त
प्रश्न -- हिसा का उपकरण क्या है ? उत्तर --- ऐसा बम्ब बनाऊँ जिससे लाखों आदमी मर नावें, ऐसी मशीन बनाऊँ जिससे लाखों मछलियां पकड़ी जावे, ऐसी तलवार बनाऊँ जिससे मारने से तुरन्त घात होजावे । ऐसी कटार बनाऊँ कि कलेजा तुरन्त चीर डाले । यह सब हिंसा के उपकरण भाव हैं । प्रश्न -- मिथ्यात्व किसको कहते हैं ?
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उत्तर --- श्रद्धा गुण की विकारी अवस्था का नाम मिथ्यात्व है । जैसा पदार्थ का स्वरूप है ऐसा न मानकर उलटा मानने को मिथ्यात्व कहते हैं ।
प्रश्न -- मिथ्यात्व के भाव कितने प्रकार के हैं ? उत्तर --- मिथ्यात्व के भाव असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं, तो भी उनको ५ भावों में गर्भित किया गया ( १ ) एकान्त मिथ्यात्व ( २ ) अज्ञान मिध्यात्व, (३) विपरीत मिथ्यात्व ( ४ ) वैनयिक मिथ्यात्व, (५) संशय मिथ्यात्व |
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प्रश्न - एकान्त मिथ्यात्व किसको कहते हैं ? उत्तर - पदार्थ अनेकान्तिक अर्थात् अनन्त धर्मी होते हुये भी उनमें से एक ही धर्म के मानने को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं । जैसे - पदार्थ सत्य ही है, पढार्थ असत्य ही है, पदार्थ नित्य ही है, पढ़ार्थ एक ही है,
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जिन सिद्धान्त पदार्थ अनेक ही हैं । ऐसी एकान्त मान्यताका नाम एकान्त मिथ्यात्व है।
प्रश्न--अज्ञान मिथ्यात्व किसको कहते है ?
उत्तर---जीव आदि पदार्थ हैं ही नहीं, ऐसी मान्यता वाले जीव को अज्ञान मिथ्यात्ववादी कहते हैं।
प्रश्न-विपरीत मिथ्यात्व किमको कहते हैं ?
उत्तर-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र से ही मोक्ष होता है एवं हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह करते मोक्ष होता है, भक्ति करते २ मोक्ष होता है ऐसी मान्यता को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं।
प्रश्न--चैनयिक मिथ्यात्व किसको कहते हैं ?
उत्तर-सब की विनय करने से मोक्ष मिलता है । अर्थात् सुदेव, कुदेच, सुगुरु, कुगुरु, आदि सब समान हैं अतः सबकी विनय करना अपना धर्म है, जितनी पत्थर की मूर्तियां हैं वे सब देव है, शिखरजीका कङ्कररपूज्य है, पद से विपरीत विनय करना ये सब भाव चैनयिक मिथ्यात्व के हैं।
प्रश्न-संशय मिथ्यात्व किसको कहते हैं ?
उत्तर-मोक्ष है या नहीं ? स्वर्ग है या नहीं ? नर्क है या नहीं ? आदि बातों में मंशय करने को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।
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[जिन सिद्धान्त प्रश्न-मिथ्यात्व के और कोई भेद है क्या ?
उत्तर-मिथ्यात्लके पांच भेद और है-(१) पुण्य' में धर्म मानना, (२) कर्म के उदय में जो अवस्था मिले उसे अपनी मानना, (३) मैं पर जीव को मार या जिला सकता हूँ या सुख दुःख दे सकता हूँ, (४) देव गुरु आदि मेरा कल्याण कर सकते हैं, (५) पर पदार्थ में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करना।
प्रश्न--कपाय किसको कहते हैं?
उत्तर-आत्मा में एक चारित्र नामका गुण है, उसकी विकारी अवस्था का नाम कपाय है।
प्रश्न--कपाय के भाव कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर--कपाय के भाव असंख्यात लोक प्रमाण हैं तो भी उनको १३ भावो में गर्मित किया गया है(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ, ( ५ ) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) भय, (1) शोक, (१०) जुगुप्सा, (११) स्त्रीवेद, (१२) पुरुपवेद, (१३) नपुसकवेद । ।
प्रश्न-पाय के और भी भेद है क्या ?
उत्तर--पाय के चार भेद और हैं। (१) अनन्तानुबन्धी, (२) अप्रत्याख्यान, (३ ) प्रत्याख्यान, (४) संज्वलन।
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जिन मिद्धान्त
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय किसको कहते हैं ?
उत्तर--पांचों इन्द्रियों के विषयों में सुख है परन्तु मेरी आत्मा में सुख नहीं है, ऐसी मान्यता ( सम्यक्त्व धाण न कर सकने ) को अनन्तानुवन्धीकपाय कहते हैं ।
प्रश्न---अनन्तानुबन्धी लोभ किसको कहते हैं ?
उत्तर--लोक में अनन्त पदार्थ हैं, जिस जोवने एक पदार्थ में सुख की कल्पना की उसने अव्यक्त रूप से अनन्त पदार्थों में सुख की कल्पना करली, अतः ऐसी कषाय का नाम अनन्तानुबन्धी लोभ हैं।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी क्रोध किसको कहते हैं ?
उत्तर--लोक में पदार्थ अनन्त हैं, तो भी उन पदार्थों में से एक पदार्थ में जिसने दुःख की कल्पना की है उसने अप्रत्यक्षरूप से अनन्त पदार्थों में दुःख की कल्पना करली, ऐसी कषाय को अनन्तानुसन्धी क्रोध कहते हैं। ___ प्रश्न-अप्रत्याख्यान कपाय किसको कहते हैं ? ___ उत्तर-पर पदार्थ सुख-दुःख के कारण नहीं हैं परन्तु दुख का कारण मेरा राग आदि भाव है और सुख का कारण वीतराग भाव है, ऐसी श्रद्धा होते हुये भी रागादि नहीं छोड़ सकता है अर्थात् एक देश चारित्र का पालन नहीं कर सकता है, ऐसी कपाय का नाम अप्रत्याख्यान कपाय है।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न--अप्रत्याख्यान कपाय किस गुणस्थान में होती है ? ___ उत्तर--यह चौथे गुणस्थान में होती है । चौथे गुणस्थान वाले जीव को अवती-सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक कहते हैं। .
प्रश्न--प्रत्याख्यान कपाय किसको कहते हैं ?
उत्तर--स की हिंसा का राग छूट जाबे परन्तु स्थावर की हिंसा का राग न छूटे अर्थात्. सकल संयम होने न देवे ऐसी कषाय का नाम प्रत्याख्यान कपाय है।
अन्न-प्रत्याख्यान पाय किस गुणस्थानमें होती ?
उत्तर-प्रत्याख्यान पाय पंचम गुणस्थान में होती है जिसको वती-प्रावक कहा जाता है। श्रावक के ग्यारह दजें हैं जिनको प्रतिमा कहते हैं।
प्रश्न-संचलन कपाय किमको कहते हैं ?
उत्तर-वस तथा स्थावर की हिमा का गग छूट जावे अर्थान् सकल-संयम हो जाये परन्तु पीतराग भाव न होने देवे गी कपाय का नाम मंचलन काय है।
प्रश्न- यह कपाय किस गुणस्थान में होती है ?
उत्तर ~~यह ऋपाय छठे गुणस्थान से लेकर इस गुणस्थान के अन्त तक रहनी है । इस अपाय वाले जीवको मुनि महाराज कहा जाता है ?
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जिन सिद्धान्त ]
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प्रश्न - लेश्या किसे कहते हैं ?
उत्तर -- आत्मा में अनन्त गुण हैं, उनमें एक क्रिया नाम का गुण है उस गुण की विकारी अवस्था का नाम लेश्या है । लेश्या प्रवृत्ति का अर्थात् गमनागमन का नाम है ।
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प्रश्न -- लेश्या कितने प्रकार की होती है ? उत्तर -- लेश्या छहः प्रकार की होती है । (१) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या, (३) कापोत लेश्या (४) पीत लेश्या, (५) पद्म लेश्या, (६) शुक्ल लेश्या ।
प्रश्न - - इन छह: लेश्याओं में अशुभ लेश्या कौनसी हैं ? उत्तर -- कृष्ण, नील और कापोत लेश्या को श्रशुभ लेश्या कहते हैं ।
प्रश्न -- लेश्या दुःखदायक है या नहीं ?
उत्तर --- लेश्या दुःखदायक नहीं, परन्तु मोह कपाय दुखदायक है । केवली परमात्मा के मोह कपाय नहीं है, अनन्त सुख होते हुए भी वहां प्रवृत्तिरूप परम शुक्ल लेश्या है । लेश्या न होती तो भगवान् बिहार नहीं करते | इससे सिद्ध हुवा कि लेश्या दुःखदायक नहीं है । प्रश्न -- जड़ पाप किसका नाम है ?
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उत्तर -- आठ कर्म में जो पाप प्रकृतियाँ हैं उनीका नाम जड पाप है जैसे- ज्ञानावरण की पांच प्रकृति, दर्शना
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| जिन मिद्धान्न वरण की नौ प्रकृति, मोहनीय की अट्ठाईस, अन्तराय की पांच मिलकर घातिकर्म की मैंतालीस, असाता वेदनी १, नीच गोत्र १, नरक आयु १, नरक गति १, नरकगत्यानुपूर्वी १, तिर्यञ्चगति १, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी १, जाति में से आदि की ४, संस्थान अन्त के ५, संहनन अन्त के ५, स्पर्शादिक बीस, उपघात १, अप्रशस्तविहायो गति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, अपयोप्ति १, अनादेय१, अयशकीर्ति १, अशुभ १, दुर्भग १, दुःस्वर १, अस्थिर १, और साधारण १, मिलकर एक सौ कमें प्रकृति का नाम जड़ पाप है।
प्रश्न--बन्ध तत्व किसको कहते हैं ?
उत्तर-बन्ध तन्त्र दो प्रकार के है-(१) चेतनबन्ध, (२) बड़ बन्ध ।
प्रश्न- चेतनबन्ध किसको कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा में अनन्त गुण हैं उसमें से तीन गुण की विकारी अवस्था का नाम चेतन बन्ध है(१) श्रद्धा गुण की विकारी अवस्था का नाम मिथ्याल, (२) चारित्र गुण की विकारी अवस्था का नाम क्रपाय, (३) और क्रिया गुण की विकारी अवस्थाका नाम लेश्या।
प्रश्न-जड़ बन्ध किमको कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
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___ उत्तर---जो कार्माण वर्गणा पाश्रव में आत्मा के नजदीक आई थी उस वर्गणा की कर्म अवस्था बनकर
आत्मा के प्रदेश के साथ एक क्षेत्र में काल की मर्यादा लेकर बन्धन में रहना है उसीका नाम जड़बन्ध है ।
प्रश्न--जड़ बन्ध कितने प्रकार का है ।
उत्तर---जड वन्ध चार प्रकार का है- (१) प्रदेश बन्ध, (२) प्रकृति वन्ध, (३) स्थिति बन्ध और (४) अनुभाग बन्ध
प्रश्न--प्रदेश बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर--कार्माण वर्गणाओं का जत्था रूप होजाना सो प्रदेशबन्ध है।
प्रश्न--प्रकृति-वन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर--कार्माण वर्गणाओं की आठ कर्म तथा उनकी एक सौ अडतालीस प्रकृतिरूप अवस्था हो जाना उसी का नाम प्रकृति-वन्ध है।
प्रश्न--स्थिति-वन्ध किसको कहते हैं ?
उत्तर---प्रात्मा के प्रदेशों के साथ में कर्म प्रकृतियों का जितने काल तक एक क्षेत्र में बन्धन रूप रहना उसीका नाम स्थिति बन्ध है।
प्रश्न--अनुभाग बन्ध किसका नाम है ? उत्तर-कर्म-प्रकृति के उदयकाल में फल देने रूप,
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[ जिन सिद्धान्त
रस शक्ति का नाम अनुभाग वन्ध हैं । शंका- इन चारो बन्धो का एक लौकिक दृष्टान्त
दीजिये |
समाधान -- जैसे एक लड्डू है, उसमें लड्डु का जो वजन है वह तो प्रदेश बन्ध है, लड्डु में जो आटा है उस आटे की प्रकृति ठण्डी है, गरम है, वायुकरण है या वायु हरण है, वह प्रकृति बन्ध है । वह लड्डू कितना दिन रहेगा उसी का नाम स्थिति बन्ध है और लड्डू में कितना मीठा है उसी का नाम अनुभाग बन्ध है ।
प्रश्न - संवर तच्च किसको कहते हैं ? उत्तर --- संवर तत्व दो प्रकार का है (१) चेतनसंवर (२) जड़ संवर |
प्रश्न- चेतन संबर किसको कहते हैं ?
उत्तर—बन्ध के कारण का अभाव होना, उसीका नाम चेतन संबर है जैसे- श्रद्धा गुण, चारित्रगुण, तथा क्रिया गुण की शुद्ध अवस्था का नाम चेतन संबर है ।
प्रश्न - - श्रद्धागुण की शुद्ध अवस्था किमको कहते हैं ? उत्तर - श्रद्धागुण की जो मिथ्यादर्शन रूप अवस्था थी वह बदलकर सम्यग्दर्शन रूप अवस्था होना वह श्रद्धा गुणकी शुद्ध अवस्था है ।
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जिन सिद्धान्त ]
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प्रश्न- सम्यग्दर्शन में किस प्रकार की श्रद्धा
होती है ?
उत्तर -- पुण्य से धर्म कभी नहीं होता, कर्म के उदय में जो जो अवस्था होती है वह मेरी नहीं हैं, वह जीवतन्त्र की है, मैं जीव तत्र हूं, मैं किसी को मार सकता नहीं हूँ, बचा सकता नहीं हूँ, सुख दुख दे सकता नही हॅ एवं मुझको कोई मारने या बचाने वाला है ही नहीं, सुख दुख दे सकता नहीं, देव गुरू मेरा कल्याण नहीं कर सकता, संसार के कोई पदार्थ इष्ट अनिष्ट नहीं है । ऐसी श्रद्धा सम्यग्दृष्टि को रहती है । यथार्थ में यह सम्यग्दर्शन नहीं है बल्कि सम्यग्ज्ञान है ।
प्रश्न- सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं १ उत्तर - मैं मात्र जीव तव हूँ, इस जीव तव के अनुभव का नाम सम्यग्दर्शन है ।
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प्रश्न -- प्रथम किसका सबर होता है ?
उत्तर -- प्रथम मिथ्यात्व का संवर होता है बाद में कपाय का संजर होता है और अन्त में लेश्या का संवर होता है।
प्रश्न- कपाय का संघर कैसे होता है ?
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उत्तर -- अनन्तानुवन्धी का अभाव प्रथम संवर,
अत्पाख्यान का अभाव दूसरा संवर, प्रत्याख्यान का
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[ जिन सद्धान्त
भाव तीसरा संवर, संज्वलन का अभाव चौथा संवर | प्रश्न -- अनन्तानुवन्धी का अभाव किसको कहते हैं ? उत्तर -- संसार के कोई पदार्थ इष्ट अनिष्ट नहीं हैं निष्ट रागादिक भाव है, इष्ट वीतराग भाव है ऐसी प्रतीति होते हुए भी रागादिक छोड़ न सके ऐसे आचरण का नाम अनन्तानुवन्धी का संघर है ।
४२
प्रश्न - अप्रत्याख्यान का संवर कैसे होता है ? उत्तर -- स की हिंसा का राग छूट जावे, अमन पदार्थ खाने का राग छूट जावे, रात्रि में चारो आहार खाने का गंग छूट जाये परन्तु स्थावर की हिंसा का राम न छूटे ऐसी अवस्था का नाम अप्रत्याख्यान का संवर हूँ।
प्रश्न -- प्रत्याख्यान का संबर किसे कहते हैं ? उत्तर—म तथा स्थावर की हिंसा का गग छूट जावे, सम्पूर्ण परिग्रह छूट जाये जिस कारण से चाय में यथाजान रूप अवस्था हो अर्थात् नशता एवं विकार रहिन हो जिसकी मरुल संयम कहते हैं, परन्तु प्रशस्तगग नटे मी अवस्था का नाम प्रत्यास्थान का संचर है ।
प्रश्न- संचलन का संचर किसको कहते है ?
उत्तर -- सम्पूर्ण कपराय के प्रभाव का नाम अर्थान नगदेश का नाम intre का मंदर है। ऐसी
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जिन सिद्धान्त
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अवस्था आत्मा की ग्यारहब, चारहवें गुण स्थान के पहले समय में हो जाती है।
प्रश्न-लेश्या का संवर किसे कहते हैं ?
उत्तर--प्रवृति अर्थात गमनागमन मन्द होकर श्रात्मा की निष्क्रिय अवस्था का नाम लेश्या का संबर है। लेश्या का संवर हुए बाद आँख की पलक मारने मात्र के साल में प्रात्मा सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है।
प्रश्न-जड़ संवर किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-कर्म की १४८ प्रकृतियों में से १२० प्रकतियों को बन्धन योग माना गया है, उन १२०प्रकृतियों का अंश अश में बन्धन छुट जाना उसी का नाम जड संबर है। __अक्ष-मिथ्यात्वका संवर होने से कितनी प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ?
उत्तर-मिथ्यात्व का संघर होने ले १६ प्रकृतियों का बन्ध रुक जाता है।
अन्न-वे १६ प्रकृतियाँ कौन-कौन हैं ?
उत्तर--( १ ) मिथ्यात्व, (२) हुण्डक संस्थान, (३) नपुंसक वेद, (४) नरकगति, (५) नरक गत्यानुपूर्वी, (६) नरक प्राय (७) असंप्राप्तास्पारिक संहनन, (८) एकेन्द्रिय जाति, (६) दो इन्द्रिय जाति,
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१
६
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[ जिन सिद्धान्त
(१०) त्रिइन्द्रिय जाति, (११) चौइन्द्रिय जाति, ( १२ ) स्थावर, (१३) आताप, (१४) मूक्ष्म, (१५) अपर्याप्त, (१६) साधारण |
प्रश्न -- अनन्तानुवन्धी के अभाव से कितनी प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ?
४४
उत्तर --- पच्चीस प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ।
प्रश्न -- अप्रत्याख्यान के प्रभाव से कितनी प्रकृतिका
बन्व तक जाता है ?
उत्तर -- दस प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ।
प्रश्न - प्रत्याख्यान के अभाव से कितनी प्रकृति का बन्घ रुक जाता है ?
उत्तर---चार प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ।
प्रश्न - प्रमाद के अभाव से कितनी प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ?
उत्तर- छह प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ।
प्रश्न – संज्वलन के अभाव से कितनी प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ?
उत्तर - श्रावन प्रकृति का बन्ध रुक जाता है । प्रश्न- लेश्या के अभाव में कितनी प्रकृति का बन्ध रुक जाता है ?
उत्तर - एक प्रकृति का बन्ध रुक जाता है। इसी
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जिन सिद्वान्त
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प्रकार १२० प्रकृति का बन्ध रुक जाने से आत्मा का लघुकाल में मोक्ष हो जाता है।
प्रश्न-कर्म प्रकृति १४८ हैं और बन्ध के कारण १२० प्रकृति कही तब २८ प्रकृति की क्या हो ? ___ उत्तर--स्पर्शादिक २० प्रकृति का जगह चार प्रकृति का ग्रहण किया गया है जिस कारण १६ प्रकृति कम हो गई तथा पांच बन्धन तथा पांच संघात प्रकृति का ग्रहण पांचों शरीर में समावेश करने से दस प्रकृति का यह धन्ध कम हुआ और दर्शन मोहनीय की सम्पमिथ्यात्व तथा सम्यक्प्रकृति मिथ्यान्व ये दो प्रकृति का बन्ध नहीं पड़ता है, इस प्रकार १६+१०+२ मिलकर २८ प्रकृति का बन्ध में गिनती नहीं किया गया है ।
प्रश्न--निर्जरा तत्त्व किसको कहते हैं ?
उत्तर--निर्जरा दो प्रकार की है (१) चेतन निर्जरा, (२) जड़ निर्जरा ।
प्रश्न--चेतन निर्जरा किसे कहते हैं ?
उत्तर-मिथ्यात्व का संवर हुए बाद में अंश अंश में इच्छाओं का नाश करना उसीका नाम चेतन निर्जरा है।
प्रश्न-मिश्यादृष्टि जीव के चेतन निर्जरा होती है या नहीं ?
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जिन सिद्धान्त
.
.
.
..
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उत्तर-मिथ्यादृष्टि जीवने मिथ्यात्वभाव का संबर नहीं किया है जिस कारण से उसको चेतन निर्जरा होती नहीं है।
प्रश्न-मिथ्याष्टि जीर अंश अश में इच्छा का नाश तो करता है, तर भी उसको चेतन निर्जरा क्यों न होवे ?
उत्तर~यथार्थ में मिथ्यादृष्टि जीव इच्छाओं का नाश नहीं कर सकता है परन्तु इच्छाओं को दवा देना है जिस कारण उसको पुण्य बन्ध पड़ता है।
प्रश्न-चेतन निर्जरा श्रात्मा के किम गुण की अवस्या का नाम है और वह कॉनमी अवस्था है। ___ उत्तर-चेतन निर्जरा आत्मा के चारित्रगुण की अंग अंश में शुद्धता का नाम है वह उपादेय तत्व है।
प्रश्न- जड-निजरा किसे कहते है ?
उतर---यात्मा के प्रदेश के माय में एक क्षेत्र के चपन में जो कम है उमम का अंश २ में आत्मा के प्रदेश में अलग हो जाना उमी का नाम जड़ निजंग है।
प्रश्न-जड़ निजग कितने प्रकार की है ?
उना-जह निजंग दो प्रकार की है (१) मरिपाक निगा । अविराम निजंग।
प्रश्न-मरिया निगरिने करने , ?
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जिन सिद्धान्त ]
प्रश्न --- कर्म का स्थिति पूरी होने से फल देकर श्रात्मा के प्रदेश से अलग हो जाना उसी का नाम सविपाक निर्जरा है ।
४७
प्रश्न --- सविपाक निर्जरा आत्मा के पांच भावों में से कौन से भाव में होती है ?
उत्तर -- सविपाक निर्जरा श्रदयिक भाव में होती है अर्थात् कर्म का उदय सो कारण है और तद्रूप आत्मा की अवस्था होना उसी का नाम श्रदयिक भाव है । समय समय में कर्मका फल देकर अलग हो जाना ये सविपाक निर्जरा है । यह सब संसारी जीवों के समम २ होती है ।
प्रश्न - अविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ? उत्तर --- जो कर्म की स्थिति का काल पूरा हुए पहले आत्मा के विशुद्ध परिणाम द्वारा आत्मा के प्रदेश से कर्म को अंश २ में अलग कर देना उसीका नाम श्रविपाक निर्जरा है ।
प्रश्न - अविपाक निर्जरा किस भाव से होती हैं ?
उत्तर --- विपाक निर्जरा क्षयोपशमिक भाव से होती
आत्माका भाव कारण
है अर्थात् etat Hta are है और जो कर्मसत्ता में धे उन्हें काल की मर्यादा के पहले अलग कर देना चो कार्य हैं।
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[जिन सिद्धान्त
प्रश्न–क्षयोपशम भाव को और कोई भाव से पुकारा जाता है ? ___उत्तर-क्षयोपशम भाव चारित्रगुण की अशुद्ध अवस्था का नाम है । क्षयोपशम मात्र को भाव-उदीरणा कही जाती है । भाव उदीरणा में भाव प्रधान है कर्म गौण है । औदयिक भाव में कर्म प्रधान है और . मात्र गौण है। .. प्रश्न-सचिपाक तथा अविपाक निर्जरा किस जीव को होती है ?
उत्तरयह दोनों निर्जरा सम्यग्दृष्टि को तथा मिथ्यादृष्टि को होती हैं परन्तु भाव निर्जरा मिथ्यादृष्टि को कभी नहीं हो।।
प्रश्न-मोक्ष तत्व किसको कहते हैं ?
उत्तर-मोक्ष तस्त्र दो प्रकार के हैं-(१)वेतन मोक्ष (२) जड़ मोक्षः।
प्रश्न-चेतन मोक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा के सम्पूर्ण गुणों की शुद्धता हो जाने को चेतन मोक्ष कहते हैं।
प्रश्न-प्रधानपने किस २ गुण की शुद्ध अवस्था हो जाती है? .
उत्तर-(१) ज्ञानगुण, (२) दर्शनगुण, (३) श्रद्धा
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जिन सिद्धान्त ]
गुथ, (४) चारित्र गुण, (५) वीर्यगुण, (६) सुखगुण, (७) योग गुण, (८) क्रियागुण, (६) अव्यावाध गुण, (१०) अवगाहना गुण, (११) अगुरुलघुत्व गुण, ( १२ ) शुक्ष्मत्व गुण |
1
प्रश्न -- ज्ञान गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर -- केवलज्ञान का नाम ज्ञान गुण की शुद्ध श्रवस्था है ।
४६
प्रश्न - दर्शन गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर -- केवलदर्शन का नाम दर्शनगुण की शुद्ध अवस्था है।
प्रश्न --- श्रद्धागुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर --- क्षायिक सम्यग्दर्शन होना श्रद्धागुण की शुद्ध अवस्था है ।
प्रश्न - चारित्रगुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर - निराकुल दशा अर्थात् यथाख्यात चारित्र को चारित्रगुण की शुद्ध अवस्था कहते हैं ।
प्रश्न - वीर्यगुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्त श्रात्मिक वीर्य का नाम वीर्य गुण की शुद्ध अवस्था है ।
प्रश्न- योग गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ?
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५०
[ जिन सिद्धान्त
उत्तर - निष्क्रम्प अवस्था का नाम योगगुण की
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शुद्ध अवस्था है।
प्रश्न- सुख गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्त सुख का नाम सुखगुण की शुद्ध अवस्था है, जिस सुखको अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन भोग सकता है परन्तु क्षयोपशम ज्ञानादि भोग नहीं सकता।
प्रश्न – क्रिया गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं? उत्तर - आत्मा की निष्क्रियत्व अवस्था अर्थात् गमनरहित अवस्था का नाम क्रियागुण की शुद्ध अवस्था है ।
प्रश्न- अव्यावाध गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ?
उत्तर - वेदनीय कर्म के प्रभाव से अव्यावाच गुण की शुद्ध अवस्था होती है।
प्रश्न- अवगाहन गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते है ?
उत्तर - नाम कर्म के अभाव से अवगाहन गुण की शुद्ध अवस्था होती है ।
प्रश्न - अगुरुलघुत्व गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त ]
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उत्तर - गोत्रकर्म के अभाव से अगुरुलघुत्व गुणकी
शुद्ध अवस्था होती है ।
प्रश्न - सूक्ष्मत्व गुण की शुद्ध अवस्था किसे कहते हैं ? उत्तर - आयु कर्म के प्रभाव से सूक्ष्मत्व गुण की शुद्ध अवस्था होती है ।
प्रश्न- जड़ - मोक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर- जो कार्माणवर्गणा की कर्मरूप अवस्था आत्मा के प्रदेश के साथ में एक क्षेत्र में बन्धनरूप थी उस कर्म का आत्मा के प्रदेश से अत्यन्त प्रभाव होकर उसकी कर्म अवस्था मिटकर अन्य अवस्था हो जाना उसी का नाम जड़ मोक्ष है ।
प्रश्न -- नौ तत्त्वों में द्वेय तत्र कितना है ?
उत्तर - जीव तथा अजीव तच्च में दोनों ज्ञेय तत्व हैं। क्योंकि इसमें श्रात्मा कुछ परिवर्तन कर सकता नहीं ।
प्रश्न - नौ तवों में हेय तत्र कितने हैं ?
श्रव
उत्तर- नौ तत्वों में चार तत्त्व हेय हैं । (२) तत्व (२) पुण्य तत्व, (३) पाप तत्व, (४) बन्धतत्व । चारों चेतन तच्च छोड़ने लायक हैं कारण ये चारों दुख रूप है दुख का कारण है ।
प्रश्न - नौ तत्रों में उपादेय तत्व कितने हैं ?
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५२
जिन सिद्धान्त
उत्तर - नौ- नवों में उपादेय तस तीन हैं । ( १ ) संवर तच्च, ( २ ) निर्जरा तच्च, (३) मोक्षतस्त्र | तीनों चेतन तच्च उपादेय हैं, कारण ये सुखरूप हैं सुख का कारण हैं ।
इति जिनसिद्धान्त शास्त्र मध्ये छ द्रव्य तथा नौ तत्त्व सामान्य अधिकार समाप्त
|| पुद्गल द्रव्य कर्म अधिकार ||
॥
प्रश्न- जीव के कितने भेद हैं ?
उत्तर -- जीव द्रव्य के दो भेद हैं । (१) संसारी जीव, (२) मुक्त जीव |
प्रश्न -- संसारी जीव किसको कहते हैं ?
उत्तर -- कर्म सहित जीव को संसारी जीव कहते हैं ।
प्रश्न - मुक्त जीव किसको कहते हैं ?
।
उत्तर - कर्म -रहित जीव को मुक्त जीव कहते हैं। प्रश्न - कर्म किसको कहते हैं ?
प्रश्न-जीव के मोहादिक के परिणामों के निमित्त से जो कार्माण वर्गणा कर्म रूप यवस्था धारण कर जीव
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जिन सिद्धान्त ]
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५३
के प्रदेश के साथ एक क्षेत्र में बन्धन रूप रहती है उसी
को द्रव्य कर्म कहते हैं ।
प्रश्न - - द्रव्यकर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर - - द्रव्यकर्म आठ प्रकार के हैं - ( १ ) ज्ञानाचरण, ( २ ) दर्शनावरण, ( ३ ) वेदनीय, ( ४ ) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र, (८) अंतराय ।
प्रश्न - ज्ञानावरण कर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर -- जो आत्मा के ज्ञान का विकास न होने देवे उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं ।
प्रश्न --- ज्ञानावरण कर्म के कितने भेद हैं ?
उतर -- ज्ञानावरण कर्म के पांच भेद हैं- (१) मतिज्ञानावरण, (२) श्रुतज्ञानावरण, (३) अवधिज्ञानावरण, (४) मन:पर्ययज्ञानावरण, (५) केवल
-
ज्ञानावरण |
प्रश्न - - दर्शनावरण कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर --- आत्मा के दर्शन चेतना का विकास न होने
+
देवे उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
प्रश्न --- दर्शनावरण कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर - दर्शनावरण कर्म के नौ भेद हैं- (१) चक्षु
दर्शनावरण, (२) श्रचक्षुदर्शनावरण, (३) अवधि
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[जिन सिद्धान्त दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, (५) निद्रा, (६) निद्रानिद्रा (७) अचला, (८) प्रचला-प्रचला, (६) स्त्यानगृद्धि ।
प्रश्न-ये नौ प्रकृति क्या दर्शन के विकास को रोकती हैं ? ___उत्तर-इन नौ प्रकृतियों में से प्रथम की चार प्रकृति दर्शन चेतना के विकास को रोकती हैं और पांच निद्रा की प्रकृतियाँ जो दर्शन चेतना प्रगट हुई है उसको रोकती हैं।
शङ्का-पांच निद्रा की प्रकृतियों की प्रथम ज्ञानावरणकर्म में गिनती करने में क्या बाधा थी ? । ___ समाधान-ज्ञान दर्शन पूर्वक ही होता है, जिसने दर्शन चेतना को रोक दिया वहां जान चेतना तो स्वयं रुक जाती है । जिस कारण पाच निद्रा की प्रकृतियाँ दर्शनावरण कर्म में गिनी जाती हैं।
प्रश्न-वेदनीय कर्म किसे कहते हैं ? __उत्तर--जो बाह्य में इष्ट-अनिष्ट सामग्री को मिला देवे और यदि मोह हो तो उस सामग्री में सुख दुःख का वेदन करावे उस कर्म का नाम वेदनीय कर्म है।
प्रश्न---वेदनीय कर्म के किनने भेद है ?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर--वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-(१) साता वेदनीय, (२) असाता वेदनीय ।
प्रश्न--मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो आत्माके श्रद्धा व चारित्र गुणका विकास न होने देवे उस कर्म का नाम मोहनीय कर्म है।
प्रश्न-मोहनीय कर्म में कितने मेद हैं ?
उत्तर-मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-(१) दर्शन, मोहनीय, (२) चारित्रमोहनीय ।
प्रश्न-दर्शनमोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो आत्मा को सम्यक्श्रद्धा होने में बाधा डाले उस कर्म को दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं।
प्रश्न--दर्शनमोहनीय कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर-दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद हैं(१) मिथ्यात्व, ( २ ) सम्यगत्वमिथ्यात्व, (३) सम्यक्त्व प्रकृति । ,
प्रश्न--मिथ्यान्व किसे कहते हैं ? 'उत्तर-जिस कर्म के उदय से जीव के अतत्व श्रद्धान हो, उस कर्म को मिथ्यात्व कहते हैं।
प्रश्न- सम्यक् मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से मिले हुए परिणाम हों, जिनको न तो सम्यक्तरूप कह सकते हैं न मिथ्यात्व
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५६
[जिन सिद्धान्त
रूप कह सकते हैं, उस कर्म को सम्यन्मिथ्यात्व कहते हैं।
प्रश्न-सम्यप्रकृति किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से सम्यश्रद्धा में अबुद्धिपूर्वक दोष उत्पन्न हो, ऐसे कर्म को सम्यक्प्रकृति कहते हैं।
प्रश्न-चारित्र मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो आत्मा के चारित्र गुण को घात करे, उस कर्म को चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं ?
प्रश्न- चारित्र मोहनीय कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर-चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं(१) कपाय, ( २ ) नोकपाय ।
प्रश्न-कपाय के कितने भेद हैं ?
उत्तर- कपाय के १६ मेद हैं-(१) अनन्तानुबन्धी चार, (२) अप्रत्याख्यानावरण चार, (३) प्रत्याख्यानावरण चार और (४) सज्वलन चार । इन सब के क्रोध, मान, माया, लोभ का भेद करने से १६ कपाय होती हैं।
प्रश्न-नोकवाय के कितने भेद हैं ?
उत्तर-नो कपाय के नोभेद हैं-(१) हास्य,(२) रति, (२) अरति,(४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, () पुरुषवेद, (8) नपुसकवेद ।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न-अनन्तानुवन्धी कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--पर-पदार्थ में सुख मनावे परन्तु निज आत्मा में सुख नहीं है ऐसी मान्यता जो करावे उस कर्मका नाम अनन्तानुबन्धी कर्म है। प्रश्न--अप्रत्याख्यानकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--संसार का कोई पदार्थ सुख दुख का कारण नहीं है, दुख का कारण मात्र रागादिक भाव है, सुख का कारण वीतराग भाव है तो भी रागादिक न छोड़ने देवे अर्थात् देशसंयम धारण न करने देवे ऐसे कर्म का नाम अप्रत्याख्यान कम है।
प्रश्न-प्रत्याख्यान कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो कर्म आत्मा में सकल चारित्र न होने देवे उसका नाम प्रत्याख्यानकर्म है अर्थात् त्रस की हिंसा का राग छूट जावे परन्तु स्थावर की हिंसा का राग न छोड सके ऐसे कर्मका नाम प्रत्याख्यान कर्म है।
प्रश्न--संज्वलनकर्म किसे कहते हैं ? ___उत्तर-जो कर्म यथाख्यात चारित्र होने न देवे ऐसे कर्म का नाम संज्वलन कर्म है अर्थात् जो कर्म सकल संयम होने देवे परन्तु वीतराग भाव होने न देवे ऐसे कर्म का नाम संनलनकर्म है।
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[जिन सिद्धान्त प्रश्न--आयुकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जो कर्म आत्मा को नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के शरीर में रोक रक्खे, उस कर्म का नाम आयुकर्म है।
प्रश्न-आयुकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर-आयुकर्म के चार भेद हैं-( १ ) नरकायु, (२) तिर्यंचायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु ।
प्रश्न-नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जो कर्म जीव को नाना शरीर धारण करावे उसका नाम नामकर्म है।
प्रश्न-नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर--नामकर्म के ४२ भेद हैं-(१) गति चारः[१-नरक, २-तिर्यंच, ३-मनुष्य, ४-देव ] (२) जाति पांचः-[ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, ](३) शरी र पांच-[१ औदारिक, २ बैंक्रियिक, ३ आहारक, ४ तेजस, ५ कार्माण] (४) अंगोपांगतीन [१ औदारिक, २ वैक्रियिक, ३ आहारक] (५) निर्माण, (६) बंधन पांच [१ औदारिक २ चक्रियिक ३ आहारक, ४ तेजस, ५ कार्माण ] (७)संघातपाँच, [१ औदारिक, २ चैक्रियिक, ३ आहारक, ४ तेजस, ५ कार्माण]
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जिन सिद्धान्त ] (८) संस्थान छह [ १ समचतुरस्त्र, २ न्यग्रोधपरिमंडल ३ स्वाति, ४ कुञ्जक, ५ वामन, ६ हुएडक,](5)संहनन छह [१ वज्रपेभनाराच, २ वज्रनाराच ३ नाराच, ४ अर्द्धनाराच ५ कीलक, ६ असंप्रामामुपाटिक,](१०)स्पर्श
आठ:- [१ कठोर, २ कोमल ३ हलका, ४ भारी ५ स्निग्ध, ६ रुक्ष, ७ शीत, ८ उष्ण,] (११) रसपांच [१ तिक्त, २ कडवा, ३ खट्टा, ४ मीठा, ५ कसायला]( १२ )गंध दो सुगन्ध, २ दुर्गध, (१३) वर्ण पांच [ १ काला २ नीला ३लाल, ४ पीला, ५ श्वेत] (१४) आनुपूर्वी चार [१ नरक २ तिर्यंच, ३ मनुष्य, ४ देवगत्यानुपूर्वी,] (१५) अगुरुलघु (१६) उपधात (१७) परवात (१८) आताप (१६) उद्योग (२०) उच्छवास (२१) विहायोगति (२२) प्रत्येक (२३) साधारण (२४) वस (२५) स्थावर (२६) सुभग (२७)दुर्भग(२८)सुस्वर (२६) दुःस्वर (३०)शुभ(३१)अशुभ (३२) सूक्ष्म (३३) बादर (३४) पर्याप्त (३५) अपर्याप्त (३६) स्थिर (३७) अस्थिर (३८) आदेय (३६) अनादेय (४०) यशीति (४१) अयशःकीर्ति (४२) तीर्थकर ।
प्रश्न-गति नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो कर्म जीव को नरक, तियंच, मनुष्य या । देव के आकार का बनावे ।
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६०
[जिन सिद्धान्त
प्रश्न - जाति किसे कहते हैं ? उत्तर - अव्यभिचारी सदृशता से एकरूप करनेवाले
विशेष को जाति कहते हैं ।
प्रश्न- जाति नामकर्म किसे कहते हैं ।
उत्तर- जिस कर्म के उदय से जीव को एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, कहा जावे उसी का नाम जाति नामकर्म है ?
प्रश्न- शरीर नामकर्म किसे कहते हैं ।
उत्तर - जिस कर्म के उदय से श्रदारिकादि शरीर जीव को मिले, उस कर्म का नाम शरीर नामकर्म है।
प्रश्न - निर्माण नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिस कर्म के उदय से नेत्रादि योग्य स्थान पर हों, उस कर्म का नाम निर्माण नामकर्म है ।
प्रश्न- बंधन नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिस कर्म के उदयसे श्रदारिकादिक शरीरो के परमाणु परस्पर सम्बन्ध को प्राप्त हों, उस कर्म को बन्धन नामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न - सघात नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीरों के
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जिन सिद्धान्त परमाणु छिद्र रहित एकता को प्राप्त हों, उस कर्म को संघात नामकर्म कहते हैं।
प्रश्न-संस्थान नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर की आकृति बने, उस कर्म का नाम संस्थान नामकर्म है ।
प्रश्न-समचतुरस्त्र संस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर की शकल ऊपर नीचे तथा बीच में समभाग से बने ।
प्रश्न-न्यग्रोधपरिमण्डल कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर बड़ के वृक्ष की तरह हो अर्थात् जिसके नाभि से नीचे के अंग छोटे और ऊपर के बड़े हों।
प्रश्न-स्वाति संस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के अंग बडे हो और ऊपर के अंग पतले हों ।
प्रश्न-कुञ्जक संस्थान किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस कर्म के उदय से कुमडा शरीर हो । प्रश्न-धामन संस्थान किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस कर्म के उदय से बोना शरीर हो ।
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६२
[जिन सिद्धान्त
प्रश्न-हुण्डक संस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर के अंगोपांग किसी खास शकल के न हों।
प्रश्न-संहनन नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से हाडों का बंधन विशेप हो, उसे संहनन नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न-बज्रर्षभनाराच संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर-निस कर्म के उदय से वन के हाड़, वज के वेठन और बज्र हो कीलिया हो, उसे वज्रप्रेमनाराच मंहनन कहते हैं।
प्रश्न-बननाराच संहनन किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-जिस कर्म के उदय से वज्र के हाड़ और वन की कीली हो परन्तु वंठन बन्न के न हों, उसे बन नाराच संहनन कहते हैं।
प्रश्न-नागच मंहनन किसे कहते है ? ' उनर-जिन कर्म के उदय में बंठन और काली महित हाड़ हो, उन कर्म को नागच मंहनन कहते है ?
प्रश्न-बद्ध नागच मंहनन किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त]
उत्तर-जिस कर्म के उदय से हाड़ों की सन्धि अर्द्ध कीलित हो, उसे अद्ध नाराच संहनन कहते हैं।
प्रश्न-कीलक संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से हाड़ परस्पर कीलित हों, उमे कीलक संहनन कहते हैं।
प्रश्न--असंप्राप्तामृपाटिक संहनन किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-जिस कर्म के उदय से जुदे जुदे हाड़ नसों से बंधे हों, परन्तु परस्पर किले हुए न हों, उसे असंप्राप्तासुपाटिक संहनन कहते हैं।
प्रश्न-वर्ण नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर में रंग हो, उसे वर्ण नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न--गंध नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर में गंध हो, उसे गंध नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न-रस नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से शरीर में रस हो, उसे रस नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न-स्पर्श नाम कर्म किसे कहते हैं ?
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[जिन सिद्धान्त उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श हो, अर्थात् चमड़ा कोमल अथवा कठोर हो, उस कर्म का नाम स्पर्श नाम कर्म है।
प्रश्न-आनुपूर्वी नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से आत्मा के प्रदेश मरण के पीछे और जन्म से पहले विग्रहगति मे मरण से पहले के शरीर के श्राकार रूप रहे, उसे प्रानुपूर्वी नाम कर्म कहते हैं।
शंका-श्रानुपूर्वी नाम कर्म और कुछ करता है ?
समाधान-विग्रगति में ऋजुगति छोड़कर और गति में आनुपूर्वी गमन कराने का काम करती है, क्योंकि
औदारिक श्रादि तीनों शरीरों के उदय के विना विहायागति नाम कर्म का उदय नहीं रहता है।
प्रश्न-अगुरुनघु नामकर्म फिर्म कहते हैं ?
उतार-जिम कम के उदय ने शरीर लोह के समान भार्ग और पार की गई जगा इनका न हो. उम कम का नाम श्रगुन्लप नाम कम है। प्रत-उपवान नाम कम किन बने हैं ? मा-- क र में आना ही गान
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जिन सिद्धान्त करने वाले अंग हों उसे उपधात नाम कर्म कहते हैं। जैसे चमरी गाय का बाल ।
प्रश्न-परघात नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से दूसरे के घात करने योग्य अंगोपांग मिले, उसे परघात नाम कर्म कहते हैं । जैसे शेरादि का नाखून ।
प्रश्न-आताप नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से उष्णता सहित प्रकाश रूप शरीर हो उसको आताप नामकर्म कहते हैं। जैसेसूर्य का प्रतिविम्व ।
प्रश्न-उद्योत नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से शरीर में चमक उत्पन्न हो, उसे उद्योत नाम कर्म कहते हैं । जैसे चन्द्र, नक्षत्र, चारा तथा जुगनू इत्यादि।
प्रश्न-विहायोगति नामकर्म किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-जिस कर्म के उदय से आकाश में गमन करने की शक्ति प्राप्त हो, उसे विहायोगति नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न-विहायोगति नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर-दो भेद हैं (१) शुभ विहायोगति (२) अशुभ विहायोगति । ये कषाय की अपेक्षा से भेद हैं।
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ANNAAMAN
[जिन सिद्धान्त प्रश्न-उच्छ्वास नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से श्वासोच्छ्वास चलते रहें, उस कर्म का नाम उच्छ्वास नामकर्म है।
प्रश्न-त्रस नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से दो इन्द्रिय से लेकर . पंचेन्द्रिय तक के जीवों में जन्म हो, उसे त्रस नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न-स्थावर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से पृथ्वी, अप, अग्नि वायु और वनस्पति में जन्म हो, अर्थात् एकेन्द्रिय जीव हो, ऐसे कर्म का नाम स्थावर नामकर्म है।।
प्रश्न-पर्याप्ति नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्ति पूर्ण हो, उसे पर्याप्ति नामकर्म कहते हैं।
प्रश्न-पर्याप्ति किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-आहार-वर्गणा, भाषा-वर्गणा और मनोवर्गणा के परमाणुओंको शरीर, इन्द्रिय आदि रूप परिणत करनेवाली शक्ति की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं ।
प्रश्न-पर्याप्ति के कितने भेद हैं ?
उत्तर-छह भेद (१) आहार पर्याप्ति, (२) शरीर पर्याप्ति, (३) इन्द्रिय पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छश्वास
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जिन सिद्धान्त पर्याप्ति, (५) भाषा पर्याप्ति, (६) मनः पर्याप्ति ।
प्रश्न-एकेन्द्रिय जीव के कितनी पर्याप्ति होती हैं ?
उत्तर-एकेन्द्रिय जीव के चार पर्याप्ति होती हैं(१) आहार पर्याप्ति (२) शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रिय पर्याप्ति ( ४ ) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ।
प्रश्न-दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय के कितनी पर्याप्ति होती हैं ? ... उत्तर-इन जीवों के मनः पर्याप्ति छोड़कर पांच पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न-संज्ञी पंचेन्द्रिय के कितनी पर्याप्तियां होती हैं ? उत्तर-संज्ञी पंचेन्द्रिय के छहों ही पर्याप्तियाँ होती हैं। प्रश्न-पर्याप्ति पूर्ण होने का कितना काल है ?
उत्तर-छहों पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अन्तमुहूर्त काल लगता है।
प्रश्न--नित्यपर्याप्तक किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-जब तक किसी जीव की शरीर पर्याप्ति पूर्ण हुई न हो परन्तु नियम से पूर्ण होने वाली हो उसे नित्यपर्याप्तक कहते हैं।
प्रश्न- लब्ध्यपर्याप्तक किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस जीव की एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हुई हो और न होने वाली हो परन्तु जिसका श्वास के अठारहवें
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६८
[जिन सिद्धान्त
भाग में ही मरण होने वाला है उस जीव को लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं।
प्रश्न--पर्याप्तक किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस जीव की पर्याप्ति पूर्ण हो गई हो उम जीव को पर्याप्तक कहा जाता है।
प्रश्न-अपर्याप्ति नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जब तक पर्याप्ति पूर्ण न हो ऐसी अपूर्ण पर्याप्ति का नाम अपर्याप्ति नामकर्म है।
प्रश्न--प्रत्येक नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से एक शरीर का एक स्वामी हो उस कर्म का नाम प्रत्येक नामकर्म है।
प्रश्न--साधारण नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हो उसे साधारण नाम कर्म कहते हैं।
प्रश्न--स्थिर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से रस, रुधिर, मेदा, मज्जा, अस्थि, मांस और शुक्र इन सात धातुओं की स्थिरता अर्थात् अविनाश व अगलन हो वह स्थिर नाम कर्म है।
प्रश्न- अस्थिर नामकर्म किसे कहते हैं ? उचर--जिस कर्म के उदय से रम, रुधिर, मांस,
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जिन सिद्धान्त ] मेदा, मज्जा, अस्थिर और शुक्र इन धातुओं का परिणमन होता रहे वह अस्थिर नामकर्म है।
प्रश्न---शुभ नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों, उसे शुभ नामकर्म कहते हैं।
प्रश्न-~-अशुभ नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों, उस कर्म का नाम अशुभ नामकर्म है ।
प्रश्न--सुभग नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव अपने से श्रीति करें उसे सुभग नामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न--दुर्भग नाम किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव अपने से और करें, उस कर्म का नाम दुर्भग नामकर्म है।
प्रश्न--सुस्वर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से सुन्दर स्वर हो, उस कर्म का नाम सुस्वर नामकर्म है।
प्रश्न--दुःस्वर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से स्वर अच्छा न हो, उस कर्म का नाम दुःस्वर नाककर्म है।
प्रश्न--प्रादेय नामकर्म किसे कहते हैं ?
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[जिन सिद्धान्त ____ उत्तर-जिस कर्म के उदय से कांति सहित शरीर उपजे एवं बहुमान्यता उत्पन्न होती हो, उस कर्मका नाम आदेय नामकर्म है ।
प्रश्न-अनादेय नामकर्म किसे कहते हैं ? ___उत्तर-जिस कर्म के उदय से कांति सहित शरीर न हो एवं अनादरणीयता उत्पन्न होती हो, उस कर्म का नाम अनादेय नाम कर्म है।
प्रश्न-यशःकीर्ति नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय से संसार में जीव की प्रशंसा हो, उस कर्म को यश कीर्ति नामकर्म कहते हैं।
प्रश्न--अयशः कीर्ति नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से संसार में जीव की प्रशंसा न हो, उस कर्म को अयश कीर्ति नामकर्म कहते हैं।
प्रश्न--तीर्थकर नाम कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस कर्म के उदय के कारण जिन धर्म तीर्थ की स्थापना करे, उस कर्म का नाम तीर्थकर नामकर्म है।
प्रश्न-गोत्र कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च तथा नीच गोत्र में जन्म लेवे, उसे गोत्रकर्म कहते हैं।
प्रश्न--गोत्रकर्म के कितने भेद हैं ?
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'जिन सिद्धान्त ]
उत्तर---गोत्र कर्म के दो भेद हैं-( १ ) उच्च गोत्र, (२) नीच गोत्र।
प्रश्न-उच्च गोत्र कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर---जिस कर्म के उदय से जीव मनुष्य तथा देव गति में जन्म लेवे, उस कर्म का नाम उच्च गोत्र है ।
प्रश्न-नीच गोत्र किसे कहते हैं ? ___ उत्तर-जिस कर्म के उदय से जीव तिर्यञ्च तथा नरकगति में जन्म लेवे उस कर्म का नाम नीच गोत्र है।
प्रश्न-अन्तराय कर्म किसे कहते हैं ? ___उचर-जीव की वीर्य-शक्ति का घात करे उसे अन्तराय कर्म कहते हैं।
प्रश्न-अंतराय कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर-अन्तराय कर्म के ५भेद हैं-(१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और ( ५ ) वीर्यान्तराय ।
प्रश्न-दानान्तराय किसे कहते हैं ?
उत्तर-दान देने में वीर्य शक्ति के अभाव को दानान्तराय कहते हैं।
प्रश्न--लाभान्तराय किसे कहते हैं ?
उत्तर-व्यवसाय करने में वीर्य शक्ति के अभाव को लाभान्तराय कहते हैं।
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[जिन सिद्धान्त
प्रश्न-भोगान्तराय किसे कहते हैं ? ।
उत्तर-भोग करने में वीर्यशक्ति के अभाव को भोगान्तराय कहते हैं । जैसे धन होते हुए भी उत्तम भोग की चीज़ न खा सके।
प्रश्न-उपभोगान्तराय किसे कहते हैं ?
उत्तर--उपभोग करने में वीर्यशक्ति के अभाव को उपभोगान्तराय कहते हैं, जैसे धन होते हुए भी कीमती दाम का वस्त्र एवं जेवरात पहर न सके !
प्रश्न-वीर्यान्तराय किसे कहते हैं ?
उत्तर-तप तथा संयम धारण करने में वीर्यशक्ति के अभाव को वीर्यान्तराय कहते हैं, जैसे तगड़ा शरीर होते हुए भी एक उपवास कर न सके।
प्रश्न-पातिया कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो कर्म जीव के ज्ञानादिभाववती शक्तिका घात करे उसे धातिया कर्म कहते हैं।
प्रश्न -अघाति कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जो जीव के योग आदि क्रियावती शक्ति को पाते उसे अघाति कर्म कहते हैं।
प्रश्न--क्रियावतो शक्ति में कौन २ गुण हैं ?
उत्तर--योग, क्रिया, अवगाहना, अध्यात्राध, अगुरुलघु, शूक्ष्मत्व आदि ।
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जिन सिद्धान्त
७३
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प्रश्न-पाति कर्म कौनसे हैं ?
उत्तर--ज्ञानावरण कर्म ( ५ ) दर्शनावरण कर्म (8) मोहनीय कर्म ( २८ ) अन्तराय कर्म ( ५ )।
प्रश्न--अघाति कर्म कौनसे हैं ?
उत्तर-वेदनीयकर्म (२), आयुकर्म (४), नामकर्म (६३) और गोत्र कर्म (२)।
प्रश्न-सर्वघाति कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर--जो जीव या भाववती शक्ति को पूरे तौर से वाते उसे सर्वधाति कर्म कहते हैं।
प्रश्न--सर्वघाति कर्म की कितनी प्रकृति और कौनर सी हैं ?
उत्तर-२१ प्रकृति हैं :-ज्ञानावरण की १ (केवल ज्ञानावरण) दर्शनावरण की छह ( केवल दर्शनावरण १, निद्रा ५ ), मोहनीय की १४ (अनन्तानुबन्धी ४, अनत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, मिथ्यात्र १ और सम्यक् मित्थात्व-१)। प्रश्न--देशघाति कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो जीव की भाववनी शक्ति को एक देश घाते उस कर्मका नाम देशवाति कर्म है।
प्रश्न-देशघाति कर्म की कितनी प्रकृति व कौन २
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७४
जिन सिद्धान्त
____ उत्तर–२६ प्रकृति हैं-ज्ञानावरण४,(मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानाचरण), दर्शनावरण ३, (चक्षुदर्शनावरण, अचनुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण), मोहनीय की १४ (संज्वलन कषाय४, हास्यादि नो कपाय है, सम्यक्त्व १), अन्तराय ५ (लाभान्तराय, दानान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय)।
प्रश्न—जीव विपाकी कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिसका फल जीव को मिले उसे जीव विपाकी कर्म कहते हैं। ____ प्रश्न--जीव विपाकी कर्म की प्रकृति कितनी व कौन कौन सी हैं ?
उत्तर--जीव विपाकी की ७८ प्रकृति हैं, घातिया कर्म की ४७, गोत्र कर्म की २, वेदनीय कर्म की २, नाम कर्म की २७ [(१) तीर्थंकर प्रकृति, (२) उच्छ वास, (३) वादर, (४) सूक्ष्म, (५) पर्याप्ति, (६) अपर्याप्ति, (७) सुस्वर, (८) दुःस्वर, (6) प्रादेय, (१०) अनादेय,
(११) यश कीर्ति, (१२) अयश कीर्ति, (१३) त्रस, ..(१४) स्थावर, (१५) प्रशस्त विहायोगति,(१६) अप्रशस्त
विहायोगति, (१७) सुभग, (१८) दुर्भग, (१६-२२) गति
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जिन सिद्धान्त ]
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आदि ४, ( २३-२७) ] जाति आदि ५; ये मिलकर ७८ प्रकृति होती हैं ।
प्रश्न -- पुद्गल विपाकी कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर -- जिसका फल शरीर में मिले, उसे पुद्गल विपाकी कर्म कहते हैं ?
प्रश्न -- पुद्गल त्रिपाकी कर्म की प्रकृति कितनी और कौन कौन सी हैं ?
उत्तर - पुद्गल विपाकी की ६२ प्रकृति हैं ( सर्वप्रकृति १४८ हैं जिसमें से क्षेत्र विपाकी ४, भव विपाकी ४, जीव विपाकी ७८, ऐसे सब मिलाकर ८६ प्रकृति घटाने से शेष जो ६२ प्रकृति हैं ये पुद्गल विपाकी कर्म की हैं । )
प्रश्न --- भवविपाकी कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर -- जिस कर्म के फल से जीव संसार में रुके रहे उस कर्म का नाम भवविपाकी कर्म है।
प्रश्न -- भवविपाकी कर्म की कितनी च कौन कौन सी प्रकृतियां हैं ?
उत्तर -- भवविपाकी कर्म ४ हैं १ नरक आयु, २ तिर्यंच आयु, ३ मनुष्य आयु, ४ देव आयु | प्रश्न --- क्षेत्रविपाकी कर्म किसे कहते हैं । उत्तर -- जिस कर्म के फल से विग्रहगति में जीवका
आकार पहला-सा बना रहे, उसे क्षेत्रविपाकी कर्म कहते हैं ।
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[ जिन सिद्धान्त
प्रश्न -- क्षेत्रविपाकी कर्म की कितनी व कौन कौन सी
प्रकृतियां हैं ?
उत्तर --- क्षेत्र विपाकी कर्म ४ हैं: - १ नरकगत्यानुपूर्वी, २ तियंचगत्यानुपूर्वी, ३ मनुष्यगत्यानुपूर्वी, ४ देवगत्यानुपूर्वी ।
प्रश्न -- पाप प्रकृति कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर -- जो जीव को दुःख देवे एवं अनिष्ट सामग्री की प्राप्ति करावे ऐसी प्रकृतिका नाम पाप प्रकृति कर्म है। प्रश्न - - पाप प्रकृति कर्म कितने व कौन कौन से हैं? उत्तर --- पाप प्रकृति कर्म १०० हैं, घातिया कर्म की ४७, असातावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरक आयु १, और नाम कर्म की ५०, ( नरकगति १, नरकगत्यानुपूर्वी १, तिर्यं वयति १, तियंचगत्यानुपूर्वी १, जाति में से आदि ४, संस्थान अन्त के ५, संहनन अन्त के ५, स्पर्शादिक २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, अर्याप्ति १, अनादि १, अयशः कीर्ति १, अशुभ १, दुर्भग १, दुःस्वर १, अस्थिर १, और साधारण १ ) ।
उसे
प्रश्न -- पुण्य प्रकृति कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जो जीव को बाह्यमें दृष्ट सामग्री प्राप्त कराये
पुण्य प्रकृति कहते हैं ।
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जिन सिद्धान्त]
प्रश्न--पुण्य प्रकृति कितनी व कौन कौन सी हैं ?
उत्तर-पुण्य प्रकृति६८ हैं। कर्म की समस्त प्रकृति १४८ हैं जिनमें से पाप प्रकृति १०० घटाने से शेष ४८ प्रकृति रहीं और उनमें नामकर्म को स्पर्शादिक २० प्रकृति मिलाने से ६ प्रकृति पुण्यप्रकृति कही जाती हैं। स्पर्शादिक २० प्रकृति किसी को इष्ट किसी को अनिष्ट होती हैं इसीलिये यह २० प्रकृति पुण्य तथा पाप में गिनी जाती हैं।
प्रश्न-आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति कितनी है ?
उत्तर-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय इन चारों कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस तीस कोडा कोड़ी सागर है । मोहनीय कर्म की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर है। नामकर्म गोत्रकर्म की वीस कोड़ा कोड़ी सागर और आयु कर्म की तेतीस सागर की है।
प्रश्न-आठों कर्मों की जघन्य स्थिति कितनीर है ? ___ उत्तर-वेदनीय की बारह मुहर्स, नाम तथा गोत्र की आठ पाठ मुहूर्त और शेष समस्त कर्मों की अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थिति है।
प्रश्न--कोड़ाकोड़ी किसे कहते हैं ?
उत्तर-एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो लब्ध हो उसे एक कोड़ाफोड़ी कहते हैं।
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प्रश्न- सागर किसे कहते हैं ?
---
उत्तर --- दश कोड़ाकोड़ी श्रद्धा पन्योंका एक सागर
होता है ।
[ जिन सिद्धान्त
प्रश्न -- श्रद्धापल्य किसे कहते हैं ?
उत्तर - दो हजार कोस गहरे और दो हजार कोस चौड़े गड्डे में कैंची से जिसका दूसरा भाग न हो सके ऐसे भेड़ी के बालों को भरना, जितने बाल उसमें समावे उनमें से एक एक बाल को सौ सौ वर्ष बाद निकालना | जितने वर्षों में वे सब चाल निकल जाये उतने वर्षों के जितने समय हों उसको व्यवहार पल्य कहते हैं । व्यवहार पन्य से असंख्यात गुणा उद्धारपल्य होता है, उद्धारपन्य से असंख्यात गुणा श्रद्धापल्य होता है ।
प्रश्न- मुहूर्त किसे कहते हैं ?
उत्तर---अडतालीस मिनट का एक मुहूर्त होता है ।
प्रश्न- अन्तहूर्त्त किसे कहते हैं ?
--
उत्तर - आवली से ऊपर और मुहूर्त से नीचे के मुहूर्त कहते हैं ।
प्रश्न --- आवली किसे कहते हैं ?
काल को
उत्तर - एक श्वास में असंख्यात श्रावली होती हैं | प्रश्न – स्वासोच्छ्वास काल किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त ]
उत्तर -- निरोग पुरुष के नाड़ी के एक बार चलने
को स्वासोच्छ्वास काल कहते हैं ।
प्रश्न - एक मुहूर्त्त में कितने स्वासोच्छ्वास होते हैं ? उत्तर --- तीन हजार सात सौ तेहत्तर होते हैं ।
AAAAA
छ
प्रश्न - उदय किसको कहते हैं ?
उत्तर -- कर्म की स्थिति पूरी होने से कर्म के फल देने को उदय कहते हैं ।
प्रश्न --- उदीरणा किसे कहते हैं ?
उत्तर - उदीरणा दो प्रकार की है । ( १ ) भाव उदीरणा, (२) द्रव्यउदीरखा ।
प्रश्न - - भावउदीरणा किसे कहते हैं ?
उत्तर -- आत्मा में जो बुद्धिपूर्वक रागादिक भाव तथा क्रिया होती है उसीका नाम भाव उदीरणा है ।
प्रश्न - - द्रव्य उदीरणा किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जिस कर्म की स्थिति पूरी न हुई है, परन्तु आत्मा के बुद्धिपूर्वक रागादिक का निमित्त पाकर जो कर्म फल देकर खिर जाता है उसी का नाम द्रव्यउदीरणा है । प्रश्न -- भाव उदीरणा श्रात्मा के पांच भावों में से किस भाव में होती है ।
उत्तर -- भाव उदीरणा आत्मा के चारित्र गुण तथा
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[जिन सिद्धान्त क्रिया गुण की विकारी पर्याय है और यह क्षयोपशमभाव में ही होती है।
प्रश्न-उपशम किसे कहते हैं ?
उत्तर-द्रव्यक्षेत्र काल भाव के निमित्त से कम की शक्ति की अनुम॒ति (उदय में न आना ) को उपशम कहते हैं।
प्रश्न-उपशम के कितने भेद हैं ?
उत्तर–उपशम के दो भेद हैं (१) अन्तःकरणरूप (२) सदवस्थारूप।
प्रश्न–अन्तःकरण रूप उपशम किसे कहते हैं ?
उत्तर-आगामी काल में उदय आने योग्य क्रम च परमाणुओं को आगे पीछे उदय आने योग्य करने को अन्तःकरण रूप उपशम कहते हैं।
प्रश्न-सदवस्था रूप उपशम किसे कहते हैं ?
उत्तर-वर्तमान समय को छोड़कर आगामी काल में उदय आने वाले कर्मों के सत्ता में रहने को सदवस्था रूप उपशम कहते हैं।
प्रश्न-उदय और उदीरणा में क्या भेद है ?
उत्तर-जो कर्म स्कन्ध, अपकर्षण, उत्कर्पण आदि प्रयोगों के विना स्थिति क्षय को प्राप्त होकर अपना आत्मा को फल देता है उन कर्मस्कन्धों की “उदय" यह
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जिन सिद्धान्त ] संज्ञा है । जो महान स्थिति अनुभागों में अवस्थित कर कर्म स्कन्ध अपकर्षण करके फल देने वाले किये जाते हैं उन कर्म स्कन्धों की 'उदीरणा' यह संज्ञा है, क्योंकि अपक्व कर्मस्कन्ध के पाचन करने को उदीरणा कहा गया है।
प्रश्न-उपशम, निधत्त और निकांचित में क्या अन्तर है ?
उत्तर-जो कर्म उदय में न दिया जा सके वह उपशम, जो संक्रमण और उदय दोनों में ही न दिया जा सके वह निधत्त और जो अपकर्षण, उत्कर्पण, संक्रमण तथा उदय इन चारों में ही न दिया जा सके वह निकांचित है।
प्रश्न--क्षय किसे कहते हैं ? उत्तर--कर्म की अत्यन्त निवृत्ति को क्षय कहते हैं। प्रश्न--क्षयोपशम किसे कहते हैं ?
उचर--को भाव, कर्म के उदय अनुदय कर होवे उन्हें क्षयोपशम भाव कहते हैं । क्षयोपशम भाव के बारे में दो मत हैं (१) वर्तमान निषेक में सर्वधाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय तथा देशघाति स्पर्धको का उदय और आगामी काल में उदय आने वाले निपेकों का सदवस्था रूप उपशम ऐसी सर्म की अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं।
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[जिन सिद्धान्त (२) आत्मा के गुण का अंश में उघाड़ और अंश में घात ऐसी अवस्था होने में जो कर्म की अवस्था होती है उसे क्षयोपशम कहते हैं ?
प्रश्न--निपेक किसे कहते हैं ? ___ उत्तर---एक समय में कर्म के जितने परमाणु उदय में आवें उन सब समूह को निपेक कहते हैं।
प्रश्न-स्पर्धक किसे कहते हैं ? उत्तर--वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं ? प्रश्न-वर्गणा किसे कहते हैं ? उत्तर-वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। प्रश्न-वर्ग किसे कहते हैं ?
उत्तर-समान अविभाग प्रतिच्छेदों के धारक प्रत्येक कर्म परमाणुओं को वर्ग कहते हैं।
प्रश्न-अविभाग प्रतिच्छेद किसे कहते हैं ?
उत्तर--शक्ति के अविभाग अंश को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं।
प्रश्न--शक्ति शब्द से कौनसी शक्ति इष्ट है ?
उत्तर-यहां कर्म की शक्ति शब्द से कर्मों की अधिभाग रूप अर्थात् फल देने की शक्ति इष्ट है।
प्रश्न-उदयाभावी च्य किसे कहते हैं ? उत्तर--आत्मा से बिना फल दिये कर्म के सम्बन्ध
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जिन सिद्धान्त ]
छुटने को उदयाभावी क्षय कहते हैं । प्रश्न --- उत्कर्षण किसे कहते हैं ?
उत्तर -- कर्मों की स्थिति के बढजाने को उत्कर्षण
कहते हैं ।
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कहते हैं ।
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प्रश्न - अपकर्षण किसे कहते हैं ?
उत्तर - कर्मों की स्थिति के घटने को अपकर्षण
प्रश्न --- संक्रमण किसे कहते हैं ?
उत्तर -- किसी कर्म के सजातीय एक भेद से दूसरे भेद रूप हो जाने को संक्रमण कहते हैं जैसे साता का साता हो जाना ।
प्रश्न - - समय प्रवद्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर -- एक समय में जितने कर्म परमाणु बधे उन सब को समय-प्रबद्ध कहते हैं ।
प्रश्न --- गुण हानि किसे कहते हैं ?
उत्तर - गुणाकार रूप हीन हीन द्रव्य जिसमें पाये जाय उसे गुण हानि कहते हैं ।
प्रश्न -- गुणहानि आयाम किसे कहते हैं ? उत्तर - एक गुणहानि के समय के समूह को गुणहानि श्रायाम कहते हैं ।
प्रश्न - नाना गुणहानि किसे कहते हैं ?
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[जिन सिद्धान्त ___ उत्तर--गुणहानि योग के समूह को नाना गुणहानि कहते हैं।
प्रश्न--अन्योन्याभ्यस्तराशि किसे कहते हैं ?
उत्तर--नाना गुण हानि प्रमाण दुए मानकर परस्पर गुणाकार करने से जो गुणनफल हो उसको अन्योन्याभ्यस्त राशि कहते हैं।
प्रश्न-अन्तिम गुण हानि का परिमाण किस प्रकार से निकालना ?
उत्तर--एक घाट अन्योन्याभ्यस्तराशि का भाग समय प्रबद्ध को देने से अन्तिम गुण हानि के द्रव्य का परिमाण निकलता है।
प्रश्न--अन्य गुण हानियो को द्रव्य का परिमाण किस प्रकार निकालना चाहिए ?
उत्तर--अन्तिम गुण हानि के द्रव्य को प्रथम गुण हानि पर्यन्त दूनार करने से अन्य गुण हानियों के द्रव्य का परिमाण निकलता है।
प्रश्न-प्रत्येक गुणहानि में प्रथमादि समयों में द्रव्य का परिमाण किस प्रकार होता है ? ____उत्तर--निपेक श्राहार को चय से गुणा करने से प्रत्येक गुण हानि के प्रथम समय का द्रव्य निकलता है । और प्रथम समय के द्रव्य में से एक एक चय घटाने से
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जिन सिद्धान्त ] उत्तरोत्तर समयों के द्रव्य का परिमाण निकलता है।
प्रश्न--निपेकहार किसे कहते हैं ?
उत्तर--गुण हानि आयाम से दूने परिमाण को निषेकहार कहते हैं।
प्रश्न--चय किसे कहते हैं ?
उत्तर--श्रेणी व्यवहार गणित में समान हानि या समान वृद्धि के परिमाण को चय कहते हैं ।
प्रश्न--मिथ्यात्व के उदय से किन २ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
उत्तर--मिथ्यात्व के उदय से १६ प्रकृति का बन्ध होता है, (१) मिथ्यात्व, (२) नपुसक वेद, (३) नरक
आयु, (४) नरक गति, (५) एकेन्द्रिय जाति, (६) दो इन्द्रिय जाति, (७) तेडन्द्रिय जाति, (८) चौइन्द्रिय जाति, (६) हुएडक संस्थान, (१०) असंप्राप्तामृपाटिक संहनन, (११) नरकगत्यानुपूर्वी, (१२) आताप, (१३) स्थावर, (१४) सूक्ष्म, (१५) अपर्याप्त, (१६) साधारण ।
प्रश्न--सोलह प्रकृति के बन्ध में कारण कार्य सम्बन्ध कैसा होता है ?
उतर-मिथ्यात्व कर्म का उदय सो कारण और तद्रूप आत्मा का मिथ्यात्वरूप भाव सो कार्य, मिथ्यात्व रूप आत्मा के भाव सो कारण और कर्म में १६ प्रकृति का
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जिन सिद्धान्त
वन्ध पड़ना सो कार्य।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय में किस २ प्रकृति का बन्ध होता है ? ____उत्तर--अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय में पचीस प्रकृति का वन्य पड़ता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यञ्चायु, तिर्यञ्च गति, तियंचगत्यानुपूर्वी, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन संस्थान, वजनाराच, नाराच, अद्ध नाराच और कोलिक संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्र का बन्ध पड़ता है।
प्रश्न-पच्चीस प्रकृति के बन्ध में कारण कार्य सम्बन्ध कैसे होता है ?
उत्तर---अनन्तानुबन्धी कर्म का उदय सो कारण तद्प आत्मा का अनन्तानुबन्धी रूप भाव सो कार्य है एवं आत्मा [अनन्तानुबन्धी रूप भाव सो कारण और कर्म का २५ प्रकृति का बन्ध होना सो कार्य है।
प्रश्न-~-अप्रत्याख्यानावरण कपाय के उदय में किस किस प्रकृति का बन्ध होता है ? ___उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कपाय के उदय में १० प्रकृति का बंध होता है:-अप्रत्याख्यानावारण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्य आयु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर,
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जिन सिद्धान्त 1
मनुष्यगत्यानुपूर्वी, वज्रऋषभनाराच संहनन और औदारिक
अंगोपांग |
प्रश्न- इन दस प्रकृतियों के बंध में कारण कार्य सम्बन्ध कैसे होता है ?
उत्तर -- अप्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय सो कारण और तद्रूप आत्मा का अप्रत्याख्यानरूप भाव सो कार्य और आत्मा का प्रत्याख्यान रूप भाव सो कारण और कर्म के १० प्रकृति का बंध पडना सो कार्य ।
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प्रश्न --- प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में किस किस प्रकृति का बंध होता है ?
उत्तर - प्रत्याख्यान कपाय में प्रत्याख्यानावरखी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों का बंध पडता है ।
प्रश्न -- इन चारों प्रकृति वंध में कारण कार्य सम्बन्ध कैसा होता है ?
उत्तर -- प्रत्याख्यानावरण का उदय सो कारण और तद्रूप आत्मा का भाव होना सो कार्य है। आत्मा का प्रत्याख्यान कषाय रूप भात्र सो कारण और चार कर्म का बंध पडना सो कार्य ।
प्रश्न - - प्रमादभाव से कौनसी प्रकृति का बंध होता है ?
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[ जिन सिद्धान्त
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उत्तर --प्रमाद रूप भाव से छह प्रकृति का बंध होता है, (१) अस्थिर (२) अशुभ (३) असातावेदनीय ( ४ ) यशःकीर्ति (५) अरति (६) शोक |
प्रश्न – इन छह प्रकृति के बंध में कारण कार्य सम्बन्ध क्या है ?
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उत्तर -- संज्वलन कपाय का तीव्र उदय सो कारण और तद्रूप आत्मा का भाव सो कार्य तीव्र संज्वलन कपाय रूप आत्मा का भाव सो कारण और छह प्रकृति का बंध सो कार्य १
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प्रश्न - - -संज्वलन कपाय से कितनी प्रकृतियों का बंध होता है ?
उत्तर --संज्वलन कपाय रूप मंद भाव से ५८ प्रक्रतियों का बंध पड़ता है; (१) देव आयु (२) निद्रा (३) प्रचला (४) देवगति ( ५ ) पंचेन्द्रिय जाति (६) वैक्रियक शरीर (७) आहारक शरीर (८) तैजस शरीर (E) कार्माण शरीर (१०) समचतु रक्ष संस्थान (११) वैक्रिय अंगोपांग (१२) श्रहारक अंगोपांग (१३) वर्ण (१४) गंध (१५) रस (१६) स्पर्श (१७) देवगत्यानुपूर्वी (१८)
गुरुलघु (१६) उपघात (२०) परघात (२१) उच्छ्वास (२२) प्रशस्त विहायोगति (२३) त्रस (२४) बादर (२५) पर्याप्त ( २६) प्रत्येक शरीर (२७) स्थिर ( २८ ) शुभ
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जिन सिद्धान्त ]
(२६) शुभग (३०) सुस्वर (३१) आदेय (३२) निर्माण ( ३३ ) तीर्थंकर (३४) हास्य (३५) रति (३६) भय (३७) जुगुप्सा (३८) संज्वलन क्रोध (३६) मान (४०) माया (४१) लोभ (४२) पुरुष वेद (४३) मतिज्ञानावरण (४४) श्रुतज्ञानावरण (४५) अवधिज्ञानावरण (४६) मन:पर्ययज्ञानावरण (४७) केवलज्ञानावरण (४८) चक्षु दर्शनावरण (४६ ) अचक्षुदर्शनावरण (५०) अवधि दर्शनावरण (५१) केवल दर्शनावरण (५२) दानान्तराय (५३) लाभान्तराय (५४) मोगान्तराय (५५) उपभोगान्त - राय (५६) वीर्यान्तराय (५७) यशः कीर्ति (५८) उच्चगोत्र इन प्रकृतियों का बंध पडता है ।
प्रश्न --- इन प्रकृतियों के बंध में कारण कार्य सम्बन्ध कैसा है ?
उत्तर -- संज्वलन कषाय का मंद उदय सो कारण, तद्रूप आत्मा का भाव होना सो कार्य आत्मा का मंद कपाय रूप भाव सो कारण और ५८ प्रकृतियों का वन्ध पडना सो कार्य ।
प्रश्न - लेश्या के कारण से किन किन प्रकृतियों का बंध पडता है ?
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उत्तर -- एक साता वेदनीय कर्म का चन्ध पडता है, क्योंकि मिथ्याल, असंयम और कपाय इनका अभाव
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[जिन सिद्धान्त
होने पर भी एक मात्र लेश्या (प्रवृति) के साथ ही इस प्रकृति का बंध पाया जाता है। लेश्या के अभाव में इस प्रकृति का बंध पाया नहीं जाता है।
प्रश्न-इस एक प्रकृति के बंध में कारण और कार्य सम्बन्ध क्या
उत्तर-नाम कर्म का उदय सो कारण और क्रिया गुण की प्रवृति रूप लेश्या सो कार्य क्रिया गुण की प्रवृति रूप लेश्या सो कारण और साता वेदनीय का बंध सो कार्य। ___ प्रश्न-बंध-विच्छेद होने से पहले किन कर्म प्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है ? ___ उत्तर-देव आयु, देवगति, चैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, देवगत्यानुपूर्वी, अहारक शरीर, अहारक अंगोपांग, अयशाकीर्ति, इन आठ प्रकृतियों का उदय विच्छेद होता है। पश्चात् बंध का विन्छेद होता है ।
प्रश्न-बंध उदय दोनों ही साथ विच्छेद होने वाली कर्म प्रकृतियों कौनसी हैं ?
उत्तर-मित्थात्व, अनन्तानुबंधी ४, अप्रत्याख्यानावरणी ४, प्रत्याख्यानावरणी ४, संज्वलन ३, पुरुष वेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी,
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जिन सिद्धान्त
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आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपयोप्ति और साधारण । इन ३१ प्रकृतियों का बंध और उदय दोनों ही साथ विच्छिन्न होता है। __प्रश्न--पहले बंध, बाद में उदय विच्छेद होने वाली कर्म प्रकृतियों कौनसी हैं ? ___ उत्तर--ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी १, वेदनीय २, संज्वलन लोभ, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति, शोक, नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्य-आयु, नरकगति, तिथंचगति,
चेन्द्रिय जाति, औदारिक, तेजस, कार्माण शरीर, संस्थान ६, औदारिक अंगोपांग, संहनन ६, वर्णादि ४, नरकगत्यानुपूर्वी, तियंचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि ४, उद्योत, विहायोगति २, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, नीचगोत्र, उच्चगोत्र, अतंराय ५, इन ८१ प्रकृतियों का पहले बंध नष्ट होता है बाद में उदय नष्ट होता है।
प्रश्न-परोदय से बंधनेवाली प्रकृतियों का क्या नाम है ? ___ उत्तर–तीर्थकर, नरकायु, देवश्रायु, नरकगति, देवगति, चैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, नरक गत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अहारक शरीर, अहारक
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जिन सिद्धान्त अंगोपांग, इन ११ प्रकृतियों का बंध परोदय से होता है।
प्रश्न-स्योदय से बंध होने वाली कौनसी प्रकतियाँ है ? ___ उत्तर-ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी ४, मिथ्यात्व, तेजस, कार्माण शरीर, वर्णादिक ४, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण, अंतराय ५, ये २७ प्रकृतियाँ स्व-उदय से बंधती हैं।
प्रश्न-स्वोदय, परोदय से बंधने वाली कौन सी कर्म प्रकृतियाँ हैं ? ___ उत्तर-दर्शनावरणी ५, वेदनीय २, अपाय १६, नोकपाय ६, तिर्यच-श्रायु, मनुष्य-आयु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, एकैन्द्रिय, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, संस्थान ६, संहनन ६, तियंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास आताप, उद्योत, विहायोगनि २. श्रस, स्थावर, बादर, भूम, पर्याप्त, अपर्याप्त. प्रत्येक, साधारण, सुभग, दुभंग, सुःस्वर दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यगःक्रीति, अयशकीर्ति, नीचगोत्र, ऊँचगोत्र ये ८२ प्रकृतियाँ स्त्रोटय पर-उदय दोनों प्रकार से बंधती हैं।
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का होता है ?
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प्रश्न- ध्रुव तथा निरंतर बंध कौनसी कर्म प्रकृति
उत्तर - ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, मित्यात्व १, कपाय १६, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्माण शरीर, वण', गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, अंतराय ५, ये ४७ ध्रुव प्रकृतियाँ हैं । ये ४७ ध्रुव प्रकृतियों तथा तीर्थंकर, अहारक शरीर, अकारक अंगोपांग, आयु ४ ये मिलकर ५४ प्रकृतियॉ निरन्तर बंधती हैं ।
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शंका: -- निरंतर बंध और ध्रुप-बंध में क्या भेद है ? समाधान: -- जिस प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव में अनादि एवं ध्रुव भाव से पाया जाता है और जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं व तथा श्रन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थित रहने वाला है, वह निरतर बंध प्रकृति है ।
प्रश्न-सांतर बंध प्रकृतियाँ कोनती हैं ?
उत्तर -- जिन जिन प्रकृतियों का काल तब मे बंध-विच्छेद संभव है ये सांतर बंध प्रकृति है । असाता वेदनीय, स्त्री वेद, नपुंसक बेटे, रति, शोक, नरकगति, चारजाति, अधस्तन पांच संस्थान, पांच संहनन. नरकगत्यानुपूर्वी आतान, उद्योत यशस्त विहायोगति, सावर, सूक्ष्म,
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दुर्भग, दुःस्वर,
अपर्याप्त, साधारण अस्थिर, अशुभ, अनादेय यशःकीर्ति ये २४ प्रकृतियाँ सान्तर हैं ।
प्रश्न – सांतर - निरंतर बंध प्रकृतियॉ कौनसी हैं ?
उत्तर --- सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, वैक्रिथक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर थंगोपांग, वज्रवृपभनाराच सहनन, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये ३२ प्रकृतियाँ सान्तर - निरंतर रूप से बंधने वाली है ।
( इति जिनसिद्धान्तशास्त्रमध्ये द्रव्य-कर्म अधिकार समाप्त )
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जीव भाव तथा निमित्त अधिकार
प्रश्न-जीव द्रव्य में कितना भाव होते है ?
उत्तर--जीव द्रव्य में व्यवहार से पांच भाव होते है, (१) औदयिकभाव (२) क्षयोपशमभाव (३) उपशमभाव (४) क्षायिकभाव (५) पारणामिकभाव ।
प्रश्न-ये पांच भाव किस अपेक्षा से कहे जाते हैं ?
उत्तर-पांच भाव में से चार भाव संयोग सम्बन्ध की अपेक्षा से कहे जाते हैं तथा एक भाव संयोग सम्बन्ध रहित की अपेक्षा से कहा जाता है ।
प्रश्न-संयोग सम्बन्ध किसे कहते हैं: १
उत्तर--जीव द्रव्य के साथ में पौगलिक द्रव्य कर्म का अनादि से संयोग है जिसका परस्पर में बंध-बंधक सम्बन्ध का नाम संयोग सम्बन्ध है।
प्रश्न-संयोग सम्बन्ध को कौन-सा अनुयोग स्वीकार करता है ? ____ उत्तर-करणानुयोग की अपेक्षा से संयोग सम्बन्ध है जो परम सत्य है और ऐसा भाव जीव द्रव्य में होता है। गधे के सींग जैसा यह सम्बन्ध नहीं है।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न-संयोग सम्बन्ध से रहित कैसे भात्र होते हैं?
उत्तर-पर के सम्बन्ध बिना स्वयं जीव द्रव्य में शुद्धाशुद्ध भाव होता है उसी को संयोग सम्बन्ध से रहित भाव अथोत् पारणामिक भाव कहते हैं।
प्रश्न-संयोग सम्बन्ध से रहित मात्र को कौनसा अनुयोग स्वीकार करता है ?
उत्तर-इसे मात्र द्रव्यानुयोग ही स्वीकार करता है। प्रश्न--अनुयोग कितन और कनसे बने हैं ?
उत्तर-अनुयोग तीन हैं जो अनादि अनन्त हैं। (१) करणानुयोग, (२) द्रव्यानुयोग, (३) चरणानुयोग ।
प्रश्न- अनुयोग तीन ही क्यों बनाये दो या चार क्यों नहीं बनाये ?
उत्तर-जीन का जायक खभाव है । वह स्वभाव द्रव्यकर्म. भाषकर्म, नोकर्म से रहित है। द्रव्यकर्म के साथ में जीवद्रव्य का किस प्रकार का सन्बन्ध है उस का ज्ञान कराने के लिये करणानुयोग की रचना हुई; भाव कर्म के साथ में जीव द्रव्य का किस प्रकार का सम्बन्ध है इसका ज्ञान कराने के लिये द्रव्यानुयोग की रचना हुई।
और नोकर्म के साथ में जीवद्रव्य का किस प्रकार का सम्बन्ध है, इसका ज्ञान कराने के लिये चरणानुयोग की
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जिन सिद्धान्त ]
रचना हुई, इसके अलावा लोक में और कोई पदार्थ है नहीं, और यही कारण है कि अनुयोग तीन ही बने । प्रश्न - द्रव्यकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर -- ज्ञानावरणादि ऋष्ट कर्मों का नाम द्रव्यकर्म है । द्रव्यकर्म के साथ में जीवद्रव्य का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है ।
प्रश्न -- भावकर्म किसे कहते हैं ?
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उत्तर --- जीवद्रव्य में मोहादि तथा क्रोधादि जो भाव होता है उसी को भावकर्म कहते हैं । प्रश्न - नोकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - - द्रव्यकर्म तथा भावकर्म को छोड़कर शरीर से लेकर संसार में जितने पदार्थ हैं, जिसमें देव गुरू, शास्त्रादि सभी नोकर्म हैं ।
प्रश्न- तीन अनुयोग के अलावा क्या और कोई अनुयोग हैं ?
उत्तर -- एक औपचारिक अनुयोग है जिसे धर्मकथा अनुयोग कहा जाता है, वह अनादि अनन्त नहीं है । क्योंकि उसमें अनादि की कथा या नहीं सकती, परन्तु परंपरा की अपेक्षा से उसको अनादि कहा जा सकता है। रागादिक भाव
प्रश्न - नोकर्म विना आत्मा क्या
कर सकता है ९
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[जिन सिद्धान्त ____ उत्तर–नोकर्म संसार में न होये और उसका भात्र हो जावे, ऐसा हो नहीं सकता तो भी नोकर्म रागादिक कराता नहीं है परन्तु आत्मा स्वयं रागादिक कर नोकर्म को निमित्त बना लेता है।
प्रश्न--चरणानुयोग आदि के कथन की विधि किस प्रकार है ? ___उत्तर--एक मनुष्य के पेट में दर्द हुआ तब चरणानुयोग कहेगा कि दाल खाने से दर्द हुश्रा; करणानुयोग कहेगा कि दाल दस आदमियों ने खायी, दर्द दसों को क्यों नहीं हुआ, अपितु दाल दर्द का कारण नहीं, बल्कि दर्द का कारण असाता कर्म का उदय है। अब द्रव्यानुयोग कहता है कि असाता कर्म का उदय दर्द का कारण नहीं क्योंकि असाता कर्म का उदय गजकुमार मुनि, सुकौशल मुनि को बहुत था, तो भी उनने केवलज्ञान की प्राप्ति की । इससे सिद्ध होता है कि मात्र दर्द का कारण अपना राग भाव ही है असाता कर्म का उदय भी नहीं । तो भी तीन अनुयोग अपनी अपनी अपेक्षा से सत्य हैं और ऐसा तीनों प्रकार का भाव जीवद्रव्य में होता है । इसमें एक अनुयोग छोड देने से जीव एकान्त मिथ्यादृष्टि कहा जावेगा।
प्रश्न-अनेकान्त किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त]
उत्तर-जो द्रव्य में गुण और पर्याय है वह द्रव्य और गुण पर्याय उस द्रव्य का कहना उसी का नाम अनेकान्त है । जैसे दर्शन ज्ञान चारित्र आत्मा का कहना अनेकान्त है, परन्तु रूप रस गन्ध वर्ण आत्मा का कहना अनेकान्त नहीं है । ज्ञान, ज्ञानगुण का काम करता है वह अनेकान्त है परन्तु ज्ञान, दर्शन-चारित्र का काम करता है यह कहना अनेकान्त नहीं है । क्रोधादिक आत्मा का कहना सो अनेकान्त है, परन्तु क्रोधादिक पुद्गल का कहना सो अनेकान्त नहीं । व्यय पर्याय व्यय का ही कार्य करता है, यह कहना अनेकान्त है, पर व्यय पर्याय उत्पाद का काम करता है यह कहना अनेकान्त नहीं, क्योंकि अनेकान्त एक एक गुण और एक पर्याय को स्वतंत्र स्वीकार करता है।
प्रश्न-स्याद्वाद किसे कहते हैं ?
उत्तर--अपेक्षा से कथन करना उसी को नाम स्याद्वाद है, क्योंकि संसार के हरेक पदार्थ सामान्य विशेष रूप हैं, सामान्य निकालिक है, विशेष समयवर्ती है । स्याद्वाद दो प्रकार का है (१) तादात्म्य सम्बन्ध स्याद्वाद (२) संयोग सम्बन्ध स्याद्वाद । इन दोनों सन्बन्ध को जो स्वीकार न करे वह मिथ्यादृष्टि है।
प्रश्न--तादात्म्य सम्बन्ध स्याद्वाद किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
____ उत्तर--जैसे जीव को कंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित् सत, कथंचित असत, कथंचित् एक कथंचित् अनेक कहना तादात्म्य-सम्बन्धस्याद्वाद है क्योंकि द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य, सत और एक रूप है वह पर्याय दृष्टि से अनित्य, असत और अनेक रूप है। परन्तु जो जोय मात्र नित्य ही, मात्र अनित्य ही, मात्र सत ही, मात्र असत ही, मात्र एक ही, मात्र अनेक हो मानता है वह अज्ञानी है क्योंकि उसने पदार्थ के एक पर्ग को स्वीकार किया, दूसरे धर्म का नाश किया, जत्र कि पदार्थ सामान्य विशेष रूप ही हैं ?
प्रश्न--संयोग-सम्बन्ध-न्यावाद किसे कहते हैं ?
उत्तर---जैसे कथंचिन् यात्मा चेतन प्राण से जीता है, कथंचित् श्रात्मा चार प्राण से जीता है, कचिन्
आत्मा गग का कर्ता है, कथंचित् अान्मा कर्म का का है, कथंचिन् पृटल, कम का करी है, कथंचिन् पुद्गल गग का कनी, गोका नाम योग सम्बन्ध न्यावाद है, परन्तु जो जीव मात्र जीव को चेतन ग्राण से दी जीना मानना . योग मम्मत में जीना नहीं मानना
का मकान मिरगट है, क्योंकि और गम्म को मदन करने । हिमानीला उनी प्रकार का भार
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जिन सिद्धान्त की हिंसा से दुध नहीं होगा वह जीव संधीग सम्बन्ध स्याद्वाद स्वीकार नहीं करता है।
प्रश्न--ौदायिक बार किसे कहते हैं ?
उत्तर-मोहनीय आदि कर्म के उदय में जो जो भाव समय समय में आत्मा में होता है उस भाव का नाम औदयिक भाव है।
प्रश्न--औदयिक भाव कितने प्रकार का है ?
उत्तर--ौदयिक भाव २१ प्रकार का कहा गया है(१) मनुष्यगति के भाव (२) देवगति के भाव (३) तियंचगति के भाव (४) नरकगति के भाव (५) पुरुषवेद के भाव (६) स्त्री 'वेद के भाव (७) नपुसकवेद के भाव (८) क्रोध के भाव (E) मान के भाव (१०) माया के भाव (११) लोभ के (१२) कृष्ण लेश्या रूप प्रवृत्ति (१३) नीललेश्या स्म प्रवृत्ति (१४) कापोत लेश्या रूप प्रवृत्ति (१५) पीत लेश्या रूप प्रवृत्ति (१६) पत्र लेश्या रूप प्रवृत्ति (१७) शुक्न लेश्या रूप प्रवृत्ति (१८) मिथ्यात्व (१६) असंयम (२०) अज्ञान (२१) असिद्धत्व ।
प्रश्न--असंयम भाव किसे कहते हैं।
उत्तर---चारित्रगुण की समय समय की विकारी अवस्था का नाम असंयम भाव है।
प्रश्न-अज्ञान भाव किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर--ज्ञानगुण की हीन अवस्था का नाम अज्ञान भाव है। __प्रश्न-ौदयिक भाव के साथ द्रव्य कर्म का किस प्रकार का सम्बन्ध है ? ___ उत्तर-औदयिक भाव के साथ द्रव्यकर्म का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है क्योंकि द्रव्यकर्म का उदय सो निमित्त है और औदायिक भाव नैमित्तिक पर्याय है। प्रश्न-~निमित्त नैमित्तिक सन्बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर-जनक जन्य भाव का नाम निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है अर्थात् निमित्त जनक है और नैमित्तिक जन्य है। निमित्त के अनुकूल अवस्था धारण करे सो नैमित्तिक है।
प्रश्न-आत्मा तथा द्रव्यकर्म मे निमित्त नैमित्तिक कौन है ? ___ उत्तर-दोनों ही एक समय में निमित्त भी है और नैमित्तिक भी हैं। कर्म का उदय निमित्त है तद्प
आत्मा के भाव का होना नैमित्तिक है, वही आत्मा का भाव निमित्त है और कार्माण वर्गणा का कर्म रूप अवस्था होना नैमित्तिक है। ये दोनों भाव एक समय में ही होता है तो भी धारण कार्य भेद अलग है।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न—निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दृष्टान्त देकर समझाईये ?
उत्तर-निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध में दोनों में ही अर्थात् निमित्त तथा नैमित्तिक में समान अवस्था होती है । (१) जितने अंश में ज्ञानावरण कर्म का आवरण होगा उतने ही अंश में जीव का ज्ञान नियम से ढका हुआ होगा। ज्ञानावरण कर्म का आवरण होना निमित्त है
और उसके अनुकूल ज्ञान का होना नैमित्तिक है । (२) जितने अंश में मोहनीय कर्म का उदय होगा उतने ही अंश में चारित्रगुण नियम से विकारी होगा। मोहनीय कर्म निमित्त है तद्प चारित्रगुण में विकार होना नैमित्तिक है । (३) गनिनामा नाम कर्म का उदय होगा उसके अनुकूल आत्मा को उस गति में जाना ही पड़ेगा; गतिनामा नाम कर्म निमित्त है तद्रूप आत्मा का उस गति में जाना नैमित्तिक है । (४) जितने अंश में आत्मा में रागादिक भाव होगा, उतने ही अंश में कार्माण वर्गणा को कर्म रूप अवस्था धारण करना ही पड़ेगा; आत्मा का रागादिक भाव निमित्त है और कार्माण वर्गणा का कर्म रूप अवस्था होना नैमित्तिक है । (५) जितने अंश में आत्मा का प्रदेश हलन चलन करेगा, उतने ही अंश में शरीर का परमाणु हलन चलन करेगा। आत्मा का प्रदेश का
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हलन चलन निमित्त है और तद्रूप शरीर के परमाणु का हलन चलन होना नैमित्तिक है । (६) जितने श में शरीर के परमाणु लकवाग्रस्त होने के कारण हलन चलन रहित होगा, उतने ही अश में आत्मा का प्रदेश हलन चलन नहीं कर सकता । शरीर के परमाणु निमित्त हैं और आत्मा का प्रदेश नैमित्तिक है ।
प्रश्न - निमित्त के अनुकूल नैमित्तिक की अवस्था होना ही चाहिए, ऐसा कोई श्रागम वाक्य है ? उत्तर --- बहुत है, देखिये समयसार पुन्य पाप अधिकार गाथा नं० १६१-१६२-१६३:सम्मत पडिणिवद्ध मिच्छतं जिरणवरेही परिकहियं । तस्सोदयेय जीवो मिच्छादिडिति णावव्यो || णाणस्य पडिणिवद्ध रणाय जियवरेहि परिकहियं । तस्सोदय जीवो रणायी होदि यायचो ।। चारित पडिणिवद्ध कसायं जिनवरेहि परिकहियं । तरसोदयेण जीवो यवरितो होदि खायत्रो ||
अर्थः सम्यक्त्व का रोकने वाला मिथ्यात्व नामा कर्म है, ऐसा जिनवरदेव ने कहा है । उस मिथ्यात्व नामा कर्म के उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ऐसा जानना चाहिए | श्रात्मा के ज्ञान को रोकनेवाला ज्ञानाबरणीनामा कर्म है ऐसा जिनवर ने कहा है, उस ज्ञानावरण
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जिन सिद्धान्त ] कर्म के उदय से यह जीव अज्ञानी होता है, ऐसा जानना चाहिए । आत्मा के चारित्र का प्रतिबंधक मोहनीय नामा कर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, उस. मोहनीय नामा कर्म के उदय से यह जीव अचारित्री अर्थात् रागी द्वषी हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए । ___ इन तीन गाथाओं में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दिखलाया है। कर्म का उदय निमित्त है और तद्प आत्मा की अवस्था होना नैमित्तिक है । और भी समयसार वध अधिकार गाथा नं० २७८-२७६ देखिये, इस प्रकार है:जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । ____ रंगज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहि दब्वेहि । एव णाणी सुद्धो ण सर्व परिणमइ रायमाईहिं ।
राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।।
अर्थः-जैसे स्फटिकमणि आप स्वच्छ है, वह आप से श्राप ललाई आदि रंग रूप नहीं परिणमती परन्तु वह स्फटिकमणि दूसरे लाल काले आदि द्रव्यों से ललाई आदि रंग स्वरूप परिणमन जाती है, इसी प्रकार आत्मा आप शुद्ध है, वह स्वयं रागादिक भावों से नहीं परिणमनता, परन्तु अन्य मोहादिक कर्म के निमित्त से रागादिक रूप परिणमन जाता है । यह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध
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जिन सिद्धान्त
दिखलाया है | लाल आदि रंग रूप पर वस्तु निमित्त है और तद्रूप स्फटिकमणि की अवस्था होना नैमित्तिक है। इस गाया की टीका में कलशा नं० १७५ में श्राचार्य लिखते हैं:
आत्मा अपने रागादिक के निमित्त भाव को कभी नहीं प्राप्त होता है, उस श्रात्मा में रागादिक होने का निमित्त पर द्रव्य का सम्बन्ध ही है । यहाँ सूर्यकान्त मणि का दृष्टान्त दिया है कि जैसे सूर्यकान्तमणि आप ही तो निरूप नहीं परिणमनती परन्तु उसमें सूर्य का किरण रूप होने में निमित्त है वैसे जानना । यह वस्तु का स्वभाव उदय को प्राप्त है, किसी का किया हुआ नहीं है अर्थात् वस्तु स्वभाव ही ऐसा है ।
इसमें कर्म का उदय निमित्त है और आत्मा में तद्रूप अवस्था होना नैमिचिक है । एवं सूर्य की किरण निमित्त है तद्रूप सूर्यकान्तमणि का होना नैमित्तिक है। समयसार कर्म श्रविकार गाया ८० में लिखा है कि जीवपरिणामहेदु कम्मतं पुग्गला परिणमति ।
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पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेह जीवो वि परिगम ॥ अर्थ:-जीर के परिणाम का निमित्त पाल पहल द्रव्य कर्म रूप या atra करता है तथा कर्म के निमित्त पाकर जीन भी रूप व्यवस्था चाग्म
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जिन सिद्धान्त ] करता है । यह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। एवं समयसार सर्व विशुद्ध अधिकार में गाथा नं० ३१२-३१३ में लिखा है कि:चेया उ पयडीयट्ठ उप्पज्जड़ विणस्सई ।
पयडी वि चेयय उप्पज्जा विणस्सई ।। एवं बंधो उ दुराहपि अएणोएणप्पञ्चया हवे ।
अप्पणो पयडीय ए संसारो तेण जायए ।
अर्थः-ज्ञान स्वरूपी आत्मा ज्ञानवरणादि कर्म की प्रकृतियों के निमित्त से उत्पन्न होता है तथा विनाश भी होता है और कर्म प्रकृति भी आत्मा के भावे का निमित्त पाकर उत्पन्न होती है व विनाश को प्राप्त होती है । इसी प्रकार प्रात्मा तथा प्रकृति का दोनों का परस्पर निमित्त से बंध होता है तथा उस बंध से संसार उत्पन्न होता है। इससे सिद्ध होता है कि कर्म के साथ में आत्मा का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है तथा आत्मा के भाव के साथ में कार्माण वर्गणा का निमित्त नैमित्तिक संवन्ध है।
समयसार गाथा ६८ की टीका में लिखा है कि "कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यत्रपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल एव न तु जीवः ॥"
अर्थः-जैसा कारण होता है उसी के अनुसार कार्य होता है जैसे जौ से जी ही पैदा होता है अन्य नहीं
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[ जिन सिद्धान्त
होता है इत्यादि । समयसार कर्ता
कर्म अधिकार
गाथा १३०- १३१ में लिखा है कि "यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावच्चे सत्यपि कारणानुविधायित्वात्कार्याणां इति" अर्थात् निश्चयकर पुद्गल द्रव्य के स्वयं परिणाम स्वभाव रूप होने पर भी जैसा पुद्गल कारण हो उस स्वरूप कार्य होता है यह प्रसिद्ध है उसी तरह जीव के स्वयं परिणाम भाव रूप होने पर भी जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। इस न्याय से सिद्ध हुआ कि कारण के अनुकूल कार्य होता है । अर्थात् प्रथम निमित तद् पश्चात् नैमित्तिक अवस्था होती है । उसी प्रकार समयसार की गाथा नं० ३२ की टीका गाथा नं० ८६ की टोका आदि अनेक जगहों पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दिखलाया है ।
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प्रश्न- यदि निमित्त के अनुकूल ही आत्मा का भाव हो तो मोक्ष कैसे हो सकता है ?
उत्तर - दयिक भाव के साथ में कर्म का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । दयिक भाव में आत्मा पराधीन ही है परन्तु औदयिक भाव के साथ में आत्मा में एक दूसरा उदीरणा भाव होता है । जिस भाव का बुद्धिपूर्वक क्षयोपशम ज्ञान में ही होता है उस भाव में यात्मा स्वतंत्र है अर्थात् उदीरणा में आत्मा पुरुषार्थ कर सकता है ।
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उदीरणा भाव में पुरुषार्थ करने से जो कर्म सत्ता में पड़ा है उस कर्म में अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण एवं निर्जरा होती है जिस कारण से सत्ता में पड़े हुए कर्म की शक्ति हीन हीन होती जाती है। सत्ता के कर्म की शक्ति हीन होने से उदय भी होन आते हैं और भाव भी हीन होते जाते हैं। उसी प्रकार क्षयोपशम ज्ञानादि द्वारा कर्म की सत्ता इतनी क्षीण हो जाती है जिसके उदय में आत्मा के भाव सूक्ष्म रागादिक रूप रह जाता है। सूक्ष्म कर्म के उदय में रागादिक सूक्ष्म जरूर होता है परन्तु उस रागादिक में मोहनीय कर्म का बंध करने की शक्ति नहीं है परन्तु अन्य कर्म का बंध हो जाता है, जिस कारण से श्रात्मा वीतराग बन जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि
औदयिक भाव में श्रात्मा का पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं है। कर्म का उदय ही आत्मा के पुरुषार्थ को हीनता दिखलाता है।
प्रश्न-- कार्य हुए बाद ही निमित्त कहा जाता है, ऐसे अनेक जीवों की धारणा है वह यथार्थ है या नहीं ?
उत्तर-जिन जीवों की ऐसी धारण है कि कार्य हुए बाद निमित्त कहा जाता है उन जीवों को औदयिक भाव का ज्ञान नहीं है जिस कारण से वह अज्ञानी अप्रतिबुद्ध है । कार्य हुए वाद निमित्त कहा जाता है यह लक्षण
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जिन सिद्धान्त उदीरणा भाव का है। अबुद्धि पूर्वक राग में कर्म का उदय कारण है और तप आत्मा का भाव कार्य है। बुद्धि पूर्वक राग में अर्थात् उदीरणा भाव में आत्मा का भाव कारण है और सत्ता में से कर्म का उदयावली में आना कार्य है, यह दोनों में अन्तर है।
प्रश्न-उदीरणा भाव में कार्य हुए बाद निमित्त कैसे कहा जाता है ? ____ उत्तर-संसार के सभी पदार्थ ज्ञेय रूप हैं । उस ज्ञेय को नोकर्म कहा जाता है, परन्तु आत्मा स्वयं ज्ञेय को ज्ञेय रूप न जानकर उसको अपने रागादिक में निमित्त बना लेता है। इसी कारण रागादिक हुए बाद निमित्त कहा जाता है।
शंका-कैसे निमित्त कहा जाता है, इसे दृष्टान्त देकर समझाईये।
समाधानः-(१) जैसे देन की मूति देखकर आप भक्ति का राग करते हैं परन्तु मूर्ति राग कराती नहीं है, भक्ति किए बाद इस देव की मक्ति करी ऐसा कहा जाता है। जैसा राग भक्ति का आपमें हुआ ऐसा राग मूर्ति में नहीं हुआ है अर्थात् निमित्त में नहीं हुआ। ऐसे भाव का नाम निमित्त उपादान सम्बन्ध है। अर्थात् जिसको
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जिन सिद्धान्त भाव उदीरणा कही जाती है। भाव उदीरणा में भाव प्रधान है निमित्त गौण है।
(२) दो पुरुप बैठे हैं, वहाँ से एक स्त्री सरल भाव से जा रही है । तब एक पुरुष ने उस स्त्री को देखकर विकार उत्पन्न किया । विकार हुए बाद वह पुरुष कहेगा कि इस स्त्री को देखकर मुझमें विकार उत्पन्न हुआ जब कि दूसरा पुरुष कहता है कि स्त्री को मैंने देखा है मगर उसने विकार कराया नहीं। मेरे लिये मात्र हेय है और आपने स्वयं अपराध किया है ऐसा अपराध कर जहाँ जहाँ निमित्त बनाया जाता है ऐसे सम्बन्ध का नाम निमित्त उपादान सम्बन्ध है अर्थात् भाव उदीरणा है । भाव उदीरणा में भाव हुए बाद ही निमित्तका आरोप पाता है । निमित्त उपादान सम्बन्ध में उपादान में जैसी अवस्था होती है ऐसी निमित्त में नहीं होती है । उपादान उपदान ही रहता है और निमित्त निमित्त ही रहता है । परन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध में दोनों में समान अवस्था होती है एवं दोनों एक क्षेत्र में ही रहते हैं। निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध में दोनों निमित्त भी हैं और दोनों नैमित्तिक भी हैं।
प्रश्न-नोकर्म राग कराता नहीं है परन्तु आत्मा स्वयं अपराध करता है, ऐसा कोई आगम का वाक्य है ?
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११२ । [जिन सिद्धान्त
उत्तर-आगम का वाक्य है । वह समयसार बंध अधिकार गाथा २६५ में इस प्रकार है:वत्यु पड्डुच्च जं पुण अच्छवसाणं तु होइ जीवाणं ।
ण य बत्युयो दु बंधो अच्छवसाणेण बंधोत्थि ॥
अर्थः-जीवों के जो भाव हैं वे वस्तु को अवलम्बन करके होते हैं तथा वस्तु से बन्ध नहीं है भाव कर ही बंध होता है । यह गाथा भाव उदीरण की दिखलाई है एवं कलशा नं० १५१ में भी भाव उदीरणा का कयन किया है जैसे "हे जानी ! तुझको कुछ भी कर्म कभी नहीं करना योग्य है तो भी तू कहता है कि पर द्रव्य मेरा तो कदाचित् भी नहीं है, और मैं भोगता हूँ। तब प्राचार्य कहते हैं कि बड़ा खेद है कि जो तेरा नहीं उसे तू भोगता है। इस तरह से तो तू खोटा खाने वाला है । हे भाई! जो तू कहें कि परद्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता ऐसा मिटान्त में कहा है इमलिये भोगता हूँ, उम जगह नेरे क्या भोगने की इच्छा है ? तू नान रूप हुश्रा अपने खम्प में निवास करे तो बंध नहीं है और जो भोगने की हुन्छा कग्गा नो तू पाए अपगी हुआ, तर अपने यपगध से निपम में बंध को प्राप्त होगा" यह कथन भारउदीमा पाई।
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प्रश्न--ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध में और निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध में क्या अन्तर है ?
उत्तर-ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध में ज्ञेय तथा ज्ञायक अलग अलग क्षेत्र में रहते हैं। ज्ञेय में जनाने की शक्ति है और ज्ञायक में जानने की। ज्ञेय कारण है तद्रूप ज्ञान की पर्याय होना कार्य है तो भी दोनों में बंध-बंधक सम्बन्ध नहीं है, जब निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध में दोनों एक क्षेत्र में रहते हैं, दोनों की विकारी अवस्था है एवं दोनों में परस्पर बंध-बंधक सम्बन्ध है । यह दोनों में अन्तर है।
प्रश्न-उपादान की तैयारी होने से निमिच हाजिर होता है यह कहना सम्यक्ज्ञान है ?
उत्तर-नहीं, यह मिथ्याज्ञान है, अज्ञानभाव है। निमित्त भी लोक का एक स्वतंत्र द्रव्य है, वह हाजिर क्यों होवे । जैसे (१) प्यास लगने से कुा हाजिर नहीं होता परन्तु कुंआ रूप निमित्त के पास स्वयं जाना पडता है।
(२) कानजी स्वामी का प्रवचन सुनने के लिये हमारा उपादान, स्वाध्याय मंदिर में गया तो भी कानजी स्वामी प्रवचन सुनाने के लिये हाजिर क्यों नहीं होते।
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[जिन सिद्धान्त 1 ; (३) कुदकुंद स्वामी का उपादान श्री सीमंधर स्वामी का दर्शन करने के लिये तैयार हुआ है तो भी सीमंधर स्वामी भरतक्षेत्र में हाजिर क्यों नहीं हुए । बल्कि कुदकुद स्वामी को विदेह क्षेत्र में जाना पड़ा। इससे सिद्ध होता हैं कि निमित्त हाजिर नहीं होता।
प्रश्न--निमित्त दूर - रहता है या एक क्षेत्र में रहता है ?
उत्तर-निमित्त दूर नहीं रहता, एक क्षेत्र ही में रहता है जैसेः-एक पिण्ड हल्दी का है उसकी, वर्तमान पर्याय पीली है दूसरे जगह पर एक पिण्ड चूने का है। जिसकी वर्तमान पर्याय सफेद है। हल्दी तथा चूने में लाल होने की शक्ति है । अब कहों, निमित्त कितनी दूर रहे तो दोनों में लाल शक्ति प्रगट होने ? तब आपको कहना पड़ेगा कि दोनों की एक्रमक अवस्था हो जाने से लाल पर्याय प्रगट होगी । (२) एक वाटी में जल है इसकी वर्तमान अवस्था शीतल है, दूसरी एक बाल्टी में' चूना हैं जिसकी वर्तमान अवस्था शीतल है, दोनों में उष्ण होने की शक्ति है । निमित्त कितनी दूर रहे तो उष्ण हो जाये तमें कहनासडेगा कि चुना को जल में डाल दो या जल को चना में डाल दो दोनों की उम्ण अवस्था हो जावेगी। इससे सिद्ध हुआ कि निमित्त एक क्षेत्र में ही है रहता
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और दोनों परस्पर में निर्मित भी है और नैमित्तिक
भी है।
प्रश्न- आत्मा के लिये एक क्षेत्र में कौनसा
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निमित्त है ?
उत्तर - ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों का मक समय का उदय श्रात्मा के विकार के लिये निमित्त है और निमित्त जब तक रहेगा तब तक मोक्ष नहीं हो सकता है। सत्ता में जो कर्म है वह यथार्थ में निमित्त नहीं है परन्तु एक समय का उदय मात्र निमित्त है । इस कर्म के साथ आत्मा एक क्षेत्र में रहते हुए भी बंध वंचक सम्बन्ध है परन्तु श्राकाशादि द्रव्य को एक क्षेत्र में रहते हुए भी उसके साथ में बंध-बंधक सम्बन्ध नहीं है जिस कारण वह निमित्त नहीं ।
प्रश्न -- उदीरणा भाव से अर्थात बुद्धि पूर्वक राग से समय समय में बंध पड़ता है या नही ?
उत्तर - उदीरणा भाव से समय समय बंध पड़ता नहीं है परन्तु यदयिक भाव से जो समय समय में बंध पड़ता है उस पड़े हुए बंध की सत्ता में उदीरण रूप भाव द्वारा अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण तथा द्रव्य निर्जरा होती रहती है परन्तु उदीरणा भाव से नवीन बंध नहीं पता है क्योंकि एक समय में एक ही बंध पड़ेगा।
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[जिन सिद्धान्त प्रश्न-वार्त-रौद्र-ध्यान कौन से भाव में होता है ? - उत्तरआत्त-रौद्र-ध्यान क्षयोपशमभाव में होता है अर्थात् मिश्र भाव में होता है। आत मौद्र-ध्यान क्षयोपशमभाव की अशुद्ध अवस्था का नाम है । आतरौद्र-ध्यान उदोरणाभाव में अर्थात् बुद्धिपूर्वक राग में ही होता है इसमें प्रधान कारण क्षयोपशम ज्ञान की उपयोग रूप अवस्था है। यदि क्षयोपशम ज्ञान लब्धि रूप रहे तो प्रागौद्र ध्यान रूप मात्र हो ही नहीं सकता है।
प्रश्न--क्षयोपशमभाव किसे कहते हैं ?
उत्तर- क्षयोपशम भाव कर्म के उदय अनुदय में होता है । जिस भाव को मिश्र भाव भी कहा जाता है। जितने अंश में कर्म का उदय है उतने अंश में बंध पड़ता है और जितने अंश में कर्म का अनुदय है उतने अंश में स्वभाव मात्र है।
प्रश्न-क्षयोपशम मात्र कितने प्रकार का है ?
उत्तर-क्षयोपशम भाव १८ प्रकार का कहा गया है (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्ययज्ञान, (५) कुमतिज्ञान (६) कुश्रु तज्ञान (७) कुअवधिज्ञान (८) अचनुदर्शन () चक्षुदर्शन
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(१०) अवधिदर्शन (११) लाभान्तराय ( १२ ) भोगअन्तराय (१३) उपभोगन्तराय (१४) दानान्तराय (१५) वीर्यान्तराय (१६) सम्यक्त्व (१७) संयमासंयम (१८) असंयम |
प्रश्न - - तयोपशम भाव में एक ही साथ में शुद्ध तथा अशुद्ध पारणाम कैसे रहते होंगे १ कोई श्रागम वाक्य है ?
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उत्तर -- समयसार ग्रंथ के पुण्यपाप अधिकार में कलश ११० में लिखा है कियावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ न सा कमज्ञानसमुच्चयोपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः ।
किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तत्
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त ं स्वतः । अर्थ -- जब तक कर्म का उदय है और ज्ञान की सम्यक् कर्मविरति नहीं है तबतक कर्म और ज्ञान दोनों का इकट्ठापन भी कहा गया है, तब तक इसमें कुछ हानि भी नहीं है । यहाँ पर यह विशेषता है कि इस आत्मा में कर्म के उदय की जर्बदस्ती से श्रात्मा के वंश के बिना कर्म उदय होता है वह तो बंध के ही लिये है और मोक्ष के लिये तो एक परम ज्ञान ही है । वह ज्ञान कर्म से आप ही रहित है, कर्म के करने में अपने स्वामीपने रूप
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[जिन सिद्धान्त
कत्तोपने का मात्र नहीं है, इससे भी सिद्ध होता है कि चयोपशम भाव मिश्र रूप ही है।
परन-उपशम भाव किसे कहते हैं ?
उत्तर-द्रव्य कर्म का उपशम होने से जो भाव होता है उस भाव का नाम उपशम भाव है। कर्म की अपेक्षा से उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण. पर प्रकृति मंक्रमण, स्थितिकाण्डक घात, अनुभाग काण्डक घात के बिना ही कर्मों की सत्ता में रहने से जो भाव होता है उस भाव को उपशम मात्र कहा जाता है।।
प्रश्न-उपशम भाव कितने प्रकार का है ?
उत्तर-उपशम भाव स्थान की अपेक्षा से दो प्रकार का है और विकल्प की अपेक्षा से आठ प्रकार का है।
प्रश्न-स्थान की अपेक्षा से दो प्रकार का कैसे है ?
उत्तर-एक सम्यश्चरण चारित्र और दूसरा संयम चरण चारित्र ।
प्रश्न-उपशम भाव विकल्प की अपेक्षा से प्राट प्रकार का कैसे है ?
उत्तर--सम्यन्दर्शन की अपेचा से एक प्रकार, और संयम चरण चारित्र की अपेक्षा से सात प्रभार का कहा जाता है (१) मधु मकवेट उपशम (२) श्रीवेट उपशम (३) पुरूप नया नो-पाय उपशम (४), क्रोध उपशाम
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(५) मान उपशम (६) माया उपशम (७) लोभ उपशम | इस भाव का नाम धर्म भाव है ।
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प्रश्न --- धर्मध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर -- धर्म ध्यान दो प्रकार का कहा गया है। (१) निश्चय धर्म ध्यान (२) व्यवहार धर्म ध्यान ।
प्रश्न- निश्चय धर्मध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर -- धर्मध्यान का चार पाया माना गया है। (१) मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी का अभाव सो प्रथम प या अप्रत्याख्यान कषाय का अभाव सो दूसरा पाया प्रत्याख्यान कपाय का अभाव सो तीसरा पाया और (४) प्रमाद का अभाव सो चौथा पाया ।
प्रश्न- व्यवहार धर्म ध्यान किसे कहते हैं ?
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13. उत्तर -- निश्चय धर्मध्यान के साथ जो पुण्य भाव
है, उसे व्यवहार धर्मध्यान कहा जाता है । आज्ञा विचय,
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यः विचय, विपाक निचय और संस्थान विचय को शास्त्र में धर्म ध्यान कहा है, वह उपचार से कहा है अर्थात् वह व्यवहार धर्मध्यान है । व्यवहार धर्मध्यान मिथ्या दृष्टि को भी होता है और निश्चय धर्मध्यान सम्यक् दृष्टि को ही होता है ।
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प्रश्न -- धर्मध्यान कौन से भाव में होता है !
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[ जिन सिद्धान्त
उत्तर
-- क्षयोपशम भाव में होता है । जितने अंश में शुद्धता है उतने अंश में निश्चय धर्मध्यान है और जितने अंश में क्षयोपशम भाव में अशुद्धता है उतने अंश में व्यवहार धर्मध्यान कहा जाता है ।
प्रश्न -- क्षायिक भाव किसे कहते हैं ? उत्तर-उस भाव का नाम क्षायिक भाव है।
प्रश्न -- क्षय किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जिनके मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के मेद से प्रदेश बंध, प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध का क्षय हो जाना, उसे क्षय कहते हैं ।
प्रश्न ---- क्षायिक भाव कितने प्रकार का है ?
--कर्म के क्षय से आत्मा में जो भाव होता है।
उत्तर -- क्षायिक भाव स्थान की अपेक्षा पांच प्रकार का और विकल्प की अपेक्षा से नौ प्रकार का कहा गया है ।
प्रश्न -- क्षायिक भाव नौ प्रकार का उपचार से कौन सा है ?
उत्तर --- (१) क्षायिक सम्यक्त्व (२) क्षायिक चारित्र (३) नायिक केवलज्ञान (४) नायिक क्षायिक लाभ (६) क्षायिक दान (७) क्षायिक उपभोग (8) क्षायिक कार्य ।
केवलदर्शन (५) क्षायिक भोग (८)
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जिन सिद्धान्त
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प्रश्न-क्षायिक भाव उपचार से नौ प्रकार का क्यों कहा, यथार्थ में कितना है ? ___ उत्तर-वीर्यगुण की शुद्ध अवस्था में पांच भाव मानना यह उपचार है । यथार्थ में वीर्यगुण की एक ही अवस्था होती है। क्षायिक भाव निम्न प्रकार है:--
(१) क्षायिक सम्यक्त्व (२) क्षायिक चारित्र (३) क्षायिक ज्ञान (४) क्षायिक दर्शन (५) क्षायिक वीर्य (६) क्षायिक सुख (७) क्षायिक क्रिया (८) क्षायिक योग (६) क्षायिक अवगाहना (१०) क्षायिक अन्यायाध (११) क्षायिक अगुरुलधुत्व (१२) क्षायिक सूक्ष्मत्न आदि ।
प्रश्न-शुक्ल ध्यान कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर--शुक्ल ध्यान चार प्रकार का उपचार से कहा गया है (१) पृथक्त्ववित्तविचार (२) एकत्वविर्तक विचार (३) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति (४) व्युपरत क्रिया निवृत्ति, ये चार भेद हैं । यथार्थ में शुक्ल ध्यान एक प्रकार का ही होना चाहिए क्योंकि चारित्र गुण की शुद्ध अवस्था का नाम शुक्ल ध्यान है । वह अवस्था ग्यारहवें, बारहवें गुण स्थान के पहले समय में हो जाती है।
प्रश्न--शुक्लध्यान और किस अपेक्षा से कहा है ?
उत्तर--एकत्व वितक विचार नाम का शुक्ल ध्यान ज्ञान, दर्शन तथा वीर्यगुण की शुद्धता की अपेक्षा से कहा
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ध्यान योग तथा
गया है । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिशुक्ल क्रिया गुण की शुद्धता की अपेक्षा से कहा गया है और व्युपरत क्रियानिवृत्ति शक्ल ध्यान अव्यावाध आदि गुणों की शुद्धता की अपेक्षा से कहा गया है । यथार्थ में परगुण की शुद्धता का मात्र आरोप शुक्लध्यान में कहा गया है ।
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प्रश्न --- पृथक्त्ववितर्कविचार क्या शुक्ल ध्यान है ? उत्तर -- विचार करना, वह शुक्लध्यान नहीं परन्तु वह शुक्लध्यान का मल है अर्थात् पुण्य भाव है । जितने अंश मैं वीतराग भाव की प्राप्ति हुई वही शुक्ल ध्यान है और उसके साथ में जो द्रव्य गुण पर्याय का विचार रूप विकल्प है वह शुक्लध्यान नहीं है, पुण्य भाव है। शुक्लध्यान चारित्र गुण की शुद्ध । अवस्था का नाम है।
प्रश्न – शुक्लध्यान पांच भावों में से कौनसा भाव है ?
उत्तर -- शुक्लध्यान प्रधानपने क्षायिक भाव में ही होता है, परन्तु उपशम श्रेणी चढने वाले जीव को प्रथम शुक्ल ध्यान उपशम भाव में भी होता है।
प्रश्न --- पारणामिक भाव किसे कहते हैं ?
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उत्तर--जिस भाव में कर्म का सद्भाव तथा प्रभाव कारण न पडे परन्तु स्वतंत्र श्रात्मा भाव करे उस भाव का नाम पारणामिक भाव है।
प्रश्न-पारणामिक भाव कितने प्रकार का है ?
उत्तर-पारणामिक भाव उपचार से तीन प्रकार का माना गया है (१) चैतन्यत्व (२) भव्यत्व (३) अभव्यत्व ।
प्रश्न- भन्मस्व और अभव्यत्व गुण है या पर्याय है ?
उत्तर--भव्यत्व अभव्यत्व भाव श्रद्धागुण की सहज पर्याय है। जिस पर्याय में कर्म का सद्भाव अभाव कारण नहीं पड़ता है जिस कारण उस भाव को पारणामिक भाव कहा है।
प्रश्न- भव्यत्त्व अभव्यत्व किसे कहते हैं ?
उत्तर---जिस जीव में सम्यक्दर्शन प्राप्त करने की शक्ति है उस जीव को भव्य जीव कहा जाता है । जिस जीव में सम्यक्दर्शन प्राप्त करने की शक्ति नहीं है उसे अभव्य जीव कहा जाता है।
प्रश्न--पारणामिक भाव तीन ही प्रकार के हैं या विशेष हैं ? ___ उत्तर---पारणामिक भाव तीन ही नहीं हैं बल्कि अनेक प्रकार के होते हैं जैसे सासादन - गुण स्थान में पारणामिक माय माना है वहॉ मिथ्यात्व कर्म का उदय
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नहीं है। तब क्या श्रद्धानाम का में कूटस्थ रहेगा ? कभी नहीं, कर्म के उदय विना स्वयं पारणामिक मात्र से मिथ्यात्
गुण उस गुण-स्थान श्रद्धानाम के गुण में
रूप परिणमन किया है ।
[ जिन सिद्धान्त
मात्र से परिणमन किया है ?
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प्रश्न -- और कोई गुणस्थान में जीव ने पारणामिक
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उत्तर - किया है, जैसे क्षयोपशम सम्पकदृष्टि श्रनन्तानुबंधी कर्मप्रकृति का विसंयोजन कर उसी परमाणु को श्रप्रत्याख्यान रूप बना देता है बाद में जब वही जीव गिरकर मित्यात्व गुणस्थान में जाता है तब वहाँ अनन्तानुबंधी प्रकृति का उदय नहीं होता है । त ऐसी व्यवस्था में चारित्र नाम का गुण पारणामिक मात्र से अनन्तानुबंधी रूप परिणमन करता है । उसी प्रकार ग्यारहवें गुणस्थान में भी जीव पारणामिक भाव से ही गिरता है ।
प्रश्न- दस प्राण को शुद्ध पारणामिक मान माना हैं, टीक हैं ?
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उत्तर - अरेरे! ये तो महान गलती है, क्योंकि वह पहल की रचना है उसका परिणमन पारगामिक भाव से कैसे हो सकता है ? यह तो श्रमिक भार है । कर्म के उदय के नुन जीरों को नार छः आदि
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१२५ प्राण होता है । पारणामिक भाव उसी का नाम है जिस में कर्म का सद्भाव अभाव कारण न पड़े और आत्मा के गुण की शुद्ध अशुद्ध अवस्था हो, उसी का नाम पारणामिक भाव है। __ प्रश्न-प्राण कितने प्रकार के होते हैं ? ___ उत्तर--प्राण उपचार से चार प्रकार का कहा जाता है, (१) इन्द्रियप्राण (२) बलप्राण (३) आयुषाण (४) स्वासोच्छवास प्राण।
प्रश्न--प्राण के विशेष भेद कितने है ?
उत्तर-दस भेद हैं (१) स्पर्शन इन्द्रिय प्राण (२) 'सना प्राण (३)घाणप्राण (४) चक्षुप्राण (५) श्रोत्रप्राण (६) कायप्राण (७) वचनप्राण (E) मनप्राण (ह) स्वासो
च्छवास (१०) श्रायुप्राण । । प्रश्न--किस जीव के कितने कितने प्राण होते हैं ? ___ उत्तर--एकेन्द्रिय जोब के चार प्राण होते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायपल, स्वासोच्छवास, आयु । दो इन्द्रिय जीव के छः प्राण-स्पर्शन इन्द्रिय, रसनाइन्द्रिय, कायरल, वचनवल, स्वासोच्छ्वास और आयु । ते इन्द्रियजीव के सात प्राण-पूर्वोक्त छ: और घाणइन्द्रिय एक विशेष । चतुरिन्द्रिय के आठ प्राण-पूर्वोक्त सात और एक चक्षुइन्द्रिय विशेष । असैनी पंचेन्द्रिय के नौ प्राणः-पूर्वोक्त
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[जिन सिद्धान्त
आठ और एक श्रोत्र इन्द्रिय विशेष । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राणः-पूर्वोक्त नौ और एक मन प्राण विशेष ।
प्रश्न-केवली भगवान के कितने प्राण हैं !
उत्तर-केवली भगवान के तेरहवै गुणस्थान में चार प्राण हैं-(१) कायप्राण, (२) वचन प्राण, (३) स्वासोच्छ्वास (४) आयु । केवली के इन्द्रिय तथा मन प्राण नहीं है क्योंकि यह प्राण न्योपशम ज्ञान में ही होता है, परन्तु क्षायिक ज्ञान में यह प्राण अकार्यकारी है तथापि शरीर में इन्द्रियाँ आदि की रचना जरूर है।
प्रश्न-चौदहवें गुणम्थान में केवली की कितने प्राण हैं ? - उत्तर-चौदहवें गुणस्थान के पहले समय में
केवली के मात्र आयु प्राण है। चौदहवें गुणस्थान के पहले समय में केवली के शरीर का विलय हो जाता है जिम कारण वहॉ काय, वचन तथा म्यामोच्छवास प्राण नहीं है।
प्रश्न- क्रमबद्ध पर्याय किसे कहते हैं ?
उतर-जिम काल में जमी अत्रम्या होने वाली है, मी अवस्था होना उसे क्रमबद्ध पर्याय कहते हैं ?
प्रश्न--क्या मभी जीमों को क्रमबद्ध ही पर्याय होनी है?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर-सभी संसारी जीवों की क्रमबद्ध तथा अक्रम पर्याय होती है।
प्रश्न-आत्मा में एक ही साथ में दो अवस्था कैसी होती होगी? ____ उत्तर-आत्मा में विकारी अवस्था दो प्रकार की होती है (१) अबुद्धिपूर्वक (२) बुद्धिपूर्वक जिसको शास्त्रीय भाषा में औदयिक भाव तथा उदीरणाभाव कहा जाता है । औदयिकमात्र कर्म के उदय के अनुकूल ही होते हैं और कर्म का उदय होना काल द्रव्य के
आधीन है जिस कारण औदयिकभाव क्रमबद्ध ही होता है । परन्तु उदीरणाभाव काल के आधीन नहीं है परन्तु आत्मा के पुरुषार्थ के आधीन है जिस कारण आत्मा जो मात्र करे सो कर सकता है इस कारण उदीरणा भाव अक्रम है।
प्रश्न-"क्रमबद्ध ही पर्याय होती है। ऐसा सोनगढ़ से प्रतिपादन रूप शास्त्र निकाला है, क्या यह सत्य है ?
उत्तर-यह शास्त्र सोनगढ़ ने किस अभिप्राय से निकाला है। शास्त्र प्रकाशित कराने में तीन अभिप्राय होते हैं (१) इस शास्त्र से अनेक जीवों को लाभ हो' (२) इस शास्त्र से किसी जीव को लाभ न हो (३) इस शास्त्र से लाभ-अलाभ कुछ न हो । अब यह सोचिए
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[जिन सिद्धान्त
कि इस शास्त्र को किस अभिप्राय से प्रकाशित कराया गया । तब कहना होगा कि बहुत जीवों को लाभ हो सकता है । इससे स्वयं सिद्ध हुआ कि इस शास्त्र के पढ़ने से बहुत जीवों की पर्याय सुधर सकती है और न पढ़ने से सुधर नहीं सकती है । तब पर्याय क्रमबद्ध कहाँ रही ?
प्रश्न-एक साथ जीव में एक भाव होगा या विशेष।
उत्तर-एक जीव में एक साथ पांच भाव हो सकते हैं (१) प्रौदयिक भाव (२) क्षयोपशम भाव (३) उपशम भाव (४) नायिक भाव (५) पारणामिक भाव । एक भाव में दूसरे भाव का अन्योन्य-अभाव है, तब कौन से भाव की अवस्था को क्रमबद्ध पर्याय कहेंगे यह शान्ति से विचारना चाहिए । जो महाशय क्रमबद्ध ही पर्याय कहते हैं उनको शान्ति से पूछिये कि आप में पांच भाव कैसे होते हैं, फिर उन्हीं से पूछिये कि पांच भाव में कौन सा क्रमबद्ध भाव है । जिस जीव को भार का ज्ञान नहीं है वह तो स्वयं अप्रतिबद्ध है ही और दूसरे जीव को भी अप्रतिबुद्ध होने में कारण पड़ता है उस जीव की कौन सी गति होगी? यह तो सांपछुछुन्दर की सी गति हो रही है। यदि क्रमबद्ध ही पर्याय होती है तो पुरुषार्थ करने का उपदेश क्यों दिया जाता है एवं सत्-समानम करो,
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जिन सिद्धान्त ]
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'कुसंगति छोड़ो यह वाक्य वाचक भाव होने का क्या कारण है १ यदी क्रमबद्ध ही पर्याय होती है तो प्रवचन का रिकार्ड क्या सोचकर किया जाता है । यदि रिकार्ड 'से जीवों को लाभ होता ही नहीं है तो व्यर्थ के संकटों में ज्ञानी पुरुष क्यों पडते हैं ? यद्यपि रिकार्ड लाभ करती नहीं है परन्तु रिकार्ड द्वारा अनेक जीव लाभ उठाकर अपनी क्रमबद्ध पर्याय का संक्रमण आदि कर लेते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा में क्रमबद्ध तथा अक्रम पर्याय होती हैं।
शंका: -- यदि अक्रम पर्याय होती है तो सर्वज्ञ का ज्ञान मिथ्या हो जाता है ।
t
समाधान:- सर्वेझ का स्वरूप का ज्ञान नहीं है इस कारण आपको शंका होती है । सर्वज्ञ के ज्ञान में पदार्थ झलकते हैं परन्तु भूतकाल तथा भविष्यकाल की पर्याय प्रकट रूप झलकती नहीं वल्कि शक्ति रूप झलकती है, जिससे वर्त्तमान पर्याय प्रकट संहित पदार्थ भूत भविष्य की पर्याय की शक्ति सहित झलकता है। इस कारण से सर्वज्ञ के ज्ञान में बाधा नहीं श्राती है । सर्वज्ञ के ज्ञान में भूत भविष्य का भेद नहीं है । सर्वज्ञ लोकालोक को
१
•
व्यवहार का
जानता है यह कहना असद्भूत उपचरित कथन है, परन्तु निश्चय नय से सर्वज्ञ अपने स्वरूप का
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१३०
[ जिन सिद्धान्त
ही ज्ञाता दृष्टा है । यदि सर्वज्ञ भ्रत और भविष्य की व्यक्त रूप पर्याय जानता है तो हमारी प्रथम की तथा शेष की पर्याय भी जानना चाहिए। वह प्रथम पर्याय जाने तब उसके पहले हम क्या थे और शेष की पर्याय जाने तत्र क्या द्रव्य का नाश हो गया ? परन्तु ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं है । इसलिये सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ के ज्ञान मैं भूत भविष्य का भेद नहीं है।
इति 'जिन सिद्धान्त" शास्त्र विषै जीव भाव, तथा निमित्त अधिकार * समाप्त
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प्रमाण नय निक्षेप अधिकार प्रश्न-पदार्थ को जानने के कितने उपाय हैं ?
उचर-चार उपाय हैं-(१) लक्षण (२) प्रमाण (३) नय (8) निक्षेप।
प्रश्न- लक्षण किसे कहते हैं ?
उत्तर-पदार्थ को जानने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं जैसे जीव का लक्षण चेतना।
प्रश्न-लक्षण के कितने भेद हैं ? । उत्तर-लक्षण के दो मेद हैं (१) तादात्म्य लक्षण (२) संयोग लक्षण।
प्रश्न-तादात्म्य लक्षण किसे कहते हैं ? । उत्तर-पदार्थ से लक्षण अलग न हो उसे तादात्म्य लक्षण कहते हैं जैसे जीव का लक्षण चेतना, पुद्गल का लक्षण रूप, रस, गंध स्पर्श।
प्रश्न-संयोग लक्षण किसे कहते हैं ?
उत्तर-वस्तु के स्वरूप में मिले न हो परन्तु मात्र संयोग रूप हो उसे संयोग लक्षण कहते हैं, जैसे जीव का लक्षण मनुष्य देव आदि।
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इजिन सिद्धान्त
प्रश्न- लक्षणा भास किसे कहते हैं ? उत्तर- लक्षण सदोप हो उसे लक्षणामास कहते हैं। प्रश्न-लक्षण के दोष कितने हैं ?
उत्तर-लक्षण के तीन दोप हैं, (१) अव्याप्ति (२) अतिव्याप्ति (३) असंभव ।
प्रश्न-लन्य किसे कहते हैं ?
उत्तर- जिसका लक्षण किया जाय उसे लन्य रहते हैं।
प्रश्न--अव्याप्ति दोष किसे कहते हैं ?
उत्तर-लन्य के एक देश में रहने को अव्यानि दोष कहते हैं जैसे जीव का लक्षण केलबान । इस लवण से सब जीवों में केवलनान पाया नहीं जाता है, यह टोप थाता है।
प्रश्न- अनित्यानि दोष किसे कहते है ?
उनर--नन्य तथा अलक्ष्य में लचग के गहने को লিমাৰি কৰ ব্ৰাৰ বা লম্বা নুন ।। नया में घम, अधर्म, भामा, कान द्रव्य, जीरो आरंगा यादी माता है। प्र-प्रसार नि ? मा-साय के मिग दुसरे उनको धन्य
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१३३
जिन सिद्धान्त]
प्रश्न-असंभव दोष किसे कहते हैं ?
उत्तर-लक्ष्य में लक्षण की असंभवता को असंभव दोप कहते हैं, जैसे जीव का लक्षण वर्णादिक ।
प्रश्न-प्रमाण किसे कहते हैं ?
उत्तर--सम्यग्ज्ञान को प्रमाणज्ञान कहते हैं, अर्थात् सामान्य तथा विशेष के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण ज्ञान
प्रश्न-प्रमाण के कितने भेद हैं ? उचर-अनेक भेद हैं-प्रत्यक्ष, परोक्ष, तर्क, अनुमान, आगम आदि।
प्रश्न--प्रत्यक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो पदार्थ को स्पष्ट जाने उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।
प्रश्न-परोक्ष प्रमाण किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो दूसरे की सहायता से पदार्थ को स्पष्ट जाने.उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं।
प्रश्न-तर्क किसे कहते हैं ? उत्तर-व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं।' प्रश्न-व्याप्ति किसे कहते हैं ? उत्तर-अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं । प्रश्न-अविनाभाव सम्बन्ध किसे कहते हैं ? ..
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[जिन सिद्धान्त
AN
उत्तर-जहां जहां साधन हो वहां वहां साध्य के होने और जहां जहां साध्य नहीं हो वहां वहां साधन के भी न होने को अविनामात्र सम्बन्ध कहते हैं। जैसे जहार धूम है वहां वहां अग्नि है और जहां २ अग्नि नहीं है वहां धुआं भी नहीं है।
, प्रश्न–अनुमान किसे कहते हैं ? ___उत्तर-साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान
प्रश्न-श्रागम प्रमाण किसे कहते हैं ?
उत्तर--प्राप्त के वचन आदि से उत्पन्न हुए पदार्थ के ज्ञान को आगमप्रमाण कहते हैं ।
प्रश्न-प्राप्त किसे कहते हैं ?
उत्तर-परम हितोपदेशक वीतराग सर्वज्ञ देव को प्राप्त कहते हैं।
प्रश्न-प्रमाण का विषय क्या है ? '
उत्तर---सामान्य अथवा धर्मी तथा विशेष अथवा धर्म दोनों अंशों का समूह रूप वस्तु प्रमाणका विषय है।
प्रश्न--विशेष किसे कहते हैं ?
उत्तर-वस्तु के किसी खाश अंश अथवा हिस्से को विशेष कहते हैं।
प्रश्न-विशेष के कितने भेद हैं!
है
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जिन सिद्धान्त ]
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ww
उत्तर - दो भेद हैं । ( १ ) सहभावी विशेष,
(२) क्रमभावी विशेष |
प्रश्न - सहभावी विशेष किसे कहते हैं ? उत्तर -- गुण को सहभावी विशेष कहते हैं । प्रश्न - क्रमभावी विशेष किसे कहते हैं ? उत्तर -- पर्याय को क्रमभावी विशेष कहते हैं । प्रश्न -- प्रमाणाभास किसे कहते हैं ? उत्तर - मिथ्याज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं ।
प्रश्न - - प्रमाणभास के कितने मेद हैं ?
उत्तर --- तीन भेद हैं (१) संशय (२) विपर्यय ( ३ )
अनध्यवसाय |
प्रश्न - संशय किसे कहते हैं ?
·
उत्तर -- विरुद्ध अनेक कोटि स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं, जैसे यह सीप है या चॉदी ? यह पुण्य है या धर्म है ?
प्रश्न --- विपर्यय किसे कहते हैं ?
उत्तर -- विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं, जैसे पुण्य भाव में धर्मभाव मानना, औदायिक भाव को क्षयोपशम भाव मानना । प्रश्न -- अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?
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[ जिन सिद्धान्त
उत्तर- "यह क्या है" ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं ! जैसे "क्या यह श्रात्मा है ?" प्रश्न-नय किसे कहते हैं !
उत्तर ---वस्तु के एक देश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं ।
प्रश्न-नय के कितने मेद हैं ?
उत्तर -- दो भेद हैं (१) निश्चयनय (२) व्यवहारनय प्रश्न -- निश्चयनय के कितने भेद हैं ? उत्तर -- निश्चयनय के दो भेद हैं (१) तादात्म्य संबंध निश्चयनय (२) संयोग सम्बन्ध निश्चयनय |
प्ररम - तादात्म्य संबंध निश्चयनय किसे कहते हैं ? उत्तर -- पदार्थ में गुणगुणी का एवं गुण पर्याय का भेद किए रिना अखण्ड रूप देखना उसी का नाम तादात्म्य संबंध निश्चयनय है, जैसे श्रात्मा को ज्ञायक स्वभावी कहना, पुल को जड़ स्वभावी कहना ।
प्रश्न -- संयोग सम्बन्ध निश्चयनय किसे कहते हैं ? उत्तर--मिले हुए दो पदार्थ में से अलग थलग mera staff of रूप कहना सो गंयोग संबंध निश्चय है जैसे व्यान्मा को दर्शन यान चारित्र बाला कहना, सुन को रूप स व वर्ग वाला कहना ! प्रश्न-व्यवहार के सिनेमे हैं ?
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जिन सिद्धान्त
उत्तर-व्यवहारनय के अनेक भेद हैं तो भी चार भेद में गर्मित है--(१) सद्भूत-व्यवहार (२) असद्भूतव्यवहार (३) असद्भुत-अनउपचरित-व्यवहार (४) असद्भूत-उपचरित-व्यवहार । प्रश्न-सद्भूत-व्यवहार नय किसे कहते हैं ?
उत्तर--पदार्थ में जो गुण तथा पर्याय नित्य रहने वाला है वह उस पदार्थ का कहना ही सद्भूत व्यवहार है, जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तथा केवलज्ञान, वीतरागता, जीव की कहना।
प्रश्न--असद्भूत व्यवहारनय किसे कहते हैं ?
उत्तर--पदार्थ में जो पर्याय विकारी अनित्य रहने वाली है उस पर्याय को उस द्रव्य की कहना असद्भुत व्यवहारनय है, जैसे क्रोधादिक तथा मतिज्ञानादिक जीव का कहना।
प्रश्न- असद्भूत अन-उपचरित व्यवहारनय किसे कहते हैं ?
उत्तर--मिले हुए भिन्न पदार्थ को अभेद रूप कहना उसे असद्भूत अन-उपचरित व्यवहार नय कहते हैं। • जैसे "यह शरीर मेरा है"।
प्रश्न-असद्भूत उपचरित व्यवहारनय किसे कहते हैं ?
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[जिन सिद्धान्त उत्तर---अत्यन्त भिन्न दूरवर्ती पदार्थ को अपना कहना असद्भूत उपचरित व्यवहार है, जैसे यह मेरा पिता है, यह मेरा मन्दिर है, भगवान् लोकालोक को देखते हैं इत्यादि।
प्रश्न-निश्चय नय के और कोई भेद हैं ?
उत्तर-दो भेद हैं (१) द्रव्यार्थिक नय (२) पर्यायाथिक नय।
प्रश्न--द्रव्यार्थिक नय किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो सामान्य को ग्रहण करे उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं, जैसे आत्मा को ज्ञायक स्वभावी कहना, पुद्गल को जड समावी कहना।
प्रश्न-पर्यायार्थिक नय किसे कहते हैं ?
उत्तर--जो विशेष को ग्रहण करे उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं, जैसे श्रात्मा में, दर्शन ज्ञान चारित्र. कहना, पुद्गल में रूप रस वर्ण कहना।
प्रश्न-द्रव्यार्थिक नय के कितने भेद है?
उचर-तीन भेद हैं (१) नैगमनय (२) संग्रहनय(३) व्यवहार नय।
प्रश्न--नगम नय किसे कहते हैं ? __उत्तर--दो पदार्थों में से एक को गौण. और दूसरे को प्रधान करके भेद अथवा अभेद को विषय करने वाला
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'जिनं सिद्धान्त ]
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ज्ञान नैगमनय है । जैसे कोई मनुष्य प्रचाल कर रहा है और किसी ने पूछा "क्या कर रहे हो" तो उसने उत्तर 'दिया' "पूजा कर रहा हूँ" । यहाँ पंचाल में पूजा का संकल्प है। उसी क नाम नैगमनय है। प्रश्न- संग्रहनय किसे कहते हैं ?
उत्तर -- अपनी जाति का विरोध नहीं करके अनेक विषयों को एकपने से जो ग्रहण करे उसे संग्रहनय कहते हैं, जैसे जीव कहने से चारों गतियों के जीव का ज्ञान करे।
प्रश्न- व्यवहार नय किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जो संग्रहनय से ग्रहणं किये गये पदार्थों का विधि पूर्वक भेद करके ज्ञान करे, जैसे जीव कहने 'से मनुष्य, देव, तिर्यश्च नारकी का अलग अलग ज्ञान करे उसे व्यवहार नय कहते हैं ।
प्रश्न --- पर्यायार्थिक नये के कितने भेद हैं !
उत्तर - चार भेद हैं- (१) ऋजुसूत्र नंय, (२) शब्द नयं, (३) समभिनय और ( ४ ) एवंभूतनय ।
प्रश्न-ऋजुसूत्र नय किसे कहते हैं ?
उत्तर - भूत भविष्य की अपेक्षा न करके वर्तमान पर्याय मात्र को जो ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र नय है, जैसे श्रेणिक के जीव को नारकी कहना । प्रश्न - - - शब्दनय किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
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___उत्तर-लिंग, कारक, वचन, काल, उपसगोदिक के भेद से जो पदार्थ को मेद रूप ग्रहण करे सो शब्दनय है, जैसे-दारा, भार्या, कलत्र ये तीनों भिन्न लिङ्ग के शब्द एक ही स्त्री पदार्थ के वाचक हैं । सो यह नय स्त्री पदार्थ को तीन भेदरूप ग्रहण करता है। इसी प्रकार कारकादिक के भी दृष्टान्त जानने ।
प्रश्न-समभिरूढनय किसे कहते हैं ?
उत्तर-लिंगादिक का भेद न होने पर भी पर्यायशब्द के भेद से जो पदार्थ को मेद रूप ग्रहण करे। जैसे इन्द्र, शक, पुरन्दर । ये तीनों ही एक एक ही लिंग के पर्यायशब्द देवराज के वाचक हैं । सो यह नय देवराज को तीन भेद रूप ग्रहण करता है।
प्रश्न-एवंभूतनय किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ है, उसी क्रियारूप परिणमें पदार्थ को जो ग्रहण करे, सो एवंभूतनय है, जैसे समवशरण में विराजमान तीर्थङ्कर देव को तीर्थकर कहना ! प्रश्न-निक्षेप किसे कहते हैं ?
उत्तर-युक्ति करके संयुक्त मार्ग होते हुए कार्य के वश से नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव में पदार्थके स्थापन रूप ज्ञान को निक्षेप कहते हैं।
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जिन सिद्धान्त
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AANAMAMMA
प्रश्न-निक्षेप के कितने मेद हैं ?
उत्तर--चार भेद हैं-(१) नाम निक्षेप, (२) स्थापना निक्षेप (३) द्रव्य निक्षेप, (४).माव निक्षेप ।
प्रश्न- नाम निक्षेप किसे कहते हैं ?
उत्तर--पदार्थ में गुण न हो और उस गुण से उसको जानना उस ज्ञान का नाम नामनिक्षेप है, जैसे अंधे को नयनसुखदास कहना, भिखारिन को लक्ष्मी बाई कहना ।
प्रश्न-स्थापना निक्षेप किसे कहते हैं ? |
उत्तर---कोई भी पदार्थ में "यह वही है" इस प्रकार के स्थापना ज्ञान का नाम स्थापना निक्षेप है, जैसे-पाषाण की मूर्ति को देव कहना । पीला चावल को पुष्प कहना, पिता की तस्वीर को पिता कहना आदि । जिसमें स्थापना होती है वह पदार्थ अतदाकार ही होता है परन्तु ज्ञान में स्थापना तदाकार ही होती है।
प्रश्नद्रव्य निक्षेप किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो पदार्थ आगामी परिणाम की योग्यता रखने वाला हो उसी को वर्तमान में तद्प जानने वाले ज्ञान को द्रव्य निक्षेप कहते हैं, जैसे तुरन्त के जन्मे हुए बालक को तीर्थङ्कर कहना और तद्रूप सत्कार करना ।
प्रश्न- भाव निक्षप किसे कहते ?
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M
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[जिन सिद्धान्त उत्तर-वर्तमान पर्याय संयुक्त पदार्थ को वर्तमान रूप जानने वाले ज्ञान को भाव निक्षेप कहते हैं जैसेसमवशरण में विराजमान वीतराग' सर्वज्ञ देव को वीतराग रूप जानना ।
प्रश्न-यह चार निक्षेप कौन से नय के आश्रित है ?
उत्तर-नाम, स्थापना तथा द्रव्य निक्षेप, द्रव्याथिक नय के आश्रित हैं और मात्र भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय के आश्रित है।
इति 'जिन सिद्धान्त' शास्त्र विषै प्रमाण नय निक्षर अधिकार
६ समाप्त
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व्यवहार fia afterर
प्रश्न - - - जन्म कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर -- जन्म तीन प्रकार का होता है- (१) उपपाद जन्म, ( २ ) गर्भ जन्म, (३) सम्मूर्च्छन जन्म |
प्रश्न -- उपपाद जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जो जीव देवों की उपपाद शय्या तथा नारकियों के योनिस्थान में पहुँचते ही श्रन्तमुहूर्त में युवावस्था को प्राप्त हो जाय, उस जन्म को उपपाद जन्म कहते हैं ।
प्रश्न- गर्भ जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर --- माता पिता के रज तथा वीर्य से जिनका शरीर बने उस जन्म को गर्भ जन्म कहते हैं ।
प्रश्न -- सम्मूर्च्छन जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जो माता-पिता के अपेक्षा के विना शरीर धारण करे उस जन्म को सम्मूर्च्छन जन्म कहते हैं ।
प्रश्न- किन किन जीवों के कौन कौन सा जन्म होता है ?
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[जिन सिद्धान्त उत्तर-देव नारकियों के उपवाद जन्म होता है । जरायुज, अण्डज, पोतज (जो योनि से निकलते ही भागने दौड़ने लग जाता है और जिनके ऊपर जेर वगैरह नही होता है, जीवों के गर्भ जन्म ही होता है और शेष जीवों के सम्म नजन्म ही होता है।
प्रश्न-कौन कौन से जीवों को कौन कौन मा भाव वेद होता है ?
उत्तर-नारकीय और सम्मूञ्जेन जीवों के नपुंसक भाव तथा देवों को पुरुष तथा स्त्री वेद भाव तथा शेष जीवों को तीनों वेद रूप भाव होते हैं।
प्रश्न-जीव समास किसे कहते हैं ?
उत्तर-जीवों के रहने के ठिकानों को जीव समास कहते हैं।
प्रश्न-जीव समास के कितने भेद है ?
उत्तर--जीव सभास के हर भेद हैं । तिर्यच के ८५ मनुष्य के ह नारकीय के २ और देवों के २।।
प्रश्न-तिर्यंच के ८५ भेद कौन कौन से हैं ? उत्तर-सम्मूर्छन के उनहत्तर और गर्भज के १६ । प्रश्न--सम्मूर्छन के उनहत्तर कौन कौन से हैं ?
उत्तर-एकेन्द्रिय के ४२, विकलत्रय के है और पंचेन्द्रिय के १८। .
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जिन सिद्धान्त ]
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प्रश्न - एकेन्द्रिय के ४२ भेद कौन कौन से हैं ?
-
उत्तर -- पृथिवी, आप, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद, इन छहों के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा से १२ तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक को मिलाने से १४ हुए । इन चौदहों के पर्याप्तक, - निर्वृत्य पर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक इन तीनों की अपेक्षा से ४२ जीव समास होते हैं ।
१
प्रश्न - विकलत्रय के 8 मेद कौन कौन से हैं ? उत्तर -- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक, और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा नौ भेद हुए ।
प्रश्न --- सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय के १८ मेद कौन २ से हैं? उत्तर -- जलचर, स्थलचर, नभचर, इन तीनों के सैनी सैनी की अपेक्षा से ६ भेद हुए और इन छहों के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक, लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा से १८ जीव समास होते हैं ।
प्रश्न -- गर्भज पंचेन्द्रिय के १६ मेद कौन से हैं ? -- कर्मभूमि के १२ भेद और भोगभूमि के ४ मेद |
प्रश्न - कर्मभूमि के १२ मेद कौन से हैं ?
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[ जिन सिद्धान्त
उत्तर--जलचर, स्थलचर, नभचर इन तीनोंके सैनी असैनी के भेद से ६ भेद हुए और इनके पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा १२ भेद हुए ।
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--भोगभूमि के चार भेद कौन २ से हैं ? उत्तर --- स्थलचर और नभचर इनके पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा ४ मेद हुए । भोगभूमि में मैनी तिर्यञ्च नहीं होते हैं ।
प्रश्न -- मनुष्य के नौ भेद कौन २ से हैं ?
उत्तर - श्रार्यखंड, म्लेच्छखंड, भोगभूमि, कुभोगभूमि इन चारों गर्भजों के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा = हुए । इनमें सम्मूर्च्छन मनुष्य का लब्ध्यपर्याप्तक भेद मिलाने से ६ भेद होते हैं ।
प्रश्न - नारकियों के दो भेद कौन से हैं ? उत्तर -- पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्तक । प्रश्न- देवों के दो भेद कौन से हैं ? उत्तर -- पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्तक ।
प्रश्न – देवों के विशेष मेद कौन-कौन से हैं?
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इत्तर ---चार हैं- ( १ ) मत्रनवाली, ( २ ) व्यन्तर,
(३) ज्योतिष्क, (४) वैमानिक ।
प्रश्न- नवमी देवों के कितने मेट हैं ?
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जिन सिद्धान्त ]
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उत्तर -- दस भेद हैं, (१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) विद्युतकुमार, ( ४ ) सुपर्णकुमार, (५) अग्निकुमार, (६) चातकुमार, (७) स्तनितकुमार (८) उदधिकुमार, ( 8 ) द्वीपकुमार, (१०) दिक्कुमार,
प्रश्न -- व्यन्तरों के कितने भेद हैं ?
उत्तर --- आठ भेद हैं- ( १ ) किन्नर, (२) किंपुरुष (३) मरोरग, (४) गंधर्व, (५) यक्ष, ( ६ ) राक्षस, ( ७ ) भूत, (८) पिशाच ।
प्रश्न -- ज्योतिष्क देवों के कितने भेद हैं ?
उत्तर - पांच भेद हैं- ( १ ) सूर्य, (२) चन्द्रमा,
३) ग्रह, (४.) नक्षत्र, ( ५ ) तारा !
प्रश्न -- वैमानिक देवों के कितने भेद हैं ?
उत्तर -- दो भेद हैं: - कल्पोपपन्न, कल्पातीत । प्रश्न -- कल्पोपपन्न किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जिनमें इन्द्रादिकों की कल्पना हो उनको कल्पोपपन्न कहते हैं ।
प्रश्न -- कल्पातीत किसे कहते हैं ?
उत्तर --- जिनमें इन्द्रादिक की कल्पना न हो उनको
कल्पातीत कहते हैं ।
I
प्रश्न -- कल्पोपपन्न देवों के कितने भेद हैं ?
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[जिन सिद्धान्त
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MAHARA
___ उत्तर--सोलह मेद है-सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार, पानत, प्राणत, पारण और अच्युत ।
प्रश्न-कल्पातीत देवों के कितने भेद हैं ? उत्तर- तेईस भेद हैं--नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, च अनुत्तर ( विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि)।
प्रश्न-नारकियों के विशेष भेद कौन २ से हैं ? उत्तर-पृथ्वियों की अपेक्षा से सात भेद हैं। प्रश्न-सात पृध्वियों के नाम क्या क्या है ?
उत्तर---रत्नप्रभा (धम्मा), शर्कराप्रभा (वंशा), चालुकाप्रमा (मेघा ), पंकप्रभा (आंजना), धूमप्रभा (अरिष्टा ), तमप्रभा ( मघवी ) महातमप्रभा (माधवी)।
प्रश्न-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के रहने का स्थान कहां है ?
उत्तर सर्वलोक। प्रश्न-चादर एकेन्द्रिय जीव कहां रहते हैं ?
उत्तर-वादर एकेन्द्रिव जीव किसी भी आधार का निमित्त पाकर निवास करते हैं।
प्रश्न-सजीव कहां रहते हैं ? उत्तर सजीव वसनाली में ही रहते हैं।
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winner
rammarmmmmmmmmmmmmar
जिन सिद्धान्त ]
१४६ प्रश्न-विकलत्रय जीव कहां रहते हैं ?
उसर-विकलत्रय जीव कर्मभूमि और अन्त के श्राधे द्वीप तथा अन्तके स्वयंभूरमण समुद्र में ही रहते हैं।
प्रश्न-पंचेन्द्रिय तिर्यश्च कहां कहां रहते हैं ? ___ उत्तर-तिर्यक् लोक में रहते हैं, परन्तु जलचर तिर्यञ्च, लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र के सिवाय अन्य समुद्रों में नहीं है।
प्रश्न नारकीय जीव कहां रहते हैं ?
उत्तर-अधोलोक की सात पृथ्वियों में ( नरकों में ) रहते हैं।
प्रश्न-भवनवासी और व्यन्तर देव कहाँ २ रहते हैं?
उत्तर--पहली पृथिवी के खरभाग और पंचभाग में तथा तिर्यक्लोक में रहते हैं।
प्रश्न ज्योतिष्क देव कहां रहते हैं ?
उत्तर-पृथ्विी से सात सौ नव्वे योजन की ऊंचाई से लगाकर नौ सौ योजन की ऊँचाई तक अर्थात् एक सौ दस योजन आकाश में एक राजू मात्र तिर्यश्लोक में ज्योतिष्क देव निवास करते हैं।
प्रश्न-वैमानिक देव कहां रहते हैं ? उत्तर-उज़लोक में। प्रश्न - मनुष्य कहां रहते हैं।
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और अधोलोक |
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[ जिन सिद्धान्त
उत्तर-नरलोक में । प्रश्न - लोक के कितने भेद हैं ?
उत्तर - लोक के तीन भेद हैं--ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक
प्रश्न- अधोलोक किसे कहते हैं ?
उत्तर - मेरु के नीचे सात राजू अधोलोक है । प्रश्न- ऊर्ध्वलोक किसे कहते हैं ?
उत्तर - मेरु के ऊपर लोकके अन्त पर्यन्त ऊर्ध्व लोक है।
प्रश्न - मध्यलोक किसे कहते हैं ?
उत्तर - एक लाख चालीस योजन मेरु की ऊंचाई के वरावर मध्यलोक है ।
प्रश्न - मध्यलोक का विशेष स्वरूप क्या है ? उत्तर - मध्यलोक के अत्यन्त बीच में एक लाख योजन चौडा, गोल ( थाली की तरह ) जंबूद्वीप 1 जम्बूद्वीप के बीच में एक लाख योजन ऊंचा सुमेरु पवत है जिसका एक हजार योजन जमीन के भीतर मूल है । निन्याणवे हजार योजन पृथ्विी के ऊपर है और चालीस योजन की चूलिका ( चोटी ) है । जम्बूद्वीप के बीच में पश्चिम पूर्व की तरफ लम्बे छह कुलाचल पर्वत पडे हुए
1
हैं । जिनसे जम्बूद्वीप के सात खण्ड - हो गये हैं । इन सातों
खण्डों के नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) भरत, (२) हेमवत,
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जिन सिद्धान्त (३) हरि, ( ४ ) विदेह, ( ५ ) रम्यक, (६) हैरण्यवत (७ ) ऐरावत । विदेह क्षेत्र में मेरु के उत्तर की तरफ उत्तरकुरु और दक्षिण की तरफ देवकुरु हैं । जंबुद्वीप के चारों तरफ खाई की तरह वेढे हुए दो लाख योजन चौड़ा लवण समुद्र है । लवण समुद्र को चारों तरफ से वेढे हुए चार लाख योजन चौडा धातकी खण्ड द्वीप है । इस धातकीखण्ड द्वीप में दो मेरु पर्वत हैं और क्षेत्र कुलाचलादि की सब रचना जंबूद्वीप से दनी है। धातकीखण्ड को चारों तरफ बैठे हुए आठ लाख योजन चौडा कालोदधि समुद्र है और कालोदधि को बैठे हुए सोलह लाख योजन चौडा पुष्कर द्वीप है । पुष्कर द्वीप के बीचों बीच बडे के आकार चौडाई पृथ्वी पर एक हजार वाईस योजन बीच में सात सौ तेईस योजन ऊपर चार सौ चौबीस योजन ऊंचा सत्तर सौ इक्कीस योजन और जमीन के मीतर चार सौ सत्ताईस योजन जिसकी जड़ है ऐसा मनुप्योत्तर नाम पर्वत पड़ा हुआ है जिससे पुष्कर द्वीप के दो खण्ड हो गये हैं। पुष्कर द्वीप के पहले अर्द्ध भाग में जम्बूद्वीप से दूनी दूनी अर्थात् धातकी खण्ड द्वीपके बराबर सब रचना है । जंबूद्वीप धातकी द्वीप और पुष्करा द्वीप तथा लवणोदधि समुद्र और कालोदधि समुद्र इतने क्षेत्र को नरलोक कहते हैं। पुष्कर द्वीप से आगे परस्पर एक
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[जिन सिद्धान्त दूसरे को वेटे हुए दूने दुने विस्तारवाले मध्यलोक के अन्तपर्यन्त द्वीप और समुद्र है । पांच मेरु सम्बन्धी, पांच भरत, पांच ऐरावत देवकुरु और रकुरु को छोडकर पांच विदेह, इस प्रकार सब मिलकर १५ कर्मभूमि है । पांच हेमवत, पांच हिरण्यवत इन दश क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि है । पांच हरि, पांच रम्पक, इन दश क्षत्रों में मध्यमभोग भूमि है और पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु दश क्षेत्रों में उत्तम भोगभूमि है। जहां पर असी, मसी, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन पट् कर्मों की प्रवृत्ति हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। जहां इनकी प्रवृति न हो उस को भोगभूमि कहते हैं । मनुष्य क्षेत्र से बाहर के समस्त द्वीपों में जघन्य भोगभूमि जैसी रचना है किन्तु अन्तिम स्वयभरमण द्वीप के उत्तराद्ध में तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में और चारों कोनों की पृथ्वियों में कर्मभूमि जैसी रचना है । लवण समुद्र, और कालोदधि समुद्र में ६६ अन्तर्वीप हैं, जिनमें कुभोगभूमि की रचना है । वहां मनुष्य ही रहते हैं, उन मनुष्यों की प्राकृतियां नाना प्रकार की कुत्सित होती हैं।
जिन सिद्धान्त शास्त्र विप व्यवहार जीय अधिकार
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मार्गणा - - अधिकार
यह आत्मा अनादि काल से चौरासी लाख योनि रूप पौगलिक शरीर को अपना मानकर, अपने स्वरूप को भूल गई है, ऐसी भूली हुई श्रात्मा को अपने स्वभाव का ज्ञानकराने के लिये मार्गणा की उत्पत्ति हुई है । प्रश्न- मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर- जिन जिन धर्म विशेषों से जीवों का अनुवेषण अर्थात् खोज की जाय, उन धर्म विशेषों को मार्ग कहते हैं ।
प्रश्न- मार्ग के कितने भेद हैं ?
उत्तर - मार्गणा के १४ भेद हैं । १ गति २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ चेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, ह दर्शन, १० लेश्या, १९ भव्यत्व, १२ सम्यक्त्व, १३ संज्ञित्व, १४ आहार |
प्रश्न- गति किसे कहते हैं ?
उत्तर - गति नामा नामकर्म के उदय से जीव द्रन्प की संयोगी अवस्था को गति कहते हैं । प्रश्न - गति के कितने भेद हैं १
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जिन सिद्धान्त] उत्तर-गति चार हैं-१ नरकगति, २ तियंचगति, ३ मनुष्यगति ४ देवगति । ये चारों गतियां जीव द्रव्य की अजीव तन्त्र रूप अवस्था है। इसको जीव तत्व मानना मिथ्यात्व है।
प्रश्न- इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर- जीव द्रव्य के संयोगी लिंग को इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न- इन्द्रिय के कितने भेद हैं ? । उत्तर- इन्द्रिय के दो भेद हैं-१ द्रव्य इन्द्रिय २ माइन्द्रिय ।
प्रश्न- द्रव्य-इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर-निवृत्ति एवं उपकरण को द्रव्य-इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न निर्वृत्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा के प्रदेश के साथ में पुद्गल की विशेष रचना को निति कहते हैं।।
प्रश्न-निवृत्ति के कितने मेद होते हैं ? ____ उत्तर-दो मेद हैं-१ बाझ निवृत्ति, २ अभ्यन्तर निवृत्ति ।
प्रश्न बाह्य निवृत्ति किसे कहते है।
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जिन सिद्धान्त)
१५५
उत्तर - इन्द्रियों के आकार रूप पुद्गल की रचना विशेष को बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं।
प्रश्न - आम्यन्तर निर्वृत्ति किसे कहते हैं ? उत्तर - ज्ञान करने अन्तरंग निमित्त रूप जो पोइगलिक इन्द्रियाकार रचना है उसी को आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं ।
प्रश्न –— उपकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो निर्वृत्ति की रक्षा करे, उसे उपकरण
कहते हैं ।
प्रश्न - उपकरण के कितने भेद हैं ?
उत्तर - दो भेद हैं--१ आभ्यन्तर, २ बाह्य । | प्रश्न – आभ्यन्तर उपकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर - नेत्रेन्द्रिय में कृष्ण शुक्ल मण्डल की तरह सब इन्द्रियों में जो निर्वृत्ति का उपकार करे उसको आभ्यन्तर उपकरण कहते हैं ।
प्रश्न --- बाह्य उपरण किसे कहते हैं ?
उत्तर - नेत्रेन्द्रिय में पलक वगैरह की तरह जो निर्वृत्ति का उपकार करे उसको बाह्य उपकरण कहते हैं।
प्रश्न- द्रव्य इन्द्रियों को इन्द्रिय संज्ञा क्यों दी ? उत्तर --- क्षयोपशम भावेन्द्रियों के होने पर ही द्रव्यइन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, अतः भाव इन्द्रियाँ
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जिन सिद्धान्त कारण हैं और द्रव्य इन्द्रियाँ कार्य हैं । इसलिये द्रव्य इन्द्रियों को इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त है।
प्रश्नद्रव्य इन्द्रियों को इन्द्रिय संज्ञा देने में ओर कोई भेद है? ___ उत्तर-और भेद भी है। उपयोग रूप भाव इन्द्रियाँ की उत्पत्ति द्रव्य इन्द्रियाँ के निमित्त से ही होती है इसलिये द्रव्य इन्द्रियों कारण है और भाव इन्द्रियों का है इसलिये भी द्रव्य इन्द्रियों को इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त है।
प्रश्न-भाव इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर-लब्धि और उपयोग को भार इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न-लब्धि किसे कहते हैं ?
उत्तर-जितने अंश में ज्ञानारणी कर्म का प्रावरण हटता है और नान का विकास होता है उस ज्ञान को सब्धि कहते हैं।
प्रश्न--उपयोग किस कहते है ? उत्तर--लन्धि ज्ञान के व्यापार को उपयोग कहते है। प्रश्न-न्य इन्द्रियों के फिनन भेद हैं ? ।
उनर-पाँच भेट है.-पन, मना, याग, चतु पंधोर।
प्रश्न- पनन्दय कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त]
उत्तर-जिसके द्वारा आठ प्रकार के स्पर्ष का ज्ञान हो उसे स्पर्श इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न-रसना इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिसके द्वारा पाँच प्रकार के रसों का ज्ञान हो उसे सनेन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न-घाण इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिसके द्वारा दो प्रकार की गन्ध का ज्ञान हो उसे घाण इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न-चक्षु इन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिसके द्वारा पाँच प्रकार के रूप का ज्ञान हो उसे चनु इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न-श्रोत्र इन्द्रिय किसे कहते हैं।
उत्तर-जिसके द्वारा ७ प्रकार के स्वरों का ज्ञान हो उसे श्रोत्र इन्द्रिय कहते हैं।
प्रश्न-पाँच इन्द्रियाँ नो तचों में से कौनसा तय है ?
उत्तर--अजीव तत्व है। . प्रश्न-किन किन जीवों के कौनसी कौनसी इन्द्रियाँ
उत्तर-पृथ्वी, अप, तेज, वायु व वनस्पति इनके
स्पर्श इन्द्रिय ही होती है।
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जिन सिद्धान्त ]
कृमि आदि जीवों के स्पर्शन एवं रसना दो इन्द्रियाँ
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होती हैं ।
चींटी बिच्छू श्रादि जीवों के स्पर्शन, रसना और धाण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं ।
भ्रमर, मक्षिका आदि के स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु इन्द्रियाँ होती हैं ।
पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, नारकी यदि जीवों के पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं ।
प्रश्न काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - त्रस - स्थावर नाम कर्म के उदय से जीव द्रव्य की सयोगी अवस्था का नाम काय है ।
प्रश्न -- त्रस किसको कहते हैं ?
उत्तर --- स नामा नाम कर्म के उदय से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय और पंच-इन्द्रिय रूप शरीर में उत्पत्ति हो उसे त्रस कहते हैं ।
प्रश्न -- स्थावर किसे कहते हैं ?
उत्तर --- स्थावर नामा नाम कर्म के उदय से पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति रूप शरीर में उत्पत्ति हो उसको स्थावर कहते हैं ।
प्रश्न - - वादर किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त ]
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उत्तर-जो शरीर दूसरे से रोका जावे, या जो स्वयं दुसरे को रोके उसे चादर शरीर कहते हैं। प्रश्न-सूक्ष्म शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो शरीर पर को रोके नहीं एवं स्वयं पर से न रुके उसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं।
प्रश्न-वनस्पति के कितने भेद हैं ! उत्तर~-दो भेद है-~१ प्रत्येक, २ साधारण । प्रश्न--प्रत्येक वनस्पति किसे कहते हैं ?
उत्तर--एक शरीर का एक जीव स्वामी हो उसे प्रत्येक कहाजाता है।
प्रश्न-साधारण वनस्पति किसे कहते हैं ?
उत्तर--एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी हो अर्थात् जिसका आहार, आयु, श्वोसोवास तथा शरीर एक हो उसे साधारण वनस्पति कहते हैं जैसे कन्द मूल आदि ।
प्रश्न-प्रत्येक वनस्पति के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो भेद हैं-१ सप्रतिष्ठित प्रत्येक, २ अप्रतिष्ठित प्रत्येक । प्रश्न--सप्रतिष्ठित प्रत्येक किसे कहते हैं ?
उत्तर--जिस प्रत्येक वनस्पति के आश्रय में अनन्त साधारण वनस्पति जीव हो उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।
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जिन सिद्धान्त ]
प्रश्न -- प्रतिष्ठित प्रत्येक किसे कहते हैं ? उत्तर -- जिस प्रत्येक वनस्पति के श्राश्रय में कोई भी साधारण जीव न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ।
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प्रश्न –— साधारण वनस्पति का कोई दूसरा नाम है ? उत्तर --- साधारण वनस्पति को निगोद भी कहते हैं । प्रश्न - - निगोद कितने प्रकार के हैं ? उत्तर -- निगोद दो प्रकार के हैं - १ स्थावर निगोद, २ त्रस निगोद |
प्रश्न -- स्थावर निगोद कितने प्रकार के हैं ? उत्तर -- दो प्रकार के हैं - १ नित्य निगोद, २ इतर
निगोद |
प्रश्न -- नित्य निगोद किसे कहते हैं ?
उत्तर --- जिस जीव ने अभी तक साधारण शरीर छोड़कर और शरीर नहीं पाया है ऐसे जीव को नित्य निगोद कहते हैं ।
प्रश्न -- इतर निगोद किसे कहते हैं ?
उत्तर -- जिस जीवने साधारण शरीर छोड़कर प्रत्येक शरीर पाया है, बाद में प्रत्येक शरीर छोड़कर साधारण शरीर पाया है उसी को इतर निगोद कहते हैं । प्रश्न -- स निगोद किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त ]
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उत्तर -- जो जीव त्रस शरीर में आकर श्वास के १८ वें भाग में मरय करते हैं, उन जीव को त्रस निगोद कहते हैं ।
प्रश्न - - - साधारण की संख्या कितनी होती है ?
निगोद तथा त्रस निगोद के जीवों
उत्तर --- साधारण जीव अनन्त होते हैं, जबकि त्रस निगोद असंख्यात होते हैं, अनन्त कभी नहीं होते ।
प्रश्न -- स निगोद कितने स्थानों में नहीं होते उत्तर --- त्रस निगोद. ८ स्थानों में नहीं पाये जाते । १ पृथ्वी, २ अप, ३ तेज, ४ वायु, ५ केवली शरीर, ६ आहारक शरीर, ७ देव का वैक्रेयिक शरीर, ८ नारकी का शरीर ।
प्रश्न --- साधारण निगोद कहाँ पाया जाता है ? उत्तर --- साधारण निगोद सारे लोक में ठसाठस
भरा हुआ है । ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ साधारण निगोद न हो ।
प्रश्न -- बादर और सूक्ष्म कौन से जीव हैं ?
,
उत्तर -- पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्य निगोद, इतर
निगोद ये छ: जीव वादर तथा सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते | बाकी के सब जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं
होते ।
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[जिन सिद्धान्त प्रश्न--काय मार्गणा नो तच्चों में कौनसा तत्व है ? उत्तर--काय नो तन्त्रों में अजीव तत्व है। प्रश्न-योग मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर--योग मार्गणा दो प्रकार की है। १ चेतन योग, २ चेतन योग का निमित्त कारण।
प्रश्न-चेतन योग किसे कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा के योग नाम के कम्पनको गुणका . चेतन योग कहते हैं।
प्रश्न-योग होने में निमित्त कारण कौन है।
उत्तर-शरीर नामा नामकर्म तथा अंगोपांग नामा नामकर्म के उदय से, शरीर की रचना, मन की रचना तथा वचन की शक्ति यह निमित्त कारण है।
प्रश्न-काय योग कितने प्रकार के हैं ?. .
उत्तर-७ प्रकार के हैं-१ औदारिक, २ औदारिक मिश्र, ३ वैक्रयिक, ४ वैयिय मिश्र, ५ श्राहारक, ६ आहारक मिश्र, ७ कार्माण काय।।
प्रश्न-मन योग कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर-मन योग चार प्रकार हैं-१ सत्यमनोयोग, २ असत्य मनोयोग, ३ उभय मनोयोग, ४ अनुभय मनोयोग।
प्रश्न-वचनयोग कितने प्रकार के हैं ?
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जिन सिद्धान्त ]
उत्तर -- वचन योग चार प्रकार के हैं । १ सत्य,
१६३
~~~
२ असत्य, ३ उभय, ४ अनुभय ।
प्रश्न- ये योग नो तत्वों में से कौनसा तच्च है ? उत्तर ---चेतन योग आश्रव तन्त्र है, तथा काय मन वचनयोग अजीव तत्व है |
प्रश्न - - वेद के कितने भेद हैं ?
उत्तर -- वेद के तीन भेद हैं- १ स्त्रीवेद, २ पुरुषवेद, ३ नपुंसक वेद । ये तीनों आत्मा के विकारी भाव और चध तत्त्व हैं |
प्रश्न -- कपाय मार्गणा के कितने भेद हैं ?
उत्तर -- कषाय मार्गणा २५ प्रकार हैं-: अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के क्रोध, मान, माया, लोभ रूप १६ कपाय तथा नौ
कपाय, १ हास्य, २ रति, ३ अरति ४ शोक, ५ भय, ६ जुगुप्सा, ७ स्त्री वेद, ८ पुरुषवेद, 8 नपुंसक वेद । ये सब चारित्र गुण की विकारी पर्याय हैं ।
प्रश्न -- ज्ञान मार्गणा के कितने भेद हैं ? उत्तर--आठ भेद हैं-- १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मन:पर्ययज्ञान, ५ केवलज्ञान, ६ कुमति ज्ञान, ७ कुश्रुतज्ञान, = कुत्रवधिज्ञान इनमें से केवलज्ञान
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૬
जिन सिद्धान्त
ज्ञान गुण की शुद्ध अवस्था है बाकी के ज्ञान ज्ञानगुण की अशुद्ध अवस्था है ।
प्रश्न -- संयम मार्गणा किसे कहते हैं ?
उत्तर - संयम मार्गणा सात प्रकार के हैं - १ श्रसंयम, २ संयमासंयम, ३ सामायिक संयम, ४ छेदोपस्थापना संयम, ५ परिहारविशुद्धि संयम, ६ सूक्ष्म सामपराय संयम, ७ यथाख्यात संयम । ये सब आत्मा के चारित्र गुण की अवस्था है ।
प्रश्न- संयम किसे कहते हैं ?
उत्तर — अंहिसादिक पांच व्रत धारण करने, ईर्यापथ आदि पांच समितियों का पालन करना, क्रोधादिक कपायों का निग्रह करना, मनोयोग आदिक तीन योगों को रोकना, स्पर्शनादि पांचों इन्द्रिय को विजय करना, इसे संयम कहते हैं ।
प्रश्न- दर्शन मार्गणा के कितने भेद है ? उत्तर-- चार मेड हैं -- १ चक्षु दर्शन, २ श्रचतु दर्शन, ३ अवधि दर्शन, ४ केवल दर्शन | ये चारों दर्शन की अवस्था है।
प्रश्न- लेश्या मागंगा के कितने भेद हैं ?
मेद है -१ कृष्ण लेश्या, २. नील नैया, 3 को लेन्या, 2 पीन नेपा, ७ पद्म जेश्या,
उत्तर
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जिन सिद्धान्त
६ शुक्ल लेश्या । ये छह ही क्रिया गुण की अशुद्ध अवस्था है। प्रश्न--भव्य मार्गणा के कितने भेद हैं ?
उत्तर--दो भेद हैं-१ भव्य, २ अभव्य । ये दोनों श्रद्धागुण की अवस्था है।
प्रश्न-सम्यक्त्व किसे कहते हैं ? उत्तर-तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं । प्रश्न-सम्यक्त्व मार्गणा के कितने भेद हैं ?
उत्तर-छः भेद हैं-१ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ सम्यक् मिथ्यात्व, ४ क्षयोपशय सम्यक्त्व, ५ उपशम सम्यक्त्व, ६ क्षायिक सम्यक्त्व । ये छः ही श्रद्धागुण की अवस्था है। . प्रश्नसंज्ञी किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिसको द्रव्य मन की प्राप्ति हो गई वह संज्ञी है।
प्रश्न-संज्ञी मार्गणा के कितने भेद हैं ?
उत्तर-दो भेद हैं-१ संज्ञी, २ असंज्ञी । ये दोनों अजीव तत्व हैं ?
प्रश्न-आहार किसे कहते हैं ? · उत्तर-औदारिक आदि शरीर के परमाणु ग्रहण करने को बाहार कहते हैं।
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[जिन सिद्धान्त
NAAM
प्रश्न-आहार मार्गण के कितने भेद हैं ?
उत्तर- दो भेद हैं-१ आहारक, २ अनाहारक । वे दोनो अजीव तत्व हैं।
प्रश्नअनाहारक जीव किस किम अवस्था में होता है ?
उत्तर--विग्रहगति, केवलीसमुद्धात और अयोगीकेवली अवस्था में जीव अनाहारक रहता है।
प्रश्न--विग्रहगति में कौन सा योग है ? उत्तर-~-विग्रहगति में कार्माण योग होता है। प्रश्न--विग्रहगति के कितने भेद हैं ?
उत्तर---चार भेद है-१ ऋजुगति, २ पाणिमुक्ता गति, ३ लांगलिकागति, ४ गोमत्रिकागति। व
प्रश्न-विग्रहंगतियों में कितना कितना काल लगता है ? ___ उत्तर--ऋजुगति में एक समय, पाणिमुक्ता अर्थात् एक मोड़े वाले गति में दो समय, लांगलिका गति में तीन समय और गोमूत्रिकागति में चार समय लगता है।
प्रश्न--इन गतियों में अनाहारक अवस्था कितने समय तक रहती है ?
उत्तर-ऋजुगति वाला जीव अनाहारक नहीं होता, पाणिमुक्तागति में एक समय, लांगलिका में दो समय, और गोमृत्रिका में तीन समय अनाहारक रहता है।
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जिन सिद्धान्त }
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१६७
प्रश्न - मोक्ष जानेवाले जीव की कौनसी गति होती है।
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उत्तर -- ऋजुगति होती है और वहाँ जीव अनाहारक
ही होता है ।
इति जिन सिद्धान्त शास्त्र विषै मार्गणा अधिकार
ॐ समाप्त
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गुण-स्थान अधिकार प्रश्न-जीव सुख को प्राप्त क्यों नहीं होता है ? .
उत्तर-सुख कहाँ है, इसका ज्ञान नहीं होने के कारण सुख को प्राप्त नहीं होता है। प्रश्न---सुख किसे कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा की निराकुल अवस्था का नाम सुख है । अर्थात् सम्यक् प्रकार से रागादिक का नाश ही
सुख है।
प्रश्न--सम्पूर्ण सुख कहाँ होता है ?
उत्तर--सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति मोक्ष अवस्था में होती है।
प्रश्न-मोक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर-आत्मा के सम्पूर्ण गुणों की शुद्ध अवस्था का नाम मोन है।
प्रश्न--उस मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?
उत्तर-मिथ्याच, कषाय तथा लेश्या रूप अवस्था को छोड़ने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
प्रश्न--गुणस्थान किसे कहते हैं ?
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जिन सिद्धान्त
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उत्तर--मोह, कपाय और लेश्या रूप आत्मा की अवस्था विशेष का नाम गुणस्थान है।
प्रश्न-गुणस्थान के कितने भेद हैं ?
उत्तर-- चौदह भेद है-१ मिथ्यान्च, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ अविरत सम्यकदृष्टि, ५ देशविरत, ६ प्रमत्त विरत, ७ अप्रमत्तविरत ८ अपूर्वकरण, 8 अनिवृत्ति, १. सूक्ष्यसाम्पाय. ११ उपशान्तमोह, १२ क्षीणमोह, १३ सपोगकेवली, १४ अयोगकेवली।
प्रश्न-गुणस्थानों के ये नाम होने का कारण क्या है ? उत्तर-मोहनीयकर्म और नामकर्म ।
प्रश्न-कौन कौनसे गुणस्थान का क्या क्या निमित्त है ?
.. उत्तर-~~-आदि के चार गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म की अपेक्षा से हैं, पांच से दश गुणस्थान चारित्र मोहनीय के निमित्त से हैं, ग्यारह, पारह. तेरहवां गुणस्थान योग के निमित्त से है और चौदहवां गुणस्थान योग के अभाव के निमित्त से है।
प्रश्न--मिथ्यात्व गुणस्थान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से अतत्वार्थ श्रद्धान रूप आत्मा के परिणाम रूप विशेष को मिथ्याच गुणस्थान कहते हैं । मिथ्याच गुणस्थान में रहने वाला
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[ जिन सिद्धान्त
जीव पुण्यभाव में ही धर्म मानता हूँ । कर्म के उदय में जो जो अवस्था होती है उसको अपनी ही मानता है, परन्तु वे अवस्था अजीव तत्त्व की हैं और में जीव तत्र हूँ ऐसी श्रद्धा उसको होती ही नहीं है ।
प्रश्न - मिथ्याच्च गुणस्थान में किन किन प्रकृतियों का बंध होता है ?
उत्तर - कर्म की १४८ प्रकृतियों में से स्पर्शादिक २० प्रकृतियों का अभेदविचित्ता से स्पर्शादिक ४ में और घन और संघात ५ का अभेद विवक्षा से पांच शरीरों में अन्तर्भाव होता है । इसी कारण भेदविवक्षा से १४८ प्रकृतियों और अमेदविवक्षा से १२२ प्रकृतियाँ हैं । - सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् - प्रकृति इन दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता है; क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता सम्यक्त्व परिणामों से मिथ्याच प्रकृति के तीन खंड करने से होती है । इसी कारण अनादि मिथ्यादृष्टि जीव की बंघ योग्य प्रकृति १२० और सच्चयोग्य प्रकृति १४६ हैं । मिथ्याच्च गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति, आहारक शरीर और श्राहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि इन तीन प्रकृतियों का बंध सम्यकदृष्टि के ही होता है, इसलिये इस गुणस्थान में
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जिन सिद्धान्त
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१२० में से तीन प्रकृति घटाने पर ११७ प्रकृतियों का बंध होता है।
प्रश्न--मिथ्यात्व गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ?
' उत्तर-सम्यक्-प्रकृति, सम्यक्-मिथ्याच, अहारक शरीर, अहारक अंगोपांग और तीर्थकर प्रकृति, इन पांच प्रकृतियों का इस गुणस्थान में उदय नहीं होता, इसलिये १२२ प्रकृति में से पांच घटाने पर ११७ प्रकृति का उदय होता है।
प्रश्न--मिथ्यात्व गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सचा रहती है ?
उत्तर--१४८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। प्रश्न--सासादन गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रथमोपशम सम्यक्त्वे के काल में जब ज्यादा से ज्याया छह पावली और कमती से कमती एक समय धाकी रहे उस समय अनन्तानुबंधी कपाय का उदय आने से और मिथ्याच का उदय न आने से श्रद्धा गुण ने पारणामिक भाव से मिथ्यात्व रूप अवस्था धारण की हैं, ऐसे जीव को सासादन गुणस्थान वाला कहा जाता है।
प्रश्न--प्रथमोपशम सम्यक्त्व किसे कहते है ?
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[जिन सिद्धान्त ___ उत्तर--सम्यक्त्व के तीन भेद हैं, दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृति, अनन्तानुबंधी की ४ प्रकृति, इस प्रकार इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से जो भाव उत्पन्न हो उसको उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। और इन सातों प्रकृतियों के क्षय होने से जो भाव उत्पन्न हो उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं और छह प्रकृतियों के अनुदय
और सम्यक् प्रकृति के उदय से जो भाव हो उसे बायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । उपशम सम्यक्त्व के दो भेद हैं। १ प्रथमोपशम सम्यक्त्व, २ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व । अनादि मिथ्यादृष्टि के पांच प्रकृति के और सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से जो भाव हो उसको प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं ।
प्रश्न--द्वितीयोपशम सम्यक्त्व किसे कहते हैं। __ उत्तर-सातवें गुणस्थान में क्षयोपशमिक सम्प दृष्टि जीव श्रेणी चढ़ने के सन्मुख अवस्था में अनन्तानुबंधी चतुष्टय का विसंयोजन (अप्रत्याख्यानादि रूप ) करके दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम करके जो सम्यक्त्व प्राप्त करता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं।
प्रश्न--सासादन गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है ?
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जिन जात]
___ उत्तर---पहले गुणस्थान में जो ११७ प्रकृतियों का बंध होता है, उसमें से १६ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होने से १०१ प्रकृतियों का बंध सासादन गुणस्थान में होता है। ये १६ प्रकृति इस प्रकार हैं-१ मिथ्यात्व, २ हुण्डक संस्थान, ३ नपुंसक वेद, ४ नरक्रगति, ५ नरकगत्यानुपूर्वी, ६ नरकवायु, ७ अंसप्राप्तामृपाटक संहनन, ८ एकेन्द्रिय जाति, ६ दोइन्द्रियजाति, १० तेइन्द्रियजाति, ११ चौइन्द्रिय जाति, १२ स्थावर, १३ आताप, १४ सूक्ष्म, १५ अपयोप्त १६ साधारण ।
प्रश्न-व्युच्छित्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर---जिस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय अथवा सत्व की व्युच्छित्ति कही हो उस गुणस्थान तक ही इन प्रकृतियों का बंध उदय अथवा सत्त्व पाया जाता है ,आगे के किसी भी गुणस्थान में उन प्रकृतियों का धंध, उदय अथवा सत्व नहीं होता है, इसी को व्युच्छित्ति
प्रश्न----सासादन गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों
का होता है ?
उत्तर---पहले गुणस्थान में जो ११७ प्रकृतियों का होता है, उनमें से मिथ्याच, आताप, सूक्ष्म, अपयोप्त और साधारण इन पांच मिथ्यात्व गुणस्थान की व्युच्छिन्न
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[ जिन सिद्धान्त
प्रकृतियों के बढ़ाने पर ११२ रही, परन्तु नरकगत्यानुपूर्वी का इस गुणस्थान में उदय नहीं होता इसलिये इस गुणस्थान में १९११ प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न -- सासादन गुणस्थान में सत्ता कितनी प्रकृतियों की रहती है ?
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उत्तर --- १४५ प्रकृतियों की सत्ता रहती है | यहाँ पर तीर्थकर प्रकृति, अहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों की सत्ता नहीं रहती ।
प्रश्न – तीसरा मिश्र गुणस्थान किसे कहते हैं ? उत्तर – सम्यक् मिथ्याच प्रकृति के उदय से जीव के न तो केवल सम्यक् परिणाम होते हैं और न केवल मिथ्याच्च रूप परिणाम होते हैं, किन्तु मिले हुए दही गुड़ के स्वाद की तरह मिश्र परिणाम होते हैं उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न - मिश्र गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है ?
उत्तर - दूसरे गुणस्थान में बंध प्रकृति १०१ थी, उनमें से व्युच्छिन्न प्रकृति अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुञ्जक संस्थान, वामनसंस्थान, ब्रजनाराचसंहनन, नाराचसंहनन,
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जिन सिद्धान्त ]
श्रद्ध नाराच संहनन, कीलीतसंहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्री वेद, नीचगोत्र, तिर्यंचगति, तियंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यचत्रायु, उद्योत मिलकर २५ प्रकृतियों को घटाने पर शेष रही ७६, परन्तु इस गुणस्थान में किसी भी श्रायु कर्म का बंध नहीं होता है, इसलिये ७६ प्रकृति में से मनुष्य श्रायु और देव श्रायु इन दो के बढाने पर ७४ प्रकृतियों का बंध होता है । नरक आयु की पहले गुणस्थान में और तिर्यंच आयु की दूसरे गुणस्थान में व्युच्छित्ति हो चुकी है।
१७५
प्रश्न- मिश्र गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का उदय होता है ?
उत्तर - दूसरे गुणस्थान में १११ प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से व्युच्छिन्न अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभ, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, एक स्थावर मिलकर & प्रकृति के घटाने पर शेप १०२ रही उनमें से नरकगत्यानुपूर्वी के बिना तीन अनुपूर्वी के घटाने पर शेष ६६ प्रकृति रही और एक सम्यक् मिथ्याच्च प्रकृति का उदय यहाँ या मिला इस कारण इस गुणस्थान में १०० प्रकृति का बंध होता है ।
प्रश्न- मिश्र गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ?
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१७६
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[ जिन सिद्धान्त ____ उत्तर-तीर्थंकर प्रकृति के बिना १४७ प्रकृतियों की सत्ता रहती है।
प्रश्न-चौथे अविरत सम्पदृष्टि गुणस्थान का क्या
उत्तर-दर्शन मोहनीय की तीन, और अनन्तानुबंधी की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम से अथवा क्षय से तथा सम्यक् प्रकृति के उदय से क्षयोपशम सम्यग्दर्शन होता है, और अप्रत्याख्यानवरणी क्रोध, मान, याया, लोम के उदय से व्रत रहित पाक्षिक श्रावक चौथे गुणस्थानवी होता है। प्रश्न-चौथे गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है? ___ उत्तर-तीसरे गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बंध होता है, जिनमें मनुष्य आयु, देव आयु, तीर्थकर प्रकृति मिलाने से ७७ प्रकृतियों का घंध होता है।
प्रश्न-चौथै गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ?
उत्तर-तीसरे गुणस्थान में १०० प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से सम्यक् मिथ्याच प्रकृति के घटाने पर रही इनमें चार आनुपूर्वी और एक मम्यक प्रकृति मिथ्यात्र इन पांच प्रकृतियों को मिलाने पर १०४ प्रकनिरों का उदय होता है।
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१७७
जिन सिद्धान्त ]
प्रश्न --- चौथे गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता
रहती है ?
उत्तर - १४८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है, परन्तु चायिक सम्यग्दृष्टि के १४१ की ही सत्ता है ।
प्रश्न- देशविरत नामक पांचवें गुणस्थान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर ---प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय से सकल संयम नहीं होता है, परन्तु अप्रत्या ख्यानवरण क्रोध, मान, माया, लोभ के उपशम से श्राचक व्रत रूप देश चारित्र होता है, जिसको देशविरत नामक पांचवा गुणस्थान कहते हैं ।
प्रश्न - पांचवे गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है ?
-
उत्तर - चौथे गुणस्थान में जो ७७ प्रकृतियों का बंध कहा है उनमें से व्युच्छिन अप्रत्याख्यानवरण क्रोध, मान, माया लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्य आयु, औदारिक शरीर, श्रदारिक अंगोपांग, चऋपभानाराच संहनन इन दश प्रकृतियों के घटाने पर ६७ प्रकृतियों का बंध होता है।
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प्रश्न --- पांचवे गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ?
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जिन सिद्धान्त ]
उत्तर - चौथे गुणस्थान में जो १०४ प्रकृतियों का उदय कहा है उनमें से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवत्रायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरक आयु, वैक्रयिक शरीर, वैक्रयिक अंगोपांग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तियंचगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, श्रनादेय, यशःकीर्ति, मिलकर १७ प्रकृतियों के घटाने पर ८७ प्रकृति रहीं उनका उदय रहता है ।
१७८
प्रश्न - पांचवे गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ?
उत्तर - चौथे गुणस्थान में १४८ प्रकृति की सत्ता कही है, उनमें से व्युच्छिन्न प्रकृति एक नरक आयु बिना १४७ की सत्ता रहती है परन्तु क्षायिक सम्यकदृष्टि की अपेक्षा से १४० प्रकृति की सत्ता रहती है।
प्रश्न-छडे प्रमत्त विरत नामक गुणस्थान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर -- छट्ठे गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कपाय के उपशम से सकल संयम की प्राप्ति हो जाती है परन्तु संज्वलन और नोकपाय के तीव्र उदय से संयम भाव में मल जनक प्रमाद उत्पन्न होते हैं । यह गुणस्थान भावलिंगी मुनि के होता है ।
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जिन सिद्धान्त
प्रश्न-छठे गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है ?
उत्तर-पांचवें गुणस्थान में जो ६७ प्रकृतियों का बंध होता था उनमें से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोग इन चार व्युच्छिन्न प्रकृतियों को घटाने पर ६३ प्रकृतियों का बंध होता है। ___ प्रश्न—छट्टे गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ? ____ उत्तर–पांचवें गुणस्थान में ८७ प्रकृतियों का उदय
था उनमें से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया लोभ, तिर्यंचगति, नियंचायु, उद्योत और नीच गोत्र इन आठ व्युच्छिन्न प्रकृति के घटाने पर ७६ प्रकृति रहीं उनमें अहारक शरीर और अहारक अंगोपाग इन दो प्रकृतियों के मिलाने से ८१ प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न-छडे गुणस्थान में सत्ता कितनी प्रकृतियों की है ?
उत्तर-पांचवे गुणस्थान में १४७ प्रकृतियों की सत्ता कही है उनमें से व्युच्छिन्न प्रकृति एक, तिथंच आयु के घटाने पर १४६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है परन्तु सायिक सम्यग्दृष्टि के १३६ प्रकृति की सत्ता है।
प्रश्न-अप्रमत्तविरत नाम के सातवें गुणस्थान का स्वरूप क्या है?
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जिन सिद्धान्त ]
उत्तर – संज्वलन और नोकपाय के मन्द उदय होने से प्रमाद रहित संयम भाव होता है इस कारण इस गुणस्थानवत सुनि को अप्रमत विरत कहते हैं ।
प्रश्न- श्रप्रमत्त गुणस्थान के कितने भेद हैं ? उत्तर - दो भेद हैं- १ स्वस्थान श्रप्रमत्त विरत. २ सातिशय अप्रमत्त विरत ।
१५०
प्रश्न – स्वस्थान श्रप्रमत्तविरत किसे कहते हैं ?
-
उत्तर - जो असंख्यात बार छड़े से सातवें में और सातव से छड़ गुणस्थान में आवे जावे उसको स्वस्थान प्रमत्तकहते हैं ?
प्रश्न - सातिशय श्रप्रमत्तविरत किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो श्रेणी चढ़ने के सन्मुख हो, उसे सातिशय अप्रमतविरत कहते हैं ।
प्रश्न - श्रेणी चढ़ने का पात्र कौन है ?
उत्तर - क्षायिक सम्यग्दृष्टि और द्वितीयोपशम सम्यदृष्टि ही श्रेणी चढ़ते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व वाला तथा क्षयोपशमिक सम्यक्त्व चाला श्रेणी नहीं चढ़ सकता है । प्रथमोपशम सम्यक्व वाला प्रथमोपशम सम्यक्त्व को छोड़कर क्षयोपशमिक सम्यग्दृष्टि होकर, प्रथम ही अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माय, लोम का विसंयोजन करके दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम करके
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जिन सिद्धान्त ]
द्वितीयोपशम सम्यग्यदृष्टि हो जावे अथवा तीनों प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जावे तब श्रेणी चढ़ने का पात्र होता है ।
अश्न श्रेणी किसे कहते हैं ?
उत्तर - जहाँ चारित्र मोहनीय की शेष रही २१ प्रकृतियों का क्रम से उपशम तथा क्षय किया जाय उसे श्रेणी कहते हैं ।
प्रश्न- श्रेणी के कितने भेद हैं ?
उत्तर - दो भेद हैं- १ उपशम श्रेणी, २ क्षपक श्रेणी । प्रश्न – उपशम श्रेणी किसे कहते हैं ?
उत्तर – जिसमें चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशम किया जाय ।
१८१
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प्रश्न - क्षायिक श्रेणी किसे कहते हैं ?
उचर - जिसमें चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का तय किया जाय ।
प्रश्न- इन दोनों श्रेणियों में कौन कौन से जीव चढ़ते हैं ?
उत्तर - क्षायिक सम्यग्दृष्टिदोनो श्रेणी चढता है, परन्तु द्वितीयोपशम सम्यग्यदृष्टि उपशम श्रेणी ही चढ़ता है । चपक श्रेणी नहीं चढ़ता है।
प्रश्न - उपशम श्र ेणी के कौन कौन से गुणस्थान हैं ?
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जिन सिद्धान्त] ____ उत्तर-चार गुणस्थान हैं, पाटबॉ, नौवा, ढसबॉ, और ग्यारहवाँ।
प्रश्न-क्षपक श्रेणी के कौन कौन से गुणस्थान हैं ?
उत्तर-चार गुणस्थान हैं, आठवॉ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ।
प्रश्न---चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों की उपशमावने तथा क्षय करने के लिये प्रात्मा के कौन से परिणाम निमित्त कारण हैं।
उत्तर-तीन परिणाम निमित्त कारण हैं-१ अधः करण, २ अपूर्वकरण, ३ अनिवृत्ति करण ।
प्रश्न-अधः करण किसे कहते हैं ?
उनर-जिस करण में उपरितनसमयवर्ती तथा अधस्तनसमयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश तथा विसदृश हों उसे अधःकरण कहते हैं। यह अधःकरण सातवें गुणस्थान में होता है।
प्रश्न-अपूर्वकरण किसे कहते हैं। ___उत्तर-जिस करण में उत्तरोत्तर अपूर्व ही अपूर्व परिणाम होते जॉय अर्थात् भिन्न समयवती जीवों के . परिणाम सदा विसरश ही हों और एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश भी हों और विसदृश भी हों उनको अपूर्व करण कहते हैं। और यही आठवाँ गुणस्थान है।
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जिन सिद्धान्त
१६३
प्रश्न-अनिवृत्ति करण किसे कहते हैं ।
उत्तर---जिस करण में भिन्न समयची जीवों के परिणाम विसदृश ही हो और एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही हों उसे अनिवृत्ति करण कहते हैं और यही नौवाँ गुणस्थान है। इन तीनों ही करणों के परिणाम प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धता लिये होते हैं ।
प्रश्न--सातचे गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है?
उत्तर-छडे गुणस्थान में जो ६३ प्रकृतियों का चंध कहा है, उनमें से व्युच्छित्ति, स्थिर, अशुभ, असाता, अयशःकीर्ति, अरति, शोक ये छः प्रकृति घटाने पर शेष ५७ रही उसमें अहारक शरीर और अहारक अंगोपांग इन दो प्रकृतियों को मिलाने से ५६ प्रकृतियों का बंध होता है।
प्रश्नमात गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है। ___उत्तर-छ? गुणस्थान में जो ८१ प्रकृतियों का उदय कहा है, उनमें से व्युच्छित्ति, अहारक शरीर, अहारक अंगोपांग, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि इन प्रकृतियों के घटाने पर शेष रही ७६ प्रकृतियों का उदय होता है।
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जिन सिद्धान्त ]
प्रश्न--सातवें गुणस्थान में सत्ता कितनी प्रकृतियों की रहती है ? ___उत्तर-छ8 गुणस्थान की तरह इस गुणस्थान में भी १४६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि के १३६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।
प्रश्न-अाठवें गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है ? ____उत्तर--सातवें गुणस्थान जो ५६ प्रकृतियों का बंध कहा है, उनमें से व्युच्छिति एक देव आयु के घटाने पर ५८ प्रकृतियों का बंध होता है।
प्रश्न-पाठवें गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ? ____उत्तर--सातवे गुणस्थान में जो ७६ प्रकृतियों का उदय कहा है, उनमें से सम्यक्-प्रकृति, अर्द्ध नाराच, कीलिक, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, इन चार प्रकृतियों के टाघने पर शेष २७ प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न-आठवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ? . ___ उत्तर-आठवें गुणस्यान में जो १४६ प्रकृतियों की सत्ता कही है, उनमें से अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार को घटाकर द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम
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जिन सिद्धान्त ]
• १८५
श्रेणी वाले के तो १४२ की सत्ता है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशम वाले के दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति रहित १३६ प्रकृति की सत्ता रहती है । क्षपक श्रेणी वाले के सातवें गुणस्थान की व्युच्छिति श्रनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा दर्शन मोहनीय की तीन और एक देव आयु मिलकर आठ प्रकृति चयकर शेषं १३८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।
प्रश्न - नौवें अर्थात् श्रनिवृचि गुणस्थानों में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है ?
उत्तर -- आठवें गुणस्थान में जो ५८ प्रकृतियों का बंध कंहा है, उसमें से व्युच्छित्ति निद्रा, प्रचला, तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्माण शरीर, अहारक शरीर, अहारकं अंगोपांग, सम'चतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुंपूर्वी, उच्छ्वास, स, वांदर, रूप, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, शुभंग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्सा, भय इन ३६ प्रकृतियों को घटाने पर शेष २२ प्रकृतियों का बंध होता है 1
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• प्रश्न --- नौवें गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ?
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[जिन सिद्धान्त उत्तर-आठवें गुणस्थान में जो ७२ प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से व्युच्छित्ति हास्य, रति, अरति, शोक, मय, जुगुप्सा इन छ: प्रकृतियों को घटाने पर शेष ६६ प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न-नौवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ?
उत्तर--पाठवें गुणस्थान की तरह इस गुणस्थान में भी उपशम श्रेणी वाले उपशम सम्यग्दृष्टि के,१४२, क्षायिक सम्यग्दृष्टि के १३६ और क्षपक श्रेणी वाले के १३८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है ?
प्रश्न- दसवें सूच्मसाम्पराय गुणस्थान का स्या स्वरूप है।
उचर--जिस जीन की बादर कपाय छूट गई है, परन्तु सूक्ष्म, लोभ का अनुभव करता है, ऐसे जीव के सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवाँ गुणस्थान होता है।
प्रश्न-दसवें गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है ?
उत्तर--नौवें गुणस्थान में २२ प्रकृतियों का बंध होता है, उनमें से व्युच्छिति पुरुपवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोम, इन पांच प्रकृतियों के घटाने पर शेष १७ प्रकनियों बंध होता है।
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जिन सिद्धान्त ] ......more
प्रश्न-दसवें गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों • का होता है ?
उत्तर-नौवें गुणस्थान में जो ६६ प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से व्युच्छित्ति, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, इन छह प्रकतियों के घटाने पर शेष ६० प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न-दसवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ?
उत्तर--उपशम श्रेणी में नौवें की तरह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि के १४२, क्षायिक सम्यकदृष्टि के १३६ और क्षपक श्रेणी वाले के नौवें गुणस्थान में जो १३८ प्रक तियों की सत्ता है, उनमें व्युच्छित्ति-तियंचगति, तिर्यचगृत्यानुपूर्वी, विकलत्रय तीन, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, उद्योत, भाताप, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर, अप्रत्याख्यानावरणी चार, प्रत्याख्यानावरणी, नोकपाय नो, संज्वलन क्रोध, मान, माया, नरक गति. नरकगत्यानुपूर्वी, इन छत्तिस प्रकृतियों को घटाने पर १०२ प्रकृतियों की सत्ता रहती हैं।
प्रश्न-ग्यारहवें उपशान्त मोह नामक गुसस्थान का क्या स्वरूप है।
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जिन सिद्धान्त
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उत्तर - चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशम होने से यथाख्यात चरित्र को धारण करने वाले मुनि के ग्यारहवाँ उपशान्त मोह नाम का गुणस्थान होता हैं । इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर पारिणामिक भान से जीव निचले गुणस्थान में जाता है ।
प्रश्न- ग्यारहवें गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है।
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उत्तर - दसवें गुणस्थान में जो १७ प्रकृतियों का बंघ होता था उनमें से व्युच्द्धिति, ज्ञानावरण की पांन दर्शनावरण की चार, अन्तराय की पांच यशः कीर्ति, उप गोत्र इन सोलह प्रकृतियों के घटाने पर एक मात्र माता वेदनीय का म होता है ।
मना रे ?
प्रश्न-यारहवाँ गुणस्थान में उदय स्तिनी प्रकृतियों का होता है?
उत्तर- दस गुणस्थान में जो ६० प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से
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ता है। नोंदी
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जिन सिद्धान्त
१८९ १३६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है।
प्रश्न-क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान का क्या स्वरूप है, और वह किसके होता है ? ___ उत्तर-मोहनीय कर्म के अत्यन्त क्षय होने से अत्यन्त निर्मल अविनाशी यथाख्यात चारित्र के धारक मुनि के क्षीणमोह गुणस्थान होता है।
प्रश्न-वारहवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है ? .
. उत्तर-एक मात्र साता वेदनीय का ही बंध होता है। ___ प्रश्न-बारहवें गुणस्थान में उदय कितनी प्रकृतियों का होता है ? ___ उत्तर--ग्यारहवें गुणस्थान, में जो ५६ प्रकृतियों का उदय होता है। उनमें से व्युच्छित्ति, वज्रनाराच,
और नाराच दो प्रकृतियों के घटाने पर ५७ प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न-बारहवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ? ___ उत्तर--दसवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी वाले की अपेक्षा १०२ प्रकृतियों की सत्ता है, उनमें से व्युच्छित्ति, संज्वलन लोम एक प्रकृति के घटाने पर १०१ प्रकृतियों की सत्ता है।
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जिन सिद्धान्त प्रकति मिलाने से ४२ प्रकृतियों का उदय होता है।
प्रश्न-तेरहवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ?
उत्तर--बारहवें गुणस्थान में जो १०१ प्रकृतियों की सत्ता है उनमें से व्युच्छित्ति, ज्ञानावरण की पांच, अन्तराय की पांच, दर्शनावरण की चार, निद्रा और प्रचला इन १६ प्रकृतियों के घटाने पर शेष ८५ प्रकृतियों
की सत्ता रहती है। • प्रश्न-प्रयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान का
क्या स्वरूप है, और वह किसके होता है ? ___ उत्तर--अरहंत परमेष्ठी, वचन काय योग से रहित होने से अशरीरी होजाते हैं अर्थात् शरीर परमाणु आपसे आप विलय हो जाता है, जहाँ मात्र आयु प्राण है, ऐसे अरहंत परमेष्ठी को चौदहवाँ गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ,ल, इन पांच स्वरों के उच्चारण करने बराबर है । अपने गुणस्थान के काल के द्विचरम समय में सत्ता की ८५ प्रकृतियों में से ७२ प्रकतियों का और चरम समय में १३ प्रकृतियों का नाश कर अरहंत परमेष्ठी में सिद्ध पर्याय प्रगट हो जाती है। ___ प्रश्न–चौदहवें गुणस्थान में बंध कितनी प्रकृतियों का होता है ?
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जिन सिन्धान्त ]
प्रश्न-चौदहवें गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है ? ___ उत्तर--तेरहवें गुणस्थान की तरह इस गुणस्थान में भो ८५ प्रकृतियों की सत्ता रहती है, परन्तु द्विचरम समय में ७२ प्रकृतियों को और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों की सत्ता नष्ट हो जाती है, तब कर्म का अत्यन्त अभाव हो से जाने अरहंत परमेष्ठी में सिद्ध पोय प्रगट हो जाती है। इति जिन सिद्धान्त शास्त्रमध्ये गुणस्थानाधिकार सम्पूर्ण हुआ ।
* समाप्त
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हमाग- प्रकाशन
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