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३७ कि.४
अनेकान्त
सिरि हेमकित्ति जि हयउ णाणु । तहु पहवि कुमरविसेणु णामु ।। णिग्गंथु दयालउ जइ वरिहु । जि कहिउ जिणागम भउ सुहु ।। तह पहिणि विहउ वह पहाणु । सिरि हेमचन्दु मय तिमिरभाणु ॥ त यह धुरधरु वष पपीणु। वर पोमणांदि जो तवह खीणु ॥ तं पणविवि णियगुरु सीलक्षाणि । णिग्गंथु दयालउ अमियवाणि ॥
सन्धि १, कड़वक २, यमक ४।१३; ३.जि मच्छरु मोह वि वि परिहरियउ ।
सुहयझाणि जे णियमणु धरिपउ ।। हेमचन्दु आयरिउ बरिट्ठउ । तह सीसु नि तवतेय गरिठ्ठउ । पोमणांधर णादउ मुणिवरु। देवणांदि तछु सीसु महीवरु॥ एयारह पडिमउ घारंतउ । रायरोसमयमोह हणंतउ । सुहझाणे उपसमु भावतउ । णदउ वभलोलु समवतउ ।।
सन्धि ७, कड़वक ११, यमक ६-१०; ४. तह पासजिणेदह गिहरवयण । वे पंडिय णिवसहि कणयवएण । गरुवउ जसमलु गुदागणनिहाणु । वीयउ लहुबंधउ तच्चजाणु ॥ सिरि संतिदासु गन्धत्थ जाणु। चच्चइ सिरि पारसु विमयमाणु ॥
वही, यमक ११-१३; ५. सिद्धत अत्थ भावियमणेण ।
पुरयण सुहयारउ सुरधघुणेण ।। तंह दिद्वउ पुणु सूरसइणिवासु । माणिक्कराजु जिणगुरहं दासु ॥ तेणवि सभासणु कियउ तासु । जो गोठि पचासइ बहुसुयासु ॥ तं जिण अचण पसरिय भुवेण । अविखउ वुह सूरा सांदणोण ।। भो माणिक पडिय, सील अखडिय,
६. अनेकान्त : वर्ष १०, किरण ४-५ पृष्ठ १६० । ७. तहिं णिवसइ पंडिउ सत्थखणि । सिरि जयसवाल कुलकमलतरणि ।। इक्खाकुवस महियलि वरिहु । वुहसूरा सांदणु सुयगरिहु । उप्पएणउ दीवा उरि खण्णु । वह माणिकु णामे वुहहि मएणु ॥ आमेरशास्त्र भडार सम्प्रति जैन विद्या संस्थान, श्री महावीर जी, वे० स० ५२१, ८. रुहियासु वि णामे भणिउ इहु ।
अरियण जणाह हिय सल्लु कहु ॥
अमरसेन चरिउ, सन्धि १, कड़वक ३, यमक ३; ६. रोहियासिपुरवासि सयललोउ सहणादउ ।
वही; सन्धि ७, पत्ता ११; १०. वही : सन्धि १, कड़वक ३, यमक ४-१६ और
घत्ता३; ११. रइधू ग्रन्थावलि . पासणाहचरिउ : सन्धि १,
कड़वक ३; १२. आयरिय परम्परा जैत दुद्ध जिणचन्द वि सूर सिद्ध
लहु सुन्तु पिक्त्वि ललियक्त्वरेण मणि माणिविक किउ सुहगिरेण अमरसेनचरिउ : सन्धि ७, कड़वक १०,
यमक ८-६, १३. सुपमाए विरुद्धउ भासिउ ।
तं सरसइ महु खमह भंडारी वीर जिणहो मुहणिण्णय सारी॥
वही : कड़वक १५ यमक ७-८%; १४. णायकुमारचरिउ : वही, पत्र १२३-१२४; प्रशस्ति
भाग । १५. हेमपोम आयरिय विसंसि वभज्जु ण गुणगणिण णिहीसि
मइ कस वहिय वण्ण धरेप्पिणु कव्वेसु वपणहु लोहवि देप्पणु ॥
अमरसेनचरिउ : सन्धि ७, कड़वक १५, यमक ९-१०; १६. विरयउ एहु चरित्तु सुवुद्धिए।
जइयहु अत्थमन्थ हीणउ हुउ ॥ तामहु दोसु भन्दु म गछउ कोई । विणवइ माणिकु कइ इम ।। मझु खमंतु विवह सव्ववि तिम । अण्णु वि अमुणते हीणाहिउ । मइ जलेण जं कायमि साहिउ । त जि खमउ सुयदेवि भंडारी। सिरि णायकुमार चरिउ : वही पत्र १२३-१२४ ।
समवत
सन्धि १, कड़वक ६, यमक ४-७, और धत्ता १;