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"पांच प्रश्व"
डा० (कुमारी) सविता जैन मैं समझी थी जब शान्त हुआ मन,
गिरी धरा पर अकुलाई । तभी क्रोध की ज्वाला भभकी।
विवेक बुद्धि लड़खड़ा उठी थी, तन-मन झलसा दावानल में,
गिर कर उठने भी न पाई॥ और शिराएं तड़की-चटकीं ॥
जिनको अब तक पुचकारा था, लो, गिरा उगलने लगी विष-वचन,
आज मुझी पर हावी थे वे । वर्षों का संयम टूट उठा ।
जिनको अब तक बांध रखा था, आँधी, पानी, तूफान को समता
आज मुझे वे बाँध रहे थे । से सहने का भाव बह चला ।।
तब समझी इन्द्रियों की ज्वाला, मैं समझी थी इन्द्रिय के घोड़े,
बुझा न सकते सात समुन्दर । सभी कर चुकी हूँ मैं बस में ।
हर छींटा पावक में घृत-सा, बड़ी शान से चढ़ बैठी थी,
और उन्हें नित उकसाता है । पांच अश्व वाले उस रथ में ॥
तेज हवाओं के झोकों से, सहसा लगाम छूटी व्याकुल हो
और उन्हें नित भड़काता है ॥
7/35, दरियागंज, नई दिल्ली
(पेज २४ का मेषांश) १७. यदर्थमात्रापदवाक्यहीनम, गयाप्रसादाद्यदि किंचनोक्तम् माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्री यसाकीतिदेवा
तन्मे क्षमित्वा विधातुदेवी सरस्वती केवल बोधलब्धिम् तत्पपदे भट्टारक श्री मलयकीर्तिदेवा तत्पदे भट्टारक भावना द्वात्रिंशतिका : पद्य १०.
श्रीणभद्रसूरिदेणः तदाम्नायं अग्रवालान्वये गोइलगोत्रे १८. अमरसेन चरिउ सन्धि १ कड्वक ४-५ मे देवराज
सुवर्णपथि वाक्तव्यं । जिणपूजा-पोरन्दरी कृपवान् की पूर्ववर्ती तीन पीढ़ियों का तथा सन्धि ७, कडवक
साधु छल्ह तस्य भार्या सीलतोयतरंगिणी साध्वी १२, १३, १४, १५ में सम्पूर्ण वशावलि का सतिस्तार
करमचंदही...."चउ प्रकारादि दान दिसतु साधुवाद वर्णन किया गया है।
तेन इदं अमरसेण सास्त्र लिखायितं । ज्ञानावरणी १६. रइधू ग्रंथावलि : पासणाहचरिउ; सन्धि १, कड़वक ३ कर्म क्षयार्थ ।। वही : अन्तिम पृष्ठ (प्रशस्ति) २०. अमरसेनचरिउ: १. कड़वक ३ यमक ४-१६ और २३. माणिक्कराज वज्जिय गएण तं पुण्णु करेय्यिणु एह धत्ता ३।
गथु टोडरमलहत्थें दियणु सुत्यु णियसिरह चडाविउ २१. विक्कमरायह ववगइ कालई लेसु मुणीस वि सर
तेण गथु पुण तुहइ ठोडर हियद् गंथि दाणे सेयं सह अंकालइं धरणि सह चइत वि माणे सणिवार सुय
करपणु त पि पंडिउ बर यहहि कविउ तेण पुनगु पंचमि दिवसे २१ कित्तिय णक्खत्ते सुप जोयं हुत
सम्माणिउ बहु उच्छवेण वर वत्यई कंकण कुण्डलेहि पुहणउ सुत्त विसुह जोय बदी: सधि ७ कड़वक १५
अंगुलियहि मुहियणिय करेहिं पुज्जिउ आहारणहि यमक १३-१५
पुणु तुरंतु छरिरोवि वि साजिउ वि णयणिरुत्तु मउ २२. अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्री नृप विक्रमादित्य गताब्दः
णिय घरि पंडिउ गंथु तेण जिणगेहि णियउ वह संवत् (१५७७) वर्षे कार्तिक वदि ४ रवि दिने कुरु
उच्छवेण सिरिणायकुमार चरिउ : वही प्रशस्ति, जांगलदेशे श्री सुवर्णपथ शुभस्थाने श्री कालसंधे यम १२३-१२४ ।