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एक महत्वपूर्ण अप्रकाशित अपना समरसेन परित था इसकी भार्या का नाम था रामाही । इन दोनों के बार अपनी रचना अमरसेन-वरिउ में उपयोग करने से भी पुत्र हुए थे-मल्ल, चंदु वीणकंठ और लाउड़ । इन चारों यही तथ्य प्राप्त होता है। में मल्लु की कुलचंदही नाम की भार्या थी और इन दोनों रचना काल :-इस अन्य के पूर्ण होने का समय
कीतिसिन्धु नाम का पुत्र हुआ था। चंदु की भार्या थी वि० सं० १५७६ चैत्र सुदी पंचमी शमिवार, कृत्तिका लूणाही। इन दोनों के मदनसिंह नाम का पुत्र हुआ था। नशत्र बताया गया है।" प्रस्तुत प्रति प्रब की रचना की वीणकंठ की पीमाही नाम की भार्या थी और नरसिंधु रचना पूर्ण होने के एक वर्ष बाद की प्रतिलिपि हैं। इसे इनका पुत्र था । लाडण की भार्या का नाम था वीवो। विक्रम सवत् १५७७ की कार्तिक वदि रविवार के दिन इन दोनों के दो यत्र हुए थे-जोगा और लक्ष्मण । जोगा कुरुजांगल देश के सुवर्णपथ (सोनीपत) नाम नाम के नगर की भार्या का नाम था दीदाही और लक्ष्मण की भार्या का में काष्ठाषघ के माथुरान्वय-पुष्करगण के भट्टारक गुणभद्र नाम था मल्लाही । लक्ष्मण और मल्लाही के हीरू नाम की आम्राय में उक्त नगर के (सोनीपत) निवासी अग्रवाल का एक पुत्र हुआ था।
वशी, गोयल गोत्री, पौरदरी जिन पूजा (इन्द्रध्वज विधान) ताल्हू इस बश मे देवराज चौधरी का चाछा था। के कर्ता साहू छल्हू के पुत्र साहू बाटू ने इस अमरसेन साल्हू की भार्या का नाम बालाही था। इन दोनों के दो चरित्र शास्उ शास्त्र की प्रतिलिपि की थी।" पुत्र हुए थे-पप्रकांत और देवदास । पद्मकांत की इच्छा- इस ग्रंथ की रचना रोहतक नगर में तथा प्रतिलिपि वती नाम की भार्या थी। इन दोनों के महदास नाम का सोनीपत नगर में होने से यह प्रमाणित होता है कि सोनीपुत्र युआ था। देवदास की भार्या का नाम रुधारणही पत के शास्त्रभण्डार में इस ग्रन्थ की प्रति अवश्य होगी। था। धणमलु देवदास का पुत्र था । धणमल की गज- सोसीपत के धार्मिक पदाधिकारियों से निवेदन है कि लेखक मल्लाही नाम की भार्या थी। इन दोनों के वायमल्लु नाम को उक्त प्रति की उपलब्धि से अवगत कराने की कृपा करें। का पुत्र हुआ था।
विक्रम सं० १५७६ में रचित कवि की अपर कृतिइस प्रकार इस वंश परम्परा मे देवराज चौधरी के नागसेन चरिउ से विदित होता है कि कवि के काल में पूर्व उनके प्रपितामह तक का नामोल्लेख मिलता है और शास्त्रों और शास्त्र-निर्माताओं का समादर पा । शास्त्र बाद की पीढ़ी में तीसरी पीढि तक ।" नामों में स्त्रियों के पूर्ण लिखकर शास्त्र लिखाने वालों को जब हाथों में देते नाम 'ही' से अन्त हुए हैं। इस वश के सभी लोग चौधरी तब वे शास्त्रों को सिर पर चढ़ाते थे। उत्सव मनाते थे। कहे गए हैं जिससे प्रतीत होता है कि सम्भवतः यह इस और शास्त्र-निर्मातामों को वस्त्र, ककण, कुण्डल, मुद्रिकादि बंश के विरुद्ध रहा।
देकर बहु प्रकार से सम्मानित करते थे। कषि माणिक्कइस वंश परम्परा मे चचेक भाई के नाती का भी राज को भी ऐसा सन्मान प्राप्त हुआ था। उस समय उल्लेख होने से ज्ञात होता है कि यह रचना उनकी वृद्धा- के लोगों की यह गुणग्राहिता सराहनीय है। वस्था में लिखी गई होगी। कवि रइध कृत पंक्तियों का
जैनविद्यासंस्थान, श्रीमहावीरजी (राजस्थान)
संवर्भ-सूची १. देखिये जैन विद्या-स्वयभू विशेषांक (जन विद्या उद्धरिय भम्ब जे सम वि सत्त ।।
संस्थान, श्री महावीर जी द्वारा प्रकाशित) अप्रैल संतइतयताहं मुणि • गच्छणाहु । १९८४ में प्रकाशित लेखक का लेख-"स्वयम्भू-छन्द गयरायदोस संजइव साहु ॥ एक समीक्षात्मक अध्ययन।"
जें ईरिय अंत्यह कह पवीणु । २. हु बहु सदत्यह सुइ णिहाए।
णियमाणे परमप्पयह लीण। विहं दुबरु णिज्जित पंचवाणु ।
तवतेयणियत्तणु कियउ रवीण । विपणाण कलालय पारुपत्त ।
सिरि खेमकित्त पद्धिहि प्रवीणु ॥