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लिखित मंत्र ग्रन्थ में से लेकर लिखा गया है जिससे शात इनके साधु जीवन का बहुमाग लेबन कार्य में ही बीता है, होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रान्त और लेखन कार्य जंगल में विचरण करते हुये मुनि कर में हेमग्राम के निवासी थे। और द्रविड़संघ के अधिपति नहीं सकते । बरसात, आंधी, पानी, हवा आदि में लिखें थे। मद्रास प्रेजीडेन्सी के मलया प्रदेश में "पोन्नूगाँव" को गये पेजों की या ताड़पत्रों की सुरक्षा असंभव है। इससे ही प्राचीनकाल में हेमग्राम कहते थे, और संभवतः वहीं यही निर्णय होता है कि ये आचार्य मन्दिर, मठ, धर्मशाला, कुन्दकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरी पहाड़ पर श्री बसतिका आदि स्थानों पर ही रहते होंगे। एलाचार्य की चरणपादुका बनी हुई है। पं० नेमिचन्द्र
कुछ लोग कह देते हैं कि कुन्दकुन्ददेव अकेले ही जी भी लिखते हैं-"कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के संबंध
य के संबंध आचार्य थे। यह बात भी निराधार है, पहले तो वे संघ में विद्वानों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है....."कि
नायक महान आचार्य गिरनार पर्वत पर संघ सहित ही ये दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता का नाम
पहुंचे थे। दूसरी बात गुवांबली" में श्री गुप्तिगुप्त, भद्रकर्मण्ड और माता का नाम श्रीमती था। इनका जन्म
बाहु आदि से लेकर १०२ आचार्यों की पट्टावली दी है। "कोण्डकुन्दपुर" नामक ग्राम में हुआ था। इस गांव का
• उसमें इन्हें पांचवे पट्ट पर लिया है। यथा-१. श्री दूसरा नाम "कुरमरई" भी कहा गया है यह स्थान पेदध
गुप्तिगुप्त, २. भद्रबाहु, ३. माघनंदी, ४. जिनचन्द्र, ५. नाडु" नामक जिले में है।"
कुन्दकन्द, ६. उमास्वामि आदि । इससे स्पष्ट है कि ६. समय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मतभेद ।
जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया, पश्चात् इन्होंने है। फिर भी डा० ए० एन० उपाध्याय ने इनको ६० सन
उमास्वामि को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात प्रथम शताब्दी का माना है। कुछ भी हो ये आचार्य श्री
नंदिसंधि की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है। भद्रबाहु आचार्य के अनंतर ही हुये हैं यह निश्चित है क्यों
यथा-"४". जिनचन्द्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमा कि इन्होंने प्रवचनसार और अष्टपाड़ में सवस्त्रमुक्ति स्वामि ।" इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान और स्त्रीमुक्ति का अच्छा खंडन किया है।
संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने नंदिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकन्द वि० स्वयं अपने "मूलाचार" में "माभूद मेसत्तु-एगागी" मेरा सं०४६ मे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। ४४ वर्ष की शत्रु भी एकाकी न रहे" ऐसा कहकर पंचम काल में अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने एकाकी रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है। इनके तक वे उस पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी कुल आयु ९५ वर्ष आदर्श जीवन, उपदेश व आदेश से आज के आत्म हितषियों १० महीने १५ दिन की थी।"
को अपना श्रद्धान व जीवन उज्जवल बनाना चाहिए ऐसे आपने आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव का संक्षिप्त जीवन महान जिनधर्म प्रभावक पराम्पराचार्य भगवान श्री कुन्दपरिचय देखा है। इन्होंने अपने साधु जीवन में जितने कृन्ददेव के चरणों में मेरा शत-शत नमोऽस्तु । ग्रंथ लिखे है, उससे सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि
सन्दर्भ-सूचा १. जेनेन्द्रसितांत कोश भाग २, पृ० १२६
७. जैनेन्द्र सि.को. भा०२१०१२७ । २. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा पु० ८. जैनेन्द्र सि.को.१० १२८ । ३६८ ।
६. जै. सि.क.पृ० ३. पुस्तक बही पृ० ३७४ ।
१०. तीर्थकर महावीर पृ० १०१। ४. पु. वही पृ० ३८३ ।
११. जैनधर्म का प्राची इतिहास भाग २ पृ० ८५ । ५. पु. वही ३८७ ।
१२. "तीर्थकर महावीर..." पृ० ३६३ । ६. पु. वही पृ० ४०४ ।
१६. "तीर्थकर"पु०४१।
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