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जिन सिद्धान्त ]
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(१०) अवधिदर्शन (११) लाभान्तराय ( १२ ) भोगअन्तराय (१३) उपभोगन्तराय (१४) दानान्तराय (१५) वीर्यान्तराय (१६) सम्यक्त्व (१७) संयमासंयम (१८) असंयम |
प्रश्न - - तयोपशम भाव में एक ही साथ में शुद्ध तथा अशुद्ध पारणाम कैसे रहते होंगे १ कोई श्रागम वाक्य है ?
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उत्तर -- समयसार ग्रंथ के पुण्यपाप अधिकार में कलश ११० में लिखा है कियावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ न सा कमज्ञानसमुच्चयोपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः ।
किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तत्
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त ं स्वतः । अर्थ -- जब तक कर्म का उदय है और ज्ञान की सम्यक् कर्मविरति नहीं है तबतक कर्म और ज्ञान दोनों का इकट्ठापन भी कहा गया है, तब तक इसमें कुछ हानि भी नहीं है । यहाँ पर यह विशेषता है कि इस आत्मा में कर्म के उदय की जर्बदस्ती से श्रात्मा के वंश के बिना कर्म उदय होता है वह तो बंध के ही लिये है और मोक्ष के लिये तो एक परम ज्ञान ही है । वह ज्ञान कर्म से आप ही रहित है, कर्म के करने में अपने स्वामीपने रूप