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जिन सिद्धान्त ] कर्म के उदय से यह जीव अज्ञानी होता है, ऐसा जानना चाहिए । आत्मा के चारित्र का प्रतिबंधक मोहनीय नामा कर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, उस. मोहनीय नामा कर्म के उदय से यह जीव अचारित्री अर्थात् रागी द्वषी हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए । ___ इन तीन गाथाओं में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दिखलाया है। कर्म का उदय निमित्त है और तद्प आत्मा की अवस्था होना नैमित्तिक है । और भी समयसार वध अधिकार गाथा नं० २७८-२७६ देखिये, इस प्रकार है:जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । ____ रंगज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहि दब्वेहि । एव णाणी सुद्धो ण सर्व परिणमइ रायमाईहिं ।
राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।।
अर्थः-जैसे स्फटिकमणि आप स्वच्छ है, वह आप से श्राप ललाई आदि रंग रूप नहीं परिणमती परन्तु वह स्फटिकमणि दूसरे लाल काले आदि द्रव्यों से ललाई आदि रंग स्वरूप परिणमन जाती है, इसी प्रकार आत्मा आप शुद्ध है, वह स्वयं रागादिक भावों से नहीं परिणमनता, परन्तु अन्य मोहादिक कर्म के निमित्त से रागादिक रूप परिणमन जाता है । यह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध