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[ जिन सिद्धान्त
होता है इत्यादि । समयसार कर्ता
कर्म अधिकार
गाथा १३०- १३१ में लिखा है कि "यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावच्चे सत्यपि कारणानुविधायित्वात्कार्याणां इति" अर्थात् निश्चयकर पुद्गल द्रव्य के स्वयं परिणाम स्वभाव रूप होने पर भी जैसा पुद्गल कारण हो उस स्वरूप कार्य होता है यह प्रसिद्ध है उसी तरह जीव के स्वयं परिणाम भाव रूप होने पर भी जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। इस न्याय से सिद्ध हुआ कि कारण के अनुकूल कार्य होता है । अर्थात् प्रथम निमित तद् पश्चात् नैमित्तिक अवस्था होती है । उसी प्रकार समयसार की गाथा नं० ३२ की टीका गाथा नं० ८६ की टोका आदि अनेक जगहों पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दिखलाया है ।
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प्रश्न- यदि निमित्त के अनुकूल ही आत्मा का भाव हो तो मोक्ष कैसे हो सकता है ?
उत्तर - दयिक भाव के साथ में कर्म का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । दयिक भाव में आत्मा पराधीन ही है परन्तु औदयिक भाव के साथ में आत्मा में एक दूसरा उदीरणा भाव होता है । जिस भाव का बुद्धिपूर्वक क्षयोपशम ज्ञान में ही होता है उस भाव में यात्मा स्वतंत्र है अर्थात् उदीरणा में आत्मा पुरुषार्थ कर सकता है ।