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जिन सिद्धान्त ]
उत्तर – संज्वलन और नोकपाय के मन्द उदय होने से प्रमाद रहित संयम भाव होता है इस कारण इस गुणस्थानवत सुनि को अप्रमत विरत कहते हैं ।
प्रश्न- श्रप्रमत्त गुणस्थान के कितने भेद हैं ? उत्तर - दो भेद हैं- १ स्वस्थान श्रप्रमत्त विरत. २ सातिशय अप्रमत्त विरत ।
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प्रश्न – स्वस्थान श्रप्रमत्तविरत किसे कहते हैं ?
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उत्तर - जो असंख्यात बार छड़े से सातवें में और सातव से छड़ गुणस्थान में आवे जावे उसको स्वस्थान प्रमत्तकहते हैं ?
प्रश्न - सातिशय श्रप्रमत्तविरत किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो श्रेणी चढ़ने के सन्मुख हो, उसे सातिशय अप्रमतविरत कहते हैं ।
प्रश्न - श्रेणी चढ़ने का पात्र कौन है ?
उत्तर - क्षायिक सम्यग्दृष्टि और द्वितीयोपशम सम्यदृष्टि ही श्रेणी चढ़ते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व वाला तथा क्षयोपशमिक सम्यक्त्व चाला श्रेणी नहीं चढ़ सकता है । प्रथमोपशम सम्यक्व वाला प्रथमोपशम सम्यक्त्व को छोड़कर क्षयोपशमिक सम्यग्दृष्टि होकर, प्रथम ही अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माय, लोम का विसंयोजन करके दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम करके