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________________ २०१७कि०२ जाना पुनः कोई प्रशम रस सहित सुन्दर मनुज है, फिर बाद में जाना तुम्हें सिद्धार्थ का यह तनुज है ॥३२॥ सुरवृन्द ने अब नाप बरसा अचित पुष्पों की करी, चारों दिशाएं बनी सुरभित . खिज उठो पूरी मही। स्थादाद सुन्दर वचन रचना की मरी इकदम लगी, जनता मूदित मन हो तुरत जय घोष कर नचने लगी ॥३२॥ हे नाथ ! तेरी वह अलौकिक देशना जगहित खिरी, पीयूष सी परिणत हई सब जीव भाषा में ढरी। सब ऋद्धि सिद्धि तथा गुणों की बृद्धिकर्ता वह बनी, हे वीर ! सगरी पीर हर निज भक्त शिवदाता बनी।।३॥ गोदुग्ध-जल-शशि-कुन्द-हिम-मणिहार-सम उज्ज्वल सही, चामर गगन तल लसित मानों प्रकट करते हैं यही । है ध्यान इस ही प्रभु का सित कोई न ऐसा देव है, सर्वज्ञ है यह, यही नाशक कर्म का स्वयमेव है॥३४॥ आकर अवनि पर अमरपति ने तथा मुनिपति ने प्रभो! संस्तुति करी निजशक्ति भर तव प्रभा मंडल की विभो ! उस मोह तिमिर विनाशकारक दीप्तिमंडल के निकट, बस ध्वान्तनाशक सूर्य की समता न घटती, रंचभर ॥३५॥ यह जिन विकट विधि बन्द भट का है विजेता एक ही। अतिशय बली तीनों भुवन का नाथ है यह एक ही। बस इसलिए हे भव्य ! तुम जाओ इसी के मार्ग में, बजता सुनाता घोषणा यह दुन्दुभी नभ मार्ग में ॥३६॥ जो है सकल मंगल विधाता मोद का जो स्थान है, जिसकी विमल आभा निरख शारद शशी भी म्लान है। ऐसा तिहारा नाथ! छत्रत्रय जताता है यही, कल्याण कारक रत्नत्रय प्रभपद प्रदाता है सही ॥३७॥ हे नाथ! ऐसा ही अनोखा आपमें अतिशय भरा, जो पाद पंकज की तरे की विषम सम बनती धरा। फूलै फलें सब साथ ऋतुएं सुखी भी सब जम बनें, इससे तिहारे पाद रुजको कल्पतरु ही हम गिनें ॥३॥ है दिव्यवाणी नाथ ! तेरी सद्गुणावलि दिव्य है, है दिव्ययश, है दिव्य समता और प्रभुता दिव्य है। समता त्रिजग में इन गुणों की कहीं भी मिलती नहीं, रवि सी चमक होती नही तासगणों में सच कहीं ॥३६॥ तब दिव्य-महिमा निरखकर सूर असूर किन्नर नर सभी, हे नाथ! तेरी भारती पीयूष सी पीते जभी ।
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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