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________________ मात्म अनुभव कैसे हो? श्री बाबूलाल जी वक्ता, पहले आत्मा के बारे में जानकारी करे उसे शास्त्रों वाले से शरीर की क्रिया भिन्न है। यह प्रेक्टिकल पकड़ के द्वारा, जिसमें उसका वर्णन है वहाँ से जाने। परन्तु में आना चाहिए, जब ऐसा पकड़ में आयेगा तब जानने यह समझकर चलना होगा कि अभी आत्मा के बारे में वाला अलग हो जायेगा। जाना है अभी आत्मा को नहीं जाना है। अ.त्मा को इसी प्रकार मन में जो भी विकल्प उठते हैं अथवा जानना औरवात्मा के बारे में जानना इममें बहुत बड़ा क्रोधादि भाव होते हैं वहां पर भी दस मिनट के लिए हमें अन्तर है। जिन्होंने आत्मा के बारे में जानने को ही आत्म- उन विकल्पो को देखना है जैसे हमे किसी को बताना है शान समझा है वे आत्मा को नहीं जान सकते और आत्मा अथवा कागज पर नोट करना है, ऐसा सोचकर चले । के बारे में जो जानकारी करी है उसका अहकार भी पैदा यहाँ पर भी मन को शांत कर देना चाहिए । अच्छा हुए बिना नहीं रहेगा। वह पण्डित विद्वान हो सकता है विकल्प हुआ अथवा बुरा हुआ इसका सवाल नही है । आत्मशानी नहीं। आत्म ज्ञानी होने के लिए आत्मा को मवाल है जो भी विकल्प उठे वह हमारी जानकारी में हो जानना जरूरी है। आत्मा के बारे में जानना थ्योरीकल और उसको देखने पर जोर रखे । अगर यह अभ्यास किया ज्ञान है । आत्मा को जानना प्रेक्टिकल ज्ञान है । जाए तो विकल्प अलग हो जाएगा और जानने वाला मात्मा के बारे में जानकर अन्तरंग में उसके लक्षण अलग हो जायेगा। फिर विकल्प और शरीर की क्रिया में को पकड़कर पहचानने की चेष्टा करे । शरीर मे मिलान अपना अस्तित्व नहीं मालूम देगा। अपना सर्वस्व तो करें। जाननापना लक्षण शरीर में नहीं है। आत्मा का जानने वाले मे स्थापित करना है। इस प्रकार दोनों से लक्षण चैतन्यपना है याने ज्ञाता-दृष्टापना है। वह लक्षण अलग हटकर जानने वाले मे अपना सर्वस्व स्थापित करने किसी अन्य में नहीं है। फिर मन सम्बन्धी विकारी परि- पर वह तो ज्ञान का मालिक हो जाता है और वे दोनों णामों का अथवा विकलों का समझना है। तीन कार्य कर्म का कार्य रह जाते हैं। एक साथ हो रहे हैं एक शरीर का एक विकारी भावों का इसी के बारे में कहा है कि ज्ञप्ति क्रिया और करोती और एक जानने का। उस जानने वाले को पकड़ने का क्रिया दो हैं । भिन्न २ है यद्यपि एक ही समय में है फिर उपाय यह है कि हम ऐसा सोचे कि दस मिनट तक शरीर भी दोनो के कारण अलग अलग है जो ज्ञाता है वह करता में जो भी किया होगी उसे हमें देखते रहना है। वह नहीं और जो करता है वह ज्ञाता नहीं अर्थात् जो जानने हमारी जानकारी में होनी चाहिए जैसे कि हमें किसी को वाला है वह विकल्पों का करता नही और विकल्पों के बताना है कि दस मिनट शरीर की क्या क्या क्रिया हुई करने में लगा है वह ज्ञाता नहीं है। और ऐसी क्रिया होनी चाहिए अथवा अन्य प्रकार की जानने का कर्म ज्ञान का है मन के विकल्प और भाव होनी चाहिए इसका सवाल नही है। यह भी सवाल नही और शरीर की प्रिया कर्म के खाते में है। ज्ञान का कार्य है कि यह ठीक हुई कि ठीक नहीं हुई। सवाल है हमारी भी है कर्म का कार्य भी है। तू ज्ञान का मालिक है, कर्म जानकारी में हो और बस मिनट तक बराबर देखने का का मालिक नही है। ज्ञान को जानने वाले को ही कहा कार्य चालू रखे तो कुछ रोज में आप पायेंगे कि देखने जा रहा है कि अपने को भुला कर कर्म के कार्य का, पाला और शरीर की क्रिया यह दो कार्य है और देखने कर्म का मालिक बना है। उसमें एकत्व मान है उसमे अहम्
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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