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११२ । [जिन सिद्धान्त
उत्तर-आगम का वाक्य है । वह समयसार बंध अधिकार गाथा २६५ में इस प्रकार है:वत्यु पड्डुच्च जं पुण अच्छवसाणं तु होइ जीवाणं ।
ण य बत्युयो दु बंधो अच्छवसाणेण बंधोत्थि ॥
अर्थः-जीवों के जो भाव हैं वे वस्तु को अवलम्बन करके होते हैं तथा वस्तु से बन्ध नहीं है भाव कर ही बंध होता है । यह गाथा भाव उदीरण की दिखलाई है एवं कलशा नं० १५१ में भी भाव उदीरणा का कयन किया है जैसे "हे जानी ! तुझको कुछ भी कर्म कभी नहीं करना योग्य है तो भी तू कहता है कि पर द्रव्य मेरा तो कदाचित् भी नहीं है, और मैं भोगता हूँ। तब प्राचार्य कहते हैं कि बड़ा खेद है कि जो तेरा नहीं उसे तू भोगता है। इस तरह से तो तू खोटा खाने वाला है । हे भाई! जो तू कहें कि परद्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता ऐसा मिटान्त में कहा है इमलिये भोगता हूँ, उम जगह नेरे क्या भोगने की इच्छा है ? तू नान रूप हुश्रा अपने खम्प में निवास करे तो बंध नहीं है और जो भोगने की हुन्छा कग्गा नो तू पाए अपगी हुआ, तर अपने यपगध से निपम में बंध को प्राप्त होगा" यह कथन भारउदीमा पाई।