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नहीं है। तब क्या श्रद्धानाम का में कूटस्थ रहेगा ? कभी नहीं, कर्म के उदय विना स्वयं पारणामिक मात्र से मिथ्यात्
गुण उस गुण-स्थान श्रद्धानाम के गुण में
रूप परिणमन किया है ।
[ जिन सिद्धान्त
मात्र से परिणमन किया है ?
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प्रश्न -- और कोई गुणस्थान में जीव ने पारणामिक
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उत्तर - किया है, जैसे क्षयोपशम सम्पकदृष्टि श्रनन्तानुबंधी कर्मप्रकृति का विसंयोजन कर उसी परमाणु को श्रप्रत्याख्यान रूप बना देता है बाद में जब वही जीव गिरकर मित्यात्व गुणस्थान में जाता है तब वहाँ अनन्तानुबंधी प्रकृति का उदय नहीं होता है । त ऐसी व्यवस्था में चारित्र नाम का गुण पारणामिक मात्र से अनन्तानुबंधी रूप परिणमन करता है । उसी प्रकार ग्यारहवें गुणस्थान में भी जीव पारणामिक भाव से ही गिरता है ।
प्रश्न- दस प्राण को शुद्ध पारणामिक मान माना हैं, टीक हैं ?
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उत्तर - अरेरे! ये तो महान गलती है, क्योंकि वह पहल की रचना है उसका परिणमन पारगामिक भाव से कैसे हो सकता है ? यह तो श्रमिक भार है । कर्म के उदय के नुन जीरों को नार छः आदि