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[जिन सिद्धान्त दूसरे को वेटे हुए दूने दुने विस्तारवाले मध्यलोक के अन्तपर्यन्त द्वीप और समुद्र है । पांच मेरु सम्बन्धी, पांच भरत, पांच ऐरावत देवकुरु और रकुरु को छोडकर पांच विदेह, इस प्रकार सब मिलकर १५ कर्मभूमि है । पांच हेमवत, पांच हिरण्यवत इन दश क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि है । पांच हरि, पांच रम्पक, इन दश क्षत्रों में मध्यमभोग भूमि है और पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु दश क्षेत्रों में उत्तम भोगभूमि है। जहां पर असी, मसी, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन पट् कर्मों की प्रवृत्ति हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। जहां इनकी प्रवृति न हो उस को भोगभूमि कहते हैं । मनुष्य क्षेत्र से बाहर के समस्त द्वीपों में जघन्य भोगभूमि जैसी रचना है किन्तु अन्तिम स्वयभरमण द्वीप के उत्तराद्ध में तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में और चारों कोनों की पृथ्वियों में कर्मभूमि जैसी रचना है । लवण समुद्र, और कालोदधि समुद्र में ६६ अन्तर्वीप हैं, जिनमें कुभोगभूमि की रचना है । वहां मनुष्य ही रहते हैं, उन मनुष्यों की प्राकृतियां नाना प्रकार की कुत्सित होती हैं।
जिन सिद्धान्त शास्त्र विप व्यवहार जीय अधिकार