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________________ पावनिक हिंसा : स्याद्वाव साथ-साथ उनकी संख्या इतनी अधिक होती है कि प्रत्येक मे उपयोगी है इसके बिना किसी भी प्रकार का लोक का स्पष्टीकरण संभव भी नहीं है। जैन स्यावाद को व्यवहार नही चल सकता । लोक में जितना भी व्यवहार तुलना कभी-कभी पाश्चात्य सापेक्षवाद (Theory of होता है वह सब आपेक्षिक व्यवहार का नाम ही Relativity) से भी की जाती है । सापेक्षवाद दो प्रकार स्याद्वाद है। पिता, पुत्र, माता, पली आदि व्यवहार भी होता है-विज्ञानवादी और वस्तुवादी। जैन मत को यदि किसी निश्चित अपेक्षा से ही है। अतः अनेक विरोधी सापेक्षवाद माना जाय तो वह वस्तुवादी सापेक्षवाद होगा विचारों का समन्वय किये बिना लौकिक जीवन यात्रा क्योकि जैन दार्शनिक मानते है कि यद्यपि ज्ञान सापेक्ष है भी नही बन सकती है। विरोधी विचार मे समन्वय के फिर भी यह केवल मन पर निर्भर नही, बल्कि वस्तुओ के अभाव में सदा विवाद और सघर्ष होते रहेंगे तथा विवाद धर्मों पर भी निर्भर है । स्याद्वाद सिद्धात से यह स्पष्ट है या संघर्ष का अन्त तभी होगा जव स्याद्वाद के अनुसार कि जैनों की दृष्टि बड़ी उदार है । जैन अन्यान्य दार्शनिक सब अपने २ दृष्टिकोणो के साथ दूसरे के दृष्टिकोणों का विचारो को नगण्य नही समझते, वल्कि अन्य दृष्टियों से भी आदर करेंगे । अनेकान्त दर्शन से मानस समता और उन्हे भी सत्य मानते हैं । भिन्न-भिन्न दर्शनो मे ससार के विचार शुद्धि होती है तथा स्याद्वाद से वाणी मे समन्वयभिन्न-भिन्न वर्णन पाये जाते हैं । इसका कारण है कि वृत्ति और निर्दोषता आती है। इसलिए आचार्य समन्तभद्र उनमे एक दृष्टि नही है । दृष्टिभेद के कारण ही उनमें 'स्यात्कार सत्य लाञ्छनः" कहकर स्यावाद को सत्य का मतभेद पाया जाता है। चिन्ह या प्रतीक बतलाया है। स्याद्वाद विभिन्न दृष्टिकोण से वस्तु का प्रतिपादन विरोधी धर्म से सापेक्ष होने के कारण ही आपने करके पूरी वस्तु पर एक ही धर्म के पूर्ण अधिकार का शब्द विरुद्ध धर्मो युक्त वस्तु का स्पर्श करते हैं क्योंकि निषेध करता है । वह कहता है कि वस्तु पर सब धर्मों का स्याद्वाद की मुद्रा से रहित शब्द वस्तु के एकदेश में ही समान रूप से अधिकार है । विशेषता केवल यही है कि शक्ति के बिखर जाने से स्खलित हो जाते हैं ऐसा आचार्य जिस समय जिस धर्म के प्रतिपादन की विवक्षा होती है अमृतचन्द्र भगवन् की स्तुति करते हुए कहते हैं।" स्याद्वाद उस समय उस धर्म की मुख्य रूप से ग्रहण करके अन्य पदार्थों के जानने की एक दृष्टिमात्र है । स्यावाद स्वयं अविवक्षित धर्मों को गौण कर दिया जाता है। आचार्य अन्तिम सत्य नही है। यह हमें अन्तिम सत्य तक पहुंचाने अमृतचन्द ने एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा स्याद्वाद की प्रति- के लिए केवल मार्ग दर्शन का काम करता है। स्याद्वाद पादन शैली को बताया है कि जिस प्रकार दधि मन्थन से केवल व्यवहार सत्य के जानने मे उपस्थित होने वाले करने वाली गोपी मथानी की रस्सी के एक छोर को विरोधों का ही समन्वय किया जा सकता है इसलिए जैन खीचती है और दूसरे छोर को ढीला कर देती है तथा दर्शनक रो ने स्याद्वाद को व्यवहार सत्य माना है। व्यवरस्सी के आकर्षण और शिथिलीकरण के द्वारा दधि का हार सत्य के आगे भी जैन सिद्धान्त में निरपेक्ष सत्य माना मन्थन करके इष्ट तत्व घृत को प्राप्त करती है उसी गया है जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में केवल ज्ञान के प्रकार स्याद्वाद नीति मी एक धर्म के आकर्षण और शेष नाम से कहा जाता है। धमो के शिथिलीकरण द्वारा अनेकान्तात्मक अर्थ भी सिद्ध इस प्रकार जैन दर्शन में जहां आचार में अहिंसा को करती है। प्रधानता दी गई है उसी प्रकार वैचारिक अहिंसा पर भी स्यादाद का सिद्धान्त सुव्यवस्थित और व्यावहारिक बल दिया गया है जो स्याद्वाद के सिद्धान्त के रूप में अवहै। वह अनन्तधर्मात्क वस्तु की विभिन्न दृष्टिकोणों से तरित होकर मानव मात्र को समीचीन पथ पर अग्रसित व्यवस्था करता है तथा उस व्यवस्था में किसी प्रमाण से करके तथा एकान्त पथ से विमुख करके वस्तु के वास्तबाधा नहीं भाती अतः वह सुव्यवस्थित है । इसके साथ विक स्वरूप का प्रतिबोध कराता है। ही स्यावाद व्यावहारिक भी है। वह सदाकाल निकट जैन मन्दिर, बिजनौर (उ०प्र०)
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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