________________
१७०
[ जिन सिद्धान्त
जीव पुण्यभाव में ही धर्म मानता हूँ । कर्म के उदय में जो जो अवस्था होती है उसको अपनी ही मानता है, परन्तु वे अवस्था अजीव तत्त्व की हैं और में जीव तत्र हूँ ऐसी श्रद्धा उसको होती ही नहीं है ।
प्रश्न - मिथ्याच्च गुणस्थान में किन किन प्रकृतियों का बंध होता है ?
उत्तर - कर्म की १४८ प्रकृतियों में से स्पर्शादिक २० प्रकृतियों का अभेदविचित्ता से स्पर्शादिक ४ में और घन और संघात ५ का अभेद विवक्षा से पांच शरीरों में अन्तर्भाव होता है । इसी कारण भेदविवक्षा से १४८ प्रकृतियों और अमेदविवक्षा से १२२ प्रकृतियाँ हैं । - सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् - प्रकृति इन दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता है; क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता सम्यक्त्व परिणामों से मिथ्याच प्रकृति के तीन खंड करने से होती है । इसी कारण अनादि मिथ्यादृष्टि जीव की बंघ योग्य प्रकृति १२० और सच्चयोग्य प्रकृति १४६ हैं । मिथ्याच्च गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति, आहारक शरीर और श्राहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि इन तीन प्रकृतियों का बंध सम्यकदृष्टि के ही होता है, इसलिये इस गुणस्थान में