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बोर सेवा मन्दिर का प्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर') ३७: कि०१
जनवरी-मार्च १५४
इस अंक में
विषय १. मुनिवर-स्तुति २. महाकवि स्वयंभू विषयक शोध-खोज
-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ३. 'बाही स्तोत्र' एक समस्या-पूर्ति
-श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ४ गुना में संरक्षित 'खो' की जैन प्रतिमाएं
-श्री नरेशकुमार पाठक, ग्वालियर ५. बिजौलिया पभिलेख (वि. सं. १२२६) में
जैन दर्शन विषयक सिद्धान्तो का उल्लेख
-श्री कृष्ण गोपाल शर्मा, जयपुर ६. शान्तिनाष पुराण का काव्यात्मक वैभव
• मृदुलकुमारी शर्मा ७. हमारा व्यवहारिक आचार-श्री बाबूलाल जैन १७ ८. लोक-प्रतिष्ठा और बात्म-प्रशंसा १. ताकि सनद रहे और काम आए १०. मूल-चन संस्कृति : 'अपरिग्रह' -श्री पाचन शास्त्री
२४ ११. जरा-सोचिए-संपादक १२. श्रद्धांजलि-डा.ज्योति प्रसाद जैन आवरण :२ १३. साहित्य-समीक्षा
२०६
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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स्मरणाञ्जलि प्रस्तुत 'किरण, के साथ 'अनेकान्त' अपने ३७ वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इसकी सफलता में हमारे विद्वान लेखकों एवं प्रबुद्ध पाठकों का जो सराहनीय योगदान रहा है उसके लिए हम हवय भारी है। इस अवसर पर हम मनेकान्त के प्रवर्तक, निर्माता एवं सम्सवक, सरकारिता मुमलि प. प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'गवीर' का कृतज्ञतापूर्वक साबर स्मरण करते हैं। गत २२ दिसम्बर १९८३ को उनकी १५वीं पुण्य तिथि पी, और उसके कई दिन पूर्व, मार्गशीर्ष शु० ११ वि. सं. २०४० (१५ विस०, १९८३ ई०)को उनकी १०६ वीं जन्मतिथि थी। उस निःस्वार्थ एवं समपित संस्कृति-सेवीके सजीव स्मारक 'अनेकान्त' जैसी त्रैमासिक शोधपत्रिका, दिल्ली का बोरसेवा मन्दिर संस्थान एवं भवन, एटा से संचालित उनकी शेष निजी सम्पत्ति का बा० जुगलकिशोर मुल्तार 'युगवीर' ट्रस्ट, जिससे उसके सुयोग्य मन्त्री डा. दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य उपयोगी साहित्य का प्रकाशन करते रहते हैं। और सरसावा में मुख्तार सा.का विशाल वोर सेवा मन्दिर भवन जो समाज के ही उपयोग में माता है। जिसमें विद्यालय आदि चलते हैं । अनेकान्त एवं वीर सेवा मंदिर परिवार की मोर से हम उस महामना की स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
डा. ज्योति प्रसाद जैन
प्रकाशन स्थान-पीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-बीर सेबा मंदिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जैन, जनपथ सेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक संपादक-श्री पपचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१ परियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-चीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
मरलमान, खद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी निवाबनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
रलायवारीन
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ओम् अर्हम्
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वष ३७ किरण १
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५१०, वि० स०२०४०
जनवरी-माचं
१९८४
मुनिवर-स्तुति
कबधौं मिले मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करिहैं भव-वधि पारा हो। भोग उदार जोग जिन लोनो, छांडि परिग्रह भारा हो। इन्द्रिय-ममन नमन मद कोनो, विषय कषाय निवारा हो। कंचन-कांद बराबर जिनके, निन्दक बंदर सारा हो । दुधर-तप तपि सम्यक निज घर, मन-वच-तन कर धारा हो। प्रीषम गिरि हिम सरिता तीरें, पावस तलतल ठारा हो। करुणा भीन, चीन त्रस-थावर, ईर्या पंथ समारा हो । मार मार, व्रतधार शोल दृढ़, मोह महाबल टारा हो। माम छमास उपास, बास बन, प्रासुक करत प्रहारा हो। भारत रौद्र लेश नहिं जिनके, धरम शुकल चित धारा हो। ध्यानारूढ़ गूढ़ निज प्रातम, शुध उपयोग विचारा हो॥ माप तरहि पौरन को तारहि, भवजलसिंधु प्रपारा हो। 'दौलत' ऐसे जैन जतिन को, मितप्रति धोक हमारा हो।
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महाकवि स्वयंभू विषयक शोध-खोज
- विद्यावारिधि डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन अपभ्रंश भापा के सुप्रसिद्ध महाकवि स्वयंभू के विषय जनरल, भा० १ सन १९३५ मे प्रकाशित अपने लेख स्वयंभू में गत साधिक साठ वर्षों में पर्याप्त लिखा गया है । उक्त एण्ड हिज टू पौइम्स इन अपभ्रंश' मे कविवर और ऊहापोह एवं शोध खोज से तद्विषयक अध्ययन की प्रगति उनके दोनों महाकाव्यो का परिचय दिया, तथा डा. का परिचय प्राप्त होता है और प्रतीत होता है कि अभी एच. डी. वेलकर ने कवि के छंद ग्रन्थ का अन्वेषण भी स्वयभू विषयक अध्ययन अपूर्ण हो है।
करके उसका उपलभ्य भाग रायल एशियाटिक सोसाइटी कविवर का सर्व प्रसिद्ध महाकाव्य 'पउमचरिउ को बम्बई शाखा के जर्नल (नई सीरीज), भा-२, सन अपरनाम 'रामायण' है जिसके बल पर उनकी गणना मात्र १९३५-३६, में प्रकाशित कराया। प्रो० मधुसूदन मोदी अपभ्रश भाषा के ही नही, समस्त भारतीय साहित्य के का गुजराती लेख 'अपभ्र श कवियो चतुर्मुख स्वयभू अने सर्वोपरि महाकवियो में की जाती है। गोस्वामी तुलसीदास त्रिभुवन स्वयभू' १९४० मे भारतीय विद्या' नामक से सैकड़ो वर्ष पहले से, तथा स्वय उनके समय मे भी उत्तर पत्रिका के वर्ष १ अक २-३ मे प्रकाशित हुआ। उन्होने भारत में स्वयंभू रामायण का प्रभूत प्रचार था। इस ग्रन्थ चतुर्मुख और स्वयंभू को अभिन्न समझने की भूल की । पं. की अनेक प्रतिया १५-१६वी शती ई० की ग्वालियर नाथूराम जी प्रेमी ने भारतीय विद्या (व. २ अ-१) मे आदि के शास्त्र भंडारो में प्राप्त हुई है। कवि का दूसरा प्रकाशित अपने लेख तथा १९४२ मे प्रकाशित अपनी महाकाव्य 'रिट्ठणे मिचरिउ' अपरनाम 'हरिवश पुराण' पुस्तक 'जैन साहित्य और इतिहास' के प्रथम संस्करण के है, तीसरी कृति उनकी पद्धडियावद्ध 'पंचमीचरिउ' (नाग- महाकवि स्वयभू और त्रिभुवनस्वयंभू' शीर्षक निबध (पृ. कुमार चरित) हैं जो अद्यावधि अनुपलब्ध है । स्वयभू ३७०-४६५) मे मोदी जी की उक्त भूल का निरसन किया छन्द नाम से उन्होने अप्रभंश भाषा का एक छन्द शास्त्र तथा पिता-पुत्र कविद्वय के संवन्ध मे विस्तृत ऊहापंह की भी रचा था और एक अपभ्र श व्याकरण (स्वयभू व्या- और दोनो महाकाव्यो के आद्य एव अन्त्य पाठ भी उद्धृत करण) भी रचा बताया जाता है। कई अन्य छोटी-छोटी किए। महापडित राहुल सास्कृत्यायन ने १९१ मे रचनाओं के उल्लेख भी मिलते है यथा 'शुद्धय चरित' या प्रकाशित अपने प्रथ हिन्दी काव्यधारा' में स्वयंभू रामायण 'सुब्वय चरित', एक स्तोत्र, आदि।
के कई काव्यात्मक अवतरण उदघत करते हुए प्रथम श्रेणी ___आधुनिक युग में १८२० ई. के लगभग डा०पी० के महाकवि के रूप में उनका समुचित मूल्याकन किया डी० गुणे ने कवि स्वयभू की खोज सर्व प्रथम की थी। और यह भी इंगित किया कि गोस्वामी तुलसीदास के उनके उक्त लघु परिचय के आधार से मुनिजिनविजय जी रामचरितमानस पर स्वयभू रामायण का प्रभूत एव प्रत्यक्ष ने इन कविवर की ओर विद्वतगण का ध्यान आकृष्ट किया प्रभाव रहा। प० परशुराम चतुर्षेदी और डा. त्रिलोक और पं० नाथूराम प्रेमी ने भी जुलाई १९२३ के 'जैन नारायण ने भी अपने लेखो आदि में स्वयभ् तथा उनके साहित्य समालोचक' में प्रकाशित अपने लेख 'महाकवि महाकाव्य की चर्चा की । किन्तु राहुल जी तथा उक्त पुष्पदंत और उनका महापुराण' में स्वयंभू के पउमचरिउ दोनों विद्वानों की कई प्रान्त धारणाएं भी रहीं। की चर्चा की।
१९५२-१९६२ में डा. एच. सी. भायाणी मे तीन तदनन्तर प्रो० हीरालाल जैन ने नागपुर यूनीवर्सिटी हस्तलिखित प्रतियों के आधार से स्वयंभू के पउमचरित के
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महाकवि स्वयंभू विषयक शोध-खोज
मूलपाठ का अत्युत्तम संपादन करके उसे तीन भागों में भाग १९७० में प्रकाशित हुआ, जिसके प्रारम्भ में सिंधी जैन सीरीज (न. ३४-३६) के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथमाला के प्रधान सम्पादक द्वय डा. हीरालाल जैन एव कराया। भा. १ व ३ की विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्रस्ताव- डा. ए. एन. उपाध्ये के अंग्रेजी एवं हिन्दी प्रधान नाओं में उन्होने उक्त महाकाव्य का सर्वांग समीक्षात्मक सम्पादकीय मे पुनः इस महाकाव्य तथा उसके रचयिता के अध्ययन प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया-उसके विषय में विचार किया गया है। स्तोत्रों, भाषा, शैली, व्याकरण, छद प्रयोग, विषय वस्तु उपरोक्त विवेचनो के अतिरिक्त पार्श्वनाथ विद्याआदि पर प्रकाश डाला और स्वयं महाकवि के व्यक्तित्व, श्रम शोधसंस्थान वाराणसी से प्रकाशित "जैन साहित्य कृतित्व, उपलब्धियो, तिथि युग, आदि का भी विवेचन का वृहद इतिहास" (खड ६), डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री किया । डा. ज्योति प्रसाद जैन ने १९५५-५६ में अपने कृत 'अपभ्रश भाषा और साहित्य', डा. नेमिचन्द्र शोध प्रबध 'जैना सोर्सेज आफ दी हिस्टरी आफ एन्सेंट ज्योतिषाचार्य कृत 'भगवान महावीर की आचार्य परम्परा' इण्डिया' मे भी महाकवि स्वयभू का परिचय दिया-इस प्रथ (भाग ४), प० परमानन्द शास्त्री एवं पं. बलभद्र जैन का पुस्तकाकार प्रकाशन १९८४ मे सै० मुन्शीराम मनोहर कत जैन धर्म का प्राचीन टी
कृत 'जैन धर्म का प्राचीन इतिहास' (माग २) तथा अन्य लाल नई दिल्ली द्वारा हुआ। १६५६ मे ही प० नाथूराम अन्य विद्वानो के फुटकर लेखो आदि मे भी महाकवि प्रेमी के जैन साहित्य और इतिहाम के द्वितीय सस्करण के स्वयंभू की चर्चा या उल्लेख हुए है । इस प्रकार गत ६०. (पृ. १९६-२१६ पर) 'स्वयभू और त्रिभुवन स्वयभू' लेख ६५ वर्षों मे अपभ्रश भाषा एव माहित्य के महाकवि एवं मे उनके पूर्वोक्त लेख का सशोधित रूप प्रकट हुभा और आचार्य स्वयभूदेव के सम्बन्ध मे बहुत कुछ अध्ययन-विवेउसी वर्ष प्रकाशित अपने शोध प्रबध 'अपभ्र श साहित्य' चन एव चर्चा हुई है, तथापि अभी और बहुत कुछ किया पृ.५१ आदि मे डा० एच कोछड़ ने स्वयभू तथा उनके जाना शेष है-उपरोक्त अध्ययन अभी भी पूर्ण, सर्वांग काव्यों की संक्षिप्त विवेचना की।
नथा सर्वथा सनोपजनक नही है । १९५७ मे भारत्तीय ज्ञानपीठ द्वारा स्वयभू के पउम- महाकवि की अधनाज्ञान सात कृतियों मे से तीन हीचरिउ का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। इसमे डा० भायाणी पउमचरिउ, अरिठ्ठणमिचरिउ और स्वयभूछद ही उपद्वारा सुसंपादित मूल पाठ अपनाया गया और प्रो० देवेन्द्र लब्ध है। इनमे से भी अभी तक टा. वेलणकार द्वारा कुमार जैन साहित्याचार्य द्वारा उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत स्वयम छद का और डा० भायाणी द्वारा पउमचरिउ किया गया । इस भाग के प्रारम्भ मे प्रधान सम्पादक के (रामायण) का ही भाषाशास्त्रीय एव काव्यशास्त्रीय रूप में डा. हीरालाल जैन एवं डा. ए. एन. उपाध्ये के समीक्षात्मक अध्ययन हुआ है- उनसे आगे बढकर और सक्षिप्त प्राथमिक वक्तव्य के अनन्तर विद्वान हिन्दी
विशेष अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। पउमअनुवादक ने 'दो शब्द' तथा महाकवि स्वयभू' शीर्षकों मे चरिउ की भाति अरिठ्ठणेमिचरिउ (हरिवश पुराण) का महाकवि के व्यकतित्व एव कृतित्व पर प्रकाश डाला है। भी विशाध्ययनयक सुसपादित सस्करण प्रकाशित होना वीर सेवा मन्दिर दिल्ली से १९६३ मे प्रकाशित जैन ग्रंथ शेष है। पचमी चरिउ (नागकुमार चरित), सुब्बयचरिउ प्रशस्ति सग्रह भा० २ की भूमिका मे प. परमानन्द (?). स्वयम व्याकरण आदि अन्य ज्ञात रचनाओ की शास्त्री ने भी कबि और उसकी कृतियो का परिचय तथा शारत्र भण्डारो मे खोज की जाने तथा उद्धार किये जाने अपनी तद्विषयक धाराणाएं दी हैं-पउमचरिउ की जिस का कार्य शेष है। खोज करने से सम्भव है कि उनकी प्रति का उन्होने उपयोग किया वह १९५७ ई. की अर्थात कोई अन्य रचना या रचनाये भी प्राप्त हो जायें। स्वयभू बैसाख शुक्ल १५ सामवार वि. स. १५१४ की थी। इस की प्रतिमा के जिन आयामो-काव्यकौशल, भाषा ने पुण्य, बीच भारतीय ज्ञानपीठ से डा. देवेन्द्रकुमार जैन द्वारा वैदुष्य, धर्मज्ञता, शास्त्रज्ञता, छदशास्त्रज्ञता व्याकरण अनुदित भाग क्रमशः निकलते रहे। पांचवा (तिम) पांडित्य आदि का इंगित मिलता है उन सबकी सम्यक
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४ बर्ष ३७,कि..
बनेकान्त गवेषणा करके कवि के व्यक्तित्व को उजागर करना, की ही एक शाखा थी और अन्ततः उसी में अंतर्भूत हो भारतीय साहित्य में उनके योगदान का मूल्यांकन और गया। भारतीय ही नहीं, विश्व के सार्वकालीन महाकवियों में कवि के पिता का नाम मारुतदेव था, जो शायद उनका स्थान निर्धारण करना, ऐसी दिशाएं हैं जिनमें स्वयं भी अपभ्रंश भाषा के एक सुकवि थे। कवि की अभी बहुत कुछ किया जा सकता है। उनके सम्पूर्ण जननी का नाम पद्मिनी था। कवि की तीन पत्नियां थीसाहित्य का तलस्पर्शी सर्वांग सांस्कृतिक अध्ययन अपेक्षित आइन्चंबा आदित्याम्बा), साभिमब्बा या अभिअब्बा है। उनकी कृतियों के स्तोत्रों तथा पूर्वापर प्रभावो पर भी (अमृताम्बा) और सुअब्बा (श्रुताम्बा)-ये तीनों ही प्रकाश पड़ना है।
विदुषी थी और कवि के लेखनकार्य मे योग देती थी। ___ अन्य अनेक पुरातन आचार्यों, मनीषियों, महाकवियो स्वयंभू की महासत्वघरिणी धर्मपत्नी सामिअब्बा तो घ्र वआदि की भांति महाकवि स्वयभू के विषय मे जो कुछ राज की पुत्रियों की शिक्षिका भी थी। कवि की संभवतया वैयक्तिक तथ्य उपलब्ध हैं, वे अत्यल्प हैं । परन्तु जैसा कि एकाधिक संतानें थीं, किन्तु उनके केवल एक सुपुत्र त्रिभुआंग्ल महाकवि शेक्सपियर के एक प्रौढ अध्येता अल्फ्रेड बन स्वयभू के विषय में ही कुछ जानकारी है। उसने आस्टिन का कहना है कि 'बहुधा यह कहा जाता है कि पिता की कृतियों के कच्चे आलेखों को सुसंपादित करके व्यक्ति विशेष के रूप में हम शेक्सपियर के विषय मे कुछ तथा उनमें पूरक अश, अन्य प्रशस्तिया आदि जोड़कर भी नहीं जानते, किन्तु मुझे तो यह प्रतीत होता है जितना उनका सरक्षण एवं प्रकाशन किया। उसने अपने बदइय, अधिक हम उस व्यक्ति के विषय मे जानते हैं, किसी अन्य गोविन्द, श्रीपाल, मदन आदि कई प्रश्रयदाताओं एवं प्रेरको व्यक्ति के विषय में नही जानते हैं-यही बात महाकवि के नाम भी दिए हैं। स्वयं कवि स्वयंभू ने अपने आश्रयस्वयंभ पर लागू होती है, किन्तु उसके पाडित्य का उतना दाता के रूप मे रयडा धनञ्जय और धवल इय या घ्र ब. विविध एवं विस्तृत अध्ययन तो हो ले जितना कि गत राज धवल इय के नाम प्रकट किए है।। जगभग ४०० वर्ष में शेक्सपियर का हो सका है। ऐसा हो कवि ने अपने पूर्ववर्ती अनेक कवियो एव साहित्यकारो जाने पर स्वयम के भी व्यक्तित्व, स्वभाव, चारित्र एव का नामोल्लेख किया है। पउमचरिउ की सूची में अतिम गुण-दोषों को बहुत कुछ उजागर किया जा सकता है। नाम अनुत्तरवादी कीर्तिधर और रविषेण के हैं-इन
कवि की प्राप्त कृतियों में उनका नाम स्वयभू या दोनो के पद्मपुराणों को ही स्वयभू ने अपनी रामायण का स्वयंभूदेव प्राप्त होता है। यह उनका मूल नाम था या मूलाधार बनाया प्रतीत होता है। संस्कृत पद्मपुराण के साहित्यिक, कहा नहीं जा सकता। कविराय, कविराज- कर्ता रविषेण (६७६ ई.) ने भी अनुत्तरवादी कीर्तिधर चक्रवर्ती, कविराजधवल, छंदचूडामणि, जयपरिवेश तथा के पुराण को अपना आधार सूचित किया है। अरिट्ठणेमि विजयप्रेषित उनके विरुद ये उपाधियां रही प्रतीत होती चरिउ में स्वयभू ने महाकवि चतुर्मुख और उनके पदाहैं। स्वय के कथनानुसार वह शरीर के दुबले-पतले, ऊंचे डियाबद्ध हरिवशपुराण को अपना पूर्ववर्ती सूचित किया कद के थे, उनकी नाक चपटी थी और दांत विरल थे। है। स्वय स्वयभू का सर्वप्रथम स्पष्ट नामोल्लेख पुष्पदत ऐसा लगता है कि काव्यों की रचना के समय वह प्रौढ़ के अपभ्र श महापुराण (९५६ ई०) में प्राप्त होता है। अनुभववृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध थे। उनकी जाति, कुल, बंश, इस प्रकार कवि के समय की पूर्वावधि ६७६ ई० गोत्र आदि का कुछ पता नहीं है, सम्भवतया वह ब्राह्मण और उत्तरावधि १५६ ई. स्थिर होती है। इसी आधार
धर्मतः वह दिगम्बर मतावलम्बी थे। पुष्पदताय महा- पर स्व.प्रेमी जी ने स्वयं का समय ६७६ ई. और पुराण के 'स्वयंभू' शब्द के टिप्पण में उन्हें 'आपुलीसघीय'
७८३ ई० के बीच अनुमान किया था, डा. देवेन्द्र कुमार कहा गया है जिससे अनुमान लगाया गया । कि उनका ने भी इसे मान्य किया किन्तु यह हेत कि स्वयंभू ने जिनसम्बन्ध यापनीय संघ से था यह संघ दिगम्बर परम्परा
(शेष पृ०६ पर)
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ब्राह्मी स्तोत एक समस्या पूर्ति
मेरे हस्तलिखित ग्रन्थ सग्रह में एक छोटी-सी पुस्तिका हस्तलिखित है जिसमें केवल चारह पर है प्रत्येक पत्र की लं० चौ० १४ ।। सें० मी० X ७।। से० मी० है । प्रत्येक पत्र में पांच-पांच पक्तिया है तथा प्रत्येक पंक्ति में तीस-२ अक्षर हैं। प्रति अत्यधिक सुवाक्य सुन्दर शब्दो मे अकित है इसमें केवल ४४ ला संस्कृत छन्द है। इसके रचयिता श्री गुरु सेमकर्ण के शिष्य श्री धर्मसिंह हैं जिन रत्नकोव पृष्ठ २८९ पर इसका उल्लेख है, पर रचयिता का विशिष्ट परिचय उपलब्ध नही होता है ।
इस ब्राह्मी स्तोत्र की एक खास विशेषता है इसीलिए यह लेख लिखा जा रहा है। यह भगवती सरस्वती या जिनवाणी का वर्णन करने वाला स्तोत्र है और केवल स्तुतिपरक ही नही है अपितु जहा जिनवाणी की स्तुति है यहां भगवान आदिनाथ की स्तुति से सबंधित मुनि मानतुंगाचार्यकृत भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक छद की अतिम पक्ति समाविष्ट कर तीन पंक्तियां सरस्वती की स्तुति की मिलाकर पूरा जिनवाणी का स्तवन किया गया है। इस तरह वाग्देवी की स्तुति के ४४ छद प्रस्तुत कर रहा हू ।
एक समय था जब समस्यापूर्ति का प्रचलन हिन्दी, उर्दू, संस्कृत आदि सभी भाषाओ में हुआ करता था और यह कवि विचक्षण प्रतिभा के धनी कविगण ही कर पाते थे । धारानरेश महाराज भोज तो अपने कवियो को स्वय समस्यात्मक पक्तियां देकर उनकी पूर्ति कराते थे तथा उत्तम समस्यापूर्ति रूपक रचना पर लाख-लाख मुद्राए दान में समर्पित कर दिया करते थे। यद्यपि 'लक्षदों की उक्ति में अतिशयोक्ति भले ही हों फिर भी समस्यापूर्ति का संचलन विभिन्न भाषाओ मे विपुलता से रहा है। इसी तरह का एक महाकाव्य "पाश्वभ्युदय" जिसे श्री जिनसेनाचार्य महाराज ने महाकवि कालिदास के मेघदूत की एक पंक्ति लेकर शेष तीन पंक्तियां अपनी रचकर
D श्री कुम्हनलाल जैन प्रिन्सिपल
पार्श्वप्रभु का चरित्र वर्णन किया है, कितनी महान प्रतिभा थी उनमे । इसी तरह प० लालारामजी शास्त्री ने भक्तामर स्तोत्र' के चरणों को लेकर २०४ श्लोकों की रचना "शतद्वयी' के नाम से की थी। इसी तरह "प्राणप्रिय" नामक काव्य भी राजुल और नेमिप्रभु का वर्णन करने वाली समस्यापूर्ति रूपक रचना उपलब्ध होती है ।
जैन साहित्य में उमास्वामी और मानतुंगाचार्य दो ही ऐसे निविवाद आचार्य हुए है जिन्हें दि० और १० दोनों ही सम्प्रदाय बडी श्रद्धा और आदर के साथ पूजते हैं दोनो की कृतिया तत्वार्थ सूत्र और भक्तामर स्तोत्र बड़े भक्ति भाव से पढे और बाचे जाते हैं तथा उनकी आराधना और स्वाध्याय होता है। यह बात अलग है कि आगे चलकर कुछ विद्वानो ने दुराग्रह वश इनमें हेराफेरी कर कुछ कमी बढ कर दिया जिसका उल्लेख करना यहां अप्रासनिक होगा इस विवाद के लिए अनेकान्त वर्ष २ किरण १, पृ० ६६ पर तथा स्व० डा० नेमीचन्द्र जी ज्योतिषा चार्य कृत 'तीर्थंकर महावीर और उनकी परम्परा' को विस्तार से देखे ।
यहां तो मेरा मूल उद्देश्य केवल इस "ब्राह्मी स्तोष" शीर्षक श्रेष्ठ साहित्यिक कला कृति का रसास्वादन ही पाठको को कराना मात्र है। यदि भविष्य मे आवश्यकता हुईं तो 'भक्तामर स्तोत्र और तत्त्वार्थसूत्र' पर विस्तार से विशद विवेचन अगले अर्को मे करूंगा। यह साहित्यिक कलाकृति अब तक सर्वथा अप्राप्य, अज्ञात और अप्रकाश्य है, सुधी पाठकगण इन छदों की गरिमा और लालित्य को परखें तथा भावों और विचारों को कवि ने किस खुबसूरती से सजोया एवं पिरोया है वह सर्वथा पठनीय और मननीय है जिसे अविरल रूप से नीचे दे रहा हूं । वाग्देवी की स्तुति कितनी सुन्दर और चमत्कृत है यह पाठक स्वयं ही निर्णय करें ऐसी रचनायें प्रायः बहुत ही कम उपलब्ध होती हैं :
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६ बर्ष ३७, कि०१
अनेकान्त ॥श्री लक्ष्म्यै नमः॥
स्वय्यर्यमत्वषि तथैव नवोदयिन्या श्री गुरु खेमकर्ण के शिष्य धर्मसिंह द्वारा रचित
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजिए
त्वं किं करोषि न शिवेन समान मानान् भक्तामर भ्रमर विभ्रमवैभवेन, लीलायते क्रम सरोज युगों यदीयः ।
त्वत्संस्तवें हृदः षोविदुषोगुरुहः । निधन्नरिष्ट भयभित्तिमभीष्ट भूमा
कि सेवयन्नुपकृते सुकृतकहेतु वालंबनं भवजलेपततां जनानां ॥१॥
भूत्याश्रितं य इहनात्म समं करोति ॥१०
य त्वत्कथामृतरसं सरसं निपीय मत्वैवयं जनयितारमरंस्त हस्ते या सश्रिता विशद वर्णावलिभिः प्रसूता ।
मेधाविनोनवसुधामपिनाद्रियते ।
क्षीरार्णवार्णवुचितं मनसाप्यवाप्य ब्राह्मीमजिह्म गुणगौरव गौरवर्णा स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्र ॥२॥
क्षारं जलं जलनिषेरसितुंक: इच्छेत् ॥११
जैनाः वदति वरदे सति साधुरूपा मातर्मति सतसहस्रमुखी प्रसीदनालं __ मनीरिवनिमयीस्वरभक्तिवृत्ती।
त्वामामनति नितरामितरे भवानी।
सारस्वत मतविभिन्नमनेकमेकं वक्तुं स्तवं सकल शास्त्रजयं भवत्या
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२ मन्यः कः इच्छति जनः सहसागृहीतुं ॥३
मन्येप्रभूत किरण श्रुतदेविदेव्यो त्वां स्तोत्रमंत्रसतिचारु चरित्रपात्र कतुं स्वयं गुणदरी जलविगाह्य।
त्वत्कुंडलौकिल विडंबयतास्तमायां । येतत्रयं विडुपगृहयितुं सुरादि
मूर्तदृशामविषय भविभोश्चपूष्णः को वा तरीतुमलमंबुनिधि भुजाम्यां ॥४
यहासरेभवति पांडपलासकल्पं ॥१३ त्वद्वर्णनावचनमौक्तिक पूर्णमीक्ष
ये व्योमवात जलवह्नि मृदा चयेन मातर्नभक्तिमूढ़ा तव मानस मे।
काय प्रहर्ष विमुखा स्वदृते अंयति । प्रीतिर्जगत्त्रय जनध्वनि सत्यताया
जातानबाम्वजडताद्यगुणानणून्मा नाभ्येति कि निशिशोः परिपालनार्थम् ॥५
कस्तान्निवारयति संचरतोयथेष्टम् ॥१४ वीणास्वनं स्वसहज यदवापमूर्जा
अस्मादृशां वरमवाप्तमिद भवत्या श्रोतुर्न किसुवसुवाक्ययः जल्पितायां ।
सत्यावृतोरु विकृते सरणिनयातं । जातं न कोकिलरवं प्रतिकूलभावं
कि चाद्यमेन्द्रमनघेसति सारदेव तच्चारचान कलिकानिकरकहेतुः ॥६
कि मदाराविशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५ त्वन्नाम मंत्रमिह भारत संभवानां
निर्मायशास्त्रसदनं यतिभिर्जयक भक्त्यैतिभारतविशां जपतामघौघं ।
प्रादुष्कृतः प्रकृतितीव्रतपोमयेन । सद्यक्षयंस्थगितभूवलयांतरोक्ष
उच्छेदिताहउलय सतिगीयसेचेद्सूर्याशुभिन्नमिवशावरमंधकारं ॥७
बोपो परस्त्वमसि नाप जगत्प्रकाशः ॥१६ श्रीहर्षमाधवरभारविकालिदास वाल्मीकि
यस्या अतीन्द्रगिरिरागिरि सप्रसस्यः पाणिनिममट्टमहाकवीनां ।
त्वां सास्वती स्वमतसिद्धमही मदीयः । साम्यं त्वदीय चरणाब्ज समाश्रितो य
ज्योतिष्मती चवचसां तनुतेज आस्ते मुक्ताफलपतिमुपैति ननूबिंदू ॥८
सूर्यातिशामिमहिमासिमुनीनलोके ॥१७ विद्याविसाररसिकमानसलालसाना ,
स्पष्टार्यमत्वषितथैव नवोदयिन्यामरं सुरभिचेतांसि यांति सुदृशां धृतमिष्टमूर्तेः।
सुम्रसमद्विशोमं जेगीयमानरसिक प्रियपंचमेष्टं।
किस
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बाझो स्तोत्र-एक समस्या पूति देवीप्यते सुमुखिते वदनारविदं
हारांतरस्थर्माय कौस्तुभमत्रगात्र विद्योतयज्जगत्पूर्वशशांक विवम् ॥१८
शोभां सहश्रगुणयत्युदयास्तगीय्यों। प्राप्नोत्यमुत्र सकलावयवप्रसंगी
विद्यास्यतस्तव सतीमुपचारिरत्न निस्यति मिदुवदनेशशिरात्मकत्व ।
बिबरबेरिवपयोधरपाश्र्ववर्ती ॥२८ शक्ति जगत्वदधरामृत वर्षणेन
अज्ञानमात्रतिमिर तव वाग्विलासा कार्य कियज्जलपरजलभारनम्रः ॥१६
विद्याबिनोदि विदुषा महता मुखाग्रे। मातस्त्वयी मम मनोरमतेमनीषी
निघ्रति तिग्म किरणा निहितानिरीहे मुग्धांगने नहि तथा नियमाद्भवत्या ।
तुंगोदयादि सिरसीव सहस्ररश्मे ॥२६ त्वस्मिन्नमेय पणरोचिषि रत्नयाती
पृथ्वीतल द्वयमपायि पवित्रयत्वा नवं तु काचशकले किरणाकुलेपि ॥२०
शुद्ध यशोधवलयत्यधुनोर्द्धलोक । चेतस्त्वयी श्रमणपातयते मनस्वी
प्राग्लघयासुमुखतेथ विद महिम्ना स्याद्वादनिम्ननयत. प्रयते यतोऽह ।
मुच्चस्तटं सुरगिरेरिवशातकों ॥३० योग समेत्य नियमव्यवपूवकेन
रोमोम्मिभिर्भुवन मातरिवस्त्रवेणी कश्चिन्मनोहरति नाथ भवांतरेऽपि ॥२१
सग पवित्रयतिलोकमदोगवर्ती । शान तु सम्यगुदयस्य निशत्वमेव
विभ्राजतेभवगती त्रिवलीपथ ते व्यत्यास सशय धियोमुख मनेके।
प्रख्यापयस्त्रिजगतः परमेश्वरत्वं ॥३१ गौरांगि सति बहुभा क्व कुमोकंमन्या
भाष्योवित युक्ति गहनानि च निनिमीशे प्राच्येव विग्जनयति स्फुरवंशुजालं ॥२२
यत्र त्वमेव मति शास्त्र सरोवराणि । यो रोधसीमृतजनी गमयत्युपास्य
जानीमहे खलु सुवर्णमयानि वाक्य जाने स एव सुननुः पृथितः पृथिव्या ।
पमानितत्र विवुधाः परिकल्पयंति ॥३२ पूर्व त्वयादिपुरुष सदयोस्ति साध्वी
प्राग्वंभव विजयतेनयथेतरम्या नान्यः शिवशिवपदस्यमुनीन्द्रपंया ॥२३
ब्राह्मी प्रकाम रचना रुचिर तथाते । दिव्यद्दया निलयमुन्मुवि दक्षिपद्म
ताडकयोस्तवगभस्ति रतीन्दुभान्वोपुण्य प्रपूर्ण हृदय वरदे वरेण्य ।
स्तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोपि ॥३३ त्वद्भूधन सधन रश्मि महाप्रभाव
कल्याणि सोपनिषदूप्रसभ प्रगृह्यशानं स्वरूपममलंप्रवदंति संतः ॥२४
वेदानतीन्द्रजदरो जलधौजुगोप । कैवल्यमात्मतपसाखिलविश्वदर्शी
भीष्म विधरसुरमुग्ररुषापियस्त चक्रे ययादिपुरुषः प्रणया प्रमाया ।
दृष्ट्वाभयं भवति नोभवदाश्रितानां ॥३४ जानाभि विश्वजननीति च देवते सा
गर्जद्धनाधन समान-तर्गजेन्द्र व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोसि ॥२५
विष्कभकुभपरिरभजयाधिरूढ । सिद्धान्त एधि फलदो बहुराज्यलाभः ।
द्वेष्योपि भूप्रसरदश्चपदाति सैन्यत्यस्तो यया जगत विश्वजनीनपंथ.।
नाकामतिक्रमयुगाचल संश्रितं ते॥३५ विच्छित्तये भवति तेरिवदेविमन्या
माशाशृगस्थिरस शुक्र सलज्जमज्जा स्तुम्यं नमो जिनभवोदधिशोषणाय ॥२६
स्नायूदिते वपुषिपित्त मरुत्कफायः । मध्यान्ह काल विसृतः सवितुः प्रभायां
रोभानलं चपलतावयव विकार सवैदिरे गुणवति त्वमतो भवत्या।
स्त्वन्नामकीर्तन जलंशमयत्येवम् ॥३६ दोषांस इष्ट चरणरपरैरभिः
मिथ्याप्रवादि निरत विधिकृत्य सूर्य स्वप्नान्तरेपिन कदाचिदपीमतोसि ॥२७
एकांतपक्ष कृतकक्ष विलक्षतास्य ।
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५, वर्ष ३७, कि.१
अनेकान्त
चतो स्तभिः सपरिमयते द्विजिह्व
माः भवंति मकरध्वजतुल्यल्पाः ॥४१ त्वन्नाम नागवमनी हदि यस्य सः ॥३७ ये चानवद्य पदवी प्रतिपद्य पये प्राचीनकर्म जनता चरणं जगत्सू
त्वच्छिष्यता वपुषिवास रतिं लभते । मोठय मदाढयदनु मुद्रित मान्द्रनन्द्र। नोतुग्रहातव शिवास्पदमाप्यते यत् दीपाशुपष्टि पिसह्य सुदेवि पुसा ।
सबः स्वयं विगतबंधमया भवंति ॥४२ त्वत्कीर्तनात्तम इवाशभिवामपंति ॥३८ इदो कलेव विमलापि कलक मुक्ता साहित्य शाब्दिक रसामृत पूरिताया
गगेव पावन करी न जलाशयापि । सत्तर्क ककस महोभि मनोरमाया। स्यात्तस्य भारति सहथमुखीमनीषा पारंनिरमशेष कलिदिकाया
यस्तावकस्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३ १.त्पावपंकजवनाधयिणो लभते ॥३६ योहज्जयो कृत जयो गुरु खेमकर्ण सस्थरुपयुपरिलोकमिलोक सोज्ञा
पादप्रसाद मुदितो मुदितो गुरुधर्मसिंहः । व्योम्नोगुरुज कविनि.सह सख्य मुच्च ।
है वाग्देवि भूमिनभवतीभिरभिज्ञ सधै अन्योन्यमान्यमिति ते यदवमि मातः
तं मानतुंगभवशा समुपैति लक्ष्मी ॥४४ त्रासं विहायभवतस्स्मरणाद्वति ॥४० इति भक्तामरस्यातिमपदांकित ब्राह्मी स्तोत्र समाप्त। देवाइय त्यजनिमव तव प्रशादात
लेखितमिर पुस्तक ऋषि प्रेमचदेन स्वार्थमिति । प्राप्नोत्यहो प्रकृति म मिन मानवीया।
श्रुत कुटीर, ६८ कुन्ती मार्ग, व्यक्त त्वचित्यमहिमा प्रतिभाति तीर्यग्
विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली-३२
(१०४का शेषांश) सेन पुन्नाट के हरिवशपुराण (७८३ ई०) का कोई उल्लेख समाप्ति एलडर मे हुई। शेष ग्रथ भी राष्ट्रकूटो के आश्रय नही किया और न जिनसेन-गुणभद्र के महापुराण में ही रखे गये । कवि के मूल निवास के विषय मे मतभेद (लगभग ८५० ई०) का ही, अत: वह ७८३ के पूर्व है-कुछ उमे कन्नौज, कुछ वाराणसी, साकेत विदर्भ ही हुए होने चाहिए, कुछ लचर प्रतीत होता है। (वरार), महाराष्ट्र या कर्णाटक अनुमान करते है । राष्ट्रइन तीनो आचार्यों ने भी तो स्वयम या उसके ग्रथों कूटो के मान्यखेटपूर्व राजधानी एलाउर (एलोरा) महाका कोई उल्लेख नही किया है। हमे तो ऐसा लगता है राष्ट्र एव विदर्भ के सन्धिस्थल के निकट ही है। स्वयम कि स्वयभू और हरिवशकार जिनसेन प्राय ममसामयिक के जीवन के अतिम वर्षों का भी कोई ज्ञान नही हैथे। स्वयभू द्वारा उल्लेखित उसका आश्रयदाता ध्र वराय ऐसा लगता है कि वह एकाएक गृहास्थाश्रम से उदासीन धवल एव राष्ट्रकूट नरेश ध्र वराज धारावर्ण निरुपम होकर संभवतया वाटग्राम के स्वामि वीरसेन के सस्थान (७७९-१९३ उ०) से अभिन्न प्रतीत होता है। धवल या मे रहकर आत्मकल्याणरत हो गया था। एक अनुमान धवल इय उसका भी एक विरुद रहा प्रतीत होता है। यह भी है कि स्वामि जिनसेन के जयघवलाटीका विषयक ध्रव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी गोविन्द तृ. -जगतुग- 'श्रीपाल सपालितः' पद से अभिप्राय स्वयम से ही हो त्रिभुवन-धवल (७६३-८१४ ई०) त्रिभ वनस्वयभू का जिन्होने गृहत्याग करके श्रीपाल नाम धारण कर लिया बढइयगोबिन्द नामक आश्रयदाता रहा हो सकता है। था। उनके अधूरे अपभ्रंश महाकाव्यो का संरक्षण सपादन अतएव स्वयंभू का साहित्य-सृजन लगभग ७७० ई० से एवं पूर्ति उनके सुयोग्य कविपुत्र त्रिभ वन स्वयंभू ने की। ७६५ ई० रहा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि अपने अस्तु, कविराज स्वयंभ देव विषयक अभी भी अनेक उत्तर भारतीय अभियान मे राष्ट्रकूट ध्रुवराज कन्नोज से तथ्य अन्वेषणीय एवं गवेषणीय हैं। अनेक सूत्र अभी भी राज्यश्रेष्ठि रयडा धनञ्जय और उसके आश्रित कवि ढीले विवादास्पद, अनिश्चित या अस्पष्ट है। सम्यक विशेस्वयंभ को सपरिवार अपनी राजधानी एलउर मे लिवा बाध्ययन से ही वे खुलेंगे और सुस्पष्ट होंगे। लाया था-पउमचरिउ का प्रारम्भ कन्नौज मे हुआ,
-ज्योति निकुज, चारबाग, लखनऊ-१६
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गुना
में संरक्षित 'खो' की जैन प्रतिमाएं
मध्य प्रदेश के गुना जिले में कुसुम खो नामक ग्राम किसी समय वैभव सम्पन्न स्थान था परन्तु समय के साथ ही सारा वैभव उजड़ गया केवल कलाकारों की धरोहर खण्डहरों के रूप में बिखरी पडी हुई है। यहां पर वर्तमान मे खन्डहर के रूप मे जैन मंदिरों के अवशेष पड़े हुए हैं । यही से प्राप्त दस जैन प्रतिमायें जैन समाज द्वारा लाकर वर्तमान मे जैन धर्मशाला स्टेशन रोड गुना में संग्रहित किया है । सरक्षित प्रतिमाओं का विवरण निम्नलिखित है :प्रादिनाथ :
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में निर्मित है। उनके केस स्कन्ध तक फैने हुए हैं। लम्बे कर्ण चाप एव सिर पर कुन्तलित केशराशि, पीछे प्रभावली का अकन है । वितान में त्रिक्षत्र है। त्रिक्षत्र के दोनो ओर विद्याधर युगल एव अभिषेक करते हुए हाथियो का शिल्पांकन है । तीर्थकर के दोनो ओर भरत और बाहुबली को आराधक के रूप में अकित किया गया है । पाद पीठ पर यक्ष कुबेर एव यक्षणी चक्रेश्वरी का आलेखन है । शान्तिनाथ :
कायोत्सर्ग मुद्रा मे शिल्पांकित सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ के हाथ त सिर भग्न है। सिर के पीछे अलकृत प्रभावली एवं वक्ष स्थल पर श्री वत्स प्रतीक का अकन है । वितान में त्रिक्षत्र एवं अभिषेक करते हुए गज अकित है । परिकर में जिन प्रतिमा एवं गज व्यालो का आलेखन हे । तीर्थकर के दोनों तरफ परिचारक इन्द्र आदि आसिक रूप से खडित अवस्था में खड़े हैं। पादपीठ पर भगवान शान्तिनाथ का ध्वज लाछन हिरण तथा यक्ष गरुण यक्षणी महा मानसी का आलेखन है। पास मे ही दोनों ओर अंजली हस्त मुद्रा में भक्तगण बैठे हुए है । नेमिनाथ :
बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा मे शिल्पांकित मूर्ति के हाथ व सिर, दांया पैर भग्न है। प्रतिमा मध्य से टूटने के कारण दो खण्डो मे है । भगवान नेमिनाथ के दोनों ओर पद्मासन एवं कायोत्सर्ग मे जिन प्रतिमाओं का अंकन है। पादपीठ दोनो पार्श्व मे चामर धारी परिचारक खड़े हैं। चौकी पर नेमिनाथ का ध्वज लक्षन शख तथा यक्ष गोमेद यक्षी अविका का आलेखन है । पार्श्वनाथ :- तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की चार प्रतिमाएं संग्रहित है जिनमे से दो पद्मासन मे एवं दो कायोत्सर्ग मुद्रा मे हूँ ! प्रथम पद्सासन की ध्यानस्थ मुद्रा में निर्मित तीर्थकर के सिर पर कुन्तनित केशराणि, सिर
।
नरेशकुमार पाठक के ऊपर सप्तफण नागमोलि है। वितान में त्रिक्षत्र, अभिषेक करते हुए गज, विद्याधर एवं जिन प्रतिमाओं का अंकन है। तीर्थकर पार्श्वनाथ में नागफण मौलि से युक्त परिचारिका बनी है। पादपीठ पर यक्षणी पद्मावती का आलेखन है।
दूसरी प्रतिमा सिंह युक्त गोलाकार अलकृत पादपीठ पर पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा मे शिल्पाकित पार्श्वनाथ के दोनो पैर तथा दाहिना हाथ भग्न है। सिर पर सप्तफण नाग मौलि, वितान में छिनाली दुन्दभिक, अभिषेक करते हुए गज, विद्याधरो का अ कन है। तीर्थंकर के दायें ओर खन्डित अवस्था मे परिचारको का अंकन है। परि कर मे गज व्याल तथा जिन प्रतिमा बनी हुई है। पादपीठ पर यक्ष धरणेन्द्र और यक्षी पद्मावती का आलेखन है ।
तीसरी मूर्ति मे कायोत्सगं मुद्रा मे निर्मित तीथंकर पार्श्वनाथ के सिर के ऊपर सप्नकण नाग मोलि वितान मे छत्र अभिषेक रहते हुए गन, विद्याधर, परिकर में गज व्याल आदि का आलेखन है। नीचे दायी ओर चवरधारी एव बायी ओर सेबिका का शिल्पाकन है ।
1
चौथी कायोत्सर्ग में उपरोक्त प्रतिमा के समान, कुन्तलित केश, कर्णचाप, सप्तकण नाग मौलि, त्रिछत्र अभिषेक करते हुए गज, विद्याधर व्यान आकृति, नावरधारी सेविका आदि का अकन है । केबल गन धरणेन्द्र व यक्षणी पद्मावती का आलेखन ही विशेष उल्लेखनीय है । लखन विहीन तीर्थंकर :---
सग्रह में दो लांछन बिहीन तीर्थकर प्रतिमाये सुरक्षित है। प्रथम पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा मे अकित तीर्थंकर के दोनो हाथ टूटे हुये है सिर पर कुमलित केशराशि कर्णचाप एव सिर के पीछे प्रभावली का आलेखन है । तीर्थकर के पार्श्व मे चावधारी परिचारक वितान में विछन अघु मन्दिर अलकरण, मालाधारी विद्याधर, व्याली एब जिन प्रतिमाओ का अंकन है ।
दूसरी कायोत्सर्ग मुद्रा मे निर्मित तीर्थंकर के दोनो हाथ कमर से टूट जाने के कारण दो भागों मे है । सिर पर कुन्तलिकेश, वक्षस्थल पर श्रीवृक्ष प्रतीक अकित है। परिकर मे मयक, गज, व्यान, पादपीठ पर अजलीहस्त मे सेविकाओ का अकन है। जिन प्रतिमा विज्ञान :
यह जिन प्रतिमा वितान से सम्बन्धित कलाकृति पर चित्रित दुन्दभिक, अभिषेक करते हुए गज एवं विद्याधर मुगलोंका आलेखन है। केन्द्रीय पुरातन संग्रहालय गुजरी महल, ग्वालियर (म०प्र० )
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बिजोलिया अभिलेख [वि. सं. १२२६] में जैनदर्शनविषयक सिद्धांतोंके उल्लेख
श्री कृष्णगोपाल शर्मा
ऐतिहासिक दृष्टि से विजोलिया अभिलेख' (वि. सं. नीतिक इष्टकरों (political expedients) मे समीकृत १२२६) मुख्यतः इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह सांभर एवं किया जा सकता है-संधि, विग्रह, यान, आसन, वेधी. अजमेर के चौहानों की वंशावली पर प्रकाश डालता है। वंशावली पर प्रकाश सालमा भाव एवं आश्रय ।
"
दिगम्बर जैन सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी के छ: खण्ड अभिलेख का उद्देश्य दिगम्बर जैन लोलाक द्वारा पार्श्वनाथ
हैं (षट्खण्ड)। उनमें से एक आर्य खण्ड है जो गंगा एवं मंदिर की स्थापना को लेखांकित करना है । अभिलेख में ।
सिंधु नदी के मध्य स्थित है। इस खण्ड से बाहर स्थित यत्रतत्र जनदर्शनविषयक सिद्धांतों के प्रच्छन्न उल्लेख भी :
भी सभी प्रदेश म्लेच्छ खंड के अन्तर्गत आते हैं। हैं। उन्ही पर हम विचार करना चाहते हैं।
'षड्दृष्टि' का प्रयोग षड्दर्शन के लिए किया गया अभिलेख के श्लोक ४१ का पाठ है
प्रतीत होता है जो इस प्रकार हैं-लोकायतिक, सौगत, 'षट(ट्वं)डागमबद्ध सौहृदभराः षड्जीवरक्षेश्वराः
सांख्य, योग, प्रभाकर एवं जैमिनीय । षट् (इभे)देद्वियवस्यता परिकरा: षर्मक(क्ल)प्तादराः अभिलेख के श्लोक ४८ का पाठ है[१]षट्वं (ट्खं ) डावनिकीर्ति पालनपरा: ष(षा)ट्गु(गु)
___ 'पंचाचारपरायणात्ममतयः । पंचांगमंत्रीज्व(ज्ज्व)लाः।
पंचज्ञानविचारणासुचतुराः। पंचेद्रियार्थोज्जयाः। श्रीमत्पंचण्य चिंताकराः षट्(इ)दृष्टयंवु(बु)जभास्करा[:]समभवः
गुरुप्रणाममनसः पचाणुशुद्धव्रता पंचते तनया गृहीतवि]पटदे(उदे)शलस्यांगजाः ॥
नयाः श्रीसीयकवेष्ठिनः ।। 'षटखंडागम' से सम्भवत: अभिप्राय सृष्टि के छ: 'पंचाचार' हैं-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, खन्डों से सम्बद्ध आगम साहित्य से है। ये छः खन्ड छः ।। चरित्राचार एवं तपाचार जैसा कि नेमिचन्द्रकृत द्रव्यसंग्रह द्रव्योंके आधार पर विभाजित है-जीव, पुद्गल, आकाश,
के अध्याय तीन की माथा ५२ से स्पष्ट है :काल, धर्म और अधर्म।
दसणणाणपहाणे वीरियचारित्रवरतवायारे ।
अप्प परं च मुंजइ सो आयरिओ मुणी क्षेत्रो॥ षड्जीव है-पृथ्वी, अप, तेजस, वायु, वनस्पति
'पंचांग मंत्र' से सम्भवतः अभिप्राय उपासना की एवं त्रस । प्रथम पांच स्थावर है एवं एकान्द्रय हैं, स प्रक्रिया से सम्बद्ध पांच मत्र युक्त चरणों से है-आह्वान, उस जीव को कहा जाता है जिसके पास एक से अधिक स्थापन, संनिधिकरण, पूजन एवं विसर्जन । इन्द्रियां हैं।
पंचज्ञान की जानकारी इस सूत्र से मिलती है-मतिइंद्रियों पांच है-स्पर्शरसनध्राणचक्षुधोत्राणि किन्तु शतावधिमन. पर्ययकवलानि ज्ञानम । उपर्यक्त श्लोक में उल्लिखित 'षड्-इन्द्रिय' में 'मनस 'जिसे 'पंच इंद्रियार्थ' हैं-स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदा।' ईषदिन्द्रिय माना जाता है, शामिल प्रतीत होता है।
पचगुरु है-अहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय एवं सर्व एक श्रावक के 'षट्कर्म का विवरण उमास्वामी साधु जैसाकि बहुश्रु त जैनमंत्र से ज्ञात होता हैश्रावकाचार के इस श्लोक से मिलता है
णमो अरहंताणां णमोसिखाणं णमो आइरीयाणां । देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सब साहणं ॥ दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने ।
'पंचव्रत' हैं-हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति'षड्गुण' का क्या अभिप्राय है, कह पाना मुश्किल वतम् । -५०६, गोविन्दराजियों का रास्ता है। श्री अक्षयकीर्ति व्यास के अनुसार इसे छः मान्य राज
चांदपोल बाजार, जयपुर १. यू.जी०सी० रिसर्च फैलो, इतिहास एवं भारतीय है। देखें इपिग्राफिया इंडिका, vol, xxvi, पृ०.
संस्कृति विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर । ८४-१०२. २. यहाँ प्रस्तुत पाठ एवं उसकी व्याख्या ५० असयकीति ३. वही, पृ० १०७, पादटिप्पणी १.
व्यास के पत्र "बिझोली राक इन्सक्रिप्सन आव ४. उमास्वामी, तत्वार्थसंग्रह, अध्याय १ सूत्र १. चाहमान सोमेश्वर : वि. स. १२२६" पर आधारित ५. वही, अ. २, सू० २० ६ . वही, अ.७, स्.१
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शान्तिनाथ पुराण का काव्यात्मक वैभव
भाषा - अगोचर घटनाओं अथवा भावों को यथासभव गोचर तथा मूर्त रूप में प्रकट करना एक श्रेष्ठ कवि का लक्ष्य होता है । तभी हृदय में उद्बुद्ध हुए भाव रसाबस्था तक पहुंचते है। भाषा, भावो को वहन करने का साधन है। जिस कवि की भाषा जितनी अधिक सबल और प्रसङ्गोचित होगी, भावो की उतनी अधिक तीव्र अनुभूति वह अपनी कविता के द्वारा करा सकेगा । अतः एब भाषा का सरल एव व्याकरण सम्मत होना अनिवार्य है।
"शान्तिनाय पुराण" संस्कृत ग्रंथों मे श्रेष्ठ प्रतीक है। इसमे 'असग' ने रसानुकूल भाषा का प्रवाह प्रवाहित किया है । कवि के हृदय सागर में अनन्त शब्दो का भडार है जिससे उसे किसी अर्थ के वर्णन में शब्दों की कमी अनुभव नही होती भाषा किसी शिथिलता के बिना अजस गति से आगे बढ़ती है। इसका उदाहरण दर्शनीय है"प्रभो शान्तिः स्त्रियो लज्जा मौर्य शस्त्रोपजीविनः । विभूषणमिति प्राडुवंशम्यं च तपस्विनः ।। शा. पु. ४१३६
अर्थात् प्रभु का आभूषण क्षमा है, स्त्री का आभूषण लज्जा है, सैनिक का आभूषण शूरता तथा तपस्वी का आभूषण वैराग्य कहा गया है ।
महाकवि असम का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। उन्होने जिस स्थल पर जिस प्रकार के भावो का चित्रण किया है। उसके अनुरूप ही भाषा का प्रयोग परिलक्षित सर्ग होता है। चतुर्थ मे युद्ध वर्णन प्रसङ्ग में शब्द योजना, कठोर ध्वनि युक्त युद्ध के बातावरण को उत्पन्न करने मे सहयोग देती है
"सांननिक शंखं पूरयित्वा त्वरान्वितः।
चतुरङ्गा तट सेनां सभ्रान्तां समनीनहत् ॥ बास्पानाल्लोसमा पत्या स्वावासान्येचरेश्वराः । अकाण्डं रणसंशोभादपि स्वरमदेशयन् ॥ था. पू. ४१८६-८७
कु० मृदुलकुमारी शर्मा
अर्थात् शीघ्रता से युक्त सेनापति ने युद्ध सम्बन्धी फूककर बड़ाई हुई चतुरङ्ग सेना को तैयार किया। विद्याधर राजाओं ने सभा से लीला पूर्वक अपने पर जाकर असमय में युद्ध की हलचल होने पर भी स्वेच्छा से धीरे-धीरे कवच धारण किये । महाकवि असम में शब्द चयन की अपूर्व शक्ति है। भाषा उनकी इच्छा की अनुगामिनी है। वह अपने आप
ही भावानुरूप ढल जाती है। समास प्रधान भाषा और संयुक्त वर्णयोजना ने काव्य को अत्यन्त ओजस्वी वना दिया है। नवम सर्ग में राजा वज्रायुध के गुणों की प्रशंसा में इसी प्रकार की भाषा द्रष्टव्य है
"अमदः प्रमदोपेतः सुनयो विनयान्वितः । सूक्ष्मदृष्टिविशालाक्षो यो विभातिस्म सास्थितः ॥३१
अर्थात् मन्द मुस्कान युक्त जो पुत्र गर्व रहित होकर भी बहुत भारी गर्म सहित था ( पक्ष में हर्षयुक्त था), अच्छे नय से युक्त होकर भी नय के अभाव सहित पा ( पक्ष में विनय गुण से युक्त या), और सूक्ष्मनेत्रों से सहित होकर भी बड़े-बड़े नेत्रो से सहित था (पक्ष मे गहराई से पदार्थ को देखने वाला होकर भी बड़े-बड़े नेत्रों से सहित था।
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असग ने भाषा मे शृगारात्मक हाव भाव विलासों का भी कलात्मक हृदयग्राही चित्र उपस्थित किया हैबेबरी: परितो बाति बुवन्नकवल्लरीः ।
एष तद्वदनामोदमादित्सुरिव मारुतः ॥ शा. पु. ३१२४
अर्थात् विद्यधारियो के चारो ओर उनकी केशरूपी लताओं को कम्पित करती हुई वायु ऐसी बह रही है, मानों उनके मुखों की सुगन्ध को ग्रहण करना चाहती हो।
राजा को मुनि के रूप मे नाथ पुराण की भाषा दुरूह हो का वर्णन इसी प्रकार का है
प्रदर्शित करते हुए चाविगई है। राजा मेघरथ
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१२, वर्ष ३७, कि०१
अनेकान्त ध्यानाच्छिथिलगात्रेभ्यः पतद्भिर्मणिभूषणः । इष्ट हो सकता है ? कहो ! आओ, सर्वहितकारी धर्म को रागभावरिवान्तःस्थैर्मुच्यमान समन्ततः ॥
जानने की इच्छा रखती हुई हम तपोवन को चलें, व्रतशील अतरङ्गमिवाम्भोधिमकाननमिवाचलम् ।
आदि में प्रयत्न करें तथा आत्महितकारी तप करे । माप ददृशतुर्देव्यो तं विमुक्तपरिच्छदम् ॥१२.८०-८१ इनके काव्य मे नैतिकता और धार्मिकता के प्रति ___ अर्थात् ध्यान से शिथिल गिरते हुए मणिमय आभू- झुकाव है। इस प्रथ मे अनेक कथाओं को जोड़कर रोचक पणों से जो ऐसे जान पड़ते थे, मानो भीतर स्थित राग- बनाया गया है, जिनमे स्थान-स्थान पर सुन्दर विचारो भाव ही उन्हें सब ओर से छोड़ रहा हो, जो लहरो से का समन्वय किया गया है। स्वार्थपरक इच्छाओ का त्याग, रहित समुद्र के समान वन से रहित पर्वत के समान थे, सार्वभौमिक क्रियाशील परोपकार की भावना, व्याख्यान, जिन्होंने सब वस्त्रादि छोड़ दिये थे, ऐसे राजा मेघरथ को नैतिकता तथा उपदेश इसका प्रधान उद्देश्य है। कहीं-कही वाङ्गनाओं ने देखा।
सशक्तता के साथ ओज तथा प्रसाद गुण युक्त शैली के शैली-शैली के स्वरूप का उल्लेख करते हए बाण भी दर्शन होते हैं यथा- . ने कहा है
प्रज्ञोत्साहबलोद्योग धैर्य शोर्यक्षमान्वितः । नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्टः स्फुरो रस. । जयत्येकोऽप्यरीन्कृत्स्नान्कि पुनद्वी सुसंगतों ॥ ॥५६ विकटाक्षर बन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुष्करम् ॥ ___अर्थात् प्रज्ञा, उत्साह, बल, उद्योग, धैर्य, शौर्य, क्षमा
हर्षचरित-प्रस्तावना सहित एक ही पुरुष बहुत से शत्रुओं को जीत लेता है अर्थात् नूतन एवं चमत्कार पूर्ण अर्थ, सुरुचिपूर्ण स्व- फिर हम दो भाई मिलकर क्या नहीं जीत सकेंगे। भावोक्ति सरल, श्लेष, स्पष्ट रूप से प्रतीत होने वाला रस इनके उद्देश्य अभिव्यक्ति की यथार्थता तथा अर्थ की तया अक्षरों की दृढ़बन्धतायें सभी शैली की विशेषतायें है, स्पष्टता को प्रकट करते है। जो किसी काव्य में एक साथ प्राप्त होनी कठिन है। रस योजना-रस काव्य की आत्मा है उसके बिना ___ शातिनाथ पुराण की शैली सरल, प्रभावशाली एव काव्य की वही दशा होती है जो आत्मा के बिना देह की शान्त है। इनकी शैली को साधारण काव्य की उत्तम शैली होती है। 'असग' रससिद्ध कवि है। उनकी कृतियो मे कहा जा सकता है। अपने स्वाभाविक सौन्दर्य से युक्त प्रायः सभी रस उपलब्ध हैं किन्तु जैनधर्मी होने के कारण 'असग' की भाषा, वर्गों का शिथिलता रहित प्रयोग एव उन्होने विषयासक्त जनों को मोक्ष मार्ग दिखाने के लिए लालित्य, कठोर वर्णों का अभाव तथा अर्याभिव्यक्ति मे 'शान्त रस' से पूर्ण काव्य रचा है शांतरस अङ्गी है शेष पूर्णतः शब्दों की योजना-यह सब उनको महाकवि सिद्ध सभी रस अङ्ग है। शांतिनाथ पुराण के नायक अन मे करती हैं।
विरक्त होकर शांति की दशा प्राप्त करते हैं। षष्ठ सर्ग शान्तिनाथ पुराण मे यथास्थान धार्मिक उपदेशो का मे कनकधी की मन स्थिति 'शांत रस' की उत्पन्न करती भी समावेश किया गया है। अपराजित की पुत्री दीक्षा- हैग्रहग करने की इच्छुक होकर अपनी सखियों से कहती है- तस्मात्प्रव्रजन थेयो न यो मे गृहस्थता। व व विषयासङ्गात् क्लिशित्वा केवल गृहे ।
कलङ्कक्षालनोपायो नान्योऽस्ति तपसोविना ।।ा. पु. ६।१५ प्राणिति प्राकृतो लोकस्तत्कि व्रत सतां मतम् ॥
अर्थात् दीक्षा लेना ही मेरे लिए कल्याणकारी है, धर्म बुभुत्सवः सार्वमेतयामस्तपोवनम् ।
गृहस्थपन कल्याणकारो नही है क्योकि तप के विना यतध्वं व्रतशीलादौ कृषीध्वं स्वहितं तपः ॥
कलङ्क धोने का दूसरा उपाय नही है।
शा. पु. ६।१०६-१०७ काव्य मे शांतरस के अनेक प्रसङ्ग आये हैं जिन्हें अर्थात् साधारण प्राणी विषयासक्ति के कारण घर कवि ने पूर्ण मनोयोग से पल्लवित किया है यथा रूप ह्रास मे कनेश उठाकर व्यर्थ ही जीता है, वह क्या सत्पुरुषो को की बात सुनकर रानी प्रियमित्रा वैराग्य चिन्तन करती है
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शान्तिनाव पुराण का काव्यात्मक वैभव ब.मेघरथ उपदेश देते हैं- .
विद्यास्त्र को देखकर अशनिघोष यद्यपि दूसरों को जीतने अनेक रामसकीर्ण धन लग्नमपि क्षणात् ।
वाला था, तब भी भयभीत हो गया। मानुष्य यौवन वित्त नश्यतीन्दुधनुषर्यथा ।।
शान्तिनाथ पुराण में विभिन्न प्रसङ्गों मे आश्चर्य वनिमर्गबीभत्स पूतिगन्धि विनश्वरम् ।
उत्पन्न करने वाली घटनाए उपस्थित हुई हैं जिससे "अदमलस्थन्दिनवद्वार किं रम्य कृमि सकुलम् ॥
भुत रस" भी यथास्थान प्रयुक्त हुआ है
शा. पु. १२६०-१०० वीक्षमाणा पराभूति तस्य प्रविशत' पुरम् । अर्थात् जो स्वभाव से ग्लानि युक्त, दुर्गन्धमय, विनश्वर ।
इतिसौधस्थिता प्राहु विस्मयान्पुरयोषित.।। है, जिसके नवद्वार मल को हराते रहते हैं तथा जो कीडो ।
निरुच्छ्वासमिद व्याप्त नगर सर्वत: सुरैः । से भरा हुआ है ऐसा यह शरीर क्या रमणीय है ? अर्थात् अन्तर्बहिश्च कस्येय लक्ष्मीर्लोकातिशायिनी ॥ नही।
शा. पु. १३॥१८२-१८३ शान्तिनाथ पुराण मे "वीर रस" का भी उत्कृष्ट अर्थात नगर में प्रवेश करते हुए उनकी उत्कृष्ट विभति वर्णन हुआ है । पचम सर्ग युद्ध की गर्वोक्तियो से सयुक्त है-- को देखकर महलो पर चढी नगर की स्त्रिया आश्चर्य से स वामकर शाखाभि रेजे खड्ग परामृशन् ।
ऐसा कह रही थी। देखो, यह नगर भीतर और बाहर, तत्रैव निश्चलां कुर्वन्प्रचलन्ती जयश्रियम् ॥ ५॥७६ सब ओर देवो से ऐसा व्याप्त हो गया है कि सांस लेने के __अर्थात राजा अपराजित बायें हाथ की अगुलियो स लिा भी स्थान नही है, यह लोकोत्तर लक्ष्मी किसकी है ? तलवार का स्पर्श करता हुआ ऐसा सुशोभित हुआ, मानो "शृङ्गार रस" के प्रसङ्ग अत्यन्त सीमित है । तथापि चञ्चल विजय लक्ष्मी को उसी पर निश्चल कर रहा हो। विजयाद्ध पर्वत पर विद्यारियों की शोभा पार रस
वीर रस की धारा कही-कही रौद्र रूप में परिणत को प्रकट करती है-- हो जाती है तब 'रौद्र रस' के दर्शन होते हैं
उत्तरीय देशन पिधाय स्तनमण्डलम् । ततः कश्चित्कषायाक्षः क्रुद्धो दष्टाधरस्तदा ।
द्योतमाना स्फुरतकान्तिशोणदन्तच्छदत्विपा ।। आहतोच्चः स्वमेवास वाम दक्षिण पाणिना ॥शा पु. ४.१८ निर्गच्छन्ती लतागेहाच्चनास्ति सस्तमूर्धजा ।
अर्थात् जिसके नेत्र लाल हो रहे थे, अत्यन्त कुपित इय काचिद्रतान्तेऽस्मात् म्वेदबिन्दचितानना ।। था और ओठ को डस रहा था, ऐसा कोई वीर दाहिने
शा. पु. ३।२५-२६ हाथ से बांये कन्धे को जोर-जोर से ताड़ित कर रहा था। अर्थात् जो उत्तरीय वस्त्र के अञ्चल मे स्तन मण्डल
। बीभत्स रस' भी को आच्छादित कर रही है, ओठो की लाल-लाल कान्ति
से शोभायमान है, जिसके केश विखरे हुए है तथा जिसका उत्पन्न होता है। यथाउच्चैः रेसुः शिवा मत्ताः प्रपीय रुधिरासवम् ।
मुख पसीन की बूदो से व्याप्त है। ऐमी यह कोई स्त्री
संभोग के बाद लतागृह से बाहर निकलती हुई सुशोभित शीर्णसनहनच्छेद नीलाम्भोरुह वासितम् ।। शा. पु. ५॥३६ अर्थात् जीर्ण शीर्ण हड्डी के खण्ड रूपी नील कमलो से
अलङ्कार योजना-अलङ्कार रस के उपकारक युक्त रुधिर रूपी मदिरा को पीकर पागल हुए शृगाल
होते है ।अलकारो के अस्वाभाविक तथा अस्थान प्रयोग से उच्च स्वर से शब्द कर रहे थे।
कविता कामिनी की दशा भारी एव बेडोल कुण्डलो के 'राजा श्री विजय तथा अशनिघोष के मध्य युद्ध वर्णन
समान हो जाती है। काव्य को प्रभावशाली बनाने मे में भयानक रस' साकार हो जाता है
अलंकार महत्त्वपूर्ण हैं। अवध्यमानमन्येषां विद्यास्त्र वीक्ष्य विव्यथे।
शान्तिनाथ पुराण के बाह्य एवं आन्तरिक दोनों पक्षों आसुरेयो जितान्योऽपि स शूरः शूरभीकरः ॥ शा. पु.७९४ को सौन्दर्ययुक्त करने हुतु 'असग' ने शब्दालंकार तथा अर्थात राजा श्री विजय के द्वारा छोड़े गये अवध्य अर्यालकार की योजना की है।
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१४ वर्ष ३७, कि.
उनके अनुप्रास तथा यमक अलंकार नाद सौन्दर्य मे था तथा कुल का श्रेष्ठ दीपक होकर भी प्रवड उत्तम बत्ती वृद्धि करते हैं और प्रस्तुत भावों के उत्कर्ष में सहायक है। से युक्त पा अर्थात् श्रेष्ठ वृद्धजनों को उत्तम अवस्था 'यमक का उदाहरण प्रस्तुत है--
सहित था। अस्ति लक्ष्मीवतां धाम पुरी यत्र प्रभाकरी ।
श्लेष के अतिरिक्त 'दृष्टान्त अलंकार' भी यथास्थान प्रभाकरी प्रभा यस्यां पताकाभिनिरुध्यते ॥ १।२१।। सन्निविष्ट किया गया है। चतुर्थ सर्ग में चक्रवर्ती दमितारि
अर्थात् जिस बत्सकावती देश में धनाढ्य पुरुषो के काल कहता हैस्थान स्वरूप 'प्रभाकरी नाम की वह नगरी' विद्यमान है
द्विषतोऽपि पर साधुहितायव प्रवर्तते । जिसमें 'सूर्य की vभा' पताकाओं से रुकती रहती है।
कि राहुममृतेश्चन्द्रो ग्रसमानं न तर्पयेत् ॥ ४१६६
अर्थात् सज्जन शत्रु को भी हित के लिए अत्यधिक शान्तिनाथ पुराण उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विभावना, अर्थान्तरन्यास अलंकारों का मानों भण्डार है। राजा दमि
प्रवृत्त करता है सो ठीक ही है क्योंकि क्या चन्द्रमा, ग्रसने तारि के वर्णन मे 'उत्प्रेक्षा' का आलम्बन लिया गया है- वाले राहु को अमृत से संतप्त नहीं करता।
श्लेषगभित आर्थी परिसंख्या के भी स्थान-स्थान पर कर्णाभरणमुक्ताशुच्छुरिताननशोभया ।
दर्शन होते हैक्षयवृद्धियुत चन्द्रं हसन्तमिव सन्ततम् ॥ ३॥७८
यत्रासीत्कोकिलेब्वेब सहकार परिभ्रमः । अर्थात् जो (दमितारि) कर्णाभरण सम्बन्धी मोतियों
अत्यन्तकमलास: प्रत्यहं भ्रमरेषु च ॥ १३॥१६ की किरणों से व्याप्त मुख की शोभा से ऐसा जान पड़ता था
अर्थात् जहां (हस्तिनापुर में) सुगन्धित आमों पर मानो भय और वृद्धिसे युक्त चन्द्रमा की हंसी कर रहा हो। परिभ्रमण करना कोयलों मे ही था, वहां के मनुष्यों में
सप्तम सर्ग मे 'उपमा अलकार' की छटा दर्शनीय है- सहायक विषयक सन्देह नही था। कमलपुष्पों की प्राप्ति तस्यामजीजनत्सूनुमकीति परतपम् ।
के लिए खेद भ्रमणो में ही प्रतिदिन देखा जाता था, वहाँ प्रभात इव स प्राच्याम पकवल्लभम् ॥ ७११७ के मनुष्यो में लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए अत्यधिक खेद नहीं
अर्थात् ज्वलनजटी ने वायुवेगा नाम की स्त्री से देखा जाता था। शत्रुओं को सतप्त करने वाला अर्ककीति नाम का पुत्र उसी चतुर्थ सर्ग में दमितारि की सेना अपराजित के परातरह उत्पन्न किया, जिस तरह प्रात:काल पूर्व दिशा में क्रम को सुनकर भ्राति में पड़ जाती है। जिससे "भ्रांति कमलो को अत्यन्त प्रिय सूर्य को उत्पन्न करती है। मान अलकार" दृष्टिगोचर होता है -
राजा मगन्तवीर्य तथा दमितारि के युद्ध वर्णन मे कि नामासौ रिपुः को वा कियत्तस्य बल महत् । 'असग' न सुन्दर रूपक" प्रस्तुत किया है
चक्रवर्त्यपि स भ्रान्तः किं सत्यमपराजितः ॥ ४६१ स्वस्वामिनिधनावरुद्धतरात्मविक्रमात् ।
अर्थात् शत्रु किस नाम वाला है अथवा उसका महान तव चक्रधाराग्नो सुभटः शलभायितम् ।। ५३११५ बल कितना है? इस विषय मे चक्रवर्ती दमितारि भी
अर्थात् अपने स्वामी प्री मृत्यु से क्रुद्ध उद्दण्ड सुभटो ने भ्रान्त है, क्या सचमुच ही वह अपराजित (अजेय) है ? यद्यपि अपना पराक्रम दिखाया, परन्तु वे उस चक्ररल की शांतिनाथ पराण में 'अर्थानाम अMada धारा रूपी अग्नि मे पतगे के समान जल मरे।
सुभाषित वचन प्रस्तुत किये गये हैं। यथाशान्तिनाथ पुराण के एकादश सर्ग मे राजा मेवरथ दूतिका कान्तमानेतु विसापि समुत्सुका । का एलेषमय' वणन किया गया है
प्रतस्थे स्वयमप्येका दुःसहोः हि मनोभवः॥ १४॥१४ पानिवासपयोऽपि न जातु जलसगतः ।
___ अर्थात् (चन्द्रोदय के समय कोई एक उत्कठिता स्त्री योऽभूतकुलप्रदीपोऽपि प्रवृद्धसुदशान्वितः ॥ ११११. पति को लाने के लिये दूती को भेजकर स्वयं भी चल पड़ी,
अर्थात् जो लक्ष्मी का निवासभूत कनल होकर भी सो ठीक ही है क्योंकि काम दुख से सहन करने योग्य कभी जल की संगत नही पा अर्थात् मूखों का संगत नही होता है।
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शान्तिनाथ पुरानका काव्यात्मक बंभव
छन्न योजना-महाकाव्य की परम्परा के अनुरूप रेजे घनानृतरलीकृतचारुतारा दिग्नागनाथपदवी स्वयमागतेव।। काव्य में 'छन्द' का बहुत महत्व है। शान्तिनाथ पुराण में
शा. पु. १६०२३१ इसी परम्परा का निर्वाह हुआ है। सम्पूर्ण ग्रन्थ 'अनुष्टुप' उपजाति:छन्द में निबद्ध है तथा प्रत्येक सर्ग के अन्त में छन्द परि- पुरःसरा धूपघटन्वहन्तो वैश्वानरा विश्वसृजो बिरेजुः । वईन है और वहां 'शार्दूल विक्रीडित' छन्द प्रयोग किया फणामणिस्फारमरीचिदीपैरदीपि मार्गः फणिनां गणेन ॥ गया है। यथा
शा. पु. १६३२३३ अनुष्टुप् छम
शान्तिनाथ पुराण का सूक्तिबंभवतत्प्रतापयशोराशी मूर्ताविवमनोरमौ।
हमारा जीवन क्षेत्र विस्तीर्ण है । यहां विभिन्न विषयों धर्मचक्र पुरोधाय पुष्पदन्तावगच्छताम् ।। शा.पु. १६२३२
के मधुर तथा कटु अनुभव प्राप्त होते रहते हैं। सूक्तियाँ शार्दूल विक्रीडितम्
वाणी का रत्न है, जो गम्भीर अनुभवों को व्यक्त करती गीर्वाणवरिवस्यया गिरिवरः प्राये स शक्रादिभि ।
है, इसके द्वारा धर्म सिद्धान्तों तथा नैतिक मूल्यों का महत्त्व Vतो तत्मणरम्यता क्षणरुचेः संप्राप्तवत्यां विभो ॥
प्रकट होता है। लोक में काव्य की प्रकृष्टता उसकी तीखी अग्नीन्द्रा मुकुटप्रभानलशिखाज्याला रुणाम्भोरुहे
और मार्मिक सूक्तियो के द्वारा सिद्ध होती है। रान, विरचय्यतत्प्रतिनिधि सत्सम्पदा सिद्धये ॥ १६॥२४०
सूक्ति का सामान्य अर्थ है-सु-उक्ति-सुन्दर या शान्तिनाथ पुराण में अन्य प्रयुक्त छंद निम्नलिखित है
सौष्ठव पूर्ण कथन । सामान्य लोकवाणी से विचित्र प्रभावउत्पलमालभारिणी
कारी विशेष कथन को ही आरम्भ में सूक्ति कहा गया स्तवकमयमुन्मयूखमुक्तास्तबकित मध्यमनेकभक्तियुक्तम् ।
होगा, लेकिन इस 'सूक्ति' शब्द का बोध आगे चलकर सुरतमणिदण्डिक तदन्तनिरुपममाविरभूत्परं वितानम् ॥
कवि वाणी के पर्याय मे होने लगा। शा. पु. १६।२२७
महाकवि राजशेखर ने सरस्वती को 'सूक्ति धेनु' प्रहर्षिणी
कहा है-"कि कवियो की सरस्वती सूक्तिधेनु है, कवि तस्यान्तस्त्रिभुवनभूतये जिनेन्द्रो याति स्म
जन सरस्वती रूपी माय से सूक्ति दुहा करते हैं। सूक्ति प्रतिपदमेत्य नम्पमानः ।
अर्थात् काव्य। संभ्रान्तः करधृतमगलाभिरामैर्देवेन्द्रदिविभु
यह 'सूक्ति' शब्द मात्र ही काव्य की पहली परिभाषा विभूमिपैश्च भक्त्या ।। शा. पु. १६०र२८ है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (१२०-३७८०) काव्य एवं इन्द्रवंशा
सगीत विद्या में रुचि रखने वाला था। प्रयाग के अभिलेख तपोधनाः शिथिलितकर्मबन्धना महोदया सुरनतधीमहोदयाः। मे प्रशसा पूर्वक उसे सूक्तमार्ग (सक्ति काव्य की रचना तमन्वयुविधुमिव शान्तविग्रहा ग्रहाः शुभाः
करने वाला) कवि कहा गया हैशुभरुचयस्तमोपहम् ॥ शा पु. १६।२२९ "सूक्त मार्ग की जिसकी सुभाषित रचनाए पठनीय बियोगिनी
हैं और जिसका काव्य भी अपनी अच्छी सूक्तियों के कारण ननृते जयकेतुभिः पुरः परितज्येव विवादिनः परान् । अन्य कवियों के कल्पना विभव को उखाड़ देने वाला है। यशसः प्रकररिवेशितुः शरदिन्दुद्युतिकान्तकान्तिभिः । कौन सा गुण है, जो उसमें नही है । एक मात्र वही विद्वानों
शा. पु. १६४२३० का आदर स्थान है। बसन्ततिलका--
अन्यत्र स्थान पर सूक्ति को "कान से पिया जाने उत्यापिता सुरवरैः पथि वैजयन्ती
वाला अमृत" बताया गया है। मुक्ताफलप्रकरभिन्नदुकूलक्लुप्ता ।
काव्य में सूक्तियों का कर्णामृत रस काव्यरस से भिन्न
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१६ बर्ष ३७, कि.१
एक अलग ही आकर्षण है, प्रतिभावान् कवि अपनी भंगि- स्तुति, दुर्जनों की निन्दा, धर्म, नीति, स्त्री.विषयक सूक्तियों भणिति और सूक्ति रस के निबन्ध में एकाग्र होकर काव्य से शान्तिनाथ पुराण को अलंकृत किया है। रस के औचित्य-अनौचित्य की चिन्ता नही करते हैं। ऐसे शान्तिनाथ पुराण में सुभाषित संचय इस प्रकार हैकवियों पर खीझ कर "आनन्दवर्धन' ने लिखा है
"श्रेयसे हि सदा योगः कस्य न स्यात्महात्मनाम्"-. "अलंकार कहां रसाभिव्यक्ति का कारण बनता है,
शा. पु. ११८८ उसका एक नियम है, उसे भङ्ग कर अलकार की जो अर्थात् महात्माओं का सदा योग प्राप्त होना किसके योजना की जाती है वह नियमत: रसभंग का कारण लिए कल्याणकारी नही होता? अर्थात् सभी के लिए बनती है, इस प्रकार के उदाहरण महाकवियों के प्रबन्धों ___ कल्याण युक्त होता है। में बढ़त दिखाई पड़ते हैं, लेकिन रसभंग के ऐसे निदर्शन "धीरा हि नयमार्गवित्"-२४२ मैंने अलग अलग करके नही दिखाये, वह इसलिए कि अर्धात् धीर वीर मनुष्य नीति के मार्ग का ज्ञाता होता है। अपनी हजार सूक्तियों से चमकने वाले उन महान् कवियो "संसर्गण हि जायन्ते गुणा दोषाश्च देहिनाम्"-४१५४ का दोष निकालना अपना ही दूषण हो जाता है ।
लना अपना हा दूषण हा जाता है ।" अर्थात् प्राणियो मे गुण और दोष संसर्ग से ही होते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्वनि और रस की "कन्यका हि दुराचारा पित्रोः खेदाय जायते"-४१५६ भांति कभी सक्ति भी काव्य की कसौटी थी।
अर्थात् कन्या का दुराचारी होना माता-पिता के लिए आचार्य 'कून्टक' भी मुक्ति के चमत्कार के से प्रभा- खेद का विषय होता है। वित रहे हैं। "उन्होंने सरस्वतीकवि के मुख चन्द्ररूपी "स्त्रीजनोऽपि कुलोदमतः सहते न पराभवम्"-७1८ रंगमन्दिर मे सूक्ति विलासो का अभिनय करने वाली अर्थात् कुलीन स्त्रियां भी पराभव को सहन नही करती हैं। नर्तकी कहा है।"
"आचारो हि समाचष्टे सदसच्च नृणां कुलम्"-८/४२ कवि और काव्य की प्रशंसा में अनेक कवियो ने
अर्थात् आचार ही मनुष्य के अच्छे और बुरे कुल को सूक्ति प्रशंसा का अभिधान किया है, ऐसे अनेक उदाहरण
कह देता हैं। सुभाषित संग्रहों से परिपूर्ण है।
"भवितव्यता हि बलीयसी"-१०८७ "शान्तिनाथ पुराण" में महाकवि असग ने गम्भीर
अर्थात् होनहार बलवती होती है। विषयों को व्यक्त करने वाली सूक्तियो को प्रस्तुत किया
"सर्व दुख पराधीनमात्माधीन परं सुखम् ।"-१२।१०६ है। सूक्तियो को सरल, सुकोमल पदों में गुम्फित करके उन्हें सजीव और प्रभावशाली बना दिया है। नीतिविषयक
। अर्थात् पराधीन सभी कार्य दुख है और स्वाधीन वचन कवि के विशिष्ट ज्ञान तथा पांडित्य के परिचायक हैं।
सभी कार्य परम सुख है। विभिन्न प्रसंगों में यथास्थान महाकवि ने सज्जनों की
मौ० कुंवरलाल गोबिन्द, बिजनौर
सन्दर्भ-सूची १. या दुग्धाऽपि न दुग्धेव कविदोग्धमिरन्वहम् । ३. 'कर्णामृतं सूक्तिरसम्'-विक्रमांकदेव चरित २६ हदि नः सन्निधत्ता सा सूक्ति धेनु: सरस्वती ॥ ४. ध्वन्यालोक-२०१६
-काव्यमीमासा अध्याय ३ ५. वन्दे कवीन्द्रवक्वेन्दु लास्यमन्दिरनर्तकीम् । २. सूक्तमार्गः कवि-मति-विभवोप्सारणं चापि काव्यम् । देवी सूक्ति परिस्पन्दसुन्दराभिनयोज्वलाम् ।। को नु स्माद्योऽस्य न स्यद्गुणमति
-वक्रोक्ति जीवित र
६. निर्गतासुन वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु । । । विदुषां ध्यानपात्र य एकः ॥८
प्रीतिर्मधुर सान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते ॥ -हिस्टारिकल एण्ड लिटरेरी इन्सिक्रप्सन पृ० ७३
--'बाणभट्ट
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हमारा व्यवहारिक प्राचार
श्री गालाल जैन यता', कलकत्ता
अज्ञानी बाहरी वस्तु का त्याग करता है परन्तु क्या क्या हमारे जीवन से वस्तु की महिमा चली गई है क्या समझ करके त्याग कर रहा है। वह कहता है यह वस्तु वस्तु की Importance नही रही क्या वस्तु Meaningतो मेरी है मैं इसका मालिक हैं परन्तु मुझे इमको छोड less हो गई अगर नहीं तो अभी हम वहीं पर है कोई
. फरक नहीं पड़ा। देना चाहिए अगर नही छोडना हू तो नरक जाना पडेगा अगर छोड़ देता है तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इससे
पहले वह तो ज्ञानरूप रहना चाहता है, इसलिए
पहले उन चीजों को छोड़ता है जो ज्ञान को मतवाला ज्यादा चीज वहा पर मिल जायेगी-समाज में प्रतिष्ठा
बनाने वाली है अपने को भुलाने वाली है वास्तव में शराब हो जायेगी, लोग मुझे त्यागी कहेगे, मेरा नाम हो जायेगा ऐसा मानकर वह त्याग करता है परन्तु अभी भी वस्तु मे
नाम ही शराब नही परन्तु वे सभी वस्तु शराब है जिसको आनापना नही गया। एक वह व्यक्ति है जो वस्तुआ मे
पीकर जिसको पाकर यह अपने को भूल जाता है मानवता बैठा है और उसमे मे रापना नही है जैसे कोई नुमाइश देख
को भूल जाता है इसलिए मानव बनने को उस आचरण
से उन चीजो के सेवन से परहेज करेगा जो मानवता को रहा हो । एक वह है जहा वस्तु नही परन्तु मेरापना है।
अपने को भुला देती है ऐसी चीज है मांस और मदिरा । अब विचार करता है सच्चा रास्ता क्या है ? ज्ञानी कहता
दूसरे जीव का मास खाकर अपना पेट भरे वहां मानवता है भाई ये परवस्तु मेरी नही, मैं गलती से इन्हें अपनाया
कहाँ है वह तो पणुता को ही प्राप्त नहीं हुआ परन्तु पशु यह नेरी गलती है अब मुझे मेरी गलती समझ मे आ गयी
हो गया यह कहना चाहिए । शराब तो नाम है किसी भी जितना पर का ग्रहण है वह मेरी गलती है और जितना
प्रकार का नशा उसके साथ मे शामिल है वह अपने पर छूट गया वह मेरी गलती छूटी है मैंने कुछ किया
आपको-मानवता को भुला देता है वह व्यक्ति को अपने नही। अज्ञानी समझ रहा है मैने कुछ किपा है धन को
आप से दूर करता है इसलिए ऐसी चीज़ो से बचता है। छोड कर परिग्रह को त्याग करके कोई बड़ी बात की है
संसार के समस्त प्राणी मात्र को अपने जसे निज आत्मइसलिए उसे अहकार हुए बिना रहता नही।
वत् दिखता है तब यह कैसे चाहेगा मेरे द्वारा किसी जीव ___ अगर यह व्यक्ति यह मानना है कि परवस्तु में, धन
को कष्ट हो किसी की विराधना हो उससे बचने के लिए मे, स्त्री मे, पुत्र मे, मकान-महल मे, गाड़ी-मोटरो मे सुख
रात्रि भोजन का त्याग, पानी छानकर पीना, अन्य खाने ता है अगर उनमे मुख मान रहा है तो उनको छोड़ते हुए के सामान को देख शोध कर काम में लेना। चलने में, भी ममस्त परिग्रह का त्याग करने पर भी अभी पर छूटा बैठने में किसी की विराधमान हो इसलिए समस्त क्रियाओं नही हे वह पर को पकड़ हुए है बाहर में छोड़ दिया परतु मे स्वच्छ वृत्ति को छोड़ता है। ऐसे व्यापारो से बचता है अतर में पकड़े हुए है। जैसे कोई अमरूद खाने में आनन्द जहां जीवों की विराधना होने का डर होता है। उस तो माने परन्तु डाक्टर के मना करने से नही खाता अथवा हिंसा वृति को भी चार भागों में बाटा हैवायु बढ़ जाने के डर से नही खाता परन्तु उसमें आनन्द
(१) संकल्पी हिंसा-किसी जीव का सकल्प करके मानता है तो वस्तु छोड़ते हुए भी परिग्रह नहीं छूटा। एक चीटी को भी नही मारता है यद्यपि उसके चलने में, अमरूद की Importance नही मिटी। वह परिग्रह इसलिए उठने में, व्यापार में, घर के काम-काज में जीवों की छोड़ रहा है कि भोगने से नरक जाना पड़ेगा। नहीं विराधना होती है पर यह चीटी है इसको मार दूं ऐसा भोगगा तो स्वर्ग मिल जायेगा। शास्त्र में मना किया है संकल्प करके एक जीव की भी विराधना नहीं करता। इसलिए नहीं भोगता है त्याग कर देता है परन्तु वस्तु की (२) उबोगी हिंसा-उसे कहते हैं जो व्यापार में महिमा अभी बनी हुई है। क्या यह हमारी दशा नहीं है होती है। यद्यपि ऐसा व्यापार नहीं करता जो बीवहिंसा
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१८, वर्षे ३७, कि०१
अनेकान्त
का व्यापार है परन्तु व्यापार मे हिंसा होती है वह भी करता जैसे-(१) किसी को झूठी बात कह कर गलत जैसे-जैसे रांग हटता है उससे बचता जाता है। धन की रास्ते लगा दे-सूठा उपदेश दे दे। दूसरे की गुप्त बात तृष्णा नहीं रही, जो है उसमें सतोष है इसलिए व्यापार को प्रगट करके उसे नीचा दिखा दे, उसको नुकसान पहुचा की जरूरत ही नहीं रहती।
दे। (२) खोटे खाता-पत्तर बनाये, झूठा स्टाम्प बना लेवे (३) आरम्भी हिंसा-घर-गृहस्थी के कार्य मे आदि। (३) किसी ने भूल से अपना देना कम बता दिया जीवो की विराधना होती है अब देख शोध कर सब काम उसकी गलती उसको समझावे। यह नहीं कहता उसने कर रहा है झाड़ भी निकाली जाती है तो विवेक से कम बताये। तो कहा-आपके दो सौ ले जाओ। निकाली जाती है। गेहूं को ज्यादा इकट्ठी नही करता (४) किसी की बात चेहरे वगैरह से जानकर प्रगट न करे। जो कुछ मगाता है उसको धूप मे देता है जिससे उनमे हित-मित प्रिय वचन बोले। किसी को चभती बात न जीवो की उत्पत्ति ही न हो। बिनने पर जो जीव निकलते कहे जिससे उसके परिणाम बिगड़ जावें। सत्य भी ऐसा सबसे अलग जगह पर रख देता है परों मे कड़े घर मे सत्य कहे जो अहिंसा से गभित हो । काने को काना कहना नही फैकता। मच्छर को मारने का उपाय नहीं करता सत्य नही है क्योकि इसमे हिंसा गर्भित है। झूठी गवाही परेत यह कैसा प्रयत्न है कि मच्छर उत्सन्न ही न हो। दना आदि कार्य न करे। व्यापार मे भी किसी को खोटे हर तरह से कम से कम आरम्भ करता है और जिन रास्ते नही लगावें, उसके नुकसान होने का मार्ग जानकर सूक्ष्म जीवो को नहीं बचा सकता वहा अपने प्रमाद का न बतावे । असत्य की प्रवृति क्रोध मे, लोभ मे आयेगीराग का दोष मानता है और उस प्रमाद्र को दूर करने का भय से और हसी मे होती है इससे इनसे बचाव करते हैं उपाय करता है।
लोभ कषाय इतनी घट गयी है कि अन्य के धन की चाह (४) बिरोधी हिंसा-अभी तक दूसरे को चलाकर ही नही अन्याय से कमाने का तो सवाल ही नही-न्याय उसको छुरा मारना नहीं चाहता परन्तु अपने देश पर, मार्ग से कमाने में भी कमी करने की चेष्टा करता रहता है अपने घर पर कोई आक्रमण करे तो तलवार लेकर बाहर अन्याय को परिभाषा हरेक व्यापारी वर्ग में अलग-अलग निकलता-देश की रक्षा करता है-घर की रक्षा करता है-डाक्टर, वकील, प्रोफेसर, इजीनियर, नौकरी करने है । अपने सामने अपनी स्त्री का शील कोई लूटे और वह वाला, व्यापारी सभी व्यक्ति अपना व्यापार करते हुए कहे कि मेरे को कषाय नही करना उसको तो कायर कहा भी ऐसा आचरण नही कर जो एक मानव की मानवता गया है वह तो तीव्र कषायी है । कमजोर की रक्षा करना को तिरस्कार करने वाले हो-जहा मानवता रो पड़े अन्याय का प्रतिकार करना यह तीव्र राग नही परन्तु ऐसा आचरण तो सज्जन पुरुष के लायक नही है जहा अन्याय के आगे झुक जाना यह तोव कषाय है। अभी पैसा तो आ सकता है परन्तु मानवता चली जाती है । कोई गृहस्थ में है इसलिए अभी साधु जैसी कषाय नही चली तरह का व्यवहार किसी भी क्षेत्र मे करते हुए चाहे वह गयी। इस प्रकार विरोधी हिंसा मे प्रवृति होते हुए भी सामाजिक क्षेत्र हो, चाहे राजनैतिक, चाहे धार्मिक हो, यही समझे अभी मेरे मे कितना राग है यह मेरा स्वरूप चाहे पारिवारिक देखना यह अगर ऐसा व्यवहार कोई नही, यह उपादेय नहीं। लड़ाई में जीत कर भी यही मेरे साथ करता तो क्या मेरे को सुहावना लगता, क्या समझे कि देखो राग के कारण इस प्रकार की प्रवृति मेरी आत्मा को चोट नहीं पहुंचती। यह विचार, यह करनी पड़ी। यह राग न होता तो किसका देश किसका देखते ही हमे रास्ता दिखा देता है कि हमे दूसरे के साथ घर ? मेरा अपना तो अपना शरीर भी नही है मैं अपने कैसे बोलना चाहिए-कैसा व्यवहार करना चाहिए और स्वरूप स्वभाव में ठहर सकता तो इनसे क्या प्रयोजन था। जहा कषाय कम होती है वहा वैसा अकारण होता ही है ___इसी प्रकार सत्यरूप प्रवृति करे-दूमरे को ठगने का अन्यथा प्रकार नहीं होता। तो सवाल ही नही परन्तु ऐसे कामों में भी प्रवृति नही अब निज में तो चोरी करता ही नहीं परन्तु दूसरे
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हमारा व्यवहारिक माचार
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को चोरी करने का उपाय भी नही बताता । उनको इस (४) परिग्रह परिमाण-पहले धन वैभव की मर्यादा प्रकार की सलाह भी नहीं देता कि तुम इस प्रकार कर नही थी। अभी समस्त परिग्रह को नहीं छोड सकता परंतु लो। चोरी के माल को कम दाम में बिकता हो, कोई कम अमर्यादा में अब मर्यादा करता है कि चार लाख ही दाम में देने को आया हम जानते हैं कि इसका दाम यह रखूगा। देखने में यह मालूम देता है कि इतने कितना कम बता रहा है फिर भी उसको नही खरीदता। (३) रखा है परन्तु तृष्णा पर दृष्टि डाली जाये तो मालूम राज के कानून के खिलाफ कोई काम नहीं करता-जैसे होगा कोई भी व्यक्ति ऐसा नही जिसको तीन लोक की सेलटैक्स की चोरी, इनकमटैक्स की चोरी, ब्लैक मारकेट विभूति से कम की इच्छा हो अभिव्यक्त नहीं है परन्तु वगैरह । देने लेने के बाद कम कंश रखना । (५) मिला- जैसे जैसे प्राप्ति होती जाती है तृष्णा उससे आगे बढती वट करना।
जाती है इतनी तृष्णा को घटाकर अगर किसी ने चार ब्रह्मचर्य-पर स्त्री के ग्रहण का तो सवाल ही नही अपनी
लाख की मर्यादा की तो उमे रखा बहुत कम है थोड़ास्त्री में भी राग परणति को कम करता जा रहा है जितना
बहुत ज्यादा है। अब पेटी भरने की अभिलाषा नही रही स्वस्त्री के प्रति झुकाव है उमे अपनी गलती मममता है
मात्र पेट भरने तक ही सीमिन है। दूसरे की जरूरत को सा व्यक्ति-स्त्री के रागपूर्ण कथाओ को नही सुनता गेले
अपने से ज्यादा समझता है इसलिए अनावश्यक सग्रह नहीं वाइसकोप वगैरह देखने से बचता है जिसमे स्त्री की नग्नता
करता। देश को एक परिवार समझता है और समझता का प्रदर्शन किया जाता है। (२) अन्य स्त्री जो बनाव
है कि परिवार में जैसे दस सदस्य है तो सबको बांटकर गार ज्यादा करती है उनकी संगति में न जाय! (३) खाना चाहिए। अपने हिस्से मे जितना आवे उतने से ही पहले जो भोग भोगे हो उनको याद न करे। (४) अपने
काम चलावे। यहां देश को परिवार समझ कर अपने आपका भी सिंगार करने से यह भावना पैदा होती है कि
हिम्से में ज्यादा की चेष्टा नहीं करता। जितना परिग्रह कोई मेरे का देखे। इसलिए अपने आपका भी सिंगार न
का परिमाण किया है उसमे भी कमी करता जाता है करें। स्वच्छ रखना अलग बात है शृगार करना अलग
और कम से कम मे आने की चेष्टा करता है। जितना बात है। (५) और ज्यादा गरम भोजन करने से भूख से
परायापन-पर की अपेक्षा घट जाती है उतना ममता ज्यादा खाने से भी बचे क्योकि ऐमी वाते काम वासना
है कि मैं स्वाधीनता की तरफ जा रहा हूं जितनी पर की को उत्तेजित करती है।
परिग्रह की अपेक्षा रह जाती है उसे पराधीनता मानता यहां तक कि अपने बच्चो के शादी विवाह के अलावा
है और पूर्ण पगधीनता दूर करने की चेष्टा करता है। अन्य के बच्चो का शादी विवाह कराने में अगुआ नही
नादि को बाधक नही मानता परन्तु पर की अपेक्षा की होता । जो दूषित आचरण की स्त्रिया है चाहे विवाहित
पराधीन और पर की अपेक्षा के अभाव को स्वाधीनता हो अथवा वेश्यादिक हो उनसे सम्पर्क भी नही रखता।
मानना है । जितना-जितना आत्मनिष्ट होता जाता है पर काम विकार के अगो को छोडकर अन्य रास्तो से काम में
की फिक्र दूर होती जाती है। प्रवृति नही करता । और अपनी स्त्री मे भी मर्यादा करता
आगे बढ़ता है रोज तीन टाइम बिना नागा के दो है कि महीने में चार टफे, दो दफे-एक बार इन्यादिरूप घडी हर बार आत्मचिंतन करता है। आत्मा को स्पर्ण से अपनी स्वेच्छा वृति को कम करता है ।
करने की चेष्टा करता है, इसी को अपनी कमाई मानता ऐसी प्रवृति को प्राप्त है कि समार शरीर भागो म है। कहने में चार बार उपवाम करके अपनी शक्ति को विरक्त हो रहा है। जितना ग्रहण है उसे अपनी कमजारी तोलता है कि पर मे निष्ठा अभी कितनी है। उपवास के कमी समझता है उसे ग्रहण की महिमा नहीं है परन्तु रोज का टाइम आत्मचितन में बिताता है। हप्ते में कारपश्चाताप है भोगादिक से विरक्त हो रहा है । पहले स्वेच्छा बार की एक रोज छुट्टी होती है तब व्यक्ति उस रोज वृति थी अन्यायपूर्ण थी वहां से न्यायपूर्ण में आता है फिर सब अपना कार्य करते हैं। यहां पर वह एक रोज शरीर उसमें भी कमी करता जाता है।
से परिवार मे छुट्टी लेकर अपने चेतन आत्मा के कार्य में
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२०, बर्व ३७,कि.१
लगता है इससे अपने परिणामों की आसक्ति का पता ढंकने को कुछ नहीं रहा । यह परम उत्कृष्ट मुनि अवस्था मगाता है। अब स्त्रीकामाग करके पूर्ण ब्रह्मचर्य को को प्राप्त होता है। धारण करता है। फिर घर के बाराम का भी त्याग कर
अब भोजन को भी प्रकृति पर छोड़ दिया। इस शरीर देता है। सवारी पर चढ़ने की भी अपेक्षा नही रही। कोई
की कोई अपेक्षा रही नहीं, अगर इसको रहना है तो अपने भी भोजन के लिए कहता है वही हिंसा से वजित भोजन
आप भोजन मिलेगा इसलिए अनेक प्रकार के नियम लेकर ग्रहण करता है यह भी नहीं कहता मेरे खाने को यह चीज
भोजन को जाता है। अगर संयोग से वैसी व्यवस्था बनती चाहिए । कषाय घटती जाती है दो टाइम की जगह एक हता भाग
है तो भोजन लेता है । परिग्रह से कोई सम्पर्क नही रहा । टाइम भोजन करने लगता है। व्यापार का त्याग कर पराल्मापन छूट गया, बाहरी परात्मापना तो रहा नहीं। देता है अभी व्यापार में अनुमति देता था अब अनुमति कामवासना रही नही–बह आत्म ऊर्जा जो स्त्री भोग मे देना भी छोड़ देता है। परिग्रह का वो परिमाण किया था
लगती थी वह आत्मभोग में लगने लगी-जो बाहर की उसमें कमी करता जाता है । अभी घर पर रहता था अब
तरफ पर पदार्थों की तरफ बहती थी वह अन्दर की तरफ मन्दिरादि धर्म के स्थानों में रहता है । अब घर नहीं रहा,
बहने लगी। अहिंसामयी क्षमामयी पने को प्राप्त वह आत्मा घर की चहारदिवारी हट गई वह जो घर की सीमा
अब वास्तविक स्वभाबिक साधुपने को प्राप्त होता है। यह बनाती थी वह दीवार गिर गयी, अब कोई घर पराया
साधु पर ओढ़ा हुआ नहीं है बाहर से आया हुआ नहीनहीं रहा और न कोई घर अपना रहा। जब किसी घर
यह बना हुआ साधु नहीं है इसने अपने शरीर को साधु में अपनापना मानते हैं तब अन्य घर में परायापना आता
नहीं बनाया परन्तु यह आत्मा साधुता को प्राप्त हुई है,
यह आत्मक्रान्ती है। है परन्तु जब अपना मिट जाता है तो पराया भी मिट जाता है।
बाहर मे धन नही, कपड़ा नही, खाने का नही, गर्मी एकसंगोटी मात्र परिबह रहा है अब भोजन के सर्दी से बचने का नही परन्तु अंतर के वैभव से महान लिए बुलाने की भी अपेक्षा रही कि जो बुलावे वहीं शांति का अनुभव कर रहे है । जहा दुख रहा नही किसका बाय परन्तु भिक्षा के लिए निकलता है अनुकल स्थिति दुब हो किसी चीज मे अपनापना नही अपना समय ध्यान देखकर भोजन ग्रहण करता है, दिन भर आत्मचिंतन अध्ययन में लगा रहे हैं। बार-बार आत्मस्वरूप की अनुकरता है-वर्ष रात्रि में २४ घण्टे के लिए सोता है। भूति कर रहे है। ४८ मिनट के भीतर एक बार जरूरी गर्मी सर्दी के लिए कोई गाव की जरूरत नहीं रही। अपनी आत्मीक वैभव की अनुभूति करते हैं। ध्यान से हटते परम शान्त अबस्था को प्राप्त होता जाता है। जीवों की हैं तो २८ मूलगुणों रूपी लक्ष्मण रेखा के भीतर प्रवति रक्षा के लिए मयूरपिच्छि रखता है चार हाथ जमीन देख होती है इसके बाहर जाने पर तो साधु की स्थिति ही नहीं कर चलता है न जोर से चलता है न धीमें चलता है। रहती । बच्चा जैसे हिंडोले में मूलता है कभी ऊपर जाता है टट्टी पिशाब भी जमीन को देख कर करता है किसी जीव कभी नीचे आता है। वैसे यह आत्मिक झूले में हिंड रहा की गिराधनान हो जाये। अब विरोधी हिंसा का भी ध्यान में स्थित होता है तो ऊपर में जाता है ध्यान से बचाव हो गया है चाहे कोई मारोपाहे बाली देवे वहां हटकर २८ मूल में आता है। अपना मुनिपना अपने मे कोई कर्क नहीं है।
पानता है २८ मूल गुणों को तो राग मानता है जो वहां परन्तु अभी तक भी एक लंगोटी मात्र का अब बस सी है उसकी पराधीनता बाकी है परिणामों में निर्मलता बढ़ती ।
काय बचन मे कोई फर्क नही, धनिकनारीब का कोई है। आत्म अनुभव के बस पर राग टूटता लगोटी को भेद नहीं, सत्र-मित्र का भेद नही, निंदा और प्रशंसा मे जरूरत नहीं रहती। किसी को मंगा देखने की जरूरत भेद नही, जंगल और शहर में फर्क नहीं। सुख-दुख में, नहीं रही तो अपनी नग्नता ढकने का सवाल भी नहीं बीवन-मरण में कोई भेद नही रहा न मरण दुख है न जीवन
या। माता के गर्भ से उत्पन्न हुए निर्विकार बनेको की अभिलाषा है। इस प्रकार आत्मा को आत्मा भाता तरह जो निर्विकार को प्राप्त हो गया है, उसके पास बब हुबा शांत अवस्था को प्राप्त होता है। 0g
परमाअभी उतना पड़ा हुआ
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लोक-प्रतिष्ठा और प्रात्म-प्रशंसा
संस्कृत में एक सुभाषित है-'बुभुक्षितः किन करोति पापम् ।'-भूखा कौन-सा पाप नहीं करता? अर्थात् उसे किसी भी पाप से परहेज नहीं होता । वह किसी भी कीमत पर अपनी भूख मिटाने की खरीद-फरोख्त करता है। पेट की भूख मिटाना कदाचित् सरल है अपेक्षाकृत प्रतिष्ठा और प्रशंसा की भूख से । आज यह रोग महामारी की भांति फैल रहा है और इससे पीड़ित व्यक्ति चाहे वह गुणों से दूर ही क्यों न हो, हर छोटे-बड़े, अच्छेबुरे की अपेक्षा किए बिना, चाहे जो भी कीमत चुकाकर, चाहे जिस किसी अधिकारी या अनधिकारी से प्रतिष्ठा की भूख मिटाने में सन्नड हैं । आज जो पदवियों, मानपत्रों और ऐसे ही प्रन्यों के आदान-प्रदान की परिपाटी चल पड़ी है उसमें अधिकांश इसी रोग के चिह्न हैं। ये ऐसे लेन-बैन के प्रसंग आत्म-अहित के साथ 'तीयंकरों की वाणी और धर्म' के प्रति वगावत को ही इंगित करते हैं -वास्तविकता के माप को नहीं। ध्यान रहे-लोकप्रतिष्ठा और आत्म-प्रशंसा दोनों ही आत्म-हित में नहीं । पाठकों से अपेक्षा है कि वे उक्त सन्दर्भ में स्व० पूज्य बरे वर्णी जी के सुभाषितों से लाभ लेंगे। लोक-प्रतिष्ठा
आत्म-प्रशंसा
१. संसार मे प्रति ठा कोई वस्तु नही, इसकी इच्छा १. जबतक हमारी यह भावना है कि लोग हमें उत्तम ही मिथ्या है । जो मनुष्य संसार बन्धन को छेदना चाहते कहे और हमें अपनी प्रशसा मुहावे तबतक हमसे मोक्षमार्ग हैं वे लोकप्रतिष्ठा को कोई वस्तु ही नहीं समझते। अति दूर है। २. केवल लोकप्रतिष्ठा के लिए जो कार्य किया जाता
२. जो आत्म-प्रशंसा को सुनकर सुखी और निन्दा है वह अपयश का कारण और परिणाम मे भयङ्कर
को सुनकर दुखी होता है उसको ससार सागर बहुत दुस्तर होता है।
है। जो आत्म-प्रशसा को सुनकर सुखी और निन्दा को सुन ३. संसार मे जो मनुष्य प्रतिष्ठा का लिप्सु होता है
कर दुखी नही होता वह आत्मगुण के सन्मुख है । जो वह कदापि प्रात्मकार्य में सफल नही होता, क्योकि जो
आत्म-प्रशसा सुनकर प्रतिवाद कर देता है वह आत्मगुण आत्मा पर-पदार्थों से सम्बन्ध रखता है वह नियम मे
का पात्र है। आत्मीय उद्देश्य से च्युत हो जाता है।
३. जो अपनी प्रशस्ति चाहता है वह मोक्षमार्ग में ४. लोक-प्रतिष्ठा की लिप्सा ने इम आत्मा को इतना
कण्टक बिछाता है। मलिन कर रखा है कि वह आत्मगौरब पाने की चेष्टा ही नहीं कर पाता।
४. आत्म-प्रशंसा आत्मा को मान कषाय की उत्पत्ति५. लोक-प्रतिष्ठा का लोभी आत्मप्रतिष्ठा का अधि- भूमि बनाती है। कारी नही। लोक में प्रतिष्ठा उसी की होती है जिमने ५. आत्मश्लाघा में प्रसन्न होना समारी जीवो की अपनेपन को भुला दिया।
चेष्टा है। जो मुमुक्ष हैं वे इन विजातीय भावो से अपनी ६. लोक-प्रतिष्ठा की इच्छा करना अवनति के पथ पर आत्मा की रक्षा करते हैं। जाने की चेष्टा है।
६. आत्म-प्रशसा मुनकर जो प्रसन्नता होती है, मत ७. संसार में बही मनुष्य बड़े बन सके जिन्होंने समझो कि तम उससे उन्नत हो सकोगे । उन्नत होने के लोक-प्रतिष्ठा की इच्छा न कर जन हित के बडे-से-बडे लिए आत्म-प्रशसा की आवश्यकता नही, आवश्यकता सद्कार्यों को अपना कर्तव्य समझ कर किया।
गुणो के विकास की है। -'वर्णी वाणी से साभार'
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ताकि सनद रहे और काम आए
अनुसर-योगी तीर्थकर महावीर (उपन्यास) की विसगतियो को लक्ष्य कर 'अनेकान्त' के गतांक में 'विचारणीयप्रसंग' दिया गया था। प्रबुद्ध पाठकों ने उसका सदुपयोग कर जो अमूल्य-विचार भेजे हैं उनमे से कुछ के कुछ अंश 'सनद' रूप मे अंकित किये जा रहे है। यद्यपि देश और समाज के वर्तमान वातावरण को देखते हुए आभास होता है कि प्रायः आज युक्ति, आगम और तर्क की अपेक्षा "जिसकी लाठी उसकी भैस' की बलवत्ता है--फिर भी हम आशावादी हैं । डा० नेमीचन्द्र जी इन्दौर के शब्दों में-'अपनी तरह लिखो रहिए । स्वाधीनवृत्ति के शेर को भला पिंजरे में आज तक कोई डाल पाया है।'
-सम्पादक १. श्री भंवरलाल न्यायतीर्थ (सम्पादक वीरवाणी) का भी लोगो में साहस नही रहा है। अपने पैरो आप
-लेख सुन्दर व समयानुरूप है। वीरवाणी मे कुल्हाडी मारने का उद्यम तो हमने न जाने किन अविवेक छापना क्रमशः शुरु कर दिया है। अन्त में साथ मे के क्षणो मे कर लिया है। आपने फिर भी समय पर ठीक सम्पादकीय भी लिखूगा।
कदम उठाकर चेताया है तदर्थ धन्यवाद । इसमें सफलता २. प्रो. डा० रमेश चन्द्र डी. लिट्-विजनौर
मिले तभी मजा है।
२४-१-८४ -आपने जिस निर्भीकता से अनुत्तरयोगी मे लिखित
६. डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ दिगम्बर सिद्धान्तों से विपरीत मान्यताओ की ओर ध्यान
-विचारणीय प्रमग के अन्तर्गत अनुतर योगी की आकर्षित किया है वह स्तुत्य है।"
आपकी समीक्षा ध्यान से पढी। आपका 'जरा सोचिए' आपकी पैनी दृष्टि के प्रति समाज को अवश्य ही
शीर्षक सामयिक स्तभ भी अच्छा और आवश्यक लगा। आभारी होना चाहिए।
११-१-८४
अनेकान्त के लिए जो श्रम आप करते है और जिस ३. श्री प्रो० गोरावाला खुशालचन्द्र, वाराणसी
योग्यता से पत्रिका निकाल रहे हैं, श्लाघनीय है। -मैंने अनुत्तर योगी के दर्शन भी नहीं किए हैं।
२१-१-८४ आप मेरे लिए विश्वास भाजन हैं । फलतः और लोगों से ७. सेठ राजेन्द्र कुमार जैन, विविज्ञा सनी स्फट विसंगतियों की पुष्टि हुई। आर आपके विचारणीय प्रसंग पर आपका अनुत्तरयोगी संबंधी विचारणीय प्रसग के विचारो को उपयुक्त मानता हू। सवर्यलर प्राप्त हुआ। मैंने अनेक वयोवद्ध अन्य विद्वानों तथा उनका समर्थन करता हूँ। पुण्यश्लोक मुख्तार सा० ।
और त्यागियो से इस विषय पर विचार सुने किन्तु आपने तो अनेकान्त के संस्थापक थे।-१३-१-८४
कलम चलाकर साहस और गौरव का कार्य किया है। ४. श्री पं० मूलचन जी शास्त्री, श्री महावीर जी
आपके विचारों में सहमति की नहीं, सिद्धान्त के रक्षण की -यह पत्र आपको अनेकानेक धन्यवाद देने के लिए।
बात है इसमें सहमति नही, इस पर कुर्बानी आवश्यक है। लिख रहा है। मैंने भी कुछ स्थल इसमें बहुत पहले देखे
२४-१-८४ थे--मझे देखकर दुख हुआ था। मुझमे इतनी क्षमता नहीं . बी.डी. जैन, नई दिल्ली थी जो इन पर कुछ लिखता । आपने जो विचारणीय प्रसग -अनुत्तरयोगी तीर्थकर महावीर उपन्यास को आपने लिखकर एक बहुत बड़े साहस का कार्य किया है और बहुत ही पैनी दृष्टि से पढ़ा है। उठाए गए प्रसंग वास्तव दिगम्बर मान्यता का रक्षण किया है-इस विषय में आप- मे बहुत ही विचारणीय है । निःसदेह आप समाज को नई का धन्यवाद किये बिना नही रह सकता। १६-१-८४ दिशा प्रदान कर रहे हैं और सिद्धांतो की रक्षा कर रहे हैं। ५. श्री पं० रतनलाल कटारिया, केकड़ी
२८-१-८४ ___'अनुत्तर योगी' पुस्तक के विरोध में जो आपने ९. हेमचन्द नेमचन्द काला, इन्दौर आवाज उठाई है वह सही कदम है । आजकल सत्य कहने -आपकी लेखनी की स्पष्टवादिता को साधुवदा
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ताकि सनद रहे और काम आये
२३ देते हुए यही लिखना चाहता हूं कि अनुत्तरयोगी के से करना कोई अनुचित बात नही है। आशा है वे परम्परा प्रकाशन मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिन-जिनका भी विरुद्ध अंशों का परिष्कार अगले सस्करण मे अवश्य कर हाथ रहा हो उन सबको सार्वजनिक रूप से ऐसे कृत्यों के देगे।
१५-२-८४ लिए क्षमा मागनी चाहिए। अनुत्तर योगी के बारे में जो १२. डा० प्रेमचन्द्र जैन, जयपुर कुछ लिखा गया है उसे पढकर ऐसा लगता है कि भ्रम
अनुत्तरयोगी महावीर की समीक्षा पढ़ी। मै आपके फैलाने वाले तथ्य किस उद्देश्य स दिए जा रहे है और दि०
विनारो मे पूर्णता सहमत ह । इस विषय पर दि० जैनियो
द्वारा इस प्रकार लिखा जाना एक दम असहनीय है। समाज को किस दिशा में ले जाया जा रहा है ? क्या एक आपका लिखना प्रमाणपूष्ट निर्भीकता और स्पष्टता लिए दिन ऐसा आयगा कि दि. समाज का लोप हो जायेगा। हुए है । यह दि० विद्वानो के लिए मर्वथा विचारणीय है।
३१.१.८४११. डा. नन्दलाल जैन, रीवा १०. सम्पादक, सन्मति संदेश
'अनुत्तर योगी तीर्थंकर महावीर' नामक उपन्यास के -अनेकान्त में आपका लख विचारणीय प्रसग पढ़कर अन्तःपठन के आधार पर 'अनेकान्त' में जो बिन्दु उठाए है यह अनुभव हुआ क मिद्धान्त की सुरक्षा के लिए आप
उन पर सारी दि० जैन समाज एव विद्वानों को ध्यान जैसे निर्भीक स्पष्टवक्ता विद्वान ही सक्षम हो सकत है। देता चहिए । यह कितना अच्छा होता कि प्रकाशन समिति अनुत्तर योगी के सिद्धान्त विरुद्ध प्रकरणो को जैन समाज ग्रन्थ को आद्यापान्त पढने के बाद प्रकाशित करती। इससे के समक्ष रखकर भविष्य में होने वाली अपार क्षति से आपने उत्तरवर्ती समय में इस उपन्यास के कारण दि. जैन धर्म, समाज को सचेत कर महान उपकार किया है। २-२-८४ मवीर और उनकी माताओ के प्रति घामक ११. डा० श्री राजमल जैन, नई दिल्ली
सभवत. स्थिर न हो पाती। आप जैन सिद्धान्तो के प्रति परम्परागत तथ्यों के सरक्षण को किसी भी कवि या
जितनी जागरुकता का परिचय दे रहे है वह श्लाघनीय है चरित्र लेखक ने दृष्टि से ओझल नही किया है यही आशा
वस्तुत 'अनेकान्त' और वीर सेवा मन्दिर इस हेतु ही वीरेन्द्रकुमार जी तथा दि० जैन समिति से स्वाभाविक रूप स्थापित है।
२७-२-८४ समाधान-हेतु : शंका क्या द्रव्य स्त्री के तीर्थकर प्रकृति का बंध और क्षायिक सप्तप्रतिनिरवशेषाय भयांत'-इसी को जनेन्द्र सिद्धान्त सम्यक्त्व हो सकता है, वैसे तो शास्त्रो में स्पष्ट निषेध है कोश भाग 6 के पृष्ठ २७८ पर उद्धृत किया है। इसमें किन्तु दो स्थल-विशेष मे शका है जो इस प्रकार है - जो अचार 'महावन मानुपी' का विशेषण दिया है मो १. हरिषेणकथा कोश कथा नं. १०८ श्लोक १२४-१२६, इमसे ये द्रव्य स्त्री विदित होती है। द्रव्य में पुरुप हो और
अय सा रुक्मिणी नत्वा सर्वसत्वहित गुरु, भाव स स्त्री हो उसके तो भयिक सम्यक्त्व शास्त्रों मे सयमश्री समीपे च प्रवव्राज मनस्विनी।। बनाया है वह नी सगत है किन्तु ऐसी भाव स्त्री के उपचार बद्धवा तीर्थंकर गोत्र तप शुद्ध विधाय च । महावत कैसे होगा? उपचार महावत तो द्रव्य स्त्री के ही रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो दिवि सुरो महान समव है । द्रव्य पुरूप के तो वास्तविक महावत ही होगा। देवश्च्युत्वा भुव प्राप्य तपः कृत्वायमुत्तर । भाव स्त्री के जब १४ गुणस्थान हो सकते है तो उसके निहत्याशेष कर्माणि मोक्षं यास्यति तीरजा. ॥' उपचार महावत तक ही बताना भी असगत प्रतीत होता २. गोम्मटसार जीवकांड गाथा-७०४ की सस्कृत व है। अत. 'असयतदेश सयतोपचार महावत मानुषीणां' पद कर्णाटकी टीका तथा टोडरमल जी कृत उसकी बच- का क्या समाधान है ? मानुषी (भावस्त्री) के छठा सातवाँ निका मे प० कैलाशचन्द्र जी के हिन्दी अनुवाद भाग २ पृ. गुणस्यान क्यो नही ? सर्वार्थसिद्धि अ०१ मत्र की टीका ९३१-६३२ (भा० ज्ञानपीठ) मे इस प्रकार लिखा है- तथा राजवार्तिक अध्याय सत्र ७ की टीका मे भी इस 'क्षायिक सम्यक्त्व तु असयतादि चतुर्गणस्थानमनुष्याणा
विषय का विवेचन है किन्तु 'असयत देश संयतोपचार महाअसंयतदेश संयतोपचारम हावत मानुषीणा च कर्मभूमि- व्रत मानुषीणा पद' वहा भी नही है। वेदकसम्यग्दृष्टिनामेव केवलिश्रुतकेवलिद्वय श्रीपादोपान्ते उक्त विषय मे विद्वान् प्रकाश डालने की कपा करें।
-श्री. रतनलाल कटारिया, केकड़ी
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विचारणीय-प्रसंग:
मूल-जैन-संस्कृति : अपरिग्रह
0 श्री पप्रचन्द्र शास्त्र', नई दिल्ली 'आज लोगों में चिता व्याप्त है कि-यदि हम 'अपरिग्रहवाब' को मूल-जैन-संस्कृति मान बैठे तो हम कहां के रहेंगे? आज तो हम अहिंसा को मूल संस्कृति बता कर बया, जीव रक्षा और परोपकार के नाम पर थोड़ा बहुत दान देकर दानी धर्मात्मा और अहिंसक जैनी बने हुए हैं और संग्रह के आयामों में भी हमें किसी प्रकार की अड़चनें नहीं आती -बाहे जैसे और जितना कमाते और सुख भोग करते हैं और हमें समाज में प्रतिष्ठा भी मिली रहती है, आदि। यह सारी चिता परिपह को कृशता में संतोष धारण से सहज ही दूर हो जायगी और जैनत्व को बल मिलेगा।' पाठक विचार करें।
-सम्पादक 'सस्कृति' शब्द बड़े गहरे भाव में है और इसका आ रही है ? तीर्थकर ऋपभदेव की यह देन है यह कथन सम्बन्ध वस्तु की स्व-आत्मा से है। सस्कार किया हुआ भी व्यवहार है। वास्तव मे तो तीर्थंकर ऋषभदेव भी रूप 'सस्कृत' कहलाता है और सस्कृत हुए शुद्धरूप की तीर्थंकरो की अनादि परम्परा में इस युग की प्रथम कडी धारा सस्कृति होती है । विकसित स्व-गुणो की धारा होने थे; जिन्होंने इस सस्कृति को पुन: उजागर किया। कोई. से सस्कृति' स्थायी होती है । कोष में सस्कार का अर्थ 'शुद्ध कोई लोग तो जैन-सस्कृति को भगवान महावीर की देन किया जाना' लिखा है और संस्कृति सस्कार किए गए- मानने के भ्रम में है। पर, स्मरण रखना चाहिए कि 'जैनसंस्कृत रूप से प्राप्त है अतः 'संस्कृति' का स्थायित्व सस्कृति' वह है जो मूल अनुसरणी है-भूल के विपरीत म्वसिद्ध है। इसके विपरीत-'असस्कृति'-पर अर्थात् नही है। ये सस्कृति जिनसे प्रकाश मे आई वे जिन' अन्यों से प्रभावित बहुरूपियापन से लदी--अस्थायीरूप होती अपरिग्रही-शुद्ध आत्मा का अनादि मून रूप ही है । हाँ, है क्योकि बहरूपियापन उधार लिया हुआ नाशबान रूप जैन-सस्कृति की भाति सस्कृति शब्द का व्यवहार मानव हाता है-वह स्थायी नही हाता । उदाहरणाथ-स्वर्ण का आदि अनादिवर्ती अस्तित्वो के साथ भी हो सकता है। रूप निखरना उसका सस्कृत होना होता है और निखरे बोल हुए इस सस्कृत रूप से पनपने वाली संस्कृति स्वर्ण संस्कृति
यदि हम जैन-सस्कृति, मानव-सस्कृति, आत्म-सस्कृति हाती है और खोट मिल सोने की सस्कृति (?) असस्कृति
आदि कहे तो ठीक बैठ जाता है, क्योकि ये सदा से है होती है। ऐसे हो अन्यत्र समझना चाहिए। लोगो ने
और सदाकाल रहेगे और इनके अपने रूपो से अपनो में सस्कृति शब्द को व्यवहार परक रीति-रिवाज, वेश-भूषा
भेद न होगा, जब कि हिन्दू का हिन्दू से, मुसलमान का आदि अन्य अनेक अर्थो मे भी लिया है -सो वह व्यवहार
मुसलमान से भेद हो जायगा। ध्यान रहे पथ-सप्रदाय के ही है-वास्तविक नही।
आधार से पनपने वाली कथित संस्कृति (?) उसके अनुजिन' शब्द पारिभाषिक और व्यवहार-परक है और यायियों से अनेको भेदो मे बँट जायगी। जैसे दि. जैन, यह (कर्मों को) जीतने वाले शुद्ध आत्माओ को इगित श्वेताम्बर जैन, तेरहपथी जैन, बीसपंथी जैन तथा शियाकरता है। 'जिन' का धर्म जैन कहलाता है। इस धारा मुसलमान-सुन्नी-मुसलमान आदि। पर, आत्मा, मानव का ऐसा प्रवाह जो स्वयं शुद्ध हो या शुद्धि मे निमित्त हो या 'जिन' मे ऐसा नहीं होता-सभी अपने लक्षणों, गुणों सके जैन सस्कृति' है।
से अपने में एक जैसे अखण्ड हैं इनके लक्षणों-गुणों में कभी यह कोई नहीं जानता कि जैन सस्कृति कब से चली अन्तर न आयगा। यदि कभी कहीं किसी प्रकार का
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मूल-जैन-संसाति : अपरिह
अन्तर दिखेगा तो वह मूल की अपेक्षा न होकर पर. थे। भरत-बाहुबली का स्वयं व्यक्तिगत युद्ध करना स्वाप्रभावित-विकारी आधारो से प्रभावित असस्कृत अवस्था भाविक ही प्राणियो पर दया का परिचायक है। उस का ही रूप होगा।
समय का वातावरण (जीवन मे और आयु के अन्त तक ___मस्कृति' शब्द से मूलस्वभाव की धारा अभिप्रेत है मे भी) परिग्रह-निवृति और संयम धारण के लक्ष्य का और 'जन-सस्कृति' जिन अर्थात् आत्मा के शुद्ध एकाकी था। 'पच समिदो तिगुत्तो पंचेदियसंवुडो जिद कसाओ। शुद्ध मूलरूप को इगित करती है । पलत. 'जैन-सस्कृति' मे दसण-णाण समग्गो समणो सो संजदो भणिदो। आत्मा के मूल विकाम मे कारणभूत-पर से निवृत्ति यानी
प्र. सा. ३४० परिग्रह के त्याग को प्रमुखता दी गई है। अतरग परिग्रह
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जनों में सदा से राग-द्वेष, मोहादिक और बाह्य परिग्रह सामारिक सभी
वीतरागता प्राप्ति और परिग्रह निवृत्ति को ही प्रमुखता पदार्थों से निवृत्ति, आत्मा के स्व-मूलरूप के प्राप्त करने मे हर
दी जाती रही है। इसीलिए सभी तीर्थंकरों के साथ वीतसाधन है। अहिंसा आदि सभी आचार-धर्म भी परिग्रह
रागी जैसे विशेषण को जोड़ने का प्रचलन रहा है जैसेनिर्वृत्ति मूलक है। अत: मूल जन-सस्कृति 'अपरिग्रह' है
वीतराग ऋषभ, वीतराग महावीर आदि। कभी, कहीं और किंचित भी परिग्रह न रहना आत्मा की शुद्ध "जिन' किसी तीर्थकर को (अहिसक होते हुए भी) अहिंसक जैसे दशा है-जिमसे यह 'सस्कृति' पनपी और प्रकाश में आई
विशेषण से संबोधित करने का प्रचलन नही रहा । जैसेऔर जन-सस्कृति कहलाई।
अहिंसक ऋषभ या अहिंसक महावीर आदि। यत: ये सब लोक मे 'अहिंसा परमो धर्मः' 'जियो और जीने दो'
धर्म परिग्रह-निवृति पर ही आधारित हैं। आदि जैसे नारे, जो आचार परक है और जिन्हे मूल जैन
जब हा हिंसादिक के लक्षणो पर दृष्टिपात करते हैं सस्कृति से जोडा जा रहा है वे सभी नारे भी अपरिग्रह
तब वहां भी हमे परिग्रह की ही कारणवा दिखती हैमूलक ही है अर्थात् वे 'जिन' की स्वभाव परक अपरिग्रह
'प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा।' इसमें प्रमत्त (प्रमाव) रूप सस्कृति के फलीभू। कार्य है। ऐसे नारो का सद्भाव
को परिग्रह ही जानना चाहिए। इसका अर्थ है-प्रमाव जैनो को सिवाय जनेतरो मे भी है-जनेतर भी हिंसा,
के योग से प्राणो का घात हिंसा है। आगे भी प्रमाद की झूठ, चोरी, कुशील जैसे पापो की भर्त्सना करते है, भले
मुख्यता दिखाई देती है। जैसे-- हो वे जैनियो की भाति इनके सूक्ष्म रूपो पर न पहुचे हो। हाँ, वे अन्त तक अपरिग्रह के पोषक नही। उनके ईश्वर
१. यत्खलु कषाय योगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । भी परिग्रह के पुजारी और परिग्रह से आवृत रहे हैं जब
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४॥ कि 'जिन'-अहंतो में 'अपरिग्रह' को पूर्णता है।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । ऐसा मालूम होता है कि 'अहिंसा परमो धर्मः' आदि
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥४५।। नारे 'मारो या मरने दो' जैसे नारो के प्रतिद्वन्द्वी हैं । संभवतः
व्युत्थानावस्थाया रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । इनका अधिकाशत: प्रचलन, नारद-पर्वत सवाद जैसे अन्य
प्रियतां जीवो मा वा धावत्यने ध्रव हिंसा ॥४६॥ बहुत से प्रसगो का फलीभूत कार्य हो, जब 'अज' का अर्थ
तस्मात् प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपण नित्यम् ॥४८॥ बकरा किया जाने लगा हो । या तीर्थकर महावीर के सम
यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्माप्रथममात्मानम् ।।४७॥ कालीन हो जब कि धर्म के नाम पर हिंसा का बोलबाला
पुरुषार्थ० ४३-४८ हो चुका हो । अन्यथा भगवान नेमिनाथ से पहिले हिंसा के -निश्चय ही कषाय (प्रमाद) रूप परिणमित हुए ऐसे प्रसंग बिरले ही रहे होगे। युग के प्रारम्भ मे भ. मन-वचन-काय से जो द्रव्य और भावरूप दो प्रकार के ऋषभदेव के समय में ऐसा प्रसग नही था । तब तो राज- प्राणों का बात करना है वह हिंसा है। योग्य बाबरण दण्ड मे भी हा, मा, और धिक् जैसे बयापरक शब्द दम बाले सन्तपुरुष के रागादिक भावों के अनुप्रवेश के बिना
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२६, वर्ष ३७, कि
अनेकान केवल प्राणपीड़न से हिंसा कदाचित् भी नही होती । रागा- अनुमोदना तथा क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौचादि पूर्ण धर्मों से दिक भावों के वश में प्रवृत्ति रूप--अयत्नाचाररूप प्रमाद संपुष्ट होना अवश्यम्भावी है। वर्तमान में जिसे अहिंसा अवस्था में जीव मरो अथवा न मरो, हिंसा अवश्य है। मानने का प्रचलन चल पडा है उसमें यद्यपि दया-करुणा प्रमाद के योग में निरन्तर प्राण घात का सद्भाव है, आदि रूपों की प्रेरणा तो परिलक्षित होती है पर अन्य आत्मा कषायभावो सहित होने से पहिले अपने ही द्वारा धर्मों की संपुष्टि मे खामियां रह जाती हैं, फिर चाहे वह आपकों घातता है।' आदि ।
श्रावक सम्बन्धी अहिंसा हो या मुनि सम्बन्धी हो। इसमे ___ जैसे हिंसा में प्रमाद मूल कारण है वैसे अन्य सभी मुख्य कारण परिग्रह (प्रमाद) का सद्भाव ही है। कहा पापों में भी प्रमाद ही मूल है
भी है'प्रमत्तयोगादिति हेतु निर्देशः।-त. रा. वा. ७.१३१५
अहिंसा भूतानां जगति विदित ब्रह्म परम, 'तन्मूलासर्वदोषानुषला..."ममेदमिति, हि सति
न सा तत्राऽरम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । संकल्पे रक्षणादय संजायन्ते । तत्र च हिसाऽवश्य भाविनी
ततस्तत्सिद्धयर्थे परम-करुणो ग्रन्थमुभय, तदर्थमन्तं जल्पति, चौर्य चाचरति, मैथुन च कर्मणि प्रति
भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृत-वेषौपधि-रतः ।।' पतते।'-वही ७।१७६
स्वयंभूस्तोत्र २११४ सर्व दोष परिग्रहमूलक है। यह मेरा है, ऐसे सकल्प
प्राणियो की अहिंसा जगत मे परमब्रह्म-अत्युच्चमें रक्षण आदि होते हैं उनमे हिंसा अवश्य होती है, उसी कोटि की आत्मचर्या जानी गई है और वह अहिंसा उस के लिए प्राणी झूठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुन- आश्रम विधि मे नही बनती जिस आश्रम विधि में अणुकर्म में प्रवृत्त होता है। फलत:
मात्र-थोड़ा मा भी आरम्भ होता है । अतः उस अहिंसायदि ममत्व आदि रूप अंतरग व धन-धान्यादि बहि- परमब्रह्म की सिद्धि के लिए परम करुणाभाव से सपन्न रंग दोनों परिग्रह न हों तो हिंसा आदि का :श्न ही नही आपने ही बाह्याभ्यन्तररूप से उभय प्रकार के परिग्रह को उठता। क्योकि कारण के बिना कार्य नही होता-'जेण छोड़ा है-बाह्य में वस्त्रालकारादिक उपाधियों का और विणा जंण होदि चेव त तस्स कारणम।'
अतरंग में रागादि भावो का त्याग किया है.......|| -धव. १४१५,६,६३।१०।२ सूक्ष्म हिंसा भी पर-वस्तु के कारण से (ही) होती है, परिग्रह को सर्वपापों की जन्मभूमि भी वहा है- अतः हिंसा में कारण परिग्रह का त्याग करना चाहिए। "क्रोधादिकषायाणामातंरौद्रयोहिसादिपचपापाना भयस्य च कहा भी हैजन्मभूमिः परिग्रहः।-चा. सा. पृ. १६
'सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबंधना भवति पुंसः । 'मिथ्याज्ञानाम्वितान्मोहान्ममाहकारसभत्र. । हिंसाऽऽयतननिवृत्ति. परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।' इमकाभ्यां तु जीवस्य रागो द्वेषस्तु जायते ॥
पुरु० अमृतचन्द्राचार्य ४६ ताभ्यां पुनः कषायाः स्युनौकषायाश्च तन्मयाः।
कहा जा सकता है कि यदि जेन-संस्कृति में 'अहिंसा तेभ्यो योगः प्रवर्तन्ते ततः प्राणिबधादयः ।।' परमोधर्मः' की प्रधानता नही तो आचार्य ने 'हिंसाऽनृत
-तत्त्वानु० १६, १७ स्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिब्रतम्' इस सूत्र में हिंसा के 'मिथ्याज्ञानयुक्त मीह से ममकार और अहंकार होते वर्जन का प्रथम रूप में उपदेश क्यो दिया ? परन्तु स्मरण हैं और ममकार व अहंकार से जीव के राग-द्वेष होते है रखना चाहिए कि जैसे नीची सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर उनसे कषाय-नोकषाय होते है उनसे योग प्रवर्तित होते हैं, पहुंचा जा सकता है वैसे ही अणुव्रतों का अभ्यास कर, पूर्ण उनसे प्राणि-वध आदि होते हैं।
अपरिग्रही दशा को प्राप्त करने के लिए अहिंसा आदि व्यवहार में भी अहिंसा धर्म को दया, करुणा, अनु- आचारों (महावतों) की श्रेणियों से गुजरना होता है । कम्पादि द्वारा प्रेरित और मन-वचन-काय, कुत-कारित- महाव्रत आदि की श्रेणियों में अपरिग्रह की श्रेणी अन्तिम
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मूल-न-संस्कृति अपरिह
और उत्कृष्ट है अहिंसादि पहिली श्रेणियां अन्तिम सीढ़ी अपरिग्रह को प्रमुखता दिए रहकर उसकी पुष्टि में प्रयत्न आने पर छूट जाती है। जो जीव अहिंसादि आचारों के शील रहते तो निःसन्देह जैन का इतना ह्रास न होता। पूर्ण अभ्यासी होते हैं उन्हें पूर्व के चार महाव्रतों की पूर्णता कई मनीषी ऐसा विचार करते हैं कि आत्म-परिणामों के बाद भी परिग्रह से मुक्ति के लिए लम्बा गैर कठिन के हिंसक होने से असत्य, चौर्य, मैथुन आदि सभी हिंसा संघर्ष करना पड़ता है, तब कही बारहवे गुण स्थान मे रूप ही है और परिग्रह भी हिंसा में कारण होने से उन्हें वीतरागता की प्राप्ति होती है जब कि अहिंसा आदि हिंसा ही है अथवा प्रमाद भी हिंसा में कारण होने महाव्रतों की पूर्णता इम गुणस्थान से पहिले सातवें से हिंसा ही है। ऐसे मनीषियों से हमारा (अप्रमत्त) गुणस्थान में अथवा 'अप्रादुर्भाव खलु रागादीना निवेदन है कि - 'सूक्ष्म जिनोदित तत्वं'-जिनेन्द्र का भवत्याहिंसेति' के पक्ष में दशवें गुणस्थान में ही हो लेती बतलाया तत्व बडा सूक्ष्म है-और उसे सूक्ष्मता से है। इससे मालूम होता है कि परिग्रह की जड़ें बड़ी मज- ही देखना चाहिए। मूलरूप में कारण और कार्य का बूत हैं और जो महाव्रतो की पूर्णता में भी नही कटती व्यवहार जैसे पृथक है वैसे ही सत्ता की दृष्टि से उनका बाद को भी बहुत कुछ करना पडता हैं। यही कारण है अस्तित्व भी पृथक है और इसी कारण उन्हें कार्य और कि-'अपरिग्रहत्व' को बाद में गिनाया, जिसकी पूर्णता कारण जैसी दो श्रेणियों में रखा गया है। प्रस्तुत प्रसंग में का सकल्प दीक्षा के समय किया गया था।
जो प्रमाद को हिंसा कहा गया है, वह कारण मे कार्य का ऐसा मालूम होता है कि गत समय मे भ. महावीर उपचार मात्र है। ऐसा प्रयोजन यह इंगित करने के लिए के पश्चात् जैनियों ने शिथिलाचार प्रवृत्तिवश कष्टसाध्य ही किया गया है कि हिंसादि में प्रमाद की सर्वथा मुख्यतः संयम से बचने के लिए 'अपरिग्रह' जैसी कठोर-मूल- है। यह व्यवहार 'अन्न व प्राणः' की श्रेणी का ही है, जहाँ मस्कृति को भुलाकर अहिंसा आदि आचारो को मूल जीवन में अन्न की प्रमुखता दर्शाई गई है 'कारणे कार्योप मस्कृति से बद्ध कर दिया। यही कारण है कि जहा प्रथमा- चारोऽन्न-प्राणवत्'-त.रा. ६१२०१९ । अन्यथा यदि प्रमाद नुयोग के शास्त्रो मे पूर्वकाल मे परिग्रह-त्यागी लाख-लाख और हिंमा मे भेद न होता तो आचार्य प्रमाद की गणना और करोड दि० मुनियो के बिहार और मोक्ष होने के हिंसा से पृथक-परिग्रह में न कराते । मिश्यात्व, कषाय, उल्लेख मिलते है, वहां भगवान महावीर के बाद उस नोकषाय विकया, इन्द्रिय, निद्रा आदि सभी परिग्रह के मंख्या मे ह्राम होता चला गया। आज स्थिति है कि परि अन्तर्गत है जिनसे आत्म-अहित रूप हिंसादि पापो की ग्रह त्यागी दि० मुनियों की संख्या अगुलियो पर गिनने उत्पत्ति होती है। परिग्रह नाम मूर्जा' का है और बाह्म लायक ही शेष रह गई है। कारण कि आज लोग मूल नथा आभ्यन्तर उपाधियों के सरक्षण, अर्जन संस्कार आदि जैन सस्कृति-अपरिग्रहवाद की उपेक्षा कर परिग्रह जन्य व्यापार को मूर्छा कहा है-' . . उपाधीनां संस्काराअहिंसादि जैसे आचार को जैन-संस्कृति, मान, दया-करुणा दिलक्षणव्यापृतिमूर्छा इति ।-त. रा. वा. ११ दान आदि द्वारा उन्हें पोषण देने के अभ्यासी बनने की फलतः सभी पाप मुजिन्य होते हैं। चेष्टा करने लगे है । इसका फल आज यहा तक पहुच अत. जैन संस्कृति मे प्रथमतःमूर्छा-परिग्रह के त्याग गया है कि वे न्याय-अन्याय-जिस किसी भी भाति हो, को प्रमुखता दी गई है। परिग्रह की बढ़वारी में जुट पडे है और उनका ध्यान मूलत. तो परिग्रह की शृखला बड़ी विस्तृत है और लाखो कमाकर हजारो मात्र दान देने की ओर केन्द्रिन प्रकारान्तर से हिंसादि सभी पाप परिग्रह के अन्तर्भूत ही होता जा रहा है। इससे उनका विषयाभिलाषा पूरक हैं फलतः परिग्रह से छुटकारा पाने में ही श्रेय है। सभी परिग्रह भी बढ़ता है और उन्हे इन्द्रिय-दमन के कष्ट-सहन तीर्थंकरों और महापुरुषों ने परिग्रह से निवृत्ति पाने का से मुक्ति भी मिली रहती है साथ ही वे यण और प्रतिष्ठा मार्ग अपनाया- उन्होंने प्रथमतः परिग्रह-परिवारभी पाते रहते हैं जो उन्हें इष्ट है । यदि ऐसा न कर वे मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय तथा विकथा, इन्द्रियविषय.
मार्ग अपना महापुरुषों ने परिणी श्रेय है।
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३७,कि.१
निद्रा मादि सभी अन्तरंग परिग्रहों और बाह्य परिग्रह धन जीवाजीवादि पदार्थ नहीं हैं, वे नित्यानित्य नही हैं, धान्यादि से निवृत्ति पाने का यत्न किया और इसीलिए वे संसार व मोक्ष नहीं हैं ऐसी धारणा रखना, पदार्थों अन्य पापों से बच सके।
के वास्तविक स्वरूप का श्रद्धान न करना, अज्ञान परिपह-परिवार
मिथ्यात्व हैं। १. मिथ्यात्व-तत्वार्थों के अश्रद्धान को मिथ्यात्व
२. कवाय--जो भाव आत्मा को कर्म-बन्धन मे कसे कहते हैं। जब तक तत्वरूप से निर्णीत पदार्थों पर श्रद्धान वे कषाय कहलाते हैं । जीव अपदे भावों के अनुरूप ही न होगा तब तक परिग्रह लगा ही रहेगा । और जब पदार्थों अपने को तीव्र-मन्द कर्म-बन्धन मे बाँधता है। ये कषाय के स्वरूप का ठीक २ श्रद्धान होगा तब उन्हें जानकर स्व- मूलतः सोलह श्रेणियों में विभक्त है और विस्तार से उनके प्रवृति और पर से निवृत्ति का भाव होगा और तभी २५ व संख्यात-असंख्यात तक भेद है। परिग्रह से छुटकारे का प्रयत्न कर सकेगा । स्थूलरीति (अ) अनंतानुवंधी-अनन्त संसार की स्थिति को बधाने से मिथ्यात्व पाँच प्रकार के है-विपरीत मिथ्यात्व, वाले क्रोध', मान", माया", लोभ' । शास्त्रो मे एकान्त मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व, सांशयिक मिथ्यात्व, इनको क्रमशः पत्थर की रेखा के समान, पत्थर के और अज्ञान मिथ्यात्व ।
समान, बांस की जड़ के समान और कृमि राग के (अ) विपरीत-ऐसा श्रद्धान करना कि हिंसा, झूठ,चोरी,
समान (उदाहरणपूर्वक) बतलाया है। कशील, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह अज्ञानादिक से ही (मा) अप्रत्याख्यानावरण-जिनके उदय मे व्रत का अभाव मुक्ति होती है।'
हो । ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ । शास्त्रो मे इनको (मा) एकान्त-ऐसा श्रद्धान करना कि पदार्थ एक रूप ही
क्रमश. पृथ्वी की रेखा, हड्डी, मेढा के सीग और चक्रहै। जैसे किसी पदार्थ को ऐसा मानना कि यह
मल (ओंगन) समान बतलाया है। सर्वथा है ही अथवा ऐसा मानना कि सर्वथा नहीं ही
(क) प्रत्याख्यानावरण-जिनके उदय मे सकलचारित्र न
TRATATATE-जिनके जाने है। पदार्थ एक रूप ही है अथवा ऐसा मानना कि
हो सके ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ । शास्त्रों में अनेक रूप ही है। इसी प्रकार उसको सावयव-निर- इनको क्रमश धूलिरेखा, काठ की लकीर, गोमूत्र और वयव, नित्य-अनित्य इत्यादिक रूपों में से किसी एक शरीरमल के समान कहा है। रूप मे सर्वथा मान लेना विपरीत मिथ्यात्व है। जब (ब) संज्वलन-परीषहादि उपस्थित होने पर भी जो कि जैनदर्शन के अनुसार पदार्थ को अनेकान्तरूप (एक चारित्र को नष्ट नही करते ऐसे क्रोध, मान, माया, ही समय में-सदाकाल अनेक धर्मों वाला) सिद्ध लोभ । शास्त्रो मे इनको क्रमश जल रेखा, बेंत, खुरपा किया गया है।
और हल्दी के रग के समान बतलाया है। इनके सिवाय (क) बनमिक-सच्चे-झूठे सभी प्रकार के देवो, सभी
हास्य, रति (विषयादिक मे उत्सुकता) अरति, शोक, प्रकार के शास्त्रों और सभी प्रकार के साधुलो मे,
भय, जुगुप्सा (धर्म और धर्मात्माओ के प्रति ग्लानि) उनके खरे-खोटे की पहचान न करके उनकी समानरूप स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसकवेद भी पापो की अड है । में विनय-सेवा आदि करना वनयिक मिथ्यात्व है।
विकथायें (संयम के विरुद्ध वाक्य) जो स्थूलरीति से (ब) सशयिक-सर्वज्ञ-वीतरागदेव ने तत्त्वो का जिस स्प स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपालकथा
में वर्णन किया है या जो तथ्य बतलाए है वे सही हैं रूप में वर्णित हैं वे सब परिग्रह मे गभित हैं । स्पर्शन, या नहीं ? ऐसा विकल्प बनाए रहना और उनके रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण के विषयों में उत्सुकता कथन की सत्यता पर निर्भर न रहकर दुलमुल श्रद्धान रखना अथवा प्रतिकूल विषयो मे द्वेष करना भी परिरखना।
ग्रह है। और धन-धान्यादि बाह्य सामग्री का संग्रह (ग) मान-विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि बाह्य परिग्रह है।
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मूल-न संस्कृति
इस प्रकार ऊपर गिनाये परिग्रह रूप कारणों में से किसी के भी उपस्थित होने पर प्राणी पायो में प्रवृत्त होता है । अत. जैन संस्कृति मे अपरिग्रह की प्रमुखता है । अन्य व्रतों का आधार यही है - ऐसा समझना चाहिए ।
एक बात महत्त्व की ओर है। वह यह कि हिंसा, झूठ चोरी और कुशील ये चारो पाप ऐसे हैं जिन्हें करते हुए भी जीवों को गर्व के साथ अहिंसक, सत्यवादी अचोर और ब्रह्मचारी चोषित करने की छूट है, पर परिग्रह पाप में किचित् रहते हुए भी वह अपने को अपरिग्रही घोषित नही कर सकता । वहाँ परिमाण शब्द ही जोडना पडता है । तथाहि
१. आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिंसा करते हुए भी पावक 'अहिंसावती' कहलाता है।
२. किसी पात्र को पोरन से बचाने हेतु अतय्यभाषी श्रावक भी सत्याणुव्रती कहलाता है ।
३. एक देश चोरी का त्याग करने वाला अचौर्याणुव्रती कहलाता है ।
४. स्वीकृत पत्नी मे अब्रह्मन्याप करते हुए को ब्रह्मचर्या ती (बाबा) कहा जाता है। परन्तु
५. प्रचुर परिग्रह को छोड़ते हुए भी तिल-तुप मात्र भी रखने वाला श्रावक अपरिग्रहाणुव्रती नहीं कहला पाता, वह परिग्रह (पाप) परिमाणाणुव्रती ही कहलाता है । ऐसा क्यों? वस्तुतः विचारा जाय तो ऐसी मब व्यवस्थायें तत्त्वदृष्टि ( सच्चाई) पर आधारित न होकर समाज की अपनी व्यवस्था - पूर्तियो को ध्यान में रखकर ही बनाई गई हैं । उदाहरणत:
जैसे 'मैथुनमा मिथुन (स्त्री पुरुष) के भाव कर्म को मैथुन कहा गया है; फिर वह चाहे स्वीकृत मे हो या अस्वीकृत मे सभी जगह मैथुन (अवहा है। एक पुरुष जिस कन्या को किसी निश्चित पुरुष को देकर उसे बती संबोधन से युक्त करता है क्या वह वस्तुत नमब्रह्म की परिधि से बाहर होती है ? कदापि नहीं तो किसी अपनी व्यावहारिक व्यवस्थाओं के लिए वैसी मानली जाती है । लोग जानबूझ कर मैथुन के साधन हटाते हैं और उमेगा-बजाकर 'ब्रह्म' का नाम देते हैं
वह
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मैथु
अपरिग्रह
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यह सामाजिक व्यवस्था मात्र है— वास्तविक लाक्षणिक धर्म नहीं है। पर जैसे यह सब हो जाता है वैसे परिग्रह के साथ ऐसा घटित नहीं होता। लोग तिल-तुष मात्र परिग्रही ( मुनि) को गायजा कर या और कैसे भी 'अपरिग्रही" घोषित करने की हिम्मत नही कर पाते। इसमे मूलकारण परिग्रह की बलवत्ता ही है- जिसे क्षीण करने के लिए अरहन्तों ने इसके निवारण का मार्ग प्रशस्त किया और जो मूल रूप मे 'जैन संस्कृति' कहलाया। सिद्ध है कि अहिंसादिक धर्म हैं और उनके मूल मे 'अपरिग्रह' रूपी मूल संस्कृति है-जंमे मूल के अभाव मे शाखाओं की सम्भावना नहीं वैसे ही परिग्रह के अभाव में हिसादिक शाखाओं की भी सम्भावना नही । फलतः हमे अपरिग्रह को मूल सस्कृति मानकर चलना चाहिए।
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हिंसा के लक्षण में अचार्यों ने दो अनिवार्यताओं का उल्लेख किया है और वे अनिवार्यतायें है-प्रमतयोग और प्राण-व्यपरोपण । इससे ऐसा स्पष्ट होता है कि जहां प्रसाद का योग है और प्राणो का व्यपरोपण है यहाँ हिंसा है। आचार्यों ने एक बात यह भी खुलासा की है कि यदि प्रमाद का योग है और दूसरे के प्राणों का वियोग नही भी है तो वहा भी हिंसा है क्योंकि उनके मत मे प्राणों में द्रव्य और भाव दोनो प्रकार के प्राणो के साथ स्व और पर दोनो के प्राणो का ग्रहण भी निहित है। फलतः जहाँ पर के प्राणों का घात नहीं होता वहा भी प्रमाद स्व-प्राणों का घात तो करता ही है। उक्त प्रसग पर यदि गहराई से मनन करें तो ऐसा मानने में कोई हानि नही होनी चाहिए कि- परस्पर में विरोध रूप हिंसा और अहिंसा दोनों का अस्तित्व प्रमाद व प्राणी के अस्तित्व तक, उनके हनन और रक्षण के विकल्पों तक सीमित है - निर्विकल्प अवस्था में नही जबकि बीतरागता अपरिग्रहत्व आत्मा में सदाकाल रहने वाला उसका स्वभाव है ।
।
प्रवचन सार मे उपयोग के भेदो का वर्णन है और कहा गया है- 'अथायमुपयोगो द्या विशिष्यते शुद्धाशुद्धस्वेन तत्र शुद्धो निरुपरागः अशुद्धः सोपरागः । स तु विशुद्धि सक्लेश रूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभsere ।' 'समस्तभूतग्रामानुकम्पायरये च प्रवृते शुम उपयोगः । - प्र० व० टी० ६३, ६५ ।
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३२, वर्ष ३७, कि० १
अनेकान्त यदि लोग अपरिग्रही बनने का प्रयत्न करते रहे तो लाए है जैसे-वीतरागदेव की भक्ति, उपासना, दर्शन व पूजा उनमे अहिंसा आदि धर्म स्वय फलित होते रहे औ करना, आगम ग्रन्थो का स्वाध्याय करना, इन्द्रिय-विषयों जैनत्व भी सुरक्षित होता रहे ।।
पर अकुश लगाना, छह काय के जीवो की रक्षा करना, जरा सोचिए? मूल जैन-सस्कृति अपरिग्रह है या जमे- तपो और सामयिक का अभ्यास करना और सुपात्रों को तसे धनादि संग्रह कर उसमे से किचित् दान-पुण्य कर उनकी आवश्यकता के अनुसार चारो प्रकार का दान देना अपने को 'अहिमक' घोपित करना? जैसा कि आज हो आदि । थावक को सप्तव्यसनो का त्यागी तो होना ही रहा है?
चाहिए। माथ ही उसे व्यसनसवियो की सगति व उनके
मान-सम्मान करने का त्यागी भी अवश्य होना चाहिए। उक्त २. श्रावक की भूमिका ?
सभी प्रसग ऐसे है जिनसे हम अपने श्रावक होने की जाच 'श्रावक' शब्द मे श्रद्धा विवेक और क्रिया की ध्वनि भी कर सकते है । हम प्रति दिन देखे कि हमने आज अन्तर्हित है । फलत. -जब किसी को 'श्रावक' नाम से अपने कर्तव्यों का किन अशो मे पालन किया है और हमे पुकारा जाता है तो बरवम उसके प्रति श्रद्धा से मन-मस्तक किस रूप मे आगे बढना है? नत हो जाते है कि अवश्य ही यह देव-शास्त्र-गुरु और
बडा दुःख होता है जब हम कही पढते या सुनते है तत्त्वो का श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि, गौतम गणधर के प्रवचन क कि अमुक धर्मात्मा ने कहा--कि क्या करू? बच्चे आदि
जानी और नैष्ठिक या पाक्षिक थावक की क्रियाओं नहीं माने, वे जिद पर अड गए इसलिए शादी और खानहपालन में मावधान होगा। इसमे मम्यग्दर्शन-ज्ञान- पान की व्यवस्था अमुक होटल मे करनी पड़ी या जब कोई चरित्र के चिह्न परिलक्षित होते हैं।
मुखिया स्वय रात्रि-भोजी होकर बयान देता है कि रात्रि सरावगी, सरावग और क ग च ज त द प यवा म भोजन उनकी कमजोरी है। अमुक धर्मात्मा ने अमक प्रायोजक' की परिधि में 'सराक पराग' आदि शब्द श्रावक सज्जन के सम्मान मे अमुक प्रसिद्ध होटल में पार्टी दी. शब्द के बिगड़े रूप मालुम होते है, जो मध्यकाल में आदि जैसे समाचार भी दुखदायी होते है। ये सब बाते सामने आए। लोग कालदोप में और सद्गुरुओं के ममा- थावक की गरिमा के सर्वथा प्रतिकल है। शर्मको गम न मिलने से आचार-विचार मे शिथिल होते चले गए अधिक आती है जब अपने को जैन घोपित करने वाले लोग औराज स्थिति इतनी बद से बदतर हो गई कि सच्चे शादियो अथवा अन्य अवसरों पर सामहिक रात्रिभोजन श्रावक या जैनी शायद ही अगलियो पर गिनने योग्य या होटल भोजन तक करते करते और ऐसे अवसर मिल सके।
सम्मिलित होते है। आगमानुसार श्रानक को मधु, मांस, मद्य और पच विचारने की बात है कि---हम कहा जा रहे है सरका त्यागी व निरतिचार पच अणुव्रतो का धारी और हमारी भावी पीढी हमारी इन विपरीत प्रवत्तियों का दोना आवश्यक है। उक्त प्रसंग मे यह अनछने जल का अनुकरण कर धर्म-मार्ग से क्यों न हटेगी? वह तो सर्वथा त्याग करता है और रात्रि-भोजन या होटल आदि के स्पष्ट कहेगी कि हमारे बुजुर्गों ने जो चलन अपनाया उस खान-पान को भी मांस-तुल्य ज: नकर मन-वचन-काय, कृत- चलन से हमे क्यों रोका जाता है ? इतना ही क्यो साधाकारित-अनुमोदना पूर्वक त्यागता है। यदि इन नियमो के रण लोग तो आज भी ताना मार रहे है-'समरथ को साथ वह प्रतिमा धारी व निर्मोही-वृत्ति हो तो स्वामी नहिं दोष गुसाई। समन्तभद्र के शब्दो में उसे 'गहस्थो मोक्षमार्गस्थो' की श्रेणी
जरा सोचिए ! स्थिति क्या है और उसमे हम कैसे मे ही लिया जायगा। ऐसे श्रावक को हम नतमस्तक है। सूधार ला सकते हैं? शास्त्रों में श्रावकों के कुछ और भी दैनिक कर्तव्य बत
-सम्पादक
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साहित्य-समीक्षा
१. हरिवंश पुराण का सांस्कृतिक अध्ययन :
लेखक : डा० पी० सी० जैन
प्रकाशक : देवनगर प्रकाशन, जयपुर ।
साइज : १८x२२ x १६ पृष्ठ १६+२०६ = २२२ । मूल्य : ६० रुपये |
जैन पुराण, पुण्य पुरुषो के एसे चरित्र हैं जो मोक्ष का मार्ग सरलता से बताते हैं पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन करना उन सभी स्रोतों का उजागर करना है, जिनसे महापुरुष मोक्ष तक पहुंचते हैं। हरिवंश पुराण में तीर्थंकर नेमिनाथ और तत्कालीन पुरुषो और परिस्थितियों का सर्वांगीण सामूहिक वर्णन है । लेखक ने ने बड़े श्रम से इसे विलोकर मक्खन और तक की भांति इसके विभिन्न जातीय मिश्रित तथ्यों को पृथक्-पृथक् पुंजों में रख दिया है। जिस से पाठक सहज ही अथाह समुद्र मे गोता लगाते ही विभिन्न जातीय विभिन्न रत्नों को एक स्थल पर प्राप्त कर सकें । विद्वान् लेखक ने समस्त पुराण को मूलतस्व धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति और चरित्र-चित्रण आदि जैसे ग्यारह अध्यायों में संजोकर कर रखा है। परिशिष्ट में २२ चित्र व्रतों सम्बन्धी भी दिए हैं। इससे लेखक की आन्तरिक भावना पाठकों को सयम-मार्ग पर दृढ़ करने की स्पष्ट लक देती है । आशा है इससे पाठक पुराण सन्दर्भों को जीवन में उतारने में सहज ही सफल हो सकेंगे और लेखक का श्रम सार्थक होगा। विद्वान् लेखक उत्तम कृति के लिए प्रशंसा हैं । ग्रंथ साज-सज्जा उत्तम और आकर्षक है।
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२. जैन कला में प्रतीक : लेखक : श्री पवनकुमार जैन
प्रकाशक : जैनेन्द्र साहित्य सदन, ललितपुर ।
साइज : १८x२२ × १६ पृष्ठ ५१ मूल्य : १५ रुपये प्रतीक का क्षेत्र अति व्यापक है और इसका प्रयोग लोक के सभी पदार्थों के स्वरूप परिज्ञान के चिह्नों के लिए किया जा सकता है । फलतः - प्रतीक सम्बन्धी लम्बी खोज
में हाथ डालना बड़े साहस का कार्य है। किसी उस चिह्न को, जो किसी आकार-प्रकार, भाव आदि का संकेत देता हो 'प्रतीक' नाम दिया जा सकता है। कुछ प्रतीक स्वाभाविकबिना इच्छा और प्रयत्न के बन जाते हैं और कुछ मानव-बुद्धि द्वारा निर्मित होते हैं। जैसे मानव के चलते समय अज्ञान अवस्था में उसके पंजी से बना निशान पंजों का स्वाभाविक प्रतीक और स्वस्तिक आदि बुद्धिजन्य प्रतीक हैं । 'जैन-कला-प्रतीक' विषयक प्रस्तुत कृति 'गागर में सागर' तुल्य है। इसमें लेखक ने मूर्तिकला, स्थापत्यकला, लोक रचना, समवसरण, मानस्तम्भ, अष्टापद, नन्वीश्वरद्वीप, अष्टमगमद्रव्य और विचार, शब्द, स्वप्न जैसे भावात्मक, तदाकार-अतदाकार प्रतीकों को उद्घाटित किया है। निःसन्देह प्रतीक शोध में लेखक ने जैन आगमों में पहरी डुबकी लगाई है। वे तक कहीं प्रतीक रत्नों के रहस्य पाठकों को भेंट कर पाए हैं। जैन-कला के प्रति उनकी मास्था, और उनके प्रतीकों के खोजने की लगनसबंधा स्पृहणीय है। हमारा विश्वास है कि इस कृति से पाठक लाभान्वित होंगे और शोधकर्ताओं को नवीन प्रेरणा मिलेगी।
-सम्पादक
' तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा, तोव-सुधा नित पिया करें । श्री जिनधर्म हमारा प्यारा, उसकी सेवा किया करें ॥'
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
वीरमेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
:
दीवार स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर श्री के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य धौर गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिव । गम्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : संस्कृत मोर प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत सजिल्द गम्य-संग्रह भाग २ प
६.००
१२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह चन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित सं. पं. परमानन्द शास्त्री सविद । 1 समावित और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
बेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जन
...
न्याय-दीपिका प्रा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरवारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० धनु० । चन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द ।
कलापपात मूल ग्रन्थ की रचना धान मे दो हजार वर्ष पूर्व भी मराचार्य ने की, जिस पर भी यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण पूर्णिसूत्र लिखे। सम्पादक हीरावानजी सिद्धान्त-शास्त्री | उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साहब के १००० से भी अधिक पृष्ठों में पृष्ट कागज और कपड़े को पक्की जिल्द
ब्रेन निम्ब- रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यान (ध्यानस्तव सहित ) संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
बाचक धर्म संहिता : श्री दयासिंह सोचिया
जंगलमावली (तीन भागों में) : सं० प० बानन्द सिद्धान्त हो
जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, बहुचचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन सिद्धान्ताचार्य श्री कैलासचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन
Jaina Bibliography: Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
आजीवन सदस्यता शुल्क : १०२.०० ६० बाविक मूल्य ६० इस अंक का मूल्य : १५०
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विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते ।
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प्रत्येक भाग ४०.०
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सम्पादक परामर्श मन- डा. ज्योतिप्रसाद बंग, श्री लक्ष्मीचन्द्र बेन, सम्पादक श्री पद्मन्त्री प्रकास - रत्नत्रयचारी जंग, वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बायर्स प्रिंटिंग प्रेस के १२ नवीन शाहदर दिल्ली-१२ से मुक्ति ।
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वर्ष ३७ : कि० २
वोर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
( पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर')
क्रम
इस अंक में
विषय
१. अध्यात्मपद
२. धन्यकुमार चरित में तीर्थ वन्दना
- डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
३. बारस अणुवेक्खा
श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ४ दुख का बीज - श्री बाबूलाल जैन वक्ता ५. अद्वैत दृष्टि घोर अनेकान्त
-श्री अशोककुमार जैन, बिजनौर ६. जैन कला और स्थापत्य में भ० शान्तिनाथ कु० मृदुलकुमारी, शोधछात्रा
७. विषमिश्रित लड्डू -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
८. अनुसर-योगी में कुछ विसंगतियां
१. ताकि सनद रहे और काम आए १०. दिगम्बर परम्परा में
११. कारवां लुटता रहा हम देखते बड़े रहे
१२. संस्मरणों के आधार पर
१३. वर्धमान भक्तामर
पृ०
१
१४. साहित्य-समीक्षा
२
४
७
८
११
१७
२०
२१
२६
२४
२५
श्री मूलचन्द्र जैन शास्त्री श्री महावीर जी २६
३२
ल-जून १८४
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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गुरु-गण के अभिमत पज्य १०८ आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज:
सेठ श्री उम्मेवमा पाडया व पंपचन्द्र जी शास्त्री किशागद पंच कल्याणक डा महोत्सव पर महाराज श्री के साथ इस दिन तक है। अनुत्तमोगी; तीकर महावोर' जो इन्दौर से प्रकाशित हुमा है, के बारे में प्राचार्य श्री धर्म सागर जी महाराव.प्राचार्ग कल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज से पाचन शास्त्री द्वारा लिखित लेख पर चर्चा हुई। प्राचार्य महाराज ने इस सम्बन्ध में कहा कि-"तोष करों का जीवन चरित्र एक यथार्थ है और जो यथार्थ है उस पर कभो उपन्यास नहीं लिखा जा सकता, उपन्यास में कोरी कल्पना हो होती है। प्रो पमचन्द्र जी शास्त्री ने इस विषय को उठा कर दिमम्बर जन सिद्धान्त को रक्षा की है। और मुझे सबसे बड़ा प्राश्चर्ग तो यह है कि यह उपन्यास की किताबें हमारी ही दिगम्बर जैन संस्था ने छपवाई हैं। इस तरह को किताबों से हमारी परम्पराएं विकृत होती हैं। इस तरह की किताबें छापना उचित नहीं है।" पूज्य १०८ प्राचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज :
___ अनुत्तर-योगी में जो विसंगरिया दिगम्बर धर्म के प्रतिकूल हैं उन्हें छांटकर प्रकाशन करने पाली संस्थानों को भेजकर उनसे अनुरोध किया जाय कि माप इन विसंगतियों का समाधान करें तथा अनुत्तर योगी के प्रारम्भ में अतिरिक्त पत्रक लगवा कर स्पष्ट कर किये मान्यताएं श्वेताम्बर साहित्य से ली गई हैं। दिगम्बर साहित्य में कोई उल्लेख नहीं है।" मध्यन, अखिल भारतवर्षीय वि० जैन विद्वत्परिषद् :
_ 'मापके द्वारा प्रेषित पत्र और 'मनुत्तर-यागो के दिगम्बराम्नाय के विरुद्ध प्रसंगों का निरूपण प्राप्त प्रमा। वस्तुतः यह प्रकाशन समिति की भावकता काही परिणाम है। दिगम्बर समिति के द्वारा दिगम्बर-विक्त पुस्तकों का प्रकाशन हानिकारक होगा। भारतवर्षीय वि०जैन विद्वत्परिषद इस प्रकाशन को हानिकारक मानती है । मच्छा हो पुस्तक के प्रारम्भ में अलग स्पष्टीकरण करने वाला पत्रक लगा दिया जाय किसमक-मूक प्रसंग श्वेताम्बर साहित्य से लिए गये हैं-दिगम्बर साहिय में इन प्रसंगों का उल्लेख नहीं है। प्रापका पत्र यहां कैलाशचन्न जो तथा फूलचन्द्र की प्रादि को पढ़वा दिया है।' संरक्षक-मारतवर्षीया दि० जैन शास्त्रि-परिषद् :
पापके पत्र पर विचार किया गया। 'अनुत्तर-योगी' अन्य दिगम्बर जैन समाज में नया विकार ही पैदा नहीं करेगा, दिगम्बरत्व का ही लोप कर देगा। शास्त्रि-परिषद् का प्रत्येक विद्वान् 'अनुरार-योगी' अन्य को दिगम्बर मान्यता के विरोध में मानता हुमा उसके पठन-पाठन का विरोध करता है और पापके इस संघर्ष में शास्त्रि-परिषद्का पूरा-पूरा सहयोग रहेगा।" एक पत्र के ग्रंश:
अनेकान्त' बराबर देख रहा हूं। सन्तुष्ट हूं। पाप अपनी जगह बिल्कुल ठीक है। कशान होतोपोड़ा ठीक से कसे पल पायेगा? मापसे दो-चार स्वतंत्र चिन्तक हों तो हो समान की गाड़ी छोक-ठीक चल सकती है। मुझे पापमें जो चीज बिजली/चुम्बक की तरह माकर पकड़ती है, वह है
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ओम् अहम्
رسال
TASHA
PUTNIR
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५१०, वि० स० २०४०
अ५ }
वष ३७ किरण २
बीर-तेवर मन्दिर, २१
अप्रैल-जन
।
१९८४
अध्यात्म-पद चित चिनके चिदेश कब, प्रशेष पर वमं । दुखदा अपार विधि-दुचार-की चमं दम ॥ चित०॥ तजि पुण्य-पाप थाप प्राप, आप में रमा कब राग-प्राग शर्म-बाग-दाघनी शर्मू ॥ चित०॥ दृग-ज्ञान-भान ते मिथ्या अज्ञानतम दमूं। कब सर्ब जोव प्रारिणभूत, मत्त्व सौ छम ।। चित०॥ जल-मल्लालप्त-कल मुकल, सुबल्ल परिन । बल त्रिशल्लमल्ल कब, अटलपद पमं ॥ चित०॥ कब ध्याय प्रज-अमर को फिर न भव विपिन भम। जिन पूर कौल 'दौल' को यह हेतु हो नमू॥चित०॥
-कविवर दौलतराम कृत भावार्थ-हे जिन वह कौन-सा क्षण होगा जब में सम्पूर्ण विभावों का वमन करूंगा और दुखदायी अष्टकों की सेना का दमन करूंगा। पुन्य-पाप को छोड़कर आत्म में लीन होऊगा और कव सुखरूपी बाग को जलाने वालो राग-रूपी अग्नि का शमन करूंगा। सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूपी सूर्य से मिथ्यात्व और अज्ञानरूपो अधेरे का दमन करूंगा और समस्त जीवो से क्षमा-भाव धारण करूंगा। मलीनता से युक्त जड़ शरीर को शुक्ल ध्यान के बल से कब छोडगा और कब मिथ्या-माया-निदान शल्यों को छोड़ माक्ष पद पाऊंगा। मैं मोक्ष को पाकर कब भव-वन में नहीं घूमूंगा? हे जिन, मेरी यह प्रतिज्ञा पूरी हो इसलिए मैं नमन करता हूं।
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धन्यकुमारचरित में तीर्थवन्दना
विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन वर्तमान मे जिन तीर्थक्षेत्रो से समाज परिचित है, शताब्दियो मे अनेक श्वेताम्बर साधुओं ने स्वय तीर्थयात्रा जिनकी समाज मे मान्यता है, और जिनकी वन्दनार्थ करके अपनी-अपनी तीर्थयात्राएं लिखीं। विविध-तीर्थ-कल्प देश के विभिन्न भागों से तीर्थयात्री जब-तब आते- और उक्त तीर्थ मालाओं के कई सकलन प्रकाशित हो गए जाते रहते हैं, उनमें से अधिकतर ऐसे हैं कि जिनका हैं। यह प्रश्न उठा था कि क्या दिगम्बर परम्परा में भी विकास प्रायः गत दो सौ वर्षों के भीतर ही हुआ इस प्रकार का तीर्थ विषयक साहित्य है ? अस्तु।१८६५ ई० है। कई अतिशय क्षेत्र तो इसी अवधि में उदय मे आये मेजैन मस्कृति-सरक्षक-सघ सोलापुर जीवराज-ग्रन्थमाला और पुराने क्षेत्रो के विद्यमान निर्माणो, मन्दिरो, धर्माय- के ग्रन्थांक १७ के रूप मे डा० विद्याधर जोहरापुरकर तनो, स्मारको, धर्मशालाओ आदि मे से अधिकाश इसी द्वारा सुसम्पादित 'तीर्थ-वन्दन-सग्रह' नामक पुस्तक प्रकाशित बीच बने हैं। कई ऐसे भी स्थल हैं जहां प्राचीन मन्दिरो, हुई, जिसने उक्त आक्षेप का सफलतापूर्वक निरसन कर मूर्तियों, अन्य धार्मिक कलाकृतियो के जीर्ण-शीर्ण भग्नावशेष दिया। इस पुस्तक मे ४० दिगम्बर लेखको की कालप्रचुरमात्रा में प्राप्त हुए हैं, उनमे से जिनकी ओर समाज क्रमानुसार सूची तथा उनके साहित्य मे प्राप्त तीर्थविषयक की दृष्टि आ सकी, अनेको का जो विकास हुआ या हो रहा उल्लेखो के उद्धरण और उनकी व्याख्या दी है। इस सूची है वह वर्तमान शताब्दी की ही बात है।
मे १०वी शती के अन्त पर्यन्त के केवल ८ साहित्यकार तीर्थविशेपो में प्राप्त एव सरक्षित पुरातात्विक सामग्री सम्मिलित किए गए हैं, शेष ३२ लेखक १२वी शती से से, विशेषकर उक्त पुरावशेषों में उपलब्ध प्रतिमा लेखो, १९वी शती पर्यन्त के हैं। डा. जोहरापूरकर जी ने यन्त्रलेखों, शिलालेखो आदि से उक्त स्थलो के महत्व तथा पर्याप्त परिश्रम एव शोध-खोज पूर्वक यह सकलन तैयार तीर्थक्षेत्र के रूप में उनकी मान्यता की प्राचीनता का बहुत किया है, तथापि इसमे कतिपय त्रुटियां रह गई प्रतीत कुछ अनुमान हो जाता है। जहाँ ऐसी सामग्री का अभाव होती हैं, यथा स्वामि समन्तभद्र और आचार्य यतिवृषभ है, अथवा वह अति विरल है वहा बडी कठिनाई होती है। को पांचवी शती ई० मे हुआ सूचित करना, जब कि वे ऐसी सूरत में किसी स्थान की तीर्थरूप में मान्यता की दोनो आचार्य दूसरी शती ई० मे हुए हैं। इसके अतिरिक्त, ऐतिहासिक प्राचीनता कितनी है, यह जानने के लिए यह सूची तथा उद्धरण भी सर्वथा पूर्ण नही प्रतीत होतेसाहित्यगत उल्लेख हमारे सहायक होते हैं।
१०वीं शती तक के ८ उल्लेखित साहित्यकारो के अलावा श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र प्रभृति कतिपय विमलार्य का प्राकृत पउमचरिउ, स्वयंभू की अपभ्रश आगमो मे विशेपकर कालान्तर मे रचित आगमसूत्रों की रामायण एव अरिट्टनेमिचरिउ, विद्यानद का श्रीपुरपार्श्वनाथटीकाओं आदि में तथा कथा एवं प्रबन्धग्रन्थों में तीर्थो के स्तोत्र, उग्रादित्य का कल्याणकारक, असग के महावीरचरित अनेक फुटकर उल्लेख मिलते हैं। जिनप्रभसूरि का कल्पदीप एव शान्तिनाथचरित, आदिपप की कन्नड रामायण, अपरनाम विविध-तीर्थ-कल्प (१८३३-३४ ई०) ही ऐसा पुष्पदन्त का अपभ्र श महापुराण, चामुण्डराय का कन्नड प्रन्थ है जिसमें ततः मान्यता प्राप्त अधिकांश तीर्थों के महापुराण, सोमदेव का यशस्तिलकचम्पू, नेमिचन्द्र सि० विस्तृत वर्णन हैं, जो विद्वान. लेखक ने जैसा देखा या च० के गोम्मटसारादि प्रभूति कितने ही ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें सुना उसके आधार पर लिखे गए प्रतीत हैं। परवर्ती विभिन्न कल्याणक-क्षेत्रों, तपोभूमियों व अतिशय क्षेत्रों
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धन्यकुमारचरित में तोवरना
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आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। दसवीं शती ई. के कि किसप्रकार वह उसको खोज में भटका है और मार्ग में उपरान्त की भी खोज करने पर ऐसी अन्य अनेक रचनाओं उसने किन तीर्थों के दर्शन किए हैंके प्राप्त होने की पर्याप्त सम्भावना है, जिनमे तीयों के तववार्ता न जानामि किंजीवसि मृतोऽथवा । विषय में सामग्री प्राप्त हो सकती है।
निर्जगम् गृहात्तेन समुद्विग्नो वियोगतः ॥ ऐसी एक रचना गुणभद्रकृत धन्यकुमारचरित है। वन्दितुगतवान्नाथ शान्ति-कुन्थुमरं तथा । संस्कृत पद्य में रचित इस ग्रन्थ के लेखक माथुर सघी हस्तिनाख्यपुर सार चकिचक्रपराजितम् ।। माणिक्यसेन के प्रशिष्य और नेमिसेन के शिष्य भदन्त ततोयोध्या-पुरी प्रापनन्तु सत्तीर्थ पंचकम् । गुणभद्र थे, जिन्होंने उसे चन्देल नरेश परमाद्दिन (चन्देल वाराणस्या समायातो नमस्कर्तु जिनद्वयम् ।। परमाल] के शासनकाल (११६५-१२०३ ई.) मे विलासपुर पुनतथान्तरान्नत्वा सप्राप्याह कुशत्थलम् । (उ० प्र० के झांसी जिले मे झांमी नगर से २५ कि. मी. मुनिसंघनत देव प्रणन्तु मुनिसुवृत ॥ उत्तर-पूर्व में स्थित पचार या पछार ग्राम के) जिनालय में शीलभद्रस्य या माता तामुद्दिश्य समागमम् ।। लम्बकचुक (लमेचू) वशी साहू शुभचन्द्र के पुत्र बल्हण की (धनकुमार का पिता कहता है कि मैंने तुझे रात दिन प्रेरणा से लिखा था। ग्रन्थ का रचनाकाल ११६५- देखा पर तू कही मिला नही)- जब मुझे तेरा हाल मालूम ११६६ ई. के बीच अनुमानित है। यह चरित्र धन्ना- नही हुआ कि तू जीवित है या मर गया तो मैं तेरे वियोग शालिभद्र के सुप्रसिद्ध कथानक का सर्वप्राचीन उपलब्ध से दुखी होकर घर से निकल पडा। मैं शान्ति, कंथ एव दिगम्बर संस्करण है।
अरनाथ की वन्दना करने के लिए उस अतिशय श्रेष्ठ ___ इस त्ररित्र के ३ रे परिच्छेद के श्लो० ५६ में भगवान हस्तिनापुर गया जो किसी समय चक्रवर्ती-तीर्थकरत्रय के पुष्पदन्त की जन्मनगरी काकदी का उल्लेख इस प्रकार चक्ररत्न से सुशोभित रहा था। तदनन्तर आप उचित, हुआ है
अभिनदन, सुमति णोर अनन्तवाथ इन पांच तीर्थंकरों की नित्योद्योगेन गच्छन् स गङ्गाकूल निवासिनीम् ।
वन्दना करने के लिए अयोध्यापुरी पहुचा, और फिर काकंदी नगरी प्राप ककन्देन विनिर्मिताम् ।।
सुपार्श्व, एवं पार्श्व, इन दो तीर्थंकरो को नमस्कार करने -चतुर्थ चरण का पाठान्तर है 'धनयक्षेण निर्मितां पुष्प
वाराणसी आया । फिर बीच के अन्य तीर्थों की (किन-किन दन्तजन्मकाते।'
की ?) वन्दना करता हुआ मुनियो के ममूह से नमस्कृत -इस प्रकार (घर छोड कर भाग जाने के बाद) भगवान मनिसुव्र नाथ की वन्दना करने के लिए कुशलत्था निरन्तर चलता हुआ वह (धन्यकुमार) गङ्गा तट पर बमी
(राजगृह) आया हूं। इसके सिवाय यहा मेरी बहिन, जो
राजगह तथा ककन्दन राजा द्वारा बसाई गई काकन्दी नगरी मे
तेरी बुआ और शालिभद्र की मा है, रहती है-उससे पहुंचा। आगे कथन है कि थके हुए धनकुमार ने काकन्दी मिलने के उदेश्य से भी यहा आ
मिलने के उद्देश्य से भी यहा आया हूं। नगरी के उपवन में एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया,
सप्तम् परिच्छेद के श्लो०३२-३५ में वर्णन है कि सरोवर में स्नान किया, जल पिया और फल खाये
मुनिदीक्षा लेने के उपरान्ततदनन्तर मार्ग की थकावट को दूर कर जब वह पुन. वन इति ध्यायन्नसौ साधु धगध्यान चतुर्विधम् । में विहार करने लगा तो उसने तीन ज्ञानरूपी नेत्रो से युक्त अन्येपा दर्शयन् धय॑ध्यानमागं गणाग्रणीः ।। एक मुनिराज को देखा उसने उन्हें सन्मुख खड़े होकर हाथ विजहार धग धीगे ग्रामखेटपुराकराम् । जोडकर नम्रीभूत सिर से प्रणाम करके भक्ति पूर्वक्र अपने
वन्दमानो हि तीर्थानि तीर्थकर जिनेशिनाम् ।। भाइयों के द्वेष का कारण पूछा ॥२॥
विहरत्नवाप श्रावरती पुरी सुरैः प्रपूजिताम । षष्ठ परिच्छेद के श्लो० ८५-८८ में धन्यकुमार का
वन्दितु मंभवनाथ सभवस्य विनाशनम् ॥ पिता वृद्ध पिता पुत्र से पुनः मिलाप होने पर उसे बताता है
( शेष पृष्ठ ६ पर)
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'बारसमणुवेक्खा'-एक अध्ययन
D श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिसिपल
"भावना भवनासिनी" शास्त्रों की यह उक्ति यथार्थ डी. वसन्त राजन ने प्राचीन कन्नड भाषा की ताडपत्रीय में विशुद्ध मन से भाई गई भावना इस भव और पर भव पांडुलिपि के आधार पर सम्पादित कर आचार्य कुन्दकुन्द से मुक्त करा देती है तथा मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती की रचनाओं की शृंखला में एक कड़ी और जोड़ दी है। है। संसार का हर प्राणी सांसारिक दुखों से छुट कर परम जिसकी विस्तृत समीक्षा निम्न प्रकार है। कुन्दकुन्द के सुख की चाह में भटक रहा है-अर्थात् संसार मे मुषित पचास-साठ वर्ष वाद ही उमास्वामी ने भी सूत्र रूप में प्राप्त कर अनन्त सुख के लिए लालायित है अतः प्रतिक्षण "अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्याश्रवसंवरनिर्जरा लोकनिरन्तर विशुद्ध परिणामो का होना नितान्त अनिवार्य है। बोधिदुभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनप्रेक्षा" इत्य दिलिख जहां यह बात अन्य धर्मों में भी कही गई है वहा जैन धर्म कर द्वितीय बारह भावना प्रस्तुत की थी। उमास्वामी के में सोलह कारण भावना तथा बारह भावना के रूप में बाद तो बारह भावनाओं की बाढ़ सी आ गई है, संस्कत प्रत्येक गृहस्थ और मुनि को इनका निरन्तर चिन्तवन में, अपभ्र श मे और हिन्दी में अनेकों कवियों ने बारह अनिवार्य बताया गया है। इसीलिए ही तो सोलह कारण भावनाओं की रचनाएं की है। भावनाओं के निरन्तर विशुद्ध मन से चिन्तवन के कारण संस्कृत मे शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव मे हेमचन्द्राचार्य तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है। और मोक्ष की प्राप्सि में त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित में वादीभसिंह सूरि ने होती है, उसी तरह बारह भावनाएं भी मोक्ष प्राप्ति का क्षत्रचूड़ामणि मे, पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (गद्य) में, विशुद्ध साधन है। भावना को संस्कृत में अनुप्रेक्षा और अपभ्रश में वीर कवि ने 'जवस्वामिचरिऊ' में हिन्दी में प्राकृत में 'अणुवेक्ख' शब्दों का प्रयोग होता है।
भूधरदास जी ने दौलतराम जी ने छहढाला में, मंगतराय उमास्वामी ने अनुप्रेक्षा की परिभाषा "तत्त्वानु की बारह भावना जगमोहन ने 'धर्मरत्नोद्योत' मे, तथा चिन्तनमनुप्रेक्षा.."अर्थात् बारम्बार सम्यक् तत्व का सकलकीर्ति आदि अनेकों विचारको, कवियो एवं विद्वानों तिरन्तर चिन्तवन ही अनुप्रेक्षा है । ये अनुप्रेक्षाएं ने बारह अनुप्रेक्षाओ की रचनाए मौलिक रूप से छायानुवाद बारह होती हैं इनका आध्यात्मिक दृष्टि से जैन धर्म मे में प्रायः पद्यो में ही रची हैं। इनके अतिरिक्त और भी इतना अधिक महत्व है कि अनेको आचार्यों एवं कवियों अन्य ग्रंथो मे प्रसगानुसार बारह भावनाओं का वर्णन मिलता ने अनित्य अशरण, संसारादि बारह नामों से बारह है भक्तगण इन बारह भावनाओं का प्रतिदिन भक्तिभाव भावनाओं की रचनाएं की हैं तथा उनका विस्तृत निरूपण से चिन्तवन मनन एव पाठ करते हैं। पं० पन्नालाल जी भी किया है ! समीक्षात्मक रूप से सबसे प्राचीन बारह सा० चा० ने भी लिखी है जो अभी अप्रकाशित है। भावना आचार्य कुन्दकुन्द की "बारस अणुवेक्ख" के नाम से साहित्यिक दृष्टि से श्री वसन्तराजन ने जो 'बारस प्राकृत भाषा में उपलब्ध होती है।
अणुवेक्ख' का सम्पादन किया है वह सम्पूर्ण जैन वांगमय प्रस्तुत लेखक का लक्ष्य इसी "बारस अणुवेक्ख" के साथ-साथ प्राकृत और कन्नड भाषा को एक अनूठी नामक ग्रन्थ की समीक्षात्मक प्रस्तुति मात्र ही है। यह निधि प्रदान की है जिसके लिए वे विशेष बधाई के पात्र अन्य मैसूर विश्वविद्यालय (मानस गगोत्रो) के जैनॉलजिकल हैं। एवं प्राकृत विभाग के रीडर एवं विभागाध्यक्ष श्री एम. उपयुक्त ग्रन्थ में मूल गाथा प्राकृत देवनागरी में है
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पारस मला : एक मध्य
तथा टीका प्राचीन कन्नड भाषा एवं उसी लिपि में मुद्रित बाचार्य कुन्दकुन्द की गाथानों पर तथा प्राचीन कन्नड है। चूंकि मैं कन्नड भाषा नहीं जानता अतः टीका के टीका पर कुछ टीका-टिप्पणी करना सूरज को दीपक विषय में कुछ भी लिखना अनधिकार चे'टा होगी। वैसे दिखाना जैसा लज्जास्पद होगा पर एक बात इस ग्रंथ में टीका भी सम्पादक महोदय ने नहीं की है उन्होने तो पूरी मुझे जो विशेष रूप से बटकी वह भावनाओं के क्रम ताडपत्रीय प्रति का सम्पादन संशोधन मात्र ही किया है विपर्यय के बारे में है। यद्यपि बारह भावनाओं का क्रम क्योंकि वे कन्नड के ज्ञाता हैं।
जो आजकल प्रचलित है वही उमास्वामी के भी समय में सम्पूर्ण प्रन्थ में ३२ पृष्ठ तो प्रस्तावना के और प्रचलित था पर उनसे ५०-६० वर्ष पहले इतना क्रम४२ पृष्ठ मूल प्राकृत गाथा और प्राचीन कन्नड टीका के विपर्यय कैसे हो गया इसमें या तो लिपिकार की भूल हो हैं तथा अनुक्रमणिका के २ पृष्ठ हैं इस तरह सम्पूर्ण ग्रन्थ सकती है या फिर आचार्य कुन्दकुन्द को ही यही क्रम ७६ पृष्ठों का है। इस ग्रन्थ मे कुल प्राकृत गाथाएं ९० अभीष्ट रहा होगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि तथा दो गाथाए अमुचि और निर्जरा भावना में अतिरिक्त कुन्दकुन्द के ५०-६० वर्ष बाद ही उमास्वामी का क्रम कैसे दी है अतः कुल ६२ गाथाए हो जाती है सम्पादक महोदय बदल गया यह एक बडी गम्भीर समस्या है जिस पर ने ग्रंथ का सम्पादन करते हुए भूमिका प्रस्तावना एवं विद्वज्जन गम्भीरतापूर्वक मनन-चिन्तन करें और समस्या कृतज्ञता ज्ञापन आदि मूल रूप से कन्नड में लिखा है पर का समाधान ढूढ़े। उसका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया है जिससे कन्नड न
प्राचीन क्रम जानने वालों को बड़ा लाभ हो जाता है। इसी हिन्दी
प्रचलित कम अनुवाद के आधार पर ही मैं यह समीक्षा लिखने की
१ अध्धुव
१ अनित्य धृष्टता कर रहा हू विज्ञ पाठक जन अशुद्धियो को क्षमा
२ अशरण
२ अशरण करेंगे।
३ एकत्व
३ संसार सम्पादक महोदय को मूल पाडुलिपि श्री इन्द्रकुमार
४अन्यत्व
४ एकत्व जी से प्राप्त हुई थी। जो श्री संक्करे मंडिब्रह्मप्पा के सुपुत्र
५ संसार
५अन्यत्व हैं। प्रस्तुत कृति ताडपत्र पर अंकित है। जिसके प्रत्येक
६ लोक
६ अशुचि पत्र की लम्बाई चौड़ाई ३३"x२" इंच है प्रत्येक पत्र
७ असुचि ५+१-६
७ आश्रव पर ८-८ पंक्तिया है और प्रत्येक पक्ति में १४-१५ अक्षर
८ आथव १४
८ संवर हैं। चूकि प्रति खडित है अतः खडित स्थानों की पूर्ति
निर्जरा जीवराज ग्रंथमाला से प्रकाशित "कुन्दकुन्द प्राभूत सग्रह"
मा १० निर्जरा १+१=२
१. लोक नामक ग्रंथ से की गई है। प्रस्तुत कृति की गाथाएं यद्यपि ११
११ बोधि दुर्लभ
१२ बोधिदुर्लभ ४ आचार्य कुन्दकुन्द की है पर इनकी कन्नड टीका किसने की
१२ धर्म यह सर्वथा अज्ञान है। और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं उपसंहार इससे अलग है जो सभी ने प्रायः लिखा है। मिलता है। इस प्रति के बीच के पत्र भी गायब हैं पर
इस तरह विज्ञ पाठक कुन्दकुन्द और उमास्वामी की अन्तिम पत्र संख्या ५३ है शायद एक दो पत्र और होंगे
बारह भावनाओं का क्रम विपर्यय और उनका आगे-पीछे इस तरह मूल कन्नड पांडुलिपि ५५ पृष्ठा का हा मानना होने की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर प्रकाश जा सारी प्रति प्राचीन कन्नड भाषा में अंकित है डालें साथ ही सम्पादक महोदय भी अपना स्पष्टीकरण जिसे श्री शुभचन्द्र जी ने आधुनिक कन्नड में परिवर्तित कर प्रकाशित गरे। शुद्ध परिष्कृत रूप प्रदान किया और वर्तमान रूप में इस व प्रकाशित है।
का पूर्ण आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है जिसे उन्होंने अपने
संबर
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वर्ष १७,कि०२
अनेकान्त
प्रिय श्री लालचंद जी भंडारी की पुण्य स्मृति में प्रदान है। यदि यह ग्रन्थ सजिल्द होता तो अच्छा रहता और किया है। श्री लालचन्द जी मूल निवासी राजस्थान के थे टिकाऊ भी हो जाता। इसकी कीमत १२/-रु. रखी है जो पर आजीविका हेतु बैंगलर में आ बसे थे १४-४-७४ को कुछ अधिक लगती है। उनका आकस्मिक निधन हो गया था। अत: उन्हीं की इन शब्दों के साथ श्री वसन्त राजन जी का आभारी पुण्य स्मृति में यह बहुमूल्य उपयोगी ग्रंथ प्रकाशित हुआ हूं जो उन्होंने मुझे अपने ग्रंथ के बारे मे लिखने का शुभ है। इसके लिए श्री मांगीलाल जी धन्यवाद के पात्र हैं। अवसर प्रदान किया। धन्यवाद ! ग्रंथ में श्री लालचंद्र जी का चित्र भी संलग्न है। प्रति की
श्रुत कुटीर, ६५ कुन्ती मार्ग, विश्वासनगर, छपाई शुद्ध, साफ और सुन्दर है। कागज भी उत्तम लगाया
शाहदरा, दिल्ली-११००३२
(पृष्ठ ३ का शेषांश ) दृष्ट्वाजिनालयं दिव्यं भक्त्या तुष्टाव संयमी। सम्पादित-अनुदित तथा १९७२ ई० में श्री शान्तिवीर मनोभवान्तकं देवं सभव भवनाशनम् । नगर, श्री महावीर जी, से प्रकाशित धन्यकुमारचरित,
-इस प्रकार चतुर्विध धर्म्यध्यान का चिन्तवन करते प्रस्तावना, तथाशोधांक-८ एब शोधांक १७ में और हए तथा दूसरों को धर्म्यध्यान का मार्ग दिखाते हुए, ग्राम, जैनाएरिक्वेरी, भा० अ० मे प्रकाशित हमारे लेख । खेट, पूर, आकर आदि में वह मुनिसंघ के प्रधान धोर-वीर तीर्थों का उपरोक्त वर्णन कथानक के पात्रों द्वारा मुनिराज तीर्थकर जिनेन्द्रों के तीर्थों की वन्दना करते हुए
उनकी यात्रा एव बन्दना करने के मिस कराया गया है। विहार कर रहे थे विहार करते-करते वे भवविनाशक ,
ग्रंथकार गुणभद्र माथुरसंघी भट्टारक थे और उत्तर भारत भगवान संभवनाथ की बंदना हेतु देवो द्वारा पूजित श्रावस्ती
में ही विचरते थे? अतएव सभावना यही है कि उन्होंने नगरी पहुंचे। वहां उन्होंने दिव्य जिमालय में कामविजेता
स्वय अकेले अथवा श्रावकों सहित उक्त छ: तीर्थों की एवं भवविनाशक संभवनाथ भगवान की भावभीनी स्तुति
यात्रा एवं वन्दना की थी। यह भी स्पष्ट है कि १२वीं की। आगे के पतिका छंद के पद्यों में वह भक्तिपूर्ण
शती ई० के उत्तरार्द्ध में ये तीर्थ क्षेत्र अच्छी अवस्था में थे, संभवाष्टक दिया है। कुछ ही समय उपरान्त इसी
वहाँ भव्य जिनालय भी विद्यमान थे, और मूनि, त्यागी श्रावस्ती के वन मे समाधिपूर्वक देहत्याग करके मुनिराज
एव गृहस्थ श्रावक उनकी वन्दनार्थ यात्रा करते थे। धन्यकुमार सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। सन्दर्भ के लिए देखें-५० पन्नालाल साहित्याचार्य
ज्योतिनिकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-१६
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(पृष्ठ ७ का शेषांश ) अपने कारण से दुखी है अगर परकारण से दुखी होता, कर्म रमण करना यह तेरा कुपुरुषार्थ है जो तू कर रहा है। संसार के कारण से दुखी होता तब तो उनके सुखी करने पर ही में कोई चीज बन्ध का कारण नहीं है, कोई चीज दुःखका सुखी हो सकता था परन्तु तू अपने कारण से दुखी है और कारण नहीं है मात्र तेरी अज्ञानता-वह जो अपने को तू अपने पुरुषार्थ से सुखी हो सकता है।
अपने रूप न जान कर पर रूप जानना है यही कमें बन्ध तेरा पुरुषार्थ कर्म के फल मे नहीं है वह तो प्रेम से का कारण है यही-दुख का कारण है यही संसार का माना हुआ है तेरा पुरुषार्थ तो अपने को पहचान कर अपने बीज है यह तेरे छोड़ने से ही मिटेगी यह अपने को नहीं को अपने रूप देखना है अपने को अपने रूप जानना और जानने से हुई है और यह अन्य किसी उपाय से, किसी को अपने में ही रमण करना है। शानमात्र इतना ही तेरा पूजने से, किसी का जाप करने से नहीं मिट सकती यह तो पुरुषार्थ है। यही तू कर सकता है इसके विपरीत पर को अपने को जानने से ही मिटेगी। अपने रूप देखना, परं को अपने रूप जानना और पर में
सन्मति विहार, नई दिल्ली
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दुख का बीज
0 श्री बाबूलाल बता-लकत्ता वाले
कर्म अपना कार्य करता है ज्ञान अपना कार्य करता आपमे अपनापना मान अपने को अपने रूप में देखें। तब है। कर्म के फलरूप शरीर की प्राप्ति होती है चाहे स्वरूप जितना कर्म इकट्ठा है वह तो अपना फल देकर चला हो चाहे अस्वरूप चाहे सुन्दर हो चाहे कुरूप । उसी कर्म जता है और इनमे अपनापना न मानने से नये कों का के फलस्वरूप बाहरी वातावरण प्राप्त होता है कोई मान बन्ध होता नही अत एक रोज यह आत्मा कर्मरहित हो करता है कोई अपमान करता है बाहर गरीबी-अमीरी जाता है जब कर्म नही रहता तो उसके फलस्वरूप मिलती है शरीर के अलावा अन्य चीजों का सयोग होता शरीरादि का भी अभाव हो जाता है मात्र रह ज्ञात है। उसी कर्म के फलस्वरूप किसी वस्तु को हितकारी मान आत्मा पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाता है। कर राग करता है। किसी से द्वेष करता है किसी से काध इसलिए न तो शरीर बध का कारण है न मन बचन करता है कही मान करता है आदि । कर्म के उदय से यह काय की क्रिया बध का कारण है न स्त्री पत्रादि धन सब कार्य होते हैं। रागद्वेष जीव करता है उससे कर्म का
परिगृह बध का कारण है बध का कारण तो अपने आपको
ही बन्ध होता है और कर्म उदय मे आता है उससे रागद्वेष
भूल कर इनमे, पर मे अपनापना मानना ही वध का कारण होता है । सवाल होता है कि इससे छुटकारा कैसे हो।।
है अपने को पर रूप देखना कर्म के फल रूप देखना ही यह सब कर्म के फलरूप होता है परन्तु इनमे अपना-बन्ध का कारण है । यही दुख का कारण है। पना कौन मानता है इसका कारण भी वह जीव है जो पर को अपने रूप देखना या अपने को अपने रूप अपने आपको अपने स्वरूप को न जान कर इनमे अपना- देखना इनमे एक तेरी गलनी है और एक तेरी शानता है। पना मानता है यह कर्म के फल मे अपनापना मानना ही कोई दु.खी करने वाला नहीं-- न भगवान कुछ कर सकता वास्तव मे रागद्वेप का कारण है यही चोर की मा है। है न कर्म कुछ कर सकता है तू अपनी अज्ञानता से इनको शरीर भी नये कर्म निर्माण का कारण नही परन्तु
अपने रूप देख कर आप हो अपने ससार का अपने दुख का शरीर मे अपनापना मानना ही कर्म निर्माण मा नये शरीर
निर्माण करने वाला है तू ही अपने को जान कर अपने को को प्राप्त करने का कारण होता है। शरीर चाहे अच्छा
अपने रूप देखे पर को पर रूप देखे तो अपने आपको सुखी हो चाहे बुरा वह तो यह कहता नही कि तू मरे को अपना मान । यह अज्ञानी आप ही अपने को न जान कर इसमें तू अपने को जानना चाहे तो जान सकता है इतनी अपनापना मानता है और ससार का बीज उत्पन्न करता है। योग्यता तेरे में है पर को जानने के लिए इन्द्रियों की पुण्य-पाप का उदय तो यह कहता नही तू मुझे अपना मान प्रकाशादि भी बरकार है परन्तु अपने आपको जानने के यह अज्ञानी आप ही अपने को न जान कर इनके फल में लिए तो मात्र अपनी ही दरकार है। यह मौका मिला है अपनापना मान कर दुखी-सुखी होता है और नये कर्म का तू चाहे तो अपने आपको जान कर परम पद को प्राप्त निर्माण करता है। ये रागद्वेष, क्रोधादि जो कर्म के फल. हो सकता है तू पर में अपनापना मान कर ५४ लाख योनी स्यरूप हो रहे हैं ये ती कहते नहीं कि तू हमारे में अपनापन में भ्रमण कर सकता है कोई बचाने वाला नहीं है अगर मान परन्तु यह अज्ञानी अपने को न पहचान कर अपने को पर में अपनापना मानेगा तो उसमें आसक्ति भी होगी न देखता है और नये संस्कार पैदा करता है। यह सब अहमभाव भी होगा कर्म का निर्माण भी होगा। यदि तेरे कार्यकर्म के फलरूप हो रहे हैं परन्तु अगर यह इन रूपो हाथ में है । समूचा कार्य तो कर्म के हाथ में हैं परन्तु उस
अपनपना न माने तो दुखी भी न हो और नये कर्म का कार्य में अपनापना नहीं मानना यह तेरे हाथ में है। त निर्माण भी न हो। और यह तभी सम्भव है जब यह अपने
(शेव पृष्ठ पर)
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...
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बनानवाला
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प्रद्वैतदृष्टि और अनेकान्त
प्रशोककुमार जैन एम. ए.
पूर्वपक्ष-वेदान्त आत्मा को एक और अद्वैत ही मानता है, यही ब्रह्म समस्त विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय अद्वत का अर्थ है संसार में दूसरी कुछ वस्तु नही। भार• में उसी तरह कारण होता है जिस प्रकार मकड़ी अपने तीय दर्शनों में वेदान्त का प्रमुख स्थान है और जैनदर्शन जाल के लिए, चन्द्रकान्तमणि जल के लिए और वट वक्ष के अतिरिक्त यही एक दर्शन ऐसा है जिसने एकमात्र आत्मा अपने प्ररोहों के लिए कारण होता है। जितना भी भेद है और परमात्मा के सम्बन्ध मे खोज की है। अन्य दर्शनो ने वही सव अतात्विक और झूठा है। केवल भौतिक जगत की छानबीन की है और आत्मा को यद्यपि आत्मश्रवण मनन, और ध्यानादि भी भेद रूप अन्य द्रव्यों की तरह एक चेतन द्रव्य मानकर छोड़ दिया है होने के कारण अविद्यात्मक है फिर भी उनसे विद्या की उसके सम्बन्ध मे आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा । जहाँ तक प्राप्ति संभव हैं जैसे धूलि से गदले पानी में कतकफल या परमात्मा का सम्बन्ध है उसका सम्पूर्ण विश्लेषण उसके फिटकरी या चूर्ण जो कि स्वय भी धलिरूप हो है, डालने जगन्निर्माण को आधार बनाकर ही किया है। वह स्वय पर एक धूलि दूसरी धूलि को शान्त कर देती है और स्वय अपने आप मे क्या है और उसका क्या रूप है इस विषय भी शान्त होकर जल को स्वच्छ अवस्था में पहुंचा देती मे अन्य दर्शन मौन है। वेदान्ती जगत मे केवज एक ब्रह्म है । अथवा जैसे एक विष दूसरे विष को नाशकर निरोग को ही सत् मानते है। वह कुटस्थ नित्य और अपरिवर्तन अवस्था को प्राप्त करा देता है उसी तरह आत्मश्रवण शील है । वह सत् रूप है। यह अस्तित्व ही उस महासत्ता मनन आदि रूप अविद्या भी रागद्वेष मोह आदि मूलअविद्या का सबसे प्रबल साधक प्रमाण है। चेतन और अचेतन को नष्टकर स्वगत भेद के शान्त होने पर निर्विकल्प जितने भी भेद हैं, वे सब इस ब्रह्म के प्रतिभासमान हैं। स्वरूपावस्था प्राप्त हो जाती है। अतात्विक अनादिउनकी सत्ता प्रातिभासिक या व्यावहारिक है. पारमार्थिक कालीन अविद्या के उच्छेद के लिए ही मुमुक्षुओं का प्रयत्न नहीं । जैसे एक अगाध समुद्र वायु के वेग से अनेक प्रकार होता है । यही अविद्या तत्वज्ञान का प्रागभाव है अतः की बीची, तरग, फेन, बुबुद् आदि रूपो में प्रतिभासित
अनादि होने पर भी उसकी निवृत्ति उसी तरह हो जाती है होता है। यह तो दृष्टि सृष्टि है। अविद्या के कारण अपनी
जिस प्रकार कि घटादि कार्यों की उत्पत्ति होने पर उनके
प्रागभावो की। पृथक सत्ता अनुभव करने वाला प्राणी अविद्या में ही बैठकर अपने सस्कार और वासनाओ के अनुसार जगत् को
___इस ब्रह्म का ग्राहक सन्मात्रग्राही निर्विकल्प प्रत्यक्ष
है। वह मूक बच्चो के ज्ञान की तरह शुद्ध वस्तुजन्य और अनेक प्रकार के भेद और प्रपंच के रूप मे देखता है। एक MEप में निर्विकल्प होता है। ही पदार्थ अनेक प्राणियों को अपनी-अपनी दूषित वासना
'अविद्या ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न' इत्यादि विचार के अनुसार विभिन्न रूपो मे दिखाई देता है। अविद्या के भी अप्रस्तुत है क्यों कि ये विचार वस्तुस्पर्शी होते हैं और हट जाने पर सत, चित्त और आनंद रूप ब्रह्म में लय हो अविद्या है अवस्त । किसी भी विचार को सहन नहीं करना जाने पर समस्त प्रपचों से रहित निर्विकल्प ब्रह्म स्थिति ही अविद्यात्व है। प्राप्त होती है। जिस प्रकार विशुद्ध आकाश को तिमिर- उत्तरपक्ष:-फर्मत, फलत तथा विद्यावय का रोगी अनेक प्रकार की चित्र-विचित्र रेखाओ से खचित महंत दृष्टि में न होना-अद्वैत एकान्त मे शुभ और अशुभ और चिवित देखता है उसी तरह अविद्या या माया के कर्म, पुण्य और पाप इहलोक और परलोक, ज्ञान और कारण एक ही ब्रह्म अनेक प्रकार के देश, काल और अज्ञान, बन्ध और मोक्ष इनमे से एक भी द्वैत सिद्ध नही आकार के भेदो से भिन्न की तरह चित्र-विचित्र प्रति- होता है। भासित होता है। जो भी जगत में था और होगा वह सब लोक में दो प्रकार के कर्म देखे जाते हैं-शुभ कर्म और
अशुभकर्म । हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि
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बढत दि और अनेकान्त
अशुभ कर्म हैं। हिंसा नहीं करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं होते हुए भी जगत में विभिन्न रूपों के प्रतीतिगोचर होने करना, परोपकार करना, दान देना आदि शुभ कर्म हैं। दो का कारण बनती है लेकिन इस पर हरिभद्र कहते हैं कि प्रकार के कर्मों का फल भी दो प्रकार का मिलता है- यह बात प्रमाण द्वारा सिद्ध किये हुए बिना समझ में अच्छा और बुरा। जो शुभ कर्म करता है उसे अच्छा फल आने वाली नही । और यदि प्रमेय से अतिरिक्त प्रमाण मिलता है-इसे पुण्य कहते हैं और जो अशुभ कर्म करता की सत्ता नही तो यह सिद्धान्त स्थिर नहीं रहा कि जगत है उसको बुरा फल मिलता है-इसे पाप कहते हैं । अद्वैत- में कोई एक ही पदार्थ सत्ताशील है। दूसरी ओर यदि प्रमेय मात्र तत्व के सद्भाव में दो कर्मों का अस्तित्व कैसे हो . से अतिरिक्त प्रमाण की सत्ता नही तो उक्त सिद्धान्त प्रमाण सकता है। जब कर्म ही नहीं हैं तो उसका फल भी नहीं हो हीन ठहरता है । सत्ता अद्वतका सिद्धान्त इस आधार पर भी सकता है। अत: दो कर्मों के अभाव में दो प्रकार के फल बाधित सिद्ध होता है कि प्रस्तुत वादी के शास्त्र ग्रंथ स्वयं का अभाव स्वतः हो जाता है। दो प्रकार के लोक को भी ही विद्या, अविद्या आदि के बीच भेद की बात करते हैं तथा प्रायः सब मानते है इह लोक तो सबको प्रत्यक्ष ही है इस वे स्वयं ही अपने प्रतिपादित सिद्धान्त के सम्बन्ध में संशय लोक के अतिरिक्त एक परलोक भी है, जहां से यह जीव आदि की संभावना स्वीकार करते हैं (जब कि संशय आदि इस लोक में आता है और मृत्यु के बाद पुनः वहाँ चला ये परस्पर भिन्न पदार्थ हैं । इसके अतिरिक्त यह जाता है। परलोक का अर्थ है जन्म के पहले और मृत्यु के सिद्धान्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर भी बाधित सिद्ध बाद का लोक । ऐसा भी माना गया है कि इस जन्म मे होता है। इस पूरी वस्तु स्थिति पर विचार किया जाना किये गये कर्मों का फल अगले जन्म मे मिलता है चाहिए । कुछ दूसरे वादियो की व्याख्या है कि शास्त्रों में किन्तु अद्वैतवाद में न कर्म है, न कर्मफल है और न सत्ता अद्वैत के सिद्धान्त का उपदेश इसलिए दिया गया है परलोक है।
कि श्रोताओ के मन मे सब प्राणियो के प्रति समता की यह कहना ठीक नही है कि कर्मद्वेत, फलद्वैत-लोकद्वैत भावना उत्पन्न न हो कि मि आदि की कल्पना अविद्या के निमित्त से होती है क्योकि जगत मे कोई एकमात्र पदार्थ ही सत्ताशील है। उक्तवादियों विद्या और अविद्या का सद्भाव भी अद्वैतवाद में नही हो का ऐसा कहना भी युक्ति विरुद्ध नहीं क्योकि उनका कथन सकता है। यहाँ तक कि बन्ध और मोक्ष की भी व्यवस्था स्वीकार करने पर उत्तम शास्त्र ग्रंथो की प्रामाणिकता अद्वैत में नही बन सकती है । यदि कोई व्यक्ति प्रमाण
सिद्ध बनी रहती है। हरिभद्र का आशय यह है कि अद्वैतविरुद्ध किसी तत्व की कल्पना करता है तो किसी न
वाद का सिद्धान्त तात्विक रूप से (अर्थात् शाब्दिक रूप से) किसी फल की अपेक्षा से ही करता है। बिना प्रयोजन के
स्वीकार करने पर प्रस्तुत तीनों बातें असम्भव बनी रहती मूर्ख भी किसी कार्य मे प्रवृत्त नही होता है अतः कोई
हैं अन्यथा तो संसार और मोक्ष वस्तुतः एक ठहरेंगे और बुद्धिमान व्यक्ति सुख-दुख, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि से
इस दशा में हम न चाहते हुए भी यह मानने के लिए बाध्य रहित अद्वैतवाद का आश्रय कैसे ले सकता है अतः ब्रह्म- योगे कि मोक्ष प्राप्ति के लिए किया गया सब क्रिया-कलाप द्वैत की सत्ता स्वबुद्धिकल्पित है। हरिभद्रसूरि कहते हैं कि एक व्यर्थ का क्रियाकलाप है। अविद्या उस सत्ताशील पदार्थ से भिन्न नही जब कि वह अद्वैतवादी ने जो कहा था कि "अविद्या ब्रह्म से सत्ताशील पदार्थ एकमात्र स्वयं ही है और ऐसी दशा में भिन्न कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है इसलिए वह नष्ट जगत में विभिन्न रूपों का प्रतीतिगोचर होना एक होती है इत्यादि" सो यह कथन भी असार है क्योंकि अकारण बात सिद्ध होती है। यहाँ आशय यह है कि जब अविद्या यदि अवस्तुरूप असत् है तो उसे प्रयत्नपूर्वक क्यों सभी वस्तुयें केवल सतरूप हैं तब अविद्या भी केवल सत्
हठानी पड़ती है ? अवस्तुरूप खरगोश, शृंग आदि क्या रूप ही हुई है और ऐसी दशा में यह कहना कि एक सत् प्रयत्नपूर्वक हटाये जाते देखे जाते हैं ?
अविद्यावश अनेक सा लगने लगता है। ऐसा कहा जा शंका-अविद्या वास्तविक होगी तो उसे कैसे समाप्त सकता है कि विधा एकमात्र सत्तासील पहा से अभिन्न किया जा सकेगा।
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१०, बर्ष ३७, कि०२
समाधान-यह कथन ऐसी शका ठीक नही है- क्या हेतु के बिना प्रवत की सिद्धि हो सकती है? घटादि सत् होकर भी समाप्त किए जाते हैं कि नहीं? वैसे हेतु के द्वारा अद्वैत की सिद्धि करने पर हेतु और ही अविद्या सत होवे तो भी हठायी जा सकती है, आप साध्य के सद्भाव मे द्वैत की सिद्धि का प्रसंग आता है और ऐसा भी नहीं कहना। घट, ग्राम, बगीचादि अविद्या से यदि हेतु के बिना अद्वैत की सिदि की जाती है तो वचननिर्मित है। अतः असत् हैं और इसी कारण से उन्हे भी मात्र से द्वत की सिद्धि भी क्यो नहीं होगी। हटा सकते है तो ऐसे तो अन्योन्याश्रय दोष आता है अतः अद्वैतवादियो का कहना है कि हेतु के द्वारा ब्रह्म की घटादिकों में अविद्या से निर्मितपना सिद्ध हो तो उनमे सिद्धि करने पर भी द्वैत की सिद्धि नहीं होगी क्योंकि हेतु असत्व सिद्ध हो और असत्व शिद्ध हो तो उनमे और साध्य में तादात्म्य सम्बन्ध है वे पृथक्-पृथक् नहीं हैं। अविद्या से निर्मितपना सिद्ध हो। "अभेद विद्या निर्मित है
ब्रह्माद्वैतवादियो का उक्त कथन ठीक नही है। हेतु अतः वह वास्तविक है" इस पक्ष में भी वही अन्योन्याश्रय
और साध्य में कथचिद् तादात्म्य मानना तो ठीक है किन्तु दोष आता है अर्थात् पहले विद्या परमार्थभूत है यह बात
सर्वथा तादात्म्य मानना ठीक नही है। सर्वथा तादात्म्य सिद्ध हो तब अभेद विद्या के द्वारा पंदा यह कथन सिद्ध हो
मानने पर उनमे साध्य-साधन भाव हो ही नही सकता है। और अभेद विद्यानिर्मित है यह कथन सिद्ध होने पर विद्या
इसी प्रकार आगम से भी ब्रह्म की सिद्धि करने पर आगम में परमार्थतः सिद्ध हो इस तरह अभेद विद्यानिर्मित है यह
को ब्रह्म से अभिन्न नही माना जा सकता है। यदि ब्रह्म बात सिद्ध नही होती है। अनादि अविद्या क नाश होने मे
साधक आगम ब्रह्म से अभिन्न है तो अभिन्न आगम से ब्रह्न जो अद्वैतवादियों ने प्रागभाव का दृष्टान्त दिया है सो गलत
की सिद्धि कैसे हो सकती है। अत: हेतु और ब्रह्म का द्वैत है क्योंकि वस्तु से भिन्न सर्वथा अनादि तुच्छभाव रूप इस
तथा आगम और ब्रह्म का द्वैत होने से अद्वैत की सिद्धि
सम्भव नही है। प्रागभाव की असिद्धि है तथा वादियो ने जो ऐसा कहा है
___ स्वयसवेदन से भी पुरुषादत की सिद्धि सम्भव नही कि "तत्त्वज्ञान का प्रागभाव ही अविद्या है सो केवल कथन
है स्वसवेदन से पुरुषाद्वैत की सिद्धि करने पर पूर्वोक्त मात्र है यदि अविद्या को प्रागभावरूप मानें तो उससे भेद
दूषण से मुक्ति नहीं मिल सकती है। ब्रह्म साध्य है और शान लक्षण कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी क्योकि प्राग्भाव मे
स्वसवेदन साधक है। यहाँ साध्य-साधक के भेद से द्वैत की कार्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है। प्राग्भाव से
सिद्धि का प्रसग बना ही रहता है और साधन के बिना नाश हये बिना जैसे घटरूप कार्य नही होता वैसे ही
अद्वैत की सिद्धि करने पर द्वैत की सिद्धि भी उसी प्रकार अविद्यारूप प्राग्भाव का नाश हुये बिना तत्त्वज्ञान रूप काये क्यो नही होगी। कहने मात्र से अभीष्ट तत्व की सिद्धि भी उत्पन्न ही नही होता है।
हो जायगी। वृहदारण्यक वार्तिक में ब्रह्म के विषय मे कहा यदि एक ही ब्रह्म का जगत मे मूलभूत अस्तित्व हो
। गवा है कि यद्यपि एक सद्रूप ब्रह्म ही सत्य है किन्तु मोह
। 'और अनन्त जीवात्मा कल्पित भेद के कारण ही प्रतिभासित
के कारण आत्मा या ब्रह्म भी दी रूपों से प्रतीति होती है होते हैं तो परस्पर विरुद्ध सदाचार, दुराचार आदि आगम द्वैत का बाधक एवं अद्वैत का साधक है। क्रियाओं से होने वाला पुण्य-पाप का बन्ध और उनके फल
उक्त कथन भी तर्कसंगत नहीं है। यदि मोह के कारण सुख-दुःख आदि नही बन सकेंगे। जिस प्रकार एक शरीर
द्वैत की प्रतीति होती है तो मोह का सद्भाव वास्तविक है में सिर से पैर तक सुख और दुःख की अनुभूति अवश्यक
या अवास्तविक । यदि मोह अवास्तविक है तो वह दैत की होती है भले ही फोड़ा पैर में ही हुआ हो, या पेड़ा मुख में
प्रतीति का कारण कैसे हो सकता है और मोह के वास्तविक ही खाया गया हो उसी तरह समस्त प्राणियों में यदि मूल- होने पर दैत की सिद्धि अनिवार्य है। एक ब्रह्म का ही सद्भाव है तो अखण्डभाव से सबको एक इस प्रकार ब्रह्म की सिद्धि में उभयतः दूषण पाता है। जैसी सुख-दुःख की अनुभूति होनी चाहिए थी। एक हेतु और आगम से ब्रह्म की सिद्धि करने पर वैत की मिति अनिर्वचनीय अविद्या या माया का सहारा लेकर इन जलते होती है। और वचनमात्र से की सिद्धि मानने पर हुए प्रश्नों को नहीं सुलझाया जा सकता।"
वैत की सिडिभी बचनमात्र होने से कौन-सी साधा है।"
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मात दृष्टि और मनेकान्त
मततका अविनाभावी है-द्वैत के बिना अद्वैत अनिर्वचनीय अविद्या के द्वारा स्व पर आदि के भेर की नहीं हो सकता है, जैसे कि हेतु के बिना अहेतु नहीं होता प्रतीति होती है। यथार्थ में तो अद्वैत तत्व ब्रह्म का ही है कहीं भी प्रतिषेध्य के बिना संशी का निषेध नहीं देखा सद्भाव पाया जाता है। गया है।"
वेदान्तवादियों के उक्त कथन मे कुछ भी सार नहीं जो लोग केवल अद्वैत का सदभाव मानते हैं उनको है। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा प्रभाणगोचर अविद्या को द्वैत का सद्भाव मानना भी आवश्यक है। क्योंकि अद्वैत मान कर उसके द्वारा द्वैत की कल्पना करना उचित द्वत का अविनाभावी है। अद्वैत शब्द भी द्वैत शब्दपूर्वक प्रतीत नहीं होता है। ऐसी बात नही है कि प्रमाण अविद्या बना है। 'न द्वतं इति अद्वैत' जो द्वैत नही है वह अद्वैत है। को विषय न कर सकता हो । विद्या की तरह अविद्या भी जब तक यह ज्ञात न हो कि दंत क्या है तब तक अद्वैत का वस्तु है तथा प्रमाण का विषय है। अविद्या प्रमाणगोचर ज्ञान होना असम्भव है अतः अद्वैत को जानने के पहले द्वैत और अनिर्वचनीय नही हो सकती है। अतः अविद्या के का ज्ञान होना आवश्यक है। द्वैत के बिना अद्वैत हो ही द्वारा द्वैत की कल्पना मानना ठीक नही है उनके द्वारा तो नही सकता है जेसे अहेतु के बिना हेतु नही होता है । साध्य वैत की सिद्धि ही होती है। का जो साधक होता है वह हेतु कहलाता है किसी साध्य मे इस प्रकार अद्वतकान्त पक्ष की सिद्धि किसी प्रमाण एक पदार्थ हेतु होता है और दूसरा अहेतु । वह्नि के सिद्ध से नही होती है प्रत्युत युक्ति से यही सिद्ध होता है कि करने में धूम हेतु होता है और जल को सिद्ध करने में धूम अद्वैत द्वेत का अविनाभावी है और बिना देत का सद्भाव अहेतु होता है । कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि अहेतु किमी भी प्रकार नही हो सकता है।" का सद्भाव हेतु का अविनाभावी है। बिना हेतु के अहेतु
कार्य की भ्रान्ति से कारण की प्रान्ति का प्रसंगनही हो सकता । अत: अद्वैत द्वैत का उसी प्रकार अविना
आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि कार्य के प्रान्त होने से भावी है जिस प्रकार की अहेतु हेतु का अविनाभावी है।
कारण भी भ्रान्त होंगे। क्योकि कार्य के द्वारा कारण का जो लोग द्वैत का निषेध करते हैं उन्हें यह ध्यान
शान किया जाता है तथा कार्य और कारण दोनो के अभाव रखना चाहिए कि किसी सज्ञी (नाम वाले) का निषेध
में उनमें रहने वाले गुण जाति आदि का भी अभाव हो निषेध्य वस्तु के अभाव मे सम्भव नहीं है। गगन कुसुम या जायेगा। खरविषाण का जो निषेध किया जाता है वह भी कुसुम ऐसा सम्भव नहीं है कि कार्य मिथ्या हो और कारण और विषाण का सद्भाव न होता तो गगन कुसुम और सत्य हो। यदि कार्य मिथ्या है तो कारण भी मिथ्या अवश्य खरविषाण का निषेध नही किया जा सकता था। इसलिए होगा। जो लोग ऐसा मानते हैं तो उनके मत में पृथ्वी जो लोग द्वैत का निषेध करते हैं उन्हें द्वैत का सद्भाव आदि मूलों के कारण परमाणु भी मिथ्या ही होंगे। मानना ही पड़ेगा।
परमाणु प्रत्यक्ष सिद्ध तो है नही। किन्तु कार्य के द्वारा पुरुषाद्वैतवादी कहते हैं कि परप्रसिद्ध द्वैत का प्रतिषेध कारण का अनुमान करके परमाणुओं की सिद्धि की जाती करके अदंत की सिद्धि करने में कोई दूषण नही है। स्व है। 'परमाणु रहित घटाद्यन्नथानुपपत्तेः।' परमाणु है और पर के विभाग से भी द्वैत की सिद्धि का प्रसग नही अन्यथा घटादि की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस अनुमान आ सकता है क्योंकि स्व और पर की कल्पना अविद्याकृत से परमाणुओं की सिद्धि की जाती है। प्रत्यक्ष के द्वारा तो है। अविद्या भी कोई बास्तविक पदार्थ नही है किन्तु स्थूलाकार स्कन्ध की ही प्रतीति होती है और परमाणुओं अवस्तुभूत है उसमें किसी प्रमाण का व्यापार नहीं होता वह को प्रतीति कभी भी नही होती है। परमाणुओं का ज्ञान प्रमाणगोचर है। अविद्यावान मनुष्य भी अविद्या का दो प्रकार से ही सम्भव है-प्रत्यक्ष द्वारा या अनुमान निरूपण नही कर सकता है जैसे कि जन्म से तैमिरिक द्वारा। प्रत्यक्ष में तो उनका ज्ञान होता नही है कार्य के मनुष्य चन्द्रद्वय की प्रान्ति को नही बतला सकता है । इस भ्रान्त होने से कार्य के द्वारा उनका अनुमान भी नहीं
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१२,३०२
बनेका
किया जा सकता। ऐसी स्थिति में परमाणुओं के जानने का कोई उपाय ही शेष नहीं रह जाता है। प्रत्युत कार्य के भ्रान्त होने से परमाणुओं में प्रान्तता ही सिद्ध होती है । कार्य और कारण दोनों के भ्रान्त होने से दोनों का अभाव
हिंसा का उद्बोधन करती है, जबकि त परम्परा जीवात्माओं के पारस्परिक भेद को ही मिथ्या मान कर उनमें तात्त्विक रूप से पूर्ण अभेद मान कर उसके आधार
स्वत प्राप्त है और दोनों का अभाव होने से उनमें रहने वाले गुण, सामान्य किया आदि का भी अभाव हो जायेगा । गुण आदि या तो कार्य में रहेंगे या कारण में किन्तु दोनों के अभाव में आधार के बिना गुण आदि कैसे रह सकते हैं। गगनकुसुम के अभाव में उसमें सुगन्धित नही रह सकती है। अतः यदि गुण, जाति आदि का सद्भाव अभीष्ट है तो कार्य को मत मानना भी आवश्यक है और अप्रान्त स्कन्धरूप कार्य द्रव्य अत्रान्त तभी हो सकता है जब परमाणु अपने पूर्व रूप को छोड़कर स्कन्धरूप पर्याय की धारण करें इस प्रकार परमाणुओं में अनन्तकान्त मानना ठीक नहीं है। "
पर अहिंसा का उद्बोधन करती है। मई व परम्परा के अनुसार भिन्न-भिन्न योनि और गति वाले भिन्न-भिन्न जीवों में दिखाई देने वाले भेद का मूल अधिष्ठान एक शुद्ध अखण्ड ब्रह्म है जबकि जैन जैसी द्वैतवादी परम्पराओं के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा तत्वरूप से स्वतन्त्र और बुद्ध ब्रह्म है । एक परम्परा के अनुसार अखण्ड एक ब्रह्म मे से नाना जीव की सृष्टि हुई है जबकि दूसरी परम्पराओं के अनुसान जुदे-जुदे स्वतन्त्र और समान अनेक शुद्ध ब्रह्म ही अनेक जीव है। द्वंतमूलक समानता मे से ही कई मूलक ऐक्य का सिद्धान्त क्रमशः विकसित हुआ जान पड़ता है। परन्तु अहिंसा का आचार और आध्यात्मिक उत्क्रान्तिवाद अतवाद में भी ईतवाद के विचार के अनुसार ही घटाया गया है बाद कोई भी हो पर अहिंसा की दृष्टि से महत्त्व की बात एक ही है कि अन्य जीवों के साथ समानता पा अभेद का वास्तविक संवेदन होना ही अहिंसा की भावना का उद्गम है।"
द्वैतवादी जैन आदि परम्पराओं के और अद्वैतवादी परम्परा के बीच अन्तर केवल इतना ही है कि पहली परम्परायें प्रत्येक जीवात्मा का वास्तविक भेद मान कर भी उन सबमें तात्विक रूप से समानता स्वीकार करके
संदर्भ-सूची
:
१. डॉ० लालबहादुर शास्त्री 'आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार पृ० १८५
२. 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म छान्दो० ३११४११
३. 'यथा विशुद्धयाकाशं तिमिसेपप्लुतो जनः,
संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते । तयेदममलं बह्म निविकारमविद्यया,
मनुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति ।। वृहदा० भा० वा० ३१५१४३-४४ ४. 'यथा पयो पयोऽन्तां जरयति स्वयं च जीर्यतिः यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति यथा कतकरजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि भिन्यते स्वयमपि विद्यमान मनाविलं पाय: कमोति एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविधान्तराणि अपगमयत् स्वयंमध्यप गच्छतीति'
- ब्रह्म सु० शां भा० भा० पृ० ३२ ५. अविद्याया विद्यारवे इदमेव च लक्षणम् । मानाधात्मसहिष्णुत्वमसाधारणमिष्यते ॥ -सम्बन्ध वा० का० १५१ ।।
६. कर्म फलई लोकतं च नो भवेत् । विद्याविद्यrai न स्यातां बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥ समन्तभद्रः आप्तमीमांसा का० ०५
७. प्रो० उदयचन्द जैन आप्तमीमांसा तत्वदीपिका पृ० १७५।
।
८. अत्राप्येवं वदन्त्यन्ये अविद्यां न सतः पृथक् । तच्च तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ॥ संवाषाभेदरूपाऽपि भेदाभासनिबन्धनम् । प्रमाणमन्तरेणैतदवगन्तु न शक्यते ॥ भावेऽपि च प्रमाणस्य प्रमेय व्यतिरेकतः । ननुनाई व मेवेति तदभावेप्रमाणकम् ॥ विद्याऽविद्याविभेदाच्च स्वतन्त्रेव बाध्यते । सत्संशयादियोगाच्च प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ॥ अन्ये व्याख्या नमन्त्येव समभावप्रसिद्धये । अतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्वतः ॥ न चैतत् बाध्यते युक्तया सच्छास्त्रादि व्यवस्थितेः ॥ ससारमोक्षभावाच्च तदर्थं यत्नसिद्धितः ॥ अन्यथा तत्वतोऽद्वैते हन्तः संसार मोक्षयोः । सर्वानुष्णनवैयर्थ्यमनिष्टं सम्प्रसज्यते ॥
- शास्त्रवार्ता समुच्चय ५४६-५५२
•
( शेष पृष्ठ १३ पर )
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जैन कला तथा स्थापत्य में भगवान शान्तिमाय
0 मृदुलकुमारी शोषछात्रा
भगवान शान्ति जैन धर्म के सोलहवें तीर्थपूर हैं। जैन भगवान् शान्तिनाथ की मूर्ति लाकर मूल नायक के रूप में कला तथा स्थापत्य में भगवान् शान्तिनाथ का विशेष विराजमान की गई। इसके कारण यह शान्तिनाथ का स्थान है। प्राचीन मन्दिरों, शिलालेखों ग्रन्थों तथा मूर्तियों मन्दिर कहा जाता है।' के द्वारा इनकी महत्ता प्रकट होती है विभिन्न जैन तीर्थ हस्तिनापुर में दिगम्बर जैन मन्दिर के द्वार के समक्ष स्थल तथा उनसे प्राप्त सामग्री इसकी साक्षी है। भगवान ३१ फुट ऊंचा मान स्तम्भ बना है चारो ओर खले बरामदे
हैं और बीच में मन्दिर है जिसका एक खण्ड है इसे गर्भ शान्तिनाथ का जन्म हस्तिनापुर में हुआ। आदिपुराण के
गृह कहते हैं। इस मन्दिर मे तीन दर की एक विशाल अनुसार हस्तिनापुर की रचना देवों के द्वारा की गई।
वेदी है। उस पर भगवान शान्तिनाथ की श्वेत पाषाण की यहीं पर सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ और अठारहवें अरहनाथ
एक हाथ ऊंची पचासन प्रतिमा है। इसके दोनों ओर कंथनाथ का भी जन्म हुआ । तीनों ने हस्तिनापुर के सहस्राम्रवन में
तथा अरहनाथ की प्रतिमा है। दीक्षा तथा केवलज्ञान प्राप्त किया और पञ्चकल्याणक
इस मन्दिर के पीछे एक-दूसरा मन्दिर है जिसके बायीं मनाये।
ओर वेदी में भगवान् शातिनाथ की ५ फुट ११ इंच की हस्तिनापुर में दिल्ली धर्मपुरा के नये जिन मन्दिर से
अवगाहना वाली खड्गासन प्रतिमा है। इसके मूर्तिलेख से वि० सं० १५४८ में भट्टारक जिनेन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित
ज्ञात होता है कि इसकी प्रतिष्ठा संवत् १२३१ बैसाख (पृष्ठ १२ का शेषाश)
सुदी १२ सोमवार को देवपाल सोनी अजमेर निवासी द्वारा १. प्रमेयकमलमानण्ड-अनुवादिका श्री १०५ आयिका।
हस्तिनापुर में हुई थी। यह प्रतिमा ४० वर्ष पहले इस -जिनमती जी पृ० १६६-२००
टीले की खुदाई में निकली थी, जिस पर श्वेताम्बरो ने १०. डॉ. महेन्द्रकुमार जैन : जैनदर्शन पृ. ३०६।
अपनी नशिया बनवाई थी। यह प्रतिमा हल्के सलेटी रंग ११. हेतुना चेद्विना सिद्धिश्चेद द्वैतं स्याहेतु साध्ययो.।।
की है। इसके चरणों के दोनों ओर चैवरधारी बड़े हैं। हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वत वाङ्गमामतो न किम् ॥
सिर पर पाषाण की छत्र छाया तथा इन्द्र ऊपर से पुष्प -समन्तभद्र आप्तमीमांसा का० २६
वृष्टि कर रहे है। चमरवाहक स्त्री युगल खड़े हैं। पाव१२. आत्मापि सदिदं ब्रह्ममोहात्यारोक्ष्यदूषितम् ।
पीठ पर हरिण का लांछन है।' ब्रह्मापि स तथेवात्मा सद्वितीयतयेक्ष्यते॥ आत्मा ब्रह्मति पारोक्ष्यसद्वितीयत्वबाधनातु ।
मन्दिर की उत्तर दिशा में तीन मील की दूरी पर पुमर्थे निश्चित शास्त्रमिति सिद्धं समीहितम् ॥ जन नाशया बना है। सबसे पहले भगवान् शान्तिनाथ की -वृहदारण्यक वार्तिक
नशियां मिलती हैं। टोक में स्वास्तिक बना है। १३. प्रो. उदयन्द्र जैन : आप्तमीमांसा तत्वदीपिका।
'बाइसवें तीर्थकद नेमिनाथ की जन्मभूमि शोरीपुर पृ० १७६-१८.।
के समीप वटेश्वर नामक स्थान पर १८वीं शती के १४. अतं न बिना ताय हेतुरिव हेतुना।
भट्रारक जिनेन्द्र भूषण द्वारा बनवाया गया तीन मंजिल सज्ञिन: प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादते क्वचित् ॥ का मान्दर है। इस मन्दिर में शांतिनाथ भगवान की मति
--समन्तभद्र अप्तमीमासा २७ है जो मूर्तिलेख के अनुसार संवत् १९५० बैसाख बदी २ १५. प्रो. उदयचन्द जैन · आप्तमीमाता तत्वदीपिका। को प्रतिष्ठित हुई । इस मूर्ति के परिकर मे बायी ओर एक १६. कार्यम्रान्तिरेणु भ्रान्तिः कार्यलिन हि कारणम्। खड्गासन और दायी ओर एक पपासन तीर्थपुर उदयाभाववस्तुस्थं गुण जातीत रच्च न॥
प्रतिमा है। चरणों में भक्त श्रावक बैठे हैं उनके बीच दो
-आप्तमामासा ६८ स्त्रियां मकलित कर पल्लव मुद्रा मे आसीन है। दो १७.प्रो० उदयचन्द जैन : आप्तमीमांस तत्त्वदीपिका चमरवाहक इन्द्र इधर-उधर खड़े हैं ऊपर पाषाण का पृ०२४२।
छत्रत्रयी है। ऊपर वीणावादिनी और मृदङ्गवादक बैठे हैं। १६. दर्शन और चिन्तन : पं० सुखलाल जी पृ० १२५। पीठासन पर हरिण अंकित है।'
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अनेकान्त
१४३७०२
'उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में फिरोजाबाद से २२ मील दूर मसलगंज स्थान पर एक मन्दिर है। मुख्य बेदी पर भगवान् ऋषभदेव की श्वेत पाषाण पद्मासन प्रतिमा है तथा बायीं बेबी मे मूलनायक शांतिनाथ की प्रतिमा के साथ-साथ आठ पाषाण खड्गासन प्रतिमाएं एव दोनों ओर पाँच फुट अवगाहना वाली दो बद्गासन आधुनिक प्रतिमाएं हैं।
उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले के बानपुर गांव मे मन्दिर नम्बर चार में भगवान् शान्तिनाथ की प्रतिमा विराजमान है जो १५ फुट ऊंची खड्गासन है ।
भगवान्
ललितपुर जिले के मदनपुर कस्बे मे जमीन तल से ३ फीट चे आसन पर एक विशालकाय सान्तिनाथ का मन्दिर है। यह २० फीट ऊचा, १८ फीट लम्बा तथा १३ फीट चौड़ा है। मन्दिर के शिखर पर एक सुन्दर कोठरी है, मन्दिर से लगा द्वार के सामने १३ फुट का एक चबूतरा है जिस पर पत्थरो के पायों पर बरामदानुमा बना है । मन्दिर का मुख पश्चिम मे पचमढी की बोर है। मन्दिर मे प्रवेश करने के लिए फुट ऊचा, ४ फुट चौड़ा द्वार है । इस द्वार के ऊपरी भाग पर पद्मासन मूर्ति है। द्वार से प्रवेश कर ४ फुट गहरा मन्दिर का गर्भालय बना है । उसमे ३ मूर्तियां खड्ासन ध्यानस्थ ' में अष्ट प्रतिहार्य युक्त खड़ी है मध्य में १० फुट उत्तुंग मुद्रा भगवान् शान्तिनाथ की प्रतिमा है जो संवत् १२०० की है। मूर्ति के बांयें दांयें महावीर और अरहनाथ की प्रतिमा है। गर्भालय का फर्म छिन्न-भिन्न हो गया है। दो विशालकाय मूर्तियों के घड पड़े हैं। एक दो वर्गफुट की चौमुखी मेरु गर्भालय में रखी है। मन्दिर के उत्तर की और बाहर पत्थर पड़ा है जिस पर १-१ फूट की १५ मूर्तियां बनी हैं। इस मन्दिर से ३०० मीटर चम्पोगढ़ है । '
'चम्पोगढ़ के दक्षिण में एक अर्ध भग्नावशेष दूसरा मठ है जिसमें शांति, कुंथ और अरहनाथ की मनोज्ञ प्रतिमाएं चड़ी हैं तीनों पर प्रशस्ति लिखी है। मध्य की पूर्ति फूट उंची शेष दो ३ फुट ऊंची और टूटे हाथ वाली है।"
"चम्पोगढ़ से कोई दो फर्लांग दूर मोदीमढ़ मे एक मन्दिर है । इसका शिखर जीर्ण-शीर्ण है। गर्भगृह का फर्श उखड़ा हुआ है । मढ़ की दीवार ५ फुट चौड़ी, ऊंचाई २५ फुट तथा इसके अन्दर तीन मूर्तियां हैं।
मध्य में
भगवान् शाँतिनाथ की 8 फुट ऊंची तथा दायें-बायें अरहनाथ और कुन्युनाथ की प्रतिमाएं है जिस पर फाल्गुन शुक्ल ४ संवत् १६८६ अंकित है। इसका मुख्य द्वार ६ फुट ऊंचा और ४ फुट चौड़ा है।"
"चौबीसवें तीर्थदूर पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी (काशी) के भे नूपुरा मुहल्ले में दिगम्बर जैन मन्दिर है । इस मन्दिर मे तीन वेदियां हैं। दायी ओर की वेदी में बायीं ओर मे कृष्ण पाषाण के फलक पर भगवान् शांतिनाथ की उत्सर्ग मुद्रा मे ३ फुट ऊंची प्रतिमा है। इसके परिकर मे भक्त हैं । दायी ओर भगवान् का गरुड यक्ष और महामानसी यक्षिणी है। दोनों ही द्विभुजीय है। यक्ष के हाथ में फल तथा वज्र है । यक्ष के ऊपर गोद में बालक लिये पक्षी बड़ी है। ऊपर इन्द्र पारिजात पुष्प लिए बड़ा है। उसके बगल मे तथा ऊपर अर्हन्त खड्गासन प्रतिमा है । उनके ऊपर गज है, जिस पर कलश लिए हुए इन्द्र बैठा है । फिर आकाशचारी देव देवियों कमल पुष्प लिए दीख पडती है। छत्रछयी के ऊपर वाद्ययन्त्र बजाता एक पुरुष है, उसके कधे पर स्त्री बैठी है।"
'प्रयाग म्यूजियम में पपोसा से प्राप्त १२वीं शती की भूरे बलुए पाषाण की पद्मासन में स्थित और अवगाहना दो फुट तीन इंच की भगवान् शान्तिनाथ की प्रतिमा है । इसके दोनो ओर बङ्गासन प्रतिमा है। उनके ऊपर कोष्ठक में पद्मासन प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। भामण्डल का अंकन कला पूर्ण है । अधोभाग में यक्ष यक्षिणी तथा शीर्ष भाग मे पुष्प लिए आकाशचारी देव है।
उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त उड़ीसा में प्राचीन काल से एक प्रधान धर्म के रूप मे जैन धर्म का प्रचलन रहा है । कटक तथा भुवनेश्वर में भगवान् शान्तिनाथ की मनोहर मूर्तियां मिली है। 'कटक मे जैन मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथ की पाषाण मूर्ति मिलती है।" भवनेश्वर म्यूजियम में भगवान् शान्तिनाथ की दिगम्बर प्रतिम उपलब्ध है ।
'खुजराहो के अनेक प्राचीन जैन मन्दिर की सामग्री से पता चलता है कि लगभग १०० वर्ष पूर्व यहां भगवान् शान्तिनाथ के विशाल मन्दिर का निर्माण हुबा था। इस मन्दिर में मूल नायक १६वें तीर्थंकर शान्तिनाथ की १२ फुट ऊंची कायोत्सर्ग मुद्रा की अतिशय मनोश प्रतिमा विराजमान है। इस मूर्ति पर चमकदार पालिश है तथा
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जैन कला तथा स्थापत्य में भगवान शान्तिनाथ उसकी पीठिका पर संवत् १०८५ का एक पक्ति का मूर्ति का बहुत सुन्दर अलंकरण किया गया है। जगती के दक्षिण लेख और हरिण चिह्न है। इस मन्दिर में वर्तमान १२ पश्चिमी कोने में एक छोटा पूजास्थल है जिसमें चतुर्मुख वेदियों में से तीन प्राचीन मन्दिर ही थे उनकी जघा, गर्भ- नन्दीश्वर दीप की रचना है । गूड मण्डम में सादी संवरणा गृह, मण्डप आदि अभी भी ज्यो के त्यो हैं। ऊपर कुछ
राजस्थान के जैसलमेर में सन् १४८० के निर्मित नवीन निर्माण करके उन्हें इस बड़े मन्दिर का अग बना
शान्तिनाथ मन्दिर की छतें और संवरण (घण्टे के आकार लिया गया है। शेष वेदियो और द्वारों आदि पर भी प्राचीन मन्दिरों की सामग्री प्रचुर मात्रा में लगी हुई है ।"
की छत) अपनी जटिलता के कारण विशेष उल्लेखनीय है। शान्तिनाथ मन्दिर के आंगन मे पहचते ही बायी ओर ।
शान्तिनाथ मन्दिर के गुम्बदो और कंगरों की उपस्थिति .दीवार में २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के सेवक धरणेन्द्र
__ तथा तदनुरूप बाह्य सरचना की सरलता और और पद्मावती की सुन्दर मूर्ति लगी है। इसमे यक्ष दम्पति
सादगी सल्तनत स्थापत्य के प्रभाव को प्रदर्शित
करती है।" एक सुन्दर और सुडौल आसन पर ललितासन में मोदमग्न
चित्तौड़गढ मे तीर्थकर शान्तिनाथ को समर्पित शृगार बैठे हैं । इनके हाथ मे श्रीफल है।"
चोरी चित्र २२०) स्थापत्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वशान्तिनाथ मन्दिर के मुख्य गर्भाशय की दायी ओर
पूर्ण है। सन् १४४८ का निर्मित यह मन्दिर पचरथ प्रकार दीवार पर भगवान् महावीर की शासन देवी सिद्धायिका
का है। जिसमे एक गर्भगृह तथा उत्तर और पश्चिम दिशा की सुन्दर मूर्ति है अम्बिका की मनोज्ञ प्रतिमा नम्बर २७ मे
से सलग्न चतुस्किया है। गर्भगृह भीतर से अष्टकोणीय है है। इसी मन्दिर में संवत् १२१५ की श्याम पाषाण की
जिस पर एक सादा गुबद है। मन्दिर की बाह्य सरचना सलेख प्रतिमा तीसरे तीर्थकर सम्भवनाथ की है, जिसके
अनेकानेक प्रकार की विशेषताओ से युक्त मूर्ति शिल्पो से मूर्तिलेख से ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा उन्ही पाटिल सेठ
अल कृत है और जंधाभाग पर उद्भुत रूप से उत्कीर्ण के वशधरों द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई जिन्होंने दो सौ वर्ष दिपालो
दिक्पालो अप्सराओ, शार्दूलों आदि की प्रतिमाये हैं। मानवो पर्व खजुराहो मे विशाल कलात्मक पाश्र्वनाथ मन्दिर का या देवी-देवताओ की आकर्षक आकृतियो के शिल्पांकन भी निर्माण कराया था।"
यहा पर उपलब्ध है। मुख्य प्रवेश द्वार की चौखट के "राष्ट्रीय संग्रहालय मे भगवान् शान्तिनाथ की कांस्य ललाट बिम्ब में तीर्थकर के अतिरिक्त गगा और यमुना, प्रतिमा विद्यमान है। इस प्रतिमा मे तीर्थकर को सिंहासन विद्या देवियां तथा द्वारपालो की प्रतिमाए अकित हैं । गर्भ पर ध्यानमद्रा में बैठे हुए दर्शाया गया है। उनकी आखें गह के मध्य में मुख्य तीर्थरप्रतिमा के लिए एक उत्तम श्रीवत्स चिल आदि चादी और ताबे को पच्चीकारी से बने आकार की पीठ है तथा कोनो पर चार स्तम्भ हैं जो है। उनके पात्र मे दोनो ओर बने आयताकार देवकोष्ठको वृत्ताकार छत को आधार प्रदान किए हुये है छत लहरदार मे तीर्थंकरो को बैठे हए दिखाया गया है। इनके नीचे भी अलकरणयुक्त अभिकल्पनाओ से सुसज्जित है जिसमे पपकायोत्सर्ग तीर्थकर अकित है। सिंहासन के पार्श्व में शिला का भी अकन है। इसके चारो ओर गजताल तीर्थकर के यक्ष एवं यक्षी अकित है और पादपीठ के अन्तरावकाशो से युक्त अलकरण है। इस मन्दिर के सम्मुख भाग पर नवग्रह, चक्र और उसके दोनो ओर हिरण मूर्तिशिल्प का एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि मन्दिर के आदि अंकित हैं। सिंहासन के आगे सिंहो के मध्य में बाहरी भाग के भीतर अष्टभुजी विष्णु और शिवलिंग जैसी तीर्थकर का लाछन अंकित है। प्रतिमा के पीछे संवत् हिन्दू देवताओ की उद्भत प्रतिमाएं भी हैं। चारित्रिक १५२४ का ओभलेख उत्कीर्ण है।"
विशेषताओं की दृष्टि से यह शिलांकित आकृतियां विशुद्ध कुम्भरिया स्थित शान्तिनाथ मन्दिर (१०८२ ई.) रूप से परम्परागत है। एक सम्पूर्ण चविशति जिनालय है, जिसमें पूर्व और मूडीबी से २० किलोमीटर दर वेणर मे क पश्चिम दोनो दिशाओं में आठ देवकूलिकायें हैं तया रग- मन्दिर हैं जिनमे से शान्तीश्वर बसदि विशेष पसे मण्डप के प्रवेश स्थल के दोनों ओर चार देवलिया है। उल्लेखनीय है। इसमे १४८९-९.६.का जो उल्लेख है इस मन्दिर के त्रिक में छह चतुस्कियां हैं और इसके बरकों वह यहां सबसे प्राचीन है । आमूल चूल पाषाण से निर्मित
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बनेकान्त इस मन्दिर के द्वितीय तल पर भी एक गर्भालय हैं, जिसमें होम के बल से कांचीपुर के फाटकों को तोड़ने वाले तीन सौ एक तीर्थकर मूति है और जिसकी छत कुछ स्तूपाकार है। महाजनों ने सेडिम मे मन्दिर बनवा कर भगवान् शान्तिनाथ निर्माण की यह प्राचीन पद्धति विशेषत: कर्नाटक क्षेत्र में की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी और मन्दिर पर स्वर्ण प्रचलित रही है। इसका आरम्भिक उदाहरण ऐहोल का कलशारोहण किया था। मन्दिर की मरम्मत और नैमित्तिक लाट खां का मन्दिर है। शान्तीश्वर बसवि के सामने एक पूजा के लिए २४ मत्तर प्रमाण भूमि, एक बगीचा और सुन्दर शिल्पांकन युक्त मानस्तम्भ है।२०
एक कोल्हू का दान दिया था।"५२ इसके अतिरिक्त विभिन्न शिलालेखों तथा ग्रंथों के
"१३-१४वी शती में त्रिकूट रत्नत्रय शान्तिनाथ द्वारा भगवान् शान्तिनाथ के मन्दिरों एवं मूर्तियों का
जिनालय के लिए होयसल नरेश नरसिंह ने माघनन्दि विवरण प्राप्त होता है
आचार्य को कल्लनगेरे नाम का गांव दान में दे दिया था। "९-१०वीं शताब्दी में आर्यसेन के शिष्य महासेन तथा
दौर समुद्र के जैन नागरिकों ने भी शांतिनाथ की भेंट के उनके शिष्य चांदिराज ने त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय
लिए भूमि और द्रव्य प्रदान किया था।" बनवाया उसमें तीन वेदियों में त्रिभुवन, के स्वामी शान्तिनाथ
"सन् १२०७ में बान्धव नगर मे कदम्ब वंश के किंग पाश्र्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की तीन मुतियां बनवा कर
ब्राह्मण के राज्य में शान्तिनाथ वसदि की स्थापना हुई। प्रतिष्ठित की और उसके लिए जमीन तथा मकान सन् १०५४ मे बैसाख मास की अमावस्या सोमवार को दान दी।"
न
शक संवत् १११९ में महादेव दण्डनायक ने 'एरग' ११वी शती के आचार्य शान्तिनाथ भुवनकमल्ल
जिनालय बनवा कर उसमे भगवान् शांतिनाथ की प्रतिष्ठा - (१०६८-१.७६ तक) पराजित लक्ष्य नमति के मत्री थे। कर १३वी शती के सकलचन्द भट्टारक के पाद प्रक्षालन
इनके उपदेश से लक्ष्य नृपति के बालिग्राम मे शान्तिनाथ पूर्वक हिडगण तालाब के नीचे दण्ड से नाप कर ३ मत्तलभगवान् का मन्दिर बनवाया। यह शक संवत् १६० के चावल की भूमि, दो कोल्हूं और एक दुकान दान की।"५ गिरिपुर के १३६वें शिलालेख से ज्ञात होता है।
अत: जैन कला के अन्तर्गत शिलालेख, ताम्रपत्र, लेखक, "११वी शताब्दी के आचार्य प्रभाचन्द ने चालुक्य प्रशस्तियों मूर्तिलेखो आदि उपलब्ध साधन सामग्री से भग. विक्रम राज्य सवत् ४८ (११२४ ई०) में अग्रहार ग्राम बान् शांतिनाथ की महत्ता स्पष्ट होती है। स्थापत्य की दृष्टि सेडिम्ब के निवासी नारायण के भक्त चौसठ कलाओ के से भगवान् शांतिनाथ के मन्दिर प्राप्त मतियां तथा जानकार, ज्वालामालिनी देवी के भक्त तथा अपने अभिचार भग्नावशेष का जैन कला में एक विशिष्ट स्थान है।
सन्दर्भ-सची १. आदिपुराण-१६।१५२ ।
१३. श्री नीरज जैन : खजुरहो के जैन मन्दिर, पृ०३३-४०। २. आयिका ज्ञानमती: ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर खजराना
पृ० १०-१२। ३. भारत के दिगम्बर जैनतीर्थ, भाग १, पृ०७४।
१५. खजुराहो का जैन मन्दिर, पृ० ४३-४४ । ४. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, भाग १ (चित्र फलक १६. जन कला एव स्थापत्य खण्ड २, पृ०५७६।
पृ० ६) तथा ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर, पृ०१४। १७. वही पृ० ३०४ । ५. बलभद्र जैन: भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग १, १८. जैन कला एवं स्थापत्य खण्ड २०३४५-३४ पृ०२६।
१९. जैन कला एवं स्थापत्य भाग २ पृ. ३४४ । ६. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ पृ०७४ ।
२०. वही पृ० ३७७। ७. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ पृ० ५४ ।
२१. जैन शिलालेख संग्रह भाग २ पृ० २२७-२२८ । ८. विमलकुमार जैन सोरया : कला तीर्थमदनपुर पृ० १४
२२. परमानन्द शास्त्री : जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ६. कला तीर्थमदनपुर पृ० १६ ।
भाग २, पृ. ३७६।। १०. कला तीर्थमदनपुर पृ० १७ ।
२३. जैन लेख संग्रह भाग ४ पृ० २५८ । ११. भारत के विवम्बर जैन तीर्थ पृ० १२८१ १२.० लक्ष्मीनारायण साह: उडीसा में जैन धर्म. २४. मिडियावल जैनिज्म पृ०२०९। चित्रफलक ।
२५. जैन लेख संग्रह, भाग ३, पृ० २४१ ।
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विचारणीय प्रसंग
विष-मिश्रित लड्डू (अनुतर-योगी तीर्थकर महावीर-कृति)
पपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
-"अनुत्तर-योगी में भूले रही हैं उन्हें उसी समय ठीक किया जा सकता था, जब दो सांस्कृतिक विद्वानों के साथ बैठकर पूरे अन्य का एक बार बाचन किया होता। वस्तुत: यह उसके प्रकाशन को कमी है। अब भी परिमार्जन (शुद्धि-पत्र) लगा देना उचित होगा। मैंने अपना मत कई वर्ष पूर्व लिखा था-आपाततः । इतनी गहराई से नहीं देखा था।" (एक सम्मति)
जिन धर्म उन पवित्र उच्च आत्माओं की परम्परा से फलित कोई नवीन (एक) अन्य रूप ही होता। प्रवाहित धर्म है, जिन्हें तीर्थंकर नाम से जाना जाता है। इतिहास इसका माक्षी है कि अपनी कमजोरियों के जैसे सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए वैसे ही उनके द्वारा कारण जब कभी भी किसी ने धर्म के रूप को समय के प्रवाहित धर्म भी क्षत्रिय गुणधारकों द्वारा ही पालन किए प्रवाह के अनुरूप बदलना चाहा और बदला तभी एक नए जाने योग्य रहा। जो क्षत्रिय अर्थात् धर्म पर दृढ़ रहने पंय का जन्म हो गया। दिगम्बर मान्यतानुसार-जो सबसे वाला हो वही इस धर्म के धारण का अधिकारी हो सकता पहिले एक-दिगम्बर थे १२ वर्ष के दुष्काल के प्रभाव से है-चाहे वह किसी भी वर्ण का क्यो न हो ? समय या (कुछ के समयानुकूल बदल जाने के कारण) वे दो बन गए परिस्थितियों से समझौता करने वाला कोई भी व्यक्ति इस और धीरे धीरे अनेको भेदों में भी फूट पड़े। जैसेधर्म का अधिकारी नही हो सकता। क्योकि समझौते मे दिगम्बरों में तेरहपथ, बोसपथ तारनपंथ जैसे पंथ और श्वेकुछ लिया, कुछ दिया जाता है, कुछ झुकना और कुछ ताम्बरो मे मूर्तिपूजक, स्थानकवासी तेरह और बीस पंथ झुकाना होता है और इससे मूल में बदलाव आता है। आदि । जबकि धर्म, सिवान्त और वस्तु के स्वभाव में कभी भी इन प्रसगों से हमें यही सीखना चाहिए कि समय के बदलाव नही आता। धर्म धारण मे किसी अन्य विभाव अनमार से की अपेक्षा भी नही की जाती। वहां तो "जो घर फर्क भेटों में बांट देती है और . मापनो, पल हमारे सा" वाली नीति होती है। इसी वर्तन लाने की प्रक्रिया अभेद को बल देती है। पर, आज मीति पर चलने के कारण आज तक धर्म का पुरातन
लोगों का एक नारा बन गया है कि 'धर्म को समय के अनादि वियम्बर स्वरूप स्थिर रह सका है। आज वे ही
अनुसार बदल लेना चाहिए।' यह नारा धर्म के स्वरूप व्रत हैं, वे ही दशधर्म और वे ही गुप्ति, समितियां आदि
का घातक ही है। उदाहरणार्थ-अण्डा आमिष है और भावक के बारह ब्रत और ग्यारह प्रतिमाएं भी वे ही आज के समय में इसे बेजीटेरियन में शुमार करने का ..जो पहिले रहे। दिगम्बर-मुद्रा, चर्या और मोक्ष के प्रचलन-सा चल पड़ा है। यदि समय के अनुसार इसे बेजीसपाय भी ही है, यदि कभी इनके स्वरूपों का दूसरे टेरियन मान लिया जाय तो प्रसग मे मास त्याग नामक स्वरूपों से समझौता हुआ होता तो दिगम्बर, श्वेताम्बर व्रत में अण्डा प्राह्म हो जाएगा और खान-पान के जैन से दो भेद भी न हुए होते अपितु धर्म का समझौते से नियमों में अव्यवस्था हो जायगी। फलतः धावक की
१. पूण्य १.५ बार्यिकारल श्री ज्ञानमती माता जी।
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अनेकान्त
क्रियाओं को बदलाव देना पड़ेगा। इसी प्रकार वर्तमान पुस्तक में सिद्धान्त की जो बाते हैं वे दिगम्बरत्व को लोक में दिगम्बर वेष को अव्यवहार्य के परिप्रेक्ष्य मे देखा लोप करने वाली है और उन्हे अभी से 'शास्त्र' के नाम से जाने लगा है । यदि समय के अनुसार दिगम्बरत्व को भी प्रचारित कर कहा जा रहा है-"अनुत्तर-योगी" का तिरस्कृत कर दिया जाय तो साम्बरत्व शेष रहने से दिग- प्रकाशन सुचिन्तित है, दूरदर्शितापूर्ण है, इसमे ऐसा कुछ म्बरत्व का अस्तित्व ही नि शेप हो जायगा।
नही है जो आपत्तिजनक हो।' एक कहते हैं-'यह धर्म___आश्चर्य है कि अब दिगम्बर जैनो मे भी ऐसे लोग
होम ग्रन्थ नहीं है' तो दूसरे इसे शास्त्र की गहनता से शास्त्र की पैदा हो रहे हैं जो त्याग, इन्द्रिय-सयम आदि की उपेक्षा
आसन्दी पर पढ़ा गया बतला कर मुनियो द्वारा देखा हा कर समय की माग और एकता के नाम पर विपरीत
भी बतलाते हैं अर्थात्-जिस अनर्थ के कालान्तर मे उत्पन्न प्रचार करने पर तुले हैं। जब हमारे साथी ने एक से पूछा
होने की आशका हमने प्रकट की थी वह अनर्थ आज ही कि आपने किसी श्रावक को रात्रि-भोजी प्रचारित कर अप
अकुरित होने लगा है। विज्ञापन मे इसे धुरधर जैन विद्वानो अपमानित किया है। तब बोले-आज समय की माग है
द्वारा प्रशसित भी बतलाया जा रहा है-चाहे वे विद्वान
सिद्धान्त के विषय में इसके पोषण से साफ मुकर रहे हो । और ऐसा चलन चल पड़ा है-प्राय: सभी रात्रि-भाजन करने के अभ्यासी बन रहे है। ऐसे ही एक सज्जन का विज्ञापन में जिन विद्वानो के अभिमत दिए जा रहे है कहना है कि यह अर्थ युग है, इसमें सफद को स्याह और
उनमें से एक का स्पष्टीकरण हमे दिनांक ८-५-८४ में स्याह को सफेद किए बिना काम नही चलता। फलतः मिला है लिखते हैं-"अनार-योगी में भले अकिंचन को चक्रवर्ती और चक्रवर्ती को अकिंचन बना कर ज
उन्हें उसी समय ठीक किया जा सकता था, जब दो
मो समय ठीक किया जा जैसे भी हो कार्य साधना चाहिए-'आपत्काले मर्यादा सास्कृतिक विद्वानों के साथ बैठकर पूरे प्रन्य का एक बार नास्ति।' उक्त प्रसग सुनकर हमने सिर धुना-'अर्थी दोषं
वाचन किया होता। वस्तुतः यह उसके प्रकाशन की कमी न पश्यति ।'
है। अब भी परिमार्जन (शुद्धि-पत्र) लगा देना उचित 'अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर पुस्तक' ऐसे ही लागो होगा। मैंने अपना मत कई वर्ष पूर्व लिखा था--आपातत । की घसपैठ का परिणाम है। इसमें समय की माग की गहराई से नहीं था।" के बहाने दो सप्रदायो मे एकता कराने के नाम पर कल्पनाओ की ललित उड़ानो में दिगम्बर सिद्धान्तो को दूषित
ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग अज्ञानता वश धर्म किया गया है। उक्त पुस्तक की विसगतियो को हमने में अप-टू-डट नवीनता लाने के बहाने या किन्ही अन्य पाठको के समक्ष भली भाँति रखा था और प्रबुद्ध वर्ग ने
(नमालम) कारणो से दिगम्बर-मुनि-प्रतिष्ठा और पूर्वा हमे समर्थन भी दिया। फिर भी कई पत्रकार विज्ञापन
चार्यों की धरोहर जिनवाणी के क्षीण करने मे कारण बन चार्ज के लोभ मे इस हलाहल के प्रचार में सहयोगी हो रहे है । और श्री पाटौदी जी की सरलता का भी दुरुपयोग रहे है और इसका प्रचार ऐसे किया जा रहा है-'उपन्यास कर रहे हैं। में शास्त्र और शास्त्र मे उपन्यास ।' यह भी कहा जा गत दिनो हमने एक लेख ऐसा भी पड़ा जिसमें बाहरहा है कि इसे दिगम्बर मुनियो ने देखा है इसे उनका बली-कुम्भोज मे धर्म-रक्षार्थ किए गए मुनि श्री के अनशन समर्थन प्राप्त है। जब कि आज तक ऐसे कोई एक दिग- को राजनीति-प्रेरित आदि कुरूपो मे प्रचारित किया गया। म्बर मुनि भी दिगम्बर वेष और चर्या को साम्बरत्व रूप मे जैसे-"राजनैतिक भूख हड़ताल ? समाज के वरिष्ठ लोगों परिवर्तित करने का साहस न जुटा सके है-सभी जहाँ के को बीच में डालकर प्रधानमत्री से अनशन पूर्ति करवाने तहां हैं। क्या प्रशंसक चाहते हैं कि इस पुस्तक के अनुसार का दिखावा। अपने आप को विज्ञापित करने का सस्ता महावीर के परिप्रेक्ष्य में दि० मुनि नवधाभक्ति को तिर- तरीका? राजनैतिक लोगो की खुशामद !' आदि । इसी में सकत कर घर-घर याचना करते फिरें? आदि । 'एलाचार्य' पद का उपहास भी किया गया था और इस
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सब में निमित्त बना (?) ऐसे ही लोगों में से एक के द्वारा अन्य दिगम्बर मुनियों, त्यागियों, विद्वानों और प्रबुद्ध किया गया 'अयाचित अनधिकृत बुद्धिदान का प्रयत्न' पाठकों के नवीन आए अभिमत भी इस अक में 'ताकि (देखें-तेरापंथ भारती १५ अप्रैल १९८४)।
सनद रहे और काम आए' शीर्षक मे देखें। हम उन लोगों को क्या कहें जिनकी बुद्धि में प्राचीन
उक्त प्रसंग पर हमने कई भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रो को पढ़ने वाले हम, हमारे गुरु, विद्वज्जन सभा सस्थाओ का ध्यान भी खीचा है और उनसे प्रार्थना की है आगमान्ध, माथापच्ची करने वाले और शऊर-हीन हों?
कि वे इस विषय को पर-मुखापेक्षीपना छोड़कर भावीहां, इस बात से हम असहमत नही है कि 'इन्दौर की
पीढी पर कुप्रभाव पड़ने के प्रसग मे विचार और करणीय समाज सूझ-बूझ से खाली नही', उसमे आज भी सरसठ
करें। अन्यया-आयोजको ने इसे शास्त्र घोषित कर हुकुमचन्द जी की भांति धर्म-रक्षक विद्यमान हैं। फलतः
दिया है और भावी-पीढी इसे पढ़कर महावीर के चरित्र व वहां से उक्त उपन्यास को आगम-वाह्य बनलान के साहस
सिद्धान्तो मे श्वेताम्बरी-आम्था करेगी और दिगम्बरत्व पूर्ण सदेश भी हमे आए हैं।
का घात अपने द्वारा ही होगा तथा "समय के अनुमार 'उक्त पुस्तक को पूज्य एलाचार्य जी ने देखा है धर्म के रूा को बदलने जैसे ना समझी के परिणाम
धर्म के झा को न ऐसा कहना भी भ्रमपूर्ण है। यत श्री एलाचार्य जो हमारे आगामी पीढियो के पछतावे-रूप मे फलीभत होगे। श्रद्धास्पद परम दिगम्बर गुरु हैं वे दिगम्बरत्व के अनुरूप
मन्त में :'सत्वेषु मैत्री' के भाव मे सम-सामाजिक व्यवस्था, एकत्व, मैत्री आदि को तो चाहेंगे पर दिगम्बर देव-शास्त्र-गुरुओ यद्यपि हमपे भाषा चातुर्य नहीं है फिर भी अपनी और सिद्धान्तो की बलि देकर नही। यह हो सकता है कि भाषा मे एक बान और स्पष्ट कर दें-कि हमे सचना उन्होने धर्म-चारार्थ लिखाने की इच्छा प्रकट की हो और मिली है किसी एक पक्ष ने इच्छा प्रकट की है कि वे कभी लेखनी से भी प्रभावित रहे हो।
विद्यानन्द जी महाराज का दिया गया निर्णय प्रकाशको को
मान्य होगा एव तदनुसार वे सशोधन की सोच सकते हैं हमने अभी पूज्य एलाचार्य जी की बह भेट-वार्ता भी पढ़ी है जो श्री दशरथ पोरेकर तथा उत्तम कांवले के साथ तथा बाध्य किए जा सकते हैं'-गोया वह पक्ष गलती,
एहसास कर रहा है [हर्ष] । पर ऐसे पक्ष को अब भी स्पष्ट हुई है और मराठी दैनिक समाचार 'सकाल' के २५ मार्च
सोचना चाहिए कि ग्रन्थ के अशो मे :८४ के रविवारीय अंक मे 'प्रश्न अजून सपलेला नाही'
१. क्या मुनिश्री ने भ. महावीर के कानो मे सलाइयां शीर्षक में छपी है। इसमे विपरीत मनोवृत्ति वालो को लक्ष्य
ठुकवाने का समर्थन किया। कर मुनि श्री ने कहा है-"कुछ काम न करके इसरों का
२. महावीर मुनि को नवधा भक्ति के बिना आहार ग्रहण बल पूर्वक हड़पने की उनकी वृत्ति है। चीटियो के द्वारा २. महाद
को क्या उन्होंने सराहा? बनाई गई बांबी में जैसे सांप घुस जाता है, वैसे ही धन्धे
३. क्या उन्होंने केवली अवस्था मे महावीर पर तेजोलेश्या लोग सर्वव करते रहते हैं।" .....श्वेताम्बरों को किसी
जैसे उपमर्ग का समर्थन किया था। मन्दिर में मूर्ति की स्थापना के लिए स्थान देना धोखे में परमा .....स्वयं कृष्ण भी आ जावें तो वे श्वेताम्बरों ४. उन्होंने किमी स्त्री को अरहंत बनने को स्वीकारा? को नहीं समझा सकते।' आदि।
यदि ये सब नही, तो क्यों उनके आदेश की प्रतीक्षा है ? को उक्त धारणा स्पष्ट नही करती कि सिद्धातो ये तो सिद्धान्त की बाते हैं । इनका निराकरण स्वतः ही पोल-मोल मे पूज्य श्री की अनुमति नहा ! प्रशसक कर देना चाहिए। जो सिद्धान्त के माधारण जानकार के प्रज्य मुनि श्री के अतस्तल की पहिचान-मुनि अपवाद से वश की भी बात है जब कि प्रबुद्ध भी इसके विरोध में विराम लें। उक्त पुस्तक के आगम-बाह्य होने के सबध मे सम्मति दे रहे
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न
उक्त भूलें ऐसे लोगों से हुई प्रतीत होती हैं जो भावावेश वश सुधार में अपना दृष्टिकोण लादने या अन्य ( न मालूम ) किन्हीं सिद्धियों में मुनिश्री की आड़ लेकर, चाहते हुए भी उन्हें बदनाम करने के साधन जुटा रहे हैं। श्री ऐलाचार्यजी या अन्य कोई दि० मुनि ऐसा सिद्धांत घातक आदेश न दे सकेंगे। और न ही अनुत्तरयोगी को शास्त्र बतलायेंगे जैसा कि दुःसाहस किया जा रहा है। हम समझते हैं कि मुनि श्री ने न तो पूरी मूल पाण्डुलिपि पढ़ी है, न प्रूफ पढ़ा है और ना ही उन्होंने प्रेस को छापने का फायनल आदेश दिया होगा ।
दिगम्बरत्व के प्रति समर्पित रहने के मुनिश्री के पर्याप्त प्रसंग है । पाठकों ने इस लेख में भी कुछ प्रसग पढ़ें । हम बता दें कि मुनि श्री विश्व धर्म के प्रेरणा स्रोत हैं, उनके द्वारा धर्म का प्रचार हो रहा है। वे सद्भावनावश अनेक रचनाओं के प्रेरक रहे हैं उनका उपन्यास लिखाने में प्रयोजन यही रहा होगा कि भ० महावीर एव दिगम्बर सिद्धान्तों से लोग परिचित हो। पर, उनकी सदभावनाओं
अनुसर-योगी में कुछ विसंगतियां
बेणियों पर नारकी और
१. "सर्वार्थसिद्धि जैसी आत्मोन्नति की ऊ आरूढ़ होकर भी कभी-कभी आत्माएं तिर्यंच योनियों तक में आ पड़ती है ।"
(भाग २ पृ० ५१) २. "उस हवेली के द्वार पर कोई द्वारापेक्षण करता नहीं खड़ा है। आतिथ्य भाव से शून्य है वह भवन । ठीक उसी के सम्मुख बड़े होकर श्रमण ने पाणिपात्र पसार दिया। गवाक्ष पर बैठे नवीन श्रेष्ठ ने लक्षमी के मद से उद्दण्ड ग्रीवा उठाकर अपनी दासी को आदेश दिया :
बनेका
का दुरुपयोग किया गया और अब उनकी दुहाई भी देने का दुःसाहस किया जाने लगा है कि वे कहें तो संशोधन कर सकते है-आदि। यह हमें इष्ट नहीं है। हम चाहते हैं-पू० मुनिश्री को इस प्रसंग में लाने की कोशिश न की जाय ग्रंथ के सम्बन्ध में मुनि श्री की मोहर होने का भ्रम ही आज तक प्रतिष्ठित व नेतागण को मौन के लिए प्रेरित कर रहा है। कोई तो वायदा करके भी इस पुस्तक रूपी विष के विरोध मे मोटी सूचनाएँ तक छापने से भी भयभीत है। कुछ का तो प्रस्ताव है कि पुस्तक के विरोध करने में हम पर्याप्त धन देने को तैयार है पर हमारा नाम न लिया जाय; आदि। ये सब भय भावी पतन के ही आसार हैं जो हमे मजूर नही । अतः स्पष्टीकरण होना चाहिए।
हम विश्वास दिला दें कि इम पुस्तक संयोजकों के अपने हैं 'वीर सेवा मन्दिर' और 'अनेकान्त दि० सिद्धा न्तों और दि० गुरुओ की मर्यादा की सुरक्षा हर कीमत पर चाहते हैं- इसे अन्यथा न लें। और बाहुबली कुम्भोज प्रसग से शिक्षा लें ।
DO
किंचना, इस मिथुक को भिक्षा देकर तुरन्त विवा कर दें। दासी भीतर जाकर काष्ठ के भाजन मे कुलमाष धान्य ले आई और श्रमण ( महावीर ) के फैले करपात्र में उसे अवज्ञा के भाव से डाल दिया । "
(भाग २ पृष्ठ १५२) ३. "ना कुछ समय में ही ग्वाला कही से काँस की एक सलाई तोड़ लाया। उसके दो टुकड़े किये। फिर
निपट निर्दय भाव से उसने श्रमण के दोनों कानों मे वे साइयां बेहिचक खोंस दीं। तदुपरान्त पत्थर उठाकर उन्हें दोनों ओर से ठोंकने लगा ।"
४.
(भाग २ पृ० २१८ ) " चम्पा पहुंच कर अपने पांचों शिष्यों (साल, महासाल, गागली, पिटर और स्त्री यशोमती) सहित श्री गौतम समवशरण में यों बाते दिखाई पड़े जैसे वे पांच सूर्यों के बीच खिले एक सहस्रार कमल की तरह चल रहे हैं। पांचो शिष्यों ने गुरू को प्रणाम कर, देश चाहा । गौतम उन्हें श्री मण्डप में प्रभु के समक्ष लिवा ले गये फिर आवेश दिया कि अयुष्यमान मुमुक्षुओ, श्री भगवान का वन्दन करो। वे पांचों गुरु आशा पालन को उद्यत हुए कि हठात् शास्ता महावीर की वर्जना सुनाई पड़ी केवली की आमातना न करो, गौतम । ये पाचों केवलज्ञानी महंत हो गए हैं। अर्हन्त, अर्हन्त का वन्धन नहीं करते ।" (भाग ४० २०४-२०५)
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'ताकि सनद रहे और काम आए'
इन्दौर से प्रकाशित अन्य अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर विगम्बर आगम के विज्ड है। इस पर बहुत कुछ लिलावा रहा है और प्रबुद्ध वर्ग इस अन्य को दिगम्बर आम्नाय विरुद्ध ठहरा रहा है । गतांक में कुछ सम्मतियां प्रकाशित की गई पी सम्मतियों की दूसरी किश्त प्रस्तुत है-कई प्रबुद्धों की सम्मतियां हमारे अनुकूल होने पर भी उनकेनपाने के मापहवश हम नहीं पा रहे है।
पूज्य १०८ प्राचार्ग श्री धर्मसागर जी महाराज: विपरीत कर दिया गया है-जब कि सिद्धान्तों की पुष्टि
होनी चाहिए थी। सेठ श्री उम्मेदमल पाण्डया व. पं० धर्मचन्द्र जी शास्त्री किशनगढ़ पंच कल्याण प्रतिष्ठा महोत्सव पर .
हमारा आशीर्वाद है कि यह संकट शीघ्र दूर होगा महाराज श्री के साथ दस दिन तक रहे। 'अनुत्तर-योगी ।
हर और दिगम्बर मार्ग की रक्षा होगी। तीर्थकर महावीर' जो इन्दौर से प्रकाशित हुआ है, के बारे में पू.आचार्य श्री धर्म सागर जी महाराज व आचार्य
प्राचार्यकल्प श्री १०८ मुनिश्री शानभूषणजी महाराज कल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज से पपचन्द्र शास्त्री द्वारा 'अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर-उपन्यास दिगम्बर निखित लेख पर चर्चा हुई। आचार्य महाराज ने इस आम्नाय पर प्रत्यक्षरूप से कुठाराघात करने वाला है। सम्बन्ध में कहा कि-"तीपंकरों का जीवन चरित्र एक इसके अन्तर्गत महावीर के जीवन और उनके द्वारा प्रतिपथार्थ है और जो यथार्थ है उस पर कभी उपन्यास नही पादित जिन सिद्धान्तों को लिखा है वह दिगम्बर आम्नाय लिखा जा सकता उपन्यास में कोरी कल्पना ही होती है। पर आवरण डालकर मिथ्यामार्ग को पुष्ट करने वाले श्री पप्रचन्द्र जी शास्त्री ने इस विषय को उठा कर दिगम्बर कलंक हैं। इस प्रकार के साहित्य के प्रचार व प्रसार पर जैन सिद्धान्त की रक्षा की है। और मुझे सबसे बड़ा रोक लगनी चाहिए। 'आश्चर्य तो यह है कि यह उपन्यास की किताबें हमारी ही दिगम्बर जैन संस्था ने छपवाई हैं। इस तरह की किताबों प्राचागकल्प या १०८
प्राचार्गकल्प श्री १०८ मनिधी दर्शनसागरजी से हमारी परम्पराएँ विकत होती है। इस तरह की किताबें
महाराज: छापना उचित नहीं है।"
अनुत्तर-योगी जो इन्दौर से प्रकाशित हुआ है व माप
का अनेकान्त में लेख व विद्वज्जनों की टिप्पणियां पढ़ीं। श्री १०८ पूज्य प्राचार्य शान्तिसागर जी महाराज आपने इसकी विसंगतियों की तरफ समाज का ध्यान आक
हमने अनुत्तर-योगी तीर्थंकर महावीर' इन्दौर से र्षित कर बहुत उपयोगी कार्य किया। इस पुस्तक के कुछ प्रकाशित ग्रन्थ देखा, उसमें बहुत सी बातें दिगम्बर जैन प्रसग दिगम्बर आम्नाय के विरुद्ध हैं। कोई शास्त्रीय सिवान्तों के विपरीत पाई जो आगामी पीढ़ी को विपरीत. प्रमाणों के आधार पर नहीं है। मार्ग दिखाएंगी और दिगम्बर मान्यताबों का लोप करेंगी। बक्ष:-इस ग्रन्थ को दिगम्बर बाम्नाय-अनुसार नहीं मायिकारल १०५ श्रीज्ञानमती माताजी: मानना चाहिए और इसका प्रतिवाद होना चाहिए। ऐसा 'अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर' उपन्यास की प्रशंसा न हो कि कालान्तर मे विपरीत-मत की पुष्टि हो और यह मैंने बहुत बार सुनी थी किन्तु अपने लेखन कार्य की अन्य प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया जाय । इसकी भाषा व्यस्तता अथवा मेरे सामने उस ग्रन्थ का न बाना ही उपन्यास बनुरूप ठीक है परन्तु सिद्धान्तों को बिल्कुल कारण रहा कि जिससे मैंने उसे आज तक पढ़ा ही नहीं।
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२२, बर्ष ३७,कि०२
अनेकान्त
आज मैंने आपके मुख से सुना और अनेकान्त पत्रिका में सिद्धान्त रक्षण की बात है। विचारणीय बात है कि इस आपका लेख पढ़ा कि इसमें ऐसे अनेक अंश हैं जो दिगम्बर प्रकार भ्रम फैलाने वाले तथ्य किस उद्देश्य से दिए जा रहे जैन सम्प्रदाय के विरुव स्त्री-मुक्ति आदि को कह रहे हैं। हैं? दिगम्बर जैन समिति तथा प्रकाशकों के साथ-साथ अंतरंग में दुःख हुआ। आप बहुश्रुत विद्वान हैं साथ ही एक विद्वानों एवं समाज के कर्णधारो से इन मान्यताओं के बारे अच्छे निर्भीक वक्ता और साहसी लेखक हैं। दिगम्बर- मे विरुद्ध-अशों को परिष्कार करवा कर छपवाना चाहिए । आम्नाय के सरक्षण की भावना आपके अन्दर भरी हुई है। आप जैन-सिद्धान्तो के प्रति जितनी जागरूकता का परिचय आप जैसे विद्वान् आज विरले ही हैं। प्रत्युत जैन-साहित्य दे रहे है वह प्रशसनीय है। मे अन्य सिद्धान्तों का मिश्रण कर उसे विषमिश्रित-लर बना रहे हैं । ऐसे समय में आप जैसे विद्वान् चिरायु होकर
si० भागचन्द भागेन्दु, दमोह : चिरकाल तक जैन-शासन के मूल सिद्धान्त की रक्षा करने अनुत्तर-योगी के सम्बन्ध में आपने गहन-गम्भीर में सभी धर्म प्रेमियों को जागरूक करते रहे आपके लिए अध्ययन अनुशीलन परक तथ्य उजागर किए हैं। यही मेरा शुभाशीर्वाद है।
श्री ताराचन्द्र प्रेमी (महामंत्री भा.दि. श्री पं० शिखरचन्द्र जैन प्रतिष्ठाचार्ग, भिण्ड : जैन संघ): 'अनुत्तर-योगी तीर्थंकर महावीर' नाम की पुस्तक मे
अनुत्तर-योगी का प्रकाशन दिगम्बर समाज के लिए दिगम्बर जैन आगम के विपरीत जो लिखा गया है वह कोई अच्छा बात नहीं है।
आने वाली दिगम्बर पीढ़ी के लिए महान् सकट पैदा करने श्री. मुन्नालाल जन 'प्रभाकर': वाले विषय हैं। इन्हीं विषयो का आपने बहुत बड़े साहस
___'स्व० मुख्तार साहब ने वीर सेवा मन्दिर की स्थापना के साथ खंडन कर दिगम्बर परम्पराओ का सरक्षण किया
कर जैन साहित्य का प्रचार व प्रसार किया उसी सस्था से है। दिगम्बरत्व में आस्था रखने वाले सभी दिगम्बर
आज जैन साहित्य की रक्षा का प्रयत्न किया जाना संस्था विद्वान् एवं त्यागीवर्ग को इन आर्षमार्ग से विपरीत लेखो
की सफलता का शुभचिह्न है। 'अनुत्तर-योगी' पुस्तकका बहिष्कार करके दिगम्बरत्व का सरक्षण करना चाहिए।
'विषकुम्भ पयोमुखं वत्' है-हेय है। इसका प्रचार रोकने में पं० श्री पपचन्द्र शास्त्री जी के लेखो की हृदय से सरा
मे ही हित है। हना करता हूँ और पंडित जी जैसे निर्भीक विद्वान का साधुवाद करता हूँ।
डा. राजाराम जैन पारा: श्रीमल्लिनाथ जैन शास्त्री (संपावक जैन गजट) 'अनुत्तरयोगी' भले ही साहित्यिक शैली एव नवीन मद्रास
विधाओं की दृष्टि से प्रशंसनीय हो किन्तु जब उसे आर्ष अनुत्तर-योगी के विषय में आपके विचार बिल्कुल परम्परा एवं दि. जैन सिद्धान्त की मूल परम्परा की सही है। आपने दिगम्बर जैन धर्म की रक्षा के लिए जो कसौटी पर कसते हैं तो वह दिगम्वरत्व के भयानक भविष्य कदम उठाया है, वह हर तरह से प्रशंसनीय है। यह अफ- की भूमिका ही प्रतीत होता है । शाब्दिक कलाबाजियों से सोस की बात है कि दिगम्बरी लोग ही दिगम्बर जैन धर्म मंत्रमुग्ध पाठकों को सही दिशा दान और दिगम्बरत्व को सर्वनाश की ओर ले जा रहे हैं। जो रक्षणीय हैं वे ही की सुरक्षा नितान्त आवश्यक है। दि० जैन समाज के भक्षणीय हो जाय तो धर्म कैसे टिक सकता है? द्रव्य से दिगम्बर जैन सिद्धान्त पर ही कुठाराघात हो इससे
बढ़कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। दि. समाजको श्री ईश्वररन्द्र (रिटायर्य .A.S.), इन्दौर
इससे सचेत होना चाहिए। मनुत्तर-योगी पर आपके विचारों में सहमति की नही,
,
कसौटी पर
दिगम्बरी लोग सनीय है। यह
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दिगम्बर- परम्परा में
स्त्री-मुक्ति-निषेध
(क) “मोक्षहेतुर्ज्ञानादिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति।" स्त्रीणां मायाबाहुल्यमस्ति सवेल संयमत्वाभ्य न स्त्रीणा संयमः मोक्षहेतुः । बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवत्वाच्च न स्त्रियो मोक्षहेतुसंयमवत्यः । नास्ति स्त्रीणा मोक्ष. उत्कृष्टध्यानविकलत्वात् ॥ "
प्रमेयकमल मार्तण्ड २ / ३२-३३४ (ख) 'कर्मभूद्रव्यनारीणा नाच सहननत्रयम् । वस्त्रादानाच्चरि च तासा मुक्तिकचावृया ॥" -चा० सार २२६६
- कर्मभूमिगत द्रव्य स्त्रियों के प्रथम तीन सहनन नही होते । और वे सत्रस्त्र भी होती है ? अत. स्त्रियो को मुक्ति प्राप्ति की बात नहीं बनती।
(ग) जवि दसणेण सुद्धा मुलायमेण चावि सत्ता । - घोर चरदि य चरिय इत्थिस्म ण गिज्जरा भणिया || -- प्र० स० । प्रक्षे० । (घ) 'बहुरि स्त्री को मोक्ष कहै सो जाकर सप्तम नरक गमन योग्य पाप न होय सकेँ, ताकर मोक्ष का कारण शुद्धभाव कैसे होय? जाते जाके भाव दृढ़ होय, बी ही उत्कृष्ट पाप वा धर्म उपजाय सक है। बहुरि स्त्री के निशंक एकान्तविषे ध्यान धरना और सर्व परिग्रहादि का त्याग करना संभव नाही ।'
- मो० मा० प्रकाश पृ० २१४
नवधा भक्ति का विधान :-- (क) 'जो नत्रकोटि अर्थात् मन-वचन-काय, कृत-कारितअनुमोदना से शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों से रहित हो, विधि से अर्थात् नवधाभक्ति, दाता के सात गुण सहित
क्रिया से दिया गया हो, ऐसा भोजन साधु गृहण करे ।'
मूलाचार गा० ५८२-४८३ (ख) 'बहुरि काहू का आहार देने का परिणाम न था, या वाका घर मे जाय याचना करी । तहा वार्क सकुचता भया वा न दिए लोकनिय होने का भय भया ताते वाको आहार दिया। सोवा का अतरग प्राणपोटात हिंसा का सद्भाव आया।
'बहुरि अपने कार्य के अथि याचनारूप वचन है सो पापरूप है। सो यहाँ अमत्य वचन भी भया । बहुरि वाकं देने की इच्छा न थी, याने याच्या, तब बाने अपनी इच्छा से दिया नाही सकुचिकार दिया। ताने अदत्त ग्रहण भी भया ।'
-- मो० मा० प्र० पृ० २२८
केवली उपसर्ग निषेध:
(क) जवण समज्जाद सुभिक्खदा चउदिसासु शिवराणा । पगमणाणमहिंसा भोयण उवसम्गपरिहीणा ॥'
- केवली के दस अतियों मे उपसर्ग इन तीनो का न होन केवली को उपसर्ग नहीं होता।
- ति० प० ४६६६
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अदया, भोजन और भी सम्मिलित है
(ख) "अर कहै, काहू ने तेजोलेश्या छोरी ताकरि वर्धयान स्वामी के पेचिस का रोग या सो केवली अतिशय न भया तो इन्द्रादि कर पूज्यपना कैसे शोभे ?"
मो० मो० ० ० २२१ 00
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कारवां लुटता रहा, हम देखते खड़े रहे ?
पाठकों ने देखा-'अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर' गत दिनों एक सस्था ने उपाधियों का वितरण किया। कृति का विज्ञापन । 'उपन्यास में शास्त्र और शास्त्र में हमने संस्था को पत्र लिखा। हमें खुशी हुई कि देश में एक उपन्यास ।' यह साधा गया एक ऐसा जहरीला तीर है, ऐसी संस्था का जन्म हुआ, जिसने बोई प्रतिष्ठा को जिससे एक साथ जिनवाणी को दूषित करने और गुरु की जीवित करके धर्म-धुरन्धर और ज्ञान-गरिमा को सार्थक प्रतिष्ठा लूटने जैसे दो निशाने साधे गए हैं। जहाँ इसस करने वाली कुछ उपाधियां देने का श्रीगणेश किया है। वीतरागी सिद्धान्तों को सरागी जामा पहिनाया गया है हमने जानना चाहा कि उन पदबियों के लिए कौन सी वहीं उपन्यास में श.स्त्र जैसी प्रामाणिकता लाने के लिए योग्यता और किस कोर्स की पूर्ति आवश्यक है ?-कृपया दिगम्बर मुनि द्वारा समर्थित बताया गया है । और ये सब लिखें । पर, काफी दिनों के बीतने पर भी उत्तर न मिला। किया गया है-नवीनता लाने, नाम पाने और न जाने बाद को मालूम हुआ कि वह लूट पी-यश के लिए, नाम किन-किन योजनाओं की आड़ मे। इसे कहते हैं-'एक के लिए और अर्थ के लिए सो, सबने अपना-अपना स्वार्थ तीर से दो शिकार करना' और ये सब किया जा रहा है साधा और कार्य आगे बढ़ गया। हमारे खड़े-खड़े देखते हुए और हम हैं कि कुछ कर नही ऐसे ही विपर्यास मेटने के लिए हमने भारतवर्षीय पा रहे-'कारवां लुटता रहा, हम देखते खड़े रहे।' कई दिगम्बर सस्थाओं को पत्र लिखे-कि कुछ करेंगे।
पर होना वा पत्र का उत्तर दर-किनार, यहां तक कि पत्र ऐसा क्यों ? इमलिए, कि लूट के समय सब अपना- की पहुंच भी हमें नही मिली। हमने सिर धुना कुछ आल अपना देखते हैं; आपाधापी मे दूसरों का ख्याल कोई नहीं हडिया सभायों की कार्य-व्यवस्था पर जहां
। सो आज लुट हो रही है-उपाधियों की, नाम कई पर कार्यकर्ता कोई नहीं-सब मौन, एक-दूसरे का की और धन की । जिसे जिधर से जो मिलता है वह उसी । मुह देखने वाले हैं। ऐसे मे फिर वही दुहराना पड़ाके संग्रह में मग्न रहता है उसी को लूट लेता है बिना 'कारवां लुटता रहा, हम देखते खड़े रहे। किसी की परवाह किए, मौन ।
-संपादक 'अनेकान्त' बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
नई दिल्ली-२
'बहुगुणविज्जारिणलो प्रसृत्त भासी तहवि मुत्तव्यो।
अहं वरमरिणजुतो विहु विग्गयरो विसहरो लोए ।'
बहु-गुण और विद्या का स्थान (विद्वान्) यदि मागम के विरुद्ध कथन करने वाला हो तो उसे भी छोड़ देना चाहिए। जैसे उत्तम मणि के धारक सर्प को लोक में विघ्न. कारण जानकर छोड़ दिया जाता है।
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संस्मरणों के माधार पर
अभी दो दिन पूर्व हिमालय-बद्रीधाम-यात्रा की ने स्वयं हिमालय जैसे बीहड़ पर्वत की यात्रा प्रसंग में भी चौदहवीं जयन्ती के अवसर पर प्रतिवर्ष की भांति जब हम इस विधि का पूर्ण निर्वाह किया और आज भी सब हिमालय दिगम्बर मुनि पढ़ रहे थे-दिगम्बरत्व दिगम्बर मुनि इसी विधि को अपनाए हुए हैं। इतना ही और दिगम्बर मुनि के प्रति हमारी अन्तस्त्रया वचनद्वार फूट क्यों ? साधारण संहननधारी मुनि श्री विद्यानन्द जी ने पड़ी-धन्य हैं दिगम्बर साधु और उनकी चर्या । बर्फ के बीच रहते हुए शीत परीषह पर विजय पाई और
अपनी ऐतिहासिक हिमालय-यात्रा के मध्य दि० मुनि हिमालय से नीचे उतरते समय जब रुद्रप्रयाग में उन्हें श्री विद्यानन्द जी महाराज ने दिगंबरचर्या को निभाया उष्ण की बाधा हुई उनकी पेशाब में खून आने लगा तब और बद्रीनाथ की मान-संवधिनी-सभा में प्रवचन करते हुए भी उन्होंने पूर्ण धैर्य का परिचय दिया-न मुख से चीख
निकाली और न ही किसी वैद्य से उपचार की कल्पना "लोग हमसे पूछते हैं आप नम्न क्यों रहते हैं ? की। पर, आज कंसी विडम्बना है कि लोग उत्तम संहनन संकटों को निमंत्रण क्यों देते हैं ? आदि । हम उन्हें क्या चारो दि० महावीर में उक्त बातों को कल्पना कर रहे हैं, उत्तर दें? हम तो वही कह देते हैं, जो हमारे पूर्वाचार्यों ने नवधाभक्ति बिना उनके आहार लेने और कष्ट मे उनकी
चीख निकलने तथा खरक वैद्य से उनके इलाज की पुष्टि 'अदुःखभावितं शान भीयते दुःख सन्निधौ। कर रहे हैं और इस सब मे दि० मुनिश्री के समर्थन का नाम तस्माद्यपावलं दुखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥' ले रहे हैं। उन्होंने कहा-दुख-सुख की महिमा क्या कहें ? ये
दिगम्बर वेष, दि०चर्या और दिगम्बरत्व के भाव में तो कर्म-अनित व्याधियां हैं, कोई उन्हें उत्पन्न या नष्ट मुान पा'
मुनि श्री के द्वारा, बद्रीनाथ मन्दिर के पीठासन से, और नही कर सकता। इन्हें तो जीव अपने सम्यग्ज्ञान से स्वयं
अन्य सभाओ के माध्यम से दिगम्बरत्व की जैसी प्रभावना ही दूर कर सकता है। उन्होने दृष्टान्त भी दिया
हुई उसका प्रमाण वहाँ के जनेतर संप्रदाय के शब्दों में भी 'पुरागर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव,
जाना जा सकता है । जैसेस्वयं लस्टासष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः।
'भारत पर जैन तीर्षकरों व भमण दिगम्बर मुनियों अधित्वा षण्मासान् स किल पुनरप्याट् जगती
की सदा कृपा रही है- सदा ही सन्मार्ग का उपदेश देते महो! केनाप्यास्मिन् बिलसितमलंय हतविधेः॥ रहह, आदि। -श्री सत्यनारायण शास्त्री, बावलकर
-आत्मानुशासन ॥'
हम निवेदन करें कि हमने वर्षों मुनिधी के पादमूल में
हा हा पपा मुनिश्रा क पाद -अहो, जिन्हें पूर्वसमय मे गर्भकाल से ही इन्द्र सीखा ह। दिगम्बरत्व भार उक्त पर्या आदि के प्रति मृत्यवत् अजलिबद्ध होकर सेवा करता था, स्वय जो कर्म
उनके समर्पण भाव को हमने उन पुरुषो से कही अधिक भूमि के स्रष्टा थे, जिनका पुत्र भरत चक्रवर्ती षटखंडाधि- जाना ह, जा यदा-कदा उनक पास माते-जाते हो और उनकी पति पा-वह पुरु (बादि) देव तीर्थकर वृषभदेव षण्मासा
मनोभावना को जानने का दावा करते हों या यद्वा-तता वधि क्षुधित होकर पृथ्वी पर विहार करते रहे। इस दुष्ट
लिख उनको मोहर लगाते हो । ऐसे पुरुषो को सावधान कर्मगति का उल्लंघन कर पाना किसी के लिए भी दुष्कर
होना चाहिए कि कहीं उनके कु-प्रयासो से जिनवाणी और है।"-पृष्ठ ५४-५५
दिगम्बर मुनि का अपवाद न हो जाय। स्मरण रहे
दिगम्बर-सिडांत-प्रभावक साधु बड़े भाग्य से हाप माते हैं, उक्त श्लोक मुनिश्री को अत्यन्त प्रिय है और वे प्रायः
फलतः-दिगम्बरत्व की पुष्टि में ही दिगम्बर का उपयोग पढ़ा करते हैं। उक्त श्लोक से स्पष्ट है कि दिगम्बर मुनि
होना चाहिए। (तीर्थकर ऋषभदेव की भांति) विधि-विधान, नवधा भक्ति बादिके योग मिले बिना बाहार नहीं लेते। मुनिश्री ४-६-६४
-पचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
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वर्धमान भक्तामर
रचयिता-बो मूलचन्द्र जैन शास्त्री, जो भक्त सुरवर मुकूट मणिगणमय सरोवर में खिले.
उन मणिगणों की ज्योतिरूपी सलिल से हैं जो रले जो भव्यजन चितमधुपकर्षी कंज जैसे हैं बनें, '
श्री वर्धमान जिनेश के वे चरण चित में नित सनें ॥१॥ आनन्द के नन्दन निराले सुख जनक तेरे विभो ।
ये शिव विधायक चरणयुग सद्भाव कारक हैं विभो ! हैं पोत सम भबसिन्धु में गुणपुंज युत यो ऋषि कहें, हे नाथ ! तेरे ये चरंण मुझ को शरण नित ही रहें ।।२।।
(मुझ पतित को पावन करें) जो सिख औषध सम सकल ही सिद्धियों के धाम हैं,
औ पूर्ण विकसित आत्मगुण से जो महा अभिराम हैं। जो ज्ञानमय शिवमय सतत संपन्न उत्तम धाम हैं,
वे वीर हैं, हैं ध्येय वे ही क्योंकि वे निष्काम हैं ॥३॥ बालक विवेक विहोन भी निज लड़कपन से चाहता,
में नाप लं आकाश को ऐसा मनोरथ बांधता। में भी दयासागर! तुम्हारे निकट वैसा हं खरा,
ज्ञानादि संख्यातीत गुण गण गान में आग्रह भरा ४ जड़लोह यदि पारस परसकर कनक बनता पलक में,
है कोन सी अचरज भरी यह बात स्वामिन् ! खलक में। आश्चर्य है तो एक यह जो दूर से भी ध्यान से,
ध्याता तुम्हें वह नाथ ! बन जाता तुम्ही सां शान से ॥३॥ कुन्देन्दुहार समान अति रमणीय गुणगण की कथा,
हैमाथ! कौन समर्थ जग में कह सके जो सर्वथा। है कौन ऐसा जन बमत को जीवराशि गिन सके,
छपस्थ की तो क्या कथा भगवान भी नहीं कह सके। मुनिनाय ! हूं असमर्थ फिर भी तब गुणों के गान में,
जैसे बनेगा मैं करूंगा यत्न अपनी जान में । मज्जा नहीं इसमें मुझे यह बात जग विख्यात है,
खगराजगत क्या मार्ग से नहिं जात पक्षी जात है ॥७॥
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तेरे बचनपीयूष रस को सुरुचि ही बस । प्रेरती,
बल से मुझे तव गुण कथा के कथन में है घेरती। जो तरल लहरों से क्षुभित बन उदधि बढ़ता पर्व में,
है हेतु चन्द्रोदय नियम से नाथ ! उसके गर्भ में ॥८॥ मज्ञान-मोह समूह भगवन् ! हृदय में मेरे घुसा,
उसको हटाने के लिए है शक्त तव प्रवचन उषा। जो कन्दरा में तिमिर चिरतर सूथिर बनकर रह रहा,
उसको हटा सकती वहाँ से एक उज्ज्वल ही प्रभा || हे बोधि दायक! नाथ ! मेरी यदपि वाणी हीन है,
जो नय प्रमाण सुरीति-गुणभूषण विहीन मलीन है। तो भी भवन में तव कथा से रम्य वह होगी तथा,
जल बिन्दु शुक्ति प्रसंग से बन मोति मन हरती यथा ॥१०॥ हे नाथ ! चित से भी अगम्य भले-रहे त गुण कथा,
इक नाम भी तेरा जगाता भक्ति तुम में सर्वथा। हो दूरतर जंबीर पर यह बात जग अनुभवित है,
जो नाम भी उसका बनाता सरस रसना द्रवित है ।।११।। ज्यों विविध मणि गण प्रचुर कांचन रजत रत्नों से भरे,
भंडार को देता जनक सुत को विनय गुण से भरे । जिनदेव ! त्यों तव ध्यान भी देता अचल पद को खरा,
ध्यानकर्ता के लिए अक्षीण सुख से जो भरा ॥१२॥ ज्ञानादि गुण गौरव भरे तुम नाथ ! अनुपम सिन्धु हो,
अशरण जनों के नाथ! तुम ही बिना कारण बन्धु हो। ऐसे तुम्हें तज और की जो शरण लेना चित धरे,
- वह तीन जग का राज्य तज जड़ भूत्यता स्वीकृत करे ॥१३॥ हे नाथ ! वे परमाणु भी जिनसे बना तव गात है,
थे लोक में उतने, न थे वे अधिक यह जग ख्यात है। तेरे चरण की शरण पा यदि मनुज बनता सिद्ध है,
है कौन सा अचरज, निमित्ताधीन कार्य प्रसिद्ध है ॥१४॥ मुखचन्द्र नाथ ! अपूर्व तेरा सकल मंगल मोद का,
है कंद, वाणी-सुधाधारा का सुझरना लोक का। संतापहारी, स्वर्गमोक्ष प्रदानकारी, बोध का,
दाता उदित नित लख मुदित मन होत भविक चकोर का ॥१५॥ जो भूल से भी उच्चरित तव भद्रकारी नाम भी,
होता सुकृत का जनक स्वामिन् ! सिद्धि का सदाम भी।
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अनेकान्त
अज्ञान से भी नुखपतित सितखंड का भी खंड है,
विख्यात जग में बात यह माधुर्य देत अखण्ड है ।। १६ ।। जो पाद पङ्कज में तिहारे नम्र करता माथ है,
वह ऋद्धि-सिद्धि समूह से सर्वत्र होत सनाथ 1 फिर तीर्थंकर बनकर जगत् का तिलक होता है वही,
पश्चात् अब्याबाध सुखमय धाम में जाता सहो ॥ १७॥ ज्यों काल का दिनरात आदि विभाग रविविषु निमित है,
दो पंख से ही गगन में खेचर गमन जम विदित है । त्यों आपने भी जगत जन को यह जताया नाथ ! है, ज्ञान क्रिया के ऐक्य से मुक्ति देती हाथ है ||१८|| हे नाथ ! जीवन में अनोखे सार का कारण महा, पीया गया पीयूष पर वह देह का रक्षक कहा । स्याद्वाद से भूषित तिहारी देव ! निर्मल भारती, निज सेवकों को मुक्ति देती हरण कर सब आरती ॥ १६ ॥ षट् खंड- मंडित भुवन मंडल को विभो ! चक्री यथा, करके विजित निज चक्र से शासित उसे करता, तथा । मुनिनाथ ! तुमने भी जगत में जैन शासनरत किया, भविवृन्द को मिथ्यात्व हर नयचक्र से वश कर लिया ॥२०॥ मिथ्यात्व रूपी दोष यह चिरकाल से पीछे पड़ा,
यह है विषमतर भव भ्रमण का हेतु जहरीला बड़ा । यह नाथ ! हरभव में निरन्तर ताप देता उग रहा,
२८, बर्ष ३७, कि० २
में नित लोन हैं । मतिलीन हैं,
आमूल इसका नाश करता तेज जो तुम में भरा ॥२१॥ जो जन प्रमादी विषम मोह अधीन कृत्य विहीन हैं, विषयाभिलाषी दुर्जनों के संग हैं जो विवेक विहीन विषया संग से लाता सुपथ पर उन्हें तेरा ज्ञानादि मुण तेरे अनंते कल्पवृक्ष हैं रत्न चिन्तामणि सदृश देते चन्द्रसम उज्ज्वल करें वे जगत जन
तेज जो गमगीन है ॥२२॥ समान हैं, किमिच्छिक दान हैं। मन को विभो ! है कौन ऐसा भव्यजन जो याद कर पुलकित न हो ॥२३॥
हे नाथ ! चिन्तामणि सुरद्रुम और नवनिधियां महा,
उनसे मिले जो सौख्य जनको वह क्षणिक नश्वर कहा । जो आपके सेवक मनुज ध्रुव मित्य सुख भुगते यहां,
इन सब सुखों से भी अनंता सौख्य भुगतो तुम वहां ॥२४॥
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वर्षमान भत्तामर रवि किरण मण्डल के निकट ज्यों तिमिर डट सकता नहीं, चिन्तामणि के सामने ज्यों दुःख टिक सकता नहीं।
त्यों नाथ ! तेरे निकट हिंसादिक फटक सकते नहीं।
ये दोष हैं निर्दोष तुम हो यह विदित हैं सब कहीं ॥२५॥ जो इन्दु मंडल सा सलिल सा सुधाफेन सुपुञ्ज सा,
विकसित मनोरथ पुर का जो एक विस्तृत कुंज सा। है, नाथ! ऐसे धर्म का तुमने निरूपण है किया।
होता भविकजन कमल का विकसित प्रभो ! सुन कर हिया ॥२६॥ अति दूर से भी चन्द्र ज्यों निज किरण के उत्कर्ष से,
करता सदा कैरव बनी को युक्त अतिशय हर्ष से। जिननाथ ! वैसे हो तुम्हारा कर रहा गुणवृन्द है,
सब भक्त जनता के हृदय सदा अति बानंद है ॥२७॥ जिनवर! सुधाकर किरण का संयोग पाकर, सर्बथा.
होता द्रवित जग में विदित यह चंद्रकान्त मणि यथा। वैसे तिहारी परम महिमोपेत करुणारस भरी,
पावन कथा का श्रवण कर होते द्रवित हैं क्रूर भी ॥२७॥ शिवमार्ग से वंचित, दुखों की खान यह कलिकाल है,
है हीयमान सदा विषय के जाल से विकराल है। इसमें तिहारी शिव विधायक देशना के पान से,
पाते भविक जन शुद्ध आत्मिक शान्ति वच दुर्ध्यान से ॥२८॥ गुणगणसदन! मुनिवर रमण ! जिनवर ! जगतरक्षक! विभो!
देवाधिदेव ! विमुक्तिस्वामिन ! भविकनाथ! सुनो प्रभो। करके कृपा हमको जगाओ ज्ञान के उत्कर्ष से.
क्या दूर से भो विधु न करता कुमुद को युत हर्ष से ॥२६॥ पा जब सहारा आपका प्रभु ! शोक विन तरु भी हया,
जग में इसी से ज्यात नाम "अशोक"यों उसका हवा। तब क्या तुम्हारे चरण के अवलम्ब से भविजन नहीं,
नि:शोक हो सकते खपा विधि भले वे होवें कहीं ॥३०॥ मणिमय सिंहासन पर चमकते नाथ ! तुमको देखकर,
देवावर हो चकित चित यों चितते हैं विशवर।
क्या? नहिं, अरे ! वह मग कलंकित गात है,
तो सूर्य है क्या ? नहिं मला वह तो प्रचण्ड प्रताप है ॥३॥ है कान्ति का यह पुंज प्यारा प्रथम तो जाना यही,
फिर व्यक्त आकृति मात्र से सामान्य जन माना सही।
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२०१७कि०२
जाना पुनः कोई प्रशम रस सहित सुन्दर मनुज है,
फिर बाद में जाना तुम्हें सिद्धार्थ का यह तनुज है ॥३२॥ सुरवृन्द ने अब नाप बरसा अचित पुष्पों की करी,
चारों दिशाएं बनी सुरभित . खिज उठो पूरी मही। स्थादाद सुन्दर वचन रचना की मरी इकदम लगी,
जनता मूदित मन हो तुरत जय घोष कर नचने लगी ॥३२॥ हे नाथ ! तेरी वह अलौकिक देशना जगहित खिरी,
पीयूष सी परिणत हई सब जीव भाषा में ढरी। सब ऋद्धि सिद्धि तथा गुणों की बृद्धिकर्ता वह बनी,
हे वीर ! सगरी पीर हर निज भक्त शिवदाता बनी।।३॥ गोदुग्ध-जल-शशि-कुन्द-हिम-मणिहार-सम उज्ज्वल सही,
चामर गगन तल लसित मानों प्रकट करते हैं यही । है ध्यान इस ही प्रभु का सित कोई न ऐसा देव है,
सर्वज्ञ है यह, यही नाशक कर्म का स्वयमेव है॥३४॥ आकर अवनि पर अमरपति ने तथा मुनिपति ने प्रभो!
संस्तुति करी निजशक्ति भर तव प्रभा मंडल की विभो ! उस मोह तिमिर विनाशकारक दीप्तिमंडल के निकट,
बस ध्वान्तनाशक सूर्य की समता न घटती, रंचभर ॥३५॥ यह जिन विकट विधि बन्द भट का है विजेता एक ही।
अतिशय बली तीनों भुवन का नाथ है यह एक ही। बस इसलिए हे भव्य ! तुम जाओ इसी के मार्ग में,
बजता सुनाता घोषणा यह दुन्दुभी नभ मार्ग में ॥३६॥ जो है सकल मंगल विधाता मोद का जो स्थान है,
जिसकी विमल आभा निरख शारद शशी भी म्लान है। ऐसा तिहारा नाथ! छत्रत्रय जताता है यही,
कल्याण कारक रत्नत्रय प्रभपद प्रदाता है सही ॥३७॥ हे नाथ! ऐसा ही अनोखा आपमें अतिशय भरा,
जो पाद पंकज की तरे की विषम सम बनती धरा। फूलै फलें सब साथ ऋतुएं सुखी भी सब जम बनें,
इससे तिहारे पाद रुजको कल्पतरु ही हम गिनें ॥३॥ है दिव्यवाणी नाथ ! तेरी सद्गुणावलि दिव्य है,
है दिव्ययश, है दिव्य समता और प्रभुता दिव्य है। समता त्रिजग में इन गुणों की कहीं भी मिलती नहीं,
रवि सी चमक होती नही तासगणों में सच कहीं ॥३६॥ तब दिव्य-महिमा निरखकर सूर असूर किन्नर नर सभी,
हे नाथ! तेरी भारती पीयूष सी पीते जभी ।
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वर्षमान भक्तामर आनंद-सागर में नहावे गुण कथा के कथन में,
असमर्थ हो बस ! भक्तिवश नमते तिहारे चरण में ॥४०॥ तुम हो सकल मंगल विधायक इसलिए तुमको नमू,
तुम हो सकल शान्ति प्रदायक इसलिए तुमको नमूं । तम हो सकल कर्मारि नाशक इसलिए तुमको नम।।
तुम हो सकल तत्त्वोपदेशक इसलिए तुमको नमू ॥४१॥ तुम हो सकल जग जीव रक्षक इसलिए तुमको नम,
तुम हो सकल शासन प्रभावक इसलिए तुमको नमू । तुम हो सकल जग हित विधायक इसलिए तुमको नमू,
तुम हो सकल निर्मल गुणाकर इसलिए तुमको नमू ॥४२॥ जो निर्दयो राक्षस पिशाचों से प्रभो! हा ! विहित हैं,
उपसर्ग-अथवा दुराचारी खलों से जो प्रकृत हैं। आक्रमण दुःख दरिद्र शत के जाल से जो सृष्ट है,
वे कष्ट सब तव तेज से प्रभ ! शीघ्र होते नष्ट हैं ॥४३॥ सब रिद्धि सिद्धि वर प्रदायक विमल यह स्तवराज हैं,
श्री वीर जिनवर देव का जो पढ़े जन निर्व्याज है। सुरवक्ष चिन्तामणि निट सर्वार्थ सिद्धि सभी सदा.
सेवा तथा अनुकूल करने के लिए आते मुद ।।४।। जो चोर रिपु शार्दूल पन्नग गज दवानल से उटी,
जो हिंस्र गमनागमन से खल बधनों से है पटी। बस इसी से प्रभुवर ! जहां की भूमि दुर्गम है बनो,
तव ध्यान से ऐमी बनी बनती बना सो सुखना ॥५॥ शार्दूल पन्नग प्रखर शूकर हिस्र जीवो से घिरी,
चोरो नुकीले कण्टका से हा! बनी जो है भरी। हे नाथ ! तेरे स्मरण से वह बने नन्दनवन जिसी,
आनंद को लहरे बहें यों भक्तजन कहते ऋषी ॥४६॥ जो अति भयानक महादुर्गम सुभट से अति विकट है,
अति कष्टप्रद बलभ्रष्ट जिसमें मृत्यु भो अति निकट है।। जो विविध दुखशत से भरा बहती जहां नगधार है,
उस युद्ध में तव नाम देता नाथ ! शांति अपार है ॥४७॥ नाथ ! बापके गुण पुष्पों की, यह सुरम्य संस्तुति-माला।
मैंने रची गूंथकर रुचि से, पहिनेगा जो कोई लाला । बमकेगा वह उजियाला बन जगमें, जग उसका होगा। होगा उसका ठाठ निराला, "मूल" चंद्र जैसा होगा ॥४॥
(मालपोन नि०) श्री महावीर प्रवासी
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साहित्य-समीक्षा
[जैन सिद्धांत
लेखक: सिद्धांताचार्य पं० श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री : प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
साइज - १८x२२ x १६, पृष्ठ २२०, मूल्य : २० रुपये ।
श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन-सिद्धांत के अवाह मधुर सागर हैं । प्रस्तुत कृति जैन सिद्धान्तगत विषयों का सारपूर्ण विवेचन है। प्रकाशक के सही शब्दों मे जिसे पडित जी ने चार अनुयोग द्रव्य गुण-पर्याय, स्वाद्वाद नयवाद कार्यकारण विचार, जीव-आत्मा, गुणस्थान, मार्गणाए पुष्यपाप, सम्यग्दर्शन -सम्यग्ज्ञान- सम्यक्चारित्र तथा उनका पारस्पारिक सम्बन्ध सिद्धति एवं अध्यात्म का विषयभेद आदि द्वारो से अपनी शैली में सजोया है ।
७० है । पुण्य-पाप का शास्त्रीय दृष्टिकोण, जीवन में संयम एव पारित्र का महत्व, महावीर धर्म में क्षमा आदि प्रसंग साधारण पाठको को सरलता से समझ मे आ सकते हैं । पूर्वाचार्यो - समन्तभद्र, कुन्दकुन्द, गृद्ध पिच्छ आदि के संबंध में गहरी जानकारी दी गई है, जो उपयोगी हैं । विखरे लेखों के एकत्र सग्रह ने पाठकों की सुविधा बढ़ा दी है अब उन्हें कोठिया जी के विचारों को जानने के लिए पत्र-पत्रिकाओ की पुरानी फाइले बिना खोजे ही सभी सामग्री सुलभ होगी ग्रन्थ संग्रहणीय है प्रकाशन आदि उत्तम है। । । लेखक-प्रकाशक सभी सम्मान
है।
निःसन्देह, जैन सिद्धात एव अध्यात्म जितना कठिन है उतना ही वह सरल भी है। पारगत, अनुभवी और ग्राहक की नाड़ी की परख याला प्रयोक्ता कठिन से कठिन विषय को सरल बना देता है। पंडित जी ने अनेकानेक रूपों में अनेकानेक विषय धार्मिक क्षेत्र में प्रस्तुत किए हैं और सभी सफल रहे हैं। प्रस्तुत कृति भी जिज्ञासुओं की पिपासा को सहज ही शान्त करने में समर्थ होगी ऐसा हम मानते हैं । ग्रन्थ की छपाई आदि ज्ञानपीठ के सर्वथा अनुरूप है बधाई ।
जेन तस्य ज्ञान मीमांसा :
लेखक : डा० दरबारी लाल कोठिया प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, प्रकाशन, वाराणसी साइज : २०x३० X ६ पृष्ठ : ३७४, मूल्य : ५०रु०
प्रस्तुत संग्रह, जैन-न्याय दर्शन के ख्यात विद्वान डा० कोठिया जी के उन लेखों का सग्रह है जो विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। इसमे धर्म, दर्शन, न्याय, इतिहास, साहित्य एवं तीर्थों, पर्यो, विविध सन्तों, विद्वानों के परिचय भूत पंचमी जम्बू श्रुत विनाष्टक बादि जैसे विषय यभित है। निबन्धों की संख्या
एकार्थक कोश व निरुक्त कोश (दो फोश) : वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी प्रधान सपादक : युवाचार्य महाप्रज्ञ
सम्पादक : विभिन्न साध्वियाँ
समणी कुसुम प्रज्ञा, साध्वी-सिद्धप्रशा साध्वी निर्वाणश्री
प्रकाशक जैन विश्व भारती, लातू
.
साईज : २३३६ × १६ पृष्ठ क्रमश: ३६६ : ३७० | मूल्य ५० व ४० रुपए ।
सन् १९७६ की बात होगी - पंचकूला मे डा० नथमल टाटिया का सकल्प उन्ही से सुना था कि वे जैन- शब्दकोश के निर्माण के प्रति समर्पित रहना चाहते हैं और ऐसा कार्य करना चाहते हैं कि श्वेताम्बर जगत के आगम-ज्ञान की प्यास से कोई प्यासा न रहे और जैन श्वेताम्बर आगमों को सभी सरलता से समझ सकें। हमें खुशी है कि आज उस संकल्प का प्रारम्भिक कार्य साधन से साधु-साध्वियों के द्वारा प्रकाश में आया और डा० टांटिया के पुरोवचनप्राक्कथन के साथ उसका श्रीगणेश हुआ ।
श्वेताम्बर आगम साहित्य के प्रकाशन में जैन विश्व भारती का पूर्ण प्रयास है। वहां के साधु-साम्बीगण इस (शेष पु० आ० ३ पर)
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(ताकि सनद रहे
):
श्रो वर्षचन्द्र शास्त्री, प्रा० वर्मसागर महाराज, संघस्थ
१०००-५०० वर्ष बाद जब मनुत्तर-योगी के विसंगत प्रसंग उभर कर सामने आएंगे तब उनका प्रतिवाद महो सकेगा और मभियोग में निश्चय ही विगम्वरत्व की पराजय होगी और उस पराजय में कारण होगादिगम्बर क्षेत्र में दिगम्बर-प्रेरित दिगम्बर-लिखित दिगम्बर समिति द्वारा प्रकाशित अनुत्तर-योगी तीर्थकर महाबीर" उपन्यास । जो सभी कोटों में पेश होकर श्वेताम्बर मान्यताओं को पुष्ट कर रहा होगा और तब दिन धर्म संरक्षिणी सभाएं और दि० तीर्थ-रक्षक कमेटियां बसी संस्थाएं और उनके पर-घर, कर्णधार सिर धुन रहे होंगे और श्री कुन्दनलाल जैन की अन्तर्वेदनाएं सही सिद्ध हो रही होंगी।
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MESSAGE OF JAINA YOGI SWASTI SRI BHATTARAKA CHARUKIRTI PANDITACHARYA SWAMIJI MOODBIDRI.
नानाना-नाना-IITE.I-
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"WE FIND YOUR ARTICLE IS A GOOD PIECE OF REBUTTAL. YOU DESERVE CONGRATULATIONS OF ONE AND ALL OF JAIN SAMAJ FOR YOUR FREE FRANK AND FEARLESS REMARKS IN YOUR ARTICLE. PEOPLE OF YOUR CALIBRE SHOULD COME FOR- ' WARD WHEREVER THERE IS A THREAT TO REALITY-SADDHARMA. YOUR ACTION IS WELL-TI'IED AND TESTED. "BHADRAM BHUYAT, VARDHTAM JIN SHASNAM
WITH BEST OF BLESSINGS."
13-6-84
---$1974 1975 1974
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(पृ. ३२का शेषांश) बोर दत्त-चित्त है, कई प्रकाशन हो चुके हैं। प्रस्तुत कोश वाऽनेनेति मंगलं । मागलो भूदिति मंगलं। माद्यन्ति अन्य से आगम-ज्ञान के मार्ग प्रशस्त होंगे और जिज्ञासु हृष्यन्ति अनेनेति मंगलं । इत्यादि। बनेकों शब्दों के अनेकों अर्थों को अनेकों भांति हृदयगम हम लेखकों, संयोजकों और प्रका गकों का अभिनन्दन कर सकेंगे । जैसे-मंगिज्जएऽधिगम्मइ जेण हिजतेण मंगलं करते हैं जो उन्होंने उत्तम कृति को उत्तम रूप में संजोकर, होइ । महवा मंगो धम्मो त लाइ तयं समादत्ते । मंगालयह छपाकर सजिल्द हमें प्राप्त कराया । धन्यवाद । भवामो मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। मस्यते अनेन मन्यते
-सम्पादक
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R.No. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन तमोचीन धर्मशाला स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
बी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... बाप-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित मपूर्व संग्रह, उपयोगी १५ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रसंकृत, सजिल्द। ... जनसम्ब-प्रशास्ति संग्रह, भाग २: अपशके १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । विपन
प्रत्यकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५.. समावितन्त्र और टोपदेश : अध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित बबवेलगोल और दक्षिण मम्मन ती: श्री राजकृष्ण न ... बाब-दीपिका :मा.अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो.डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं. मनु०।१.... बन साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । सावपाहग्लुत्त : मूल अन्य की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व भी गुणपराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिवान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १०००से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... २५-.. गनिजब-रलावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानातक (व्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचना सिद्धान्त-शास्त्री भाषक व संहिता:बीरवासिंह सोषिया
५.०० नामावली (तीन भागों में):सं.पं. बालचन्द सिवान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग .... बिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, बहुबचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तकंपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित .
२-०० Jain Monoments: टी० एन० राममन
१५-.. Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
Per set 600-00
माजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.००० वार्षिक मूल्य :१)R०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे
विधान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है। यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल
लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायःनहीं लिए जाते।
- सम्पायक परामर्श मण्डल-11.ज्योतिप्रसादन,धी लक्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-बी पक्षणशास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयपारीन, बीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बावसं प्रिटिंग प्रेस के.१२, नबोगशाबरा
दिल्ली- मुहिता
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घोर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुल्तार 'युगवीर') वर्ष ३७: कि०३
जुलाई-सितम्बर १९८४
इस अंक में
विषय १. सुप्रभात स्तोत्रम् २. देवदास नामक दो कवियों के भिन्न-भिन्न हनुमान
चरित्र--डा. ज्योनिप्रसाद जैन, लखनऊ ३. प्रथम प्राणी-विज्ञान विशेषज्ञ हंसदेव
-श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ४ भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव
-पू० आयिका श्री ज्ञानमती जी ५. संस्कृत वि.सन्धान पूजा
~श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी ६. आत्म अनुभव कैसे हो-श्री बाबूलाल जैन वक्ता १६ ७. शाहनामा-ए-हिन्द में जैनधर्म
-थायर फरोग नक्काश ८. राजस्थान के मध्यकालीन जैन गद्य लेखक
-श्री रीता जैन, अलवर ९. जनकला और स्थापत्य में १० पाश्वनाथ
-श्री नरेन्द्रकुमार सोरया एम० ए० १०. विचारणीय प्रसंग-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, दिल्ली २३ ११. जरा-सोचिए-सपादक
२६ १२. दिल्ली से श्री महावीर जी (पदयात्रा) आवरण ३ नोट-~-अनिवार्य कारणों से इस अक में विलंब हुआ: पाठक क्षमा करें।
--सपादक
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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छपते-छपते :
'अनेकान्त' का
अन्तया मिश्रित मौन-नाद अन्तर्व्यथा
'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले । वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा ।'
यह एक बड़ा हादसा था जो दि० ३१-१०-८४ को भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के साथ घटित हुआ । हत्यारों ने क्षण भर में उनका खून कर दिया और पूरा राष्ट्र दिलो मे उनकी यादें बसाए हुए आँसू बहाता रह गया तथा समस्त विश्व विचार में पड़ गया। इसे विधि की बिडम्बना ही कहा जायगा कि जिसने कभी प्रथमगाधी राष्ट्रपिता बापू को और अब द्वितीय गांधी प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा जी को एक ही रीति से कराल काल के सुपुर्द कराया। हम यह भी कहेंगे कि विधि ने इस बार क्रूरता में काफी बडवारी बरनी बापू पर तीन गोलियाँ, तो इन्दिरा जी पर सोलह और शायद इससे भी अधिक गोलियाँ चलवाईं। तब ४० करोड़ जनता ने ही आंसू बहाए और अब सत्तर आंसू पोछने वाला कोई नहीं दिखा।
करोड जनता के
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विशेष-पत्रक
अब तो यह ढूढ
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने देश हित में क्या किया यह बताने की जरूरत नही निकालना भी कठिन है कि देश का ऐसा कौन-सा हित या जो उन्होंने नहीं किया ? वे सभी क्षेत्रो में सभी दृष्टिकोणों से भारत की उन्नति मे सदा अग्रसर रहकर मार्ग-दर्शक रही और विश्व को भी शान्ति की स्थापना के लिए प्रेरित करती रही। वे पिछड़ों को बढाने वालों और उठे हुओ को स्थायित्व प्रदान करने वाली प्रथम भारत रत्न महिला थीं। जैन-उत्सव, चाहे वह २५०० वर्षीय निर्वाणोत्सव हो, चाहे महामस्तकाभिषेक या ज्ञानज्योति प्रसार, सभी मे श्रीमती इन्दिरा जी का योग रहा- वे धर्ममात्र मे आस्थावान् थी । उनके स्थान की पूर्ति सर्वथा असम्भव है। उनके उपकारो के प्रति भारत और विश्व के अनेको देश सदा कृतश रहेंगे।
जो लोग भारत को खण्ड-खण्ड रूप में और पिछड़ा देखने के स्वप्न सजोने मे लगे है, उन्हें हम बता दें कि - भारत-भूमि मे बड़ी क्षमता है। गांधीद्वय ने भारतवासियो की पवित्र भूमि को अपने रक्त का कतरा-कतरा समर्पित किया है, जिससे सभी भारतीयों को बल मिला है अतः वे इससे भी कई गुनी क्षतियो और अपार कष्टों को सहकर भी अपनी आजादी और अखण्डता को बरकरार रखेंगे और इस देश की प्रभु-मत्ता को सुरक्षित रखने वाले ऐसे गाधी सदा ही विद्यमान रहते रहेगे, जो गलत स्वप्नो को कभी भी पूरा न होने देगे।
उक्त परिप्रेकप में हमें देखना चाहिए कि क्या हम धोये उपक्रमों से वैसी अमरता पा सकेंगे जैमी बेजोड़ और अमूल्य अमरता श्रीमती इन्दिरा जी ने कर्तव्यनिष्ठ रहकर पाई ? लोगों की दृष्टि में...
"जब तक सूरज चांद इन्दिरा तेरा नाम
रहेगा। रहेगा || '
दि० ११-११-२४
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वर्ष ३७ किरण ३
ओम् अहम्
परमागमस्य वीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर सेना मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीरनिर्वाण सवत् २५१० वि० सं० २०४०
(जुलाई-सितम्बर १६८४
सुप्रभात स्तोत्रम्
( नेमिचन्द्र यति- विरचितम्)
चन्द्रार्क शक्र-हरि विष्णु- चतुर्मुखाद्यास तीक्ष्णः स्ववारण निवहैविनित्य लोकम् व्याजृम्भतेऽहमिति नात्र नरोऽस्ति कश्वित्तं मन्मथं जितवतस्तव सुप्रभातम् ॥ १ ॥ गन्धर्व - किन्नर - महोरग दे य-यक्ष-विद्याधरामर-नरेन्द्र समचताङ्घ्रिः । संगीयते प्रथित-तुम्बुर-नारदेश्व कीर्तिः सर्वन भुवने तव सुप्रभातम् ॥२॥ अज्ञान-मोह तिमिरौघ-विनाशकस्य सज्ज्ञान- चारु- बलि- भूक्ति-भूषितस्य । भव्यम्बुजानि नियतं प्रतिबोवस्त्र श्रीमज्जिनेन्द्र दिनकृतव सुप्रभातम् ॥३॥ श्वेतातपत्र- हरिविष्टर-चामरौध-भामण् लेन सह दुन्दुभि-दिव्यभाषा- । शोकाग्र देवकर मुक्त पुष्पवृष्टी देवेन्द्र पूजितवतस्तव सुप्रभातम् ॥ ४ ॥ तृष्णा क्षुत्रा जनन-विस्मय-राग-माह-चिन्ता-विजाव-मद-खेद जरा रुजोधाः । प्रस्वेद - मृत्यु - रति रोष भयानि निद्रा देहे न सन्ति हि यतस्तव सुप्रभातम् ॥ ५ ॥ भूतं भविष्यदपि सम्प्रति वर्तमानं ध्रौव्यं व्ययं प्रभवमुत्तमनप्यशेषम् । त्रैलोक्य-वस्तु विषय सविशेषमित्यं जानासि नाथ ! युगपत्तव सुप्रभातम् ॥ ६ ॥ स्वर्गापवर्ग-सुखमुत्तममव्ययं यत् तद्देहिनां सुभजतां विदधासि नाथ ! हिसानु तान्यवनिता पवत्त सेवा-संत्यागकेन हि यतस्तव सुप्रभातम् ॥ ७॥ संसार - घोर-तर- वारिधि यानपात्र ! दुष्टाष्टफर्म- निकरेन्धन दीप्त-वन्हे ! प्रज्ञान- मूढ-मनसां विमलंकचक्षुः श्रानेमिचन्द्र-यतिनायक ! सुप्रभातम् ॥ ८ ॥ प्रध्वस्तं परतारक मेकाम्स-ग्रह-विवजितं विमलम् । विश्वतमः प्रसर- हरं श्रुतप्रभातं जयति विमलम् ॥ ६ ॥
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देवदास नामक दो कवियों के दो भिन्न-भिन्न हनुमान चरित
0 डा. ज्योति प्रसाद जैन 'विद्यावारिषि'
जनवरी १९८१ में विदिशा के श्री राजमल मडवैया 'हनुमान चरित' का परिचय दिया था। उनके कथनानुसार ने 'पवन पुत्र हनुमान चरित्र' शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित इस रचना को हनुमानरासा भी कहते हैं, वह २००० के की थी जिसको 'श्री कविवर ब्रह्मदेवदास रचित' सूचित लगभग दोहा चौपाई आदि छंदों में निबद्ध है, ग्रन्थ का किया है। रचना को सवत् १८३४ (सन् १७७७ ई०) मे कथा भाग बडा ही रोचक है, इसके कर्ता ब्रह्मचारी कवि प्रतिलिपि कराकर किन्ही डालचन्द्र के पुत्र गनपतराय
देवदास है जो मालदेश की भट्टारकीय गद्दी के अधिद्वारा माकवाही के जैन मन्दिर मे दान की गई हस्तलिखित जा . लितकोनि मिले और aiane प्रति पर से प्रकाशित किया गया है। इस रचना मे सब हो जाने पर उक्त आर्यब्रह्म देवदास ने सवत १६८१ की मिला कर ८४७ दोहा-चोपाई आदि है । ग्रथान्त के ८४०- साख सुदी : गुरुवार के दिन राइसेनगढ के चन्द्रप्रभु ८४३ चार पद्यो में ग्रन्थकार ने अपना परिचय दिया है कि चैत्यालय मे इस ग्रन्थ की रचना की थी। पडित जी द्वारा मल ग्रन्थ के शारदागच्छ मे मुनि रत्नकीति हुए, जिनके
उद्धत ग्रन्थ की अन्त्य प्रशस्ति की १८ चौपाइयो मे कवि शिष्य मुनि अनन्तकीति थे। इन अनन्तकीर्ति के शिष्य
ने मालवा देश में स्थित पर्वत पर निर्मित उक्त राय सैन ब्रह्म देवदास थे जिन्होने सवत १६१६ की बैसाख कृष्ण
गढ नामक दुर्ग का, उसके चन्द्रप्रभु चैत्यालय, अन्य मठ नवमी के दिन प्रस्तुत 'हनकथा' रचकर पूर्ण की थी।
मदिर देवल आदि भवनो का, तालाब, बापिका, कूप, बाग स संक्षिप्त परिचय के अतिरिक्त कवि ने अपने बरेजो आदि का, वहा बसने वाले पौरापाट, गजरवानी, विषय मे और कोई सूचना नही दी है-अपने जन्म स्थान पोसवार, गोलापूर्व, गोलालारै लमेनू आदि विभिन्न निवास स्थान, ग्रन्थ के रचना स्थल, किनकी प्रेरणा से यह जातीय जैनीजनो का, अपने गुरु भद्रारक ललितकीति का रचना की है, इत्यादि कोई उल्लेख नही किया। ग्रन्थ के तथा ग्रन्थ रचना की उपरोक्त तिथि आदि का उल्लेख अंत में दो दोहो मे किसी प्रतिलिपिकार ने माघ शुक्ल
किया है । ग्रन्थकर्ता ने स्वय अपना नाम 'आर्य ब्रह्म कवि दोयज चन्द्रवार को उक्त प्रति के लिखने की सूचना दी है- देउदास दिया है। पडित जी ने ग्रंथ के कुछ प्रकरण भी संवत् तथा अपना अन्य कोई परिचय नही दिया है। अन्त उद्धृत किए हैं, यथा रावण द्वारा सती सीता को फुसलाने में छपा है 'इति था हनूमान चरित्र सम्पूर्ण'। कहा नही जा के लिए निपुणमति नामक दूती का, तदनन्तर अपनी पटसकता कि वह मूल रचनाकार की पुष्पिका है, या प्रति- रानी मन्दोदरी का भेजा जाना, उन दोनो के साथ सीताजी लिपिकार को अथवा वर्तमान प्रकाशक मडवैया जी की। के साथ रोचक सवाद तथा अन्ततः विफल मनोरथ होकर इस प्रकार भ० अनन्तकीति के शिष्य ब्रह्मदेवदास नामक लौटना आदि । प० परमानद जी ने ग्रन्थ का उपरोक्त कवि की इस पहन कथा' (९४७ छंद परिमाण) का रचना परिचय आदि शाहगढ (जिला सागर) के शास्त्रभंडार के काल सन् १५५६ ई० है।
एक जीर्ण गुटके में प्राप्त प्रति पर से दिया था। इस प्रकार शोधांक ६ फरवरी १९६०) २ पृष्ठ २१४-२२० पर आर्य ब्रह्म कवि देउदाम कृत प्रस्तुत हनुमान चरित या हसुप्रकाशित अपने हिंदी भाषा की अप्रकाशित नवीन रच- मानरासा (लगभग २००० छद परिमाण) का रचनाकाल नाएं' के अन्तर्गत स्व. पं० परमानन्द जैन शास्त्री ने एक सन् १६२४ ६० है।
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देवदास नामक दो कवियों के भिन्न-भिन्न हनुमानचरित
पं० परमानन्द जी को संभवतया मडवैया जी द्वारा गुरु मानते थे और अनन्तकीति के उत्तराधिकारी, संभवप्रकाशित रचना की कोई जानकारी नहीं थी और मडवैया वया भ. प्रतापकीति (ज्ञाततिथि १६१६ ई०) थे। ऐसा जी ने दोनों ग्रंथों और उनके कर्ताओं के नामों में कथंचित लगता है कि सूरत पट्ट के अभयचन्द्र या अभयनन्दि द्वारा साम्य देखकर अभिन्न समझ लेने की भूल की है। किन्तु मालवा का शाखा पट्ट स्थापित किया गया था, और उक्त दोनों कथाओं की विषय वस्तु प्रायः एक (हनूमान कथा अभिनव रत्नकीति, कुमुदचन्द्र, ब्रह्मरायमल, मुनि अनन्तया चरित) होते हुए भी और दोनो के कर्ताओं के नामो कीर्ति, ब्रह्मदेवदास और भ० प्रतापकीर्ति उसी शाखा पट्ट में अद्भुत साम्य सा रहते भी, इसमें सदेह नहीं है कि ये से सम्बद्ध थे। एक दूसरे से भिन्न दो स्वतन्त्र रनचनाये है, और दो भिन्न दूसरे हनुमानचरित (रासा) के कर्ता आर्य ब्रह्म कवि कवियों द्वारा रचित हैं। न केवल दोनों के रचना काल मे देउदास (देवदास) के गुरु भट्टारक ललितकीर्ति ग्वालियर६५ वर्ष का अन्तराल है, उनके परिमाण, आकार प्रकार, कंडल पुर ( मोह) पट्ट के भ० यशकीति के शिष्य भ. भाष और शैली में भी पर्याप्त अन्तर है । सन् १५५६ ई० ललितकीनि प्रतीत होते है जो पपपुर.ण एवं हरिवंशपुराण वाली हनूकथा अपेक्षाकृत सक्षिप्त है। उसमे सीता के माथ के कर्ता भ० धर्मकीति (१६१२-१४ ई०) के गुरु थे। इन मन्दोदरी आदि के सवादों के प्रमग हैं ही नही। अन्य भी ललिनीति के शिष्य उक्त आर्य ब्रह्मदेव ने अपना प्रथ अनेक ऐसे प्रसंग जो सन् १६२४ ई० वाले हनुमानचरित १६२४ ई० में रचा और उनकी सूचनानुसार उस समय में प्राप्त है, शायद उसमे न हो।
उनके गुरु भ० ललितकीति दिवगत हो चुके थे। इन तथ्यों
मे कोई भी विसगति प्रतीत नहीं होती। इसके अतिरिक्त १५५६ ई० वाली हनूकथा के कर्ता
अस्तु यद्यपि उक्त दोनों रचनाओ और उनके कर्ताओं ब्रह्मदेवदास के गुरु मुनि अनन्तकोनि थे जो स्वयं मूल सघ
मे नाम माम्य है, दोनों एक ही परम्परा मूल संघ-सरस्वतीशारदागच्छ के मुनि रत्नकीर्ति के शिष्य एवं पट्टधर थे।
गच्छ से सम्बद्ध थे तथा सम्गवतया प्रायः एक ही क्षेत्र, यह रत्नकीति सूरतपट्ट के भ० अभयचन्द्र के प्रशिष्य और
मालवा-बुन्दुलखंड, के निवासी भी थे, वे दोनों ग्रंथ और भ० अभयनन्दि के शिष्य प्रतीत होते हैं। मालवा भट्ट के । इन अभिनव रत्नकीर्ति के एक शिष्य भा० कुमुदचन्द्र थे
उनके कर्ता एक दूसरे से सर्वथा भिन्न एवं स्वतंग हैं। उक्त जिनके शिष्य ब्रह्म रायमल्ल (१५५८-१६१० ई ) थे।
आर्य ब्रह्मदेवदास कृत हनुमानचरित या रासा(१६२४ ई०)
का उद्धार करके उसे प्रकाशित करने की आवश्यकता है। स्वय कुमुदचन्द्र की एक ज्ञात तिथि १५१५ ई० है। अत
जैन साहित्य के इतिहास में नाम-साम्य बहुधा भ्रांतियों एव रत्नकीर्ति के दूसरे शिष्य और कुमुदचन्द्र के गुरु भाई
का कारण हुआ है। मुनि अनन्तकीति का समय भी इसी के प्रायः लगभग है। उनके शिष्य ब्रह्मदेवदास द्वारा १५५६ ई० मे हनूकथा का
---ज्योति निकुंज रचा जाना सुसगत है। ब्र० रायमल्ल भी अनन्तकीति को
चार बाग, लखनऊ-18
असुर सुरमणुयक्षिण्णररविससिकिरिसमाहियवरचरणी । दिसउ मम बोहिलाहं जिरणवरवीरो तिहवरिपन्यो। खमदमरिणयमघराणं धुदरयसुहदुक्खविप्पजुत्तारणं । पाणज्जोदिय सल्लेहाम्म सुगमो जिवराणं ॥
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प्रथम प्राणा विज्ञान (Zoology) विशेषज्ञ जैन कवि हंसदेव
० ले :
1
भारतवर्ष अपनी वैज्ञानिक प्रतिमा एवं ज्ञान के लिए विश्व विख्यात रहा है। भारत में विज्ञान की विभिन्न शाखायें जैसे गणित ज्योतिष, शल्य चिकित्सा, औषधि स्थापत्य, आयुर्वेद, प्राणिविज्ञान, रसायनविज्ञान, खगोल विद्या, आदि आदि क्षेत्रों में सबसे अग्रणी माना जाता था। अपनी उत्कृष्टता के कारण विश्व के विभिन्न देशो मे इसे बड़ा गौरव एवं सम्मान प्राप्त था। विश्व के विभिन्न देशों ने भारत से उपर्युक्त क्षेत्रों में बहुत कुछ सीखा और समझा एवं भारत को आदर दिया ।
यूनान - सम्राट विश्वविजेता सिकन्दर जब भारत से वापिस यूनान लौटा तो अपने साथ अनेकों भारतीय विद्वानो को एवं भारतीय ग्रंथरत्नों को सम्मान के साथ लेगया । था, उसने उन विद्वानों द्वारा उन श्रेष्ठग्रन्थों का अध्ययन मनन, चिन्तन एवं अनुदूत कराकर यूनानी सभ्यता एव साहित्य को विकसित एवं सुसस्कृत कराया था। यूनान ने भारत में बहुत कुछ सीखा था पर हम अपने सकुचित दृष्टिकोणो के कारण कालान्तर में अपनी वैज्ञानिक उपलब्धि को भुला बैठे तथा मरो की तुलना मे पिछड गये ।
उबर यूरोप में ज्ञान की पिसा तीव्रता से जाग्रत हो रही थी और वे लोग हमारे ग्रन्थों को लेकर उन पर ध खोज कर आगे बढ़ने लग और विज्ञान के क्षेत्र मे अपनी श्रेष्ठता का दावा जताने लगे और अपनी मौलिकता का दिवो पीटने लगे। यहां विज्ञान के क्षेत्र की चर्चा करते हुए केवल प्राणि विज्ञान ( Zoology) के क्षेत्र में ही मक्षिप्त सी चर्चा करना चाहता हू ।
न
यूरोपीय विद्वानो का दावा है कि Zoology के क्षेत्र मे अठारहवी सदी से ही उन्हीनेोधखोजकर विज्ञान की इस शाखा को समृद्ध एवं विकसित किया है और इन्ही विद्वानों को आधार मानकर भारत के आधुनिक
1. कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
प्राणिविज्ञान ऐसा डा० सलीम अली ने इस क्षेत्र में बड़ा विशाल कार्य किया है और वे नेशनल प्रोफेसर की ख्याति से विख्यात है पर वह बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि जो कान डा० सलीम अली ने अब किया है या यूरोपीय विद्वान वडे गर्व के साथ जिस पर अपना दावा पेश करते हैं उमी विख्यात विशालकार्य को अब से लगभग साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व लगभग सं० १३०० में भारत के विख्यात जैन कवि श्री हंसदेव जी ने "मृग पक्षी शास्त्र" नामक एक विशाल ग्रन्थ लिखकर आधुनिक वैज्ञानिकों का मार्ग प्रशस्त किया था ।
"मृग पक्षी शास्त्र " संस्कृत पद्यों में रचा गया है यह दो भागो मे विभाजित है। प्रथम भाग में चतुष्पदों का तथा द्वितीय भाग में पक्षियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें संस्कृत के १७१२ कुल छंद विद्यमान हैं। इसके रचयिता श्री पं० हंसदेवजी ने अपना विस्तृत परिचय नही दिया है। विभिन्न उद्धरणो से केवल इतना ही पता चलता है कि प० हसदेव जी जिनपुर के शासक महाराज जौण्डदेव के राज्याधित कवि थे तथा प्रकृति विज्ञान एवं प्राणी विज्ञान के प्रकाण्ड पडित एवं ज्ञाता थे ।
आश्चर्य तो इम बात का है कि आज से साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व उम युग में जब कि वैज्ञानिक साधनो का आज की तुलना सर्वथा ही अभान था तथा जाँच पड़ताल एव परखने और शोध खोज की सुविधाए सर्वथा सीमित थी, ऐसी अभाव की परिस्थितियों में एक जैन कवि, जिसे सभी जैन परम्पराओं का निर्वाह भी करना पड़ता होगा, कैसे इतना गम्भीर चिन्तन मनन एवं शोध खोज पूर्ण अध्ययन कर " मृग पक्षी शास्त्र" जैसे विख्यात प्रामाणिक विशाल ग्रंथ की रचना कर सका। और भावी पीढ़ी के लिए एक अनूठी विरासत छोड़ सका। अपने आपमें यह एक अद्भुत आश्चर्य शात होता है।
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अपन प्राणी विशाल (Zoolosy) विशेषतान विसदेच
यह ग्रन्थ सर्वषा अनुपलब्ध है, मैं बहुत प्रयास कर में उपलब्ध होते हैं पर सर्वाग पूर्ण रचना यह अपने बाप चुका हूं कि कही से उसकी पान्डुलिपि अथवा प्रकाशित् में एक ही है। केवल हाथियों के बारे में विस्तृत विवेचन प्रति उपलब्ध हो जाये पर सर्वथा निराश रहा, कृपालु करने वाली दो विस्तृत कृतियां उपलब्ध होती है एक है पाठकों से विनम्र विवेदन है किसी को यह ग्रन्थ मिल सके श्री पालकाय्यकृत 'हस्ति आयुर्वेदिक' तथा दूसरी है श्री या इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध हो सके तो नीलकण्ठकृत "मातङ्गलीला।" ये दोनों ही कृतियां बड़ी कृपया मुझे सूचित करें, मैं तो बड़े-बड़े विश्वविद्यालयो के प्रामाणिक विस्तृत एवं विख्यात हैं इनमें सिर्फ हाथियों के Zoology Depatts के प्रोफेसरों से भी सपर्क साध चुका बारे में ही विस्तार से चर्चा एवं विशद विवेचन किया हूं पर सर्वथा निराश रहा।
गया है। घोड़ों की विशेषताओं का विशद विश्लेषण करने श्री डा. वेलंकर ने अपने "जिनरत्नकोश" में वाला एक विशाल ग्रंथ 'अश्व वैद्यकम्' श्री जयदेव ने रचा इसका उल्लेख करते हुए पेलेस लाइब्रेरी त्रिवेन्द्रम में इसकी था। कुमाऊं के महाराजा श्री रुद्रदेव ने बाज पक्षी की पाण्डुलिपि होने की सम्भावना व्यक्त की है पर वहां से प्रामाणिक जानकारी अपने ग्रंथ "येनिक शास्त्र" में पत्र व्यवहार में भी मुझे सफलता नहीं मिली। डा.बेलकर विस्तार से दी है ? इस तरह यूरोपीय विद्वानों का यह ने लिखा है .-"मृग पक्षी शास्त्र" of Sh. Hansdeva दावा है कि प्राणी विज्ञान का आविष्कार अठारहवीं a protege of kings shoundadava . It is in two शताब्दी में उनके द्वारा हुआ सर्वथा निराधार सिद्ध होता parts containing total work of 1712 stanzas है। यूरोपीय विद्वानों से पूर्व ही भारतीय विद्वान इस क्षेत्र It is a rare work an zoology and a Mrs. of में पर्याप्त और प्रामाणिक एवं विशाल साहित्य की रचना it is presented in the palace library of Tri- कर चुके थे। vendrum . The auther is said to have lived in भारतवर्ष राजा महाराजाओं का देश था अतः हर the 13th centerry "
राज घराने में प्रत्येक राजा तथा राजकुमार आखेट उपर्युक्त ग्रन्थ की सर्वप्रथम जानकारी मद्रास के क्रीडा में निपुण एवं निष्णात हुआ करते थे । आखेट उनका एपिग्राफिस्ट श्री विजय राघवाचार्य को प्राप्त हुई थी। व्यसन एव ज्ञान-वृद्धि का साधन हुआ करता था, इसे एक इसकी प्रतिलिपि अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान श्री के. उच्च स्तर का खेल एव मनोविनोद तथा मनोरंजन का सी० बुड अमेरिका लेगये थे। जब जर्मनी के प्रसिद्ध साधन माना जाता था । अतः राजाओं एवं राजकुमारों विद्वान श्री आटोमेडर को इस महत्वपुर्ण कृति का पता तथा उनके सहयोगियो का प्रकृतिविज्ञान एवं प्राणी चला तो वे इसका अग्रेजो और जर्मनी मे अनुवाद करना विज्ञान के क्षेत्र दक्षता एव नैपुण्य और कोशल प्राप्त कर चाहते थे, पर वे प्रयम विश्वयुद्ध के दौरान गन् १९१४ लेना कोई आश्चर्य या विस्मय की बात न थी। यह तो में नजरबन्द कर लिए गये थे और दुर्भाग्यवश यह पुनीत भारतीय दासता थी जो अभिशाप बनी और उसने कार्य तब रुक गया, सन् १९२५ मे ग्रन्ध गर्वप्रथम देव- हमारे ज्ञान, कौशल, हस्त शिल्प नैपुण्य, दक्षता, वैज्ञानिक नागरी में प्रकाशित हुआ तथा सुन्दराचार्य ने इसका अग्रेजी प्रतिभा आदि सभी गुणो का ह्रास करा दिया और विदेशी अनुवाद किया जो सन् १९२७ में प्रकाशित हुआ, पर कहां लोग हमारी विशेषताओं को लेकर स्वय साधन सम्पन्न से? प्रकाशित कराया वह जानकारी उपलब्ध नही होती बनकर अपना प्रभुत्व एवं वर्चस्व दिखाने लगे । अस्तु"" है संभवत. "इन साइक्लोपीडिया ब्रिटानिया" में कुछ "मग पक्षी णास्त्र" जैसा महत्वपूर्ण ग्रंथ कैसे रचा जानकारी प्राप्त हो सके।
गया। इसकी अपनी ऐतिहासिक गाथा है, वह इस प्रकार ___ इस तरह के प्रयों की श्रेणी में "गवायुर्वेद," गज- है कि जिनपुर के महाराज श्री शौण्डदेव एक बार आवेट चिकित्सा अश्वचिकित्सा आदि प्रकरण आयुर्वेदिक ग्रंथो क्रीड़ा के लिए वन में गये और ढोल नगाड़े बजवाकर
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१७ कि..
हांका नयवाया जिससे वत के सारे पशु एक स्थल पर विशेषताबों का वर्णन किया है। कवि के अनुसार पशुएकत्रित हो गये । महाराज ने जब इस पशु समूह को देखा पक्षियों में रजो गुण और तमोगुण ही पाये जाते हैं। तो उनके मनोहारी सौन्दर्य से एकदम प्रभावित एवं सत्वगुणों का इनमें सर्वथा अभाव रहता है वह तो केवल आल्हादित हो उठे और मन ही मन सोचने लगे कि यदि मानव जगत में ही उपलब्ध होता है, उपर्युक्त गुणों में से आखेट द्वारा इस पशु सम्पदा को नष्ट कर दिया तो प्रत्येक गुण उत्तम, मध्यम और अधम के भेद से तीन-तीन हमारे सारे वन निर्जीव और शून्य हो जावेगें तथा उनकी भागों में विभाजित किया गया है। कवि के कथनानुसार प्राकृतिक आभा एवं सौन्दर्य नण्ट हो जावेगा तथा इनका सिंह, हाथी, घोड़ा, गाय, बैल, सारस, हंस, कोयल, कबूतर, विज्ञान सदा सदा के लिए लुप्त हो जावेमा और हम उससे आदि प्राणियों में उत्तम राजस गुण पाया जाता है । चीता, सदा के लिए बंचित हो जावेगें, प्रतः महाराज बिना बकरा, मग बाज आदि में मध्यम राजस तथा भालू, आखेट के ही राजमहल लौट आये तथा अपना दरबार भंसा, गैडा आदि मे अधम राजस गुण पाया जाता है। आयोजित किया और सभी पंडितों, विद्वानों एवं इसी तरह ऊंट, भेडिया, कुत्ता, मुर्गा आदि में उत्तम तामस शानियों से आग्रह किया कि प्रकृति जगत एवं प्राणी गीध, उल्ल, तीतर आदि में मध्यम तामस तथा गधा, विज्ञान की सुरक्षा के लिए वनवासी प्राणियों पर एक सुअर, बन्दर, स्यार, बिल्ली, चूहे, कौए आदि में अधम प्रामाणिक तथा विज्ञान सम्मत ग्रन्थ लिखा जावे जिससे तामस गूण पाया जाता है। प्राणीविज्ञान सदा सदा के लिए सुरक्षित रह सके और
आयु के विषय मे कवि का कहना है कि हाथी १०० बन्य पशुओं के साथ साथ मानव जगत का भी कल्याण हो।।
वर्ष, गैडा २२, ऊंट ६०, घोडा २५, सिंह, भैस, बैल, महाराज शौण्डदेव की अन्तर्व्यथा तथा प्राणी विज्ञान गाय आदि २० वर्ष, चीता १६ वर्ष, गधा १२ बंदर, एवं प्रकृति जगत की जिज्ञासा से उनके मंत्री ताराचन्द कुत्ता, सुअर, आदि १०, बकरा , हंस ७, मोर ३; जी विचलित हुए बिना न रह सके उन्होंने महाराज की चूहा और खरगोश डेढ वर्ष, तक की आयु प्राप्त करते हैं। अभिलाषा पूर्त्यर्थ विज्ञान की खोज की ओर महाराज से कवि ने शेरों के छ: भेद गिनाये हैं : १ सिंह, २ मृगेन्द्र, निवेदन किया कि अपनी नगरी मे जैन कवि पं. हंसदेवजी ३ पञ्चास्य, ४ हर्यक्ष, ५ केसरी, ६ हरि । इनके रूप, रंग, इस विज्ञान के महापंडित एवं कला पारायणी हैं। वे आप- आकार, प्रकार तथा कार्य आदि की भिन्नताएं भी बड़े की अभिलाषा पूर्ण कर सकते हैं; महाराज शौण्डदेव ने विस्तार से वणित की गई हैं। जब सिंह ३ या ७ वर्षे का तत्काल ही पं. हंसदेव जी को ससम्मान राजसभा में होता है। तो उसकी कामुकता बढ़ने लगती है। विशेषआमंत्रित कर अभिलाषा प्रकट की। प. हसदेव जी तया वर्षा ऋतु में वह बहुत कामुक हो जाता है। यह महाराज श्री का आग्रह न टाल सके और महाराज की पहले तो मादा को चाटकर, फिर पूंछ हिलाकर, फिर प्रसन्नता एवं अपने ज्ञान को अभिवृद्धि एव प्राणी विज्ञान कुद फांदकर, फिर जोर से गर्जना करके उसे अपनी ओर को चिरस्थायित्व देने के लिए उन्होने "मृगपक्षी शास्त्र' आकर्षित करने का भरपूर प्रयास करते हैं । इनका संभोग नामक प्रामाणिक एवं श्रेष्ठ वैज्ञानिक ग्रंथ की रचना की, काल अर्धरात्रि होता है। गर्भावस्था मे मादा सिंह के जो प्राणी विज्ञान के इतिहास में स्वर्णाक्षरों मे अंकनीय साथ ही घूमती फिरती तथा शिकार खोजती रहती है। है। साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व लिखा ऐसा अनूठा ग्रंथरत्न गर्भकाल मे मादा की भूख कम पड़ जाती है तथा शिथिअन्यत्र दुर्लभ है।
लता और कमजोरो सताने लगती है, धीरे धीरे प्रसव के इस प्रथ मे प्रमुख पशु पक्षियो के ३६ वर्ग है जिनमे नजदीक आते-आते शिकार से विमुख होने लगती है, वह रनके रूप, रंग, प्रकार स्वभाव, किशोरावस्था, संभोगकाल, ६ से १२ माह के बीच ५ बच्चो तक को जन्म देती है। गर्भकाल, प्रसूतकाल, भोजन, आयु आदि-आदि नाना इनका प्रसवकाल प्राय: बसन्त का अन्त या ग्रीष्म का
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प्रथम प्राणी विज्ञान (Zoology) विशेषज्ञ-अन कवि हसदेव आरम्भ काल होती है। यदि प्रसव शरद ऋतु में होता योनी प्राप्त होती है। पक्षी बड़े चतुर होते हैं अपने अण्डे है तो बच्चे दुर्बल और शक्ति हीन होते हैं। बच्चे ६-४ कब छोड़ना चाहिए इसका विस्मयकारी बोध इन्हें जन्म माह तक ही मां का दूध पीते है फिर गरज गरज कर से ही प्राप्त होता है, ये पक्षी घर और वन दोनों की ही शिकार की तलाश मे भागने दौड़ने लगते हैं, इन्हे चिकना शोभा है।
और कोमल मांस अधिक रुचिकर होता है। इनका किशोर काल २-३ वर्ष की आयु से प्रारभ होने लगता
इनसे प्यार करना भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है।
तोता, मैना, हंस, तीतर, बटेर आदि पक्षी अभी भी पाले है तथा तभी से इनके क्रोध की मात्रा भी बढ़ने लगती है।
जाते हैं। पक्षियों में सबसे अधिक चतुर कोयल होती ये लोग भूख सहन नहीं कर पाते हैं और पूर्णतया निर्भीक
है जो अपने बच्चो का पालन कोओं से करवाती है इसीहोते हैं । इसीलिये ये पशुओं के राजा कहलाते हैं।
लिए सस्कृत में कोयल को परभृत' शब्द से पुकारा जाता ग्रन्थ में प्रत्येक प्रकार के शेर की विभिन्न विशेष- है । ग्रन्य के इस भाग में हंस, चन्द्रवाक, सारस, गरुड़, ताओ का विस्तार से वर्णन किया गया है जैसे सिंह की काक, वक, शुक, मयूर, कपोत आदि अनेकों पक्षियों के गर्दन के बाल बड़े घने होते है । मुनह ना होता है पीछे नाना प्रकार भेद व वर्गों का वर्णन किया गया है, इनके की ओर कुछ कुछ सफेद होता हे और वे तीर की भांति सौन्दर्य और सुकुमारता का बड़ा ही मनोहारी एवं रोचक तेज दौड़ते है। परन्तु मगेन्द्र की गति गभीर और मद वर्णन दिया गया है। इसमे कुल २२५ पशु पक्षियों का होती हैं इसकी आखें सुनहली और मुझे बड़ी बड़ी लम्बी विवरण बडे विस्तार एव रोचकता से सटीक एव प्रामाणिक होती है इसके शरीर पर चकत्ते होते है। पचास्य उछल- ढ़ग से प्रस्तुत किया गया है जो विज्ञान की कसौटी पर उछल कर चलता है, इनकी जिह्वा बाहर लटकती रहती सर्वथा खरा उतरता है। पर खेद हैं कि इतने बड़े है, इन्हे नीद बहुत आती है हर समय ऊघते ही रहते है। वैज्ञानिक विद्वान कवि हंसदेव का विस्तृत जीवन परिचय हर्यक्ष को हर समय पसीना ही आता रहता है। केसरी
हमे उपलब्ध नही हो पा रहा है। कृपालु पाठकों से का रंग लाल होता है जिसमे धारियो पड़ी रहती है।
है निवेदन है कि जिन्हे इस सबंध मे जो भी जानकारी हरि का शरीर छोटा होता है। इसी तरह और भी अन्य
उपलब्ध हो उसे पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करावें तथा पशु, पक्षी, हाथी, घोडे, गाय, बैल, बकरे, गधे, कुत्ते, मुझ भी निम्न पते पर सूचित कर कृतार्थ करे । इत्यल बिल्ली, चहे आदि के अनेको भेद वर्ग तथा विशेषताए इस लेख के लिए अक्तूबर १९८१की सरस्वती पत्रिका का दर्शापी गई है। कवि ने परि समापन करते हुए लिखा है उपयोग किया गया है एतदर्थ कृतज्ञता एवं आभार कि इन पशु पक्षियों की रक्षा से मनुष्य को बड़ा लाभ प्रदर्शित करता है। तथा पुण्य प्राप्ति होती है और ये प्राणी मनुष्य को नाना तरीको से सहायता एवं मदद करते हैं ।
"श्रुत कुटीर"
६८, कुन्ती मार्ग विश्वास नगर अथ का दूसरा भाग पक्षियो से सम्बन्धित है जो
शाहदरा दिल्ली-११००३२ अण्डज कहलाते हैं । जो उन्हें अपने कर्मानुसार यह अण्डज
१५ जुलाई २४
'कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्म चावि जारणह सुसोलं। सीलं जं संसारं पवेसेदि ॥'
कुन्दकुन्दाचार्य
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भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव
श्री प्रायिका ज्ञानमती माताजी
दिगम्बर जैन पाम्नाय में श्री कुन्दकुन्दचार्य का नाम का साथ साथ कथन किया है। जहां वे व्यवहार को हेय श्री गणधर देव के पश्चात् लिया जाता है । अर्थात् गणधर बताते हैं वहां उसकी कथचित् उपादेयता बताये बिना नहीं देव के समान ही इनका आदर किया जाता है और इन्हें रहते । क्या ही अच्छा हो कि अज्ञानी जन उनके शास्त्रों अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है । यथा
को पढकर संकुचित एकांतदृष्टि अपनाने के बजाय व्यापक मंगलं भगवान वीरो, मगलं गोतमो गणी।
अनेकांत दृष्टि अपनायें।" मंगलं कुन्दकुन्दायों, जैनधर्मोऽस्तु मगलम् ।।
यहां पर उनके नाम, उनका श्वेताम्बरों के साथ यह मंगल श्लोक शास्त्र स्वाध्याय के प्रारम्भ मे तथा वाद, विदेहगमन, ऋद्धि प्राप्ति, उनकी रचनाये, उनके गुरु, दीपावली के वही पूजन व विवाह आदि क मगल प्रसग उनका जन्म स्थान और उनका समय इन आठ विषयों पर भी लिखा जाता है। ऐसे आचार्य के विषय मे जैनेन्द्र- का किंचित् दिग्दर्शन कराया जाता है। सिद्धांत कोश के लेखक लिखते हैं
१. नाम-मूलनदि संघ की पट्टावली में पांच नामों आप अत्यन्त बीतरागी तथा अध्यात्मवृत्ति के साधु का उल्लेख हैथे। आप अध्यात्म विषय मे इतने गहरे उतर चुके थे कि आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । आपके एक-एक शब्द की गहनता को स्पर्श करना आज के एलाचार्यों गृद्धपिच्छः पद्मनदीति तन्नुतिः ॥ तुच्छ बुद्धि व्यक्तियों की शक्ति के बाहर है। आपके कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव एलाचार्य गृच्छपिच्छ और पद्मनंदि। अनेको नाम प्रसिद्ध है। तथा आपके जीवन मे कुछ मोक्ष पाहड़ की टीका समाप्ति मे भी ये पांच नाम दिये ऋद्धियों व चमत्कारिक घटनाओं का भी उल्लेख मिलता गये हैं तथा देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य आदि ने भी इन्हे है। अध्यात्मप्रधानी होने पर भी आप सर्व विषयो के पचनदी नाम से कहा है। इनके नामो की सार्थकता के पारगामी थे और इसीलिए आपने सर्व विषयो पर ग्रन्थ विषय मे १० जिनदास फडकुते ने मूलाचार की प्रस्तावना रचे हैं। आज के कुछ विद्वान इनके सम्बन्ध में कल्पना मे कहा है-इनका कुन्दकुन्द यह नाम कौण्डकुण्ड नगर करते हैं कि इन्हें करणानुयोग व गणित आदि विषयों का के निवासी होने से प्रसिद्ध है। इनका दीक्षा नाम पमनदी ज्ञान न था, पर ऐसा मानना उनका भ्रम है क्योकि है। विदेह क्षेत्र में मनुष्यों की ऊंचाई ५०० धनुष और करणानुयोग के मूलभुत व सर्व प्रथम,अन्य षट्खंडागम इनको वहाँ पर साढ़े तीन हाथ होने से इन्हें सम शरण पर आपने एक परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, यह बात मे चक्रवर्ती ने अपनी हथेली में रखकर पूछा प्रभो-नराकृति सिद्ध हो चुकी है। यह टीका आज उपलब्ध नहीं है। का यह प्राणी कोन है। भगवान ने कहा भरतक्षेत्र के यह
इनके आध्यात्मिक ग्रन्थों को पढ़कर अज्ञानी जन चारण ऋद्धिधारक महातपस्वी पचनदी नामक मुनि है उनके अभिप्राय की गहनता को स्पर्श न करने के कारण इत्यादि । इसलिए उन्होने उनका एलाचार्य नाम रख अपने को एक दम शुख बुद्ध व जीवन्मुक्त मानकर दिया। विदेह क्षेत्र से लौटते समग उनकी पिच्छी गिर स्वच्छन्दाचारी बन जाते हैं, परन्तु वे स्वयं महान चारित्र- जाने से गृपिच्छ लेना पड़ा, अतः "गुपिच्छ" कहाये । बान् थे। भले ही अज्ञानी जगत उन्हें न देख सक, पर और अकाल में स्वाध्याय करन स इनकी ग्रीवा टेढ़ी होई उन्होंने अपने शास्त्रों में सर्वत्र व्यवहारलयब निश्चयनयो तब ये वक्रग्रीव कहलाये । पुन. सुकाल में स्वाध्याय से ग्रीवा
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भगवान श्री कुन्कुन्द देव
ठीक हो गई थी।" इत्यादि ।
२. श्वेताम्बरों के साथ वाद गुर्वावली में स्पष्ट हैपद्मनदी गुरुजनो वलात्कारगणाग्रणीः,
पाषाणघटिता येन वादिता श्री सरस्वती । उज्जयतगिरी तेन गच्छ. सारस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनदिने । " बलात्कार गणाग्रणी श्री पद्मनंदी गुरू हुये जिन्होंने ऊर्जयत गिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की मूर्ति की बुलवा दिया था। उससे सारस्वत गच्छ हुआ, अतः उन पद्मनी मुनीन्द्र को नमस्कार हो । पाडवपुराण मे भी कहा है।
कुन्दकुन्दगणी येनोर्ज्जतगिरिमस्तके,
सो अदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिका कलौ ॥ जिन्होंने कलिकाल में ऊर्जयत गिरि के मस्तक पर पाषाणनिर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा लिया | कवि वृन्दावन ने भी कहा है
संघ सहित श्री कुन्दकुन्द, गुरु बबन हेतु गये गिरनार । बाद पर्यो तह सशयमति सो,
साक्षी बदी अविकाकार | "सत्यपंथनिर्ग्रथ दिगम्बर",
कही सुरी तहं प्रकट पुकार । सो गुरुदेव वसौ उर मेरे,
विधन हरण मंगल करतार | अर्थात् श्वेताम्बर सघ ने वहां पर पहले बदना करने का हठ किया तब निर्णय यह हुआ कि जो प्राचीन सत्यपथ के हों वे ही पहले बन्दना करें। तब श्री कुन्दकुन्द देव ने ब्राह्मी की मूर्ति से कहलवा दिया कि सत्यपंथनिर्ग्रथ दिगम्बर" ऐसी प्रसिद्धि है ।
जानते । पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसे राचार्य ने भी कहा है प्रसिद्ध कथान्यायेन पूर्वविदेह गत्वावीतरागसर्वशसीमंधर स्वामितीर्थकर परमदेवं दृष्: वा च तन्मुखकमलविनिगं दिव्यवर्णं .... पुरण्यागतः श्री कुन्द कुन्दाचार्यदेवं ।" श्री श्रुसाग सूरि ने भी षटप्र भू की प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में "पूर्वविदेह पुडी केणी नगरवंदित सीमंधरापर-नामक स्ववनगजिनेन तच्छ्रुतबोधित भारतवर्ष भव्यजनेन ।" इत्यादि रूप से विदेहगमन की बात स्पष्ट कही है।
४. ऋद्धिप्राप्ति श्री ननिन्द्र योतिषाचार्य ने "तीर्थकर महावीर और उनकी आवार्य परम्परा नामक पुस्तक ४ भाग के अन्त मे बहुत सी प्रशस्तियां दी हैं । उनमे देखिये ।
जर पउमणदिणाहो सीमंधरसामिदिग्वणाणेन ।
ण विवोह तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति । ४३ । यदि श्री पद्मनंदिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को कैसे
श्री पद्मनदीत्यनवद्यनामा |
हयाचार्य शब्दोत्तर कौण्ड कुन्दः । " द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र संजातसुचारणद्धिः । "यो विभुर्भुवि न करिह कौण्डकुन्दः, कुन्दप्रभा-प्रणयि कीर्तिविभूषिताशः । भश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीकश्चक्रे - श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् । " श्रीकोण्ड कुन्दादिमुनीश्च राख्यस्सत्वं य--. मादुद्गतचा रणद्धि: । ....... चारित्र संजातसुचारणद्धि. ' । "तद्वशाकाशदिनमणिसीमधर वचनामृतपानसतुष्टचित्त श्री कुन्दकुन्दाचार्यणाम्' ।
इन पांचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारण सिद्धि का कथन है । तथा जैनेद्रसिद्धांत कोश में-२ शिलालेख नं० ६२.६४, ६६, ६७, २५४, २६१, पृ० २६३-२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त
३. विदेह गमन – देवसेनकृत दर्शन सार ग्रन्थ सभी सभी लेखों से यही घोषित होता है । को प्रमाणिक है। उसमें लिखा है
४ - जैन शिलालेख संग्रह। पृ० १६७-१९८ " रजो मिरस्पष्टतमत्वमन्तर्वाह्मापि संव्यंजयितुं यतीशः । रज पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतु रंगुल सः ।
यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रजः स्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊंचे आकाश में चलते थे।
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१०, ३७, कि
उसके द्वारा मैं यों समझता है कि वह अन्दर में और बाहर
गुरुपरिपाट्या ज्ञातः में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करता हुआ।
सिद्धांत: कोण्ड कुन्तपुरे ॥ "हल्ली नं० २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के
श्री पप्रनंदिमुनिना सोबपि पाषाण पर लेख-स्वस्ति श्री बद्धमानस्य शासने । श्री
द्वादशसहस्रपरिमाण।
ग्रंथपरिकर्मकर्ता कुन्दकुन्दनामाभूत् चतुरंगुलचारणे।" श्री बर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल
षट्खडाद्यत्रिखडस्य ॥ ऊपर चलते थे।
इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान प० प्रा० । मो० प्रशस्ति । पू० ३७६ "नामपंचक
को प्राप्त करके गुरू परिपाटी से आये हुए सिद्धांत को
जानकर श्री पननंदि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में विराजितेन चतुरंगुलाकाशगम द्धता नाम पंचक विरा
१२००० श्लोक प्रमाण परिकर्मनाम षट्खंडागम के प्रथम जित। श्री कुन्दकु-दाचार्य। ने चतुरंगुल आकाश गमन
तीन खंडो की व्याख्या की। इनकी प्रधान रचनायें ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुडरीकिणी नगर में स्थित श्री
निम्न है। सीमंधर प्रभु की बंबना की थी।"
ट्खंडागम के प्रथम तीन खडों पर परिकर्म नाम की भद्रबाहु चरित में राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नो
टीका-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहड़, पंचाका फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि "पंचमकाल में
स्तिकाय, रयणसार, इत्यादि ८४ पाहुड़, मूलाचार, देश
न चारण आदि शक्तियां प्राप्त नही होती अत. यहा
ह' भक्ति, कुरलकाव्य । शका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि निषेध कथन
इन ग्रथों मे रयणसार श्रावक व मुनिधर्म दोनों का सामान्य समझना च.हिये। इसका अभिप्राय यही है कि
का प्रतिपादान करता है । मूलाचार मुनि धर्म का वर्णन पंचम काल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, तथा पचम
करता है। अष्टपाहुड के चारित्रपाहड़ में संक्षेप से श्रावक काल के आरम्भ मे नही है आगे अभाव है ऐसा भी अर्थ
धर्म वणित है। कुरलकाव्य नीति का अनूठा ग्रन्थ है। समझा जा सकता है। यही बात पं० जिनराज फडकुले ने और परिकर्म टीका में सिद्धांत कथन होगा। दश भक्तियों, भूलाचार की प्र० मे कही है।
में सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत ये तो हुई इनके मुनि जीवन की विशेषताये, अब आप
उदाहरण है। शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सरागचरित्र इनके प्रयों को देखिये
और निर्विकल्पक समाधिरूप बीतरागचारित्र के प्रति५. अथ रचनायें-कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार पादक हैं। आदि ८४ पाहुड़ रचे, जिनमे १२ पाहुड़ ही उपलब्ध है। ६. गुरू-गुरूके विषय मे कुछ मतभेद हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में सर्व विद्वान एकमत है। परन्तु इन्होंने ऐसा प्रतीत होता है कि श्री भद्रबाह श्रुतकेवली इनके षटखंडागम ग्रंथ के प्रथम तीन खंडों पर भी १२००० परम्परा गुरू थे। कुमारनंदि आचार्य शिक्षागुरू हो श्लोक प्रमाण "परिकर्म" नाम की टीका लिखी था, ऐसा
सकते हैं। किन्तु प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दीक्षा
पहले। श्रुतावतार में इन्द्रनंदि आचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है।
॥ है गुरु "श्री जिनचन्द्र आचार्य थे। इस ग्रंय का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि ।
७. जन्म स्थान-इसमे भी मदभेद है-जेनेन्द्र सि० इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय
कोश में कहा हैकरने में सहायता मिलती है।
"करनकाय । प्र०२१ . गोविन्दराय शास्त्री" एवं विविधो द्रव्य
"दक्षिणोदेशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्म सीत । एलाचार्यों भावपुस्तकगतः समागच्छत् । नाम्नो द्रविड़ गणाधीश्वरो धीमान् ।" यह श्लोक हस्त
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लिखित मंत्र ग्रन्थ में से लेकर लिखा गया है जिससे शात इनके साधु जीवन का बहुमाग लेबन कार्य में ही बीता है, होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रान्त और लेखन कार्य जंगल में विचरण करते हुये मुनि कर में हेमग्राम के निवासी थे। और द्रविड़संघ के अधिपति नहीं सकते । बरसात, आंधी, पानी, हवा आदि में लिखें थे। मद्रास प्रेजीडेन्सी के मलया प्रदेश में "पोन्नूगाँव" को गये पेजों की या ताड़पत्रों की सुरक्षा असंभव है। इससे ही प्राचीनकाल में हेमग्राम कहते थे, और संभवतः वहीं यही निर्णय होता है कि ये आचार्य मन्दिर, मठ, धर्मशाला, कुन्दकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरी पहाड़ पर श्री बसतिका आदि स्थानों पर ही रहते होंगे। एलाचार्य की चरणपादुका बनी हुई है। पं० नेमिचन्द्र
कुछ लोग कह देते हैं कि कुन्दकुन्ददेव अकेले ही जी भी लिखते हैं-"कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के संबंध
य के संबंध आचार्य थे। यह बात भी निराधार है, पहले तो वे संघ में विद्वानों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है....."कि
नायक महान आचार्य गिरनार पर्वत पर संघ सहित ही ये दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता का नाम
पहुंचे थे। दूसरी बात गुवांबली" में श्री गुप्तिगुप्त, भद्रकर्मण्ड और माता का नाम श्रीमती था। इनका जन्म
बाहु आदि से लेकर १०२ आचार्यों की पट्टावली दी है। "कोण्डकुन्दपुर" नामक ग्राम में हुआ था। इस गांव का
• उसमें इन्हें पांचवे पट्ट पर लिया है। यथा-१. श्री दूसरा नाम "कुरमरई" भी कहा गया है यह स्थान पेदध
गुप्तिगुप्त, २. भद्रबाहु, ३. माघनंदी, ४. जिनचन्द्र, ५. नाडु" नामक जिले में है।"
कुन्दकन्द, ६. उमास्वामि आदि । इससे स्पष्ट है कि ६. समय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मतभेद ।
जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया, पश्चात् इन्होंने है। फिर भी डा० ए० एन० उपाध्याय ने इनको ६० सन
उमास्वामि को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात प्रथम शताब्दी का माना है। कुछ भी हो ये आचार्य श्री
नंदिसंधि की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है। भद्रबाहु आचार्य के अनंतर ही हुये हैं यह निश्चित है क्यों
यथा-"४". जिनचन्द्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमा कि इन्होंने प्रवचनसार और अष्टपाड़ में सवस्त्रमुक्ति स्वामि ।" इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान और स्त्रीमुक्ति का अच्छा खंडन किया है।
संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने नंदिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकन्द वि० स्वयं अपने "मूलाचार" में "माभूद मेसत्तु-एगागी" मेरा सं०४६ मे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। ४४ वर्ष की शत्रु भी एकाकी न रहे" ऐसा कहकर पंचम काल में अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने एकाकी रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है। इनके तक वे उस पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी कुल आयु ९५ वर्ष आदर्श जीवन, उपदेश व आदेश से आज के आत्म हितषियों १० महीने १५ दिन की थी।"
को अपना श्रद्धान व जीवन उज्जवल बनाना चाहिए ऐसे आपने आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव का संक्षिप्त जीवन महान जिनधर्म प्रभावक पराम्पराचार्य भगवान श्री कुन्दपरिचय देखा है। इन्होंने अपने साधु जीवन में जितने कृन्ददेव के चरणों में मेरा शत-शत नमोऽस्तु । ग्रंथ लिखे है, उससे सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि
सन्दर्भ-सूचा १. जेनेन्द्रसितांत कोश भाग २, पृ० १२६
७. जैनेन्द्र सि.को. भा०२१०१२७ । २. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा पु० ८. जैनेन्द्र सि.को.१० १२८ । ३६८ ।
६. जै. सि.क.पृ० ३. पुस्तक बही पृ० ३७४ ।
१०. तीर्थकर महावीर पृ० १०१। ४. पु. वही पृ० ३८३ ।
११. जैनधर्म का प्राची इतिहास भाग २ पृ० ८५ । ५. पु. वही ३८७ ।
१२. "तीर्थकर महावीर..." पृ० ३६३ । ६. पु. वही पृ० ४०४ ।
१६. "तीर्थकर"पु०४१।
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संस्कृत त्रिसंधान ( देवशास्त्र गुरु) पूजा
प्रसिद्ध कटारिया ट्रान्सपोर्ट कम्पनी के संस्थापक हमारे चचेरे भाई बाबू सोभागमलजी कटारिया केकड़ी निवासी ( अहमदाबाद प्रवासी) का विवाह १६.२.५१ को हुआ था। बारात बसवा ग्राम गई थी वहां का दि० जैन शास्त्र भंडार पुराना है। वहां से हमारे पूज्य पिता जी और पं० दीपचन्द जी पाण्डया ३ प्राचीन हस्त लिखित गुटके लाये थे उनमें से एक गुटका वि० स० १५६३ का है उसमें ६० पत्र हैं। जिनमें संस्कृत - प्राकृत की अनेक रचनायें हैं जो प्राथ. शुद्ध हैं। इनमें संस्कृत "त्रिसंघान-पूजा" भी है, यह वही पूजा है जो आजकल देवशास्त्र गुरु पूजा (संस्कृत) के नाम से प्रसिद्ध है । इस 'त्रिसंघान-पूजा' में सात द्रव्य चढाने पर्यन्त प्रचलित पद्धति से मात्र इतना अन्तर है कि प्रचलित पद्धति में जहाँ देव शास्त्र गुरु की स्थापना का पृथक्-पृथक् निर्देश है वहां इसमें पृथक-पृथक पुष्पांजलि क्षेपण कर क्रमश: देव शास्त्र और गुरु की पूजा-प्रतिज्ञा की गई है। इसमे अर्ध का छन्द नही दिया गया है और ना ही अर्ध का विधान है। इससे आगे 'ऋषमोऽजित नामा शांति कुर्वन्तु शाश्वती' पर्यन्त पाठ है और उसके
बाद
अथ सिद्धभक्ति - कायोत्सर्गं करोम्यहं ॥
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहूण ॥ तावकायं पावकम्म दुच्चरिय मिच्छात्त वोस्सरामि । जय नमोऽस्तु ते अर्हन् ॥ अत्र जाप्य उच्छ्वास २७ दत्वा थोस्सामित्यादि सिद्धासिद्धिमम दिसतु ॥
जयमंगल भूयाण, विमलाण णाणदंसणमयाण । तइ लोयसेहराणं, णमो मया सम्वसिद्धाण || १॥ तत्र सिद्धेणयसिद्धे, सजमसिद्धे चरित्रसिद्धेय । जाणम्मिय, सिद्धे सिरसा णमंसामि ॥ २ । सम्मत्तणाण दसण, वीरिय सुहम तहेब अवगहण । अगुरुलहु मव्यवाहं, अट्ठ गुणा होंति सिद्धाणं ॥ ३ ॥ are श्रुतज्ञानभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं ॥
D पं० श्री रतनलाल कटारिया
अर्हद् वक्त्रप्रसूतं, गणधररचितं द्वादशांगं विशालं । चित्रं ब्रह्वर्थं युक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः ॥ मोक्षाग्रद्वारमृतं व्रतचरणफलं शेयभावप्रदीपं । भक्त्या नित्यं प्रबंदे, श्रुतमहमा खिलं सर्वलोकंकसारं ॥ १ ॥ जिनेन्द्र वक्त्र प्रतिनिर्गतवचो यतीन्द्रभूतिप्रमुर्खगंणाधिपैः । श्रुतं घृततैश्चपुनः प्रकाशितं द्वि षटप्रकारं प्रणमाम्यहश्रुतं २ कोटीश द्वादशचैव कोटयो, लक्षाण्यशीतिस्त्रयधिकानिचैव । पवाशद्ष्टौ च सहस्रसंख्यमेतत् श्रुत पंचपदं नमामि ॥ ३ ॥ अरहंत भासियत्थ, गणहर देवेहिं गथियं सम्मं । पणमामि भतिजुत्तों सुयणाणमहोबहि सिरसा ॥४॥ अथ आचार्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं ॥
ये नित्यं व्रतमंत्र होमनिरता, घ्यानाग्नि होत्राकुलाः । षट्कर्मामिरता स्तपोधनघनाः, साधुक्रिया साधनः ॥ शील प्रावरणाः गुणप्रहरणश्चन्द्रार्कतेजोऽधिकाः । मोक्षद्वार कपाटपाटनभटाः प्रीणन्तु मां साधवः ॥ १ ॥
गुरवः पान्तु वो नित्यं ज्ञानदर्शननायकाः । चारित्रार्णव गंभीराः, मोक्षमार्गोपदेशकाः ॥२॥ छत्तीसगुण समग्गे, पंचविहाचारकरण संदरिसे । सिस्सानुग्रह कुसले, धम्म । इरिए सदावंदे ||३॥ गुरुभत्ति संजमेण य तरंति ससार सायरं घोर । छिति अट्ठकम्मं, जम्ममरण न पार्वति ॥४॥ वउतव सजम् णियमतुणु, सीलु समुज्जलु जासु । सो
'बुच्चइ परमायरिङ, वदण किज्जइ तासु ||५|| नवकोडितिहिऊणियह, एत्तिउ मुणिहि पवाणु । तिरयणसुद्धा जेणवहि, ते प. वहिणिवाणु ॥६॥ मूलगुर्णाह जे सजुदा, उत्तरगुणाहि विशाल । ते हउ चंदाउ आयरिय, तिहुबण तिष्णि वि काल ॥७॥ अट्ठ दी सत्तता छन्नव मज्झम्मि संजदा सब्वे । अंजलि मउलिय हत्थो, तिरयण सुद्धि नम॑सामि || || fग गिरि सिहरत्या, बरिसाले रुक्यमूल रमणीरा । सिसिरे बाहिर सयणा, ते साहू बंदिमो णिज्वं ॥९॥
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संस्कृत त्रिसंधान (अवशाल गुर) पूजा गिरिकंदर दुर्गेषु ये वसंति दिगेबुराः।
यतीन् यजेह" इसी को व्यक्त करता है। इन्हीं के वाधार पाणिपात्र पुराहारा स्त: याति परमा गतिम् ॥१०॥ पर सुगमता की दृष्टि से लोगों ने इस पूजा का नाम "देव ॐ राकाकारं ज्ञानरस प्रारभार सुनिर्भर विश्वं विश्वाकारो शास्त्र गुरु पूजा" रख लिया है किन्तु कविकृत नाम तो ल्सास लब्धवैश्य मगाधगभीरं अहंदेवं देवतदेवानामधि- 'त्रिसंधान पूजा' ही है। प्रमाण के लिए इस पुवा का देवय मेकं सम्यग्भक्तया सम्यग्संप्रति सर्वारंभभरेण नवमां श्लोक देखिए उसमें स्पष्ट लिखा है-"त्रिसंधान यजेहूं।
विचित्र काव्य रचना मुच्चार यंतो नराः"। किसी को स्वास्ति भगवते, सहज ज्योतिष स्वस्ति, स्वास्ति या त्रिसंधान का अर्थ समझ में न आने से इसकी जगह सहजानंदाय, अहंद्देवाय स्वास्ति ॥
'संध्यं, पाठ कर दिया है किन्तु इस छंद के प्रत्येक परण मरगय पवाल जडियं, हीरामणि विविह रयण बन्नढं ।
में १९ अक्षर होते हैं जबकि ऐसा करने से १८ ही रह गये अवहरउ सयल दुरियं, जिणस्स आरत्तियं जयउ ॥१॥
तो विचित्र की जगह सुविचित्र कर दिया लेकिन सुपद नित्यं श्री शांतिनाथस्य सौधर्मेन्द्रो जिनालये ।
यहां बेकार और स्वयं में विचित्र है। इसके सिवा संस्कृत कुत्वा मणिमये पात्रे, कुर्वन्ते मंगला तिकम् ॥२॥
व्याकरण से त्रसंध्यं रूप कभी नहीं बनता। तिसृणां संध्यानां दिप्पन्ति कणयपत्ती, मणहर दिप्पंति रमणपज्जलियं ।
समाहारः-त्रिसंध्यं ही बनता है। उदाहरण के लिए रत्न आरत्तियं पयासइ, अमरिन्दो जिणवरिन्दस्स ॥३॥
करंड श्रावकाचार का श्लोक नं. १३४ देखिये-त्रियोग आरत्तिउ पिक्खउ भवियणउ, सुरवइ करपज्जलउ,
शुद्ध स्त्रिसंध्यमभिबंदी॥ रिसह जिणिदउ उत्तरइ, भुवणुज्जोउ करंतु ॥४॥
अन्त में भी इति त्रिसंधान-पूजा नाम दिया है। त्रि. भुवणज्जोउ करतु अमरमाणिणि णच्चन्तहं ।
संधान का अर्थ होता है तीन का मेल । इस पूजा में जो फणवइ इन्द नरिद चंद खयरिन्द णमन्तहं ॥५॥
आठ द्रव्यों के ८ श्लोक दिये हैं वे प्रत्येक, देव शास्त्र गुरु सुरवईकर पज्जलउ मिलिउ जहि मुणिगण भत्तउ । तीनों पर सार्थक होते हैं यहां एक तीर से तीन निशाने कुमइतिमिर णिद्दलणु, भविय पिरवहु भारजिउ ॥६॥
साधे गए हैं । ऐसी शैली धनंजयकृत विसंधान महाकाव्य में दीवावलि पज्जलिय लुढिय सुरबइकय हन्थिह। देखी जा सकती है जहां प्रत्येक श्लोक में रामायण और मणिमइ भायानिरिय फुरिय दोहर सुपमन्थिहं ॥७॥
महाभारत दोनों एक साथ चलते हैं। इसी प्रकार की रचसहसणयगु विहसन्त वयण जिणवरि उत्तारइ।
नाएं 'सप्तसंघान' महाकाव्य और 'चतुर्विशति-संधान' निय भव भवकय रयतमोहु दूर उस्मारइ ।।८।।
आदि हैं। इह आरत्तिउ तिहुवणगुरहू सव्वदिट्ठि समभायणु ।
२--इस पूजा के अष्ट द्रव्य श्लोकों को हिन्दी अर्थ परिभमइ भरमइ सिद्ध कम्मइ णमेरुहितारायणु ॥६॥ रूप मे पं० थानत राय जी ने देव शास्त्र गुरु पूजा और भवणालइ चालीसा विन्तर देवाण होति बत्तीसा ।
बीस बिहरमान पूजा में इसी संधान शैली से अपनाया है कप्पामर चउवीसा चंदो सूरो णरो तिरियउ॥१०॥ उदाहरण के तौर पर देखिये-'जलद्रव्य' ॥इति त्रिसंधान पूजा समाप्ता॥
देवेन्द्र नागेन्द्रनगेन्द्र बंदयान् शुभत्पदान शोभित सारवान् । इस पूजा में मुझे क्या क्या विशेषताए देखने में आई दुग्धाब्धि संस्पद्धि गणलो जिनेन्द्र सिद्धांत यतीन्यजेऽहं हैं वे नीचे व्यक्त की जाती है :
१॥ त्रिसंधान पूजा १-इस पूजा का नाम रचनाकार ने 'देव शास्त्रगुरु सुरपति उरग नर नाथ तिनकर वंदनीक सुपदप्रमा, पूजा' म देकर 'त्रिसंधान पूजा ही दिया है। वैसे त्रिसंधान अति शोभनीक सुवर्ण उज्जवल देख छवि मोहित सभा। का आशय यहां देवशास्त्र गुरु से ही है। प्रारम्भ में पूजन वरनीरक्षीर ममुद्र घटभरि, अग्रतसु बहुविधि नचू । प्रतिज्ञा के श्लोकों में भी देवशास्त्र गुरु का ही उल्लेख है, अरिहंतश्रुत सिद्धांत गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचू ॥१॥ देव, अष्ट द्रव्य के श्लोको मे भी चौथा चरण "जिनेन्द्र सिद्धांत
शास्त्र गुरु पूजा (हिन्दी)
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इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र बंच पद निर्मलधारी, शोमनीकं संसार ४-इसमें 'बिनाने परिपुष्पांजलि क्षिपेत-इति जिन
सार गुण हैं अविकारी। पूजन प्रतिज्ञा "ऐसा जो लिखा है इसका तात्पर्य तिमा क्षीरोदधि समनीर सों पूजों तृषा निवार, (सीमंधर जिन क्रिया को अभिव्यक्त करने के लिए पुष्पोपण बताया है। बादि देबीस विदेह मंझार ॥१॥ बीस बिहरमान पूजा अनेक जगह पूजापाठ आदि में जो पुष्पक्षेपण का उल्लेख
इसी प्रकार से बाठों द्रव्यों के श्लोक हैं जिन्हें यहां आता है वह इसलिए कि वह इसी तरह किसी क्रिया की संस्कृत अर्थ न माता हो वे इन हिन्दी पूजाओं से सरलता अभिव्यक्ति के लिए हैं पुष्पक्षेपण व्यर्थ में नहीं समझना के साथ उसे लगा सकते हैं।
चाहिये। ३-इस संस्कृत पूजा में आह्वानन, स्थापन, सन्निधि- ५-इस संस्कृत पूजा में-जल द्रव्य की बजाय करण ये ३ उपचार मंत्र नही दिये हैं जबकि वे आजकल "जल-धारा" शब्द का प्रयोग किया है। अनेक पूजामों में बड़ा लिए गए हैं लेकिन ये कविकृत नहीं हैं। इन उपचारों भी ऐसे पाठ पाये जाते हैं। नन्दीश्वर पूजा में ही देखो का प्रयोग प्राचीन अनेक पूजाओं में नहीं पाया जाता। ये "तिहुं धार दई निरबार जामन मरन जरा" इसमें जन्म उपचार पहिले मांत्रिक लोग सिद्धि में देव-देवियों के लिए जरा, मरण के निवारण रूप में तीन जलधारा देना प्रयुक्त करते थे। अरहंतादि की पूजा में इनका प्रयोग बताया है (यह जल द्रव्य का पक्ष है) इससे एक प्राचीन नहीं था इसी से यशस्तिलक चम्मू और पपनंदि पंचविंश- विधि का समीकरण होता है जैसा कि तिलोय पण्णत्ती तिका पूजा पाठों में भी इनका प्रयोग नहीं है। इस ।
गाथा १०४ अधिकार ५ तथा जंबू दीप पण्णजी गापा ११५ विषय में नरेन्द्र सेन कृत प्रतिष्ठा दीपक में लिखा है
उद्देश ५ में जलद्रव्य को स्पष्ट अभिषेक रूप में ही बताया साकारादि निराकारा स्थापना द्विविधा मता।
है, अलग जलाभिषेक नही बताया है। अक्षतादि निराकारा, साकारा प्रतिमादिषु ॥
६-इसमें अक्षत द्रव्य को पुष्प के पहिले न देकर श्रद्धाधन प्रतिष्ठानं, सन्निधिकरणं तपा।
पुष्प द्रव्य के बाद में दिया है। इस गुटके में नन्दीश्वर पूजा
श्रत पूजा, सिद्ध पूजा भी दी हैं जिनमें भी इसी क्रम को पूजा विसर्जनं चेति, निराकारे भवेदिति ॥६१।।
अपनाया है ऐसा क्यों किया है ? विद्वान विचार करें। साकारे जिनविम्बे स्यादेक एवोपचारकः ।
कवि लोग लीक पर नहीं चलते युक्तिबल से अनेक नई स चाष्ट विध एवोक्तं जलगंधाक्षतादिभिः ॥६॥
ईजाद करते रहते हैं जैसे यशस्तिलक चंपू में सोमदेव सूरि साकार, निराकार दो प्रकार की स्थापना है, प्रतिमा
ने पंच पापों मे झूठ को चोरी के बाद दिया है कथा भी मे साकार होती है अक्षतादि में निराकार । श्रद्धान, स्थापन
इसी क्रम से दी है। सन्निधिकरण, पूजन, विसर्जन ये पांचोपचार निराकार मे
७-इस पूजा में आठ द्रव्यों को चढ़ाने का कोई मंत्र होते हैं साकार में एक अष्टद्रव्य पूजन उपचार ही
या फल निरुपित नही किया है जैसा कि आज कल प्रचलित होता है।
है :"ओं ह्री देवशास्त्र गुरुभ्यः क्षुधा रोग विनाशनाय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में तिलकदान मुख्य विधि है
यामीति स्वाहा" आदि इस विधि में जाह्वाननादिमन्त्रों (उपचारों) का प्रयोग कर
-इस पूजा में आजकल जो कही कही कुछ अशुद्ध भगवान की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है । सूरिमत्र पाठ प्रचलित हैं और जिनसे संगत अर्थ नहीं बैठता उनकी (सूर्य-गायत्रीमंत्र) बाद के हैं । आजकल की हमारी समस्त
स्त जगह शुद्ध पाठ बिए हैं । यथापूजा विधि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का ही सक्षिप्त रूप है
श्लोक नं. प्रचलित अशुद्ध इस पूजा का पाठ शायद इसी के बाद में इसमें ये उपचार भी सम्मिलित हो गए हों। शास्त्रों में इस हुंडावसर्पिणीकाल में असद्भाव १ करालीढ़कण्ठ करालीढ कण्ठः (निराकार) स्थापना का निषेध भी पाया जाता है।
श्री सत्कांति श्री सत्कांत
पाठ
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संस्कृत त्रिसंधान (देवशास्त्र गुरु) पूर्वा
प्रभातकृते प्रभाकर ते में राजकीति और तपोभूषण इन दो साथी मुनियों का
प्रतिष्ठस्य प्रतिष्ठस्या उल्लेख किया है किन्तु रचनाकार का वहाँ भी नाम नही पुष्प ३ वर्यान् सुचर्या- वर्यचर्या दिया है। चर्चासागर में पांडे चम्पा लाल जी ने इस पूजा
कपनक धुर्यान् कथने सुधुर्यान् के कर्ता श्री नरेन्द्र सेनाचार्य बताये है। एक पं० नरेन्द्रसेन फल मनसाप्य-गम्यान् मनसामगम्यान आचार्य सिद्धांतसार सग्रह' के कर्ता भी हैं शायद ये नहीं फलाभिसार फलायसार
हों तो इनका समय १३ वीं शताब्दी होना चाहिये। संध्यं सुविचित्र त्रिसधान विचित्र
१३-इस पूजा में सिर भक्ति, श्रुतभक्ति, प्राचार्य -इस पूजा में आजकल प्रचलित अर्धका पलोक- भक्ति के प्रसिद्ध लघु पाठ दिए हैं फिर भारती का पाठ "सद्वारिगधाक्षत पुष्पदामैः" नहीं दिया गया है। "ये दिया है। आरती का पाठ इस गुटके में नन्दीश्वर तीर पूजां जिननाय शास्त्र यमिनां" इस श्लोक को पुष्पांजलि पूजा मे भी दिया है वहाँ विमल नाथ की भारती दी है रूप में दिया है, जबकि आजकल इस श्लोक को आशीर्वाद पाठ भी दूसरा है और यहाँ शांतिनाथ एवं ऋषभदेव की रूप में दिया है। आशीर्वाद की प्रणाली आधुनिक है इस आरती दी है और पाठ भी भिन्न दिया है। ये सब भक्ति पत्रा में वह नहीं अपनाई है। आजकल अर्ध का अर्थ ८ और आरती के पाठ आजकल की देवशास्त्र गुरु पूजा में द्रव्यों का समूह लेते हैं किन्तु पहले अर्ध का अर्थ पुष्पांजलि
नहीं है। प्रत्येक भक्ति के पहले कृत्य विज्ञापना रूप में ही लेते थे जैसा कि सागर धर्मामृत अ० २ श्लोक ३० की
कायोत्सर्ग बताया है और फिर भक्ति पाठ बताया है सोपज्ञ टीका में बताया है। पद्मनदिपच विशतिका में भी
प्राचीन अनेक शास्त्रों (क्रियाकलापादि) में यही पद्धति दी जिन पूजाष्टक में फल के बाद पुष्पाजलि ही दी है। इस
है किन्तु आजकल लोग पहले भक्ति पाठ बोलते हैं फिर गुटके की अन्य पूजाओं में भी यही शैली दी है। १०-ऋषभोऽजित नामा च" जयमाला के ये ६
उसका कायोत्सर्ग करते हैं पाठ भी ऐसे ही छपे हैं। श्लोक नंदीश्वर द्वीप पूजा में भी पाये जाते हैं उसमें ये
आशा है विद्वान पाठक इन पर तुलनात्मक अध्ययन
के साथ गम्भीर विचार करेंगे और समाज को नई बातों बर्तमान कालीव २४ तीर्थकरों के नामो के रूप में दिये है।
से अवगत करायेंगे। जो वहाँ आवश्यक और सगत हैं क्योकि वहां भूत भविष्यत
पुस्तक-प्रकाशकों से भी निवेदन है कि वे इस त्रिसंधान कालीन २४-२४ नाम भी दिये हैं अतः वर्तमान कालीन
पूजा को अविकल रूप से पूजापाठ सग्रहों में अवश्य स्थान नाम भी आवश्यक हैं जबकि यहा असंगत से हैं।
देन का उपक्रम करेंगे। ११-इस पूजा मे आजकल देव शास्त्र गुरु की अलग
विक्रम स० १५६३ के इस गुटके मे १५ वीं शताब्दी अलग अपभ्र श भाषा मे ३ जयमाला दी हुई है वे इस
के चन्द्र भूषण के शिष्य पं. अभ्रदेव की ५० श्लोक की त्रिसंधान पूजा में कतई नहीं हैं। "वताणुट्ठाणे..." यह
श्रवण द्वादशी कथा" भी संकलित है। यह सुन्दर संस्कृत देव जयमाल पुष्पदंत कृत 'जसहर चरिउ' के प्रारम्भ मे
भाषा में रचित है और प्रायः शुद्ध रूप में दी हुई है। पाई जाती हैं वही से उठाकर यहाँ रखी गई है। शास्त्रगुरु की अपभ्रंश जयमालायें भी इसी तरह अन्यकृत हैं।
अगर विज्ञपाठकों ने रुचि प्रदर्शित की तो उसे भी प्रकट
किया जावेगा। १२-इस त्रिसंधान पूजा के कर्ता कौन हैं यह आदि दिनांक १८.६.८४
रतनलाल कटारिया अन्त में कहीं नही दिया है। रचना के मध्य, पुष्पांजलि के
केकड़ी (अजमेर-राजस्थान) श्लोक-"पुष्याढया मुनिराजकीर्ति सहिता भूत्वा तपोभूषण
३०५४०४ टिप्पण-जन हितैषी भाग ५ (सन् १९०८) अंक २ पृ०१०.११पर श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा-काष्ठासपी बावकों
में अक्षत से पहिले पुष्प पूजा का रिवाज है। अग्रवाल नरसिंह मेवाड़ा आदि थोड़ी सी जातियां इस संघकी अनुगामिनी हैं । मूल संघ और काष्ठ संघ के श्रावक एक-दूसरे के मंदिरों में बाते-जाते हैं और प्रायः एकही माचार-विचार में रहते हैं।"
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मात्म अनुभव कैसे हो?
श्री बाबूलाल जी वक्ता, पहले आत्मा के बारे में जानकारी करे उसे शास्त्रों वाले से शरीर की क्रिया भिन्न है। यह प्रेक्टिकल पकड़ के द्वारा, जिसमें उसका वर्णन है वहाँ से जाने। परन्तु में आना चाहिए, जब ऐसा पकड़ में आयेगा तब जानने यह समझकर चलना होगा कि अभी आत्मा के बारे में वाला अलग हो जायेगा। जाना है अभी आत्मा को नहीं जाना है। अ.त्मा को इसी प्रकार मन में जो भी विकल्प उठते हैं अथवा जानना औरवात्मा के बारे में जानना इममें बहुत बड़ा क्रोधादि भाव होते हैं वहां पर भी दस मिनट के लिए हमें अन्तर है। जिन्होंने आत्मा के बारे में जानने को ही आत्म- उन विकल्पो को देखना है जैसे हमे किसी को बताना है शान समझा है वे आत्मा को नहीं जान सकते और आत्मा अथवा कागज पर नोट करना है, ऐसा सोचकर चले । के बारे में जो जानकारी करी है उसका अहकार भी पैदा यहाँ पर भी मन को शांत कर देना चाहिए । अच्छा हुए बिना नहीं रहेगा। वह पण्डित विद्वान हो सकता है विकल्प हुआ अथवा बुरा हुआ इसका सवाल नही है । आत्मशानी नहीं। आत्म ज्ञानी होने के लिए आत्मा को मवाल है जो भी विकल्प उठे वह हमारी जानकारी में हो जानना जरूरी है। आत्मा के बारे में जानना थ्योरीकल और उसको देखने पर जोर रखे । अगर यह अभ्यास किया ज्ञान है । आत्मा को जानना प्रेक्टिकल ज्ञान है । जाए तो विकल्प अलग हो जाएगा और जानने वाला
मात्मा के बारे में जानकर अन्तरंग में उसके लक्षण अलग हो जायेगा। फिर विकल्प और शरीर की क्रिया में को पकड़कर पहचानने की चेष्टा करे । शरीर मे मिलान अपना अस्तित्व नहीं मालूम देगा। अपना सर्वस्व तो करें। जाननापना लक्षण शरीर में नहीं है। आत्मा का जानने वाले मे स्थापित करना है। इस प्रकार दोनों से लक्षण चैतन्यपना है याने ज्ञाता-दृष्टापना है। वह लक्षण अलग हटकर जानने वाले मे अपना सर्वस्व स्थापित करने किसी अन्य में नहीं है। फिर मन सम्बन्धी विकारी परि- पर वह तो ज्ञान का मालिक हो जाता है और वे दोनों णामों का अथवा विकलों का समझना है। तीन कार्य कर्म का कार्य रह जाते हैं। एक साथ हो रहे हैं एक शरीर का एक विकारी भावों का इसी के बारे में कहा है कि ज्ञप्ति क्रिया और करोती और एक जानने का। उस जानने वाले को पकड़ने का क्रिया दो हैं । भिन्न २ है यद्यपि एक ही समय में है फिर उपाय यह है कि हम ऐसा सोचे कि दस मिनट तक शरीर भी दोनो के कारण अलग अलग है जो ज्ञाता है वह करता में जो भी किया होगी उसे हमें देखते रहना है। वह नहीं और जो करता है वह ज्ञाता नहीं अर्थात् जो जानने हमारी जानकारी में होनी चाहिए जैसे कि हमें किसी को वाला है वह विकल्पों का करता नही और विकल्पों के बताना है कि दस मिनट शरीर की क्या क्या क्रिया हुई करने में लगा है वह ज्ञाता नहीं है। और ऐसी क्रिया होनी चाहिए अथवा अन्य प्रकार की जानने का कर्म ज्ञान का है मन के विकल्प और भाव होनी चाहिए इसका सवाल नही है। यह भी सवाल नही और शरीर की प्रिया कर्म के खाते में है। ज्ञान का कार्य है कि यह ठीक हुई कि ठीक नहीं हुई। सवाल है हमारी भी है कर्म का कार्य भी है। तू ज्ञान का मालिक है, कर्म जानकारी में हो और बस मिनट तक बराबर देखने का का मालिक नही है। ज्ञान को जानने वाले को ही कहा कार्य चालू रखे तो कुछ रोज में आप पायेंगे कि देखने जा रहा है कि अपने को भुला कर कर्म के कार्य का, पाला और शरीर की क्रिया यह दो कार्य है और देखने कर्म का मालिक बना है। उसमें एकत्व मान है उसमे अहम्
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आत्म अनुभव कैसे हो? बुद्धि की है। उस अज्ञानता का फल यह संसार है। इसी है शेय का आकार हो रहा है । उस ज्ञेयाकार को मत देख, अज्ञानता से तूने कर्म का निर्माण किया है। अगर आनन्द ज्ञानाकार को देख जो तू है । वहाँ पर जेगकारों को देखकर को प्राप्त करना है तो कर्म का मालिक न बनकर ज्ञान क्षुब्ध हो गया। जहाँ जेयाकार हैं वही ज्ञानागार भी है। का मालिक बन जा जो तू वास्तव मे है । तब तेरा अज्ञान पहले मन को शात करे बाहर फैनते हुए को संकुचित दूर हो जायेगा और जिस अज्ञानता से कर्म का निर्माण करें जब उपयोग शान्त होगा उस समय स्वांस चलता हा होता था वह नही रहने से कर्म का निर्माण नहीं होगा। प्रगट दिखाई देने लगेगा, अनुभव में आयेगा उस समय पुगना कर्म अपना रस देता जा रहा है और खत्म होता देखने वाले पर जोर देने पर यह शरीर पृथक् दीखने जाता है तू अपने ज्ञान के रस का पानकरता रह और कर्म लगेगा । सबाल पृयक् कहने का विचारने का नही परन्तु कर्म के रन का स्वाद मत ले। धीरे धीरे जो इकट्टा कर्म पृथक् देखने का है। जहाँ ज्ञाता पर दृष्टि जाती है है वह खत्म हो जाता है तब कम का कार्य शरीरादिक विकल्प आधे-अधूरे ही रुक जाते हैं। यह तो निषेधात्मक और विकलादि का अमात्र होकर मात्र जो तू है,वह रह रूप है परन्तु ज्ञानानुभूति होने पर शरीर भी दिखना रह जाता है यही परमात्मापना है। तू अगर ज्ञान का मालिक जाता है। इसका काल कम है परन्तु शरीर का प्रकट नही है तो तूने विकल्पों और शरीर के माथ एकत्व स्था- पृथक दी बना इसका काल बहुत है। गि किया है इमनिये उस विकलो का कर्ता तू ही है और देखना है कि शरीर रहते हुए इसमे आनापना आ अगर ज्ञान का मालिक है तो विकल्पो का कर्ता कर्म त रहा है कि परपना आ रहा है अगर अपनापना आ रहा नहीं है। जो मालिक है वही कर्ता है । ज्ञान भी है कर्म भी है तो अज्ञानता पड़ी है अगर परपना आ रहा है तो है तू चाहे ज्ञान मे एकब कर सकता हैं। जिससे तेरा अज्ञनना नही रह सकती। अगर यह अपने रूप दीख रहा एकत्व है। चाहे कर्म से जोड़ ले परन्तु कर्म के साथ तेरा है तो ससार गाढा हो जायेगा। राग गाढा हो जायेगा एकत्व नही हैं. तू वह नही है।
अगर पर रूप दीख रहा है तो ससार क्षीण होने लगेगा। इस प्रकार अनुभव करने के लिए पहल ज्ञान को जो राग छुटने लगेगा। बाहरी इन्द्रियों में फैला हुआ है और बाहर की तरफ जा क्रोधादि-रागादि के दूर करने का उपाय भी यही है रहा है उसको बाहर से हटाकर, इन्द्रियो से हटाकर, अपने जहा क्रोध को जानने की चेष्टा की जानने वाले की स्वरूप के सन्मुख करें। फिर उस ज्ञान को मन सम्बन्धी मुख्यता हुई कि क्रोध विलय होने लगा। अगर घोडे पर विकल्पो से हटाकर स्वरूप सन्मुख करें। और अपने में चढ़े हुए हैं और घाड़े को अपने आधीन कर रखा है तब अपने को ही शेर बनाये नब फल ज्ञानरूप अनुभव में आता भी पर में लगे हैं परन्तु अगर उससे नीचे उतर गये तो है। मन को विकारों से शून्य करना है जहाँ विकल्पों से अपने में है। क्रोधादि को दबाने से वे नहीं मिटते । शून्य हुआ वा आत्मसंवेदन हो जायेगा। जैसे जब बाहर एक व्यक्ति दूसरे की छाती पर बैठा है तब भी पर में गाय को चाटने को नहीं रहता तो वह अपने को ही में लगा है। पर के आधीन है। और दूसरा अगर उसकी चाटने लग जाती है।
छाती पर बैठा है तब भी पराधीन है स्वाधीनता तो तभी इस जीव ने दोनों तरफ ही गनती की है। बाहर में हो सकती है जब वह अजग खड़ा है। व्यक्तियों से कुश्ती भी और भीतर में भी। बाहर में कहा गया कि जिसकी नहीं लड़नी है परन्तु उसके साथ एकत्व छोड़कर अलग मति है उसको देख जिसमें मूर्ति है उसको मत देख । वहाँ हटकर उनको देखना है । यह देखना ही उससे अलग कर पर तू जिसमें मूर्ति थी उस पाषाण अथवा सोने चांदी को देता है । भीड़ में बड़े हैं, भीड़ मे से दृष्टि हटाकर अपने देखने लगा। और इमलिए जिमको मूर्ति थी उसको नहीं को देखिये अलग हो जायेंगे। देख सका । भीतर में कहा कि जिसमें मूर्ति है उसको देख यह देखना यह सम्यक् देखना ही-देखने वाला बना जिसकी मूर्ति है उसको मत देख । जिसका शान में आकार रहना ही धर्म का मूल है यही से धर्म की शुरूवात होती है।
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'शाहनामा-ए-हिन्द' में जैनधर्म
[ স্বাম-কী লকায় 'शाहनामा-ए-हिन्द' के रचयिता ६१ वर्षीय फरोग नक्काश नागपुर की मोमिनपुरा नामक बस्ती में रहते हैं। आपने 'शहनामा-ए-हिन्द शीर्षक से हिंदोस्तान के इतिहास को अशआहों (शेरों) में ढाला है। दुनिया में यह अपने किस्म का पहला काम है। यख सम्पूण इतिहास ईसा पूर्व ६ठी शती से लेकर आज तक का है। शाहनामा-ए-हिन्द में कुल ३० हजार शेर होंगे, जिनमें से कुछ लिखना अभी बाकी हैं। फरोग नक्काश को इस कार्य के स्वरूप अनेक संस्थाओं ने, "फिरदौसी-ए-हिंद", "कौमी एकता" आदि उपाधियों से नवाजा है।
पेश है 'शाहनामा-ए-हिन्द' (जो उर्दू में लिखा है) से जैन धर्म से संबंधित शेर, जो उनकी अनमति से हिंदी में डा. प्रदीप शालिग्राम मेश्राम पेश कर रहे हैं :
एक अर्मा बाद ही इस खाक' पर वो दौर भी आया। कई अदयान' का परचम' बड़ी तेजी से लहराया ॥१॥ बहोत से तायफो में वट गए थे मजहबी फिरके। अवामन नास मे होते थे इन अद्यान के चर्चे ॥२॥ इन्हीं फिरकों में, दो फिरके हैं ऐसे वाकई बरतर। हवादिस का कसौटो पर जो उतरे है खरे बनकर ॥३॥ है जिनमें सबसे अव्वल' जैन मजहब बौद्ध है सानी"। हई दाखिल नए एक दौर में तारीखे' इंसानो ॥४॥ बहत से तेगबन फिरके पुरानो रस्म विदअत से"। हर ताइव", चले नेकी की जानिब शौके रगबत से" ॥५॥ ये क्षत्रो कोम, ज्यूं-ज्यू इस तरफ होती गई रागिन । हुई मगलब" फिक्र विरहमन जैनो हुए गालिब" ॥६॥ सबब इन मजहबों के फूलने-फलने का यह भी था। के इनके अब मे मजबूत था एक हुक्मरा तबका ॥७॥ यही थो वजह जिससे दोनों मजहब खबतर फैले । सनातन-धर्म को इनकास" जिनकी वजह से पहुंचे ॥८॥
जैन धर्म का सहर तीन (तीन रत्न) मुशावेह हैं बहोत काफी ये दोनों धर्म आपस में । बहोत कम फर्क है तरकीबे अद्याने मुकद्दस" मे ॥१॥ ये साबित हो चुका है जैन मजहब ही पुराना है ।। श्री गौतम से पाश्र्वनाथ का पहले जमाना है ॥२॥ दिगर इसके अकीदा" जैन वाले ये भी रखते हैं। के तेईस तीर्थकर, वर्धमा५ से पहले गुजरे हैं ॥३॥ हैं पहले पार्श्वनाथ जी इस धर्म के तेइसव शंकर । दुखी जीवन को सुख पहुंचाने वाले मोहसिनो' रहवर ॥४॥
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'शाहनामा-ए-हिन' में नधर्म लिया था जन्म इस इंसा ने एक क्षत्री घराने में । ना ऐसी पारसः हस्ती कोई भी थी उस जमाने में ॥५॥ दिया उपदेश लोगों को इन्होंने तीन बातों का । मिटाया फर्क पहले अपने नीच-ऊंच जातों का ॥६॥ . कहा लोगों से, इजा जानदारों को न पहुंचाओ। करो मतलक", न चोरी लग्वियत से बाज आजामो॥७॥ ये तीनों रास्ते, जैनी जिसे, से रत्न" कहते हैं । इन्हीं अच्छे उसूलों के वो सब पाबंद रहते हैं ॥८॥
महावीर स्वामी वर्षमान ये सच है 'वर्धमां' है अस्ल में इस धर्म के बानी । न इसके बाद फिर पैदा हुआ उनका कोई सानो ॥३॥ ये छह सौ साल पहले इब्ने मरियम" के हए पैदा। वैशाली में हुआ था जन्म, पटना के करीब उनका ॥२। ये क्षत्री कौम के एक मुक्तदर" राजा के थे दिलबद"। श्री गौतम के जैसे उनके भी हालात थे हरचद ॥३॥ उन्होंने तीस साला उम्र में घर बार को छोड़ा । निशात-आमेज दौरे जिंदगी से अपना रुख मोडा ॥४॥ हए शामिल वो पार्श्वनाथ के चेलों के मण्डल में । गिरोही" शक्ल में फिरते रहे सूनसान जंगल में ॥५॥ मगर मतलक न पाई, रुह और दिलने तमानि नत । के ठकराया था, जिसकी जुस्तज में ऐश और राहत ।।६। लिहाजा हट गए दामन बचाकर खार जारों से। निकाली आत्मा की नाव तूफांखेज धारों से ॥७॥ फिर उसके बाद बारह साल तक इतनी रियाजत" की। के मिलती ही नहीं ऐसी मिसाल अब इस्तिकामत की ॥६॥ उन्हें फिर ज्ञान, तेरहवें बरस आखिर हुआ हासिल। मिला निर्वाण, याने मिल गई लाहुत" की मंजिल ॥६॥ फिर उनके गिदं मजमा लग गया, हल्का बगोशोका" । शरावे-मारफत के पीने वाले बादा नोगों का ॥१०॥ कि अपने धर्म की तबलिग" चारों सिम्न हिर-किरकर। अहिंसा और नेकी का सबक, देते रहे घर-घर ॥१॥ (क्रमश:)
संदर्भ-सचि , धरती २. धर्म ३ झंडा ४. गुटो ५. धर्म के . आम जनता ७. बहुन अच्छे ८. काल चक ९. पहला १० दूसरा ११. इतिहास १२. तलवार चलाने वाला १३. धर्म में नई बात १४. तौबा करके १५. अभिरुचि १६. आकर्षित १७. पराजित १८. विजेता १६. पीछे २०. गुट २१. नुकसान २२. मिलते-जुलते २३. बहुत पवित्र २४. धर्म २५. वर्धमान २६. तीर्थकर २७. एहसान करने वाला २८. रहनुमा २६. दुख-तकलीफ ३०. मुठपन ३१. दुरी बात ३२. तीन रत्न ३३. ईसा पूर्व ३४. बहुत बड़े ३५. बेटा ३६. ऐशो आरामी जिंदगी ३७. गिरोह, गुट ३८. चैन ३६. तपस्या ४०. दृढ़ता ४१. ब्रह्म लीनता की अवस्था ४२. चाहने वालों का ४३. ईश्वर चाहत की शराब ४४. प्रचार।
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राजस्थान के मध्यकालीन जैन गद्य लेखक
0 श्री रीता जैन
हिन्दी साहित्य में गद्य का आविर्भाव संवत् १६०० १. क्रिया कोषभाषा (माघ शुक्ला १२ सं० १७९५) से माना जाता है लेकिन राजस्थान के जैन साहित्यकारो २. पापुराण भाषा (माघ शुक्ला , सं० १९२३) द्वारा संवत् १७०० में हिन्दी गद्य में रचनायें होने लग गई ३ हरिवंशपुराण वचनिका (चैत्र शुक्ला १५ सं०१८२९) थी। उनकी रचनायें हस्तलिखित होने से अज्ञात रही है, ४. आदि पुराण भाषा ५. श्रीपाल चरित्र भाषा इसीलिए अब तक विद्वानों का ध्यान इस ओर नहीं गया ६. परमात्म प्रकाश भाषा ७ पुरुषार्थ सिन्युपाय की टीका अन्यथा हिन्दी नद्य का आविर्भाव २०० वर्ष पूर्व से ही ८. पुण्याश्रव वनिका ६. उपासना ध्यान की टब्बा टीका माना जा सकता है। यहां उन गद्य लेखकों का व उनकी ३. श्रीटोडरमल-इनका जन्म जयपुर की प्रसिद्ध जैन कृतियों का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है, जिन्होंने हिंदी खण्डेलवाल जाति में मोदी का गोत्रीय वैश्य परिवार में गद्य में रचनायें प्रस्तुत की है
सं० १७९७ में हुआ। इनके पिता का नाम जोगीदास एवं . १. हेमराज-हेमराज का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में माता का नाम रंभावाई था। ये दैवी प्रतिभा के धनी थे। सांगानेर (जयपुर) में हुआ था। ये पांडे स्वरूपचन्द के अल्पायु मे ही ये बड़े-बड़े सैद्धान्तिक ग्रंथों का गूढ़ रहस्य शिष्य थे। अषने अन्तिम दिनों में ये काम चले गये दे। समझने लगे। शीघ्र ही व्याकरण, न्याय, गणित आदि इन्होंने पद्य व गद्य दोनों में रचनायें की। इनकी निम्न विषयों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया तथा संस्कृत, लिखित गद्य रचनायें हैं
प्राकृत एवं हिन्दी भाषा के अधिकृत यिवान बन गये। १. प्रवचनसार भाषा (माघ शुक्ला ई. सं० १७०६)
उनकी इस विद्वता का प्रभाव राजसभा में भी अच्छा हुआ। २. गोम्मटसार भाषा (सं० १७२१)
उन्हें सम्मानित पद मिला । इससे तत्कालीन ईर्ष्यालु लोगों ३. परमात्मप्रकाश भाषा (मं० १७१६)
को इनसे ईर्ष्या हुई । कहा जाता है कि इस ईया-द्वेष का ४. पंचास्तिकाय भाषा (सं० १७२१)
इतना भयंकर परिणाम हुआ कि ज्ञान के उदीयमान सूर्य को ५. नयचक्र भाषा (स. १७२६) ६ समयसार भाषा
अल्पकाल में ही काल-कवलित होना पड़ा। २. दौलतराम-दौलतगम बसवा के रहने वाले थे,
टोडरमल द्वारा रचित गद्य-कृतियां निम्नांकित हैं:परन्तु वाद में जयपुर में रहने लग गये। उनके पिता का १ सम्यक् ज्ञान चन्द्रिका २ त्रिलोकसार वनि का नाम आनंदराम था। वह जाति से कासलीवाल गोत्री आत्मानुशासन वनिका ४ मोक्षमार्ग प्रकाशक (मौलिक खण्डेलवाल थे ऋषभदास जी के उपदेशों से दौलतराम ५ पुरुषार्थ सिधुपाय टीका ६ रहस्यपूर्ण चिट्ठियां । जी को जनधर्म पर विश्वास हुआ और कालान्तर में यह इनके गद्य का नमूना दृष्टव्य है:विश्वास अगाध श्रद्धा के रूप मे परिणित हो गया।
'आपको सुखदायक उपकारी होय ताको इण्ट कहिए । दौलतराम ने गद्य व पद्य दोनो मे ही रचनाये की हैं। सो लोक मे आपका दुःखदायक अनूपकारी होय ताको अनिष्ट कवि के रूप में भी ये श्रेष्ठ है और गद्यकार के रूप में भी। कहिए । सो लोकमें सर्व-पदार्थ अपने-२ स्वभाव ही कर्ता हैं।' आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इति- ४ दीपचन्द-दीपचन्द सागानरे के रहने वाले थे। हम में इन्हें रामप्रसाद निरजनी के पश्चात खडी बोली कालान्तर में ये आमेर आकर रहने लगे। इनकी सभी ा दूसरा श्रेष्ठ गद्यकार माना है। इनकी निम्नांकित गद्य रचनाएं १८ वीं शताब्दी के अन्त की हैं । ये आध्यात्मिक रचनायें है
(शेष पृ० २१ १२)
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कष्ण पाषामनोज है हमें गो
जैन कला और स्थापत्य में भगवान पार्श्वनाथ
D नरेन्द्र कुमार जैन सोरया एम० १० शास्त्री भगवान पाश्वनाथ जैन धर्म के तेईसवें तीर्थकर हैं। भगवान पार्श्वनाथ का जन्म जहाँ हुआ था, वह जैनकला और स्थापत्य में भगवान पार्श्वनाथ का विशेष स्थान वर्तमान में भेलूपुर नामक मोहल्ला के रूप में वारास्थान है। प्राचीन शिलालेखों, ग्रंथों, मन्दिरों तथा मूर्तियों णसी में जाना जाता है। यहां दो मन्दिर बने हैं। मुख्यके द्वारा इनकी महत्ता स्पष्ट प्रकट होती है। भगवान वेदी पर तीत प्रतिमायें विराजान हैं उनमें तीसरी प्रतिमा पावनाथ एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। इनका जन्म ८७७ भगवान पार्श्वनाथ की है। सिर पर फण तथा पीठिका पर ई०पू० हुआ था। प्राचीनकाल में काशी मध्यवर्ती जनपद सर्प का लाक्षन है तथा लेख अंकित है। लेख के अनुसार था। काशी देश में वाराणसी नामक नगरी थी। राजा इसकी प्रतिष्ठा संवत १५६८ में हुई थी पीछे बाम आले अश्वसेन वहां के राजा थे' पिता अश्वसेन और माता में दो दिगम्बर प्रतिमायें हैं मूर्ति लेख के अनुसार इनका वम्मिला (वामा) से पौषकृष्ण एकादशी के दिन विशाखा प्रतिष्ठाकाल वि० सं० ११५३ है। इसी के साथ दूसरी नामक नक्षत्र में आपका जन्म हुआ था।'
मूर्ति कृष्ण पाषाण की पपासन मुड़ा में भगवान पार्श्वनाथ (पृ० २० का शेषांश)
- की है जो कि अत्यन्त मनोश है।' ग्रन्थों के मर्मज्ञ थे एवं सांसारिक लोगो से उदास रहते थे।
ग्वालियर नगर तेरहवीं शताब्दी में गोपाचल पर्वत के यद्यपि इनकी भाषा हंढारो है तथापि टोडरमल जयचन्द नाम से प्रसिद्ध था यह क्षेत्र जन कला एवं स्थापत्य की आदि विद्वानों की भाषा की अपेक्षा सरस और सरल है।
दृष्टि से पाँचवी शताब्दी का प्रसिद्ध है। यहां पर भगवान इनकी निम्ननांकित रचनाए उपलब्ध है:
पार्श्वनाथ की ४२ फीट ऊंची ३० फुट चौड़ी शातिशय १. आत्मावलोचन २. चिट्ठलास ३. अनुभव प्रकाश
मनोज्ञ प्रतिमा है। संसार को यह दुर्लभ मनोश कलावचनिका ४. गुणस्थान मेंट ५. आध्यात्म पच्चीसी ६.
कृति है। द्वादशानुप्रेक्षा ७. परमात्मपुराण ८. उपदेश रत्नमाला है.
औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से ३० कि०मी० दूर एलोरा स्वरूपानन्द वृहद् तथा लघु १०. भारती।
नामक ग्राम है। यहां से स्थित गुफाओं के कारण यह स्थान ५. मजयराजः-ये दिगम्बर जैन श्रीमाल थे । अन्त:
विख्यात है। यहां पर कुल ३. गुफायें हैं। इन्हीं गुफाओं साक्ष्य के आधार पर इनके निवास स्थान तथा अन्य पारि
मे गुफा नं०३० से आधा किमी. दूर की ऊंचाई पर वारिक जानकारी नहीं मिलती है। इनकी भाषा शैली के पार्श्वनाथ मन्दिर है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा आधार पर एव जयपुर के जैन विद्वानो से -पर्क करने पर विराजमान ह। पुरातत्व विभाग के अनुसार ये गुफार्य केवल इतना ही ज्ञात हो सका कि ये जयपुर के थे एवं स्वा शताब्दा का है।" इसका समय सवत् १७०० के आसपास था । इनकी निम्न
बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थो में श्री दि. जैन अ० क्षेत्र लिखित गद्य कृतियां उपलब्ध है:
बड़ा गांव प्रसिद्ध है । वैसाख बदी ८ सं० १९७८ को यहां १. विषारहार स्रोत की वनिका २. चतुर्दश गुण
स्थिन टीले की खुदाई कराई गई जिसमें १० दि० जैन स्थान चर्चा वनिका ३. कल्याण मंदिर भाषा टीका ४.
प्रतिमायें निकली, जिनमें ७ पाषाण की तथा तीन धातु एकीभाव स्रोत की भाषा। प्राध्यापक, हिन्दी-विभाग
की हैं" पाषाण की प्रतिमाओं पर दो को छोड़कर) मूर्ति दयानन्द महिला महाविद्यालय, लेख है उना
लेख है उनसे ज्ञात होता है कि इन प्रतिमाओं में कुछ अलवर (राज.) बारहवी शताब्दी की थी। कुछ सोलहवीं की। यहां शिखर
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२२,
३७,कि.
बन्द मन्दिर है जिसमें वेदी में म. पार्श्वनाथ की श्वेत- वेदी में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है" यह पाषाण की पपासन प्रतिमा है । प्रतिमा सौम्य तथा चित्ता- प्रतिमा मथुरा वृन्दावन के बीच घिरोरा गांव के समीपकर्वक है।" मन्दिर के चारों ओर चार वेदिया है। दक्षिण वर्ती अक्रधार के पास दि. १६-८-१९६६ को भूगर्भ से वेदी पर मूलनायकमा विमलनाथ की भूरे पाषाण की प्राप्त हुई थी। इसके पीठान पर संवत १८९ अंकित है। प्रतिमा मुख्य है। इसी वेदी पर भगवान पाश्वनाथ की एक यह प्रतिमा कुषाण काल की है। इसी प्रतिमा की दायी श्वेत पाषाण की भूति है यह पद्मासन है, हाथ खण्डित है ओर की वेदी में भगवान पार्श्वनाथ की श्वेतपाषाण की इस पर कोई लेख नहीं है। पलिस कहीं कही उतर गया की प्रतिमा विराजमान है। है यह मूर्ति भगवान विमलनाथ के समकालीन लगती है। दिल्ली कलकत्ता राजमार्ग पर स्थित उत्तर रलवे ( )" पश्चिम की वेदी पर भी भगवान पवनाथ की स्टेशन पर प्रयाग नामक तीर्थस्थल है। यही चाहचन्द श्वेत पाषाण की हाय अवगाहना वाली पद्मासन प्रतिमा मोहल्ला सराव गियान में एक उन्नत शिखर से सुशोभित
पार्श्वनाथ पंचायती मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण स्थानीय संग्रहालय पिछोर (जिला-ग्वालियर) की नौवीं शताब्दी में हुआ। इस मन्दिर की वेदी के मध्य में स्थापना, सन् १०७६-७७ ईस्वी में म०प्र० शासन द्वारा मूलनायक भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमा है जिसका सलेटी
वर्ण है। की गई थी। इसमें ग्वालियर एव चम्बल सम्भाम के विभिन्न स्थानों से मूर्तियां एकत्रित की गई। जिनमें शैव,
उत्तर प्रदेश के बरेली जिले एवं आंवला तहसील के शाक्त, वैष्णव एवं जैनधर्म से सम्बन्धित प्रतिमायें हैं इसी
पास अहिच्छव नामक स्थान है। यहां स्थित प्राचीन क्षेत्र
परवायी ओर एक छोटे गर्भ गृह में वदी है जिसमें तिरसंग्रहालय में मालीपुर से प्राप्त दो प्रतिमायें तीर्थंकर भग पार्श्वनाथ की है। प्रथम प्रतिमा योगासन मुद्रा में पाद
खान वाले बाबा (भगवान पार्श्वनाथ) की प्रतिमा विराज
मान है। प्रतिमा सौम्य एव चित्ताकर्षक है। प्रतिमा का पीठ पर स्थित है। सिर पर कुन्तलित केशराशि ऊपर
निर्माण काल १०-११वी शताब्दी अनुमान किया जाता सप्तफर्ण नागमौलि की छाया है। पादपीठ पर दाये, बाये, यक्ष, धरणेन्द्र एवं यक्षणी पद्मावती के चिन्ह अंकित हैं।" बन्देलखण्ड में जैन तीर्थ के रूप मे खजुराहो एक रमदूसरी पार्श्व नाथ की प्रतिमा में कायोत्सर्ग मुड़ा में खड़ी
__णीक एवं मनोहर प्रसिद्ध स्थान है। खजुराहो के जनहै। छठी शताब्दी ई०पू० में इन मूर्तियों की स्थापना
मन्दिरों का निर्माण चन्देल नरेश ने नवी और बारहवी करन्दक नरेश ने स्थापित कराई थी।"
शताब्दी में कराया।" ९-१० वी शताब्दी मे आर्यसेन के मथुरा में उत्खन से भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा
शिष्य महासेन तथा उनके शिष्य चादिराज ने त्रिभुवन का शीर्ष भाग मिला है। इस प्रतिमा के शिरोभाग के
तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया, उसमे तीन वेदियो मे ऊपर सप्त फणावली हैं धुंधराले कुन्तलो का विन्यास त्रिभवन के स्वामी भगवान शान्ति नाथ, पार्श्वनाथ और अत्यन्त कला पूर्ण है। प्रतिमा कुषाण युग की होगी" ऐसी
सुपार्श्वनाथ की तीन मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठापित की मान्यता है । एक दि. जैन मन्दिर स्थित है। मुख्यवेदी मे और उसके लिए जमीन तथा मकान स०१०५४ के बैशाख भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। यह श्वेत पाषाण की मास की अमावस्या को दान दी।" पपासन है अवगाहना १५ इच है। मूर्ति लेख के अनुसार श्रीनगर गढ़वाल में एक प्राचीन दि० जैन मन्दिर वि० सं० १६६४ की है।" इसी वेदी में कृष्ण पाषाण अनकनन्दा के तट पर है इस मन्दिर मे केवल एक वेदी है की १८ इन्च ऊंची पपासन प्रतिमा है, इस मूर्ति पर लेख जिस पर तीन प्रतिमायें विराजमान हैं। मूलनायक भगनही है लेकिन इनके साथ जो सत्तरह मूर्तियां है उन पर वान वान ऋषभदेव और दो प्रतिमायें भगवान पार्श्वनाथ वि० सं० १५५५ अंकित है।" इस वेदी के पीछे वाली
(शेष पृ० ३२ पर)
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विचारणीय प्रसंग :
दो पर्यायवाची जैसे शब्द
[परिग्रह और कर्म]
श्री पप्रचन्द्र शास्त्री
जैन-सस्कृति के मून मे निवृत्ति का विधान और बढ़े। इसी प्रसग में तनिक हम व्रतों की परिभाषाए मी प्रवृति का निषेध है। निषेध इसलिये कि प्रवृत्तिमें समन्ततः देख लें कि वहाँ आचार्यों ने निवृत्ति का उपदेश दिया है शुभ या अशुभ कर्मों का ग्रहण होता है और कर्मों का या प्रवृत्ति का ? हमारी समझ से तो निवृत्ति का ही उपग्रहण संसार है। जबकि निवृत्ति मोक्ष साधिका है। यदि देश है । तथाहि-
. गहराई से विचारा जाएतो प्रवृत्ति स्वय भी परिग्रह है और हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरति वर्तम्' यह परिग्रह में कारणभूत भी है । इसीलिए तत्वार्थ सूत्र के तत्त्वार्थ सूत्र के सप्तम अध्याय का प्रथम सूत्र है। इसमें षष्ठम अध्याय के प्रथम सूत्र में 'कायराइ मनः कर्म योगः' हिंसा आदि से विरक्त होने का निर्देश है। कदाचित किसी जैसी प्रवृत्ति (क्रिया) को अगले सूत्र 'स. आस्रवः' से आस्रव भांति भी कही भी प्रवृत्त होने का निर्देश नहीं है। वे कहते बतलाया जो कि संसार का कारण है। यदि प्रवत्ति हैं-हिंसा से विरक्त होना, असत्य से विरक्त होना, स्तेय शुद्धता मे कारण होती तो प्रवृत्ति-परक प्रथम सत्र को से विरत होना अब्रह्म से और परिग्रह से विरत होना आस्रव में गभित न कर, अगले सवर या निर्जरापरक व्रत है। वे यह तो कहते नह' कि अहिसा में रत होना प्रसंगो में दर्शाया गया होता । इस प्रसंग में हमे परिग्रह की सत्य म रत होना आदि व्रत है। फालताये यह ह कि जब परिभाषा पर भी दृष्टिपात कर लेना चाहिए---
हिसादि परिग्रह छूट जायेगे तब अहिंसादि स्वयं फलित शास्त्रो में परिग्रह शब्द की दो व्युत्पत्तियां देखने में होगे। यदि जीव उन फलीभूत अहिंसादि में प्रवृति करता आती हैं।
है-रति करता है तब भी उसको परिग्रह से छुटकारा नहीं (१) 'परिगृह्यते इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादि ।' मिलता । अन्तर मात्र इतना होता है कि जहां वह अशुभ (२) 'परिग्रह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थग्रहण- मे था वहाँ शुभ में हो गया । यदि जीव शुद्ध होना चाहता हेतुरात्मपरिणामः।"
है तो अशुभ से विरत हो जाय और शुभ में भी प्रवृत्त न -धवला १२/४/२८ ६ पृ० २८२ हो। आपसे आपमे ही ठहर जाय। अर्थात् जो ग्रहण किया जाय वह परिग्रह है जैसे बाह्य- जहा प्रवृत्ति होती है वहां परिग्रह होता है-आनव पदार्थ क्षेत्रादि । और जिसके द्वारा ग्रहण किया जाय वह होता है। व्रत नहीं होता। और जहां निवृत्ति होती है परिग्रह है, जैसे रागादिरूप आत्मा के वैभाविक परिणाम। वहां परिग्रह का बोझ हल्का होता है और पूर्ण निवृत्ति में
उक्त दोनो व्युत्पत्तियों में द्वितीय व्युत्पत्ति से फलित वह भी छट जाता है। जो जीव जितने अंशों में रक्त अर्थ आचार्यों को अधिक ग्राह्य रहा है, अपेक्षाकृत प्रथम होगा उतना ही परिग्रही होगा और जितने अंशों में व्युत्पत्ति-फलित अर्थ के। इसीलिए उन्होंने परिग्रह के विरक्त होगा उतने अंशों में अपरिग्रही होगा। कहा भी लक्षण में मूर्छा (ममेवं-रागद्वेषादि रूप परिणामों) को हैप्रधानता दी है। क्योंकि रागादि-प्रवृत्ति ही बाह्य आदान- 'रतो बंधदि कम्म मुंचदि जीवो विराग संपत्तो।' प्रदान में कारण है और यही प्रवृत्ति कर्मानव और बन्ध
-समयसार १५० में भी प्रमुख कारण है। आचार्य का भाव ऐसा भी रहा फलतः जब कोई भव्यास्मा संसार से उदास होकर हैकि भन्यजीव प्रवृत्ति को छोड़ें और निवृत्ति की ओर आत्म-कल्याण की ओर बढ़ना चाह और गुरु के पारमूल
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२४, वर्ष ३७, कि०३
अनेकाल
में दीक्षा लेने जाय तो गुरु का कर्तव्य है कि वे उसे -हिंसा, अनुत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरति 'निवृत्ति' रुप व्रत का उपदेश दें-आस्रव व बंधकारक सर्वनिवृत्ति-परिणाम, समस्त शुभ-अशुभ रागादि विकल्पों क्रियाओं से 'विरत' करें। उसे कुछ प्रहण करने कोन से निवृत्ति, देश-विरति सर्व-विरति, पापों से विरमण, कहें। पर परिपाटी ऐसी बन गई है कि 'आप व्रत ग्रहण कृत्स्न (पूर्ण) निवृत्ति एकदेशविरति, रागादि का अप्राकर लें, कहकर उसे व्रत दिए जाते हैं। जबकि आगमा- दुर्भाव, प्राणवधादि से विराम, हिंसादि परिवर्जन अथवा नुसार व्रत का लक्षण 'विरत' होना है, आरिग्रही होना उनसे विमुक्ति, आदि । उक्त सभी स्थलों में विरति की है । रत होना नहीं। ये जो कहा जा रहा है कि-'अमुक प्रधानता है। कही भी अहिंसादि में प्रवृत्ति का विधान ने महावत या अणुव्रत ग्रहण किए' सो यह सब व्यवहार नहीं है जैसा कि कहा जाता है-'मैंने या उसने अहिंसादि भाषा है, इसका तात्पर्य है कि वह उन उन पापों से व्रतों को ग्रहण किया है या कर रहे हैं। ये सब जीवों के विरक्त हमा-उसकी उन पापों से रति छूटी। न वह कि अनादि रक्त-रागी-परिणामों का ही प्रभाव है जो हम पुण्य में रत हुआ।
छोड़ने की जगह ग्रहण करने के अभ्यासी बन रहे हैं--जब ये बात हम नही कह रहे । आखिर, आचार्य देव ने कि जिन या 'जन' का धर्म विरक्ति (शुद्धता की ओर निवत्ति को स्वयं ही व्रत का लक्षण बताया है । तथाहि : बढ़) का धर्म है। 'जिन' स्वय भी सब छोड़े हुए है। 'हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहभ्यो विरतिवंतम् ।' देखें 'नियमसार'
-तत्त्वार्थ ७१ कुल जोणिजीवमग्गण-ढाणाइस जाणऊणजीवाण । 'सर्वनिवृतिपरिणामः।' पर. प्र. टी. २०५२।१७३१५ तस्सारंमणियत्त-परिणामो हाई पठम बद । ५६ ॥ 'समस्त शुभाशुभ रागादिविकल्प निवृत्तिर्वतम् ।'
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणाम। -द्र. सं० टी. ६५६१००।१३ जा पजहदि साहु सया विदिवयं होई तस्सेव ॥५७।। 'देशसर्वतोऽणुमहती।
गामे वा णयरे वा रणे वा पछिऊण परमत्थ । देशश्च सर्वश्च ताभ्यां देशसर्वतः। विरतिरित्यनु- जो मुचादिग्रहण भाव तिदियवदं होदि तस्सेव ॥५॥ वर्तते।
दद्ण इच्छिरुव' वांछाभाव णिवत्तदे तासु । हिंसादेर्देशतो विरतिरणुवत, सर्वयोविरति महाव्रतम् । मेहुणसण्णविवज्जिय परिणामो अहब तुरीयवदं ॥५६॥
न हिनस्मि नानृतं वदामि नादत्तमाददे नागनां स्पृशामि सव्वेसि गयाणं चागो हिरवेक्खभावणा पुव्व । न परिग्रहम्पाद दे' इति। -त. रा. वा. ७/२/२ पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभर वहतस्स ॥६॥ जात्या श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं व्रतम् ।'-म. आ.
-नियमसार -वि. ४२१/६१४/११/पृष्ठ-६३३ कोष
-कुल, योनि, जीव समास, मार्गणा आदि जीवो के निरतःकार्तस्त्यनिवृतीभवतियति: समयसारभूतोऽयं । ठिकानों को जानकर उनमें आरम्भ करने से हटना या त्वेक देशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥' अहिंसावत है।
-पुरुषार्थ १ जो सज्जन पुरुष राग द्वेष व मोह से मूठ के परिणामों 'अप्रादुर्भावः खलुरागाहीनां भवत्यहिंसा।
को जब छोड़ता है तव उसके सत्यव्रत होता है। 'पाणवधमुसावादावत्तादाणपरदारगमणेहि ।
दूसरे के द्वारा छोड़ी या दूसरे की वस्तु को (चाहे वह अपरिमिदिच्छादोविय अणुब्बयाई विरमणाई॥
प्राम नगर, वन आदि मे कहीं भी पड़ी हो) उठाने के परि
णाम को जो छोड़ता है उसके अचौर्य व्रत होता है। म. आ. मूला. २०८०/१८१८ पेज ६३५ 'हिंसाविरदी सच्च अदत्त परिवज्जणं च बंभ च ।
जो स्त्री के रूप को देखकर ही उसके भीतर अपनी संग विमुत्तीय सहा महब्बया पंचपण्णता ।। इच्छा होने रूप परिणामों को हटाता है। उसके ब्रह्मचर्य
म.मा.४ इत होता है।
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विचारणीय प्रस
जो वाछा रहित भावना के साथ सर्व ही परिग्रहों को वाता है उसके अपरिग्रह व्रत होता है।
- उक्त गाथाओं में आचार्य ने सभी जगह पाप छोडने को व्रत कहा है। जब कि वर्तमान में ग्रहण करने में व्रत शब्द का प्रयोग किया जाने लगा है जैसे 'अमुक व्रत ग्रहण कर लीजिए, आदि ।
'प्र' शब्द को भी परिग्रह के भाव में लिया जाता है: जिसमे ग्रंथ नहीं होता उसे 'निर्भय' कहा जाता है। ग्रंथ शब्द की व्युत्पत्ति के विषय मे लिखा है - 'ग्रयन्ति रचियन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रंथाः । मिथ्यादर्शन, मिध्याज्ञानं, असंयम; कषायाः योगत्रय चेतथमी परिणामाः ।' भ. आ. वि. / ४७/४१/२० ---जो ससार को गूथते है, अर्थात जो ससार की रचना करते हैं, जो संसार को दीर्घकाल तक रहो वाला करते हैं, उनको अब कहना चाहिए तथा मिथ्या दर्शन निथ्या ज्ञान, असयम, कषाय, मन-वचन-काययोग इन परिणामों को आचार्य प्रथ कहते है । इन ग्रथो का त्यागी निर्गन्ध कहलाता है और वह अपरिग्रही नाम से भी पहिचाना जाता है। दोनों के ही परिग्रह त्याग-रूप व्रत होता -कुछ पण रूप नहीं क्योकि प्रत का लक्षण 'विरत' है न कि 'रत' होना ।
यदि कोई जीव शुभ मे भी रत होता है तो वह परि ग्रह का बैना पूर्ण स्थानी नही होता जैसे कि 'जिन' अर्हत
भगवान ।
- तात्पर्य ऐसा कि जो पूर्ण बनी बिरल) होगा नही अपरिग्रही या निर्धन्य होगा उसके पूर्व यदि किसी को निर्ग्रन्थ कहा जायगा तो वह उपचार ही होगा । मुनियों के भेदों में 'पुलाकबकुशकुशील निर्ग्रन्थस्नातकानिर्मन्थाः' में भी 'निर्मन्थ' शब्द 'महद्यमान केवल ज्ञान दर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः ।' के अभिप्राय में है । अर्थात जो अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त होते हैं। यानी जिनकी आत्म-भाती कर्म प्रकृतियाँ क्षय प्राप्त करने के सम्मुख होती हैं वे निर्ग्रन्थ या अपरिग्रही होते हैं।
उक्त भाव में, जहां कमों से राहित्य अर्थ है यहां हमें परिग्रह और अपरिग्रह शब्दों की व्युत्पत्ति पर भी
विशदता से विचार करना चाहिए जिससे हम परिग्रह के सही भाव को फलित कर सकें और जिसकी विरति मे व्रत का भाव फत्रित हो सके ।
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यदि आचार्य चाहते तो 'परिग्रह' शब्द को केवल 'ग्रह' शब्द से भी व्यक्त कर देते। क्योकि इस शब्द की जो व्युत्पत्ति ऊपर पैरा २ मे दी गई है और उससे जो अर्थ फलित किया गया है यह अर्थ केवल 'ग्रह' शब्द से भी फलित हो सकता था जैसे मुह्यते इनि बाह्य पदार्थ ' ' अथवा 'गृह्यने येन स ग्रह - रागादिः " पर आचार्य ने 'परि' उपसर्ग लगाकर अध्यन मे कुछ और ही दर्गांना पाहा है ऐसा मालूम पन है। शायद वे चाहते हैं कि हम बाहरी पदार्थों की उठाने की चर्चा के विकल्पों में न पड़ें और आत्मा और उसमें लगी कर्मकालिमा को देखें उसका और अपना मंद-विज्ञान करें तथा कर्मों से विरति में, उनमें विश्त हों, अबिने
-
कर्म ग्रहण परिग्रह हैं और इसकी सिद्धि परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति से फलित होती है ?
'तत्वार्थसूत्र' के आठवें अध्याय के २४ में सूत्र में प्रदेश बन्ध को बतलाते हुए आचार्य लिखते है कि 'सूर्मक क्षेत्रा वगाहस्थिताः सर्वात्म प्रवेशेष्यनतनन्तप्रदेश: इस व्याकया में राजवातिककार लिखते - 'सर्वात्मप्रदेष्वति
-
वचनमेक प्रदेशाद्यपहार्यम् एवं द्विचितिप्रदेशेष्यत्मनः कर्मप्रदेशा न प्रवर्तते स्वत? arren देशेषु व्याप्या स्थित इनि प्रदर्श गर्थम् मर्षात्म प्रदेशेध्वित्युच्यते ।'
इसका भाव है कि कर्म आत्मा के सर्व प्रदेशों में स्थित ' होते हैं और वे पूरी आत्मा के द्वारा सर्व ओर से आकर्षित किये जाते हैं। उदाहरणार्थ जैसे अग्नि में तपा लोहे का सुखं गोला यदि पानी में डाला जाए तो वह पानी को सभी ओर से सम-रूप में आत्मसात करता है, वैसे ही कषाय और योग की अग्नि से तप्त आत्मा कर्मरूप परिणत कामण वर्गगाओं को सभी ओर से सम रूप मे आत्मसात करता है। कर्म के सिवाय ऐसी अन्य कोई वस्तु नही है जिसे आत्मा चारों ओर से अपने मे आत्मसात करे और जिससे चारों ओर से आत्मसात किया जाय ग्रहण किया जाय। (सेच पृ० २६ पर)
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जरा-सोचिए !
१. मूल का संरक्षण कैसे हो?
रहा है कि हमारी वर्तमान और आगामी पीढ़ी प्राकृत-आपने पढ़ा होगा नाम-कर्म की १३ प्रकृतियों को।
संस्कृत भाषाओं की ओर आकृष्ट हो। अब तो लोगों को उनमें एक प्रकृति है 'स्वघात-नामकर्भ।' इस प्रकृतिके उदय
उनकी सहूलियतों के अनुसार धर्म के लेन-देन के प्रयत्न में शरीर की ऐसी रचना होती है, जिसमे स्व-शरीर के
रह गये हैं। जो इन भाषाओं को नहीं जानते वे जन्मनः अंग ही स्व-प्राणघात मे निमित्त हो जाते है। जैसे बारह
जैन हो या अर्जन सभी को भाषान्तर (चाहे वे गलत ही सिंगे के सीग। यदि कदाचित बारहसिंगा जब कभी
क्यो न हो) दिये जा रहे हैं । अर्थातशिकारी के घात से भाग जाने के लिए बन मैदौडता है,
"जह णवि मक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उ तब उसके सीग घनी कंटीली टेढ़ी-मेढी झाडियो मे फस
गाहेउ।'जाते हैं और वे सीग ही बारहसिंगा के स्वय के प्रयत्न से
पाठक जानते है समयसार की १५ वी गाथा के उस उसके स्वयं के पकड़े जाने या वध मे निमित्त हो जाते है।
अर्थ-प्रसग को जिसके 'अपदेम' और 'सन्त' शब्द आज भी
सु-संगत अर्थ को तरस रहे हैं। कही 'संत' के स्थान पर किए प्रयलो पर लागू होता है।
'मृत्त' मानकर द्रव्य-श्रुत और भावभुत अर्थ स्पष्ट है तो सब जानते हैं कि जैनियों ने बहत समय से आगमो
___ कही 'अपदेस' और 'सत' के अर्थ क्रमश 'प्रदेश-रहित' की प्राचीन भाषा प्राकृत-सम्ा को उपेक्षित कर केवल आरशान्त (रस) किए जा रह ह आर कहा 'सत' के अथ आधुनिक सुललित अन्य विभिन्न भाषाओ के रचना
को 'सत्' शब्द से घोषित कर उसे आचार्य-समत व प्रामामाध्यमों से धर्म के लेन-देन की प्रथा चालू कर रखी है।
णिक बतलाया गया है। इसी तरह 'अनादिरक्तस्य तवाये प्रसंग मात्र जैनेतरों और विदेशियो हेतु उपस्थित हुए
यमासीत य एव सकीर्णरसः स्वभाव । मार्गावतारे हठहोते तो कदाचित इतनी चिन्ता न होती, पर आज तो जैन
माजित थी स्त्वयाकृत. शान्तरस. स एव ॥'-कारिका में कुलोत्पन्नों को भी आगमो की मूल भाषाओ से लगाव
'शान्तरस' का अर्थ कही 'शान्त (नामा) रस' और कही नहीं रह गया है और न इसका कोई प्रयत्न ही किया जा
'रसों से शान्त-रहित' अर्थ किया जा रहा है, आदि ।
ढुंढने पर ऐसे ही अन्य बहुत से प्रसंग और भी मिल (पृ० २५ का शेषांश)
जाएगे जिनकी व्याख्याओ में विवाद हो। ऐसा यदि है तो वह कर्म ही परिग्रह है । तथाहि
ऐसे विवादास्पद स्थलों का कालान्तर में भी निर्णय परि (समन्तात्) गृह्यते यः सः परिग्रहः-द्रव्य-कर्म।
कब और कैसे हो सकेगा? जबकि आगम की मूल प्राकृत परि (समन्तात् गृह्यते येन सः परिग्रहः-भाव-कर्म ।
। और संस्कृत भाषाओ को ही भुला दिया जायगा या हमारे
सामने उनके मनमाने ढंग के परिवर्तित मूलरूप रख दिए उक्त भाव में अपरिग्रह और व्रत के अर्थ भी विचारिए और नियन्य पर भी ध्यान दीजिए।
जायेंगे? हमारी दृष्टि से विषय-स्पष्टता और उसकी प्रमा
णिकता के लिए आगमकी मूल-भाषा प्राकृत-संस्कृत व यथा -बीर सेवा मन्दिर
सम्भव-पूर्वाचार्योकृत उपलब्ध उनकी व्याख्याओ का और २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ मूल भाषा के जानकारों का कालान्तर में सदाकाल रहना
परमावश्यक है। जबकि आज के बेताबों (7) की वृष्टि
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परा-सोधिए
दोनों ही दिशाबों में उदासीन है-ये मात्र भाषान्तरों पढ़ने में आता है कि जिनवाणी गणधर देवों द्वारापी (जिनसे कहीं २ भाव-स्खलित भी होता है) के प्रचार में गई। जैसे-- लगे हैं और भविष्य के लिए जैन-सिद्धांत मर्मज्ञ विद्वानों के
तीर्थकर की धुनि गणधर ने सुनि अंगरचे चुनिशान उत्पादन-प्रयलो में भी शून्य हैं।
मई। इस बात को दृढ़ता के साथ कहने मे हमे तनिक भी
सो जिनवर वाणी शिवसुखदानी त्रिभुवनमानी पूज्य संकोच नहीं कि-आयु के किनारो पर बैठे सिद्धान्त के
भई ॥'-आदि। धुरन्धर गिने-चुने वर्तमान विद्वानों के बाद इस क्षेत्र में अंधेरा ही अंधेरा होगा। और हम नही समझ पा रहे कि
ये तो सब जानते हैं कि सर्वज्ञ का ज्ञान पूर्ण और तब सिद्धांत के किन्ही रहस्यो को समझने-समझाने के लिए
युगपत है । वह निर्विकल्पक और विचार रहित भी है। हम किसका मुंह देखेंगे ?
उसमें समस्त द्रव्यों की भूत-भविष्यत् और वर्तमान-कालीन __यद्यपि प्रचलित प्रयत्नों से ऐसा आभास तो होता है
समस्त-पयायें अस्तिरूप में स्वाभाविक, युगपत् मलकती हैं कि भविष्य मे हमें लच्छेदार-मोहक भाषा-भाषी अच्छे
-उसमें अपेक्षावाद के अवसर और कारण दोनों ही नहीं व्याख्याताओं की कमी तो न रहेगी-वे सभा को मोहित
हैं । क्योकि अपेक्षावाद श्रुज्ञान पर आधारित हैं और वह
नयाधीन भी है-वह सकलप्रत्यक्ष केवल ज्ञान की उपज भी कर सकेंगे तथापि आगम की मूल भाषा और जैनदर्शन-न्याय के रहस्यों से अपरिचित होने और आद्यन्त मूल
नही है। इस बात को ऊपर दिए गए उद्धरणों से भी ग्रंथों के पठन पाठन से शून्य होने के कारण उनमें सिद्धांत
स्पष्ट जाना जा सकता है । उममे 'आदेशवसेण' और 'नयके रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता दुर्लभ होगी।
योगात् न सर्वथा' पद इसी बात को स्पष्ट करते हैं।
फलतः सर्वज्ञ को दिव्य ध्वनि में उनके ज्ञान के अनुरूप फलत:-आवश्यकता है
प्रचार करने की अपेक्षा आज मूल के संरक्षण और द्रव्या का कालिक प्रत्यक्ष-आस्तत्व हा मलकता ह-उसमें उसके तल-स्पर्शी ज्ञाताओं को तैयार करने की। आप इस
नास्तित्व के झलकने का प्रश्न ही नहीं उठता। अर्थात थे, दिशा मे क्या कर रहे हैं ? जरा सोचिए ?
जो है, उसे जानते हैं, नही, नामक कोई पदार्थ ही नहीं
जिसे वे जान सके या जानते हो। स्यावाद का नहीं भी २. क्या दिव्य-ध्वनि स्याद्वाद-रूप है? अपेक्षा कृत ही है और वह समय के व्यवहार की दशा में
"सिय अत्यि णत्थि उहयं अवत्तन्वं पुणो य तत्तिदय । है जबकि केवल ज्ञान में तीनों कालों की विवक्षा ही नहीं दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण सभवदि ॥"
है-सभी युगपत है । एतावता ऐसा मानने में कोई आपत्ति तात्पर्यवृत्ति :-आदेसवसेण प्रश्नोत्तरवशेन । नही होनी चाहिए कि जिसे हम जिनवाणी कहते हैं और बालबोधनी-विवक्षा के वश से ॥"
जो 'स्याद्वाद-रूप कही जा रही है वह पूर्ण-श्रुत ज्ञानी गण
-पचास्तिकाय, १४ धरों द्वारा विविध • यों के सहारे वादशागों में गूथे जाने "कथंचित्ते सदेवेष्टं कचिदसदेव तत् ।
पर 'स्याद्वाद रूप में फलित होती है। यानी गणधर देव तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ।।'
वस्तु के समस्त अशो को युगपत न जान पाने के तथा न वृत्ति:-नयस्यवक्तुरभिप्रायस्य योगो युक्ति- कह पाने के कारण अपेक्षा के द्वार क्रमशः उसका दोहन नेपयोगस्तस्मान्नययोगादमिप्रायवशादित्यर्थः ।" करते है और उस दोहन-प्रकार को 'स्याद्वाद' कहा जाता
आप्तमीमांमा १४ है। भाव ऐसा समझना चाहिए कि-जिनवर की दिव्यतीर्थकरों की दिव्यध्वनि स्याद्वादरूप-विविधनय- ध्वनि में जिन भगवान के द्वारा कोई अपेक्षा कल्पित नहीं रूपी क लोलों से विमल है, ऐसा पढ़ने में आता है, जैसे- की जाती-उनकी ध्वनि अपेक्षावाद स्यावाद रहित ही 'यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला।' और यह भी होती है । और श्रुतज्ञानी गणघरों द्वारा, अक्षरो द्वारा प्रकट
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२० वर्ष ३७ कि.. किए जाने पर 'स्थाद्वाद रूप' कहलाती है। कहा भी यूं तो संसार के सभी मत-मतान्तर हिंसा को पाप
और अहिंसा को धर्म बतलाते हैं। पर, जैनी इसमें सबसे 'ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुवं ण होई केवलिणों।' आगे हैं। जब कभी कहीं अहिंसा का प्रसंग उठता है, केवलिनः परमवीतरागसर्वशस्य ईहापूर्वक" न किमपि जैनी बांसों उछलते हैं और गर्व के वेग में कहते हैं किवर्तनम् अतः स भगवान न पहते मनः प्रवृत्त रभावात् जैनियों द्वारा मान्य अहिंसा सर्वोपरि है जहां दूसरों में अमनस्का केवलिनः' इति वचनाद्वा।
अहिंसा के व्यवहारिक रूपों को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त
-नियमसार है वहाँ जैन इसके मूल तक पहुंचे हैं उन्होंने संकल्पित, 'ठाणनिसेज्जविहारा धम्मुभवदेस णियदबोतेसि ।
कृत कारित, अनुमोदित, मन, वचन, काय की प्रवृत्तिअरहताणं काले मायाचारव्व इत्थीणं ॥
रूपों में भी हिंसा के त्याग को अहिंसा कहा है और -प्रवचनसार
'सम्यग्योग निग्रहोगुप्ति का उपदेश दिया है, आदि। वीतराग सर्वज्ञ केवली भगवान के कोई भी वर्तन
नि:संदेह जैनियों की अहिंमा पर सबको गर्व है। पर, इस इच्छा पूर्वक नही होता है। इसलिए वे भगवान मन की
गर्व में कहीं सब इतने तो नहीं फल गए हैं कि उनके प्रवृत्ति के अभाव होने पर 'अमनस्काः केवलिनः' इस
द्वारा जाने-अनजाने में जैन संस्कृति के मूल अपरिग्रह पर सिद्धांत के अनुसार कुछ क्रिया स्वयं नहीं करते । आगम में
ही चोट हो रही हो? जो योग की प्रवृत्ति के निमित्त से प्रकृति व प्रदेशबंध कहा
जैनियों में पांच पाप माने गए हैं--हिंसा, झूठ, चोरी, है सो उपचारमात्र है। खड़ा होना, बैठना, विहार करना
कुशील और परिग्रह । यद्यपि इन पांचों में परस्पर में व धर्मोपदेश होना यह अरहंत अवस्था के काल में स्वतः
कारण-कार्य भाव घटित हो सकता है और एक का दूसरे नियम से ही होता है, जैसे स्त्रियों के नियम से मायाचार
में समावेश भी हो सकता है। परन्तु यदि सूक्ष्म-दृष्टि से होता है । आदि । फलतः
विचारे तो सब पापो के मूल में परिग्रह ही अभिन्न कारण ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि बैठा दिखाई देता है। पूर्ण-अपरिग्रही (शुद्ध आत्मा) मे -तीर्थकर की दिव्य-ध्वनि भव्यजीवों के भाग्योदय से कोई भी पाप नहीं बनता। आचार्यों ने भी जीव-राशि को उनकी स्वय की जिज्ञासा के अनुरूप उस-उस भाव में जिन दो भागों में बांटा है वे संसारी और मुक्त जैसे दोनों परिणत हो जाती है। और प्रमाण (पूर्णज्ञान) रूप दिव्य- भाग भी हिंसा-अहिंसा आदि पर आधारित न होकर ध्वनि (नय-आशिकज्ञान) गभित होने से अतज्ञानी गण परिग्रह-भाव और परिग्रह-अभाव की अपेक्षाओं से ही हैं घरो द्वारा मन के साहचर्य से स्याद्वादरूप मे फलित की जो जीव परिग्रह मे हैं वे ससारी और जो अपरिग्रही हैं वे जाती है। इस विषय को सोचिए और निर्णय पर पहुंचने मुक्त । फलतः हमें मूल पर दृष्टि रखनी चाहिए। के लिए विचार दीजिए।
सब जानते हैं कि शास्त्रों मे कारण और कार्य दोनों
को सर्व-मान्य तय कहा है और जैन-दृष्टि से दोनो ही ३. मूल जो सदा कचोटती रहेगी!
अनादि है। कारण भी किसी का कार्य है और कार्य भी कलियां जो सदियों से चली आ रही हैं और किसी कारण के बिना नहीं होता। उक्त परिम में जिन्नोने धर्म के मूल-रूप को आत्मसात कर लिया है- जब हम तत्त्वार्थसूत्र-गत 'प्रमत्तयोगाप्राणव्यरोपणं हिंसा' ढक लिया है, इतनी गाढी हो गई है कि उनका रग सहज इस हिंसा के लक्षण को देखते हैं तब स्पष्ट होता है कि छटने का नहीं। ऐसी रूढ़ियों में एक रूढ़ि है अरिग्रह प्राणो के व्यपरोपण रूप कार्य हिंसा है और प्रमाद उस को उपेक्षित कर 'अहिंसा को मूल जैन-संस्कृति' प्रचारित हिंसारूप कार्य का कारण है, यानी-बिना प्रमाद के हिंसा करने की।
नही बन सकती। इसी प्रकार मूठ आदि पापों में भी
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परा-सोधिए
प्रमाद की कारणता है। और प्रमाद को परिग्रह कहा (ब) अपज्ज-बवब, पाप, निन्दनीय । गया है। फलतः परिग्रह की मुक्ति से ही सर्व पापों और
-पाइय सह मह. संसार से मुक्ति मिल सकती है और इसलिए हमें सर्व- सावज्ज (सावद्य) प्रथम मूल कारण परिग्रह को कृश करना चाहिए। लोक (क) अवचं पापं सहावयेन वर्तत इति सावधः, में भी कहावत है कि 'चोर को मत मारो चोर की जननी सहावोन गहितकर्मणा हिंसाविना वर्तत इति; को मारो।' जननी मर जायगी तो चोरों की संतान हिंसादिदोषयुक्त; परम्परा स्वयं समाप्त हो जायेगी।
गरहियमवज्जमुत्तं, पावं सहतेण सावजं Irel जन तीर्थंकर महान थे उन्होंने परिग्रह से मुक्त होने
अहवेहज्जणिज्जं, वज्ज पावं ति सहसकारस्स । के लिए, परिग्रह की पहचान के हेतु स्व-पर भेद-विज्ञान
दिग्षता देशाओं सहवज्जेणं ति सावज्जं ॥ ३४१७॥ करने को सर्वोपरि रखा। उन्हें स्व-से आत्मा और 'पर'
-हिंसाचोयीदिहितकमलिम्बने; गहितकर्मयुक्त से परिग्रह अर्थ लेना इष्ट था। क्योंकि संसार या कर्म-रूप
मिथ्यात्व लक्षण कषायलक्षणं सह सावधो नाम कर्म परिग्रह से छुटकारा पाए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती थी
बन्धो अवज्ज सह जो सो सावज्जो। जौगोत्ति वा और स्व पर भेद-विज्ञान के बिना परिग्रह को भी नहीं
बावारोत्ति वा एगट्ठा; सावज्जयणुचिट्ठ तिवा जाना जा सकता था। यही कारण था कि स्व-पर भेद
पावकम्ममासेवितं ति वा वितहमाइन्नं ति वा एगट्ठा विज्ञान की सीढ़ी पर पर रखते दीक्षा के समय ही उन्होंने सावज्जमणाययणं असोहिट्ठाणं कुसीलसंसग्गा सर्व सावध उन पाप जनक क्रियाओं से किनारा किया,
एगट्ठा।
-अभि० रा.को. जिनके मूल में प्रमाद (परिग्रह) बैठा हो। शास्त्रो मेंअवद्य (ख) सावजन-सावध, पापयुक्त, पापवाला। का अर्थ गर्दा या निन्द्य कहा है (गा यमवद्यम्'-राजवा
पाइनसहमहण्णव। पार और निन्द्य सहित जो भाव अथवा क्रिया है वह ऐसे ही जहां कही प्रमाद को हिंसा के नाम से संबोसर्व ही 'सावद्य' है। उक्त प्रकाश में वेवल हिसा ही नहीं धित किया गया है वहाँ भी ऐसा समझना चाहिए कि वहां अपितु सभी पाप 'अवद्य' हैं और कारणरूप प्रमाद (परि- 'अन्नं वै प्राणः' की भांति कारण में कार्य का उपचार ग्रह) सभी के साथ है-ऐसा सिद्ध होता है।
मात्र है। अन्यथा यदि प्रमाद स्वयं सर्वात्मना हिंसा होता शास्त्रों में जहां भी सावध को हिंसा जनक क्रियाओं
ती आचार्य इस ममत्व-रूप प्रमाद को 'मूर्छ परिग्रहः' से के भावमात्र में ग्रहण किया गया है वहां स्थूल दृष्टि से
इंगित न कर 'मूळ हिंसा' इस रूप में सूत्र कहते । यदि 'आत्म-घात' के 'घात' शब्द को लक्ष्य करके ही किया गया
और गहरी दृष्टि से देखा जाय तो यह फलितार्थ भी है, ऐसा समझना चाहिए । क्यो कि घात और हिंसा एका
निकाला जा सकता है कि जब प्रमाद (पन्द्रह या अनेक र्थक जैसे हैं। कोषकारों ने अवद्य और मावद्य के जो अर्थ
भेद) सर्वात्मना हिंसा में गभित हो जाते हैं तब परिग्रह के दिए हैं वे सभी पांचों (पापों) के लक्ष्य में दिया हैं । अतः इन शब्दों को मात्र हिंसा से ही जोड़ना और अन्य पापो
लिए तो (अध्यात्म में कुछ शेष रह ही नहीं जाता, पाप पर लक्ष्य न देना किसी भी भौति ठीक नहीं है। देखें- चार हा रह जात
चार ही रह जाते हैं। फर्क मात्र इतना रह जाता है कि अवज्ज (अवध)
कभी पार्श्व के-चार पापों के परिहार रूप माने गए (क) मिथ्याकषाय लक्षणे (आ. म.प्र.) गा, कम्म- चार यामों मे (जो वस्तुत: न्याय संगत नहीं ठहरते) ब्रह्म
वज्जं जंगर-हिय् ति कोहाइणो व चतारियत चर्य को अपरिग्रह में गमित किया गया था। और यहां गहित निन्द्य कर्मानुष्ठानं अथवा क्रोधादयश्चत्वारों प्रमाद (मूळ) रूप परिग्रह को हिंसा मे गमित करम. अवद्य, तेषां सर्वावध हेतुतया कारणे कार्योप्रचा- महावीर और चौबीसों तीर्थंकरों के पंच महावतों की
अभि. रा. कोष, मर्यादा को मंगकर चार पाप मानने का प्रच्छन्न प्रयत्न
रात् ।
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भनेका
बन रहा है। इस प्रकार सभी तीर्थकरों की अवहेलना हो कि-"मुनिराज का पद ही गरिमापूर्ण है। क्या हम रही है । अस्तु:
यह भी भूल पायें कि-"भुक्तिमात्र प्रदानेन का परीक्षा
तपस्विना" वाक्य हमारे लिए ही है और सम्यग्दृष्टि अपने विषय में हम यह भी जानते हैं कि परिग्रह
श्रावक सदा उपगूहन अंग का पालन करते हैं, आदि । पहले ही हमसे बहुत कुछ रुष्ट है-हम अकिंचन जैसे हैं; अब हमारी परिग्रहकृषता-त्याग जैसी बात से कतिपय
उस दिन हमने एक हितचिंतक की बातें सुनी, जो परिग्रही दीर्घ संसारी बह परिग्रही भी कुछ रुष्ट हो सकते
बड़े दुखी और चिन्तित ह य की पुकार जैसी लगी। हों-जिसकी हमें आशा नहीं) फिर भी हमें इसकी इनमें मुनि-संस्था के निर्मल और अक्षुण्ण रखने जैसी चिंता से कहीं अधिक चिता आगम मार्ग रक्षा और समाज में 'मूल-जैन संस्कृति अपरिग्रह' को अक्षुण्ण रखने की है; जिसकी उपेक्षा कर आज कुछ लोग अधिकाधिक संग्रही बातें समय-संगत थीं और विचार कर सुधार करने बनने की होड़ में अहिंसा के नाम पर मौज उड़ाने के में सभी की भलाई है। हमारी दृष्टि में तो पहिले हम अभ्यासी हो रहे हैं-भोगोपभोग में मग्न रहकर भी धर्म- श्रावक ही अपने में सुधार करें। संभवतः हम श्रावक ही ध्यानी बनना चाहते हैं। मोक्ष चाहते हैं। ऐसी सभी मुनिमार्ग को दूषित कराने में प्रधान सहयोगी हैं। हम क्रियाएंउन्हें पर-भव में मंहगी पड़ सकती है। इस भव में श्रावक जहाँ इक्के-दुक्के मुनिराज को अपनी दृष्टि सेतो धर्म का ह्रास देखा ही जा रहा है।
कहीन्हिीं अंशों मे कुछ प्रभावक पाते हैं, उनकी अन्य
शिथिलताओं को नजरन्दाज कर जाते हैं और साधु को काश हमने अपरिग्रह को अपनी मूल-संस्कृति मानते इतना बढ़ावा देने लग जाते हैं कि साधु को स्वयं में एक रहने का अभ्यास किया होता और परिग्रह (तृष्णा) के संस्था बनने को मजबूर हो जाना पड़ता है। साधु के यश क्षीण करने को प्राथमिकता दी होती तो परिग्रह संचय
के अम्बार लगे रहें और वह भीड से घिरा चारों ओर करने से हमारे मन और दोनों हाथों को ब्रेक भी लगा ,
लगा अपने जय-घोष सुनता रहे, तो इस युग मे तो यश-लिप्सा होता और अहिंसादि (त्याग रूप) व्रतो का निवाह भी हुआ से बचे रहना उसे बड़ा दुष्कर कार्य है। फलत: साधु स्वयं होता, हम नी पहले की भांति लोक-प्रतिष्ठित भी रहते
संस्था और आचार्य बन जाता है और भक्तगण उसके और हमारा कल्याण भी निकट होता--व्यवहार में
आज्ञाकारी शिष्य । नतीजा यह होता है कि साधु की शायद हम निकट-भव्यों की श्रेणी में भी होते। जरा
अपनी दृष्टि बैराग्य से हटकर प्रतिष्ठा और यश पर सोधिए ! तथ्य क्या है ?
केन्द्रित होने लगती है। उसकी दृष्टि में परम्परागत
आचार्य भी फीके पड़ने लगते है। बस, साधु की यही ४. क्या हम श्रावक निर्दोष हैं ?
प्रवृत्ति उच्छृङ्खल और उद्दण्ड होने की शुरुआत होती है। मुनि-पद की अपनी विशेष गरिमा है और इसी गरिमा के कारण इस पद को पंच परमेष्ठियों में स्थान मिल सका जनता दूसरो का माप अपने से करती है। हमे है-'णमो लोए सब्यसाहूण।'-जब कोई व्यक्ति किसी बोलने की कला नही और अमुक साधु बहुत बढ़ियामुनिराज की ओर अंगुली उठाता है तो हमें आश्चर्य और जन-मन-मोहक प्रवचन करते हैं या हम अपना भ्रमणदुख दोनों होते हैं। हम सोचते हैं कि यदि हमें अधिकार प्रोग्राम घोषित कर चलते हैं तो अमुक साधु बिना कुछ मिला होता तो हम ऐसे निन्दक व्यक्ति को अवश्य ही कहे ही एकासी, मौन विहार कर देते है तो हम आकर्षित 'तनखैया' घोषित कर देते जो हमारे पूज्य और इष्ट की होकर उन्हे हर समय घेरने लगते हैं-उनकी जय-जयनिन्दा करता हो। आखिर, हमें सिखाया भी तो गया है कार के अम्बार लगा देते हैं। पत्रकार प्रकाशन-सामग्री
किया होताना मूल-संभ
भोग करने
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जरा-सोधिग
मिलने से उस प्रसंग को विशेष रूपों में छपाने लगते और अन्त तक (और आज भी) इससे दूर रहे उन्होंने हैं । बस, कदाचित् साधु को लगने लगता है कि नही स्वीकारा जब कि कई मुनि श्रावकों की भक्ति के मुझसे उत्तम और कौन ? उसका मोह (चाहे वह प्रभावना वशीभूत हो अपने स्वयं के पद को भुला बेठते हैं। किसी के प्रति ही क्यों न हो) बढ़ने लगता है और वह भी ऐसे मुनि के जन्म की रजत, स्वर्ण या हीरक जयंती मनाई कार्यों को प्राथमिकता देने लग जाता है जिसे जनता जाती है तो काल गणना माता के गर्भ निःसरण काल से चाहती हो, उसके भक्त चाहते हों और जिससे उसका की जाती है जैसे कि आम संसारी जनों में होता है। विशेष गुणगान होता हो। वह देखता है-लोगों की रुचि जब कि, मुनि का वास्तविक जन्म दीक्षा काल से होता हैमन्दिरों के निर्माण में है तो वह उसी में सक्रिय हो जाता वीतराग अवस्था के धारण से होता है और आगम में भी है, साहित्य मे जन-रुचि है तो वह साहित्य लिख-लिखाकर मुनि अवस्था को ही पूज्य बताया गया है। क्या मुनि कोई उसके प्रकाशन मे लग जाता है या बाहरी शोध-खोज की तीर्थकर हैं; जो उनको कल्याणको से तौला जाय? पर, बातें करने लनता है अपनी खोन और कर्तव्य को भूल क्या कहें श्रावक तौलते हैं और मुनि तुलते हैं। आखिर जाता है। आज अविचल रहने वाले साधु भी हैं और वे .जरूरत क्या है--घिसे-पिटे दिनों को गिनने की? क्या इससे धन्य हैं।
मुनि-पद ज्यादा चमक जाता है ? धन्य है वे परम वीय
रागी मुनि, जो इस सबसे दूर रहते हैं।-"हम उनके ___ मुनियों की जयन्तियाँ मनाने उन्हे अभिनन्दन ग्रथ या
दास, जिन्होंने मन मार लिया।" अभिनंदन-पत्रादि भेंट करने कराने जैसे सभी कार्य भी श्रावकों से ही सम्पन्न किये जाते है । कैसी विडम्बना है हमे यह सब सोचना होगा और मुनियों के प्रति कि-'मारे और रोने न दे'? हम ही बढ़ावा दे और हम चिता व्यक्त न कर, पहिले अपने को सुधारना होगा। ही उन्हे उस मार्ग मे जाने से रोकने को कहें ? ये तो ऐसा काश, हम श्रावक उन्हें चन्दा न दें तो मुनि रसीद पर ही हआ जैसे साधू कमरे मे बैठ जाय और गृहस्थ आपस हस्ताक्षर न करें, आदि। यदि हम ठीक रहें और श्रावकमें ऊपर एक पखा फिट कराने की बाते करें? साधु मना सघ को कर्तव्य के प्रति सजग रखने का प्रयत्न करें तो करें तो कहे-महाराज यह तो हम श्रावको के लिए ही सब स्वयं ही सही हो - पदेन सभी मुनि उत्तम हैं। लगवा रहे हैं, आदि। जब पखा लग जाय तब वे ही धावक बाहर आकर कहे कि ये कैसे महाराज है-'पखे का उप
कैसी विडम्बना है कि हम अपने नेताओं को और योग करते हैं ?
अपनें श्रावक-पद को तो सही न करें और पूज्य मुनियों
की तथा परायों की चिंता में दुबले होते रहें। जरा हमने देखा पू० प्रा० श्री धर्मसागर जी का 'अभिनंदन- सोचिए ! अन्य लोगों का कहना है आचार्य श्री इसमें सहमत न थे
-संपादक
धर्म-ध्यान युत परम विचित्र । अन्तर बाहर सहज पवित्र ।। लोक लाज विगलित भय हीन । विषय वासना रहित मदीन ॥ मान दिगम्बर-मुद्रा धार । सो मुनिराज जगत हितकार ॥ एकबार लघु भोजन करें। सो मुनि मुक्ति पंथ.को परे॥
-
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३२, वर्ष ३७, कि० ३
दुखद निधन
वीर सेवा मन्दिर की कार्यकारिणी के सदस्य श्री रत्नत्रयधारी जैन एडवोकेट का आकस्मिक निधन हो गया है । वे अन्य अनेकों संस्थाओं से संबद्ध, समाज के कर्मठ कार्यकर्ता थे। उनके निधन से अपार क्षति हुई है । वीर सेवा मन्दिर परिवार दिवंगत आत्मा की सुख-शान्ति की प्रार्थना और उनके परिवार के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है ।
की । ये प्रतिमायें लगभग पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन होगी ।"
अत: जैन मूर्तियों पर आलेखित लेखों ताम्रपत्र, तथा शिलालेखों आदि में उपलब्ध सामग्री से भगवान पार्श्वनाथ की महत्ता जैनकला और स्थापत्य में स्पष्ट प्रकट होती है ।
तीर्थ प्रथम भाग पेज १२२
अनेकान्त
४. वही पेज १२७
"1 "
५. वही
१. लेखक - श्री रतनलाल जैन जैन धर्म पेज १२४ २. लेखक --- वादिराजसूरि कृत पासणाहचरिउ ७३/७५ हयसेण वम्मिला जादो वाराणसीए पासजिरगो । पूसस्स बहुल एक्कारसिए रिक्खेविसाहाए ||
३. सम्पादक - बलभद्र जैन
भारत के दिगम्बर जैन
""
(पृष्ठ २२ का शेषांश)
"3
सन्दर्भ-सूच
६. वही७. वही
"1 33
८. लेखक - अजित कुमार जैन : जैनकला तीर्थ गोपाचल, स्याद्वद ज्ञानगंगा पत्रिका जुलाई ८४ | पेज २७ । ९. वही, पेज २६
१०. संकलन सुरेश ढोले : लेख ऐलोरा की गुफायें : आचार्य विमल सागर म० १८ वी जन्म जयन्ती समारोह स्मारिका ।
११. सम्पादक बलवद्र जैन भारत के वि० जैन ती पेज ३४ पर |
स्थापत्य की दृष्टि से भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिरों में प्राप्त मूर्तिया एव भग्नावशेष जैन-कला में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं ।
महासचिव वीर सेवा मन्दिर
१२. वही पेज ३४ पर
33
१३. वही
१४.
१५.
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२१.
२२.
२३.
ܕܐ
21
१६. लेखक – नरेश कुमार पाठक अनेकान्त जनवरी मार्च पेज ६
१७. वही पेज ६ पर १८.
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33
"
- जैन मन्दिर के पास, बिजनौर पिन कोड -- २४६७०१ ( उ०प्र०)
१६. सम्पादक बलभद्र जैन
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भारत के दिगम्बर जैन
तीर्थ प्रथम भाग पेज १२८
२०. वही पेज ५६ भारत में दि० जेन तीर्थं
"
"} "1
""
२६. भारत के दि० जैन तीर्थ भाग १ पेज १०४ २७. लेखक – कु. बन्दना जैन : खजुराहो दर्शन : मंगल ज्योति स्मारिका ।
२८. जैन शिला लेख संग्रह भाग २ पृ०२२७ २२८ २६. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग १ पेज ६१ सम्पादक बलभद्र जैन ।
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दिल्ली से श्री महावीरजी की पद यात्रा सम्पन्न
"श्री वीर जय जय महावीर जय जय" के मधुर गीत गाते हुए जब पद यात्री किसी नगर या मन्दिर में प्रवेश करते तब वहां की समाज उनका अभूतपूर्व स्वागत करती । इन पदयात्रियो ने आचार्य श्री दर्शनसागर जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त कर दिनांक ७ अक्तूबर ८४ को प्रातः 8 बजे चांदनीचौक स्थित श्री दि० जैन लाल मन्दिर से श्री महावीरजी के लिए प्रस्थान किया। दिल्ली के जैन समाज ने इन पदयात्रियों को पुष्पहार पहना कर भावभीनी विदाई दी।
ये पद यात्री भोगल, बदरपुर, फरीदाबाद, बल्लभगढ़, गदपुरी, पलवल, औरगाबाद, बनवारी, होडल, कोसी, छाता, छटीकरा, चौरासी, जाजमपटटी, भरतपुर, उच्चैन, बयाना, सुरोंठ, ढिढोरा, हिण्डौन, शान्तिवीर नगर होते हुए दिनांक १६ अक्तूबर की प्रातः ५ बजे श्री महावीरजी के मन्दिर मे पहुचे । भगवान महावीर के जयजयकार से मन्दिर का वातावरण मुखरित हो उठा। यात्रा संघ के सभी सदस्यों ने भगवान महावीर के चरणों में नमन किया, प्रक्षाल पूजा और पाठ कर मन्दिर की परिक्रमा की ।
इस यात्रा संघ में लगभग २५ व्यक्ति थे जिनमें से १६ यात्रियों ने पैदल यात्रा की। यात्रा की विशेषता यह थी कि सभी यात्री हर समय भजन-कीर्तन करते हुए आगे बढ़ते । जहा कही रुक्ते स्वाध्याय में लीन रहते । देव दर्शन करना, पूजा अर्चना करना, रात्रि भोजन नही करना, पानी छान कर उपयोग करना, शुद्ध भोजन न चमड़े की वस्तुओं का परित्याग आदि सभी पदानियो के जीवन का अग बन गया था। इतना ही नहीं मनी पदयात्री अनगैल बातो और फोध आदि कथा से दूर रहे यात्रियों को श्री पदमचन्द जी शास्त्री के प्रवचनो का लाभ प्रतिदिन सुबह शाम प्राप्त हुआ जो यात्रा संघ के साथ गए हुए थे । रास्ते में अर्जन बन्धु भी पदयात्रियों के स्वर में स्वर मिलाकर जय महावीर के नारे लगाते संघ ने रास्ते में जाये
सभी जिनालयों के दर्शन भी किये। श्री पदमचन्द जी शास्त्री के प्रवचनों से यात्रियों के अतिरिक्त स्थानीय समाज के अन्य लोग भी लाभान्वित हुए। अपने प्रवचन में शास्त्री जी ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की यात्रा साधना का ही एक अंग है क्योंकि सभी यात्री संयम का पालन करते रहे। इस प्रकार की सभी क्रियाएं आत्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक होती हैं। ऐसी यात्राओं से धर्म की महती प्रभावना होती है।
दिनांक १९ अक्टूबर को रात्रि में श्री महावीरजी में पदयात्रा संघ यात्रियों के सम्मान में एक सभा का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता क्षेत्र के व्यवस्थापक श्री जे० पी०एस० जैन ने की । ब्र० कमलाबाई के सानिध्य में सम्पन्न इस सभा में श्री सुभाष जैन व श्री उम्मेदमल पाण्डया को यात्रा की सफलता के लिए आशीर्वाद स्वरूप रजत पत्र भेंट किये गये। सभा मे दि० जैन आदर्श महिला विद्यालय की बालिकाओं द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम व श्री प्रदीप जैन के भजनों की सभी ने मुक्त कंठ से सराहना की ।
इस पद यात्रा का श्रेय जहां शकुन प्रकाशन के संचालक श्री सुभाष जैन के सकल्प को है वहां मार्ग में आवास व भोजनादि की व्यवस्था का दायित्व भी उम्मेदमल पांडया ने स्वीकार कर यात्रा को निष्कटक बना दिया । इस संदर्भ मे दि० जैन आदर्श महिला विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री ब्रजमोहन जी की सराहना किए बिना नहीं रहा जा सकता जिन्होंने व्यवस्था में समय-समय पर योगदान दिया।
श्री पदमचन्द जी शात्री को इस यात्रा मे क्या अनुभव हुआ इस पर एक पुस्तिका निकट भविष्य मे शीघ्र प्रकाशित की जाने की आशा है।
२५, अक्तूबर ८४
- अनिलकुमार जैन २७७०, कुतुब रोड, दिल्ली
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Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62
बार-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीनमालक स्वामी समन्तभद्रका गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
बीके विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... .४५. सम्ब-प्रशस्ति संग्रह भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित पूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... बमबम्ब-प्रशस्ति संघह, भाग २: सपना के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह। सपन
अन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५... समाषितम्ब पौरप्टोपदेश: मध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य बन तीर्ष : श्री राजकृष्ण जैन ... प्याय-दीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रोग. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु। १०... बन साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्य । बतायपाहन्दुत्त: मूल ग्रन्य की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५... अंग निवग्य-रलावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानातक (ध्यानस्तव सहित):संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०. भावपर्म संहिता:धी दरयावसिंह सोषिया जैन समजावली (तीन भागों में): सं०१० बालबन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ..... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, बहुचर्चित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तकंपूर्ण विवेचन । प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
२-०० Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन Jaina Bibliography . Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942)
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मुशित ।
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और सेवा मन्दिर का त्रैमासिक
अनेकान्त
(पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'पुगवीर') वध ३७:कि०४
अक्टूबर-दिसम्बर REEN इस अंक में
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विषय १. अनेकान्त महिमा २. पट्ट महादेवी शान्तला-डा. ज्योति प्रसाद जैन,
लखनऊ ३.६० शिरोमणिदास की 'धर्मसार सतसई'
-श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ४. क्या राजा श्रेणिक ने आत्म-हत्या की?
-प. श्री रतनलाल कटारिया ४.पंच-महावत-श्री बाबूलाल वक्ता १. वाचनिक अहिंसा : स्याद्वाद
-श्री अशोक कुमार जैन एम.ए ७. एक अप्रकाशित अपना-रचना
-डा. कस्तूरचन्द्र 'सुमन' ८ पांच अश्व (कविता)-कुमारी ढा० सविता जैन २५ ६. णमोकार मत्र का फल-पुण्याश्रय कथा कोशा से २६ १०. वर्धमान की तालीम
-शायर, फरोग नक्काश ११. सम्पादकीय मेंट साक्षात्कार-प्रसंग में
आवरण २ वीर सेवा मन्दिर की वर्तमान कार्यकारिणी , ३
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वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली:२
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साक्षात्कार-प्रसंग में
बात-बात में बात निकलती है। उस दिन डा. नन्दलाल जैन आ गये। मैंने पूछा-कैसे पधारना हमा। बोले-एक उत्सव में आया था । आपका 'अनेकान्त' मुझे इधर खींच लाया । सोचा, आपके भी दर्शन करता चलू । 'अनेकान्त' मिलता रहता है, उसमें खोज पूर्ण सामग्री रहती है । आप जो बहुत से नए आयाम दे रहे हैं; और खासकर 'जरा सोचिए' में जो मुहे उठाए जाते हैं, उनसे नई दिशाएँ मिलती हैं। मैं तो यहां तक कहूंगा कि उससे सुप्त-अंतरघेतना जागृत जैसी हो जाती है और ऐसा लगता है कि उसे पढ़ता ही र ।
मैंने कहा-आप की बड़ी कृपा है, इस कृपा के लिए धन्यवाद ।
वे बोले-कोरे धन्यवाद से काम न चलेगा । मैं तो आप से कुछ हीरे प्राप्त करने आया हूं। आपके मुखारविन्द से एक-दो बात तो सुन । कृपा कीजिए।
मैंने कहा- तो मैं हीरों का व्यापारी हूं और ना ही मेरा मुख अरविन्द है । आप तो किसी बड़े उत्सव में आए थे, आपने बड़े-बड़े वक्ताओं को सुना होगा । पहिले तो आप ही मुझे उन प्रसंगो से अवगत कराएं जो आपको उत्सव में उपलब्ध हुए। जब आप अनायास आ ही गए हैं तो क्यों न मैं उन प्रसंगो से लाभ उठाऊँ ?
वे बोले-प्यासा क्या दूसरों की प्यास बुझाएगा? मुझे तो उत्सव में कुछ नही मिला । मैं जिस साध को लेकर आया था-अधूरी ही रही। बल्कि निराशा ही हाथ लगी । यहां भी वही देखा जो अन्य जगहों में देखता रहा हूं। लाखों का खर्च करके अनेकों विद्वान, उत्तम स्टेज-सजावट, उत्तम भोजन की उपलब्धि आदि के सभी व्यवस्थित उपक्रम किए गए, बनेकों प्रस्ताव पास हुए। पर, किसी ने जैन की मूल प्रक्रिया पर प्रकाश नहीं डाला । हां, अहिंसा के विषय में जरूर कुछ टूटा-फूटा सा उल्लेख आया । एक ने तो कहा कि जब अहिंसा को औरो ने भी माना है और जैन भी इसके पुजारी है तो हमें इसी पर जोर देना चाहिए । आज संसार त्रस्त है, उसका त्रास अहिंसा से ही मिट सकेगई, आदि । जब कि त्रास की मूल जड़ परिग्रह है, जिसे लोग बढ़ाए जा रहे हैं । इसका भाव तो ऐसा हुआ कि रोग बढ़ाते जाओ और इलाज कराए जाओ।
मैंने कहा-ठीक है जब सभी इसमे एक मत हैं तो यही उत्सव की बड़ी उपलब्धि है प्रेश मान लीजिए।
वे बोले-क्या कहने और प्रस्ताव पास करने मात्र से उपलब्धि हो जाती है या आचरण करने से उपलब्धि होती है। भाषण तो बहुत से सुनते हैं उन्हें आचरण में कितने लोग उतारते हैं।
मैंने कहा--आज के उत्सवों का प्रयोजन इतना ही रह गया है कि हमारी बात को अधिक लोग सुन-समझ सकें। दरअसल बात यह है कि हम दूसरो की चिन्ता करने के अभ्यासी बन चुके हैं। जैसे आंख दूसरों को देखती है अपने को नहींहमें पड़ोसी, देश और विदेश सबको सुधारने की चिन्तह-सबमे कमी दिखती है । पर, हम अपनी कमी को नहीं देखते हैं । जैन-तीर्थंकरों ने ऐसा नही किया। उनका पहिला कार्य आत्महित रहा-वे पहिले केवल ज्ञानी बने बाद को समवसरण को संबोधित किया। यदि हम दर्पण लेकर देखें तब हमारी आंखें स्वयं को देख पाएंगी। यदि हम अपने अन्तर में झांके तो बाहर के सुधार की सब बातें धरी रह जाएंगी-हम अपने दोषों को देख सकेंगे और सुधार में लम सकेंगे।
मैं तो ऐसा समझ पाया हूँ कि विचार, आचार, और प्रचार इन तीनों का अटूट सम्बन्ध है। यदि आप प्रचार करें तो वह आचार विना अधूरा है और प्राचार भी विचार विना अधूरा है । कुछ लोग विचार करते हैं आचरण नही करते । भला, जिनके स्वयं का आचरण नही उनके द्वारा प्रचार कमा? वह तो ढोल में पोल ही होगा।
ये जो हमारी विद्वत्समाज,जिमका सारा जीवन जिणवाणी की उपासना में बीता। जब बह ही शास्त्रों के अनुकूल आचरण नहीं कर सका-बीतरागी नही बन सका-उसे धन और धनवानों की ओर ताकने को मजबूर होना पहा, तब यह कैसे हो सकता है कि उसके वीतराग-वाणी रूप भाषण या प्रचार का असर चन्द-क्षरणों में हो जाय ? खिता तो ऐसा है कि जैसे व्यापारी वर्ग भी घाटे में जा रहा हो। वह लाखों खर्च करके भी मात्र नश्वर-यश अर्जन में सया हो---उसी के लिए सब कुछ कर रहा हो-आत्म-नाम से उसे कोई प्रयोजन ही न हो, वह भी परायों में दूब गया हो।
[शेष बावरण तीन पर]
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बोन गईन
परमागमस्यबीजं निषिडजात्पन्धसिम्पुरविधानम् । सकलमयविलसिताना विरोधमपनं नमाम्बनेकान्तम्॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ बरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संक्त २५१०, वि० स०२०४०
वर्ष ३७ किरण
अक्टूबर-दिसम्बर
१९९४
अनेकान्त-महिमा अनंत धर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगास्मनः । अनेकान्तमयीमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ औरण विणा लोगस्स वियवहारो सम्बहा ण रिणब्बडा। तस्स भुवनेकगुरुणो णमो अरणेगंतवायस्स ॥'
परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध-सिन्धुरभिषानम् ।
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥' महमिच्छादसण समूह महियास प्रमयसारस । जिरणबयणरस भगवनो संविग्गसहाहिगमस्स ॥' परमागम का बीज जो, जैनागम का प्रारण। 'अनेकान्त' सत्सूर्य सो, करो जगत कल्याण ॥
भनेकान्त' रवि किरण से, तम प्रज्ञान विनाश ।
मिटे मिथ्यात्व-कुरोति सब, हो सक्षम-प्रकाश ॥ अनन्त धर्मा-तत्वों अथवा चैतन्य-परम-आत्मा को पृथक-भिन्न-रूप दर्शाने वाली, अनेकान्तमयी मति--जिनवाणी, नित्य-त्रिकाल ही प्रकाश करती रहे हमारो अन्तज्योति को जागृत करती रहे।
जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा ही नहीं बन सकता, उस भुवन के गुरु-असाधारणगुरु, अनेकान्तवाद को नमस्कार हो।
जन्मान्ध पुरुषों के हस्तिविधान रूप एकांत को दूर करने वाले, समस्त नयों से प्रकाशित, वस्तुस्वभावों के विरोधों का मन्थन करने वाले उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त के जीवनभूत, एक पक्ष रहित अनेकान्तस्यावाद को नमल्कार करता हूं।
___मिप्यादर्शन समूह का विनाश करने वाले, अमृतसार रूप; सुखपूर्वक समझ में आने वाले; भगवान जिन के (अनेकान्त गभित) बचन के भद्र (कल्याण) हों।
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पट्ट महादेवी शान्तला
"आपकी यह बिटिया 'जगती- मानिनी बनकर बिरा जेगी अर्थात् वह सारे विश्व में गरिमायुक्त गौरव से पूजी जाने वाली मानवदेवता की स्थिति प्राप्त कर लेगी। अपने जीतेजी ही जन-जन के स्नेह, श्रद्धा एवं भक्ति की पात्री बनकर एक देवी की भांति पूजित होगी और यह सब अपने सद्व्यवहार, सद्गुणों तथा अप्रतिम व्यक्तित्व के बल पर ही ।"
'जगती- मानिनी' बनने का उपरोक्त उद्गार, भविष्यवाणी, पूर्वाभास अथवा शुभाकांक्षारूप आशीर्वाद, अबसे लगभग नौ-सौ वर्ष पूर्व एक आठ-नौ वर्ष की नन्हीं बालिका के विषय में उसके शिक्षक ने उसके पिता के समक्ष व्यक्त किया था । स्थान था दक्षिण भारत के मुकुटमणि कर्नाटक देश का बलिपुर (वर्तमान बेलगांव ) । बालिका के पिता थे उस नगर एवं सम्बन्धित प्रदेश के हेगड़े या (पेग्गड ) पदधारी स्थानीय प्रशासक एवं ग्राम प्रमुख बलिपुर द्वार-समुद्र होयसल राज्य का एक 'महत्वपूर्ण सीमात जनपद एव प्रशासकीय इकाई था । हेगड़े का नाम मारसिंगध्य था । जो कुशल प्रशासक, वीर योद्धा और स्वामीभक्त राज्य कर्मचारी थे--- होयसल नरेश विनयादित्य द्वितीय (१०६०-११००, के और विशेषकर उनके सुपुत्र तथा राज्य के वास्तविक कार्यसंचालक पोयसलवंशत्रिभुवनमल्ल युवराज एरेयग महाप्रभु के वह अत्यन्त विश्वासपात्र थे । हेग्गड़ की धर्मपत्नी मानिकब्बे दडनाथ नाग वर्मा की पौत्री, दण्डनायक बलनेव की पुत्री और पेगडे सिगमय्य की भगिनी थी। वीर सेनानियों के प्रसिद्ध कुल मे उपन्न यह महिला अपने पितृकुल की प्रवृत्ति के अनुसार परम जिन भक्त थी, जबकि उसके पति हेगडे मारलिंगय परम शैव थे । परन्तु धर्मवैभिन्य के कारण उन पति-पत्नी के बीच असमाधान की स्थिति कभी नहीं आई दोनों का दाम्पत्य जीवन सुख-शान्ति, प्रेम और सद्भाव
डा० ज्योतिप्रसाद जैन 'इतिहास मनोषी'
पूर्वक व्यतीत हो रहा था । और इन महाभाग दम्पति की एक मात्र सन्तान, उनकी लाड़ली बेटी (शान्तले) मान्तला देवी या शान्तल देवी थी, जिसे लक्ष्य करके उसके शिक्षक, विविध विषय- निष्णात श्रेष्ठ विद्वान कविवर पण्डित बोकिमय्य ने वह शुभकामना व्यक्त की थी। वह स्वयं श्रवणबेलगोल के तत्कालीन भट्टारक पण्डिताचार्य heronifi के गृहस्थ शिष्य थे। एक साधारण हेगडे की पुत्री यह अद्भुत लड़की प्रायः यौवनारम्भ में ही युवराज एरेयंग महाप्रभु एवं युवराशी एचल देवी के द्वितीय पुत्र राजकुमार बिट्टिदेव की प्राणवल्लभा हुई और होयसल वंश के सर्वाधिक प्रतापी, शक्तिशाली एवं प्रख्यात नरेश बिट्टि - वर्द्धन अपरनाम विष्णुवर्द्धनिदेव (११०६-११४८) के रूप में उसके राज्यकाल में उसकी प्रिय पट्ट महादेवी अपने शेष पूरे जीवनकाल में बनी रही। वह उस होयसल चक्रवर्ती की सफलताओं, तेज प्रताप का प्रधान प्रेरणास्रोत एवं सक्रिय सहयोगिनी रही- वह उसकी सरस्वती, लक्ष्मी और शक्ति तीनों ही थी। साथ ही, राज्य की ही समस्त प्रजा नहीं, बास-पास भी दूर-दूर तक जिसके बुद्धि-वैषम्य, विक्षता एवं अप्रतिम निष्कल्मष सद्व्यवहार से छोटे-बड़ े सभी जन अभिभूत रहे ।
प्रबुद्ध होने का दावा करने वाला आज का मानव तर्कशील एवं शंकालु होता है । इतिहासातीत व्यक्तियों एवं घटनाओं को सो वह प्रायः पौराणिक, मिथिक या कपोलकल्पित गप्प कहकर नकार देता है । वह यह भूल जाता है कि सारा इतिहास दूर अतीत का अंश बनकर पुराण हो जाता है, और प्राचीन ऐतिहासिक स्थल भी कालान्तर में तीर्थस्थानों का रूप ग्रहण कर लेते हैं । इतना ही नहीं, गत बढ़ाई-तीन हजार वर्षों से संबंधित शुद्ध इतिहासकालीन व्यक्ति एवं घटनाओं को भी, उनके इतिहास सिद्ध होते हुए भी, वह यथावत स्वीकार करने
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में संकोच करता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐति- उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु उनके हिन्दी अनुहासिक गवेषणा एवं शोध-खोज ही न की जाय, और वाद न होने से उनका कोई परिचय प्राप्त नहीं हुआ। उसके आलोक में अधुनाहान ज्ञातव्य में कोई संशोधन एवं कन्नड़ भाषा एवं साहित्य के एक महारथी, श्री सी. के. परिष्कार न किया जाय, किन्तु जितना जो भात है उसे नागराजराव ने साधिक आठ वर्ष के परिश्रम से, १९७६ तो स्वीकारना चाहिए।
में अपना जो लगभग २२५० पृष्ठों का वृहत्काय उपन्यास जहां तक महारानी शान्तला देवी का प्रश्न है, उन्हें 'पद्रमहादेवी शान्तला' कन्नड़ भाषा में लिखकर पूर्ण किया ए पूरे नौ सौ वर्ष भी नही बीते हैं । तत्कालीन तथा किया था और प्रकाशित भी करा दिया, उसके हिन्दी निकटवर्ती अनेक स्मारकों, शिलालेखों तात्कालिक उल्लेखों अनुवाद का प्रथम भाग (पृष्ठ सख्या ४००), १९८३ में एवं लोकप्रचलित अनुश्रुतियों आदि के अतिरिक्त ऐतिहा- भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। इस भाग मे सिक शोष-खोज पर आधारित आधुनिक युगीन इतिहास- चरित्रनायिका के वाल्यकाल एव किशोर वय के पन्द्रह वर्ष ग्रंथों में महिलारत्न के विषय में प्रभूत ज्ञातव्य प्राप्त है। की आयु पर्यन्त, लगभग ६ पृष्ठो का ही घटनाक्रम आइतिहास का विद्यार्थी होने के नाते प्रारम्भ से ही हमारा पाया है। प्रयास सामान्य भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में विभिन्न शेष तीन भाग भी एक-एक करके शीघ्र ही प्रकाशित यगीन एवं विभिन्न क्षेत्रीय तथा विभिन्न वगीय जैन होगे, ऐसी आशा है हिन्दी रूपान्तर कार पण्डित पी. पुरुषों एव महिलाओ के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं योगदान बैंकटाचल शर्मा लगभग ७५ वर्ष की आयु के अनुभवबद्ध का मूल्यांकन करता रहा है । कर्णाटक के श्रवणबेलगोल उभयभाषाविज्ञ कन्नडी विद्वान हैं, अतएव अनुवाद की आदि स्थानों से प्राप्त शिलालेखों तथा रामास्वामी अयं- भाषा अति सरल, महावरेदार एवं प्रभावपूर्ण है । उसमें गार, शेषागि रराव, राईस, नरसिंहाचार्य, मडारकर, मूल कन्नड़ कृति के भाव एव शैली का उत्तमरीत्या निहि पाठक, अल्तेकर, सालतोर, नीलकण्ठ शास्त्री प्रभूति हा-हां प्रफ संशोधन की असावधानीवश छापे की विद्वानों की कृतियों के अध्ययन से इस प्रवृत्ति को प्रेरणा अशुद्धियां यत्र-तत्र रह गई हैं। स्वय कथाकार श्री एवं बल मिला था। फरवरी १९४७ के 'अनेकान्त' में नागराजरावजी भी लगभग ७० वर्ष की आयु के ख्याति हमारा लेख 'दक्षिण भारत के राज्यवंशों में जैन धर्म का प्राप्त प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं । वह मानवीय मूल्यों के प्रभाव' प्रकाशित हुआ था। १९६१ में भारतीय शान- प्रबल समर्थक, संवेदनशील एवं कुशल कथाशिल्पी मात्र पीठ से प्रकाशित अपने ग्रंथ 'भारतीय इतिहास : एक ही नही हैं, इस ऐतिहासिक उपन्यास की रचना करने के दृष्टि' मे हमने विभिन्न युगों एवं विभिन्न क्षेत्रों में जैनों लिए उन्होने वर्षों तक तत्सम्बन्धित ऐतिहासिक साधन के ऐतिहासिक योगदान की ओर पाठको का ध्यान आक- -स्रोतों का भी गहन अध्ययन एव मन्थन किया है। पित करने का प्रयल किया था-मध्यकालीन दक्षिण गत शती के सुप्रसिद्ध फ्रान्सीसी उपन्यासकार एलेक्जेण्डर भारतीय इतिहास के प्रसंग में द्वारसमुद्र के होयसल वंश उयूमाकी एक उक्ति है कि 'इतिहास ऐसा लिखा जाना का तथा उनके अन्तर्गत महाराज विष्णुबद्धन एवं उनकी चाहिए कि पाठक समझे कि वह एक रोचक उपन्यास पढ़ पट्टमहादेवी शान्तला का भी उस ग्रंथ में परिचय दिया रहा है, और उपन्यास ऐसे लिखा जाय कि पाठक को लगे था। उसी प्रकार भारतीय ज्ञानपीठ से ही १९७५ में कि वह जीवंत इतिहास पढ़ रहा है। श्री नागराजरावजी प्रकाशित अपने ग्रंथ 'प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और के इस उपन्यास पर यह उक्ति भली प्रकार चरितार्थ है। महिलाएं' में भी उक्त महादेवी अपेक्षाकृत कुछ विस्तृत उपन्यास की कल्पनाप्रवण रोचकता के साथ इतिहास की विवरण दिया था। ज्ञात हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रमाणिकता का उसमें अद्भुत सामन्जस्य है। घटनाक्रम कन्नड भाषा में महारानी शान्तला के विषय में तीन-चार हृदयग्राही, कपनोपकथन सहज स्वाभाविक, और छोटे-बड़े
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सभी नारी एवं पुरुष पात्र सजीव हो उठे हैं । हम यह प्रयास किया है, और वह यथार्थ वस्तु स्थिति से कुछ दूर नहीं कहते कि वह शुद्ध इतिहास है-वह एक उपन्यास नहीं प्रतीत होता। आज के युग में भी वैसी भावना एवं ही है, किन्तु इतिहास की नींव पर कथाकार की रंगबिरगी स्थिति के पनपाये जाने की परम आवश्यकता है। कल्पना से निर्मित ऐसा भव्य उपन्यास रूपी प्रासाद है, दूसरी बात यह है कि जिस देश, जाति, राष्ट्रमा जिसमें चरित्रनायिका तथा उससे सम्बन्धित व्यक्तियों के युग में नारी शक्ति प्रायः पूर्णतया दमित एवं शोषित यी, व्यक्तित्व तो उपयुक्त रूप में उजार हुए ही हैं, तत्कालीन वह तत्तद पतनकाल या अन्धयुग ही रहा । यों भी कह धर्म एवं संस्कृति, लोकजीवन एवं राजनीति, मान्यताएं सकते हैं कि जब जब उत्थान एवं अभ्युदय रहा, पुरुष के एवं विश्वास भली प्रकार प्रतिबिम्बित हैं।
साथ नारी शक्ति प्रबुद्ध, सुशिक्षित, कर्मशीला और पुरुष एक बात है कि उपन्यास के लेखक एव अनुवादक की सक्रिय सहयोगगिनी, बहुधा मार्ग दशिका भी रही। धार्मिक दृष्टि से दोनों ही सज्जन अजैन हैं, जबकि चरित्र- इतिहास इसका साक्षी है। बहुत आगे-पीछे न जाकर, नायिका शान्तला देवी स्वयं तथा अन्य पात्रों में से पांचवीं-छठी शती ई० से लेकर १५ वी-
1वीं ई०पर्यन्त अधिकतर जैन धर्मावलम्बी हैं। विद्वान लेखक ने तत्कालीन दक्षिण भारत मे, और विशेषकर कर्णाटक में, जैन धर्म का जन आचार-विचार, मान्यताओं, विश्वासों, परम्पराओं अभ्युदय प्रायः अविछिन्न रहा । और उसकी इस प्राणवता नौर प्रथाओं को, उस युग, क्षेत्र और समाज के पूरे एवं तेजस्विता का श्रेय यदि दिग्गज जैनाचार्यो, सन्तों एवं परिवेश को आत्मसात करने की श्लाघनीय चेष्टा की है। वीर पुरुषों की है, तो उन सैकड़ों इतिहाससिद्ध जैन तथापि, उससे यह अपेक्षा करना कि उसे उक्त तथ्यो की महिलारत्नों को भी है, जिन्होंने उक्त काल, क्षेत्र और एक सुविज्ञ एवं प्रबुद्धजैन जैसी सहज स्वाभाविक जानकारी परम्परा को अलंकृत किया था। होयसल चक्रवर्ती विष्णुरो.एक ज्यादती है। इसी कारण एक ऐसे जैन पाठक को वर्धन की पट्टमहादेवी शान्तला (१०८३-११२८ ई.) पत्र-तत्र ऐसा लग सकता है कि अमुक तथ्य ऐसा नहीं या उक्तकालीन जैन नारी-शक्ति के आदर्श का सफल प्रतिऐसा नहीं हुआ हो सकता। किन्तु लेखक की तद्विषयक निधित्व करती है। अनभिज्ञताएं या प्रांतियां क्षम्य ही कही जायेंगी-कम से लेख के प्रारम्भ में विलक्षण महिला के लिए हमने कम उपन्यास के प्रवाह एव सोद्देश्यता पर उनसे कोई 'जगती-माकिनी विशेषण प्रयुक्त किया है-वह हमारा प्रभाव नहीं पड़ता। यों अनेक प्रसंग तो ऐसे जेनत्वपूर्ण बन आविष्कार नहीं है. कथाकार नागराजराव जी ने बालिका पड़े है कि शायद कोई जन्मजात सुविज्ञ जैन धर्मावलम्बी
मावलम्बा शान्तला के सुयोग्य अध्यापक कविवर कोकिमय्य जी के
या भी शायद वैसा न लिख पाता । महत्व की बात यह है कि मुख से उसे कहलाया है। हम कह नहीं सकते कि इसके उस युग एवं प्रदेश में जिन धर्म एक प्राणवत, प्रभावक लिए कोई ऐतिहासिक आधार है, अथवा यह विद्वान एवं पर्याप्त व्यापक धर्म था, और उसका प्रमुख कारण लेखक की अपनी सन्म है-यदि उनकी अपनी सूप्स तो शायद यह भी था कि उसके अनुयायी समदर्शी, उदार, विलक्षण है, और सर्वथा सार्थक भी। तत्कालीन बभिसहिष्णु, समन्वयवादी और सदाचारी थे, वे धर्म तत्व में लेखों आदि में उस महादेवी के रूप-सौदर्य की प्रशंसा उसे निहित मानवीय मूल्यों पर अधिक बल देते थे और भाव- -चन्द्रानने, लावण्यसिंधु, अगण्पलावण्यसम्पन्ना, कश्मननात्मक एकसूत्रता के प्रबल पोषक थे। फलस्वरूप जैन, रति, मनोजराजविजयपताका, कन्देवलम्बालकालम्बितशैव, वैष्णव, वीरव, बौद्ध आदि विभिन्न धर्मों के यथा- चरणनख-किरणकलापा, मृदुमधुर-बचनप्रसन्ना, सवर्षसम्भव निर्विरोध सामंजस्य से एक समन्वित धर्म-संस्कृति तमयोचितवचनमधुरसस्पंदि-बदनारविंदा, आदि कहकर (कम्पोजिट रिलीजसकल्चर) लक्षित हो रही थी। कम की है। उसके विद्या-बुद्धिवैभव का सूचन-प्रत्युत्पन्नसे कम थी नागराजराव ने ऐसा ही आभास देने का सफल वाचस्पति, विवेकेकवहस्पति, सकलकलागमानने, सकल
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पट्टा मादेवी भातला
गुणगणननूना, विबेयमूर्ति, सर्वकलान्विता, पंचलकार- इतने अधिक एवं अर्थगांभीर्यपूर्ण विशेषण अन्य किसी पंचरलयुक्ता, (ललितकलापंचकयुक्ता), संगीतविधा- नारीरल के लिए साहित्य या शिलालेखादि में प्रयुक्त सरस्वती, गीतावधनृत्यसूत्रधारा, संगीतसंगतसरस्वती, नही हुए। हम 'श्री नागराजरावजीते पूर्णतया सहमत है विचित्र नर्तनप्रवर्तन-पात्रशिखामणि, भारतागमद-तिरुले- कि महादेवी शान्तला में निश्चित ही ये योग्यताएं रही निसलुभय-क्रमनृत्यपरिणता, भरतागमभवननिहित-महा- होंगी। यदि एक ही शब्द में उस सर्वगुण सम्पन्ना सुलक्षणा नीयमतिप्रदीपा इत्यादि । विरदों द्वारा हुआ है। पतिव्रता- तेजोमूर्ति का परिचय दिया जाय तो उसके लिए 'जगतीप्रभावसिडसीता, अभिनवरुक्मिणीदेवी, पतिहितसत्यभामा, मानिनी' विशेषण की उपयुक्तता असंदिग्ध है। उपरोक्त में अभिनवारुंधति, पतिहितव्रता, विष्णुनुपमनोनयनप्रिया, से अधिकाश प्रशस्तिवाक्य श्रवणबेलगोल में स्वयं उस महाविष्णुवर्द्धनङ्गगदचित्तवल्लभलक्ष्मी,सौभाग्यसीमा, अनवरत. देवी द्वारा निर्मापित अति भव्य जिनालय "सवतिगंधवारणपरमकल्याणाभ्युदयशतसहस्त्रफलभोगभागिनी-द्वितीयलक्ष्मी, बसति" में प्राप्त शिलालेख में अंकित हैं और यह प्रशस्ति विष्णुवर्द्धनपोयसलदेवर-पिरियरसि पट्टमहादेवी- उसके उक्त महादेवी के दिवंगत होने के उपरांत अंकित की गई पातिवत्य, अनन्यपतिप्रेम और सौभाग्य के सूचक विशेषण थी-कविवर पं० बोकिमस्य उसके रचयिता थे और हैं। साथ ही, वह निजकुलाभ्युदयदीपिका, परिव, रफलित- संगीत-नाट्य-शिल्पाचार्य गंगाचारि ने उसे उत्कीर्ण किया कल्पितशाखा थी तो सोसिगंधहस्ति या गुद्वतंसवतिगंधवारण था। वे दोनों महानुभाव शान्तला के शैशवावस्था से ही भी थी। यह शुद्धचरित्रा, विशुद्धप्राचारविमला, व्रतगुण- शिक्षक एवं अध्यापक रहे थे । महादेवी के धर्मगुरु मूलसंघशीला, व्रतगुणशीलचरित्रान्तःकरण, मुनिजनविनेयजन- कोण्डकुन्दान्वय-देशीगण-पुस्तकमगच्छ के आचार्य मेषचन्द्र विनीता, विनयविनमद्विलासिनी, दयारसामृतपूर्णा, अचिन्त्य- विद्य के सुशिष्य आचार्य प्रमाचन्द्र सिद्धान्तदेव थे। शील, अनूनदानाभिमानी, सकलवन्दिजन चिन्तामणि,
लगभग दो मास पूर्व हमे इस उपन्यास की प्रति प्राप्त सकलसमयरक्षामणि, भव्यजनहितवत्सला, सर्वजीवहिता, धीमे चार-ta सर्वमपितियता, जिनधर्मनिर्मला, आहारमयभेषज-शास्त्र- फिर भी तपि
फिर भी तृप्ति नहीं होती। बड़ा अच्छा लगा-पुनः पुनः दान-विनोदा, भुवनकदानचिंतामणि, जिनगंधादकपवित्री
पढ़ने की इच्छा होती है । निस्सन्देह यह क्लासिकल कोटि तात्तमांगा, जिनधर्मकथा प्रमोदा, पुण्योपार्जनकरणकारणा की अति श्रेष्ठ कृति है। लेखक अनुवादक एवं सभी साधुजिनसमयसमुदितप्रकारा, चतुस्समयसमुद्धरण-करणकारणा, वाद के पात्र हैं उपन्यास के द्वितीयादि भागों की उत्सुकता सम्यक्त्वचडामणि आदि उपाधियों से विभूषित महिमामयी के साथ प्रतीक्षा रहेगी। विष्णुपिदमभूमिदेवते, रण व्यापार दोल बलमदेवते, जनक्कलपुज्यदेवते, विद्येयोलवाग्देवते, सकलकार्योदोगदोल
-ज्योति निकज, मन्त्रदेवते के रूप में लोककविख्यात हुई ।
चार बाग, लखनऊ-१९
हमी अपनी शान्ति के बाधक हैं। जितने भी पदार्थ संसार में हैं उनमें से एक भी पार्ष बारपाव का बाधक नहीं। बर्तन में रक्खी हुई मदिरा अथवा डिब्बे में रक्खा हुआ पान पुरुषों में : विकृतिका कारण नहीं। पदार्थ हमें बलात् विकारी नहीं करता, हम स्वयं मिथ्या विकल्पों से उसमें
इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखी और दुखी होते हैं। कोई भी पदार्थ न तो सुख देता है और न दुःख देता है इसलिए जहाँ तक बने आभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि पर सदैव ध्यान रखना चाहिए।
' -वर्णी-वाणी
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पं० शिरोमणिदास की "धर्मसार सतसई "
प० शिरोमणिदास (सिरोमनदास गुटका में लिखित है) का जन्म लगभग स० १७०० के लगभग होना चाहिए । क्योंकि उन्होने अपनी प्रस्तुत कृति की रचना सं० १७१२* में सहरोनि नगर के शातिनाथ मंदिर मे की थी। यहां महाराज देवीसिंह का राज्य था और भारतवर्ष पर वादशाह औरंगजेब राज्य कर रहा था। पं० शिरोमणिदास भ० सकल कीर्ति के शिष्यों मे से थे । अतः उन्होंने अपनी कृति की प्रत्येक सन्धि समाप्ति पर अपने गुरु सकल कीर्ति का बड़े आदर और भक्ति भाव से उल्लेख किया है। ग्रंथ के अन्त में लम्बी प्रशस्ति देते हुए पण्डित जी ने जो कुछ लिखा है वह निम्न प्रकार हैजसकोरति भट्टारक संत, धर्म उपदेश दियो गुनवंत । सूरज विन दीपक जैसे, गणधर विनु भुवि जानी तैसे ॥८० ललितकीति भविजन सुखदाई, जिनवर नामजपे चितु लाई । धर्मकीति भए धर्मं निधानी, पद्मकीर्ति पुनि कहै बखानि ॥८१ faai ananta aft राजे, जप तप सजम सील विराजे । ललितकीर्ति मुनि पूरब कहै, तिन्हें के ब्रह्मसुमति पुनि भए । तप आचार धर्म सुभ रीति, जिनवर सौ राखी बहु प्रीति । तिनके शिष्य भए परवीन मिथ्यामत तिन कीन्हों दीन || पंडित कहै जु गंगादास, व्रत संजम शील निवास । पर उपकार हेतु बहु कियो, ज्ञानदान पुनि बहु तिनि दियो । तिनके शिष्य सिरोमनि जानि, धर्मसार तिन कहो बखानि ॥ कर्मक्षय कारन मति भई, तब यह धर्म भेद विधि ठई ॥ जो यह पढे सुनं चित लाइ, समकित प्रकट ताको आइ । व्रत आचार जाने सुभ रूप, पुनि जाने संसार स्वरूप ॥
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ले० कुन्दन लाल प्रेम त्रिसिपल
जिन महिमा जान सुखदाइ, पुनि सो होइ मुकतिपति राइ । अक्षर मात हीन तुक होइ, फेरि सुधारे सज्जन लोइ ८७ जैसी विधि मैं ग्रंथनि जानि, तंसी पुति में कही बखानि । जे नर विषयी धर्म न जाने धर्म सार विधि ते नहीं माने || जे नर धर्म सील मनु लावे धर्मसार सुनिके सुख पावै । सिहरौनि नगर उत्तम सुभथान शांतिनाथ जिन सोहे धाम || प्रतिभा अनेक जिनवर की भासे दरसन देखत पाप नसावे । श्रावक वसे धर्म की रीति अपने मारग चले पुनीत || कुटुमसहित तिनि हेतु जु दियो, तहां ग्रंथ यह पूरन कियो । छत्रपति सोहे सुलतान, औरंगजेब पाति साहि नाम ॥ ६१ ॥ देवीसिंह नृपति बलि चंड, बैरिन सों लीन्हों बहु दण्ड । प्रजा पुत्र सम पालै धीर, राजनि में सोहे वर वीर ॥८२॥ तिनके राज यह ग्रंथ बनायो, कहे सिरोमन बहु सुख पायो । संवतु सत्रह से बत्तीस, बैसाख मास उज्ज्वल पुनि दीस ॥ तृतीया अक्षय सनो समेत, भवि जन को मगल सुख देत । सात से सठि सब जानि, दोहरा चौपाइ कहे बवानि ॥ जिन वर भक्ति जु हेतु अति, सकलकीर्ति मुनि थान । पंडित सिरोमनिदास को, भव भव होहु निदान ॥
इतिश्री धर्मसार ग्रन्ये भट्टारक सकलकीर्ति उपदेशात् पं० सिरोमनि विरचिते श्री तीर्थङ्करमोक्ष गमन श्रेणिक प्रश्न करण वर्णनो नाम सप्तमो संधि समाप्ता । इति धर्मसार ग्रंथ सम्पूर्ण ।
लिपि प्रशस्ति-संवत् १८६९ वर्षे कार्तिक सुदी द्वितीयायां शुक्रवासरे शुभ भवतु मंगल । लिखितं करहरा वारे सिंघई परम सुखजी को बेटा नौनितराइ पोथी आपने वास्ते उतारी ।
अपनी प्रमुख कृति "तीबंकर महावीर और उनकी आचार्य
* पता नहीं स्व० पं० नेमीचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने परम्परा" नामक ग्रंथ में भाग ४ पृष्ठ ३०३ पर कृति का रचना काल सं० १६६२ किस आधार पर लिखा है जबकि अन्य उपलब्ध सभी कृतियों में रचना काल सम्वत् १७३२ ही है। आचार्य जी की यह उद्भावना अन्वेपणीय है ।
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4० शिरोमणिरात की "धर्मसार सता"
उपर्यक्त प्रशस्ति से हमें पं० शिरोमणिदास के बारे प्रस्तुत कृति बड़ी ही रोचक और मार्मिक है तथा में अच्छी खासी जानकारी प्राप्त हो जाती है फिर भी साहित्यिक एवं तात्विक दृष्टि से अति विवेचनीय है। जिन भट्टारकों का उल्लेख पण्डित जी ने किया है इसमें दोहा, चोपाई, कवित्त, छप्पय आदि छन्दों का उनके विषय में भी संक्षिप्त-सी जानकारी बावश्यक है। प्रयोग किया गया है जो बड़े ही मनोहारी है। गिनने में क्योंकि सकलकीति नाम के कई भट्टारक विद्वान् हुए है केवल ७५५ छंद सात सन्धियों में प्राप्त हुए पर कवि के अतः प्रस्तुत भ० सकल कीति जी बलात्कारगण की जेरहट लिखे अनुसार कुल छन्द संख्या ७६३ है । अस्तु पांचशाखा के प्रमुख आचार्यों में से एक थे। आपने स०१७११ आठ छन्दों का अन्तर गिनने मे ही निकल मावेगा । संपूर्ण में एक मूर्ति प्रतिष्ठित की थी जो परवारमदिर (नागपुर) अप सात सन्धियों में विभाजित है जो निम्न प्रकार है:मे।म० १७१२ में प्रतिष्ठित भ० पार्श्वनाथ की मूति १. राजा श्रेणिक प्रश्नकरण नाम वर्णन की प्रथम बाजार-गांव (नागपुर) मे है। सं. १७१३ की प्रतिष्ठित
सधि छन्द सख्या मूर्ति भ. पाश्र्वनाथ की नरानपुर में है। पौरा जी
२. सम्यक्त्व महिमा वर्णन द्वितीय सन्धि छंद संख्या ५६ स्थित एक मूर्ति सं० १७१८ को आपने ही प्रतिष्ठित की
३. ५३ क्रिया वर्णन नाम तृतीय सधि छंद संख्या १९४ थी। महार जी स्थित षोडकारण यंत्र सं० १७२० में
४. कर्म विपाक फल वर्णन नाम च० " " १४८ आपने ही प्रतिष्ठित किया था। विस्तृत जानकारी के लिए
' ५. तीर्थकर (जोगीस्वर) धर्म महिमा वर्णन नाम पंचम भट्टारक सम्प्रदाय के पृष्ठ २०२ से २०८ तक देखें।
सधि छद सख्या प्रस्तुत कृति की तीन-चार पाडुलिपियां प्राप्त होती है
६. तीर्थकर (जोगीश्वर) गर्म, जन्म, तर, ज्ञान वर्णन हैं । एक तो मेरे पास है जो करेरा निवासी सेठ मक्खन
नाम षष्ठम सधि छन्द सख्या लाल जी वस्त्र विक्रेता ने दी है। वे बह ही सरल परि. ७.तीर्थकर (जोगीश्वर) मोक्षगमन वर्णन नाम सप्तम णामी, उदार हृदय एवं धार्मिक जीव है, वे जितने
सन्धि छन्द संख्या धर्मानुरागी हैं उतने ही साहित्यानुरागी भी है मेरे साथ बैठकर घण्टों धार्मिक चर्चा करते हैं । यह प्रति १६/c.m लम्बी और ११॥c. m' चौड़ी है। इसमें ८९ पत्र हैं प्रस्तुत कृति को कई विशेषणयुक्त नामो से उल्लिखित प्रत्येक पत्र पर ११-११ पंक्तियां तथा प्रत्येक पक्ति में किया गया है जैसे धर्मसारपंथ, धर्ममारचौपाई, धर्मसार छंद २३-२४ अक्षर हैं प्रति स्पष्ट और सुवाच्य है तथा रचना
बद्ध आदि-आदि । जब मैंने प्रस्तुत कृति का गम्भीरतापूर्वक काल के १६० वर्ष बाद की है। प्रस्तुत पाडुलिपि गुट के
अध्ययन-मनन किया, तो मुझे इसमे "बिहारी सतसई" के की आकृति जैसी है अतः इसमे दिशाशूल के दिन, सम्यक्त्व
कुछ तत्वों के दर्शन प्राप्त हुए । सर्वप्रथम तो जैसे बिहारीके २५ दोष, पंचमंगल, बिनदर्शन पाठ आदि कई छोटी• दास की एक ही कृति प्राप्त है उसी तरह पं. शिरोमणिछोटी रचनायें भी संग्रहीत है।
दास की एक ही कृति उपलब्ध है। सम्भव है शोष-खोज इसके अतिरिक्त एक प्रति आरा में होनी चाहिए करने पर कोई और कृति प्राप्त हो जावे । दूसरे यह सात जिसके आधार पर स्व.पं. नेमीचन्द्रजी ज्योनिषाचार्य ने संधियों में विभाजित है, तीसरे इसमें सात सौ प्रेसठ छंदों लिसाइनके अतिरिक्त तीन प्रतियों का उल्लेख राज- की रचना । चौथे छन्दों के अर्थों की गम्भीरता, लालित्य स्थान सूची भाग ४ में उपलब्ध होता है। इनमें से एक एवं अलंकार युक्त छन्दोबद्धता ने मुझे बहुत प्रभावित प्रति सं० १७६४ की लिखी हुई है जो रचनाकाल के किया और सहसा मेरा मन इस कृति को 'धर्मसार सतसई केवल १२ वर्ष बाद ही की है जो सम्भवत: अधिक प्रामा- लिखने के लिए उल्लसित हो उठा । पाठक ! मेरी इस णिक-और संपादन के लिए उपयुक्त होनी चाहिए। धृष्टता को क्षमा करेंगे और यदि 'मतसई नाम अनुपयुक्त
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बनेकास
समझते हैं तो सुपुष्ट प्रामाणिक तर्को द्वारा मेरा मार्ग- सदा काल नवयौवन रहे, कोमल देह सुगंध अति बहे ॥ दर्शन करें, मैं अपनी भूल सुधार कर लूंगा।
कठिन नीवि उर कुच कलस विराज, यह निर्विवाद है कि "बिहारी सतसई" शृंगारिक
मुख की ज्योति कोटि ससि लाज। कृति है और 'धर्मसार सतसई" विशुद्ध तात्विक एवं
कटि सताईस देवी मत हरनी, धार्मिक कृति है अतः वैसे तो कोई मेल नहीं खाता है पर .
भोग विलास रूप सुख धरनी।१०३३ कुछ बातों की समानता ने मुझे "सतसई" लिखने को।
सिंगार बहुत आभूषण लिए, हाव-भाव विनम्र रस किए। बाध्य कर ही दिया है । वैसे भी जैन साहित्य में 'सतसई'
अति कटि छीन कमल नैन, कला गीत बोल शुभ बैन । रचनावों की बहुत ही कमी पाई जाती है अतः पाठक
भगवान का जब गर्भ में आगमन हुआ तो षट् मास रुष्ट न हों और इसे 'सतसई रूप में स्वोकार कर अनु
पूर्व ही इन्द्र ने पृथ्वी पर जो प्राकृतिक छटा बिखेर दी
उसका कैसा सुन्दर वर्णन कवि ने किया है:गृहीत करें। पं०शिरोमणिदास जी बुन्देल खण्ड क्षेत्र से अत्यधिक
रत्न बृष्टि बरसै सुख रूप, मानहुं तारागण जु स्वरूप ।
स्वर्ग लोक मानो लक्ष्मी आई, मात-पिता मनु लाई॥ प्रभावित दिखाई देते हैं । संभवतः सिहरोनि नगर बुन्देल
पुष्प बृष्टि बरसावहिं देव, जय जय शक्र करै बहु सेव । पण्ड के किसी नगर विशेष का ही नाम रहा हो । पंडित जी ने प्रस्तुत कृति में धाम, लाडी, धुरी, पकौरा, करौदा,
दुंदुभि देव बजावहिं तार, नहिं अप्सरा रूप रसाल 1 विस्मरा, कलींदा, अपूत, अचार (फल) फनकुली, आदी
मंद सुगंध वायु शुभ चल, रोग शोक दुख दारिद्र गले । (बद्रक) अनयर, अथई, दातीनि, गरदा आदि आदि-आदि
प्रजा अचम्भी दिन दिन करे, जिन उत्पत्ति जानि मन धर।
भगवान के माता-पिता के घर जाने से पूर्व इन्द्र बहुत से बुन्देली शब्दों का प्रयोग किया गया है जिससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे बुन्देल खण्ड क्षेत्र के ही
__अपने पूर्व पुन्य एवं भाग्य की सराहना करता हुना निवासी थे।
स्नानादि करता है उसका कितना स्वाभाविक वर्णन कषि
ने किया है :कवि ने प्रस्तुत कृति की तात्विक ज्ञान, आचारशास्त्र
एक घटी में अवधि प्रकास, पूरब पुण्य सकल हित भासे । एवं धार्मिक दृष्टि से एक संकलन अन्ध-सा तैयार किया
मैं तप पूरब कीन्ही घोर, व्रत क्रिया पाली अति घोर । है पर छन्दों की रचना बड़ी ही मार्मिक है। उपर्युक्त सात
मैं जिनेन्द्र पूजे अति शुद्ध, पात्रहि दान दियो हित बुद्धि। सन्धियों में उन्होंने जिन पूजा, चक्रवर्ती संपदा, नरक के
सो वह पुण्य फलो मोहि आज, सकल मनोरथ पूरे काज ॥ दब, तिथंच के दुख, सोलह स्वर्गों का वर्णन, बारहभावना, यह विचारि उठि ठाढ़े भए, देविन सहित स्नान हित गए । सोलह सप्न, समवशरण का सौन्दर्य वर्णन, जिनेन्द्र प्रभु
अमृत वापिका रत्ननि जड़ी, महा सुगंध कमल बहभरी। की माता का वर्णन आदि-आदि विषयों का बड़े विस्तार
दि-आदि विषयो का बड़ विस्तार तहां स्नान करें सुख हेत, बढ़ी प्रेम रस बहु सुध देत। से वर्णन किया है ? कही-कहीं शिष्ट श्रृंगार के भी दर्शन करी विनोद क्रीड़ा सुख पाइ, आनंद उमग्यो अंतु न बाइ। हो जाते हैं। इस तरह यह कृति हिन्दी जगत में जैन उज्ज्वल कोमल वस्त्र सुगंध, पहिरे देव महा सुखबंध । साहित्य के इतिहास की एक अनुपम कृति है।
कंकन कुंडल मुकुट अनूप, भूषण अनुप को कहे स्वरूप । बानगी के लिए कुछ छन्द प्रस्तुत कर रहा हूं जिससे गीत नृत्य वादित्र निघोष, देविन सहित चल्यो सुर घोष ।। कृति की श्रेष्ठता सिद्ध हो सके। कवि इन्द्र की इन्द्राणियों जिन वर मंदिर देखे जाइ, बहु आनन्द करे सुर रा॥ का वर्णन बड़े शृंगारिक ढंग से करता है । पर उसमें सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है तथा कैसे नष्ट होता शिष्टता और मर्यादा का उल्लंघन नहीं होने दिया गया है उसके विषय में सुन्दर छन्द देखिए :है जैसे देखिये:
उत्पत्ति:सची यष्ट सुन्दर सुभ मात, विकसित बदन कहे ते वात। के तो सहज उपजे आइ, * मुनिबर उपदेस बताए।
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4. सिरोमनिवास की "साई"
पारों मति में समकित होइ, यहे उत्पत्ति जानो तुम लोय। जे नर मुक्ति गए जिन कही, आगे में पुनि जैहें सही। विनास:-जान गर्व मति मंदता, निठुर वचन उद्गार। अब जात हैं भव्य अनेक, ते समकित फल जानहु एक ॥
रोद भाव आलस दसा, नास पांच प्रकार ॥ गणधर कहै सुनो हे राइ, समकित महिमा अन्त न आए। मिथ्यात्व के पांचों नामों पर कवि ने बड़ा ही सुन्दर धर्म मूल में तुमसौं कही, कवित्त लिखा है :
सुनि श्रेणिक दृढ़ के सर्वही (श्रद्ध हो)॥ कवित्त इकतीसा :
पच उदम्बर के अति चारों मे बुन्देली भाषा के शब्दों प्रथम एकांत नाम मिथ्यात, अभिग्राहिक दूजो विपरीत को किस चतुराई से संजोया है वह दर्शनीय है:
आभिनिवेसिक गोत है। बेर मकौरा जामु अचार, करौंदा देर अतूत मुरार। विनय मिथ्यात, अनाविग्रह नाम जाको,
कुम्हड़ा, गढ़ली, बिवा भटा, कलीदे फनकुली चचेडा जड़ा। चौथो ससय जहा चित भौर कैसो पोत है।
सूरन सुरा अद्रक (आदऊ)गज्जरी, महाह कदमूल ले हरी। पांचमों अज्ञान अनभोगी कगहल जाके,
हे पुनि अवर कहे जिन राई, इनमे जीव अनेक बसाई ।। उदै चैन अचेतन सो होत है, मधु का वर्णन तथा अतिचार के छन्द देखिए :एई पांचो मिथ्यात्व भ्रमावै जीव को जगत मे, सकल निंद्य रस माछी हरे, करकै वमन इकट्ठी धरै।
इनके विनाश समकित को न उदोत है। अनेक अन्डा वर उपज तहां बहुत जीव रस बूड़े तहां ॥ सम्यक्त्व की महिमा के कुछ छन्द देखिए :
अनेक जीव मरिक मह (मधु) होइ, बावर विकलत्रयक है, निगोद असैनी जानि ।
जउ किमि भक्ष धर्महि गोइ। म्लेच्छ खंड जिन भने कुभोग भूमि मन आनि ।।
यज्ञ पिंड ले मह सौ देद, यह को भख पाप सिर लेइ॥ षद् अध जु भूमि नरक की खोटी मानूष जाति ।
अतिचार:तीन वेद दोइ वेद पुनि ए जानो दुख पांति ॥
नन (मक्खन) का चो दूध पिक सीऊ रे जे कहे। जब समकित उर्ज सुन भूप, ए सब पदवी धरे न रूप। अप्रासुक जो नीर थाने सधा नै जै लहै। यह सब महिमा समकित जानि,
___ मांस के अतिचार के उत्कृष्ट छन्द देखिए :होई जीव को सब सुख खानि ॥ होगु सलिल घी तेल चर्म की सगति जे रहे। नर गति में नर ईश्वर होइ,
उपज तहां जीव अनेक मांस दूषण यह जिन कहे ।। देवनि मे पति जान्यो सोइ। जाको नाउ (नाम) न जान्यो जाइ, इह विधि भव जीव पूरन करे,
अरु सेधो फलु कहो बताय । पुनि सो मुक्ति रमणि को वरे।। हाट चुनु अनगालो नीर साक पात्र फल हरित जुधीर। नभ में जैसे भान है ईम, रत्नत्रय मे चिन्तामणि दीस । जा मे तारि (२) चलै बहु भांति, लगे फफंडा छाड़ो जाति। कल्पवृक्ष वृक्षनि मे हार (श्रेष्ठ),
कोमल फल है पत्र जु फूल त्वचा गवारि बहु बीजहु कूल ॥ देव जिनेन्द्र देवनि में सार॥ पांच व्रतो का वर्णन करते हुए सत्य धर्म (व्रत) का सकल नगनि में मेरु है जैसे,
कवित्त छन्द कितना लालित्यपूर्ण बन गया है । जरा ध्यान सब धर्मनि में समकित तैसे। से पढ़िए :यही जानि जिउ (हृदय) समकित धरी,
पावक ते जल होइ वारिधि तें थल होइ (श) सस्त्र भवसागर दुख जातें तरी॥
ते कमल होइ ग्राम होइ बनतें। बततप सयम धरइ अनेक, समकित बिनु नहीं लहै विवेक। कूप ते विवर होइ पर्वत तें धरा होइ, वासव (इन्द्र) जैसे कृषि करि सेवा कर, मेघ बिना नहीं फल को धरै ।
से दास होइ, हितु दुर्जन तें।
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१०पर्व ३७, कि.४
सिंध ते कुरंग होई व्याल स्याल अंग होइ त्रस की दया जान जल गाल यह आचार करह व्रत पाल ।
विष ते बिहुष होइ माल अहि फन तें। दीरव हस्त सवा के जान पनहा एक हस्त के मान । विषम तें सम होइ संकट न व्याप कोइ ऐसे नूतन वस्त्र दूनी पुरि कहै इहि विधि गालि धर्म न्यौपरै ॥
गुन होइं सत्यवादी के दरस ते॥ दोइ दंड जलु गाली रहे पुनि सो अनंत राशि अति लहै । ब्रह्मचर्य व्रत का बड़ा सुन्दर वर्णन इस छन्द में जब जब जल लीजे निजू काम पहिए :
तब तब जल छानो निज धाम ।। परदारा जब त्यागें ग्रही चौथो अणु व्रत पावे तब ही। जो जल छानि छानि घट धरो माइ(य)बहिनी पुत्री सम चित्त परदारा तुम जानेह मित्र ।।
पुनि सो जलु जल में ले करी। अथवा सांपनि मी मन धरु दुख की खानि दूर परि हरे। एक बूंद जो धरनी पर अनंत राशि जीव छिन में भरै। पानी बिनु मोती है जैसो सील बिना नर लागे तसो॥ ढीमर पारिधि जानि जुग, जुग पाप जो अपजस की डंक बजावत लावत कुल कलंक परधान ।
जोर्जे जिन (जे) किए। जो चारित्र को देत जलांजलि गुनवन को दावानल दान। इह उह एक प्रमान अन गाल्यो बुंदक पिए ॥ जो सिव पंथ को वारि बनावत,
इस तरह कवि शिरोमणि पं. शिरोमणिदास जी ने आवत विपति मिलन के थान। अपनी कृति "धर्मसार सतसई" में तत्वज्ञान, धर्म, आचार चितामणि समान जग जो नर,
एवं दर्शन की दृष्टि से "गागर में सागर भर दिया है। सील खान निज करत मिलान | पाठकों से आशा है कि ऐसी श्रेष्ठतम रचनाओं का अध्यज्ञान ध्यान व्रत संयम धरना,
यन कर अपने ज्ञान की वृद्धि करें और कर्म कलंक को यज्ञ विधान शुभ तीरथ करना। मिटा डालने के पुण्य भागी बनें। पूजा दान बहु कोटिक कर सील बिना नहीं फल को धरै।
मेरी एक छोटी सी अपील पाठकों एवं श्रद्धालु सद्रावन आदि जु क्षय भये पर नारि के काज ।
गृहस्थों से है कि वे दश लक्षण व्रत रत्नत्रय व्रत, षोडशसेठ सुदर्शन सील तें पायो सिव पुर राज॥ कारण व्रत, अष्टान्हिका आदि व्रत किया करते हैं और निज नारि पुन छोडो जानि आठ पाचें चौदसी मानि । फिर उसके उद्यापन में बहुत-सा दान सोने-चांदी के रूप दिवस पुनि छोड़े निज हेत चौथो अणु व्रत धरहु सुचेत ॥ में करते हैं. अच्छा होवे इस सोने-चांदी की जगह अप्रका
दान के गुण दोष (भूषण दूषण) को कवि ने इन मालिकोपकाशित कराने में जमी हा छन्दो में लिखा है :
उपयोग करें तो मैं समझता हूं कि व्रतोद्यापन का कई पांच दृषण:
गुना फल प्राप्त होगा और सरस्वती की सेवा होगी और विलव विमुख अप्रिय वचन आदर चित्त न होइ।
जैन साहित्य का भण्डार भरेगा । अतः प्रस्तुत कृति "धर्म दै करि पश्चाताप कर दूषण पांचहु सोइ ॥
सतसई" का प्रकाशन किसी व्रतोद्यापन के हेतु किया जा पांच भूषण :
सकता है। जो श्रद्धालु श्रावक ऐसी अभिलाषा रखता हो आनद आदरि प्रिय वचन जनम सफल निज मानि।
निम्न पते पर मुमसे सम्पर्क साधे । मैं सेवा के लिए सदैव निर्मल भाव जु अति कर भूषण पंचहु जानि ॥
तत्पर रहूंगा। जिन वाणी का प्रकाशन देव शास्त्र गुरु की दान के गुण :--
पूजा से कम नहीं होगा। आज के इस वैज्ञानिक तकनीकी श्रद्धा ज्ञान अलोभता दया क्षमा निज शक्ति ।
युग में अप्रकाशित साहित्य को अधिक से अधिक प्रकाश दाता गुण ये सत्य कहि करै भाव सों भक्ति ।
में लाना ही सच्ची जिन पूजा और धर्म संरक्षण होगा। पानी छान कर पीने पर कवि ने जल गालन की
श्रुत कुटीर, ६८ कुन्ती मार्ग, क्रिया का सुन्दर वर्णन किया है :
विश्वास नगर-शाहदरा, सात लाख जल जोइनि भए, अरु अनंत असतामें भए।
नई दिल्ली-११००३२
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क्या राजा श्रेणिक ने आत्म-हत्या की थी ?
(लेखक-रतनलाल कटारिया, केकड़ी।
नीचे जैन ग्रन्थों के आधार से इस पर समीक्षात्मक मे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध विचार किया जाता है :
किया। (१) भगवद् गुणभवकृत उत्तरपुराण पर्व ७४ के उपान्त्य (४) ब्र० नेमिदत्त कृत कथाकोश कथा नं० १६ और में लिखा है :
१०७ मे भी ठीक प्रभाचन्द्र कृत कथाकोश के अनुसार श्रावकोत्तम श्रेणिक ने गौतम गणधर से पुराण श्रवण वर्णन है। कर क्रमश: उपशम क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व
(५) रामचन्द्र मुमुक्षु कृत-पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ प्राप्त किया। फिर गणधर देव ने बताया कि हे-श्रेणिक
३२ से ६१ मे लिखा है - तूं तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध करेगा, नरकायु बद्ध होने से
निर्वासित श्रेणिक अपने साथी के साथ भागवतधर्मी प्रथम नरक जावेगा फिर वहां से याकर महापप नामा
जठराग्नि (भोजन भट्ट) के मठ मे पहुचे। जठराग्नि ने तीर्थकर होगा।
उन्हें भोजन कराया और वे उसके धर्म मे दीक्षित हो गए। (२) हरिषेणकृत कथाकोश कथा नं ६ और ५५ में वैष्णव धर्मी जठराग्नि की परीक्षा लेकर रानी चेलना ने लिखा है :
उन्हें मिथ्या पाया। एक दफा राजा श्रोणक ने यशोधर राजाश्रेणिक चेलना से विवाह करने के पूर्व भागवत- मुनि के गले में सर्प डाला जिससे उन्हे नरकायु का बन्ध वैष्णव धर्मी थे। उन्होने यमधर मुनिराज पर घोर उपसर्ग हुआ। मुनि द्वारा आशीर्वाद देने पर णिक उनके भक्त किया जिससे नरकायु का उन्हे बन्ध हुआ। फिर मुनि- हो गए उन्हें उपशम सम्यक्त्व और जाति स्मरण भक्ति से सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। देवों ने भी उनके त्रिगुप्ति मुनियों से वेदक सम्यक्त्व और महावीर स्वामी क्षायिक सम्यक्त्व की परीक्षा कर उन्हें मुक्ताहार भेंट से क्षायिक सम्यक्त्व तथा तीर्थकर प्रकृति का बन्ध प्राप्त किया। उन्होंने तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया। वीर किया। श्रेणिक के क्षायिक सम्यक्त्व की देवो ने परीक्षा निर्वाण के बाद ३ वर्ष ८॥ मास व्यतीत होने पर मनो- ली और प्रसन्न हो श्रेणिक और चलिनी की पूजा की वांछित महान भोगो के भोगकर राजा श्रेणिक नरक उनका अभिषेक किया और उन्हे वस्त्राभूषण प्रदान गये।
किये। मानसेष्टान्महाभोगान् भुक्त्वाकालं विहाय च । श्रेणिक ने कुणिक को राजा बना दिया फिर भी
पूवोक्त श्रेणिको राजा सीमन्त नरकं ययौ ॥३०८॥ उसने उन्हें लोहे के कटघरे मे बन्दी बना दिया। अपनी (३) प्रभाचन्द्र कृत कथाकोश कथा नं० २१ तथा 80- माता से अपने प्रति श्रेणिक के अपार स्नेह की बातें सुनकर ३१ में लिखा है :
कुणिक अपने पिता को बन्धन-मुक्त करने दौड़ा । श्रेणिक राजाणिक वैष्णवधर्मी थे उन्होंने यशोधर मुनि ने उसे मलिन-मुख आता देखकर विचार किया यह दुष्ट राज पर उपसर्ग कर नरकायु का बन्ध किया फिर उनसे मुझे न जाने क्या और दुख देगा, तलवार की धार पर तत्व सुनकर उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया। त्रिगुप्ति गिरकर प्राणान्त कर लिया। कुणिक ने शोक के साथ मनियों से वेदक सम्यक्त्व और महावीर स्वामी के पादमूल अग्नि संस्कार कर ब्राह्मणो को खब दान दिया।
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१२,३७,०४
मनेकान्त
इस कथा का उद्गम बताते हुए अन्त मे प्रत्यकार ने लिखा है कि - यह कथा भ्राजिष्णु की आराधना कर्णाटक टीका में वर्णित क्रम के अनुसार उल्लेख मात्र से कही गई है । (भ्राजिष्णु का अर्थ हरि होता है अतः इससे कथाकार हरिषेण का संकेत हो ।)
(६) श्रेणिक चरित्र (भट्टारक शुभ चन्द्र कृत) हिन्दी अनुवाद में लिखा है :
पृष्ठ १६ - कुमार थेणिक deer वस्त्रधारी बौद्ध संन्यासियों के सच मे गये उनके धर्म में आशक्त हो गये। यशोधर महामुनि पर उपसर्ग किया फिर भी मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया तो वे जैन धर्म में श्रद्धालु हो गये । पृष्ठ २३९ गौतम गणधर से पवित्र पुराण सुन तीनों सम्यक्त्व धारण कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया । पृष्ठ २५७ — गलती महसूस कर कुणिक ने श्रेणिक को काठ के पिंजरे में बन्द करा दिया। पृष्ठ २६१-- फिर अपनी गलती महसूस कर कुणिक अपने पिता श्रेणिक को बन्धन मुक्त करने चला उसे आता देख श्रोणिक ने विचारा - यह दुष्ट मुझे और क्या-क्या दुख देगा - प्राण देकर ही उससे छूट सकता हूं इस प्रकार दुखी होकर अपना शिर मारकर आत्महत्या कर ली। यह देख कुणिक बेलना हाहाकार करने लगे । कुणिक ने मरण संस्कार किया और ब्राह्मणों को खूब दान दिया ।
(७) "भगवान् महावीर" (बाबू कामता प्रसार जी कृ वीर सं० २४५० ) :
हिन्दी ग्रन्थ में भी थेजिक परिन के अनुसार कथन किया है किन्तु २० वर्ष बाद इसी ग्रन्थ को संशोधित रूप से प्रस्तुत किया तो भी कामताप्रसाद जी "कुणिक का अपने पिता को बन्धन मुक्त करने जाना और क्षेणिक का आत्महत्या करना" आदि कथन कतई नहीं दिया है। श्री दिगम्बरदास जी मुख्तार ने भी "वर्धमान महावीर " पुस्तक में यह कथन नही दिया है।
(८) "जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' भाग ४ पृष्ठ ७१ :
श्रेणिक --मगध का राजा था, उज्जैनी राजधानी थी । यह पहिले बौद्ध था पीछे अपनी रानी चेलनी के समझाने से जैन हो गया था। वीर का प्रथम भक्त बना । इसने तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया। इसके जीवन का
अन्तिम भाग बड़े दुख से बीता। इसके पुत्र ने इसे बन्दी बना लिया उसके भय से ही इसने आत्महत्या कर ली थी जिससे यह प्रथम नरक गया ।
(९) भारतीय इतिहास एक दृष्टि (डा० ज्योति प्रसाद जी जैन):
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पृष्ठ ६३ : श्रेणिक के पिता का नाम हिन्दु पुराणों में शिशुनाग और बौद्ध साहित्य में भट्टि तथा जैन अनुभूति में उपश्रेणिक मिलता है कि को उसके पिता ने निवसित कर दिया वह जैनेतर साधुओं का भक्त बन गया और जैन धर्म से द्वेष करने लगा। कुछ जनश्रुतियों के अनुनार वह बौद्ध हो गया किन्तु यह बात असंभव सी प्रतीत होती है क्योंकि महावीर के केवल ज्ञान प्राप्त ( ईस्वी पूर्व ५५७ ) के पहले ही वह फिर से जैन धर्म का अनुयायी बन चुका था और उस समय किसी भी मतानुसार बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ नहीं किया था। ई० ५८० के लगभग अणिक मगध के सिहासन पर बैठा था । ५२ वर्ष राज्य किया फिर ई० पू० ५३५ में श्रेणिक की मृत्यु हुई ।
पृष्ठ ६५ : श्रेणिक ने कुणिक को राजपाट सौंप दिया कुणिक ने बौद्ध धर्मी देवदत्त के बहकाने से थे कि को बंदीगृह में डाल दिया। चेतना से संबुद्ध हो वह कि बन्धनमुक्त करने चला तो श्रेणिक ने समझा कि वह उसे मारने आ रहा है, दीवारो से सिर फोड़कर श्रेणिक ने आत्म हत्या कर ली ।
(१०) 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' (श्वे० आ० हस्तिमल जी कृत मन् १९७१) -
पृष्ठ ५१५-१७ : वीर निर्वाण से १७ वर्ष कुणिक मे अपने १० माइयों को मिला महाराज अणिक को कारागृह मे डाल दिया ।
चेतना के गर्भ में जब कुणिक था तब उसे दोहद हुआ कि मैं श्रेणिक के कलेजे का मांस खाऊं । चेलना ने गर्भस्थ शिशु को गिराने का प्रयत्न किया किन्तु गिरा नहीं । जन्म के पश्चात् उसे कचरे की ढेरी पर डलवा दिया मुर्गे ने उसकी अंगुली को काट खाया इससे वह पक गई। पुत्र मोह से थे कि ने उसे ढूंढकर मंगवा लिया और खुद उसकी अंगुली चूस कर उसे ठीक किया।
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क्या राजाणिक ने आत्महत्या की थी?
यह प्रसंग चेलना ने कुणिक को सुनाया तो वह और तीर्थकर प्रकृतिबद्ध महापुरुष थे। उनकी मृत्यु को कुल्हाड़ी लेकर श्रेणिक के बन्धन काटने को दौड़ा । श्रेणिक आत्महत्या बताना सम्यक् प्रतीत नहीं होता। जब वे बहुत ने आशंका से भीत हो पितृ हत्या से प्रिय पुत्र को बचाने वर्षों तक कारागृह या पिंजरे में बन्ह थे तभी दु.खों से के लिए अपनी अंगूठी का ताल पुट विष खाकर प्राण त्याग सन्तप्त होकर वे शिर फोड़कर, तलवार की धार पर दिए । पूर्वोपार्जित निकाचित कर्म बन्ध के कारण वह गिर करके अथवा विष खाकर प्राणान्त कर लेते तो फिर प्रथम नरक में गया।
भी उन पर आत्महत्या का आरोप संगत हो सकता था समीक्षा
किन्तु तब तो उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उन्होंने ऊपर १ से लेकर ४ तक के प्रमाणों मे कही भी यह कृत्य तब किया जब कुणिक को उन्होंने अपने को श्रेणिक की आत्महत्या का किचित् भी उल्लेख नही है। मारने के लिए आते हुए देखा । उन्होंने विचारा होगा कि प्रमाण नं, २ तो इष्ट भोगों को भोगकर श्रेणिक का मरना यह दुष्ट न जाने कैसे दुख दे के मुझे मारे जिससे मेरे बताया है; कैदी होकर आत्महत्या करना नही बताया है। परिणाम अत्यन्त कलुषित हो जायें इससे तो अच्छा है कि यह प्रमाण विशेष प्राचीन है। 'प्रमाण नं० ५ तलवार की खुद अपने हाथ से प्राणान्त कर लू ताकि न इसे पितृहत्या धार पर गिर कर मरने की बात कही है वहां भी 'आत्म- का पाप न लगे और न कोई अन्य झंझट हो । श्रेणिक का हत्या' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। दूसरी बात यह है यह प्रयत्न प्रतिरोधात्मक था। अगर वे खुले होते तो कि-राजा श्रेणिक तो बन्दी था एकाएक उसके पास अवश्य मुकाबला करते । जीवन से हारकर या थक कर तलवार कहां से आ सकती है ? और फिर तलवार को उन्होंने प्राणांत नही किया था किन्तु विकट परिस्थिति से धार पर गिरने की बात भी असगत है, वह तो तलवार विवश होकर उन्होने मृत्यु का वरण किया था। जैसे से अनच्छेद ही करता उस पर गिरता क्यों?
क्षत्रियाणिया युद्ध मे अपने पतियों के हार जाने पर आक्रप्रमाण ने० ६ लिखा है कि-"अपना शिर मारकर मणकारियो के द्वारा अपनी गति खराब नहीं की जावे श्रेणिक ने आत्महत्या कर ली" । मूल संस्कृत में यहां इस खयाल से अग्नि कुण्ड मे कूदकर जौहर (वीरव्रत) कैसा कथन है यह ग्रंथाभाव से हम नहीं कह सकते। अङ्गीकार कर अपने प्राण दे देती हैं। जिस तरह यह श्रेणिक लकडी के कटघरे में बद था। अतः उस पर शिर आत्महत्या नही है वैसे ही श्रेणिक की नृत्यु भी आत्महत्या मारने से ही तत्काल मरने की बात कुछ संगत सी प्रतीत कायरता नही है। विद्वानों को गम्भीरता से इस पर नहीं होती क्योंकि कुणिक तो बहुत शीघ्र भगा हुआ आ मनन-चिन्तन कर अपना समुचित निष्कर्ष प्रकट करना रहा था इतने कम समय में यह सम्भव नही था। चाहिए ।
प्रमाण नं० ७.८-९ मौलिक नही है ये प्रमाण नं०६ यहां प्रसगोपात्त कुछ अन्य बातों पर भी विचार दिया के अधार से ही निमित हैं। प्रमाण नं. ७ में तो बाबू जाता है :कामता प्रसाद जी ने द्वि० संस्करण मे इस 'आत्महत्या' (१) पुण्याश्रव कथाकोश (जीवराज ग्रन्थमाला) आदि के कथन को ही हटा दिया है । शायद यह उन्हें पृष्ठ ३२ में हिंदी अनुवाद ने जठराग्नि का अर्थ केट में आचार्य सम्मत (प्रामाणिक) ज्ञात नहीं हुआ।
बुद्धगुरु दिया है और घोणिक द्वारा उनका धर्म ग्रहण प्रमाण नं. १० में भी 'आत्महत्या' शब्द का प्रयोग करना बताया है। जबकि मूल ग्रन्थ में जठराग्नि को नहीं है।
भागवत धर्मी-वैष्णव धर्मी बताया है कहीं भी बुद्ध धर्मी शास्त्रों में बताया है कि-राजा श्रेणिक ने समव- नही। हरिषेण-प्रभाचन्द्र नेमिदत्त के कथाकोशों में भी इस शरण सभा में १० हजार प्रश्न किए थे। वे भगवान् प्रसंग में श्रेणिक को चेलना से विवाह करने के पूर्व, महावीर के प्रमुख श्रोता थे। इसी से उत्तर पुराणकार भागवत-वैष्णव धर्म ही बताया है बुद्ध धर्म नहीं। उस ने उन्हें 'श्रावकोत्तम' लिखा है। वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि समय तक तो बुद्ध का धर्म ही प्रचलित नहीं हुआ था।
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pv, ut tu, fiso V
अनेका
प्रमाण नं० ६-७-८ में जो इस प्रसंग में क्षणिक को बौद्ध लिखा है कि चेलनी ने गर्भस्थ शिशु को गिराना चाहा पर धर्मी लिखा है वह संगत नहीं है। वह गिरा नहीं । यहां भी शंका होती है कि जैन धर्म की दृढ़ श्रद्धानी महारानी चेलना कैसे मांस भक्षण और भ्रूण हत्या का प्रयत्न कर सकती है ? और क्षायिक सम्यक्त्वो
प्रमाण नं० ५-६ में श्रेणिक की मृत्यु पर कुणिक द्वारा ब्राह्मणों को दान देना भी उसके वंश से वैष्णव धर्म के स्थान को सूचित करता है बौद्ध धर्म को नहीं ।
(२) इसी पुण्याश्रव कथा कोश पृ० ५८ मे लिखा है किणिक के क्षायिक सम्यक्त्व की परीक्षा के लिए दो देव गए थे वे राजा श्रेणिक के शिकार खेलने के जाने के मार्ग में नदी किनारे बैठ गए।"
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यहां सहज शंका होती है कि शायिक सम्यक्त्व हो जाने पर भी राजा श्रेणिक शिकार खेलने जैसे दुर्व्यसन में कैसे लिप्त रह सकता है ? हरिषेण कथा कोश कथा न०.१
इस प्रसंग में लिखा है कि राजा श्रेणिक तब सरोवर की शोमा देखने के लिए गया था ( शिकार खेलने के लिए नही) इससे पुष्पाधव कथा कोश का कथन गलत सिद्ध होता है।
(३) पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ ५६ में लिखा है कि रानी चेतनी के गर्भ मे जब कुणिक था तब उसे दोहल हुआ श्रेणिक के वक्षस्थल को चीरकर उसका रक्तपान करूं । राजा ने चित्रमय स्वरूप मे उसकी इच्छा पूरी की। प्रमाण नं० १० मे भी ऐसा ही लिखा है तथा यह भी
१. 'दश वर्ष सहस्राणि प्रथमायां' सूत्रानुसार प्रथम नरक की जघन्यायु दश हजार वर्ष है। सम्यक्त्वीकेतो वही होनी चाहिए। तब अभी तो अवसर्पिणी के ही पंचम षष्ठ कालके २१+२१ विमालीस हजार वर्ष है फिर उत्सर्पिणी के प्रथम द्वितीयकाल के २१÷२१४२ हजार मिलाकर कुल ८४ हजार वर्ष व्यतीत होने पर उत्सर्पिणी के तृतीयकाल में कर्मभूमि आने पर श्रेणिक महापद्म तीर्थकर होंगे ऐसी हालत में क्या गणना में कोई गड़बड़ है। समाधान-गणना ठीक है किन्तु ऐसा सैद्धान्तिक नियम हैं कि-संशी मनुष्य मरकर नरक जाता है तो उसकी वहां आयु ८४ हजार वर्ष से कम नहीं होती । असंशियों की कम हो सकती है । २. सम्यक्त्वी के सात भय (इहलोक भय, परलोक भय,
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णिक उसमें कैसे सहकारी हो सकते हैं कदापि नहीं। यह भी कथाकारों को अविचारित रम्यतायें ही हैं निर्दोष चरित्र-चित्रण नहीं। प्राचीन कथाकारों ने यह कथांश दिया ही नहीं है।
वेदना भय, मरण भय, अरक्षा भय, अगुप्त भय, अकस्मात् भय) नहीं होते तब श्रेणिक तो क्षायिक सम्य
(४) पुण्याश्रव कथा कोश पृ० ५६ में श्रेणिक के क्षायिक सम्यक्त्व की देवों द्वारा परीक्षा लेने की जो कथा दी है वह भी बड़ी विचित्र है, वह सिद्धांत-सम्मत प्रतीत नहीं होती' समय मिलने पर उस पर भी अलग से निबंध लिखने का विचार है। ऐसी बेतुकी कथा गुणभद्रादि प्राचीन मान्य आचार्यों ने कतई नही दी है।
सन्दर्भ-सूची
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(५) इसी तरह भरत चक्री का बाहुबली पर चक्र चलाना संकल्पी हिंसा नही है तथा बाहुबली को जिस शल्य से केवल ज्ञान रुक गया था वह माया मिथ्या निदान नाम की शल्य नहीं थी किन्तु साधारण खटक थी। शास्त्रों के कथनों को संगति बिठाने से ही सिद्धांत अबा धित रहते हैं।
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दृष्टि थे तब एकमात्र भय से उत्पन्न होने वाली आत्महत्या उनके कैसे बन सकती है ? अर्थात् कदापि नही । जैसे समाधिमरण आत्महत्या नहीं है वैसे ही यह समझना चाहिए। आत्म धर्म मासिक पत्र नवंबर ८० और अप्रैल ८१ के अकों में पू० स्वामी जी ने श्रेणिक की मृत्यु को आत्महत्या नहीं बताया है प्रत्युत लिखा है कि अणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे । अन्तिम समय में हीरा चूसकर या कारागार में सिर फोड़कर मरे थे, तथापि उस काल में भी उनकी दृष्टि ध्रुवत्व पर ही थी । ध्रुव स्वभाव - आत्मस्वभाव से नहीं छूटी थी द्रव्य दृष्टि की महिमा अपार है । धर्मी की दृष्टि सदा चैतन्य तल पर ही रहती है । ३. राजवार्तिक, अमितगति बावकाचार आदि में
क्षायिक सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व बताया है । ४. उसमें भ्रष्टाचार अत्याचार का समर्थन किया गया है।
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पंच महाव्रत
श्री बाबूलाल वक्ता
जो भी व्रत होता है वह पर से, बाहर से निवृत्तिरूप अन्तरंग में जो मिला उसकी महिमा आती है, अज्ञानी को होता है और स्व में प्रवृत्ति रूप होता है। एक बाहर मे जो छोड़ता है उसकी महिमा आती है। सिक्के की दो साइड है, एक परसे निवृत्ति है दूसरी स्व पंच महाव्रत मे भी अन्तरंग की उपलब्धि पूर्वक बाहर में प्रवृत्ति है । त्याग का अर्थ है स्व का ग्रहण और स्व का मे हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह का त्याग है । ग्रहण का अर्थ है पर का त्याग । जब सिक्के की दो साइड सम्भावना यह है भीतर मे उपलब्धि क्या हुई। हैं तो दोनों साथ रहती हैं। कहने को हम किसी साइड जब तक समझता है कि यह मेरा है तब तक उसका को जार कर लेते हैं किसी को नीचे । अडिसा माने अपने प्रेम उसी तक सीमित रहता है। परन्तु जैसे उसको कोई रूप हो जाना-सबको चेतना रूप देखना । सत्य का अर्थ अपना नही रहता तो सभी उसके हो जाते हैं तब वह सत्य बोलने से नही परन्तु जैसा वस्तु का स्वरूप है उसको दिवाल जो मेरा और तेरे का भेद कर रही है हट जाती है उस रूप में देखना है जैसे शरीर आत्मा का संयोग है तब यह कहना चाहिए मेरा कोई नही रहा अथवा कहना एक रूप देखना झूठ है । बाहरी पदार्थ तो दुखी नहीं कर चाहिए सभी मेरा हो जाता है। इसलिए उसका प्रेम सकता उसे दुख देने बाला देखना झूठ है। जो चीज असीम हो जाता है । जो एक धर को छोड़ना है सभी घर जैसी है वह वैसी ही दिखाई देना सत्य है।
उसके हो जाते हैं । यह तमी सम्भव है जब पर से मेरा अचौर्य:-पर का ग्रहण यही चोरी है और स्व का मन हटे तभी अहंकार का विसर्जन होगा। ग्रहण वह अचौर्य है।
अहं नगर में पर को नीचा देखना ओर नीचा दिखाने ब्रह्मचर्यः-याने ब्रह्म का आचरण ब्रह्म का आचरण की भावना रहती है यही तो हिंसा का भाव है। माने ज्ञाता दृष्टा रूप रहना ।
__ जीवों की रक्षा करना मात्र अहिंसा नहीं है जीवों की अपरिग्रहः-पर की निष्ठा परिग्रह है, स्व की रक्षा तो वह व्यक्ति भी करता है जो कोड़ी को बचा रहा निष्ठा अपरिग्रह है।
है जिमको उसके मरने पर अपना नरक और बचने में स्वर्ग भीतर में जब स्व का ग्रहण होता है तब बाहर जो दिखाई दे रहा है। उसको कीडी के प्रति प्रेम नही। कुडा-करकट होता है वह छूट जाता है। बाहर में क्या छूटा उसका कीड़ी से कोई मतलब नहीं । उमका सम्बन्ध अपने इसकी महिमा नही है परन्तु भीतर में क्या मिला इसकी स्वर्ग और नरक से है । जिसके हृदय में प्रेम नहीं वहां है। जब अमृत मिलता है तो बाहर से फालतू छूट जाता अहिंसा कैसी । आप कह सकते हैं कि प्रेम तो गग का है। बाहर से देखने वाला बाहर मे छूटा उसको देखता है नाम है । ऐसा नहीं है। एक प्रेम जो किसी खास व्यक्ति क्योंकि उसके जीवन में पर की महिमा है उसके लिए वह के प्रति है। जैसे अपना कुटुम्ब, परिवार अथवा जिसको छुटना बहुत मुश्किल है जो दूसरे ने छोड़ा है । इसलिए अपना मान रखा है उसके प्रति चाहे वह कोई जाति हो वह समझता है कि इसने बड़ा काम किया है । परन्तु जब सम्प्रदाय हो, साधु-सन्यासी हो परन्तु पहले उसमें अपना तक अंतरंग में वह अमूल्य वस्तु नहीं मिले तब तक बाहर माना है फिर राग बना है वह प्रेम तो राग का ही भेद का छोड़ना आत्मकल्याण में कीमत नहीं रखता । कीमत है परन्तु एक प्रेम वह है जहां कोई अपना नहीं रहा जहां तो जो भीतर में उपलब्ध हुआ उसकी है । जानी को अपने मन की दीवान नही रही। जहां समूचा संसार ही
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अनेकान्त
अपना हो गया वहां वह प्रेम राग का अंश नही परन्तु पर का ग्रहण है। सवाल पर को ग्रहण नहीं करने का नहीं अहिंसा का वाचक हो गया क्योंकि वहां वह प्रेममयी है परन्तु पर में प्रयोजन दिखाई न देने का है। बाहर में हो गया। वह प्रेम को सीधे लिए नहीं है परन्तु वह ब्रह्म- अगर कोई चीज नहीं ली यही व्रत है तो उस व्रत की भी रूप है इसलिए स्व के लिए हो गया ।
उतनी ही कीमत है जितनी उस वस्तु की । परन्तु धर्म की अहिंसा शब्द राग का नेगेटिव है। राग का निषेधक कोई कीमत नहीं होती इसलिए उसका आधार याहर में, है परन्तु उसका पोजिटिव प्रेम है। जब अन्तरंग प्रेममयी पर में नहीं है। उसका सम भाव पर से नहीं स्व से है। हुमा तब हिंसा विसर्जित हो गई। हिंसा को छोड़ दो।
हो
भातर म
भीतर में स्व में कमी होने लगी तो बाहर में स्त्री
में कमी नहीं रही। रमण करने को जब भीतर नहीं था इसी प्रकार जब वस्तु स्वरूप, सत्य स्वरूप से जीव
तो बाहर में रमण करने को स्त्री को खोजता था परन्तु बचाने मात्र से हिंसा नहीं जायेगो। जीव को बचाया तो सही परन्तु क्या उसके प्रति आपके हृदय में जैसा अपने
जब रमण करने को अपना मित्र स्वभाव उपलब्ध हो बच्चे के प्रति प्रेम हो जाता है वैसा प्रेम भरा हुआ है,
गया तो बाहर किसमें रमण करें। आत्मा की सुन्दरता में अगर नहीं तो अहिंसा कैसे होगी। सवाल बाहर की
जो लुब्ध हो गया उसको बाहर में स्त्री में सुन्दरता कैसे तरफ का नहीं है कि जीव मरा कि बचा, सवाल है
दिखाई दे। अगर अभी भी वह सुन्दर दिखाई दे रही है आपके हमारे हृदय में प्रेम का अथाह समुद्र बह रहा है तो अंतरंग की सुन्दरता पकड में नहीं आई है। कि नहीं। अगर प्रेम का समुद्र बह रहा है तो जीव के जब आत्मा में मित्रता हुई तो पर की मित्रता नहीं मरने पर भी अहिंसा है परन्तु वह प्रेम का समुद्र नहीं बह रही, सवाल परिग्रह छोड़ने का नहीं है, सवाल तो मित्रता रहा है तो जीव के बचने पर भी हिंसा है। जहां ऐसा छोड़ने का है वह मित्रता स्व की मित्रता आये बिना नही प्रेम वह रहा हो वहां बाहर मे हिंसा विजित हो जाती जा सकती। परिग्रह में आनन्द दिखाई दे रहा है। परिहै। वह जीव पर पैर नही रखता है यह सवाल नही है ग्रह में रस आ रहा है तो समझना चाहिए अभी अपने में परन्तु वह अपने पर पैर रखकर नही चल सकता क्योंकि रस नहीं आया अपने में आनन्द नहीं आया है। इसलिए अब कोई पराया रहा ही नहीं।
पर में आनन्द खोज रहा है अपने में मिल जाता तो पर इसी प्रकार जब भीतर में सत्य पकड़ में आता है या में क्यों खोजता। जब पर में आनन्द नहीं है तो न तो सत्य स्वभाव पकड़ में आता है तो बाहर का असत्य विस- उसके ग्रहण से मिल सकता है न उसके त्याग से, परन्तु जित हो जाता है। यहां सत्य बोलने से सत्यव्रत का पालन
वह तो स्व के ग्रहण से मिलता है। और जहाँ स्व का
ग्रहण है वहाँ पर का त्याग तो है ही। होता है ऐसा नहीं है। यहां सवाल है कि भीतर में असत्य
कुछ लोग कहते हैं ऐसा अर्थ करने से लोग बाहरी रहा ही नहीं। व्रत का मतलब है कि असत्य का व्यक्तित्व
त्याग नहीं करेंगे। स्वच्छन्दता तो हो जायेगी। यहां पर अब नहीं रहा जो रहा वह सत्य है और उस सत्य व्यक्तित्व
बात यह है कि जो स्व और पर के सूक्ष्म भेद को करने से असत्य कैसे निकल सकता है। जो वस्तु जैसी की तैसी
की बात कह रहा है वहां मोटा भेद, स्वधन परधन का दिख रही है तो असत्य को जगह कहां रही वह तो तभी
भेद तो मोटा भेद है बहुत मोटा भेद है जो इतना मोटा तक था जब विपरीत दिखाई दे रहा था।
भेद ही नहीं कर सकता वह स्व और पर के अत्यन्त सूक्ष्म निज स्वभाव पकड़ में आगया, अपनी चीज अपने को
भेद को कैसे देख सकेगा। उसके लिए तो और भी सूक्ष्म मिल गई तो पर का ग्रहण रहा ही नहीं। परका ग्रहण
दृष्टि की आवश्यकता है। जहाँ स्वधन स्वस्त्री को भी तभी तक था, जब तक अपने घर की खबर नहीं थी।
पर रूप देखना है। वहाँ पर स्त्री और पर धन अपना अब अपना घर मिल गया आर अपने घर में रहन लगा, कैसे हो सकता है। इसलिए जहाँ एक चेतना को छोड़कर तब पर घर का ग्रहण विसजित हो गया। पर में अगर सभी पर है स्वस्त्री-धन भी पर है वहाँ परधन-परस्त्री को प्रयोजन दिखाई दे रहा है, पर की महिमा आ रही है तब अपने रूप देखने का सवाल ही नहीं रहता।
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वाचनिक अहिंसा : स्याद्वाद
0 अशोककुमार जैन एम. ए. सम्पूर्ण विश्व, जीव आत्मा, परमात्मा, अदृष्ट, पुण्य- मात्र अनेकान्त ही ग्रहण किया जा सकता है । निपात पाप, स्वर्ग-नरक, बंध-मोक्ष आदि सभी दार्शनिक चिन्तन शब्द के दो अर्थ होते हैं एक द्योतक और दूसरा वाचक । के विषय हैं । विभिन्न मनीषियों ने अपने २ दृष्टिकोणों जैन क्षेत्र मे स्यात् निपात के दोनो अर्थ गृहीत हैं क्योंकि से इनकी व्याख्या की है। दृष्टिकोणो की यह विभिन्नता स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक भी होता है और वाच्य ही वस्तु के वास्तविक स्वरूप को सूचित करती है । इस भो। स्वामी समन्त भद्र कहते है कि स्यात् शब्द का अर्थ चिन्तन के फलस्वरूप आरम्भ मे वस्तु तत्व के सम्बन्ध में के साथ सम्बन्ध होने के कारण वाक्यो में अनेकान्त का प्रायः सभी मनीषियों के मन्तव्य अनन्त गुणधर्मात्मक द्योतक होता है और गम्य अर्थ का विश्लेषण होता है। दिखाई पड़ते हैं । वस्तु अनन्त धर्म वाली होने से उसके स्यात् शब्द निपात है और वह केवलियों को अभिमत है। स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण होना भी स्वाभा- प्रो० बल्देव उपाध्याय' "स्यात्" शब्द का अनुवाद विक है । जब ये विभिन्न दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपने शायद या सम्भवत. करते है परन्तु न तो यह शायद, न अभिप्राय के अतिरिक्त अन्य दृष्टिकोणो की उपेक्षा कर सम्भावना और न कदाचित् का प्रतिपादक है किन्तु सुनिभाग्रह से अपनी दृष्टि या मत को ही ठीक समझने लगते निश्चित दृष्टिकोण का है। शब्द का स्वभाव है कि वह हैं और दूसरे दृष्टिकोणों का खण्डन भी करते हैं तब अवधारणात्मक होता है इसलिए अन्य के प्रतिषेध करने विभिन्न मतवाद खड़े हो जाते है। खण्डन-मण्डन की में वह निरकुश रहता है । इस अन्य के प्रतिषेध पर अंकुश परम्परा का सम्भवतः यह दूसरा युग था, जो लगभग लगाने का कार्य (स्यात्) करता है । वह कहता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में उभर कर सामने आया । इस रूपवान घट) वाक्य घड़े के रूप का प्रतिपादन भले ही अवधि में ही जैन परम्परा मे अनेकान्तवाद और स्याद्वाद करे पर वह "रूपवान ही है" यह अवधारण करके घड़े में रूप दार्शनिक स्वरूप का विकास हुआ ।
रहने वाले रस, गन्ध आदि का प्रतिषेध नही कर सकता। स्याद्वाद भाषा की वह निर्दोष प्रणाली है जो वस्तु वह अपने स्वार्थ को मुख्यरूप से कहे यहां तक कोई हानि तत्व का सम्यक प्रतिपादन करती है। प्रमाण' संग्रह के नही । पर यदि वह उससे आगे बढ़कर "अपने ही स्वार्थ मंगलाचरण में अकलक देव ने लिखा है "परम गरम को सब कुछ मानकर शेष का निषेध करता है तो उसका गम्भीर स्याद्वाद यह जिसका अमोघ लक्षण है ऐमा जिन ऐसा करना अन्याय है और वस्तु स्थिति का विपर्यास भगवान का अनेकान्त शासन सदेव जयवन्त हो"। करना है । (स्यात्) शब्द इसी अन्याय को रोकता है स्यात्माम में लगा हुआ शब्द प्रत्येक वाक्य के साक्षेप होने और न्याय वचन पद्धति की सूचना देता है वह प्रत्येक की सूचना देता है। स्यात् शब्द लिङ् लकार का क्रिया वाक्य के साथ अन्तर्गर्भ रहता है और गुप्त रहकर भी रूप पद भी होता है और उसका अर्थ होता है-होना प्रत्येक वाक्य को मुख्य गौण भाव से अनेकान्त अर्थ का चाहिए लेकिन यहां इस रूप मे यह प्रयुक्त नहीं है । स्यात् प्रतिपादक बनाता है। इसमें विभिन्न दृष्टिकोण से व्यर्थ विधि लिङ में बना हुआ तिष्ठन्त प्रतिरूपक निपात है। की सत्यता का व्याख्यान किया जाता है। वस्तुतः जड़ विधि लिङ में इससे संशय, प्रशंसा, अस्तित्व, प्रश्न, और चेतन सभी मे अनेक धर्म विद्यमान है। उन सबका विचार, अनेकान्त आदि कई अर्थ होते हैं जिसमें से यहां एक साथ कथन नहीं किया जा सकता। विवक्षा के अनु
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१५ वर्ष ३७, कि०४
अनेकान्त
सार एक समय में किसी एक को मुख्यतया लेकर कथन अत: इस विरोध को दूर करने के लिए समस्त वाक्यों में किया जाता है उसको दार्शनिक शब्दावली में "कथंचित् "स्यात्" पद का प्रयोग करना चाहिए । इसी तरह वाक्य अपेक्षा" से कहा जाता है जिसका दूसरा नाम अपेक्षावाद में एवकार 'ही' का प्रयोग न करने पर भी सर्वथा एकान्त भी है। अपेक्षावाद का यह सिद्धांत दार्शनिक मतवादों के को मानना पड़ेगा, क्योंकि उस स्थिति में अनेकान्त का आग्रह को शियिल करता है और जीवन का यथार्थ दृष्टि- निराकरण अवश्यम्भावी है जैसे उपयोग लक्षण जीव का ही कोण भिन्न-भिन्न रूपो में हमारे सामने प्रस्तत रहता है। है इस वाक्य में एवकार (ही) होने से यह सिद्ध होता है
स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने आप्तमीमांसा कि उपयोग लक्षण अन्य किसी का न होकर जीव का ही नामक प्रकरण में स्थाद्वाद शब्द का प्रयोग किया है। है अतः इसमें से ही को निकाल दिया जाए तो उपयोग सिरसेन विरचित न्यायावतार में तो स्पष्ट रूप से स्यावाद अजीव का भी लक्षण हो सकता है और ऐसा होने से वाम श्रत का निर्देश करते हुए उसको सम्पूर्ण अर्थ का अर्थ की व्यवस्था का लोप हो जाएगा। निश्चय करने वाला कहा है। भट्टाकलकदेव ने श्रुत के दो जैन दर्शन का स्याद्वाद सभी वार्शनिक सिद्धांतों को उपयोग बतलाए हैं उनमें से एक का नाम स्याद्वाद है और अपने में समेटे हुए है, इसी कारण यह स्थाबाद का सिद्धांत दूसरे का नाम है नय । सम्पूर्ण वस्तु के कथन को स्याद्वाद सभी दार्शनिकों को मान्य भी है। लेकिन जैन दर्शन का कहते हैं और वस्तु के एकदेश के कथन को नय स्याद्वाद जो समन्वयबाद बा, जो समन्वयात्मक दृष्टिकोण कहते हैं। स्वामी समन्त भद्र' ने स्याद्वाद का लक्षण रखता है वह शंकर के अत वेदान्त के समन्वयात्मक लिखते हुए कहा है सर्वथा एकान्त को त्याग कर अर्थात् दृष्टिकोण से भिन्न है। जैन दर्शन का स्याद्वाद भौतिक अनेकान्त को स्वीकार करके सात भगो और नयो की समन्वयात्मक है, जबकि शंकर का अवैतवाद आध्यात्मिक अपेक्षा से, स्वभाव की अपेक्षा सत् और परभाव की अपेक्षा समन्वयात्मक है। जन वर्शन स्यावाद की बात तो करता असत् इत्यादि रूप मे कथन करता है उसे स्याद्वाद कहते है, लेकिन पूर्व ज्ञान को कौन निर्धारित करेगा इसके उत्तर '-नि" शब्द मे चित्, पट इत्यादि प्रत्ययो को जोडने से जो में वह सबको समान दर्जे पर रखता है जबकि शंकराचार्य रूप बनते हैं जैसे किंचित्, कथचित्, कथ पद ये सब स्याद्- उस समन्वय से उठकर ब्रह्म को स्थापित करते हैं, तो यह वाद के पर्याय शब्द हैं। "स्याद्वाद के बिना हेय और धर्मनिष्ठा है। यही पर दर्शन के विचार की उदारता में उपादेय की व्यवस्था नही बनती।" अकलकदेव ने "अने- विश्व में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। सच्चे एवं गहन दार्शकान्तात्मक अर्थ के कथन को स्यावाद कहा है।" निक की परीक्षा अनुयायियों की संख्या के बल पर तथा ___ अनेकान्त के द्योतन के लिए सभी वाक्यो के साथ उदारता पर निर्भर है। इस संसार में कोई भी बात 'स्यात' शब्द का प्रयोग आवश्यक है उसके बिना अनेकान्त झूठी नहीं है। सबको समझने की सच्ची दृष्टि होनी का प्रकाश सम्भव नहो है। शायद कहा जाए कि लौकिक चाहिए, वह झूठी न हो। अगर दृष्टि ही झूठी हो तो सृष्टि जन तो सब वाक्यों के साथ स्यात् पद का प्रयोग करते कोई चीज सच्ची नही है। देखे नही जाते इसका उत्तर देते हुए अकलकदेव ने कहा कुछ पाश्चात्य ताकिकों के विचारों के साथ स्याद्वाद है कि यदि शब्दो का प्रयोग करने वाला पुरुष कुशल हो की बड़ी समानता है। ये पाश्चात्य ताकिक भी कहते हैं तो स्यात्कार और एवकार का प्रयोग न किए जाने पर कि प्रत्येक विचार का अपना-अपना प्रसंग या प्रकरण होता भी विधिपरक, निषेधपरक तथा अन्य प्रकार के वाक्यों में है उसे हम विचार प्रसग कह सकते हैं । विचारों की स्यावाद और एवम् की प्रतीति स्वय हो जाती है। सार्थकता उनके विचार प्रसंगों पर ही निर्भर होनी है। जो वादी वाक्य के साथ "स्यात्" पद का प्रयोग करना विचार प्रसंग में स्थान, काल, दशा, गुण आदि अनेक मतें पसन्द नही करते उन्हें सर्वथा एकान्तवाद को मानना सम्मिलित रहती हैं। विचार परामर्श के लिए इन बातों पड़ेगा और उसके मानने में प्रमाण से विरोध आता है। को स्पष्ट करने की उतनी आवश्यकता नहीं रहती है।
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पावनिक हिंसा : स्याद्वाव साथ-साथ उनकी संख्या इतनी अधिक होती है कि प्रत्येक मे उपयोगी है इसके बिना किसी भी प्रकार का लोक का स्पष्टीकरण संभव भी नहीं है। जैन स्यावाद को व्यवहार नही चल सकता । लोक में जितना भी व्यवहार तुलना कभी-कभी पाश्चात्य सापेक्षवाद (Theory of होता है वह सब आपेक्षिक व्यवहार का नाम ही Relativity) से भी की जाती है । सापेक्षवाद दो प्रकार स्याद्वाद है। पिता, पुत्र, माता, पली आदि व्यवहार भी होता है-विज्ञानवादी और वस्तुवादी। जैन मत को यदि किसी निश्चित अपेक्षा से ही है। अतः अनेक विरोधी सापेक्षवाद माना जाय तो वह वस्तुवादी सापेक्षवाद होगा विचारों का समन्वय किये बिना लौकिक जीवन यात्रा क्योकि जैन दार्शनिक मानते है कि यद्यपि ज्ञान सापेक्ष है भी नही बन सकती है। विरोधी विचार मे समन्वय के फिर भी यह केवल मन पर निर्भर नही, बल्कि वस्तुओ के अभाव में सदा विवाद और सघर्ष होते रहेंगे तथा विवाद धर्मों पर भी निर्भर है । स्याद्वाद सिद्धात से यह स्पष्ट है या संघर्ष का अन्त तभी होगा जव स्याद्वाद के अनुसार कि जैनों की दृष्टि बड़ी उदार है । जैन अन्यान्य दार्शनिक सब अपने २ दृष्टिकोणो के साथ दूसरे के दृष्टिकोणों का विचारो को नगण्य नही समझते, वल्कि अन्य दृष्टियों से भी आदर करेंगे । अनेकान्त दर्शन से मानस समता और उन्हे भी सत्य मानते हैं । भिन्न-भिन्न दर्शनो मे ससार के विचार शुद्धि होती है तथा स्याद्वाद से वाणी मे समन्वयभिन्न-भिन्न वर्णन पाये जाते हैं । इसका कारण है कि वृत्ति और निर्दोषता आती है। इसलिए आचार्य समन्तभद्र उनमे एक दृष्टि नही है । दृष्टिभेद के कारण ही उनमें 'स्यात्कार सत्य लाञ्छनः" कहकर स्यावाद को सत्य का मतभेद पाया जाता है।
चिन्ह या प्रतीक बतलाया है। स्याद्वाद विभिन्न दृष्टिकोण से वस्तु का प्रतिपादन विरोधी धर्म से सापेक्ष होने के कारण ही आपने करके पूरी वस्तु पर एक ही धर्म के पूर्ण अधिकार का शब्द विरुद्ध धर्मो युक्त वस्तु का स्पर्श करते हैं क्योंकि निषेध करता है । वह कहता है कि वस्तु पर सब धर्मों का स्याद्वाद की मुद्रा से रहित शब्द वस्तु के एकदेश में ही समान रूप से अधिकार है । विशेषता केवल यही है कि शक्ति के बिखर जाने से स्खलित हो जाते हैं ऐसा आचार्य जिस समय जिस धर्म के प्रतिपादन की विवक्षा होती है अमृतचन्द्र भगवन् की स्तुति करते हुए कहते हैं।" स्याद्वाद उस समय उस धर्म की मुख्य रूप से ग्रहण करके अन्य पदार्थों के जानने की एक दृष्टिमात्र है । स्यावाद स्वयं अविवक्षित धर्मों को गौण कर दिया जाता है। आचार्य अन्तिम सत्य नही है। यह हमें अन्तिम सत्य तक पहुंचाने अमृतचन्द ने एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा स्याद्वाद की प्रति- के लिए केवल मार्ग दर्शन का काम करता है। स्याद्वाद पादन शैली को बताया है कि जिस प्रकार दधि मन्थन से केवल व्यवहार सत्य के जानने मे उपस्थित होने वाले करने वाली गोपी मथानी की रस्सी के एक छोर को विरोधों का ही समन्वय किया जा सकता है इसलिए जैन खीचती है और दूसरे छोर को ढीला कर देती है तथा दर्शनक रो ने स्याद्वाद को व्यवहार सत्य माना है। व्यवरस्सी के आकर्षण और शिथिलीकरण के द्वारा दधि का हार सत्य के आगे भी जैन सिद्धान्त में निरपेक्ष सत्य माना मन्थन करके इष्ट तत्व घृत को प्राप्त करती है उसी गया है जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में केवल ज्ञान के प्रकार स्याद्वाद नीति मी एक धर्म के आकर्षण और शेष नाम से कहा जाता है। धमो के शिथिलीकरण द्वारा अनेकान्तात्मक अर्थ भी सिद्ध इस प्रकार जैन दर्शन में जहां आचार में अहिंसा को करती है।
प्रधानता दी गई है उसी प्रकार वैचारिक अहिंसा पर भी स्यादाद का सिद्धान्त सुव्यवस्थित और व्यावहारिक बल दिया गया है जो स्याद्वाद के सिद्धान्त के रूप में अवहै। वह अनन्तधर्मात्क वस्तु की विभिन्न दृष्टिकोणों से तरित होकर मानव मात्र को समीचीन पथ पर अग्रसित व्यवस्था करता है तथा उस व्यवस्था में किसी प्रमाण से करके तथा एकान्त पथ से विमुख करके वस्तु के वास्तबाधा नहीं भाती अतः वह सुव्यवस्थित है । इसके साथ विक स्वरूप का प्रतिबोध कराता है। ही स्यावाद व्यावहारिक भी है। वह सदाकाल
निकट जैन मन्दिर, बिजनौर (उ०प्र०)
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एक महत्वपूर्ण अप्रकाशित अपभ्रंश रचनाः अमरसेन चरिउ
: डा. कस्तूरचन्द्र "सुमन"
राजस्थान प्राचीन काल में धार्मिक एव साहित्यिक अपूर्ण होते हुए भी कथा मे कोई व्यवधान नही आता है। गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध रहा है। इस प्रान्त मे यह ग्रन्थ मात सन्धियो मे समाप्त हुआ है। अन्त में हस्तलिखित ग्रन्थो के अनेक भण्डार है, जिनमे अनेक प्रशस्ति के रूप में लिपिकार का परिचय भी है। ग्रन्थ की महत्वपूर्ण कृतियां प्रकाशन की वाट जोह रही है। आमेर- प्रथम संधि में बावीम कडवक और तीन सौ छयत्तर यमक शास्त्र भण्डार उनमे एक है।
है। इसी प्रकार दूसरी सन्धि मे तेरह कड़वक और दो सौ ___इस शास्त्र भण्डार मे लगभग ३७०० हस्तलिखित ग्यारह यमक तीसरी मे तेरह कडवक और एक सौ सतत्तर ग्रन्थ हैं । सस्कृत, प्राकृत और अपभ्र श भाषा मे लिखे यमक, चौथी नन्धि मे तेरह कडवक और दो सौ पचास गये हैं। समाजोपयोगी है। उनसे समाज परिचित हो इस यमक, पांचवी मन्धि मे चौबीय कड़वक और तीन सौ सन्दर्भ मे यह इस प्रकार का प्रथम प्रयास है ।
सतासी यमक, छठी मन्धि में चौदह कडवक और एक सौ अपभ्रंश भाषा में लिखा गया अमरसेनचरिउ इस सेंतालिम यमक, तथा सातवी सन्धि में पन्द्रह कडवक और शास्त्र भण्डार का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। कवि माणि- एक मो पचान्नवे यमक है । इस प्रकार ग्रन्थ में कुल सात क्कराज इस काव्य के रचयिता थे। सोलहवी शताब्दी सधियां और सधियो मे एक सौ १४ कडवक तथा कड़वकों की इस रचना मे जैन सिद्धान्तो को कथाओं के माध्यम मे एक हजार सात सौ तेतालीस यमक हैं। सन्धियों के से समझाया गया है । रोचक है। साथ ही कल्याण का आरम्भ ध्र वक छन्द से और अन्त घत्ता से हुए हैं । कड़वक हेतु भी भी।
के अन्त में घत्ता छन्द व्यवहृत हुआ है। इस कृति का प्रथम परिचय देने का श्रेय जैन विद्या- कवि स्वयम्भू के अनुसार यमक दो पदों से निर्मित सस्थान, श्री महावीर जी के अधीनस्थ आमेरशास्त्र भंडार छन्द है। और कड़वक आठ यमको का समह । उन्होंने यह को प्राप्त है। अब तक किसी अन्य भण्डार से यह उपलब्ध भी कहा है कि यदि पदो मे सोलह मात्राएं हों तो वह नही हुआ है, यदि किसी भण्डार को इस कृति के होने का पद्धड़िया छन्द हैं। पत्ता छन्द मे प्रथम और तृतीय पाद गौरव प्राप्त हो तो कृपया लेखक को सूचित कर अनुग्रहीत मे नौ मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ पाद मे चौदह करें।
मात्राएं होती है । इस छन्द मे बारह-बारह मात्राएं तथा इस पाण्डुलिपि के ६६ पत्र हैं । सम्पूर्ण पत्र ११ सेंटी- कभी-कभी सोलह-सोलह मात्राएँ और प्रथम एवं द्वितीय मीटर लम्बा और ४ सेंटीमीटर चौड़ा है। पत्र के चारो पाद के आदि मे गुरु वर्ण भी मिलता है।' और हाँसिया छोड़ा गया है। बायी ओर का हासिया एक प्रस्तुत कृति में यमक सोलह मात्राओं से निर्मित सेंटीमीटर है और दायी ओर का एक सेंटीमीटर से कम। दिखाई देते हैं । अतः उक्त पद्धड़िया छन्द की परिभाषा ऊपर नीचे भी लगभग आधा-आधा सेंटीमीटर रिक्त स्थान के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि इस रचना मे है। लम्बाई की दोनों ओर पत्र हाँसिये रूप में रेखाकित पद्धड़िया छन्द का व्यवहार हुआ है। कड़वकों में निर्धारित है। रेखांकित अशो के मध्य प्रत्येक पत्र पर पंक्तियां है, यमक सख्या का उल्लंघन किया गया है। पाठ से चौबीस और प्रत्येक पक्ति मे लगभग ३०-३५ अक्षर । पत्र दोनो यमक तक एक कड़वक में मिलते हैं। यह तथ्य उल्लेखनीय मोर लिखे गये है। रचना अपूर्ण हैं। प्रथम पत्र नहीं है। है कि कड़वक की निर्धारित न्यून सख्या का किसी भी
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एक महत्वपूर्ण अप्रकाशित अपभ्रंश रचना :अमरसेन परिउ
कड़वक में उल्लंघन नहीं किया गया है। सर्वत्र आठ से था। इन पंडितों के रहते हुए भी इस ग्रन्थ की रचना न्यून यमक किसी भी कड़वक में नहीं हैं।
के लिए कवि माणिक्कराज से ही निवेदन किया जाना पत्ता छन्द के इसमें विभिन्न रूप मिलते हैं। प्रायः कवि के विशेष प्रतिभाशाली होने का प्रतीक है। १०, ८, १३, मात्राओं पर विराम देकर इस छन्द मे कवि सुरीली वाणी से नगरवासियो को सुखदायक रचना की गई है। ११ और १३ मात्राओं पर (१.६) सिद्धान्त के अर्थ-चिन्तक थे । वे सरस्वती के निवास, जिन तथा इसके विपरीत १३, ११ मात्राओं पर विराम देकर देव और जिन गुरु के भक्त', बहुश्रुत और गोष्ठियों के मार्ग भी (दे० १.१९) इस छन्द की रचना की गयी है। हिन्दी दर्शक थे । पंडित सरा आपके पिता थे, तथा आपका नाम भाषा मे सोलह मात्राओ से चौपाई तथा ११, १३ मात्राओ माणिक्कराज था। कवि ने स्वयं को पडित कहकर से सोरठा और १३, ११ मात्राओ से दोहा छन्द का निर्माण सम्बोधित किया है। कवि के पिता का नाम 'बुधसूरा' होता है। अपभ्रंश भाषा मे चौपाई के समान पद्धड़ियां था, श्री प० परमानन्द शास्त्री का यह कथन' तर्कसंगत छन्द है तथा दोहा और सोरठा के रूप में घत्ता छन्द । प्रतीत नही होता है। कवि को पंडित कहा जाना तथा रामचरितमानस मे व्यवहृत चौपाई, दोहा, सोरठा छन्दो से पिता के नाम में 'बुध' शब्द का होना इस तथ्य का प्रतीक ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि तुलसी ने अपभ्रश के है कि कवि के पिता भी पडित थे। अतएव कवि के पिता पड़ियां छन्द को चौपाई के रूप मे और पत्ता छन्द को का नाम सूरा था और पंडित उनकी उपाधि थी। यह भी दोहा तथा सोरठा छन्दो के रूप में अपनाया हो। प्रतिभाषित होता है कि कवि को पडिताई पैतृक परम्परा
कवि ने जैसा विस्तृत परिचय इस ग्रन्थ के लिखाने से प्राप्त हुई थी। अखडित शील से युक्त कहे जाने से कवि वाले देवराज चधरी का दिया है, वैसा आत्म परिचय नही बालब्रह्मचारी रहे ज्ञात होते हैं। इस ग्रन्थ के निर्माण हेतु दिया है। उन्होने गुरु परम्परा का उल्लेख अवश्य किया आपसे ही आग्रह किये जाने मे यहा दो हेतु प्रतीत होते है। गुरु परम्परा मे उन्होने क्रमश. क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, हैं-प्रथम तो वश परम्परागत पडित्य और दूसरे कवि का कुमारसेन, हेमचन्द्र और और पद्मनन्दि आचार्यों के नामो- प्रतिभासम्पन्न होने के साथ बालब्रह्मचारी होना । कवि की ल्लेख किये हैं। पचनन्दि कवि के गुरु थे। वे गुरु-पदावली अपरकृति अपभ्रंश भाषा में लिखित 'नागसेनचरित' से में प्रवीण, निर्ग्रन्थ, शील की खानि, दयालु, मिष्ठभाषी, भी उनके पिता का नाम बुधसूरा-पडित सूरा ही ज्ञात और तप से क्षीण (तपस्वी) थे।
होता है। यह भी विदित होता है कि उनकी मां का नाम ग्रंथ के अन्त में कवि ने दादा गुरु आचार्य हेमचन्द्र दीवा था तथा वे जयसवाल कुल मे उत्पन्न हुए थे। का स्मरण करते हुए उन्हें मोह-मत्सर के त्यागी, शुभ मूलतः कवि कहां के निवासी थे यह नहीं कहा जा ध्यानियों में प्रधान आचार्य कहा है तथा अपने गुरु सकता है, परन्तु यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता हैं पपनन्दि को तप रूपी तेज से युक्त प्रकट करते हुए अपने 'अमरसेनचरित' की रचना करते समय रहियास (रोहतक) को उनका शिष्य बताया है। कवि के अतिरिक्त पद्मनन्दि में रहते थे। इसकी सचना के प्रेरणा स्रोत देवराज चौधरी के शिष्यों में एक देवनन्दि का नाम भी मिलता है। भी इसी नगर के निवासी थे। उनके निवास स्थान के देवदन्दि को ग्यारह प्रतिमाधारी, राग-द्वेष, मद-मोह के सम्बन्ध में उपलब्ध इन साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में ज्ञात होता विनाशक, शुभध्यानी और उपशमभावी कहा गया है।'
है कि कवि मूलतः रोहियासपुर संभवत: वर्तमान रोहतक
है कि कवि मलत:: इस उल्लेख के आलोक मे देवनन्दि कवि के गुरु-भाई के निवासी नहीं थे। इस सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी ज्ञात होते हैं । वे क्षुल्लक या ऐलक हो गये थे। कवि का विचारणीय है कि कवि ने अपनी इस कृति मे" कवि रबधू जिस पार्श्वनाथ मन्दिर में निवास था वहां दो विद्वान् और कृत 'पासणाहचरिउ' कृति के कुछ अश का" नगर वर्णन भी रहते थे-शान्तिदास और जसमलु । दोनो मे जसमलु प्रसग में उपयोग किया है। अतः निर्विवाद रूप से यह तो गुणवान् और ज्येष्ठ था, शान्तिदास उसका छोटा भाई कहा जा सकता है कि कवि माणिक्कराज पासणाहचरित
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वर्ष ३७, कि०४
अब से परिचित थे। परिचय में आने के इनके दो ही जो कि मैं यह ग्रन्थ लिखकर प्रस्तुत कर सका।" अपसरात होते हैं । प्रथम तो यह कि कवि रघु के कवि विनय गुण के धनी थे, मानी नहीं, निरभिमानी समान ग्वालियर या उसके किसी निकटवर्ती क्षेत्र निवासी थे। ऐसे सुन्दर काव्य की रचना करके भी वे स्वयं को हों और वे रहधू की साहित्यक गतिविधियों से भी परिचय जड़मति कहते हैं। काव्य मे हुयी अर्थ और मात्रा की रहे हैं, जो कालान्तर में रोहतक आ बसे होंगे क्योकि हीनाधिकता के लिए वे न केवल श्रुतदेवी से क्षमा याचना प्रस्तुत कृति में उपलब्ध बुन्देली शब्द उपलब्ध होते हैं। कराते हैं अपितु विवुधजनों से भी। आचार्य अमितमति ने दूसरी यह सम्भावना भी उदित होती है कि रइधू की कृति भी इसी प्रकार की क्षमा याचना की है। अतः प्रतीत पासवाहचरिउ हो सकता है किसी अन्य व्यक्ति द्वारा होता है कि इस प्रसंग में कवि ने पूर्व रीति का भली भांति रोहतक ले जायी गयी हो। यदि इस संभावना को ठीक निर्वाह किया है। मानते हैं तो इससे भी कवि का ग्वालियर या उसके प्रस्तुत ग्रन्थ में कवि ने एक ओर जहां आत्मपरिचय निकटवर्ती क्षेत्र का होना ज्ञान होता है, क्योंकि अन्य किसी प्रत्यक्ष रूप से न के बराबर दिया है, दूसरी ओर अन्य रचना की पंक्तियों का स्वरचित पंक्तियो के रूप में कवि के प्रेरक का उल्लेख सविस्तार किया है। उन्होंने लिखा तभी उपयोग करेगा जब उसे यह विश्वास प्राप्त होकि है कि जिनकी प्रेरणा एव निवेदन पर यह ग्रन्थ रचा गया अपत पंक्तियों के लेखक को इससे कोई अप्रसन्नता न होगी। था, वे चौधरी देवराज वैश्यों में प्रधान, अग्रवाल कि यह तभी संभव है जब परस्पर में अति आत्मीयता कुलोत्पन्न, सिघल (संगल) गोत्री, रोहतक निवासी थे।
रोता विना HIT या निकट बाम चौधरी चीमा जिनकी गाल्हाही नाम की भार्या थी, के संभव दिखाई नहीं देती। अतः इस सभावना से भी देवराज चौधरी के प्रपितामह थे। चीमा को चूल्हा नाम कवि का ग्वालियर या किसी उसके निकटवर्ती क्षेत्र का ।
से भी सम्बोधित किया गया है। करमचन्द जिनकी भार्या निवासी होना ज्ञात होता है।।
का नाम दिवचन्दही था, देवराज के पितामह थे। रचना के अन्त में कवि ने लिखा है कि "परम्परा से करमचन्द के तीन पुत्र हुए थे-महणा गैरवण और जिसशात जिमचन्द्र सुरि ने सिद्ध किया था, उसे सूत्र रूप
ताल्हू । इनमें महणा के चार पुत्र हुए थे-देवराज,मामू में मैंने सुन्दर एवं सुगम-सुखद भाषा में इस कृति को चुगना और छुट्टा या छुटमल्लु । इन चारो की मां का मिबद्ध किया है।" इस उल्लेख से कवि माणिक्कराज
नाम खेमाही था। देवराज और उनकी भार्या णोणाही से जिनचन्द्र सूरि के विशेष कृतज्ञ रहे ज्ञात होते हैं। हो
दो पुत्र हुए थे - हरिवश और रतनपाल । हरिवंश की सकता है जिनचन्द्र कवि के विद्या गुरु और पचनन्दि
भार्या का नाम मेल्हाही और रतनपाल की भार्या का नाम पीक्षागुरु रहे हों।
भूराही था । देवराज के छोटे भाई मा की चोचाही रचना में कवि देव, शास्त्र और गुरु तीनों के श्रद्धालु नाम की भार्या थी। इन दोनों के तीन पुत्र हुए थेजात होते हैं। इस ग्रन्थ के मादि में कवि ने येव के रूप नागराज, गेल्ड और चामो । नागराज की भार्या का नाम में तीकरों का नामस्मरण किया ही है। गुरुपरम्पराका सूबटही था। देवराज के दूसरे छोटे भाई चुगना और उल्लेख कर गुल्मों के प्रति जहां कषि ने कृतज्ञता प्रकट उसकी भार्या दूगरही के चार पुत्र हुए थे-बेतसिंह, की है वहां वीर जिनेन्द्र के मुख से निकसित सारभूत श्रीपाल, राजमल्ल मोर कुंवरपाल । देवराज के सबसे भटारिका सरस्वती से प्रमाद वश किये गए भागम विरुद्ध छोटे भाई जिन्हें संभवतः सबसे छोटा होने कारण छुट्टा कथन के प्रति या कोई अक्षर रह गया हो तो उसके प्रति छुटमल्लु कहा गया कहा गया होगा, उनकी भार्या का क्षमा याचना भी की है। अपने ही इतर अम्प में उन्होंने नाम फेराही था। इन दोनों के एक ही पुत्र हमापा, सरस्वती की सुषदेवी (श्रुतदेवी) भी कहा है।" गुरुश्रवा जिसका नाम था दरगहमल्ल । प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा है कि यह गुरु कृपा ही है रोखण देवराज चौधरी के पिता महणा का अनुष
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एक महत्वपूर्ण अप्रकाशित अपना समरसेन परित था इसकी भार्या का नाम था रामाही । इन दोनों के बार अपनी रचना अमरसेन-वरिउ में उपयोग करने से भी पुत्र हुए थे-मल्ल, चंदु वीणकंठ और लाउड़ । इन चारों यही तथ्य प्राप्त होता है। में मल्लु की कुलचंदही नाम की भार्या थी और इन दोनों रचना काल :-इस अन्य के पूर्ण होने का समय
कीतिसिन्धु नाम का पुत्र हुआ था। चंदु की भार्या थी वि० सं० १५७६ चैत्र सुदी पंचमी शमिवार, कृत्तिका लूणाही। इन दोनों के मदनसिंह नाम का पुत्र हुआ था। नशत्र बताया गया है।" प्रस्तुत प्रति प्रब की रचना की वीणकंठ की पीमाही नाम की भार्या थी और नरसिंधु रचना पूर्ण होने के एक वर्ष बाद की प्रतिलिपि हैं। इसे इनका पुत्र था । लाडण की भार्या का नाम था वीवो। विक्रम सवत् १५७७ की कार्तिक वदि रविवार के दिन इन दोनों के दो यत्र हुए थे-जोगा और लक्ष्मण । जोगा कुरुजांगल देश के सुवर्णपथ (सोनीपत) नाम नाम के नगर की भार्या का नाम था दीदाही और लक्ष्मण की भार्या का में काष्ठाषघ के माथुरान्वय-पुष्करगण के भट्टारक गुणभद्र नाम था मल्लाही । लक्ष्मण और मल्लाही के हीरू नाम की आम्राय में उक्त नगर के (सोनीपत) निवासी अग्रवाल का एक पुत्र हुआ था।
वशी, गोयल गोत्री, पौरदरी जिन पूजा (इन्द्रध्वज विधान) ताल्हू इस बश मे देवराज चौधरी का चाछा था। के कर्ता साहू छल्हू के पुत्र साहू बाटू ने इस अमरसेन साल्हू की भार्या का नाम बालाही था। इन दोनों के दो चरित्र शास्उ शास्त्र की प्रतिलिपि की थी।" पुत्र हुए थे-पप्रकांत और देवदास । पद्मकांत की इच्छा- इस ग्रंथ की रचना रोहतक नगर में तथा प्रतिलिपि वती नाम की भार्या थी। इन दोनों के महदास नाम का सोनीपत नगर में होने से यह प्रमाणित होता है कि सोनीपुत्र युआ था। देवदास की भार्या का नाम रुधारणही पत के शास्त्रभण्डार में इस ग्रन्थ की प्रति अवश्य होगी। था। धणमलु देवदास का पुत्र था । धणमल की गज- सोसीपत के धार्मिक पदाधिकारियों से निवेदन है कि लेखक मल्लाही नाम की भार्या थी। इन दोनों के वायमल्लु नाम को उक्त प्रति की उपलब्धि से अवगत कराने की कृपा करें। का पुत्र हुआ था।
विक्रम सं० १५७६ में रचित कवि की अपर कृतिइस प्रकार इस वंश परम्परा मे देवराज चौधरी के नागसेन चरिउ से विदित होता है कि कवि के काल में पूर्व उनके प्रपितामह तक का नामोल्लेख मिलता है और शास्त्रों और शास्त्र-निर्माताओं का समादर पा । शास्त्र बाद की पीढ़ी में तीसरी पीढि तक ।" नामों में स्त्रियों के पूर्ण लिखकर शास्त्र लिखाने वालों को जब हाथों में देते नाम 'ही' से अन्त हुए हैं। इस वश के सभी लोग चौधरी तब वे शास्त्रों को सिर पर चढ़ाते थे। उत्सव मनाते थे। कहे गए हैं जिससे प्रतीत होता है कि सम्भवतः यह इस और शास्त्र-निर्मातामों को वस्त्र, ककण, कुण्डल, मुद्रिकादि बंश के विरुद्ध रहा।
देकर बहु प्रकार से सम्मानित करते थे। कषि माणिक्कइस वंश परम्परा मे चचेक भाई के नाती का भी राज को भी ऐसा सन्मान प्राप्त हुआ था। उस समय उल्लेख होने से ज्ञात होता है कि यह रचना उनकी वृद्धा- के लोगों की यह गुणग्राहिता सराहनीय है। वस्था में लिखी गई होगी। कवि रइध कृत पंक्तियों का
जैनविद्यासंस्थान, श्रीमहावीरजी (राजस्थान)
संवर्भ-सूची १. देखिये जैन विद्या-स्वयभू विशेषांक (जन विद्या उद्धरिय भम्ब जे सम वि सत्त ।।
संस्थान, श्री महावीर जी द्वारा प्रकाशित) अप्रैल संतइतयताहं मुणि • गच्छणाहु । १९८४ में प्रकाशित लेखक का लेख-"स्वयम्भू-छन्द गयरायदोस संजइव साहु ॥ एक समीक्षात्मक अध्ययन।"
जें ईरिय अंत्यह कह पवीणु । २. हु बहु सदत्यह सुइ णिहाए।
णियमाणे परमप्पयह लीण। विहं दुबरु णिज्जित पंचवाणु ।
तवतेयणियत्तणु कियउ रवीण । विपणाण कलालय पारुपत्त ।
सिरि खेमकित्त पद्धिहि प्रवीणु ॥
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२४
३७ कि.४
अनेकान्त
सिरि हेमकित्ति जि हयउ णाणु । तहु पहवि कुमरविसेणु णामु ।। णिग्गंथु दयालउ जइ वरिहु । जि कहिउ जिणागम भउ सुहु ।। तह पहिणि विहउ वह पहाणु । सिरि हेमचन्दु मय तिमिरभाणु ॥ त यह धुरधरु वष पपीणु। वर पोमणांदि जो तवह खीणु ॥ तं पणविवि णियगुरु सीलक्षाणि । णिग्गंथु दयालउ अमियवाणि ॥
सन्धि १, कड़वक २, यमक ४।१३; ३.जि मच्छरु मोह वि वि परिहरियउ ।
सुहयझाणि जे णियमणु धरिपउ ।। हेमचन्दु आयरिउ बरिट्ठउ । तह सीसु नि तवतेय गरिठ्ठउ । पोमणांधर णादउ मुणिवरु। देवणांदि तछु सीसु महीवरु॥ एयारह पडिमउ घारंतउ । रायरोसमयमोह हणंतउ । सुहझाणे उपसमु भावतउ । णदउ वभलोलु समवतउ ।।
सन्धि ७, कड़वक ११, यमक ६-१०; ४. तह पासजिणेदह गिहरवयण । वे पंडिय णिवसहि कणयवएण । गरुवउ जसमलु गुदागणनिहाणु । वीयउ लहुबंधउ तच्चजाणु ॥ सिरि संतिदासु गन्धत्थ जाणु। चच्चइ सिरि पारसु विमयमाणु ॥
वही, यमक ११-१३; ५. सिद्धत अत्थ भावियमणेण ।
पुरयण सुहयारउ सुरधघुणेण ।। तंह दिद्वउ पुणु सूरसइणिवासु । माणिक्कराजु जिणगुरहं दासु ॥ तेणवि सभासणु कियउ तासु । जो गोठि पचासइ बहुसुयासु ॥ तं जिण अचण पसरिय भुवेण । अविखउ वुह सूरा सांदणोण ।। भो माणिक पडिय, सील अखडिय,
६. अनेकान्त : वर्ष १०, किरण ४-५ पृष्ठ १६० । ७. तहिं णिवसइ पंडिउ सत्थखणि । सिरि जयसवाल कुलकमलतरणि ।। इक्खाकुवस महियलि वरिहु । वुहसूरा सांदणु सुयगरिहु । उप्पएणउ दीवा उरि खण्णु । वह माणिकु णामे वुहहि मएणु ॥ आमेरशास्त्र भडार सम्प्रति जैन विद्या संस्थान, श्री महावीर जी, वे० स० ५२१, ८. रुहियासु वि णामे भणिउ इहु ।
अरियण जणाह हिय सल्लु कहु ॥
अमरसेन चरिउ, सन्धि १, कड़वक ३, यमक ३; ६. रोहियासिपुरवासि सयललोउ सहणादउ ।
वही; सन्धि ७, पत्ता ११; १०. वही : सन्धि १, कड़वक ३, यमक ४-१६ और
घत्ता३; ११. रइधू ग्रन्थावलि . पासणाहचरिउ : सन्धि १,
कड़वक ३; १२. आयरिय परम्परा जैत दुद्ध जिणचन्द वि सूर सिद्ध
लहु सुन्तु पिक्त्वि ललियक्त्वरेण मणि माणिविक किउ सुहगिरेण अमरसेनचरिउ : सन्धि ७, कड़वक १०,
यमक ८-६, १३. सुपमाए विरुद्धउ भासिउ ।
तं सरसइ महु खमह भंडारी वीर जिणहो मुहणिण्णय सारी॥
वही : कड़वक १५ यमक ७-८%; १४. णायकुमारचरिउ : वही, पत्र १२३-१२४; प्रशस्ति
भाग । १५. हेमपोम आयरिय विसंसि वभज्जु ण गुणगणिण णिहीसि
मइ कस वहिय वण्ण धरेप्पिणु कव्वेसु वपणहु लोहवि देप्पणु ॥
अमरसेनचरिउ : सन्धि ७, कड़वक १५, यमक ९-१०; १६. विरयउ एहु चरित्तु सुवुद्धिए।
जइयहु अत्थमन्थ हीणउ हुउ ॥ तामहु दोसु भन्दु म गछउ कोई । विणवइ माणिकु कइ इम ।। मझु खमंतु विवह सव्ववि तिम । अण्णु वि अमुणते हीणाहिउ । मइ जलेण जं कायमि साहिउ । त जि खमउ सुयदेवि भंडारी। सिरि णायकुमार चरिउ : वही पत्र १२३-१२४ ।
समवत
सन्धि १, कड़वक ६, यमक ४-७, और धत्ता १;
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"पांच प्रश्व"
डा० (कुमारी) सविता जैन मैं समझी थी जब शान्त हुआ मन,
गिरी धरा पर अकुलाई । तभी क्रोध की ज्वाला भभकी।
विवेक बुद्धि लड़खड़ा उठी थी, तन-मन झलसा दावानल में,
गिर कर उठने भी न पाई॥ और शिराएं तड़की-चटकीं ॥
जिनको अब तक पुचकारा था, लो, गिरा उगलने लगी विष-वचन,
आज मुझी पर हावी थे वे । वर्षों का संयम टूट उठा ।
जिनको अब तक बांध रखा था, आँधी, पानी, तूफान को समता
आज मुझे वे बाँध रहे थे । से सहने का भाव बह चला ।।
तब समझी इन्द्रियों की ज्वाला, मैं समझी थी इन्द्रिय के घोड़े,
बुझा न सकते सात समुन्दर । सभी कर चुकी हूँ मैं बस में ।
हर छींटा पावक में घृत-सा, बड़ी शान से चढ़ बैठी थी,
और उन्हें नित उकसाता है । पांच अश्व वाले उस रथ में ॥
तेज हवाओं के झोकों से, सहसा लगाम छूटी व्याकुल हो
और उन्हें नित भड़काता है ॥
7/35, दरियागंज, नई दिल्ली
(पेज २४ का मेषांश) १७. यदर्थमात्रापदवाक्यहीनम, गयाप्रसादाद्यदि किंचनोक्तम् माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्री यसाकीतिदेवा
तन्मे क्षमित्वा विधातुदेवी सरस्वती केवल बोधलब्धिम् तत्पपदे भट्टारक श्री मलयकीर्तिदेवा तत्पदे भट्टारक भावना द्वात्रिंशतिका : पद्य १०.
श्रीणभद्रसूरिदेणः तदाम्नायं अग्रवालान्वये गोइलगोत्रे १८. अमरसेन चरिउ सन्धि १ कड्वक ४-५ मे देवराज
सुवर्णपथि वाक्तव्यं । जिणपूजा-पोरन्दरी कृपवान् की पूर्ववर्ती तीन पीढ़ियों का तथा सन्धि ७, कडवक
साधु छल्ह तस्य भार्या सीलतोयतरंगिणी साध्वी १२, १३, १४, १५ में सम्पूर्ण वशावलि का सतिस्तार
करमचंदही...."चउ प्रकारादि दान दिसतु साधुवाद वर्णन किया गया है।
तेन इदं अमरसेण सास्त्र लिखायितं । ज्ञानावरणी १६. रइधू ग्रंथावलि : पासणाहचरिउ; सन्धि १, कड़वक ३ कर्म क्षयार्थ ।। वही : अन्तिम पृष्ठ (प्रशस्ति) २०. अमरसेनचरिउ: १. कड़वक ३ यमक ४-१६ और २३. माणिक्कराज वज्जिय गएण तं पुण्णु करेय्यिणु एह धत्ता ३।
गथु टोडरमलहत्थें दियणु सुत्यु णियसिरह चडाविउ २१. विक्कमरायह ववगइ कालई लेसु मुणीस वि सर
तेण गथु पुण तुहइ ठोडर हियद् गंथि दाणे सेयं सह अंकालइं धरणि सह चइत वि माणे सणिवार सुय
करपणु त पि पंडिउ बर यहहि कविउ तेण पुनगु पंचमि दिवसे २१ कित्तिय णक्खत्ते सुप जोयं हुत
सम्माणिउ बहु उच्छवेण वर वत्यई कंकण कुण्डलेहि पुहणउ सुत्त विसुह जोय बदी: सधि ७ कड़वक १५
अंगुलियहि मुहियणिय करेहिं पुज्जिउ आहारणहि यमक १३-१५
पुणु तुरंतु छरिरोवि वि साजिउ वि णयणिरुत्तु मउ २२. अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्री नृप विक्रमादित्य गताब्दः
णिय घरि पंडिउ गंथु तेण जिणगेहि णियउ वह संवत् (१५७७) वर्षे कार्तिक वदि ४ रवि दिने कुरु
उच्छवेण सिरिणायकुमार चरिउ : वही प्रशस्ति, जांगलदेशे श्री सुवर्णपथ शुभस्थाने श्री कालसंधे यम १२३-१२४ ।
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णमोकार मंत्र का फल
-पुण्यात्रव कथाकोश से
भरतक्षेत्र के यक्षपुर नाम के नगर में श्रीकान्त नाम एव मुनि-निन्दा के पाप से छूटने के लिए उसने श्राविका का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम मनोहरी के व्रत धारण कर लिए। इसके पीछे वेदवती के योवनथा। इसी नगर में सागरदत्त वणिक और रत्नप्रभा नाम वती होने पर राजा शम्बु ने उसके साथ विवाह करने की की उसकी स्त्री थी। रत्नप्रभा की गुणवती नाम की एक इच्छा की, और उसके पिता से याचना की। परन्तु राजा कन्या थी। सागरदत्त उसका विवाह उसी नगर के रहने मिध्यादृष्टि था, अतएव श्रीभूति ने अपनी श्राविका कन्या वाले नयदत्त के पुत्र धनदत्त के साथ करना चाहता था। उसे देना अस्वीकार किया। परन्तु राजा ने आज्ञा दी कि तुम्हें उसका विवाह मेरे तब राजा ने कुपित होकर मन्त्री को मार डाला। साथ करना पड़ेगा । अतएव विवाह नही हो सका। वह मरकर स्वर्गलोक गया। और वेदवती कन्या "मेरे
नयदत्त की स्त्री का नाम नन्दना था। उसके गर्भ से निरपराध पिता को राजा ने मारा है, अतएव जन्मान्तर दो पुत्र उत्पन हुए। जिसमें से एक उक्त धनदत्त था और में मैं उसके विनाश करने का निमित्त होऊंगी।" ऐसा दूसरे का नाम वसुदत्त था । वसुदत्त को राजा ने जंगल मे निदान करके तपस्यापूर्वक शरीर त्याग किया और स्वर्ग क्रीडा करते समय मार डाला। तब वसुदत्त के सेवकों ने में देवाङ्गना हुई। इसके बाद देवायु पूर्ण करके भरतक्षेत्र गुस्से में आकर राजा को भी मार डाला। ये दोनों मर के दारुण ग्राम में सोमशा ब्राह्मण की ज्वाला नाम की कर हरिण हुए। उधर धनदत्त विदेश को चला गया। स्त्री के सरसा नाम की कन्या हुई। यह यौबनवती होने अतएव वह गुणवती पुत्री आर्तध्यान से मरकर जहां वे पर अतिविभूति नाम के एक ब्राह्मण पुत्र को व्याही गई, हरिण उत्पन्न हुए थे, वहीं हरिणी हुई। आखिर उसी पर परन्तु पति के साथ थोड़े ही दिन रह कर किसी जार में मोहित होकर वे दोनों हरिण आपस में लडकर मर गये, आसक्त होकर उसे लेकर देशान्तर में निकल गई । मार्ग में और जंगली सुअर हुए। हरिणी मरकर सूकरी हुई । सो एक मुनि के दर्शन हुए, सो पापिनी ने उनकी निन्दा की। वहां भी वे दोनों सूकरी के पीछे लड कर मरे और हाथी इस महापाप के फल से मरकर उसने तिथंच गति पाई। हुए। सूकरी मर कर हथिनी हुई। और इस पर्याय में भी बहुत काल भ्रमण करके वह एक बार चन्द्रपुर नगर के पूर्व प्रकार से मर कर भैसा, बन्दर, कुरबक, मेंडा आदि राजा चन्द्रध्वज और रानी मनस्विनी के चित्रोत्सवा नाम अनेक पर्यायों में उन दोनो ने भ्रमण किया। और वह की पुत्री हुई। जवान होने पर मन्त्री के पुत्र कपिल पर गुणवती भी क्रम से उसी जाति की स्त्री होती गई, तथा आसक्त होकर उसके साथ परदेश को चली गई। परन्तु उसी के निमित्त से वे दोनों लड़ कर मरते रहे।
आखिर मत्रीपुत्र से भी नही बनी। उसे छोड़कर विदग्धपुर ___एक बार गुणवती गंगा नदी के किनारे हथिनी हुई।
के राजा कुण्डलमडित की प्यारी स्त्री बनी। वहां पूर्व सो एक दिन कीचड़ में फंसकर कठगतप्राणा हो रही थी
जन्म के सस्कार के कारण पाकर श्रावक के व्रत ग्रहण कि इतने मे एक सुरग नाम का विद्याधर आया और उसने
किये, और बहुत काल उनका शुद्धचित्त से पालन किया। उसे पंच नमस्कार मन्त्र दिया। उसके फल से हथिनी माग करके इस बढे भारी पण्य फल से वह दसरे जन्म शरीर छोडने पर मृणालपुर के राजा शम्बु के मन्त्री श्रीभूति मे सीता सती हुई। की सरस्वती स्त्री के वेदवती नाम की कन्या हुई। एक सीता के स्वयंवरादि का चरित्र पचरित अर्थात् दिन मृणालपुर में चर्या के लिए एक मुनिराज पधारे थे, पद्मपुराण से (रामायण से) जानना चाहिए। यहां पर केवल सो वेदवती ने देखकर मूर्खतावश उनकी निन्दा की। इतना ही कहना है कि एक हथिनी ने भी नमस्कार मंत्र इसके बाद उसके गले मे जब कोई रोग हुआ, तब लोगों के प्रभाव से श्रीमती सीता सती सरीखी उत्तम पर्याय पाई। ने कहा कि तूने मुनिराज की निन्दा की थी, यह उसी का यदि अन्य सम्यग्दृष्टि मनुष्य महामंत्र का जप करें, तो क्या फन है । वेदवती को इस बात पर विश्वास हो गया, अत- क्या वैभव न पावें? इसके प्रभाव से सब कुछ पा सकते हैं।
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गतांक से भागे:
वर्धमान की तालीम
Dशायर फरोग नक्काश
नहीं है कुछ जियादा फर्क इन दोनों उसूलों में, बरासा बोध" है कुछ इनके मानीयो-मतालिब" में। इलावा इसके जैनी जोर देते हैं अहिंसा पर, समझते हैं वो फाका और उरियानी" को अफजलतर"। जहां तक मोक्ष और निर्वाण का कुछ जिक्र आता है, तो उसमें एक्तलाफ और बोध काफी पाया जाता है। गरज ये मोक्ष हो तस्किने दिल का नाम है बेशक, दिया पैगाम जिसका वर्षमा ने तोस सवत् तक । इलावा इसके दोनों धर्म के यकसा मसाईल है, तनासुख", पारसाई" और नेकी से मुमासिल" है।
मुकद्दस वेब की तालीम से इंकार है इनको, गिरोहे बरहमन को बर्तरी से मार है इनको। वो इंसा के लिए नोच-ऊँच को कहते हैं एक लानत, उन्हें भाती नहीं उनकी, खुदाराई" किसी सूरत। छुआ-छुत और नस्ली बरतरी को जुल्म कहते हैं, वो इस सर्जे तमदुन" से हमेशा दूर रहते हैं। खुदा के मसले पर भी ये दोनों चुप ही रहते हैं, न कोई बात ही इस जिम्न" में वो मुह से कहते हैं।
जैन धर्म के दो फिरके फिर उसके बाद जैनी धर्म में तब्दोलियां मायी, घटाए इक्तलाफ और तकिके" को खूब मंडराई। करीबन सेहसदी पहले जनाबे इब्ने मरियम के, बने दो तायफै“ इनमें कैफे नैरंगे' आलम से। है एक फिरका दिगंबर दूसरा श्वेतांबर नामी, बटे दो तायफे में इनके सब हमदर्द और हामी। दिगंबर तायफे के मोतकिद" है जिस कदर जैनी, परस्तीश करते हैं उरियां बतों को और संतों की। दिगर इसके जो है श्वतांबर फिरका वो है सानी, नहीं है इसमें पहले तायफे की तरफ उरयानी। मुकद्दस संत उनके सित्रे अबियज पहने होते हैं," हमा", लहजा, तजल्ली" अपने सीने में समोते हैं । बुतों को अपने पहनाता है मलवूसात"ये फिर्का, निहायत साफो-शुस्ता रखता है जज्बात ये फिर्का । मईशत कि बिना इस कौम की काफी है मुस्तहकम," बिनाए फारेगुल बालो"है वजहे तज"ही, अहेकम"। है इस मजहब के ५० लाख इंसा आज भारत में, जो अपने आप को मसरफ रखते है तिजारत में। मगर ये तायफा भी रफ्ता-रफ्ता दौरे आखीर में, पुरातन धर्म का एक जुज्वे है अब ये अने हाजिर में।
प्रस्तुति-डा. शालिग्राम मेश्राम
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४५. दूरी, ४६. मतलब, ४७. भूखा रहना, ४८. निर्वस्त्र, ४६. बहुत अच्छा, ५०. समस्याएँ, ५१. आवा गमन, ५२. नेकी, ५३. समान, एकरूप, ५४. अपने आपको अच्छा समझना, ५५. रहन-सहन, ५६. मिला हुआ, ५७. फूट, शत्रुता, ५८. गिरोह, ५६. समय की आंधी में ६०.धर्म पर विश्वास रखने वाले, ६१. सफेद कपड़े, ६२. हर वक्त, ६३. ईश्वर की रोशनी, ६४. कपड़े, ६५. कारोबार, ६६. बहुत मजबूत, ६७. खुशहाली, ६. तिजारत ६६. मजबत ।
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सम्पादकीय भेंट :
१. मूल संस्कृति : अपरिग्रह :
'परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् -' परस्पर में मिले हुए अनेकों में, जो हेतु किसी एक की स्वतंत्ररूपता को लक्षित कराता है वह उस जूदे पदार्थ का लक्षण होता है । जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता ।
उष्णता अग्नि को पानी से जुदा बताने में हेतु है। ससारं में जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव, मुस्लिम, सिख आदि अनेको मत-मतान्तर प्रचलित हैं, उन सबकी पृथक्-पृथक् पहिचान कराने के उनके अपने-अपने लक्षण निश्चित हैं, जिनसे उनकी पृथक् पहिचान होती है। यह बात निर्विरोध है कि जैनों की पहिचान कराने मे 'अपरिग्रह' मुख्य हेतु है । यह हेतु जैनो का अन्यों से व्यवच्छेद कराता है। गत अको में हमने लिखा था 'जैन संस्कृति अपरिग्रह मूलक' है और यही अपरिग्रह रूप संस्कृति जैनों का अन्यों से व्यवच्छेद कराती है - जैनों की पहिचान कराती है । साधारणतया अपरिग्रह के सिवाय अन्य शेष धर्मो-अहिंसादि में वह शक्ति नही जो वे जैनो का अन्य मत-मतान्तरो से सर्वथा व्यवच्छेद कराने में समर्थ हो सकें । यतः अपरिग्रह के सिवाय अन्य अहिंसादि शेष धर्म अन्य सभी साधारण मतमतान्तरों में हीनाधिक रूपो में पाए जाते हैं। अतः जैनों में उनका अस्तित्व तात्त्विक पहिचान के रूप में विशेष महत्व नही रखता और ना ही उनमे से कोई धर्म औरो से जैनों की अलग पहिचान कराने में समर्थ ही है । तथा जैनों की हर क्रिया में पूर्ण अपरिग्रहत्व की भावना निहित है। यहां तक कि जैन का अस्तित्व भी अपरिग्रह पर आधारित है । यतः -
'जैन' शब्द के निष्पन्न होने में 'जिन' की मुख्यता है । जो 'जिन' का है वह 'जैन' है ओर जो जीत ले वह 'जिन' है। यहां जीतने से तालयें मोह, राग-द्वेषादि पर वैभाविक भाव अर्थात् कर्मों के जीतने से है। क्योकि ये मोहादि पर-भाव स्वयं भी परिग्रह हैं और परिग्रह के मून भी हैं।
हमने श्रावक व मुनियों के दैनिक कृत्यों को पढ़ा है और उनके प्रारम्भिक कृत्यों को देखा है । नित्य नियम सामायिक आदि के लक्षणों में भी अपरिग्रह भावना की कारणता विद्यमान है अर्थात् जब तक रागादिपरिग्रह के प्रति उदासीन भाव नही होगा तब तक सामायिक न हो सकेगी। जहां पर - परिग्रह से निवृत्ति और स्व यानी अपरिग्रहत्वरूप निर्विकार स्व-परिणाम में ठहराव है वही सामायिक है और वह ही आत्म-शुद्धि मे कारण है। जब तक जीव की पर-प्रवृत्ति बनी रहेगी, चाहे वह प्रवृत्ति अहिंसादि में ही क्यों न हो ? वह बन्ध का ही कारण होगी क्योकि अहिंसादि धर्म भी पर अपेक्ष कृत हैं, पर के आसरे से है। स्व-परिणाम 'अपरिग्रह' रूप होने से बन्ध का कारण नही । अहिंसादिक सामाजिक धर्म हैं और अपरिग्रह आत्मिक धर्म है जिसका 'जिन' और जैन से तादात्म्य संबन्ध है ।
युग के आदि प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर भ० महावीर तक चौबीस तीर्थंकर और अरहन्त अवस्था व मुक्ति को प्राप्त असख्य सिद्ध अपरिग्रही होने से ही पूर्णता को पा सके । एक भी दृष्टान्त ऐसा नही है जिससे परिग्रही का मुक्त होना सिद्ध हो सके ।
जैनों में जो दिगम्बर, श्वेताम्बर जैसे दो भेद पड़े हैं वे परिग्रह और अपरिग्रह के कारण ही पड़े हैं। ऐसा मालुम होता है कि जिन्होंने अपरिग्रह पर समन्ततः और सूक्ष्म दृष्टि रखी वे दिगम्वर और जिन्होने अपरिग्रह पर स्थूल, एकांगी बाह्य-दृष्टि रखी वे श्वेताम्बर हो गए । स्मरण रहे जहां दिगम्बर अन्तरंग-बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रह त्याग पर सूक्ष्म रूप में जोर देते हैं, वहां मवेताम्बर बाह्य परिग्रह को गौण कर केवल अन्तरंग परिग्रह को मुख्यता देते हैं और इसीलिए उनमें स्त्री और सवस्त्र मुक्ति को मान्यता दी गई है। यदि इन भेदों के होने में अहिंसादि को लेकर मतभेद की बात होती तो उसका
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सम्पादकीय भेंट
कही तो कैसे भी उल्लेख होता-जैसा कि नहीं है। दोनों है कि अशुभ से हटकर शुभ में आना आदि, सो सब व्यवमें ही अहिंसादि चार धर्मों के लक्षणो और उनके रूपों की हार है। मान्यता में एकरूपता है। यदि भेद है तो परिग्रह और (१) प्रतिक्रमण :-परिग्रह से आवृत प्राणी पुनः पुनः अपरिग्रह के लक्षणों को लेकर ही है।
परिग्रह-राग-द्वेषादि रूप पर-भावों मे दौड़ता है अर्थात् दोनों संप्रदायों मे दो श्लोक बडे प्रसिद्ध है। उनमें वह स्व से बेखबर हो जाता हैं और पुण्य-पापरूप या दिगम्बर-सम्प्रदाय मे शास्त्र वाचन के प्रारम्भ मे पढा ससारवड़क पर पदार्थों में वृत्ति को ले जाता है। ऐसे जाने वाला मंगलश्लोक पूर्ण-अपरिग्रही होने के रूप में।
जीव को उन परिग्रह-कर्मबधकारक क्रियाओं से सर्वथा नग्न दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य को नमस्कार करता
हटकर पुन: अपने शुद्ध अपरिग्रही आत्मा में आने के लिए है जब कि श्वेताम्बरों में इस श्लोक का रूप सवस्त्र
प्रतिक्रमण का विधान किया गया है। इसमे पर-प्रवृत्ति का (दिगम्बरों की दृष्टि मे परिग्रही) आचार्य स्थूलभद्र को
सर्वथा निषेध और स्व-प्रवृत्ति (जो शुद्ध यानी अपरिग्रह नमस्कार रूप में है। तथाहि
रूप है) में आने का विधान है। दिगम्बरों मे:
(२) प्रत्याख्यान-जो जीव पर से स्व में आ गया, मगलं भगवान वीरो मगलं गौतमोगणी।
वह पुनः पर मे न जाने को कटिबद्ध हो, यानी पुनः परि
प्रहरूप-कर्मबधकारक क्रियाओं मे न जाने में सावधान मगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मगलम् ।।
हो? इससे उमका आगामी ससार- परिग्रह यानी कर्मश्वेताम्बर :
बधरूप संसार रुकेगा। मंगलं भगवान गेरो मगलं गौतमोप्रभु । मंगल स्थूलभवार्यों जैन धर्मोऽस्तु मगलम् ।
(३) सामायिक-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान मे
सन्नद्धजीव सम-समता भाव में स्थिर होने में समर्थ हो उक्त श्लोको से यह भी ध्वनित होता है कि
सकेगा। क्योकि समता का शुद्ध-आत्मा से अटूट सम्बन्ध महावीर और गौतमगणघर के पर्याप्त समय बाद तक
है। समता का भाव है-किसी अन्य के प्रति शुभ या अभेद रहा और बाद में अपरिग्रह, परिग्रह के आधार
अशुभरूप-पर भावो का सर्वथा त्याग । क्योंकि शुभ और पर नग्न और सवस्त्र साधु के भिन्न-भिन्न नामों से
अशुम भाव- चाहे वे विभिन्न जीवों में एक जैसे ही क्यों श्लोक प्रचलित किया गया, जो कुन्दकुन्द और स्थूलभद्र
न हो बन्ध कारक होगे, जब कि सच्ची सामायिक में के रूप में हमारे सामने है। श्लोको में महावीर और
आस्रव व बध दोनों का सर्वथा अभाव यानी आत्मा के गौतम के नाम यथावत एक रूप है। इसी के आधार पर
अपरिग्रही होने का पूर्ण उद्देश्य है। इसी सामायिक से दिगम्बर कभी सवस्त्र को निर्ग्रन्थ-गुरु के रूप में नमस्कार
ध्यान और कर्मक्षय को बल मिलता है। इस प्रकार जैन नहीं करते। और वैसा मगलाचरण भी नही करते
की सभी प्रवृत्तियां अपरिग्रहत्व की ओर मुड़ी हुई हैं जब अब जैसा कोई-कोई करने लगे हैं जो ठीक नही है। कि अहिंसादि अन्य धर्मों मे पर का अवलम्ब अपेक्षित है।
अपरिग्रह धर्म अध्यात्मरूप भी है जो आत्मा के पर- ध्यान के विषय में भी कुछ लिखना है जिसे हम फिर भितशतस्वरूप कोताही अपरिपती कभी लिखेंगे। ध्यान की प्रक्रिया आज जोरों से प्रचारित रूप की प्राप्ति के लिए जिनशासन मे प्रतिक्रमण, प्रत्या- है और उसमें पर-प्रवृत्ति ही विशेष लक्ष्य बनी हुई है। ख्यान और सामायिक के विधान हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ होता है-आत्मा के प्रति आना। प्रत्याख्यान का अर्थ २. प्रागम-विपरीत प्रवृत्तियां: होता है-पूनः 'पर' में न जाना और सामायिक का अर्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टी जीव मिथ्यात्वरूप भाव और होता है-अपने में स्थिर होना। यह जो कहा जा रहा मिथ्या आचरण से सर्वथा दूर रहता है। ज्ञातहमा है कि
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२०३७, कि०४
श्री कान जी स्वामी जब जीवित थे, तब श्री चम्पाबेन को हम चाहते हैं कि सफलता मिले । पर, पिछले कई रिकार्ड सायिक सम्यग्दृष्टी के खिताब से प्रसिद्धि मिली थी ऐसे हैं जिनमें समाज को मुंह की खानी पड़ी है और ऐसे और उन दिनों यह बात बहुत लम्बे समय तक बहुत से प्रसंगों में समाज विभाजित होता रहा है। प्रमाणरूप में उन मनीषियों को भी पता थी जो आज श्री चंपाबेन के सर्व साधारण मुनियों की मूर्तियों का स्थापित होना हमारे कार्य का विरोध कर रहे हैं। उन्हे तभी सोचना चाहिए समक्ष है, आज मुनियों की मूर्तियां जोरों से बनने लगी हैं, था कि इस युग मे क्षायिक सम्यग्दृष्टी कहां और उस जो आगम के सर्वथा विरुद्ध है-कोई उसे रोक नहीं पा सम्यग्दृष्टी को पहिचान करने वाला कौन? पर तब न रहा है। ऐसे ही समाज में कितना ही दूषित साहित्य सोचा और सब मौन रहे। हमने समझा 'मोन सम्मति प्रकाशित हो रहा है और विद्वानो के प्रभूत विरोध के लक्षणम्'। जब ऐसा ही था तब वह क्षायिक सम्यग्दर्शन बाद भी उसमे कोई सुधार नही हो रहा? इसका अर्थ छूट कैसे गया जो श्री चपाबेन से सूर्यकोति जैसे कल्पित क्या हम ऐसा लें कि जो हमारा है वह ठीक है और जो तीर्थकरे की मूर्ति का निर्माण करा रहा है। और पूरी दूसरे का है वह मिथ्या है?' समाज मे क्षोभ का वातावरण बन रहा है। अथवा क्या पिछले समय मे हम धर्म-चक्रप्रवर्तन, मंगल कलशयह समझ लिया जाय कि श्री चम्पाबेन पर 'मिध्यादर्शन भ्रमण और ज्ञान-ज्योति के भारत-भ्रमण को देख चुके हैं। बन्ध का कारण नहीं' इस मान्यता का प्रभाव पड़ गया है
हम नही समझते कि इनसे जैन तत्त्वज्ञान और जैनाचार जो वे कलित भावी तीर्थकर सूर्यकीर्ति की मूर्ति स्थापन
का मूर्तरूप कहीं उभर कर आया हो- सब जहां के तहां जैसे मिथ्याकार्य में लग गई हैं-उन्हें कर्मबन्ध का भय
हैं या अधिक गिरावट की ओर जा रहे हैं। हां, इनसे अर्थ नही रहा है। स्मरण रहे कभी यह चर्चा जोर पकड़ गई का दुरुपयोग और अर्थ सग्रह अवश्य उभर कर सामने आये थी कि 'मिथ्यादर्शन बन्ध का कारण नही।'
हैं-शायद कुछ वर्ग अपने लिए सपत्ति भी जुटा सका हो। कल्पित भावी तीर्थकर सूर्यकीति की मूर्ति के स्थापन यही अवस्था बड़ी-बड़ी कान्फ्रेंसों, सेमिनारों आदि की है। का प्रसंग आगम के सर्वथा विरुद्ध है और अब हमारे बड़े. लोगों को तो ये सब ऐसे हैं जैसे कोई तमाशा दिखाने वाला बड़े विद्वान भी ऐसा लिख रहे हैं। इस नाम के किसी जादूगर आए, मजमा इकट्ठा करे और जादू के करिश्मे भी तीर्थकर का किसी भी शास्त्र में उल्लेख भी नही है दिखा कर चला जाए और लोगो को जादू विद्या का कुछ और श्री चम्पावेन आगे-पीछे के भवो को जानती है यह ज्ञान पल्ले न पड़े वे मात्र मन बहलाव-थोड़ी-सी देर की बात भी सर्वथा मिथ्या है। अतः सूर्यकोति की मूर्ति और मन-तुष्टि कर लें, कि बहुत अच्छा हुआ। अन्ततः खाली श्री चंपावेन दोनों का घोर विरोध होना चाहिए-समाज के खाली। विविध लोग आए और गए। सब पैसे का ने उचित कदम उठाया है। कल को साधारण लोग भी खेल है । साधारण को इनसे लाभ नहीं। ऐसा कह सकते हैं कि हम मी स्वयं तीर्थकर है, हमें स्वप्न
हम अभिनन्दनों और जयन्तियों के भी पक्ष में नहीं बाया है और आगे-पीछे के भव ज्ञात हुए हैं। क्योंकि
हैं। इन्हें भी लोग प्रसिद्धि और मान-बड़ाई के लिए करते अब उन्हें अपने को भूत-भावी का ज्ञाता सिद्ध करने के
या करवाते हैं। नतीजा जो होता है वह श्री चम्पावेन के लिए, श्री चंपावेन की माफिक किन्हीं प्रमाणान्तरों की
मूर्ति स्थापन कार्यक्रम के रूप में सामने है। यतः अभिआवश्यकता नहीं रह गई-वे भी स्वयं ज्ञाता है-जैसे
नन्दित व्यक्ति प्रशंसा में फूल जाते हैं और अपने को श्री चम्पाबेन । अतः विरोध और भी जरूरी है, जिससे
भगवान जैसा मान कर मनमानी पर उतर आते हैं ऐसा भावी मार्ग दूषित न हो।
भी देखा गया है। अतः अभिनन्दनों के अतिरेक बन्द होने हम यह सोचने को भी मजबूर हैं कि उक्त मूति के चाहिए। विरोध में समाज को कहां तक सफलता मिल सकेगी? हमें हर्ष है कि अब इन्दौर ने श्रावकाचार वर्ष मनाने
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सम्पादकीय भेंट
का संकल्प किया है और वह भारत में श्रावक तैयार है ? हमें अपने जीवन में आचार पर बल देना ही हमारी करने का बीड़ा उठा रहा है। पर, यह भी सोच लेना सची खोज होगी। चाहिए कि हमारे प्रचारक नेताओं में ऐसे सच्चे धावक यह हम पहिले भी लिख चुके हैं और आज भी लिख कितने होंगे जिनकी जनता पर श्रावकाचाररूप में छाप रहे हैं कि यदि वास्तव में शोध-खोज का मार्ग प्रशस्त पड़ेगी? कोरे साहित्य वितरण से प्रचार हो सकेगा-यह करना है तो हम शुद्ध पंडित परम्परा को जीवित रखने बात भी तब तक अधूरी जैसी है-जब तक प्रचारकों में का प्रयत्न करें--जिससे हमें भविष्य में आत्म-शोध का कुछ स्वयं आचार के मूर्तरूप न बनें। इन्दौर वाले मूर्त- मार्ग मिलता रहे । आचार्यों द्वारा कृत प्राचीन शोधों से प्राचार देने में सफल हों, ऐसी हम कामना करते हैं उनके हमें वे ही परिचित कराने में समर्थ हैं। इसमें अत्युक्ति इस सत्प्रयास मे हम उनके साथ हैं। काश, कुछ हो सके? नही कि भविष्य में पूर्वाचार्यों द्वारा शोधित ऐसे जटिल
प्रसंग हमें सरल भाषा मे कौन उपस्थित करा सकेगा, जैसे ३. शोध-खोज और हमारा लक्ष्य :
प्रसंग प्रायु के उतार पर बैठे हमारे विद्वानों ने जुटाए हैं। शोध की दिशा बदलनी होगी। आज जो जैसी शोध
षट्खंडागम-धवलादि, समयसार, षट्शाभूत संग्रह, बंधहो रही है और जैसी परिपाटी चल रही है, उससे धर्म
महाबंध तथा अन्य अनेक आगमिक ग्रंथों के प्रामाणिक दूर-दूर जाता दिखाई दे रहा है। यह ठीक है कि जैनधर्म
हिन्दी रूपांतर प्रस्तुत करने वाले इन विद्वानों को धन्य है शोष का धर्म है पर उसमे शोध से तात्पर्य आत्म-शोध
और इनकी खोज ही सार्थक है। हमारा कर्तव्य है कि (शोधन) से है, न कि जड़ की गहरी शोध से। जड़ की
उन ग्रन्थों का लाभ लें-उन्हें आत्म-परिणामों में उतारें गहरी शोध तो आज बहुत काल से हो रही है और इतनी
और आगामी पीढ़ी को उनसे परिचित करायें। बस, आज हो चुकी है कि दुनियां विनाश के कगार तक जा पहुंची
इतनी ही शोध आवश्यक है और यही जैन और जैनत्व है-परमाणु-खतरा सामने है। प्रकारान्तर से हम जैनी ।
के लिए उपयोगी है-अन्य शोधे निरर्थक है । वरना, देख भी आज जो खोजें कर रहे हैं, वे पाषाण और प्राचीन तो रहे हैं जैनियों के ढेर को आप । शायद ही उसमें से लेखन आदि की खोजें भी सीमाओं को पार कर गई हैं। किसी एक जैनी को पहिचान सकें आप। उनसे हमारे भण्डार तो भरे, पर हम खाली के खाली, एक सज्जन बोले-हमें याद है, जब हमने एम. ए. जहां के तहां और उससे भी गिरे बीते रह गए और आत्म- लिया तो हमारे मापते भी कई हितैषियों द्वारा लक्ष्य न होने से किसी गर्त मे जा पहुंचे। यदि यही दशा प्रबंध लिखकर डिग्री प्राप्त कर लेने की बात आई थी रही तो एक दिन ऐसा आयगा कि कोई उस गर्त को
और चाहते तो हम डिग्री ले भी सकते थे। पर, हमने मिट्टी से पूर देगा और हम मर मिटेंगे-जैनी नाम शेष
सोचा-शोध तो आत्मा की होनी चाहिए। प्रयोजनभूत न रहेगा-मात्र खोज की जड़ सामग्री रह जायगी। या तत्त्वों और आगमिक कथनों को तो आचार्यों ने पहिले ही फिर क्या पता कि वह भी रहे न रहे। पिछले कई शोध कर रखा है। क्यो न हम उन्हीं से लाभ लें? यदि भण्डार तो दीमक और मिट्टी के भोज्य बन ही चुके हैं। हमने प्रचलित रीति से किसी नई शोध का प्रारम्भ किया
प्राचीन पूर्वाचार्य बड़े साधक थे उन्होंने स्वय को शुद्ध तो निःसन्देह हमारा जीवन उसी मे निकल जायगा और किया और खोजकर हमें आत्म-शुद्धि के साधन दिए। अपनी शोध-आत्म-शोध कुछ भी न कर सकेंगे। बस, बाज भण्डारों से पूर्वाचार्यों कृत इतने ग्रंथ प्रकाश में मा हमने उसमें हाथ न डाला। अब यह बात दूसरी है कि चके है कि अपना नया कुछ लिखने-खोजने की जरूरत ही परिस्थितियों वश हम अपनी उतनी खोज न कर सके, नहीं रही। हम प्रकाश में आए हुए मूल ग्रंथों का तो जितनी चाहिए थी। फिर भी हमें सतोष है कि हम जो जीवन मे उपयोग न करें और मनमानी नई पर-खोजो में हैं, जैसे हैं, ठीक हैं। पूर्वाचार्यों की शोध में संतुष्ट, आस्थाजुटे रहें, वह भी दूसरों के लिए। यह कहां की बुद्धिमानी वान और विवादास्पद एकांगी शोधों से दूर ।
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१२ वर्ष ३७, कि०४
क्या कहें ? शोध पौर संभाल की बातें? एक दिन वाद करें। हम तो उत्तम लेख देना चाहते है। हमें खुशी एक सज्जन आ गए। बातें चलती रही कि बीच में- है कि हमारी कमेटी उपयोगी व शोधपूर्ण लेखों के लिए बिखरे वैभव की रक्षा और शोध का प्रसंग छिड़ गया। वे कुछ पुरस्कार देने पर भी विचार कर रही है। शायद बोले-पंडित जी, क्या बताएं? मैं अमुक स्थान पर गया। इससे आत्मोपयोगी और चारित्र की दिशा में ले जाने वाले कितना मनोरम पहाड़ी प्रदेश है वह, कि क्या कहूं? मैंने लेख मिल सके देखा वहां हमारी प्राचीन सुन्दर खंडित-अखडित मूर्तियों
एक हितैषी ने लिखा है-आप ने अनेकान्त को पुनका वैभव विखरा पड़ा है, कोई उसकी शोध-संभाल करने ___ रुज्जीवित किया है, इसे स्व० मुख्तार साहब के स्तर तक वाला नही-बड़ा दुख होता है इस समाज की ऐसी दशा पहुंचाना है-इसे आध्यात्मिकता दें। कुछ लोग चाहते हैंको देखकर । वे चेहरे की प्राकृति से, अपने को बड़ा दुखी
इसे सरल और बालोपयोगी बनाया जाय-जैसे कुछ चित्र जैसा प्रकट कर रहे थे, जैसे सारी समाज का दुख-दर्द
कथाए आदि आदि। हमें सभी को आदर देना है।
कथाए आदि आदि। हमे स उन्हीं ने समेट लिया हो।
लोक भिन्न-भिन्न रुचि वाला है जो जैसा चाहता है, बस, इतने में क्या हुआ कि सहसा उन्होंने पाकिट से ठीक है-अपनी-अपनी दृष्टि है। पर, हमें यह मानकर सिगरेट निकाली, माचिस जलाने को तैयार हुए कि मुझसे चलना चाहिए कि सभी महावीर नही हो सकते और न न रहा गया-मन ने सोचा, वाह रे इनका प्राचीन वैभव। सभी मुख्तार सा० । महावीर भगवान थे और मुख्तार वचनों ने तुरन्त कहा-'कृपा करके बाहर जाकर पीजिए।' सा० स्वाश्रित, स्वाधीन । उनके युग में जो जैसा हुआ, वे सहमे । जैसे शायद उस क्षण उन्हें अपनी शोध-संभाल उचित हुआ। हमें भी युगानुरूप उचित करना चाहिए। का ध्यान आया हो--क्षण भर के लिए ही सही। वे हमारी दृष्टि तो आज चारित्र पर बल देने और सैद्धान्तिक विरमत हुए और बात समाप्त हो गई। मैंने सोचा-काश, विषयों के प्रतिपादन की है। ये जो हमारी अर्थ के प्रति ये अन्य शोध-संभालो के बजाय आत्म-शोध करते होते। दौड़ है उसे सीमित होना चाहिए। ऐसा न हो कि धर्मआप इस प्रसंग में कैमा क्या सोचते हैं, जरा सोचिए। मार्ग सर्वथा ही अर्थ-मार्ग बन जाय और धर्म शिथिल हो
जब देश में हिंसा का वातावरण बन रहा है, लोग जाय-जैसा कि आज हो रहा है। कई लोग तो स्वय को मछली-पालन और पोल्ट्रीज फार्म कायम करने जैसे धन्धों अर्थ लाभ न होने पर सस्थाओ की बुराई करने तक पर द्वारा जीवो के वध में लगे हैं तब कुछ लोग उस वध के उतर आते देखे गये हैं । खेद ! निषेध में भी लगे हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो पशु-पक्षियों पर हम निवेदन कर दें कि यह अनेकान्त के ३७वें वर्ष रिसर्च कर ग्रन्थों के निर्माण में लगे हैं। गोया, अनजाने की अंतिम किरण है। इस बीते वर्ष मे हम स्खलित भी में वे मांस-भक्षियों को विविध जीवो की जानकारी दे रहे हुए होगे जिसका दोष हमारे माथे है। हम यह भी जान हों, क्योंकि परमाणु खोज की भांति उसमें भी जीवरक्षा रहे हैं कि जो मोती चुनकर हम देते रहे हैं उनके पारखी की गारण्टी नही है-मांस भक्षी ऐसी जानकारी का दुरुप- थोड़े ही होंगे। एक-एक मोती चुनने में कितनी शक्ति योग भी कर सकते हैं। हमने बहुत से आफसैट पोस्टरो लगानी होती है इसे भी कम लोग ही जानते होंगे। धर्म को देखा है, जो प्लेट पर अण्डे की जर्दी लगाकर छापे और तत्त्वज्ञानशून्य वर्ग तो हमारे कार्य को निष्फल मानने जाते हैं। अहिंसा के पुजारी बनने वाले कतिपय प्रचारक का दुःसाहस भी करता होगा। पर, इसकी हमें चिंता इसी विधि के पोस्टर बनाने-बनवाने में सन्नद्ध हैं, आदि। नही। यतः सभी हंस नही होते । हाँ, एक बात और,
एक सज्जन हैं जो हमें बारम्बार लिख रहे हैं कि अब तक हमारे संपादक मंडल, महासचिव, संस्था की अमुक विषय पुराना है, ये सन् ४१ मे छपने के बाद दुबारा कमेटी आदि ने हमे पूरा २ सहयोग दिया है। लेखकों के छप गया है-इसका आप प्रतिवाद करे आदि । हम नहीं सहयोग से तो पत्रिका को जीवन ही मिलता रहा है। समझ पा रहे कि किसका समर्थन करें और किसका प्रति- हम सभी के आभारी हैं।
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वीर सेवा मन्दिर की वर्तमान कार्यकारिणी
१. साहू श्री अशोक कुमार जैन १. न्यायमूर्ति श्री मांगीलाल जैन
अध्यक्ष उपाध्यक्ष
उपाध्यक्ष महासचिव सचिव
१, सरदार पटेल मार्ग, नई दिल्ली ३०, तुगलक कीसेन्ट, तुगलक रोड,
नई दिल्ली ३, रामनगर (पहाड़गंज) नई दिल्ली १६ दरियागंज, नई दिल्ली-२ ३, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली २/१०, अंसारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली ७/३५, दरियागंज, नई दिल्ली ४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली २३, दरियागंज, नई दिल्ली बी-४५/४७, कनाट प्लेस, नई दिल्ली १, अंसारी रोड, नई दिल्ली अजित भवन, २१-ए, दरियागज, नई दिल्ली
३. श्री गोकुल प्रसाद जैन ४. श्री सुभाष जैन ५. श्री चक्रेशकुमार जैन
श्री बाबूलाल जैन ७. श्री नन्हेंमल जैन ८. श्री इन्दरसेन जैन ६. श्री ओमप्रकाश जैन १०. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ११. श्री भारतभूषण जैन १२. श्री विमल प्रसाद जैन १३. श्री अजित प्रसाद जैन १४. श्री अनिल कुमार जैन १५. श्री रत्नत्रयधारी जैन १६. श्री दिग्दर्शन चरण जैन १७. श्री मल्लिनाथ जैन १८. श्री मदनलाल जैन
कोषाध्यक्ष सदस्य
२७७० कुतुब रोड, सदर, दिल्ली ५, अल्का जनपथ लेन, नई दिल्ली ज्ञान प्रकाशन, २१ दरियागंज, नई दिल्ली १, दरियागंज, नई दिल्ली सी ६-५८, डवलपमेंट एरिया सफदरजंग,
नई दिल्ली ७/२३, दरियागंज, नई दिल्ली ४६४१-ए/२४ दरियागंज, नई दिल्ली प्लाट नं० ४, भोगावीर कालोनी लंका, वाराणसी
१६. श्री दरयाव सिंह जैन २०. श्री नरेन्द्र कुमार जैन २१. डा० दरबारी लाल कोठिया नोट-क्रमांक १५ का दि० २२-१०-८४ को स्वर्गवास हो गया।
[आवरण दो का शेष] यदि प्रचार की प्रक्रिया को सफल बनाना है तो धनिकवर्ग को भी यश-लिप्सा और पद-लोलुपता से विरक्त होना होगा और ऐसे विद्वानों को तैयार करने में धन लगाना होगा जो मन वचन-काय सभी भांति से धर्म की मूर्ति हों-जिनके आचार-विचार सभी में जिनवाणी मूर्त हो और जिन्हें अर्थ के लिए परमुखापेक्षी म होना पड़े। जब तक धन के ऊपर ज्ञानका प्रभुत्व था तब तक धर्म की बढ़वारी रही और जिस दिन से ज्ञान के ऊपर धन का प्रभुत्व हुला; धर्म पंगु होता चला गया। अत:-बन्धुवर, आवश्यकता इस बात की है कि समाज मे सच्चे विद्वान, त्यागी और निःस्पृही तत्त्वों को बढ़ाया जाय, उन्हें प्रश्रय दिया जाय और उनसे मार्ग दर्शन लिया जाय । विद्वानों का भी कर्तव्य है कि वे अपने आचार में दृढ़ रह जिनवाणी की उपासना के श्रम को सार्थक करें और धर्म की बढ़वारी करें चाहे सर्वस्व अर्पण ही क्यों न करना पड़े। आशा है, हमारी और समाज की दिशा बदलेगी और सभी इसी भांति वह सबबुछ पा सकेंगे जिसकी उन्हें चाह है। इससे यश चाहने वालों को अट्ट यश मिल सकेगा और स्व तथा पर सभी को सुख और शान्ति भी।
--सम्पादक
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________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10.591/62 वार-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन समीचीन धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगल किशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य चौर गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... जैनमन्व-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1: संस्कृत और प्राकृत के 171 अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द / ... नग्राम-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2: अपभ्रंश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह / पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित / सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। 15... समाधितन्त्र और इष्टोपवेश प्रध्यात्मकृति, 10 परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... ग्याव-दीपिका : प्रा० अभिनव धर्ममूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु। 10.00 जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / कसायपाहुबसुत: मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर धी पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे / सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1000 से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द / 25... जैन निबन्ध-रत्नावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित):संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री 12.00 भावक धर्म संहिता :श्री दरयावसिंह सोषिया बैन लक्षणावली (तीन भागों में): स.पं. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्रा प्रत्येक भाग 4... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पनचन्द्र शास्त्री, बहुचित सात विषयों पर शास्त्रीय प्रमाणयुक्त तर्कपूर्ण विवेचन / प्राक्कथन : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित 2-00 Jain Monoments: टी. एन. रामचन्द्रन 15.00 Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of JainReferences.) In two Vol. (P. 1942) Per set 600-00 आजीवन सदस्यता शुल्क : 101.00 10 वार्षिक मूल्य : 6) 20, इस अंक का मूल्य : 1 रुपया 50 पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। सम्पादक परामर्श मण्डल--डाज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-श्री पन्द्र शास्त्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बादर्स प्रिटिंग प्रेस के-१२, नवीन शाहदरा दिल्ली-१२ से मुद्रित /